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मुदशिनी टीका १० १ सू०८ उर परिसर्पप्रकारनिरूपणम् साम्मतमुरम्परिसर्पप्रकारानाह-'अयगर' इत्यादि।
मूलम्-अयगर-गोणस-वराहि-माउलि-काकोदर-दभ पुप्फा-आसालिय-महोरगा उरग विहाणा फएय एवमाई।सू०८॥
टीका-अजगर-गोणश वराहि मुलि-काकोदर-दर्भपुप्प-आशालिक महोरंगोरगविधाना कृतात्र ण्यमादीन् । अजगरा-मसिद्धाः, गोणगा: फणरहित. द्विमुखसर्पविशेपाः 'वराय.' दृष्टिविपमः येपा दृष्ट्या निपावेशो भवति । मुकुलिनाईपत्फणकारकाः, काकोदरा मामान्यसर्पाः, दर्गपुष्पा सामान्यफणनाम है । (सहूल) शार्दल, (सीह ) सिंह एव (चिल्लल ) चित्रक ये सय मासभक्षी जगली जानवर है और स्थलचर है ॥ सू ७ ॥ __ अय सूत्रकार उर परिसर्पके भेदों को प्रकट करते हैं-'अयगर गोणस' इत्यादि।
टीकार्थ-(अयगर) अजगर यह यत्रत अधिक मोटा सर्प होता है, धीरे २सरकता है, जिस प्रकार सामान्य सर्प आहट पाते ही बहुत शीघ्र भग जाता है वैसे यह नहीं भग सकता है । (गोणस) गोणश यह भी एक प्रकार का सर्प ही होता है, परन्तु इसके फणा नहीं होती है, व्यवहार में लोग ऐसा कहते हैं कि इसके दो मुग्व होते हैं, इसका दूसरा नाम दुमुही भी होता है। (वराही) वराहि-यह वह सर्प है कि जिसकी दृष्टि में विप रहता है, जिसे यह देख लेता है उसके विप का आवेश हो जाता है, इसका दूसरा नाम दृष्टिविप सर्प भी है। (माउलि) मुकुलीयह वह सर्प है जो अपने फण को थोड़ा ही विस्तारता है, ज्यादा नही, भल्ल" तरक्ष, ४२७ मतेशछाना नाम छ "सल" "सीह" सिंह भने “चिल्लल" चित्र सधा भामलक्षी न१२॥ छ, भने स्थणय छे ॥ ७॥
वे सूत्रा२ " उर परिमर्प" पटे यासाना साना ले मतावे छ" अयगर-गोणस" छत्यादि
टी---" अयगर" m२-ते १ यारे भाटी सा५ छ, ते धीमे ધીમે સરકે છે જે રીતે સામાન્ય સાપે સહેજ પણ આવાજ થતા તરતજ ભાગી જાય છે તેમ તેઓ ભાગી શક્તા નથી “જોળ ગણા–તે પણ એક પ્રકારને સાપ જ હોય છે, પણ તેને રેણ હેતી નથી વ્યવહારમાં લે એવું
छ , तेने से भुग डाय, तेनु मी नाम हुभुडी पy छ “वराहि" વરાહિતે એ સર્યું છે કે જેની દૃષ્ટિમા જ વિષ રહે છે, જેને તે જુવે છે तेन तेनु २ २ छ, तेनु माउ नाम विष स प छ "माउली" भुली તે એવી જાતને સર્પ છે કે તે પિતાની ફેણને ચેડા પ્રમાણમા જ ફેલાવે છે,