Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा ४ आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा चतुर्थ खण्ड लेखक डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, एम.ए. पी-एच.डी. डी. लिट (इस भाग का मुद्रण श्री नेमीचन्द रमेशकुमार पाटनी, रामगढ़ के सौजन्य से) । आचार्य शन्तिसागर छाणी ग्रन्थमाला Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की लेखनीसे भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्को ओरसे गुरु गोपालदास बरैया-शताब्दी समारोह के प्रसंगको लेकर जब श्री बरैया स्मृति ग्रन्थका प्रकाशन हुआ, तब समाजके प्रबुद्धaiने अत्यधिक प्रसन्नता प्रकट की थी । ग्रन्थका सर्वत्र समादर हुआ और उसको समस्त प्रतियां हाथों-हाथ उठ गयीं । भारतवर्ष के समस्त विश्वविद्यालयोंकी लाइब्रेरियोंके लिए यह संग्रहणीय ग्रन्थ विद्वत्परिषद्की ओर से निःशुल्क भेंट किया गया। उसके उत्तरमें विश्वविद्यालयोंके प्रबन्धकोंने जो धन्यवादपत्र दिये, उनमें उन्होंने उस ग्रन्थ रत्नको प्राप्तकर बड़ा हर्ष प्रकट किया था । वर्तमानमें चल रहे श्री १००८ भगवान् महावीरके २५०० व निर्वाणमहोत्सव के उपलक्ष्य में भी विद्वत्परिषद्को कार्यकारिणीने 'तीर्थकर महावीर मौर उनको आचार्य परम्परा' नामक ग्रन्थ प्रकाशित करनेका निश्चय किया और इसके लेखनका भार विद्वत्परिषद् के उपाध्यक्ष ओर बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्रो नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य, एम०ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट्०, अध्यक्ष संस्कृतप्राकृत विभाग एच० डी० जैन कालेज आराको दिया गया । सम्माननीय डाक्टर साहबने इस ग्रन्थ के लेखन में चार-पांच वर्षं अकथनीय परिश्रम किया है । परन्तु खेद है कि वे अपनी इस महनीय कृतिको अपने जीवन काल में प्रकाशित न देख सके । गत जनवरी ७४ में उनके दिवंगत होनेका समाचार देशभर में संतस हृदयसे सुना गया । यह महान् ग्रन्थ चार भागों में सम्पूर्ण हुआ है। इसके प्रकाशन के लिए विद्वत्परिषद्के पास अर्थकी व्यवस्था नगण्य थी। परन्तु विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष डॉक्टर दरबारीलालजी कोठियाने इसके अग्रिम ग्राहक बनानेकी योजना प्रस्तुत की, जिसे समाजने बड़े उत्साह के साथ स्वीकृत किया। श्री १०८ पूज्य विद्यानन्दजी महाराजने भी अपने शुभाशीर्वादसे इसके प्रकाशनका मार्ग प्रशस्त किया । यह प्रकट करते हुए प्रसन्नता होती है कि इसके सातसी ग्राहक अग्रिम मूल्य देकर बन गये । ग्रन्थके चारों भागोंका मूल्य ८५ ) है । परन्तु अग्रिम ग्राहक बननेवालोंको यह ग्रन्थ ६१ ) में देनेका निर्णय किया गया । ग्रन्थका आभ्यन्तर परिचय डॉक्टर दरबारीलालजी कोठिया द्वारा लिखे आमुख तथा ग्रन्थको विषय सूचीसे स्पष्ट है । इस ग्रन्थके संपादन और प्रकाशन तथा अर्थके संग्रहमें विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष प्रकाशककी लेखनीसे ५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक कथन भारतवर्षका क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीरसे प्रारम्भ होता है । इनमेंसे प्रथम बौद्धधर्मके संस्थापक थे, तो द्वितीय थे जैनधर्मके अन्तिम तीर्थकर । 'तीर्थकर' शब्द जैनधर्मके चौबीस प्रवत्तंकोंके लिए रूढ़ जैसा हो गया है, यद्यपि है यह यौगिक ही । धर्मरूपी तीथंके प्रवर्तकको ही तीर्थकर कहते हैं। आचार्य समन्तभद्रने पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथकी स्तुतिमें उन्हें 'धर्मतीर्थमन प्रवर्तयन्' पदके द्वारा धर्मतीर्थका प्रवर्तक कहा है। भगवान महावीर भी उसी धर्मतीर्थके अन्तिम प्रवर्तक थे और आदि प्रवत्तंक थे भगवान् ऋषभदेव । यही कारण है कि हिन्दू पुराणोंमें जैनधर्मको उत्पत्तिके प्रसंगसे एकमात्र भगवान ऋषभदेवका ही उल्लेख मिलता है किन्तु भगवान महावोरका संकेत तक नहीं है जब उन्हींके समकालीन बुद्धको विष्णुके अवतारों में स्वीकार किया गया है। इसके विपरीत त्रिपिटक साहित्यमें निग्गठनाटपुत्तका तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थोंका उल्लेख बहतायतसे मिलता है। उन्हींको लक्ष्य करके स्य० डॉ० हनि याकोबोने अपनो जैन सूत्रोंकी प्रस्तावनामें लिखा है- 'इस बातसे अब सब सहमत हैं कि नातपुत्त, जो महावीर अथवा वर्धमानके नामसे प्रसिद्ध है। बद्धके समकालीन थे। बौद्धग्रन्थों में मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दद करते हैं कि नातपूत्तसे पहले भी निर्गन्धोंका, जो आज जैन अथवा आईत नामसे अधिक प्रसिद्ध है, अस्तित्व था | जब बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिना जाता होगा । बौद्ध पिटकोंमें कुछ निग्रंथोंका बुद्ध और उनके शिष्योंके विरोषीके रूपमें और कुछका बुद्धके अनुयायी बन जानेके रूपमें वर्णन आता है | उसके ऊपरसे हम उक्त अनुमान कर सकते हैं। इसके विपरीत इन ग्रन्थों में किसो भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखने में नहीं आता कि निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके संस्थापक हैं। इसके ऊपरसे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि बुद्धके जन्मसे पहले अति प्राचीन कालसे निर्गन्थोंका अस्तित्व चला आता है।" ___अन्यत्र डॉ० याकोवीने लिखा है-'इसमें कोई भी सबूत नहीं है कि पार्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको जैन धर्मका संस्थापक माननेमें एकमत है। इस मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी सम्भावना है।' प्राक् कवन : १ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन ने अपने 'भारतीय दर्शन' में कहा है'जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने वर्मंकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तोर्थंकर ऋषभदेवकी पूजा होती थी । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पाश्र्वनाथ से भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन सोन तीर्थंकरों के नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे ।' यथार्थ में वैदिकों की परम्पराकी तरह श्रमणोंकी भी परम्परा अति प्राचीन फालसे इस देश में प्रवर्तित है । इन्हीं दोनों परम्पराओंके मेलसे प्राचीन भारतीय संस्कृतिका निर्माण हुआ है। उन्हीं श्रमणोंकी परम्परामें भगवान महावीर हुए बुद्ध भी एक राजकुमार थे। उन्होंने भी घरका परि त्याग करके कठोर साधनाका मार्ग अपनाया था। यह एक विचित्र बात है कि श्रमण परम्परा के इन दो प्रवत्तंकों की तरह वैदिक परम्पराके अनुयायी हिन्दूधर्ममें मान्य राम और कृष्ण भी क्षत्रिय थे । किन्तु उन्होंने गृहस्थाश्रम और राज्यासनका परित्याग नहीं किया । यही प्रमुख अन्तर इन दोनों परम्पराओं में । कृष्ण भी योगी कहे जाते हैं किन्तु वे कर्मयोगी थे। महावीर ज्ञानयोगी थे । कर्मयोग और ज्ञानयोगमं अन्तर है । कर्मयोगीकी प्रवृत्ति ब्राह्याभिमुखी होती है और ज्ञानयोग की आन्तराभिमुखी । कर्मयोगीको कर्ममें रस रहता है और ज्ञानयोगीको ज्ञानमें । ज्ञानमें रस रहते हुए कर्म करनेपर भी कर्मका कर्ता नहीं कहा जाता । और कर्ममें रस रहते हुए कर्म नहीं करनेपर भी कर्मका कर्त्ता कहलाता है । कर्म प्रवृत्तिरूप होता है और ज्ञान निवृत्तिरूप । प्रवृत्ति और निवृत्तिकी यह परम्परा साधना कालमें मिली-जुली जैसी चलती है किन्तु ज्यों-ज्यों निवृत्ति बढ़ती जाती है प्रवृत्तिका स्वतः ह्रास होता जाता है । इसीको आत्मसाधना कहते हैं । I यथार्थमें विचार कर देखें-- प्रवृत्तिके मूल मन, वचन और काय हैं । किन्तु आत्माके न मन है, न वचन है और न काय है । ये सब तो कर्मजन्य उपाधियाँ हैं । इन उपाधियोंमें जिसे रस है वह आत्मज्ञानी नहीं है । जो आत्मज्ञानी हो जाता है उसे ये उपाधियाँ व्याधियाँ ही प्रतीत होती है । इनका निरोध सरल नहीं है । किन्तु इनका निरोध हुए