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________________ ६५२ जै० सा० इ० पू० पीठिका $ वर्णन करता है ( क० पा० भा० १, पृ० १२४ ) । एक से लेकर एक एक बढ़ाते हुए सौ तक के पदार्थों का कथन करता है अर्थात् एक से लेकर सौ तक की संख्या पर्यन्त पदार्थ का अन्तर्भाव जिस संख्या अन्तर्गत होता है उसका कथन उस उस संख्या स्थान के अन्तर्गत किया जाता है ( नन्दी०, सू०.४६ १३६ ) | दिगम्बरों के अनुसार इसमें एक लाख । समवा०, सू० चौंसठ हजार पद थे और श्वताम्बरों के अनुसार एक लाख चवालीस हजार थे । पद समवायांग की विषय तालिका स्थानांग के ही अनुरूप है अन्तर यह है कि स्थानांग में एक से लेकर दस स्थानों तक ही विवेचन है तब समवाय में एक से लेकर सौ तक का समवाय प्रतिपादित किया गया है। इसे तीसरे अंग का पूरक कहा जा सकता है । इस अङ्ग का प्रारम्भ इस प्रकार होता है--'सुयं मे आउ ! ते भगवंतेण एवं अक्खायं' । इह खलु समणेण भगवया महावीरेण.... इमें दुवाल संगे गणिपिडगे पण्णत्ते' तं जहा०" आयुष्मन् मैंने सुना उन भगवानने ऐसा कहा 'श्रमण भगवान महाबीरने द्वादशांग गणिपिडग का उपदेश दिया' । यहाँ भगवान मारके चालीस विशेषण दिये गये हैं। आगे बारह अङ्गों के नाम देकर लिखा है -- ' तत्थंण जे से चउत्थे अगे समवापत्ति आहिते तस्स णं यमत्थे पणते, तं जहा । ' ' इनमें से जो चौथा समवाय नाम का श्रङ्ग है उसका यह अर्थ कहा है, प्रथम तीन अङ्गों के आरम्भ में इस प्रकार की उत्थानिका नहीं पाई जाती । यह अंग विविध सूचनाओं और ज्ञातव्य विषयोंसे भरपूर है । इसमें बारहों अंगों की विस्तृत विषय सूची दी हुई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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