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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका नहीं मिलता। क्योंकि जहां तक हम जानते हैं भारतने सेमिट लोगोंसे ईस्वी पूर्व पाठसौसे पहले लेखनकला नहीं सीखी थी। और ऋग्वेदकालके बहुत बादमें उसने पाषाणके मकान बनाना और नगरों में रहना प्रारम्भ किया था। सुमेरियन लोगोंके द्वारा सिन्धु घाटीमें जिन पत्थरके मकानोंके बनानेका अनुमान किया जाता है, उनका चिन्ह भी नहीं मिलता। और ऋग्वेदका जो सबसे अर्वाचीनकाल माना जाता है उससे भी बहुत सी शताब्दियां बीतने पर हमें द्रविड़ सभ्यताके ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें दर्शन होते हैं। अतः ऋग्वेदकी सभ्यताको द्रविड़ोंकी मानना केवल कल्पना मात्र है।"
ऋग्वैदिक सभ्यतामें द्रविड़ोंके प्रभावको कोरी कल्पना कहकर उड़ा देनेवालोंमें डा. कीथ जैसे अनेक विद्वान थे; क्योंकि उस समय तक, जैसा डा. कीथने लिखा है, भारतमें आर्योगके आगमनसे पूर्वकी किसी उच्च द्रविड़ सभ्यताके विस्तारका कोई चिन्ह लक्षित नहीं हुआ था और सर्वत्र आर्यो का जादू छाया हुआ था। किन्तु यह जादू बीसवीं शतीकी नई खोजोंके फल स्वरूप 'छू मन्तर' हो गया।
अब यह बात मान ली गई है कि आर्यों के भारत प्रवेशके समयसे बहुत सी शताब्दियां पूर्व सिन्धु घाटीमें एक आश्चर्यजनक आर्यपूर्व सेभ्यता वर्तमान थी और वह प्रसिद्ध वैदिककालीन सभ्यतासे उच्चतर थी। पंजाबके माण्टुगुमरी जिलेमें रावीके तटपर स्थित 'हरप्पा' नामक स्थानसे समय-समयपर पृथ्वीसे निकलने वाली सीलोंने, जिनपर अपरिचित लिपि अंकित थी, विद्वानोंके सम्मुख एक समस्या खड़ी कर दी थी, जिसके कारण इन सीलोंको लेकर एक ओर अनेक कल्पनाएँ उठती थी
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