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जै० सा० इ० पू०-पीठिका लिये चौंसठ जगह 'दो' का अंक रखकर उन सब को परस्पर में गुणा करने से १८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ इतनी राशि होती है। इसमें एक कम करने से समस्त अक्षरों की संख्या आती है।
इस अक्षर संख्या में एक पद के अक्षरों की संख्या १६३४८३०७८८८ का भाग देने से लब्ध ११२८३५:००५ आता है। इतने ही द्वादशांग के पदों का प्रमाण है और शेष बचता है८.१०८१७३ । यह अंग बाह्य के अक्षरों का प्रमाण है। ____ चौसठ मूल अक्षरों से जितने अक्षर निष्पन्न होते हैं उतने ही श्रुत ज्ञानके भेद हैं, यह बात तो स्पष्ट है और वह भी स्पष्ट है कि किसी भी भाषा का कोई भी अक्षर उन अक्षरों से बाहर नहीं रहता सबका समावेश उन्हीं में हो जाता है। किन्तु उन समस्त अक्षरों की संख्या में जो एक पद के अक्षरों की संख्या से भाग देकर लब्ध प्रमाण द्वादशांग के पद बतलाये हैं इसका ठीक आशय व्यक्त नहीं होता। चौसठ अक्षरों के संयोग से जो अक्षर राशि उत्पन्न होती है वह अपुनरुक्त अक्षर राशि है। और उसी को पद प्रमाण से माप कर द्वादशांग के पद बतलाये हैं। तो क्या द्वादशांग में पुनरुक्त शब्द नहीं होते ? इत्यादि अनेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं जिनके समाधानका साधन प्राप्य नहीं है।
पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में दृष्टिवादको
१-'एयट्ठ च च य छ सत्तयं च च य सुण्ण सत्त तिय सत्ता । सुण्णं णव पण पंच य एगं छक्केक्कगो य पणगं च ॥१३॥'--षटखं०, पु० १३, पृ० २५४ । गो• जी०, गा० ३५२ ।
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