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________________ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका महावीरकी वाणी खिरती है, मैं ग्यारह अङ्गों का पाठी हूँ, फिर भी मेरे रहते हुए वाणी क्यों नहीं होती। यह सर्वज्ञ नहीं है । यह जानकर वह वहाँसे चल दिया और उसने अज्ञानसे मोक्ष होता है. यह मत चलाया' । ४४० दोनों उल्लेखों में साधुका नाम मस्करिपूरण लिखा है । बौद्ध ग्रन्थोंसे यह प्रकट है कि बुद्ध कालीन है शास्ताओं में से एक पूरण काश्यप था, और एक मक्खलि गोशालक था । गोशालकको तो मस्करी लिखा मिलता है किन्तु पूरण काश्यपको मस्करी लिखा कहीं नहीं देखा गया । संभव है मक्खलिंको ही मस्करीपूरण समझ लिया हो । अनगार धर्मामृतमें जो महावीर के समवसरण में मस्करीपूरके जानेका निर्देश किया है उससे उक्त संभावना की ही पुष्टि होती है। क्योंकि पूरण काश्यप और महावीरके परिचयका निर्देश तो कहीं नहीं मिलता किन्तु महावीर और मक्खलि गोशालकका मिलता है । किन्तु उनके जिस अज्ञान मतका दर्शनसार में उल्लेख है उससे उनके मतका ठीक स्पष्टीकरण नहीं होता । बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्ज फलसुत्तमें पूरण काश्यपका मत दिया है । उसका सारांश इतना ही है कि न बुरे कर्म करने से पाप होता है और न अच्छे कर्म करनेसे पुण्य होता है । इसी सूक्तमें मक्खलि गोशालकका मत देते हुए उसे नियतिवादी कहा है। किन्तु बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्द प्रश्न में लिखा है कि सम्राट् मिलिन्द ने गोशालक से पूछा 'अच्छे बुरे कर्म हैं या नहीं ? और अच्छे बुरे कर्मों का फल है या नहीं ? गोशालकने उत्तर दिया- अच्छे बुरे कर्म भी नहीं है और उनके फल भी नहीं है । यह उत्तर पूरणकाश्यपके मतके ही अनुरूप है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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