बिना प्रवृत्तिसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । उसीके लिए भगवान महावीरने सब कुछ त्याग कर वनका मार्ग लिया था । संसार मागियोंकी दृष्टिमें भले ही यह 'पलायनवाद' प्रतीत हो, किन्तु इस पलायनवादको अपनाये बिना निर्वाण प्राप्तिका दूसरा १० : पीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा | t Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग भी नहीं है । भोगी और योगीका मार्ग एक कैसे हो सकता है। तभी तो । गीतामें कहा है या निशा सर्वभूतानां तस्यां जार्गात संयमी। पस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ 'सब प्राणियों के लिए जो रास है उसमें संयमी जागता है और जिसमें प्राणी जागते हैं वह आत्मदर्शी मुनिकी रात है ।' इस प्रकार भोगी संसारसे योगीके दिन-रात भिन्न होते हैं । संयमी महावीरने भी आत्म-साधनाके द्वारा कार्तिक कृष्णा अमावस्याके प्रातः सूर्योदयसे पहले निर्वाण-लाभ किया। जैनोंके उल्लेखानुनार उसोके उपलक्षमें दीपमालिकाका आयोजन हुआ और उनके निषि लाभको पस्योस सौ वर्ष पूर्ण हुए। उसीके उपलक्षमें विश्व में महोत्सवका आयोजन किया गया है । उसीके स्मृतिम 'सोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा' नामक यह बृहत्वाय ग्रन्थ चार खण्डोंमें प्रकाशित हो रहा है । इसमें भगवान महावीर और उनके बादके पच्चीस-सौ वर्षों में हुए विविध साहित्यकारोंका परिचयादि उनको साहित्य-साधनाका मूल्यांकन करते हुए विद्वान् लेखकने निबद्ध किया है । उन्होंने इस ग्रन्थके लेखनमें कितना श्रम किया, यह तो इस ग्लन्थको आद्योपान्त पढ़नेवाले ही जान सकेंगे। मेरे जानतमें प्रकृत विषयसे सम्बद्ध कोई ग्रन्थ, या लेखादि उनको दतिसे ओझल नहीं रहा। तभी तो इस अपनी कृतिको समाप्त करनेके पश्चात् ही वे स्वर्गत हो गये और इसे प्रकाशमें लाने के लिए उनके अभिन्न सस्या डॉ० कोठियाने कितना श्रम किया है, इसे वे देख नहीं सके । 'भगवान महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा में लेखकने अपना जीवन उत्सर्ग करके जो श्रद्धा सुमन चढ़ाये हैं उनका मूल्यांकन करनेकी क्षमता इन पंक्तियों के लेखकमें नहीं है। वह तो इतना ही कह सकता है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्रीने अपनी इस कृतिके द्वार। स्वयं अपनेको भी उस परम्परामें सम्मिलित कर लिया है। उनकी इस अध्ययनपूर्ण कृतिमें अनेक विचारणीय एतिहासिक प्रसंग आये हैं। भगवान महावीरके समय, माता-पिता, जन्मस्थान आदिके विषय में तो कोई मतभेद नहीं है। किन्तु उनके निर्वाणस्थानके सम्बन्धमें कुछ समयसे विवाद खड़ा हो गया है । मध्यमा पावामें निर्माण हुआ, यह सर्वसम्मत उल्लेख है। तदनुसार राजगृहीके पास पावा स्थानको ही निर्वाणभूमिके रूपमें माना जाता है। वहाँ एक तालाबके मध्य में विशाल मन्दिरमें उनके चरण प्राक् कथन : ११ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ह स्थापित हैं । यह स्थान मगधमें है । दूसरी पावा उत्तर प्रदेशके देवरिया जिलेमें कुशीनगरके समीप है । डॉ० शास्त्रीने मगधवर्ती पावाको ही निर्वाणभूमि माना है । बिम्बसार श्रेणिक भगवान महावीरका परम भक्त था । उसकी मृत्यु डॉ० शास्त्रीने भगवान महावीरके निर्वाणके बाद मानी है, उन्हें ऐसे उल्लेख मिले हैं । किन्तु यह ऐतिहासिक प्रसंग विचारणीय हैं । उन्होंने जैन तत्व-ज्ञानका भी बहुत विस्तारसे विवेचन किया है और प्रायः सभी आवश्यक विषयों पर प्रकाश डाला है । दूसरा, तीसरा तथा चौथा खण्ड तो एक तरहसे जैनसाहित्यका इतिहास जैसा है। संक्षेपमें उनकी यह बहुमूल्य कृति अभिनन्दनीय है । आशा है इसका यथेष्ट समादर होगा । कैलाशचन्द्र शास्त्री १२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा r Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भारतीय संस्कृति में आर्हत संस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धांत, धर्म और उसके प्रवर्तक तीर्थंकरों तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर' और उनके उत्तरवर्ती आचार्योंने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिषद्-साहित्य में 'परा विद्या' (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया है, सदा उपदेश दिया और भारतकी चेतनाको जागृत एवं ऊर्ध्वमुखी रखा है। आत्माको परमात्माकी ओर ले जाने तथा शाश्वत सुखकी प्राप्तिके लिए उन्होंने अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि (आत्मलीनता) का स्वयं आचारण किया और पश्चात उनका दूसरोंको उपदेश दिया। सम्भवत: इसोस वै अध्यात्म-शिक्षादाता और श्रमण-सस्कृत्तिके प्रतिष्ठाता कहे गये हैं | आज भी उनका मार्गदर्शन निष्कलुष एवं उपादेय माना जाता है। तीर्थकर महावीर इस संस्कृतिके प्रबुद्ध, सबल, प्रभावशाली और अन्तिम प्रचारक थे। उनका दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और उनका प्रतिपादक वाङ्मय विपुल मात्रामें आज भी विद्यमान है तथा उसी दिशामें उसका योगदान हो रहा है। ___ अतएव बहुत समयसे अनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थकर महावीरका सर्वाङ्गपूर्ण परिचायक ग्रन्य होना चाहिए, जिसके द्वारा सर्वसाधारणको उनके जीवनवृत्त, उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके। यद्यपि भगवान् महावीरपर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीमें लिखा पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है, पर उससे सर्वसाधारणको जिज्ञासा शान्त नहीं होती। ___ सोभाग्यकी बात है कि राष्ट्रने तीर्थकर यद्धमान-महावीरको निर्वाण-रजसशती राष्ट्रीय स्तरपर मनानेका निश्चय किया है, जो आगामी कात्तिक कृष्णा अमावस्या वीर-निर्वाण संवत् २५०१, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७४ से कात्तिक १. धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिम्यो नमोनमः । ऋषभादि-महावीरान्तम्यः स्वात्मोपलब्धये ॥ भट्टाकलकूदेव, लघीमस्त्रय, मङ्गलपद्य १ । २. मुण्डकोपनिषद् १।१।४१५ । ३. स्वामी समन्तभद, युक्त्यनुशासन का०६। मामुख : १३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णा अमावस्या, वीर - निर्वाण संवत् २५०२, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७५ तक पूरे एक वर्ष मनायी जावेगी । यह मङ्गल-प्रसङ्ग भी उक्त ग्रन्थ- निर्माण के लिए उत्प्रेरक रहा । अत: अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्ने पाँच वर्षं पूर्वं इस महान् दुर्लभ अवसरपर तीर्थंकर महावीर और उनके दर्शनसे सम्बन्धित विशाल एवं तथ्यपूर्ण ग्रन्थके निर्माण और प्रकाशनका निश्चय तथा संकल्प किया । परिषद् ने इसके हेतु अनेक बैठकें कीं और उनमें ग्रन्थकी रूपरेखापर गम्भीरता से कहापोह किया । फलतः ग्रन्थका नाम 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा' निणींत हुआ और लेखनका दायित्व विद्वत्परिषद्के तत्कालीन अध्यक्ष, अनेक ग्रन्थोंके लेखक, मूर्धन्य मनीषी, आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री आरा (बिहार) ने सहर्ष स्वीकार किया । आचार्य शास्त्रीने पाँच वर्ष लगातार कठोर परिश्रम, अद्भुत लगन और असाधारण अध्यवसायसे उसे चार खण्डों तथा लगभग २००० ( दो हजार ) पृष्ठों में सृजित करके ३० सितम्बर १९७३ को विद्वत्परिषद्को प्रकाशनार्थ दे दिया | विचार हुआ कि समग्र ग्रन्थका एक बार वाचन कर लिया जाय । आचार्य शास्त्री स्याद्वाद महाविद्यालयका प्रबन्धकारिणीको बैठकले सम्मिलत होनेके लिए ३० सितम्बर १९७३ को वाराणसी पधारे थे । और अपने साथ उक्त ग्रन्यके चारों खण्ड लेते आये थे । अतः १ अक्तूबर १९७३ से १५ अक्तूबर १९७३ तक १५ दिन वाराणसी में ही प्रतिदिन प्रायः तीन समय तीन-तीन घण्टे ग्रन्थका वाचन हुआ । वाचनमें आचार्य शास्त्रीके अतिरिक्त सिद्धान्ताचार्य श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पूर्व