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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण युगमें जब अधर्मकी उन्नति होगी, उस समय निर्भय सनातन धर्मके मार्गको त्यागकर अपनी बुद्धिसे पाखण्डमय कुमार्ग चलावेगा। इस अधर्म प्रवर्तक राजाके पीछे कलियुगके मन्दबुद्धि मनुष्यगण ईश्वरकी मायामें मोहित होकर अपने अपने शौच आचारको त्यागकर देवतोंका तिरस्कार करेंगे एवं स्नान न करना, आचमन न करना, अशौच रहना, केशलोच करना आदि विपरीत व्रतोंको अपनीअपनी इच्छाके अनुसार ग्रहण करेंगे। जिसमें अधर्म बहुत होता है ऐसे कलियुगमें इस प्रकारके लोग नष्टबुद्धि होकर प्रायः सर्वदा वेद, ब्राह्मण यज्ञ और हरिभक्तोंको दूषित कर हँसेंगे। वे लोग अन्यपरम्परा सदृश वेदविधिवहिष्कृत उक्त प्रकारकी मनमानी प्रवृत्ति करके अपने कर्मोंसे घार नरकमें गिरेंगे। हे. राजन् ! भगवानका यह ऋषभावतार एक प्रकारसे उक्त अनर्थका कारण होनेपर भी रजोगुणमें आसक्त व्यक्तियोंको मोक्षमागे सिखलानेके लिये परम आवश्यक था। ( भागवत भाषा, स्क० ५, अ०६) ___ उक्त सब वर्णन जैनोंको लक्ष्य करके ही लिखा गया है। हाँ, अहंत नामके राजाकी कल्पना मन गढन्त है, अर्हत् जीवन्मुक्त दशाका नाम है । उस अवस्थामें पहुंचनेपर ही तार्थङ्कर धर्मोपदेश करते हैं । शायद भ्रमसे उसीको राजा मान लिया है। ___ उक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि जैन धर्म और उसके अनुयायिओंके प्रति भागवत्कारका अभिप्राय यद्यपि रोषपूर्ण है तथापि ऋषभदेवके प्रति ऐसी बात नहीं है। उनके लिये तो उन्होंने अत्यन्त आदर ही व्यक्त किया है और लिखा है- 'जन्महीन ऋषभदेव जीका अनुकरण करना तो दूर रहा, अनुकरण करनेका मनोरथ भी कोई अन्य योगी नहीं कर सकता, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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