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जं०
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इनमें से आदिके छै परिकर्म चतुर्नयिक हैं - उनमें चार नयोंको प्रवृत्ति होती है तथा सातों परिकर्म त्रैराशिक मतानुयायी हैं।
० सा० इ० पू० पीठिका
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इसकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है कि गोशालक के द्वारा प्रवर्तित आजीविक सम्प्रदायके अनुयायिओंको ही त्रैराशिक कहते थे क्योंकि वे सब वस्तुको तीनरूप मानते थे । तथा नय भी तीन ही मानते थे-द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक और उभयास्तिक । सूत्रकारने 'सत्त तेरासिया' लिखकर सातों परिकर्मोंको त्रैराशिकमतानुयायी बतलाया है । इसका अभिप्राय यह है कि पहले आचार्य नयविचार के अवसर पर त्रैराशिक मतका अवलम्वन लेकर सातों परिकर्मों का विचार तीन नयोंके द्वारा करते थे ।
दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्रके वाईस भेद हैं-उज्जुसुय ( ऋजुसूत्र ), परिणता परिणत, बहुभंगिश्र, विजयचरिय, अांतरं परंपरं, मासाणं, संजूह, संभिरण, आहव्वाय सोवत्थि अवत्त, नंदावत्त, बहुल, पुट्ठापुठ्ठे, विश्रावत्त, एवंभूत, दुयात्रत्त, वत्तमाणप्पय, समभिरूढ, सव्वाभह परसास, दुप्पडिग्गह । स्वसमयवक्तव्यता सूत्रकी परिपाटीके अनुसार ये बाईस सूत्र छिन्न छेदनय वाले हैं, आजीविक सूत्रकी पारिपाटीके अनुसार अच्छिन छेद नय वाले हैं, त्रैराशिक सूत्रकी परिपाटीके अनुसार तीन रूप हैं और स्वसमयसूत्र पारिपाटीके अनुसार चार नयरूप हैं । इसप्रकार ये सब सूत्र ८८ हैं ।
दृष्टिवाद के तीसरे भेद पूर्वके चौदह भेद हैं- उप्पा यपुव्व
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१ - ' तथा चाह सूत्र कृत 'सत तेरासिया' इति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिक मतानुयायीनि, एतदुक्त भवतिपूर्व सूरयो नयचिन्तायां त्रैराशिक मतभवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्मणि त्रिविधयापि नयचिन्तया चिन्तयन्ति स्मेति । नन्दि०, टी०, पृ० २३६ उ० ।
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