प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, डॉक्टर ज्योतिप्रसादजी लखनऊ और हम सम्मिलित रहते थे । आचार्य शास्त्री स्वयं वाचते थे और हमलोग सुनते थे । यथावसर आवश्यकता पड़ने पर सुझाव भी दे दिये जाते थे । यह वाचन १५ अक्तूबर १९७३ को समाप्त हुआ और १६ अक्तूबर १९७३ को ग्रन्थ प्रकाशनार्थ महावीर प्रेसको दे दिया गया । प्रत्य-परिचय इस विशाल एवं असामान्य ग्रन्थका यहाँ संक्षेपमें परिचय दिया जाता है, जिससे अन्य कितना महत्त्वपूर्ण है और लेखकने उसके साथ कितना अमेय परिश्रम किया है, यह सहज में ज्ञात हो सकेगा । यहाँ चतुर्थ खण्ड का परिचय प्रस्तुत है - १४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक इस चतुर्थ भाग में उन जैन काव्यकारों एवं ग्रन्थ-लेखकों का परिचय निबद्ध है, जो स्वयं आचार्य न होते हुए भी आचार्य जैसे प्रभावशाली ग्रन्थकार हुए। इसमें चार परिच्छेद हैं, जिनका प्रतिपाद्य विषय अधोलिखित है प्रथम परिच्छेद: संस्कृत कवि और ग्रन्थलेखक -- इसमें परमेष्ठि, धनञ्जय, असम, हरिचन्द, चामुण्डराय, अजित सेन, विजयवर्णी आदि तीस संस्कृत कवियों एवं ग्रन्थ लेखकोंका व्यक्तित्व एवं कृतित्व वर्णित है । द्वितीय परिच्छेद : अपभ्रंश कवि एवं लेखक इस परिच्छेद में चतुर्मुख स्वयंभूदेव त्रिभुवन स्वयंभू, पुष्पदन्त, घनपाल, धवल, हरिषेण, वीर, श्रीचन्द्र, नयनेन्दि, श्रीवर प्रथम, श्रीधर द्वितीय, श्रीधर तृतीय, देवसेन, अमरकीर्ति, कनकामर, सिंह, लालू, यश कीर्ति, देवचन्द्र, उदयचन्द्र, रइधू, तारणस्वामी आदि पैंतालीस अपभ्रंश -कवियों-लेखकों और उनकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय निबद्ध है । तृतीय परिच्छेद: हिन्दी तथा देशज भाषा कवि एवं लेखक इसमें बनारसीदास, रूपचन्द्र पाण्डेय, जगजीवन, कुंवरपाल, भूधरदास धान्तराय, किशनसिंह, दौलतराम प्रथम, दौलतराम द्वितीय, टोडरमल्ल, भागचन्द, महाचन्द आदि पच्चीस हिन्दी कवियों और लेखकोंका उनकी कृतियों सहित परिचय अति है । अन्य देशज भाषाओं में कन्नड़, तमिल और मराठीके प्रमुख काव्यकारों एवं लेखकों का भी परिचय दिया गया है । चतुर्थ परिच्छ ेद : पट्टावलियां इस परिच्छेद में प्राकृत पट्टावलि, सेनगण पट्टावल, नन्दिसंघबलात्कारगण-पट्टावलि, आदि तो पट्टावलियां संकलित हैं। इन पट्टावलियों में कितना ही इतिहास भरा हुआ है, जो राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टियोंसे बड़ा महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है । इस प्रकार प्रस्तुत महान् ग्रन्थसे जहाँ तीर्थंकर वर्धमान महावीर और उनके सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त होगा, वहाँ उनके महान् उत्तराधिकारी इन्द्रभूति आदि गणधरों, श्रुतकेवलियों और बहुसंख्यक आचार्यो के यशस्वी योगदान - विपुल वाङ्मय निर्माणका भी परिज्ञान होगा। यह भी अवगत होगा कि इन आचार्यों ने समय-समय पर उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी तीर्थंकर महाairat अमृतवाणीको अपनी साधना, तपश्चर्या, त्याग और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा अब तक सुरक्षित रखा तथा उसके भण्डारको समृद्ध बनाया है । आमुख : १५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार इस विशाल ग्रन्थके सृजन और प्रकाशनका विद्वत्परिषद्ने जो निश्चय एवं संकल्प किया था, उसकी पूर्णता पर आज हमें प्रसन्नता है। इस संकल्पमें विद्वत्परिषद् के प्रत्येक सदस्यका मानसिक या वाचिक या कायिक सहभाग है । कार्यकारिणी के सदस्योंने अनेक बैठकों में सम्मिलित होकर मूल्यवान् विचार दान किया है । ग्रन्थ वाचनमें श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और डॉ० ज्योति प्रसादजीका तथा ग्रन्थको उत्तम बनाने में स्थानीय विद्वान् प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, पण्डित अमृतलालजी शास्त्री एवं पण्डित उदयचन्द्रजी बौद्धदर्शनाचार्यका भी परामर्शादि योगदान मिला है । पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजीने 'माथ मिताक्षर' रूपमें आशीर्वचन प्रदान कर सथा वरिष्ठ विद्वान् श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'प्राक्कथन' लिखकर अनुगृहीत किया है । खतौली, भोपाल, बम्बई, दिल्ली, मेरठ, जबलपुर, तेंदूखेड़ा, सागर, वाराणसी, आरा आदि स्थानोंके महानुभावोंने ग्रन्थका अग्रिम ग्राहक बनकर सहायता पहुँचायी है । विद्वत्परिषद् के कर्मठ मंत्री आचार्य पण्डित पन्नालालजी सागर के साथ में भी इन सबका हृदयसे आभार मानता हूँ । वीर-शासन- जयन्ती, श्रावण कृष्णा १, वी०मि० सं० २५००, ५ जुलाई, १९७४ वाराणसी दरबारीलाल कोठिया अध्यक्ष अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् १६ : मोर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रथम परिच्छेद संस्कृत-भाषाके काव्यकार और लेखक महाकवि धनञ्जय ६ श्रीधरसेन महाकवि असग ११ नागदेव महाकवि हरिचन्द्र १४ पंडित वामदेव वाग्भट्ट प्रथम २२ पं. मेधावी चामुण्डराय अजिससेन ३० वादिचन्द्र विजयवर्णी ३३ दोड्डुय्य अभिनव बाभट्ट ३७ राजमल्ल महाकवि आशाधर ४१ पासुन्दर महाकवि अहंदास ४८ पं० जिनदास पपनाभ कायस्थ ५४ ब्रह्म कृष्णदास सानकोति ५६ अभिनव चारुकीति धर्मघर ५७ अरुणमणि गुणभद्र द्वितीय ५९ जगन्नाथ १२४ कवि चतुर्मुख महाकवि स्वयंभुदेव त्रिभुवनस्वयंभु महाकवि पुष्पदन्त धनपाल धवल कवि हरिषेण द्वितीय परिच्छेद अपना-भाषाके कवि और लेखक ९४ वीर कवि ९५ श्रीचन्द १०२ श्रीषर प्रथम १०४ श्रीधर द्वितीय ११२ श्रीधर तृतीय ११६ देवसेन १२० अमरकीति गणि १४९ १५१ विषय-सूची : १७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ २२३ २२७ २३७ २४२ २४२ २४३ २४३ मुनि कनकामर १५९ हरिचन्द द्वितीय महाकवि सिंह १६६ नरसेन या नरदेव लाखू १७१ महीन्दु यशःकत्ति प्रथम १७८ विजयसिंह देवचन्द १८० कवि असवाल उदयचन्द्र १८४ बल्ह या बूचिराज बालचन्द्र १८९ कवि शाह ठाकुर चिनयचन्द्र १९१ माणिक्यराज महाकवि दामोदर १९३ कवि माणिकचन्द दामोदर द्वितीय अपवा ब्रह्म भारतीदास दामोदर १९५ कवि ब्रह्मसाधारण सुप्रभाचार्य १९७ कवि देवनन्दि महाकवि रघु १९८ कवि अल्हे विमलकीति २०६ जल्हिगले लक्ष्मणदेव २०७ पं० योगदेव तेजपाल २०९ कवि लक्ष्मीचंद धनपाल द्वितीय २११ कवि नेमिचंद कवि हरिचन्द या जयमित्रहल २१४ कवि देवदत्त गुणभद्र २१६ तारणस्वामी हरिदेव तृतीय परिच्छेद हिन्दी कवि और लेखक महाकवि बनारसीदास २४८ मनोहरलाल या मनोहरदास पं० रूपचन्द या रूपचन्द पाण्डेय २५५ नथमल विलाला । जगजीयन २६० पंडित दौलतराम कासलीवाल कुंवरपाल २६२ आचार्यकल्प पं० टोडरमल कदि सालिवाह्न २६२ दौलतराम द्वितीय कवि बुलाकोदास २६३ पण्डित जयचन्द छावड़ा भैया भगवतीदास २६३ दीपचन्द शाह महाकवि भूधरदास २७२ सदासुख काशलीवाल कवि द्यानतराय २७६ पण्डित भागचन्द किशनसिंह २८० बुधजन कवि खड्गसेन २८० वृन्दावनदास १८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा र २८० २८१ २८१ २८३ २८८ २९० ३१३ ३ . