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उत्साह बढ़ाते रहे । यदि उनकी अोर से मुझे प्रोत्साहन न मिलता तो मैं भी शायद ही आगे बढ़ सकता ।
इस अवसर पर पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज का स्मरण भी बरबस हो पाता है। जब भी उनके दर्शनों के लिए ईसरी जाना होता, बे बराबर कार्य की प्रगति के बारे में पूछते थे। खेद है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व ही वह स्वर्गवासी हो गये।
हिन्दू विश्व विद्यालय के पुस्तकालय में बैठकर मैंने महीनों तक पुरानी फाइलों और रिपोर्टों का अनुगम किया है और इसके लिए पुस्तकालय के तत्कालीन अध्यक्ष श्री विश्वनाथन् तथा इन्डोलाजी कालिज के तत्कालीन अध्यक्ष डा० राजबलि पाण्डेय का कृतज्ञ हूँ। श्री काशी विद्यापीठ के भगवानदास स्वाध्यायपीठ से भी मुझे अनेक पुस्तके प्राप्त हो सकी । उसके अध्यक्ष मेरे अनुज प्रो० खुशालचन्द गोरावाला हैं। उनके प्रति अपना सौहार्दभाव प्रकट करता हूँ। पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी के अधिष्ठाता मुनिवर श्री कृष्णचन्द्राचार्य के सौजन्य से मुझे आश्रम के पुस्तकालय से भी पुस्तकें प्राप्त हुई, एतदर्थ मैं मुनिजी के प्रति भी कृतज्ञ हूँ। देहला के लाला पन्नालाल जी अग्रवाल तथा जयपुर के डा० कस्तूर चन्द जी काशली वाल के द्वारा भी हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त हो सके हैं। जैन सिद्धान्त भवन पारा के तत्कालीन पुस्तकाध्यक्ष पं० नेमिचन्द जी ज्योतिषाचार्य से भी यथावश्यक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं । अतः मैं उन्हें भी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता ।
अन्त में मैं डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के प्रति विशेष कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अस्वस्थ होते हुए भी इस पीठिका के लिए प्राक्कथन लिखा देने का कष्ट उठाया। ___क्या मैं आशा करूँ कि इस पीठिका को पढ़कर पाठक जैनसाहित्य के इतिहास के प्रति उत्सुक हो सकेंगे। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय __ वाराणसी
कैलाशचन्द्र शास्त्रा ऋषभ जयन्ती वी०नि० सं० २४८६
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