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श्रुतपरिचय
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८ - मरणान्तर न होश वाला न बेहोश आत्मा - भिक्षुओं ! कितने श्रमण ब्राह्मण आठ कारणोंसे मरनेके बाद आत्मा न संज्ञी रहता है न असंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं ।
६- आत्माका उच्छेद - भिक्षुत्रों ! कितने श्रमण ब्राह्मण सात कारणोंसे आत्माका उच्छेद - विनाश मानते हैं ।
१० - इसी जन्म में निर्वाण - भिक्षुओं ! कितने श्रमण ब्राह्मण पांच कारणोंसे ऐसा मानते है कि प्राणीका इसी संसार में देखतेदेखते निर्वाण हो जाता है
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इन दस मूल बातोंके क्रमसे ४+४+४+४+२+१६+८ + ८ः +७+५ = ६२_कारणोंसे ६२ मत होते हैं । आत्माकी नित्यता, अनित्यता, नित्यानित्यता, आदिको लेकर ही उक्त मत प्रवर्तित हुए है । उक्त तीन सौ त्रेसठ मतोंमें ही इन्हें भी गर्भित किया जा सकता है। यहां इनके प्रदर्शनका केवल इतना ही प्रयोजन है कि एक ही विचारको लेकर अनेक मतोंकी सृष्टि होना संभव है और इस तरह के मत महावीर और बुद्धके समय में प्रवर्तित थे । उन्हीं सबका निरूपण और निराकरण दृष्टिवा में किया गया था ।
अब तत्वार्थवशर्तिक में जो प्रत्येक वादोंके कतिपय अनुयायियों के नाम दिये हैं, उनका यथा संभव परिचय कराया जाता है ।
कलंक देवने कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, और आश्वलायनको क्रियावादी कहा है । और सिद्धसेन गणिने इन्हें अक्रियावादी कहा है । इनमें से कुछ नामोंके सम्बन्धमें हमें जो जानकारी प्राप्त हो सकी, वह इस प्रकार है
काणेविद्धि (काठेविद्धि) - पाणिनिकृत व्याकरण (४-१-८१ )
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