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसागर खुशालचंद काला शिरोमणिदास जोधराज गोदीका लोहट लक्ष्मीदास गद्यकार राजमल्ल पाण्डे जिनदास आदिपम्प कवि पोन्न कवि रन्न नागचन्द या अभिनव पम्प ओडुय्य नयसेन कवि जन्न तिरुतक्कतेवर इलंगो डिगल तोलामुलितेवर जिनदास गुणदास या गुणकीत्ति मेघराज मेघराज कामराज सूरिजन नागोआया हिन्दी के अन्य चर्चित कवि ३०२ ब्रह्म गुलाल २०३ भगवागळ ३०३ बखतराम ३०३ टेकचन्द ३०३ पण्डित जगमोहनदास और ३०४ पण्डित परमेष्ठी सहाय ३०८ मनरंगलाल ३०४ नबलशाह कन्नड़के जैन कवि ३०७ कर्णपार्थं ३०७ नेमिचन्द्र ३०७ गुणवमं ३०८ रत्नाकर वर्णी अभय कीर्ति अजितकीर्ति ३०८ मंगरस ३०८ नागवमं ३०९ केशवराज तमिलके जैन कवि और लेखक ३१३ बामनमुनि ३१४ कुंगवेल ३१६ मराठीके जैन कवि ३१८ वीरदास या पासकीति ३१९ महिसागर ३१९ देवेन्द्रकीति मराठीके अन्य कवि और लेखक ३२१ चिमणा ३२१ जिनदास ३२१ पुण्यसागर ३२१ महीचन्द्र ३२१ महाकीति ३२१ लक्ष्मीचन्द्र ३:४ ३०४ ३०५ ३०५ ३०५ ३०६ ३०९ ३०९ ३०९ ३०९ ३१० २१० ३१० ३१६ ३९१७ ३२० ३२० ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ विषय-सूची: १० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनार्दन नगेन्द्रकी ति दयासागर विशालकोति गंगादास चिन्तामणि गुणकोति अंग और पूर्व साहित्यको आचार्योंकी देन ३२२ जिनसागर ३२२ रनको ति ३२२ दयासागर ३२२ जिनसेन ३२२ टकाप्पा ३२० सहवा नंदीसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छको प्राकृत पट्टावलो श्रुतधर-पट्टावली गणधरादि-पट्टावली तिलोय पण्णत्तके आधारपर आचार्य परम्परा धवला में निबद्ध श्रुतपरम्परा काष्ठासंघको उत्पत्ति काष्ठासंघकी गुर्वावली काष्ठासंघकी पट्टावलीका भाषानुवाद श्रुतधर-पट्टावली नबलशाह ३२२ रघु उपसंहार प्रमाण और अप्रमाणविषयक देन ३३६ व्याकरणविषयक देन ३२३ ३३८ आचार्य परम्परा और कम साहित्य ३२५ कोषावस्यक देन ३३८ ३२८ दार्शनिक युग और स्याद्वाद द्रव्यगुण-पर्यायविषयक देन अध्यात्मविषयक देन पुराण और काव्यविषयक देन ३३९ आचार्यों द्वारा प्रभावित राज ३३१ ३३४ वंश और सामन्त चतुर्थ परिच्छेद पट्टावलियाँ मेघचन्द्र प्रशस्ति ३४६ मल्लिषेण प्रशस्ति ३४९ देवकोर्ति-पट्टावली ३५० ३५२ ३५४ ३५८ ३६० नयकीर्ति पटटावली प्रथम शुभचन्द्रकी गुर्वावली द्वितीय शुभचन्द्रकी पट्टावलो श्रुतमुनि-पट्टावली सेनगण- पट्टावली विरुदावली नन्दिसंघकी पट्टावलीके ( हिन्दी के अन्य चर्चित कवि शीर्षकान्तर्गत ) ३२२ ३२२ ३२२ परिशिष्ट ४४६ ग्रन्थानुक्रमणी ३२२ ३२२ ३२२ ३२२ ग्रन्थकारानुक्रमणिका २०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ३६५ आचार्योंकी नामावली ४४१ ३६६ नागौर के भट्टारकोंकी नामावली ४४३ शेषांश पृ० ३०६ ३४० ३६८ ३७३ ३८३ ३८७ ३९३ ४०४ ४१० ४२४ ४३० ४४४ ४५७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड:४ आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक प्रथम परिच्छेद संस्कृत-भाषाके काव्यकार और लेखक आस्वादयुक्त अर्थतत्त्वको प्रेषित करनेवाली महाकवियोंकी वाणी अलौकिक और स्फूरणशील प्रतिभाके वैशिष्ट्यको व्यक्त करती है । इस वाणीसे ही सहृदय रसास्वादनके साथ अनिर्वचनीय आनन्दको भी प्राप्त करते हैं | कवि और लेखक जीवनकी बिखरी अनुभूतियोंको एकत्र कर उन्हें शब्च और अर्थके माध्यमसे कलापूर्ण रूप देकर हृदयावर्जक बनाते हैं । अतएव इस परिच्छेदमें ऐसे आचार्यपरम्परा अनुयायियोंका निर्देश किया जायेगा, जिन्होंने गृहस्थाबस्थामें रहते हुए भी सरस्वतीकी साधना द्वारा तीर्थकरको वाणीको जन-जन तक पहुँचाया है। इस सन्दर्भ में ऐसे आचार्य भी समाविष्ट हैं, जिनका जीवन अधिक उद्दीप्त है तथा जिनका कविके रूपमें आचार्यत्व अधिक मुखरित है । वान्य या साहित्यकी आत्मा भोग-विलास और राग-द्वेषके प्रदर्शनात्मक शृङ्गार और वीर रसों में नहीं है, किन्तु समाज-कल्याणकी प्रेरणा ही काव्य या साहित्यके मूलमें निहित है । दर्शन, आचार, सिद्धान्त प्रभृति विपयोंको उद्. -१ - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाके समान ही जनकल्याणकी भावना भी काव्यमें समाहित रहती है । अतएव समाजके बीच रहने वाले कवि और लेखक गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए करुण भावकी उद्भावना सहज रूपमें करते हैं । एक ओर जहाँ सांसारिक सुखकी उपलब्धि और उसके उपायोंकी प्रधानता है, तो दूसरी ओर विरक्ति एवं जनकल्याणके लिये आत्मसमर्पणका लक्ष्य भी सर्वोपरि स्थापित है । ऐसे अनेक कवि और लेखक हैं, जो श्रावकपदका अनुसरण करते हुए राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, जातीय एवं आध्यात्मिक भावनाओंकी अभिव्यक्तिमें पूर्ण सफल हुए हैं । यद्यपि ऐसे सारस्वतोंमें आचार्यका लक्षण घटित नहीं होता, तो भी आचार्य - परम्पराका विकास और प्रसार करनेके कारण उनकी गणना आचार्यकोटिमें की जा सकती है । अतएव इस परिच्छेद में गृहस्थावस्थामें जीवनयापन करने वाले कवि और लेखकोंके साथ ऐसे त्यागी, मुनि और भट्टारक भी सम्मिलित हैं, जिनमें काव्य-प्रतिभाका अधिक समावेश है, तथा जिन्होंने आख्यानात्मक साहित्य लिखकर विषयमें उदात्तता, घटनाओं में वैचित्र्यपूर्ण विन्यास, चरित्र-चित्रण, असंख्य रमणीय सुभाषित एवं मानव - क्रियाकलापोंके प्रति असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदर्शित की है। इस श्रेणीकी रचनाओं में मानव-मनोवृत्तियोंका विशद और सांगोपांग चित्रण पाया जाता है । जैन कवि काव्यके माध्यमसे दर्शन, ज्ञान और चरित्रकी भी अभिव्यञ्जना करते रहे हैं । वे आत्माका अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारोंकी अपरिहार्यता दिखलाने के पूर्व जन्मके व्याख्यानों का भी संयोजन करते रहे हैं । प्रसंगवश चार्वाक, तत्त्वोपप्लववाद प्रभृति नास्तिकवादोंका निरसन कर आत्माका अमरत्व और कर्म संस्कारका वैशिष्टय प्रतिपादित करते रहे हैं। जिस प्रकार एक ही नदी के जलको घट, कलश, लोटा, झारी, गिलास प्रभृति विभिन्न पात्रों में भर लेने पर भी जलकी एकरूपत्ता अखण्डित रहती है, उसी प्रकार तीर्थंकरकी वाणीको सिद्धान्त, आगम, आचार, दर्शनं, काव्य आदिके माध्यमसे अभिव्यक्त करने पर भी वाणीकी एकता अक्षुण्ण बनी रहती है। जिन तथ्य या सिद्धान्तोंको श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध और परम्परापोषक आचार्योंने आगमिक शैली में विवेचित किया है, उन तथ्य या सिद्धान्तोंकी न्यूनाधिकरूपमें अभिव्यक्ति कवि और लेखकों द्वारा भी की गयी है। अतएव तीर्थंकर महावीरकी परम्परा के अनुयायी होनेसे कवि और लेखक भी महनीय हैं। हम यहाँ संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दीके जैन कवियोंका इतिवृत्त अंकित कर तीर्थंकर महावीरकी आचार्य-परम्परापर प्रकाश डालेंगे। हमारी दृष्टिमें साहित्य-निर्माता सभी सारस्वत तीर्थंकर की वाणीके प्रचारकी दृष्टिसे मूल्यवान हैं। २ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधाकी दृष्टिसे कवि और लेखकोंका भाषाक्रमानुसार इतिवृत्त उपस्थित करना अधिक वैज्ञानिक होगा । अतएव हम सर्वप्रथम संस्कृत भाषा के कवि लेखकोंका व्यक्तित्व और कृतित्व उपस्थित करेंगे । संस्कृतभाषाके कवि और लेखक संस्कृत काव्यका प्रादुर्भाव भारतीय सभ्यताके उषाकालमें ही हुआ है । यह अपनी रूपमाधुरी और रसमयी भावधाराके कारण जनजीवनको आदिम युगसे ही प्रभावित करता आ रहा है । जब संस्कृतभाषा तार्किकोंके तीक्ष्ण तर्कवाणोंके लिये तुणी बन चुकी थी, उस समय इस भाषा का अध्ययन-मनन न करने वालोंके लिये विचारोंकी सुरक्षा खतरे में थी । भारतके समस्त दार्शनिकोंने दर्शनशास्त्र के गहन और गूढ़ ग्रन्थोंका प्रणयन संस्कृत भाषामें प्रारम्भ किया । जैन कवि और दार्शनिक भी इस दौड़ में पीछे न रहे। उन्होंने प्राकृतके समान ही संस्कृतपर भी अधिकार कर लिया और काव्य एवं दर्शनके क्षेत्रको अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओंके द्वारा समृद्ध बनाया। यही कारण है कि जैनाचाने काव्यके साथ आगम, अध्यात्म, दर्शन, आचार प्रभृति विषयोंका संस्कृतमें प्रणयन किया है। डॉ० विन्टरनित्सने जैनाचार्यों के इस सहयोग की पर्याप्त प्रशंसा की है। उन्होंने लिखा है I was not able to do full justice to the literary achievements to the Jainas. But I hope to have shown that the jainas have contri buted their full stare to the religious ethical and scientific literature of ancient India1. अब यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्योंने प्राकृतके समान ही संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं में अपने विचारोंकी अभिव्यञ्जना कर वाङ्मयकी वृद्धि की है। हम यहाँ संस्कृत के उन कवियोंके व्यक्तित्व और कृतित्वको प्रस्तुत करेंगे, जिन्होंने जीवनकी स्थिरताके साथ गम्भीर चिन्तन आरम्भ किया है तथा जिनकी कल्पना और भावनाने विचारोंके साथ मिलकर त्रिवेणीका रूप ग्रहण किया है। जीवनकी गतिविधियों, विभिन्न समस्याओं, आध्यात्मिक और दार्शनिक मान्यताओंका निरूपण काव्यके धरातल पर प्रतिठित होकर किया है । 