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जै० सा०-इ. पूर्व पीठिका ही लिखा है कि वैदिक ग्रन्थोंमें मुनियोंका विशेष निर्देश न होनेसे यह परिणाम निकालना कि वैदिक कालमें मुनि विरल थे, ठीक नहीं है, किन्तु सम्भवतया ब्राह्मण उन्हें नहीं मानते थे क्योंकि दोनोंके आदर्श भिन्न थे। यह भी नहीं सोचना चाहिए कि प्राचीन
और अर्वाचीन मुनिमें मौलिक भेद था। किन्तु इतना अवश्य है प्राचीन मुनि उतना सन्त नहीं था।
इन्हीं मुनियोंमें ऐसे भ मनि थे जिन्हें वैदिक क्रियाकाण्डमें आस्था नहीं थी। ये मुनि क्या करते थे, यह तो स्पष्ट नहीं होता, किन्तु अवश्य ही वे सांसारिक जीवनके प्रति उदासीन थेउनका नग्न रहना ही इस बातका सूचक है। ये मुनि ही श्रमण परम्पराके पूर्वज हो सकते हैं।
अतः तथोक्त निराशावादी धर्म गंगाघाटीकी गर्मीकी उपज नहीं है, किन्तु भारतकी आत्मामें अनुस्यूत पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी तरह ही परम्परागत है। अतः ब्राह्मणों की तरह श्रमणोंकी परम्परा भी प्राचीन प्रतीत होती है। इसी श्रमण परम्पराके आद्यप्रवर्तकके रूपमें ऋषभदेवकी मान्यता है। डा आर०जी० भण्डारकरने लिखा है-'प्राचीन कालसे ही भारतीय समाजमें ऐसे व्यक्ति मौजूद थे, जो श्रमण कहे जाते थे। ये ध्यानमें मग्न रहते थे और कभी-कभी मुक्तिका उपदेश देते थे, जो प्रचलित धर्मके अनुरूप नहीं होता था। ( क० व० भां. जि० १ पृ० १०)।
· वैदिक साहित्यके अनुशीलनके पश्चात् अब हम दूसरे साधन प्राचीन अवशेषोंकी ओर आते हैं।
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