SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 735
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आचारांग आदिके बाद ही पढ़ने योग्य है। यह एक उपदेशात्मक तथा कथात्मक संग्रह है जिसमें प्राचीनता की पुट है । इस पर भी एक नियुक्ति है जिसे भद्रबाहु की कहा जाता है। एक चूर्णि है। और शान्ति सूरि तथा नेमिचन्द की संस्कृत टीकाएँ हैं। डा० हर्मन जेकोवीने इसका जर्मनीमें अनुवाद किया था। उसका अंग्रेजी अनुवाद 'सेक्रड बुक आफ दी ईस्ट' नामक ग्रन्थ माला की ४५ वीं जिल्दमे सूत्रकृनांगके अनुवादके साथ प्रकाशित हुआ है। पिण्ड नियुक्ति या ओघ नियुक्तिको चौथा मूलसूत्र माना जाता है । परम्परासे इन्हें भी भद्रबाहुकी कृति कहा जाता है । पिण्डका अर्थ भोजन है। अतः पिण्ड नियुक्तिमें भोजन सम्बन्धी उद्गम, उत्पादन, एषणा आदिका कथन है। कहा जाता है कि दशवैकालिक सूत्रमें पिण्डैषणा नामक पांचवा अध्ययन है । उसी को नियुक्तिको बड़ा हो जानेके कारण अलग करके पिण्ड नियुक्ति नाम दे दिया गया। ओपनियुक्तिमें मुख्यरूप में चरित्रका कथन है । इसमें चरण सत्तरी, प्रति लेखना आदि अनेक द्वार हैं। दस पइन्ना पइन्ना अथवा प्रकीर्ण फुटकर ग्रन्थ हैं। श्री विन्टर नीट्स इन्हे वेदोंके परिशिष्टोंकी तरह मानते हैं और उन्हीकी तरह ये पद्यबन्ध हैं तथा जैनधर्म सम्बन्धी विविध विषयोंका इनमें वर्णन हैं । इनकी संख्या दस है। चतुः शरण-इसमें बतलाया है कि अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चारकी शरण लेनेसे पापको निन्दा और पुण्यकी अनुमोदना होती है । इन चारोंका स्वरूप भी बतलाया है। इसमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy