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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सर्व साधारणके क्षीण शक्ति होने और ब्राह्मणोंके स्वमताभिमानका परिचय देती है । संसार छोड़कर, बनोंमें जानेकी प्रथा, जो पहले नामको भी नहीं थी, चल पड़ी, और ब्राह्मणोंके अन्तिम भाग भारण्यकोंमें वनकी विविध क्रियाओंका वर्णन है । अन्त में क्षत्रियोंके निर्भय विचार जो उपनिषदोंके नामसे प्रख्यात हैं, प्रारम्भ हुए। इन्हींके साथ भारतके उस साहित्यका अन्त होता है जिसे ईश्वरकृत कहा जाता है।" ( प्रा० भा० सं० इं०, भा० १, पृ०८-६)।
आरण्यक . एतरेय श्रारण्यकके भाष्यमें सायणने लिखा है-अरण्य (वन) में पढ़ाये जानेके योग्य होनेसे इसका नाम आरण्यक है। सथा एतरेय ब्राह्मणके भाष्यमें सायणने लिखा है-'वनमें रहनेवाले वानप्रस्थ लोग जिन यज्ञादिको करते थे, उनको बतलानेवाले प्रन्थोंको श्रारण्यक कहते हैं। कहा जाता है कि गृहस्थोंके यज्ञोंका विवरण ब्राह्मण ग्रन्थों में हैं और वानप्रस्थ आश्रममें जीवन बितानेवालोंके यज्ञ आदिका विवरण आरण्यकोंमें है।
श्रारण्यक न तो यज्ञोंके विधि-विधानको उठाकर ताकमें रखते हैं और न ब्राह्मण ग्रन्थोंमें प्रतिपादित शैलीका ही अनुसरण करते हैं। वे मुख्य रूपसे पुरोहितदर्शन और यज्ञोंके लाक्षणिक तथा रहस्यमय रूपका विवेचन करते हैं। उनमें यज्ञोंके प्राध्यात्मिक रूपका विवेचन है। देवताविशेषके उद्देशसे द्रव्यका त्याग ही यज्ञ है, यह आरण्यक नहीं मानते। वे क्रियाकाण्डकी अपेक्षा चिन्तन पर विशेष जोर देते हैं और ब्राह्मणोंकी गहन विधिके
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१. 'अरण्य एवं पाठ्यत्वादारण्यकमितीर्यते।'
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