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श्रुतपरिचय
५६५ उद्ध तकी गई है। शान्तिचन्दने जम्बद्वीप प्रज्ञप्तिकी टीकामें इति पञ्चवस्तुक सूत्रे' लिखकर स्वयं इस बातको स्वीकार किया है। हरिभद्र सूरिका समय ईसाकी आठवीं शताब्दी सुनिश्चित है उस समय दृष्टिवाद नहीं था। फिर भी हरिभद्र सूरिने जो पञ्चवस्तुक की उक्त गाथाओं में उक्तग्रन्थोंके पठन पाठनका काल बतलाया है वह अवश्य ही उन्हें परम्परा प्राप्त होनेसे प्राचीन होना चाहिए। उन्होंने स्वयं उसे स्वीकार किया है। __ श्वेताम्बर साहित्यमें अङ्गोंका निर्देश करने वाले वाक्योंके कई रूप मिलते हैं। किन्तु डा० बेवर ने दो का ही निर्देश करते हुए लिखा है-जहाँ कहीं बारह अङ्गों के नाम गिनाये हैं तो पहला अङ्ग का नाम 'आचार' दिया गया है। किन्तु जब अङ्गों का निर्देश संख्यापरक न होकर साधारण रीति से किया गया है तब उनका निर्देश 'सामायिक, आदि करके किया गया है । यथा'सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव विंदुसाराओ (आव०नि०६३)। अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र और नन्दिसूत्र में 'दुवाल संग गणि पिडगं' का वर्णन करते हुए आचार को प्रथम स्थान दिया है। कहीं पर भी प्रथम अङ्ग का नाम सामायिक नहीं बतलाया, आचार ही सर्वत्र बतलाया है। इस तरह से दो प्रकार का निर्देश देखकर डा. वेबर को बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने लिखा है कि 'सामायिकको आदि लेकर ग्यारह अङ्गोंका निर्देश करनेवाले वाक्य यदि आचारको लेकर बारह अङ्गोंका कथन करने वाले वाक्यों से प्राचीन हैं तो यह स्वतः सिद्ध है कि ग्यारह अंगों
१-काल कमेण पत्तं, संवच्छर माहणाअो जं जम्मि । तं तम्मि चेव
धीरो वा पञ्जासोय कालो यं ॥ ५८१ ।।-पञ्चव० २- इं० एं०, जि०, १७, पृ० २६२ आदि ।
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