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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका । स्व० रमेशचन्द दत्तने भी वही विचार प्रकट करते हुए लिखा है-"जब कि ब्राह्मण लोग क्रिया संस्कारोंको बढ़ाये जाते थे.... तो विचारवान सच्चे लोग यह सोचते थे कि क्या धर्म केवल इन्हीं क्रिया संस्कारों और विधियोंको सिखलाता है,....... उन्होंने
आत्माके उद्देश और ईश्वरके विषयमें खोज की, ये नये तथा कृतोद्यम विचार ऐसे वीरोचित पुष्ट और दृढ़ थे कि ब्राह्मण लोगोंने, जो कि अपनेको ही बुद्धिमान समझते थे, अन्तको हार मानी
और वे क्षत्रियोंके पास उनको समझनेके लिये आये। उपनिषदोंमें वे ही दृढ़ और पुष्ट विचार है।" ( प्रा०मा० सं० इ०, भा० १, पृ० ११०-१११)।
दार्शनिक विचारों के विकास में सहायक
दो अवैदिक तत्त्व ऋग्वेदसे उपनिषदों तककी स्थिति का अनुशीलन करने से प्रकट होता है कि ऋग्वैदिक कालमें वैदिक आर्य सिन्धु घाटीमें बसते थे। किन्तु वहाँ वे अकेले ही नहीं थे, उनके बीचमें और चारों ओर तथा उत्तर भारतके मैदानों में अनेक जातियां बसती थीं जिनके साथ उनका युद्ध होता रहता था और जिन्हें वे दास और दस्यु कहते थे। उनके साथ आर्योंका विरोध केवल स्वाभाविक नहीं था, किन्तु आवश्यक भी था। क्योंकि उनके और आर्योंके बीच में धार्मिक भेद था। ऋग्वेदके उल्लेखोंके अनुसार वे यज्ञ नहीं करते थे, क्रिमाकर्मसे शून्य थे, वैदिक देवताओंसे घृणा करते थे, और ऐसा व्रत पालते थे जिनसे आर्य अपरिचित थे। आर्योंने युद्ध
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