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________________ ४४३ घ भेद का एकेंद्रिय द्वीन्द्रिय आदिमें विभाजन, जो जैन ग्रन्थोंके लिये साधारण बात है, गोशालक भी मानता था। लेश्यावादका विचित्र जैन सिद्धान्त भी गोशालकके मनुष्योंको छै भागोंमें विभाजित करनेके सिद्धान्तसे बिलकुल मिलता जुलता है। इसके सम्बन्धमें मैं यह विश्वास करनेके लिये तैयार हूं कि जैनोंने इस सिद्धान्तको आजीविकोंसे लिया और अपना बना लिया ' आदरणीय विद्वानके उक्त उद्गारोंको अस्वीकार करते हुए हमें बहुत ही संकोच होता है। दोनोंके कतिपय सिद्धान्तोंमें समानताका होना तो अवश्यंभावी था, क्योंकि दोनों एक साथ वर्षों तक रहे थे। किन्तु ऐसी स्थितिमें एकतरफा यह विश्वास कैसे किया जा सकता है कि इस सिद्धान्तको जैनोंने आजीविकोंसे लिया। प्राप्त प्रमाणोंके आधार पर हमें तो इससे विपरीत स्थिति ही दृष्टिगोचर होती है। जैन सिद्धान्तके अभ्यासियोंसे यह बात छिपी नहीं है कि समस्त जीवोंकी दशाओंका ज्ञान करानेके लिये १४ मार्गणाओं और १४ गुण स्थानोंका गम्भीर सांगोपांग वर्णन उच्च कोटिके जैन ग्रन्थों में पाया जाता है। लेश्या मार्गणाओंका ही एक भेद है और जिन योग और कषायके मेलसे लेश्याकी निष्पत्ति होती है उन योग और कषायोंकी चर्चासे जैन सिद्धान्त भरा हुआ है। * यदि यही मान लिया जाये कि इस सिद्धान्तको जैनोंने आजीविकोंसे लिया है तो आजीविकोंने उसे किससे लिया। जिस अचेलक परिव्राजक सम्प्रदायका उत्तराधिकारी गोशालकको कहा जाता है, उसमें तो इस सिद्धान्तके होनेका कोई संकेत नहीं मिलता। तब गोशालकने इस सिद्धान्तको किससे लिया। उसका स्वयंका आविष्कृत तो हो नहीं सकता। इसके सम्बन्धमें डा० हानलेने जो विचार प्रकट किये हैं, वह भी मननीय हैं। उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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