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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के भेदों का युक्ति पूर्वक कथन करता है ( त. वा', पृ. ७६ )। जीव वेत्ता है, विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है इत्यादि रूप से आत्मा का वर्णन करता है (षटखं० पृ. ११८)। जीव विषयक नाना दुर्नयों का निराकरण करके जीव द्रव्य की सिद्धि करता है (क० पा., पृ. १४१ ) (नन्दी० चू०, हरि०, मलय०, टी०सू० २६ । सम० अभ० टी० सू० १४७ ) । इसमें सोलह वस्तु, तीन सौ बीस पाहुड़ और छब्बीस करोड़ पद होते हैं।
८ कर्म प्रवाद- कर्मों के बन्ध उदय उपशम निर्जरा अव. स्थाओं का, अनुभवबन्ध और प्रदेश बन्ध के आधारों का तथा कर्मों की जघन्य मध्यम उत्कृष्ट स्थिति का कथन करता है ( स. वा. पृ. ७६) आठों कर्मों का कथन करता है (षट्खं०, पृ. १२१) समवदान क्रिया ईर्या पथ क्रिया, तप और अधःकर्म का कथन करता है ( क. पा., पृ. १४२ ) । प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश
आदि भेदों के द्वारा तथा अन्यान्य उत्तरोत्तर भेदों के द्वारा ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो का कथन करता है। ( नन्दी० चू०, मलय०, सू० २६ । सम., अभ., सू. १४७ ) । इसमें बीस वस्तु, चारसौ पाहुड़ और एक करोड़ अस्सी लाख पद होते हैं।
प्रत्याख्यान- व्रत नियम प्रतिक्रमण प्रतिलेखन तप कल्प उपसर्ग आचार प्रतिमा विराधना, आराधना, और विशुद्धि के उपक्रमों का, मुनि पद के कारणों का तथा परिमित या अपरिमित द्रव्य और भावों के त्याग का कथन करता है (त० वा०, पृ० ७६ )। द्रव्य भाव आदि की अपेक्षा परिमित कालरूप और अपरिमित कालरूप प्रत्याख्यान, उपवासविधि, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करता है ( षट्खं०, पृ० १२१ ) । नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के भेद से अनेक प्रकार के
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