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________________ श्रुतपरिचय ६७५ उत्तर कालमें उन्हें गणधर कृत माना जाने लगा। यही बात हम श्वेताम्बर परम्परा में भी पाते हैं। अनुयोग' द्वार और नन्दिसूत्र में द्वादशांगको सर्वज्ञ प्रणीत कहा है। तथा अनुयोग द्वारमें गणधरके लिए सूत्रको आत्मागम तथा अर्थको अनन्तरागम कहा है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों ग्रन्थ गणधरको द्वादशांगका रचयिता मानते हैं। अंग बाह्यके रचयिताके विषयमें दोनों ग्रन्थ मूक हैं। उमास्वातिके तत्वार्थ४भाष्यमें, विशेषावश्यक भाष्यमें, और वृहकल्प भाष्यमें स्पष्ट रूप से अंग प्रविष्टको गणधर कृत और अग बाह्यको प्राचार्य कृत बतलाया है। किन्तु जब तत्त्वार्थ भाष्यमें अङ्ग बाह्य और अंग प्रविष्टमें केवल यही भेद बतलाया है कि एक आचार्य रचित होता है और दूसरा गणधर रचित तब विशेषा०भा० में उक्त भेदके सिवाय दो भेद और बतलाये हैं-गणधरके पूछने पर तीर्थङ्कर जो वचन कहते हैं उससे जो निष्पन्न होता है वह अंग प्रविष्ट है और विना प्रश्नके जो अर्थ प्रतिपादन तीर्थङ्कर करते हैं, उससे जो निष्पन्न होता है वह अगबाह्य है। तथा अंग प्रविष्ट सब तीर्थकरोंके तीर्थमे नियत है। किन्तु अंगबाह्य नियत नहीं है। १-अनु० सू० पृ० २१८ । २ नं. सू. ४० । ३–'गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स अणंतरागमे । ...अनु., २१६ ।। ४-सू. १-२० । ५-गा० १४४ । ६–'गणहर थेर कयं वा अाएसा मुक्कवागरणश्रो वा । धुवचलविसेसो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। ५५० ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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