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जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका तब श्वेतकेतु त्रस्त होकर अपने पिताके पास आया और उससे बोला-आपने मुझे शिक्षा दिये बिना ही कह दिया था कि मैंने तुझे शिक्षा दे दी है। उस क्षत्रियने मुझसे पाँच प्रश्न पूछे। किन्तु मैं उनमेंसे एकका भी उत्तर नहीं दे सका।
पिताने कहा-तुमने जो प्रश्न मुझे सुनाये हैं उनमें से मैं एक का भी उत्तर नहीं जानता।
तब वह गौतम गोत्रीय ऋषि राजा प्रवाहणके स्थान पर श्राया। राजाने उससे कहा-भगवन् गौतम ! आप मनुष्य सम्बन्धी धनका वर मांग लीजिये । उसने कहा-राजन् ! यह मनुष्य सम्बन्धी धन आपके ही पास रहे। आपने मेरे पुत्रके प्रति जो बात प्रश्न रूपसे पूछी थी, वही मुझे बतलाइये । तब राजा संकटमें पड़ गया। 'चिर काल तक यहाँ रहो, ऐसी आज्ञा देकर राजाने ऋषिसे कहा-'पूर्व कालमें तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणोंके पास नहीं गयी । इसीसे सम्पूर्ण लोकोंमें इस विद्याके द्वारा क्षत्रियोंका ही अनुशासन होता रहा है।'
अन्तमें राजाने उसे विद्याका दान दिया। वह विद्या थी पुनर्जन्मका सिद्धान्त । छा० उ० का उक्त संवाद स्पष्ट रूपसे इस तथ्यको प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्मका सिद्धान्त क्षत्रियों से उद्भूत हुआ है और ब्राह्मण धर्मने उन्हींसे उसे लिया है। (हि० इ० लि० (विन्ट०) जि० १, पृ० २३१)।।
इसी प्रकार उपनिषदोंके अन्य संवादोंसे यह प्रमाणित होता है कि उपनिषदोंका मुख्य सिद्धान्त आत्मविद्या भी अब्राह्मण क्षेत्र
१. यथेयं न प्राक त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ॥ ७ ॥-छा. उ० ५-३ ।
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