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जै० सा० - इ० पूर्व पीठिका
जो कुछ कहा और जिसकी प्रशंसा की, वह है 'कर्म' पुण्यकर्म से पुण्य होता है और पापकर्मसे पाप होता है ।
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इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि दोनों व्यक्ति पाँच प्राणोंके मेलसे जीवन मानते थे और उनके सामने नित्य अमर व्यक्तित्वका विचार नहीं आया था । किन्तु इससे यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि उस समय आत्मा के अमरत्ववाला सिद्धान्त स्थापित नहीं हुआ था, या आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्वमें विश्वास करनेवाले लोग थे ही नहीं । किन्तु तब तक यह विचार वैदिक ऋषियोंके मस्तिष्क में प्रविष्ट नहीं हुआ था ।
यह हम पहले लिख आये हैं कि उपनिषदोंमें पुनर्जन्म तथा कर्मसिद्धान्तका दर्शन मिलता है । छा० उ० ( ५-१० ) में लिखा है - प्रथम आत्मा चन्द्रमा में जाता है, जिसे पुनः शरीर धारण करना होता है वह वहाँसे आ जाता है । फिर वह वर्षा के रूप में पृथ्वीमे जाता है और अन्नरूप हो जाता है जो उस अन्नको खाता है वह उसको नवीन जन्म देकर उसका पिता हो जाता है।
यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि पुनर्जन्म के प्रचलित सिद्धान्तसे उक्त सिद्धान्त कितना भिन्न है । अस्तु,
।
इन दो नवीन सिद्धान्तोंके प्रवेशके पश्चात् वैदिक धर्मकी रूप रेखामें बहुत परिवर्तन हुआ । वैदिक यज्ञ और देवताओंका प्रभुत्व जाता रहा । और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भौतिक जीवनके चिरकाल तक बने रहनेकी कामना रखने वालों में भी अमरत्व प्राप्तिकी जिज्ञासा जाग उठी; क्योंकि पुनजर्मके इस चक्र से देव, दानव, पशु, मनुष्य और बनस्पति कोई भी बचा हुआ नहीं था—सबका मृत्युके बाद जन्म लेना आवश्यक
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