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जै० सा० इ० पू०-पीठिका संदिग्ध है। स्थान' ४-१ में अंगबाह्य रूप से चार पन्नत्तिओं का निर्देश है-वे चार पन्नत्ति हैं-चंद पन्नत्ति, सूर पन्नत्ति, जम्बू द्वीप पन्नत्ति और द्वीप सागर पन्नत्ति । इसी तरह स्था०२ ३-१ में भी तीन पन्नत्तिओं के पढ़ने का निर्देश है। ____ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चंद पन्नतीको सातवाँ सूरपन्नति को पाँचवाँ और जम्बूद्वीप पन्नत्ति को छठा उपांग माना है । इन उपांगों में एक द्वीपसागर पन्नती को और मिला दिया है । इसे कोई स्वतंत्र ग्रन्थ श्वेताम्बर आगमोंमें नहीं माना है। अंगोंमें उपांगोका निर्देश एक विचित्र ही बात है। तथा यहाँ उनको जो अंगबाह्य कहा गया है यह भी विचित्र है क्योंकि इन पन्नतियोंकी गणना अंग बाह्यमें नहीं की गई है। साथ ही द्वीपसागर पन्नति नामक कोई स्वतंत्र ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं है। दिगम्बर साहित्य में उक्त चारों पन्नतियोंको दृष्टिवादके एक भेद परिकर्म के अन्तर्गत माना है।
स्थान १० में एक और उल्लेखनीय कथन है । वह है' दशा नामक दश ग्रन्थोंका निर्देश । प्रत्येकमें दस दस अध्ययन बतलाये
१- 'चत्तारि पन्नतीअो अंगबाहिरियातो पं०, तं०-चंद पन्नत्ती, सूर पन्नत्ती, जंवूदीव पन्नत्ती दीवसागर पन्नती' ( सू. २७७ )।
२-'तो पन्नत्तीअो कालेण अहिज्जति तं०-चंदपन्नती सूर पन्नती दीवसागर पन्नती' । ( सू. १५२ ) ।
३- 'दस दसानो पं० तं०-- कम्मविवाग दसाश्रो, उवासग दसायो, अंतगडदसाअो, अणुतरोववाय दसायो, अायार दसाओ, पण्हा वागरण दसानो, बंधदसानो, दोगिद्धी दसानो, दीह दसानो, संखेवित दसाश्रो । स्था०, पृ, ४७६ ।
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