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________________ १७६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका प्राचीन द्रविड़ों और वैदिक आर्योंके धर्मका मिश्रण होनेपर द्रविड़ देवताओंकी पूजा आर्य और द्रविड़ दोनों करने लगे। किन्तु दोनोंकी पूजाविधिमें भेद था। इस मिश्रणके फलस्वरूप अनाय जादूगर और द्रविड़ पुजेरो ब्राह्मणोंमें सम्मिलित हो गये और धीरे-धीरे अनार्य जातियाँ भी अपने आर्य होनेका दावा करने लगी। तथा द्रविड़ लोग एक तरहसे यह भूल ही गये कि वे भारतमें आये हुए वैदिक आर्योंसे बहुत अधिक प्राचीन सभ्यताके उत्तराधिकारी होनेका दावा कर सकते हैं और उनके पूर्वज आर्य देवताओंको नहीं पूजते थे। (प्रीहि० इ० पृ० ३२-३८)। ये द्रविड़ लोग वैदिक आर्योंसे भिन्न थे इस लिये उन्हें अनआर्य कहा गया है। किन्तु ज्यों-ज्यों भारतमें वैदिक आर्योंका प्रभाव बढ़ता गया त्यों त्यों 'आर्य' शब्द श्रेष्ठताका वाचक बनता गया और अनार्य' शब्द म्लेच्छ का। फलतः प्रत्येक श्रेष्ठत्वाभिमानी अपनेको आर्य और अपने विरोधीको अनार्य या म्लेच्छ कहने लगा। जैन साहित्यमें ब्राह्मणोंको साक्षर म्लेच्छ कहा है और हिन्दू पुराणोंमें जैन धर्मको दैत्यदानवोंका धर्म कहा है। ____ पद्मपुराणके प्रथम सृष्टि खण्डमें जैनधर्मकी उत्पत्ति कथा इस प्रकार दी है- एक स्थान पर दैत्य तप करते थे। वहाँ दिगम्बर योगीका भेष धारण करके माया मोह पहुंचा और बोला-दैत्यों! तुम यह तप किस लिये करते हो ? दानवोंने कहा-परलोकमें सुख प्राप्तिके लिये। तब माया मोह बोलायदि मुक्ति चाहते हो तो आहत धर्मको धारण करो। यह मुक्तिका द्वार है। मायामोहके समझानेपर दैत्योंने वैदिक धर्म छोड़कर आहत धर्म धारण किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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