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________________ ४८८ मगध में बढ़ते हुए प्रभावने' और उनके आचार विचार ने उसे खड़ा कर दिया । और इस तरह भद्रबाहके काल में ही संघभेदका बीज बोया गया । जै० ० सा० इ०-पूर्व पीठिका भद्रबाहुके समय में जैनसंघमें विवाद होनेकी चर्चा श्वेताम्बर परम्परामें भी मिलती है। और जैनसंघका वह विवाद श्रुतकेवलि भद्रबाहु के कारण उन्हीं से हुआ था । परि० प०, सर्ग ६ श्लोक ५५-७६ में लिखा है कि- 'भयंकर दुभिक्ष पड़ने पर साधु संघ निर्वाह के लिये समुद्रके तटकी ओर चला गया । इस काल में अभ्यासवश साधुओं के हृदयमें स्थित श्रुत विस्मृत हो गया । दुष्काला अन्त होने पर पाटलीपुत्रमें संघ सम्मिलित हुआ और जिसको जिस अंगका जो अध्ययन या उद्देश स्मत था वह संकलित किया गया । इस तरहसे श्री संघने ग्यारह अंगोंका संकलन किया और दृष्टिवाद के लिये विचार करने लगा । उसे ज्ञात हुआ १ 'महावीर निर्वाण के बाद जम्बू स्वामी तक के समय में बुद्धदेव के मध्यम मार्गने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी और सम्राट अशोक के समय में तो वह प्रायः सर्वव्यापी हो चुका था । उस समय चारों ओर बौद्ध स्थापित किये गये । बौद्ध श्रमण लंका श्रादि देशों में प्रचारार्थ गये । इस मध्यममार्गकी प्रवृत्ति जितनी लोकोपयोगी थी, उतनी हो भिक्षुत्रोंके लिये सरल और सुखद थी । श्री वर्धमान स्वामीके कठिन ' त्यागमार्गसे खिन्न हुए जैन साधुत्रों पर बौद्धोंके इस सरल और लोकोपयोगी मध्यममार्गका असर होना सहज बात है । जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न होनेके कथनका अभिप्राय यह हो सकता है कि पूर्वके कठोर मार्ग में नरमाई श्राई और धीरे धीरे वनवासीसे चैत्यवासी बन गये | देखो - जै० सा० वि०, पृ० १८२-१८६ | जै० सा० इ० ( गु० ) पृ० ६४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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