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________________ ७०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इषुकारीय अध्ययनमें बतलाया है कि एक ही विमानसे च्युत होकर छै जीवोंने अपने २ कर्मके अनुसार इषुकार नामक नगरमें जन्म लिया और जिनेन्द्र के मार्गको अपनाया। संभिक्षु नामक पन्द्रहवें अध्ययनमें भिक्षुका स्वरूप बतलाया है। प्रत्येक पद्यके अन्तमें ‘स भिक्खू' । वह भिक्षु है ) पद आता है। इसीसे इस अध्ययनका नाम सभिक्षु है। सोलहवें ब्रह्मचर्य समाधि नामक अध्ययनमें ब्रह्मचर्यके दस समाधि स्थानोंका कथन है। इ. का प्रारम्भ भी 'सुयं में पाउसं' आदि वाक्यसे होता है। दस सूत्रोंके द्वारा दस समाधियोंका कथन है। तत्पश्चात् श्लोकोंके द्वारा उन्हींका प्रतिपादन है। सतरहवें पापश्रमण नामक अध्ययन में पापाचारी श्रमणोंका स्वरूप बतलाया है। अठारहवें संयतीय अध्ययनमें संजय राजाको कथा है । उन्नीसवें भृगापुत्रीय अध्ययनमें मृगापुत्रकी कथा है। बीसवें महा निर्ग्रन्थीय अध्ययन में एक मुनिकी कथा है। इक्कीसवें समुद्रपालीय अध्ययनमें समुद्र पालकी कथा है। बाईसवें रथनेमीय अध्ययनमें रथनेमिकी कथा है। रथनेमि नेमिनाथका छोटा भाई था। वह प्रवजित होगया था। एक दिन साध्वी राजुल वर्षासे त्रस्त होकर एक गुफामें चली गई और वस्त्र उतार कर सुखाने लगी। उसी गुफा में रथनेमि तपस्या करता था वह राजुलको देखकर उसपर आसक्त हो गया । राजुलने उसे सम्बोधकर सुमार्गमें लगाया। तेईसवें केशिगौतमीय नामक अध्ययनमें पार्श्वनाथ परम्परा के केशी और गौतम गणधरके संवादका वर्णन है। पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके प्रकरणमें इसकी चर्चा आचुकी है। प्रवचनमाता नामक चौबीसवें अध्ययनमें पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका कथन है इनको प्रवचनकी माता कहा गया है। पच्चीसमें यज्ञीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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