1. The Jainas in the Hisury of Indian literature by Dr. Winternitz, Edited by Jina Vijaya Muni, Ahmedabad 1949, f 'age 4. आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : ३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि परमेष्ठी या परमेश्वर त्रिषष्टिशलाकापुरुषोंके परितका अंकन करने वाले कवि परमेष्ठी या कवि परमेश्वर हैं । इस कविको सूचना श्री डा० ए० एन० उपाध्येने नागपुरमें सम्पन्न हुए प्राच्यविद्या-सम्मेलनके अवसर पर अपने एक निबन्ध द्वारा दी है। कवि परमेश्वर अपने समयके प्रतिभाशाली कवि और वाग्मी विद्वान हैं | चामुण्डरायने अपने पुराणमें इनके कतिपय पद्य उपस्थित किये हैं। इन पद्योंसे कविकी प्रतिभा और काव्यक्षमताका परिचय प्राप्त होता है। ___कवि परमेश्वरका स्मरण ९वीं शतीसे लेकर १३वीं शती तकके कन्नड़ कवि एवं संस्कृतके कवि करते रहे हैं | आदि पम्प (९४१ ई०), अभिनव पम्प (११०० ई.), नयसेन (१११२ ई०), अग्गल (१९८९ ई०) और कमलभव इत्यादि कन्नड़कवियोंने आदरपूर्वक तार्किक कवि समन्तभद्र और वैयाकरण पूज्यपाद इन दोनोंके साथ कवि परमेष्ठीका उल्लेख किया है। आदि पम्पने इन्हें जगतप्रसिद्ध कवि कहा है श्रीमत्समन्द्रभद्रस्वामिगल जगत्प्रसिद्ध कविपरमेष्ठि स्वामिगल पूज्यपाद-- स्वामिगल पदंगलीगे शाश्वत पदमः ।। आदिपुराण १-१५, मैसूर १९०८ X श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिगल नेगलतेवेत्त कविपरमेष्ठिस्वामिगल पूज्यपादस्वामिगल पदंगलीगे बोधोदयम | धर्मामृत १-१४, मैसूर १९२४ · गुणवर्म द्वितीयने 'पुष्पदन्तपुराण' (अध्याय १, श्लोक २६) में इन्हें सरस्वतीके समान अभिनन्दनीय माना है। पार्श्व पण्डितने अपने पुराणमें गुणज्येष्ठ विशेषण द्वारा कवि परमेष्ठीका उल्लेख किया है। कन्नड़-कवियोंके साथ आचार्य गुणभद्रने कवि परमेश्वरके गद्यकथाकाव्यका निर्देश किया है१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ८१ । २. वही, पृ० ८२ । ४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलच्छन्दोलकतिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनम् ।। अर्थात् परमेश्वर कबिके द्वारा कथित गद्यवाव्य जिसका आधार है, जो समस्त छन्दों और अलंकारोंका उदाहरण हैं, जिसमें मूक्ष्म अर्थ और गूढ पदोंकी रचना है, जिसने अन्य काव्योंको तिरस्कृत कर दिया है, जो श्रवण करने योग्य है, मिध्याकवियोंके दर्पको खण्डित करनेवाला है और अत्यन्त सुन्दर है, ऐसा यह महापुराण है। आचार्य जिनसेनने भी कवि परमेश्वरका आदरपूर्वक स्मरण किया है। उन्होंने उनके ग्रन्थका नाम 'वागर्थसंग्रह' बतलाया है स पूज्य: कविभिलोंके कवीनां परमेश्वरः । वागर्थसंग्रहं कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत' । उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि कवि परमेश्वर अत्यन्त प्रसिद्ध और प्रामाणिक पुराणरचयिता हैं। उन्होंने त्रिषष्टिशलाकापुरुषोंके सम्बन्धमें एक पुराण लिखा था, जो गुणभद्रके कथनानुसार गद्यकाव्य है । आचार्य जिनसेनने आदिपुराणकी रचनामें कवि परमेश्वरके इस पुराणग्रन्थका उपयोग किया है। जिनसेनकी दृष्टि में इस महा नाम 'नामर्थगंह' का नागडयने भी अपने चामुण्डरायपुराणके लिखने में कदि परमेश्वरके पुराणग्रन्थका उपयोग किया है । अत्तएव यह निश्चित है कि कवि परमेश्वरका उक्त पुराण जिनसेनके पूर्व अर्थात् ई० सन् ८३७ के पहले ही प्रसिद्ध हो चुका था। कविपरमेश्वरका यह ग्रन्थ सम्भवतः चम्पूशैलीमें लिखा गया है। यतः चामुण्डरायपुराणमें इसके पद्म उपलब्ध होते हैं और गुणभद्रने इसे गद्यकाव्य कहा है। इसकी प्रसिद्धिको देखते हुए लगता है कि इस ग्रन्थकी रचना समन्तभद्र और पूज्यपादके समकालीन अथवा कुछ समय पश्चात् हुई होगी। ___डॉ० ए० एन० उपाध्येने 'चामुण्डरायपुराण' में कविपरमेश्वरके नामसे उद्धृत पद्योंको उपस्थित कर कविको प्रतिभा और पाण्डित्यपर प्रकाश डाला है। हम यहाँ उन्हीं पद्यों से कतिपय पद्य उद्धृत करते हैंकविपरमेश्वरवृत्त । रामत्वं गणधृत्वमप्यभिमतं लोकान्तिकत्वं तथा षट्खण्डप्रभुता सुखानुभवनं सर्वार्थसिद्धयादिषु । १. उत्तरपुराण, प्रशस्ति, पद्य १७ । २. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण ११६०। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रत्वं महिमादिभिश्च सहितं प्राप्तं न संसारिभिः तत्प्राप्तो भवहेतुसंसृतिलताच्छेदे कुतः संयमः ॥ कविपरमेश्वर श्लोक | कषायोद्रेककालुष्यं व्रतदर्शनसत्तपः । दूषयत्यचिराद्राजन् ततः क्रोधादि वर्जयेत् ॥ त्यागेन लोभं क्षमया प्रकोपं मानं मृदुत्वेन मनोहरेण । वृत्तेन मायामृजुनाभिवृद्धिं नोट X X तत्सुसाधुवचः सत्यं प्राणिपीडापराइ मुखम । येन सावद्यकर्माणि न स्पृशन्ति भयादिव ॥ नाग्निंदहत्युच्च शिखाकलापस्तीव्रं विषं निर्विषतामुपैति । शस्त्रं शतद्योतविभूषणत्वं सत्येन किं ते न भवेदभीष्टम् ' ।। काव्य, आचार और दर्शन इन तीनोंका समन्वय इन तीनों पद्योंमें पाया जाता है । कवि परमेश्वर पौराणिक जैनमान्यताओंसे भी सुपरिचित हैं। वास्तव - में उनके द्वारा रचित पुराणग्रन्थसे ही जैन साहित्य में पुराण साहित्यका प्रचार और प्रसार हुआ है और कवि परमेश्वरकी रचना ही समस्त पुराण साहित्यका मूलाधार है । महाकवि धनञ्जय महाकवि धनञ्जयके जीवनवृत्त के सम्बन्धमें विशेष तथ्योंकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । द्विसन्धानमहाकाव्य के अन्तिम पद्यकी व्याख्या में टीकाकारने इनके पिताका नाम वसुदेव, माताका नाम श्रीदेवी और गुरुका नाम दशरथ सूचित किया है । कवि गृहस्थधर्म और गृहस्थोचित षट्कर्मीका पालन करता था । इनके विषापहारस्तोत्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि कविके पुत्रको सर्पने इस लिया था, अतः सर्पविषको दूर करनेके लिये ही इस स्तोत्रकी रचनाकी गयी है । स्थितिकाल कविके स्थितिकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । इनका समय डॉ० के० बी० पाठकने ई० सन् १९२३ - ११४० ई० के मध्य माना है । डॉ० ए० बी० १. जनसिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ८५-८६ । ६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीयने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासमें धनञ्जयका समय पाठक द्वारा अभिमत ही स्वीकार किया है। पर धनञ्जयका समय ई० सन् १२वीं शती नहीं है। यतः इनके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख अचार्य प्रभाचन्द्रने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड'में किया है। प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् ११वीं शतोका पूर्वार्द्ध है। अतएव धनञ्जय सुनिश्चितरूपसे प्रभाचन्द्रके पूर्ववर्ती है । वादिराजने अपने 'पार्श्वनाथचरित' महाकाव्यमें द्विसन्धानमहाकाव्यके रचयिता धनञ्जयका निर्देश किया है और वादिराजका समय १०२५ ई० है । अतएव धनञ्जयका समय इनसे पूर्व मानना होगा । वादिराजने लिखा है अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहः । वाणा धनञ्जयोन्मुक्ता कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥ पाश्वं. १२२६ जल्हणने राजशेखरके नामसे सूक्तिमुक्तावलीमें धनम्जयकी नाममालाके निम्नलिखित श्लोकको उद्धत किया है द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनजयः । यथा जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ।। यह राजशेखर काव्यमीमांसाके रचयिता राजशेखर ही हैं। इनका समय १०वीं शती सुनिश्चित है। अतः धनञ्जयका समय १०वीं शती के पूर्व होना दहिये। डॉ. होरालालजीने 'षट्खण्डागम' प्रथम भागको प्रस्तावनामें यह सूचित किया है कि जिनसेनके गुरु वीरसेन स्वामीने धवलाटीकामें