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________________ १५८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा और वह नये साँचे में ढलकर पौराणिक धर्म बन गया। उसमें बौद्ध और जैनोंसे मिलती धर्म सम्बन्धी बहुत-सी नई बातोंने प्रवेश किया।' (राज. इति०, प्र० मा पृ० १०-११) ___ डाक्टर राधाकृष्णनने लिखा है-'जब जनता की आध्यात्मिक चेतना उपनिषदोंके कमजोर विचारसे, या वेदोंके दिखावटी देवताओंसे तथा जैनों और बौद्धोंके नैतिक सिद्धान्तोंके संदिग्ध आदर्शवादसे सन्तुष्ट नहीं हो सकी, तो पुनर्निमाणने एक धर्मको जन्म दिया, जो उतना नियमबद्ध नहीं था तथा उपनिषदोंके धर्मसे अधिक सन्तोषप्रद था। उसने एक संदिग्ध और शुष्क ईश्वरके बदले में एक जीवित मानवीय परमात्मा दिया। भगवद्गीता, जिसमें कृष्ण विष्णुके अवतार तथा उपनिषदोंके परब्रह्म माने गये हैं, पंचरात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वर तथा अर्वाचीन उपनिषदोंका शैवधर्म इसी क्रान्तिके फल हैं। (इं० फि०, जि० १, पृ० २७५-२७६)। सर राधाकृष्णन्ने गीता धर्मकी उत्पत्तिका कारण धार्मिक असन्तोष बतलाया है, जो उचित ही है । किन्तु उपनिषदोंके विचार और वेदोंके दिखावटी देवताओंके साथ जो जैन धर्म और बौद्ध धर्मको भी सम्मिलित कर लिया है वह उचित नहीं है, क्योंकि इन दोनों धर्मोंसे तो वैदिक धर्मानुयायिओंका सन्तोष हो ही नहीं सकता था। इन्हींकी प्रतिक्रियाके फल स्वरूप तो उन्हें एक संदिग्ध और शुष्क ईश्वर के बदले में जीवित मानवीय परमात्मा मिल सका है। अतः जैन और बौद्ध धर्मके बढ़ते हुए प्रभावको नष्ट करनेके लिए उत्तर कालमें शंकराचार्यने जो मार्ग अपनाया, वही मार्ग पूर्वकालमें गीताके रचयिताने भी अपनाया। संन्यास मार्गकी प्रबलताका कारण बतलाते हुए लोक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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