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________________ ४८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इन झगढ़ोंके अवशेष अथर्ववेद (५, १७-१६ ) में सुरक्षित हैं, जहाँ ब्राह्मणोंको सतानेके कारण सञ्जयोंके विनाशका वर्णन है। अथर्ववेदके सिवाय यजुर्वेदकी शतरुद्रीय प्रार्थनाओंमें भी उस तूफानी कालकी छाया है जव भारतकी आदिवासी जनता असन्तोषको लिये हुए उत्तेजित थी और रुद्र समस्त प्रकारके बुरे कार्य करनेवालोंके रक्षक देवताके रूपमें पूजा जाता था। अस्तु, मैत्रायणी संहिता (४-३-८) आदि वैदिक ग्रन्थोंमें क्षत्रियसे ब्राह्मणकी श्रेष्ठताका दावा बराबर पाया जाता है और ब्राह्मण अपने मंत्र तंत्र तथा क्रियाकाण्डके द्वारा क्षत्रियों तथा जनताको कभी भी झगड़ेमें डाल सकता था। यद्यपि राजसूय यज्ञमें ब्राह्मण को राजाकी उपासना करना पड़ती थी किन्तु ब्राह्मणकी प्रधानता अक्षुण्ण थी । वहाँ स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया गया है कि पूर्ण उन्नतिके लिये क्षत्रिय और ब्राह्मणका मेल आधारभूत है। वहाँ यह भी बतलाया है कि (मै० सं० १-८-७) बहुधा राजाने ब्राह्मणको सताया तो निश्चय ही उसका विनाश हो गया। ___जैसे, स्वर्गके देवताओंकी तरह ब्राह्मण पृथ्वीका देवता (भूदेव) है यह दावा ऋग्वेदमें शायद ही क्वचित् मिले। शतपथ ब्राह्मणमें ( ११, ५-७-१) ब्राह्मणके चार अधिकार बतलाये हैं--अर्चा (श्रादर पाना ), दान लेना, अज्येयता (किसी के द्वारा पीड़ित न होना ) और अवध्यता ( किसीके द्वारा मारा न जाना ) । और उसके कर्तव्य हैं-ब्राह्मण्य, प्रतिरूपचर्या (अपनी जातिके अनुरूप आचरण ), और लोकपंक्ति। ___ अथर्ववेदके कुछ पद्योंमें ब्राह्मणजातिके सर्वोच्च विशेषाधिकारों का भी दावा है और ब्राह्मणको प्रायः भूदेव (पृथ का देवता ) कहा है। ब्राह्मणकालमें इसका और भी परिपाक हुआ है। शतपथ ब्राह्मणमें लिखा है-'देवता दो प्रकारके होते हैं एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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