अनेकार्थनाममालाका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ।। धवलाटीका वि० सं० ८०५-८७३ (ई० सन् ७४८-८१६)में समाप्त हुई थी। अतः धनञ्जयका समय ९वीं शतोके उपरान्त नहीं हो सकता। धनञ्जयने अपनी नाममालामें 'प्रमाणमकलङ्कस्य' पद्यमें अकलंकका निर्देश किया है। अतएव वे अकलंकके पूर्ववर्ती भो नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंके आधार पर धनञ्जयका समय अकलंकदेवके पश्चात् और धवलाटीकाकार वीरसेनके पूर्व होनेसे ई० सन् को ८वीं शत्तीके लगभग है । १. A History of Sanskrit literature by A. B. Keeth, Page 173 । २, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४०२, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई।। ३. धबलाटीका, अमरावतीसंस्करण, प्रथम जिल्द, पृ० ३८७ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाएँ १. धनञ्जयनिघण्टु या नाममाला-छात्रोपयोगी २०० पद्योंका शब्दकोश है | इस छोटे-से कोशमें बड़े ही कौशलसे संस्कृत भाषाके आवश्यक पर्यायशब्दोंका चयनकर गागरमें सागर भरने की कहावत चरितार्थ की है । इस कोशमें कुल १७०० शब्दोंके अर्थ दिये गये हैं। शब्दसे शब्दान्तर बनानेकी प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा-पृथ्वी के आगे 'घर' शब्द या धरके पर्यायवाची शब्द जोड़ देनेसे पर्वतके नाम; 'पति' शब्द या पतिके समानार्थक स्वामिन् आदि जोड़ देनेसे राजाके नाम एवं 'रुह' शब्द जोड़ देनेसे वृक्षके नाम हो जाते हैं । इस नाममालाके साथ १६ श्लोक प्रमाण एक अनेकार्थनाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्दके अनेकार्थीका कथन किया गया है। २. विषापहारस्तोत्र-भक्तिपूर्ण ३९ इन्द्रवज्रा वृत्तोंमें लिखा गया स्तुतिपरक काव्य है। इस स्तोत्रपर वि० सं० १६वीं शतीकी लिखी पार्श्वनाथके पुत्र नागचन्द्रकी संस्कृत टीका भी है । अन्य संस्कृतटीकाएं भी पायी जाती हैं। ३. द्विसन्धानमहाकाव्य-सन्धानशेलीका यह सर्वप्रथम संस्कृतकाव्य है । कविने आद्यन्त राम और कृष्ण चरितोंका निर्वाह सफलताके साथ किया है। इस पर विनयचन्द्रपण्डितके प्रशिष्य और देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र, रामभट्टके पुत्र देववट एवं बदरीको संस्कृतटीकाएँ भी उपलब्ध हैं । यह महाकाव्य १८ स!में विभक्त है। इसका दूसरा नाम राघव-पाण्डवीय भी है। एक साथ रामायण और महाभारतकी कथा कुशलतापूर्वक निबद्ध की गयी है । प्रत्येक श्लोकके दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थसे रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थसे कृष्णचरित । कविने सन्धान-विधामें भी काब्धतत्त्वोंका समावेश आवश्यक माना है चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाव्यमानोऽभिनव प्रियः । रसान्त श्चित्तहरजनोऽन्धसि प्रयोगरम्यरुपदंशकैरिव ॥३॥ स जातिमार्गो रचना च साऽऽकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् । वित्तिता केवलमक्षरैः कृतिनं कन्चुकश्रीरिब वर्ण्यमृच्छति ॥४॥ कवेरपार्था मधुरा न भारती कथेव कर्णान्तमुपैति भारती। तनोति सालकतिलक्षणान्विता सतां मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।। अर्थात् चित्तके लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलतः नवीन १. विसन्धानमहाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १५३-५ । ८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रृंगार आदि रसों, तथा शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, सुन्दर वर्णों द्वारा मुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दप्रद होती है । उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्यविन्यास भी पूर्वपरम्परागत होता है, गद्य-पद्यमय हो आकार रहता है और सबके सब वहीं पुराने बलकारनियम रहते हैं । तो भी केवल अक्षरोंके विन्यासको बदल देनेसे ही रचना सुन्दर हो जाती है । P जो वाणी अर्थयुक्त माधुर्यादि गुणोंसे समन्वित अलंकारशास्त्र और व्याकरण के नियमोंसे युक्त होती है, वही सज्जनोंको प्रभुदित करती है । इस प्रकार कवि धनञ्जयने सन्धानकाव्य में भी काव्योचित गुणांको आव इक माना है और उनका प्रयोग भी किया है । J प्रस्तुल काव्य में राम और कृष्ण के साथ पाण्डवों का भी इतिवृत्त आया है । काव्यका आरम्भ तीर्थंकरोंकी बन्दनासे हुआ है, इतिवृत्त पुराणप्रसिद्ध है, मन्त्रणा, दूतप्रेषण युद्धवर्णन, नगरवर्णन, समुद्र, पर्वत, ऋतु चन्द्र, सूर्य, पादप, उद्यान, जलक्रीड़ा, पुष्पावचय, सुरतोत्सव आदिका चित्रण है । कथानकमें हर्ष, शोक, क्रोध, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि भावों का संयोजन हुआ है । शाब्दी क्रीड़ाके रहने पर भी रसका वैशिष्ट्य वर्त्तमान है। महत्कार्यं और महत् उद्देश्यका निर्वाह भी किया गया है । कविने किसी भी अस्वाभाविक घटनाको स्थान नहीं दिया है । विवाह, कुमारकीड़ा, युवराजावस्था, पारिवारिक कलह, दासियोंकी वाचलता आदिका भी चित्रण किया है। कविने श्रृंगार वीर, भयानक और वीभत्स रसका सम्यक् परिपाक दिखलाया है । यहाँ उदाहरणार्थ भयानक रसके कुछ पद्म प्रस्तुत किये जाते हैं — पतत्रिनादेन भुजङ्गयोषितां पपात गर्भः किल तार्क्ष्यशङ्कया । नभश्चरा निश्चितमन्त्रसाधना वने भयेनास्यपगारमुद्यताः || १६ || सुमन्ततोऽप्युद्गतधूमकेतवः स्थितोर्ध्वबाला इव तत्रदिशः । निपेतुमल्काः कलमाग्रपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव ||१७|| राधव पाण्डवराजाओ के पराक्रमपूर्ण युद्धका आतंक सर्वत्र छा गया । उनके वाणकी टंकारसे गरुडको ध्वनिका भय हो जानेरो नागपत्नियोंके गर्भपात हो गये । खेचर भयविह्वल हो स्तब्ध हो गये । वे तलवारको म्यानसे निकाल नसके और उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे मन्त्रबलसे हो सफल हो सकते हैं । युद्ध की भीषणतासे दशों दिशाएं ऐसी भीत हो गयी थीं, जैसेकि चारों १. द्विसन्धान महाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ६०१६-१७ ॥ ? आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओरसे धूमकेतु छा जाने पर होता है और उनके बाल खड़े हो जाते हैं । सहस्र संघर्ष से उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी बिजलियां गिर रही थीं, जो यमक्की लम्बी और टेढ़ी जटाके समान प्रतीत होती थीं । कविने १२६, १२० १२२, ११२४, २२१ ३१४०, ५/३६, ५६० और ६।२ में उपमाकी योजना की है । १।१५ में उत्प्रेक्षा, १/१४ में विरोधाभास, १।४८ में परिसंख्या २१५ में वक्रोक्ति, २१४ में आक्षेप २०१५ में अतिशयोषित, ३।३४ में निश्चय और २११० में समुच्च अलंकारकारका प्रयोग किया है । तथा वशंस्थ, वसन्ततिलका, वैश्वदेवी, उपजाति, शालिनी, पुष्पिताग्रा, मत्तमयूर हरिणो, वैतालीय, प्रहर्षिणी, स्वागता, दुतविलम्बित, मालिनी, अनुष्टुप् शार्दूलविक्रीडित, जलधरमाला, रथोद्धता, वंशपत्रपतित, इन्द्रच्या, जलोद्धतगति, अनुकूला, तोटक, प्रमिलाक्षरा, अउप छन्दसिक, शिखरिणी, अपटवक्त्र, प्रमुदितवदना, मन्दाक्रान्ता, पृथ्वी, उद्गता और इन्द्रवंशा इस प्रकार ३१ प्रकार के छन्दोंकी योजना की है। द्विरूपानकाय में व्याकरण, राजनीति, सामुद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयोंकी चर्चाएं भी उपलब्ध हैं । यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं पदप्रयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसर्गे च कृतावधानम् । सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रमं तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ||३|३६ अर्थात् शब्द और धातुरूपोंके प्रयोगमें निपुण, षत्व णत्वकरण, सन्धि तथा विसर्गका प्रयोग करनेमें न चूकनेवाले और समस्त शास्त्रोंके परिश्रमपूर्वक अध्येता वैयाकरण व्याकरणके अध्ययन के समान चापविद्या में भी बना व्याकरणको नहीं छोड़ते हैं । विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्यं स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् । प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थं शब्दागमे प्राथमिकोऽभवद्धा || ५ | १० व्याकरणशास्त्रका प्रारम्भिक छात्र विसन्धि-सन्धिहीन अलग-अलग पदों का प्रयोग करता है, क्योंकि सन्धि करना नहीं जानता है । केवल विग्रहपदों का अर्थ करता है । कृदन्त आदि अन्य कार्य नहीं जानता है और न तद्धित ही जानता है | आगमोंका अभ्यासी भी कार्यविशेषका विचारक बन व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है । समन्वय नहीं सोचता है और अभ्युदय-निःश्रेयसके लिये प्रयत्न नहीं करता है । धनन्जयने व्याकरणशास्त्रका पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करनेके लिये अपवादसूत्र और विधिसूत्रोंका भी कथन किया है १० : वीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषसूत्रेरिव पत्रिभिस्तयोः पदातिरुत्सर्ग इवाह्तोऽखिलः ।। ६।