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________________ १५६ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मान्य तिलकने लिखा है-'सन्यास मार्गकी प्रबलताका कारण यदि शंकराचार्यका स्मार्त सम्प्रदाय ही होता तो आधुनिक भागवत सम्प्रदायके रामानुजाचार्य अपने गीता भाष्यमें शंकराचार्यकी ही नाई कर्म योगको गौण नहीं मानते । परन्तु जो कर्मयोग एकबार तेजीसे जारी था वह, जबकि भागवत सम्प्रदायमें भी निवृत्ति प्रधान भक्तिसे पीछे हटा जिया गया है तब तो यही कहना पड़ता है कि उसके बिछड़ जानेके लिए कुछ ऐसे कारण अवश्य उपस्थित हुए होंगे जो सभी सम्प्रदायोंको अथवा सारे देशको एक ही समान लागू हो सके । हमारे मतानुसार इनमेंसे पहला और प्रधान कारण जैन एवं बौद्ध धर्मोंका उदय तथा प्रचार है; क्योंकि इन्हीं दोनों धर्मोंने चारो वर्गों के लिए संन्यास मार्गका दरवाजा खोल दिया था और इसलिए क्षत्रिय वर्गमें भी संन्यास धर्मका विशेष उत्कर्ष होने लगा था।......शालिवाहन शकके लगभग छः सात सौ वर्ष पहले जैन और बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंका जन्म हुआ था और शंकराचार्यका जन्म शालिवाहन शकके ६०० वर्ष अनन्तर हुआ। इस बीचमें बौद्ध यतियोंके संघोंका अपूर्व वैभव सब लोग अपनी आंखोंके सामने देख रहे थे। इसलिए यति धर्मके विषयमें उनलोगोंमें एक प्रकारकी चाह तथा आदरबुद्धि शंकराचार्यके जन्मके पहले ही उत्पन्न हो चुकी थी। शंकराचार्यने यद्यपि जैन और बौद्ध धर्मोका खण्डन किया है तथापि यति धर्मके बारेमें लोगोंमें जो आदर बुद्धि उत्पन्न हो चुकी थी उसका उन्होंने नाश नहीं किया, किन्तु उसीको वैदिकरूप दे दिया और बौद्ध धर्मके बदले वैदिक धर्मकी संस्थापना करनेके लिए उन्होंने बहुत से प्रयत्नशील संन्यासी तैयार किये ।....... इन वैदिक संन्यासियों के संघको देख उस समय अनेक लोगोंके मनमें शंका होने लगी थी कि शांकर मतमें और बौद्ध मतमें क्या अंतर है ? प्रतीत होता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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