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विजयोदया टीका
१७ ननु च ज्ञानमनन्तरेणापि दर्शनं वर्तते, यतो मिथ्यादृष्टिरपि ज्ञानस्याराधको भवति । अतोऽविनाभावा भाव इत्यत आह
सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिहिस्स वेति अण्णाणं ।
तम्हा मिच्छादिट्ठी णाणस्साराहओ णेव ।। ५॥ शुद्धनयाः पुनः । अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमधर्मपरिच्छेदस्तदविनाभाविधर्मबलप्रसूतो नयः । तथा चोक्तम इति । "उपपत्तिबलादर्थपरिच्छेदो नयः' इति । शुद्धो नयो येषां ते शद्धनयाः। निरपेक्षनयनिरासाय शुद्धविशेषणम् । नित्यमेव सर्वथा क्षणिकमेवेति ये परिच्छेदास्ते विपर्यासरूपास्तथाविधस्य प्रतिपक्षधर्मानपेक्षस्य वस्तुनि रूपस्याभावात । सापेक्ष रूपं निराकांक्षतारूपेण दर्शयतः प्रत्ययस्य अतस्मिस्तदिति ज्ञानं भ्रान्तमिति भ्रान्तता । तद्दोषरहितता शुद्धता । तया हि-कृतकत्वेन अनित्यतामेव वस्तुनः प्रत्येति ज्ञानं न तत्स
ज्ञानके साथ अविनाभाव है। अतः गाथा सूत्रमें ठीक ही कहा है कि तत्त्व श्रद्धानकी आराधना करने पर सम्यग्ज्ञानकी आराधना अवश्य होती है। इस पर प्रश्न होता है कि ज्ञानाराधना और चारित्राराधना ऐसे दो भेद क्यों नहीं रखे ? इसके उत्तरमें कहा है कि सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने पर सम्यग्दर्शनकी आराधना होती हैं किन्तु मिथ्याज्ञानकी आराधनामें सम्यक्त्वकी आराधना नहीं होती। इस प्रकार ज्ञान और दर्शनमें अविनाभाव न होने से ज्ञानाराधनामें दर्शनाराधना भाज्य है। इस पर पुनः प्रश्न होता है कि जब 'सम्यग्ज्ञानकी आराधना' कहने पर सम्यक्त्वकी आराधनाका बोध हो सकता है तो वैसा क्यों नहीं कहा ? इसका उत्तर है कि ज्ञानके सम्यक् व्यपदेशमें सम्यक्त्व मुख्य हेतु है। सम्यक्त्वके विना ज्ञान सम्यक् नहीं कहलाता । अतः सम्यग्ज्ञानका प्राधान्य नहीं है ॥४॥
'ज्ञानके विना भी सम्यग्दर्शन होता है क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी ज्ञानका आराधक होता है। अतः ज्ञानके साथ सम्यग्दर्शनका अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। इस आशंकाका उत्तर देते हैं
गा०-किन्तु शुद्धनय दृष्टि वाले ज्ञानी जन मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको अज्ञान कहते हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टि ज्ञानका आराधक नहीं ही होता ॥५।।
टो०-अनन्त धर्मात्मक वस्तुके किसी एक धर्मके जाननेको नय कहते हैं । यह नय उस धर्मके साथ ही रहनेवाले अन्य धर्मोंके बलसे उत्पन्न होता है। अर्थात् नय जिस धर्मको जानता है उस धर्मके साथ जो अनन्त धर्म उस वस्तुमें रहते हैं उनका निषेध नही करता। किन्तु उनको गौण करके एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको जाननेका नाम नय है। कहा भी है-युक्तिके बलसे वस्तुके जाननेको नय कहते हैं । शुद्ध नय जिनका है वे शुद्धनय होते हैं । यहाँ निरपेक्ष नयके निरासके लिए 'शुद्ध' विशेषण लगाया है। वस्तु सर्वथा नित्य ही है अथवा सर्वथा क्षणिक ही है इस प्रकारके जो ज्ञान हैं वे विपरीत रूप है क्योंकि इस प्रकारके प्रतिपक्षी धर्मोंसे निरपेक्ष रूपका वस्तुमें अभाव है। वस्तुका स्वरूप सापेक्ष है उसे जो निरपेक्ष रूपसे दिखलाने वाला ज्ञान है, वह भ्रान्त है । क्योंकि जो जिस रूप नहीं है उसे उस रूप दिखलाता है वह ज्ञान भ्रान्त होता हैं। और जो उस दोषसे रहित है वह शुद्ध है। इसका खुलासा इस प्रकार है-वस्तुको उत्पत्तिको देखकर मिथ्याज्ञान वस्तुको सर्वथा अनित्य ही मानता है। किन्तु वह सर्वथा अनित्य नहीं है। समस्त
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