१० व्याकरण में दो प्रकारके सूत्र हैं- अपवादसूत्र या विशेषसूत्र और उत्सर्गसूत्र या विधिसूत्र | विधिसूत्रों द्वारा शब्दोंका नियमन किया जाता है और अपवादसूत्रों द्वारा नियमका निषेध कर, अन्य किसी विशेषसूत्रकी प्रवृत्ति दिखलायी जाती है । व्याकरणमें धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन ये चार ख़िलपाठ भी होते हैं। धातुपाठ व्याकरणका एक उपयोगी अंश हैं, सार्थ धातु-परिज्ञानके अभाव में व्याकरण अधूरा ही रहता है। जितने शब्दसमूहमें व्याकरणका एक नियम लागू होता है, उतने शब्दसमूहको गण कहते हैं । उणसूत्रका आरम्भ होनेसे उणादि कहलाते हैं। जिन शब्दोंकी सिद्धि व्याकरण के अन्य नियमोंसे नहीं होती है, वे शब्द उणादि सूत्रोंसे सिद्ध किये जाते हैं । लिङ्गानुशासन द्वारा शब्दों के लिङ्गका निर्णय किया जाता है । इस प्रकार महाकवि धनजयने व्याकरणशास्त्र के नियमों का समावेश किया है । सामुद्रिकशास्त्र में, नेत्र, नासिका, कपोल, कर्ण, ओष्ठ, स्कन्ध, बाहु, पाणि, स्तन, पार्श्व, उरु, जंघा और पाइ इन १४ अंगों में समत्व रहना शुभ माना जाता है । धनञ्जयने महापुरुषोंके लक्षणों में उक्त अंगों के समत्वकी चर्चा निम्न प्रकार की है चतुर्दशद्वन्द्वसमानदेहः सर्वेषु शास्त्रेषु कृतावतारः । ३।३३ अतएव द्विसन्धानमहाकाव्य शास्त्र और काव्य दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । महाकवि असग कवि द्वारा रचित शान्तिनाथचरितकी प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम बेरेति था। पिता धर्मात्मा मुनिभक्त थे । इन्हें शुद्ध सम्यक्त्व प्राप्त था । माता भी वर्मात्मा थी । इस दम्पत्तिके असग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । असगके पुत्रका नाम जिनाप था । यह भी जैन धर्म में अनुरक्त शूरवीर, परलोकभीरू एवं द्विजातिनाथ होनेपर भी पक्षपातरहित था । इस पुण्यात्माको व्याख्यानशीलता एवं पौराणिक श्रद्धाको देखकर कविश्वशक्तिसे हीन होनेपर भी गुरुके आग्रहसे उसके द्वारा यह प्रबन्धकाव्य लिखा गया है। प्रशस्ति में कविने अपने गुरुका नाम नागतन्दि आचार्य लिखा है । ये व्याकरण. काव्य और जेन शास्त्रोंके ज्ञाता थे । स्थितिकाल महाकवि असमने श्रीनाथके राज्यकालमें चोलराज्यकी विभिन्न नगरियों में आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ११ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ ग्रन्थों की रचना की है । 'वर्द्धमानचरित' को प्रशस्तिके अनुसार इस काव्यका रचनाकाल शक संवत् ९१० (ई. ९८८) है। कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि बताया है। इन नागनन्दिका परिचय श्रवणवेलगोलाके अभिलेखोंमें पाया जाता है। १०८ वें अभिलेखसे अवगत होता है कि नागन्दि नन्दिसंघके आचार्य थे, पर नन्दिसंघकी पट्टावलीमें नागमन्दिके मम्बन्धमें कोई सूचना उपलब्ध नहीं होती है। अतएव नईमान रतके आधारपर कविका समय ई० सन् की १०वीं शताब्दी है। ___ कविकी दो रचनाएं प्राप्त हैं—वद्धमानचरित और शान्तिनाथचरित । बर्द्धमानचरित महाकाव्यमें १८ सर्ग है और तीर्थंकर महावीरका जीवनवृत्त अंकित है। इस ग्रन्थका सम्पादन और मराठी अनुवाद जिनदासपाश्र्वनाथ फडकुलेने सन् १९३१में किया है। मारोच, विश्वनन्दि, अश्वनोद, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ इत्यादि के इतिवृत पूर्वजन्मोंकी कथाके रूपमें अंकित किये गये हैं। महाकवि असामने अपने इस बर्द्धमानचरितको कथावस्तु उत्तरपुराणके ७४वें पर्वसे ग्रहण की है । इस पुराणमैं मधुवनमें रहनेवाले पुरुरवा नामक भिल्लराजसे वर्द्धमानके पूर्वभवोंका आरम्भ किया गया है । कविने उत्तरपुराणको कथावस्तुको काल्योचित बनानेके लिये कांट-छांट भी की हैं। असगने पुरुरवा और मरीचके आख्यानको छोड़ दिया है और श्वेतातपत्रा नगरीके राजा नन्दिवर्द्धनके आँगनमें पुत्र-जन्मोत्सवसे कथानकका प्रारम्भ किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह आरम्भस्थल बहुत रमणीय है। उत्तरपुराणको कथावस्तुके प्रारम्भिक अंशको घटितरूपमें न दिखलाकर पूर्वभवाबलिके रूपमें मुनिराजके मुखसे कहलवाया है। इस प्रकार उत्तरपुराणकी कथावस्तु अक्षुण्ण रह गयी है। ___ कथावस्तुके गठनमें कवि असगने इस बातको पूर्ण चेष्टा की है कि पौराणिक कथानक कान्यके कथानक बन सकें। घटनाओंका पूर्वापर क्रमनिर्धारण, उनमें परस्पर सम्बधस्थापन एवं उपाख्यानोंका यथास्थान संयोजन मौलिक रूपमें घटित हुआ है । प्रसंगोंको व्यर्थ वर्णनविस्तार नहीं दिया है । मार्मिक प्रसंगोंके नियोजनके हेतु विश्वनन्दि और नन्दन के जीवन में लोकव्यापक नाना सम्बन्धोंके कल्याणकारी सौन्दर्यको अभिव्यकजना की है । पिता-पुत्रका स्नेह नन्दिवर्द्धन और नन्दनके जीवनमें, भाईका स्नेह विश्वभूति और विशाखभूतिके जीवनमें, पति-पत्नोका स्नेह त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके जीवनमें, विविध भोगविलास हरिषेणके जीवन में एवं वीरता और चमत्कारोंका वर्णन त्रिपृष्ठके जीवन में अभिव्यक्त कर जीवनको व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कथानियोजनमें योग्यता, १२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर, सत्कार्यता और रूपाकृतिका पूरा ध्यान रखा गया है । अवान्तर कथाओंका प्रक्षेपण पूर्वभवावलिके रूपमें किया है। वर्द्धमानका जोवनविकास अनेक भवों-जन्मोंका लेखा-जोखा है । कर्मवादके भोक्ता नायक-नायिकाएं मुनिराज द्वारा अपने विगत जोवनके इतिवृत्तको सुनकर विरक्ति धारण करते हैं । जीवनकी अनेक विषमताएं कथावस्तुमें विकसित हुई हैं। कविने रसानुरूप सन्दर्भ और अर्थानुरूप छन्दोंको योजना, जीवन के व्यापक अनुभवोंका विश्लेषण एवं वस्तुओंका अलंकृत चित्रण किया है । इस महाकाव्यका प्रतिनायक विशाखनन्दि है, जिसके साथ कई जन्मों तक विरोध चलता है । कवि असने संगठित कथानकके कलेवर में जीवन के विविध पक्षोंका उद्घाटन करने के लिए वस्तु व्यापार, प्रकृतिचित्रण, रसभावसंयोजन एवं अलंकारनियोजन किया है | २|४५ में अनुप्रास, २२७ में यमक और ५३५, ३७, ५1८, ६३४, ६६८, ७८ ७१४१, ७१८५ ८/२६, ८/६७, ८१७५, १९/७ ९/१०, १२१२९, ९/३५, ९/३९, १०१२२, १०/२३, १०/२४ १२ १० १२ ११, १२/१६, १३३८, १३।४५, १३/६१, १३/७३, १४८, १४९, १७/१५, १७/२१, एवं १८/६ में एलेषका प्रयोग हुआ है | १|४० में उपमा, ४ १० में उत्प्रेक्षा, १३।५८ में रूपक, ५ ३४में भ्रांतिमान ५११ अद्भुत सरस अतिशयोक्ति, १४६ दृष्टान्त, १३४६ में विभावना १३१४४ में अर्थान्तरन्यास, ५ / ७० में सन्देह, ५/२० में व्यतिकर, ३।९ में विरोधाभास, ५।१३ में परिसंख्य, १३४ में एकावली, ५/५४में स्वभावोक्ति ५/५५ में सहोषित ७/२१ में विनोक्ति और १।