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जै० सा० इ० पू०पीठिका और कालादि पांचको परस्परमें गुणा करनेसे-खतः जीव कालकी अपेक्षा नहीं है परतः जीव कालकी अपेक्षा नहीं है, इत्यादिरूपसे अक्रियावादियोंके १४२xsx1=90 सत्तर भेद होते हैं।' तथा सात पदार्थोंको नियति और कालको अपेक्षा 'नास्ति' कहनेसे चौदह भेद और होते हैं । इस प्रकार प्रक्रियावादियोंके कुल ८४ चौरासी भेद होते हैं। श्वेताम्बर २ टीका ग्रन्थोंके अनुसार जीवादि सात पदार्थ स्व और पर तथा काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर
और आत्मा, इन सबको परस्परमें गुणा करनेसे ७ x २ x ६-८४ चौरासी भेद अक्रियावादियोंके होते हैं।
जो अज्ञानको ही श्रेयस्कर मानते हैं वे अज्ञानवादी३ कहे जाते हैं। इनके मतसे बिना जाने किये हुए कर्मोका बन्ध विफल
१–णत्थी सदो परदो विय सत्त पयत्था य पुरणपाऊणा । कालादियादिभंगा सत्तरि चदुपंति संजादा ।। ८८४ ।। णत्थि य च सत्त पयत्था णियदीदो कालदो तिपति भवा । चोद्दस इदि रणत्थित्ते अकिरियाणं च चुलसीदी ॥८८५॥'
-गो. क. । २----जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षारख्माःसप्त पदार्थाः स्वपर भेदद्वये तथा काल-यदृच्छा-नियतिस्वभावेश्वरात्मभिः षड्भिश्चिन्त्यमाना श्चतुरशीति विकल्पा भवन्ति"-अाचा. शी. टी. १-१-१-४ । नन्दी. मलय., सू. ४६ ।
३ - 'कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तयेषामस्ति ते अज्ञानिकाः। ते च वादिनश्चेत्यज्ञानिकवादिनः । ते च अज्ञानमेव श्रेयः असश्चिन्त्यकृत कर्मबन्धवैफल्यात् ।'-भग. अभ. टी. ३०-१ । स्था. अभ.टी., ४-४-४५ । सूत्र. शी. टी. १-१२ ।
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