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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली शास्त्रारम्भेऽभिमतां देवतां शास्त्रस्य प्रणेतारं गुरुञ्च श्लोकस्य पूर्वार्द्धन नमस्यति – प्रणम्येति। कारम्भे हि देवता गुरवश्च नमस्क्रियन्ते इति शिष्टाचारोऽयम्। फलं च नमस्कारस्य विघ्नोपशमः। न तावदयमफलः, प्रेक्षावद्भिरनुष्ठेयत्वात्। अन्यफलोऽपि न कारम्भे नियमेनानुष्ठीयेत, अविघ्नेन प्रारीप्सितपरिसमाप्तेस्तदानीमपेक्षितत्वात्, फलान्तरस्यानभिसंहितत्वाच्च।
ननु किं नमस्कारादेव विघ्नोपशमः ? उत अन्यस्मादपि भवति ? न तावन्नमस्कारादेवेत्यस्ति नियमः, असत्यपि नमस्कारे न्यायमीमांसाभाष्ययोः परिसमाप्तत्वात् । यदा चान्यस्मादपि तदा नियमेनोपादानं निरुपपत्तिकम् । अत्रोच्यते - नमस्कारादेव विघ्नोपशमः, कारम्भे सद्धिनियमेन तस्योपादानात् । न च न्यायमीमांसाभाष्यकाराभ्यां न कृतो नमस्कारः, किन्तु तत्रानुपनिबद्धः ।
शास्त्र के आदि में इष्टदेवता तथा शास्त्र के रचयिता और अपने गुरु कणाद मुनि को "प्रणम्य” इत्यादि श्लोक के पूर्वार्द्ध से नमस्कार किया गया है। किसी कार्य के आरम्भ में देवता और गुरु को नमस्कार करना शिष्टजनों का आचार है। इसका फल विघ्नों का नाश (ही) है। यह निष्फल तो हो नहीं सकता, क्योंकि शिष्टों से आचरित है। विघ्नों के नाश को छोड़ कर और (स्वर्गादि) फल भी इसके नहीं हो सकते, क्योंकि उस दशा में शास्त्रों के आरम्भ में ही नियम से इसका अनुष्ठान नहीं होता । एवं मङ्गलाचरण के समय "ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हो जाय" यही मङ्गला. चरण करनेवाले को अभिप्रेत भी होता है। दूसरे (स्वर्गादि) फल वहाँ उपस्थित भी नहीं हैं।
(प्रश्न) (१) विघ्नों का विनाश नमस्कार से ही होता है ? या (२) और भी किसी कारण से ? यह नियम तो नहीं है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश हो, क्योंकि न्यायभाष्य और मीमांसाभाष्य दोनों ही निर्विघ्न समाप्त हैं, यद्यपि उनमें नमस्कार नहीं है। अगर नमस्कार को छोड़ कर और भी किसी कारण से विघ्नों का नाश हो सकता है तो फिर ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्कार करना ही चाहिए, यह नियम युक्ति-शून्य हो जाता है। (उत्तर) उक्त प्रश्न के समाधान में कहना है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश होता है, क्योंकि सभी कार्यो के आरम्भ में शिष्टों ने नियम से मङ्गलाचरण किया है। न्यायभाष्यकार और मीमांसाभाष्यकार इन दोनों ने मङ्गलाचरण नहीं किया है, यह बात नहीं है, किन्तु उन लोगोंने अपने मङ्गलाचरण को अपने ग्रन्थों में लिखा नहीं है।
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