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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
व्यक्तिको दीक्षा दी । वह मरकर कुणालका पुत्र हुआ। अंधे कुणालने अपने पिता अशोकसे राज्य माँगा । अशोकने कहाअंधेको राज्यसे क्या प्रयोजन ? कुणाल बोला- मैं अपने पुत्रके लिये राज्य माँगता हूँ । मेरे सम्प्रति ( अभी ) पुत्र हुआ है । इस परसे अशोकने उसका नाम 'सम्प्रति' रखा। बड़ा होने पर सम्प्रति उज्जैनीका राजा हुआ। एक बार आर्य सुहस्ती उज्जैनी में पधारे। सम्प्रतिने उन्हें देखा और उसे पूर्व जन्मका स्मरण हो आया । सम्प्रतिने आर्य सुहस्तिसे श्रावकके व्रत धारण किये और उनका परम भक्त बन गया । अपने पूर्व जन्मके दारिद्र्यका स्मरण करके सम्प्रतिने नगर के चारों द्वारोपर भोजन शालाएँ स्थापित कीं, जिनमें दीन अनाथ भोजन कर सकते थे I जो भोजन शेष बचता था वह भोजनशाला के प्रबन्धकोंका होता था । यह जानकर राजाने यह आज्ञा दी कि जो अन्न शेष बचे वह साधुओं को दिया जाये, क्योंकि साधु लोग 'राजपिण्ड' होनेसे मेरे घर भोजन नहीं करते। इसी तरह सम्प्रतिने सब व्यापारियोंमें यह घोषणा करा दी कि साधुओंको अन्न-पान; तेल aa वगैरह बिना मूल्य दिया जाये और उसका मूल्य राजकोष से लिया जाये ।
अब साधुओं को प्रचुर मात्रा में सब आवश्यक वस्तुएँ मिलने लगीं तो आर्य महागिरिने अर्थ सुहस्तिसे इसका कारण पूछासुहस्तीने यह जानते हुए भी कि इस प्रकारका अन्न वस्त्र साधुके लिये अग्राह्य है, अपने शिष्य सम्प्रतिके मोहसे उसका समर्थन किया। तब आर्य महागिरिने सुहस्ती से कहा – आप ऐसे बहुश्रुत होकर भी यदि शिष्यके मोहसे ऐसा कहते हैं तो आजसे मेरा तुम्हारा विसंभोग है -- हम तुम एक मण्डलीमें नहीं रह सकते ।
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