६४ में विशेषोक्ति अलंकार पाये जाते हैं। छन्दों में उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी, वशंस्थ, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, अनुष्टुप, मालभारिणी, मन्दाक्रान्ता, उपजाति, सगधरा, आख्यानकी, शालिनी, हरिणी, ललिता, रथोद्धता, स्वागता आदि प्रमुख है । कविका 'शान्तिनाथचरित' भी महाकाव्य है । इस काव्य में १६ वें सीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त वर्णित है। कथावस्तु की पृष्ठभूमि के रूपमें पूर्वभवाafa fres की गयी है । कथावस्तुकी योजना में कविको पूर्ण सफलता मिली है । सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, वन, सूर्य, नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप, आदि वस्तुवर्णन सांगोपांग है । जीवनके विभिन्न व्यापार और परिस्थियों में प्रेम, विवाह, मिलन, स्वयंवर, सैनिक, अभियान, युद्ध, दोक्षा, नगरावरोध, विजय, उपदेशसभा, राजसभा, दूतसंप्रेषण एवं जन्मोत्सवका चित्रण किया है । , रस, भाव, अलंकार और प्रकृति-चित्रण में भी कविको सफलता मिली है । यह सत्य है कि वृद्ध मानचरितको अपेक्षा शान्तिनाथचरितमें अधिक पौराणि आचार्य तुष्य काव्यकार एवं लेखक : १३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कताका समावेश हुआ है। श्रावक और श्रमणं दोनों के आचारतत्त्व भी वर्णित हैं। इस काव्यका प्रकाशन मराठी अनुवाद सहित सोलापुरसे हो चुका है। महाकवि हरिचन्द्र महाकवि हरिचन्द्रका जन्म एक सम्पन्न परिवारमें हुआ था। इनके पित्ताका नाम आर्द्रदेव और माताका नाम रथ्यादेवी था । इनकी जाति कायस्थ थी, पर ये जैनधर्मावलम्बो थे । कविने स्वयं अपनेको अरहन्त भगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर लिखा है । इनके छोटे भाईका नाम लक्ष्मण था, जो इनका अत्यन्त आज्ञाकारी और भक्त था । कविने अपने धर्मशर्माभ्युदयकी प्रशस्तिमें लिखा हैमुक्ताफलस्थितिरलंकृतिष प्रसिद्ध स्तत्रादेव इति निर्मलमूतिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्यगणग्रहः स कोऽपि यः कुलमशेषमलंचकार ॥२॥ लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलगृहं सौभाग्यसद्भाग्ययोः क्रीडावेश्म विलासवासवलभीभूषास्पदं संपदाम् । शौचाचारविवेकविस्मयमही प्राणप्रिया शूलिनः शर्वाणीव पतिव्रता प्रणयिनी रथ्येति तस्याभवत् ।।३।। अर्हत्पदाम्भोरुहवञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द्र आसीत् । गुरुप्रसादादमला बभूवुः सारस्वते स्रोतसि यस्य वाचः ॥१॥ भक्तेन शक्तेन च लक्ष्मणेन निर्व्याकुलो राम इवानुजेन । यः पारमासावितबुद्धिसेतु: शास्त्राम्बुराशेः परमाससाद' ॥५॥ प्रसिद्ध नोमक वंशमें निर्मल मतिके धारक आर्द्रदेव हुए, जो अलंकारों में मुक्ताफलके समान सुशोभित थे। वह कायस्थ थे। निर्दोष गुणग्राही थे और एक होकर भी समस्त कुलको अलंकृत करते थे। शिवके लिए पार्वतीके समान रथ्या नामक उनकी प्राणप्रिया थी, जो सौन्दर्यका समुद्र, कलाओंका कुलभवन, सौभाग्य और उत्तम भाग्यका क्रीड़ाभवन, विलासके रहनेकी अट्टालिका एवं सम्पदाओंके आभूषणका स्थान थी। पवित्र आचार, विवेक एवं आश्चर्यकी भूमि थी। उन दोनोंके अरहन्त भगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर हरिचन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके वचन गुरुओंके प्रसादसे सरस्वतीके प्रवाहको १. ग्रन्थकर्तुः प्रशस्ति-धर्मशर्माम्युदय, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, सन् १९३३, पृ०१७९ । १४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समृद्ध बनाने वाले थे । उस हरिचन्दके एक लक्ष्मण नामका भाई था, जो उन्हें उतना ही प्रिय था, जितना रामकोण ! कविका वंश या गोत्र नोमक न होकर नेमक होना चाहिये, क्योंकि नेमक गोत्रका उल्लेख कालञ्जरके एक अभिलेख में भी आया है "नेमकान्व यजेन्दकसुतते दु केन भगवत्थाः कारितमण्डपिका प्रसक्षेन तदभायें या लक्ष्म्या : | कविका उपनाम चन्द्र था । १२वीं शताब्दी में धर्मशर्माभ्युदयका एक श्लोक जहणकी सूक्तिमुक्तावली में चन्द्रसूर्य के नामसे उपलब्ध है । अतः कविका चन्द्र उपनाम सिद्ध होता है । कविका जन्म कहाँ हुआ और उसने अपने इस ग्रन्थकी रचना कहाँ की, इसका निश्चित रूपमें परिचय प्राप्त नहीं है । १०वीं से १२वीं शताब्दीके राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहासका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि गुजरात और उसके पाश्ववर्ती प्रदेशों में चालुक्य, सोलंकी, राष्ट्रकूट, कलचुरी, शिलाहार आदि राजवंशोंका राज्य था । इनमेंसे प्रत्येकने जैनधर्मकी उन्नति के लिये विशेष योगदान दिया | धर्मशर्माभ्युदयकी संघवी पाडा पुस्तकभंडारको १७६ संख्यक प्रतिमें गुर्जर और विद्यापुर देशका नाम आया है। विद्यापुर आधुनिक बीजापुर ही है । इस प्रतिको लिखनेवाले संझाक हुम्बड़वंशीय थे । अतएव हरिचन्द्र बीजापुर अथवा गुजरातके पार्श्ववर्ती किसी प्रदेशके निवासी रहे होंगे । हरिचन्द्रका व्यक्तित्व कवि और आचारशास्त्रके वेत्ताके रूपमें उपस्थित होता है। इन्होंने रघुवंश, कुमारसंभव, किरात, शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित प्रभृति काव्यग्रन्थोंके साथ तत्त्वार्थसूत्र, उत्तरपुराण, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, उवासगदसा, सर्वार्थसिद्धि प्रभृति ग्रन्थोंका भी अध्ययन किया था। दर्शन और काव्य के जो सिद्धान्त इनके द्वारा प्रतिपादित हैं, उनसे कविको प्रतिभा और १. एपिग्राफिक इन्डिका, पृ० २१० । २. धर्मशर्माभ्युदयका २१४४ श्लोक जल्हण - सूक्तिमुक्तावली १० १८५ में चन्द्र सूर्यके नामसे उपलब्ध है । J ३. अथास्ति गुर्जरो देशो विख्यातो भुवनत्रये । विद्यापुरं पुरं तत्र हस्तलिखित प्रति पाटणसे प्राप्त । विद्यात्रिभवसंभवम् ।। १७६ नं०की धर्मशर्माभ्युदयकी आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्ताका अनुमान सहज में किया जा सकता है। रस-ध्वनिको कविने सिद्धान्तरूपमें स्वीकार किया है । कवि भाग्यवादी है । उसे स्वप्न, निमित्त और ज्योतिषपर विश्वास है । हरिचन्द्रका अभिमत है कि कार्य प्रारम्भ करनेके पहले व्यक्तिको अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये। बिना विश्वारे कार्य करनेवाले मनुष्यका निस्सन्देह उस प्रकार नाश होता है, जिस प्रकार तक्षससे मणि ग्रहण करनेके इच्छुक मनुष्यका होता' है । इस कथनसे यह स्पष्ट है कि हरिचन्द्र विवेकशील और सोच-समझकर कार्य करने वाले थे । स्त्रियोंके सम्बन्धमें कविकी अच्छी धारणा नहीं है । कवि स्वाभिमानी, व्रत और चरित्रनिष्ठ है। धर्मशर्माभ्युदय और जीवनभरचम्पूके अध्ययन से कविके औदार्य आदि गुणों पर भी प्रकाश पड़ता है । स्थितिकाल महाकवि हरिचन्द्रके स्थितिकाल के सम्बन्धमें कई विचारधाराएँ उपलब्ध है । यतः हरिचन्द्र नामके कई कवि हुए हैं । प्रथम हरिचन्द्र नामके कवि चरकसंहिताके टीकाकारके रूपमें उपलब्ध होते हैं । इनका समय अनुमानत: ई० प्रथम शती है। माधवनिदानकी मधुकोशी व्याख्यामें हरिचन्द्र और भट्टारक हरिचन्द्र के नाम आये हैं । वाणभट्टने हर्षचरितके प्रारम्भ में भट्टारक हरिचन्द्रका उल्लेख किया है। राजशेखरको काव्यमीमांसा" और " कर्पूरमंजरी में भी हरिचन्द्रका नामोल्लेख मिलता है । गउडवही में ' भास, कालिदास और सुबन्धु के साथ हरिचन्द्रका भी नामनिर्देश प्राप्त होता है । स्व० पण्डित नाथूराम प्रेमीने धर्मशर्माभ्युदयकी पाटणकी एक पांडुलिपिका १. धर्म० १८ २८ । २. अत्र केचित् हरिचन्द्रादिभिर्व्याख्यातं पाठान्तरं पठन्ति -- मधुकोशी व्या० माघवनिदान, पृ० १७, पंक्ति १० । २. पदवन्धोजक्लोहारी रम्यवर्णपदस्थितिः । मट्टारकहरिचन्द्रस्थ गन्धो नृपायते || हर्षचरित् ११३ ० १० । ४. हरिचन्द्रगुप्ती परीक्षिताविह विद्यालयाम । - का० मी० अ० १०, पृ० १३५ ( बिहार राष्ट्रभाषा संस्करण १९५४ ) | विदूषकः - ( सक्रोधम् ) – उज्जुअंता किंण भगद्द अम्हाणं चेडिया हरिनंद-दिमंदकोट्टिसहाल्पहूदीणं वि पुरदी सुकइ सि ? - कपूरमंजरी, चौखम्बा संस्करण, १९५५ जय निकान्तर, पृ० २९ १ ६. मासम्मि जलनमित्ते कन्तीदेवे अजस्स रहुआरे । सोवन्ध अधम्म हरिचंदे अ आणंदो || ८००, गउडवहो, भाण्डारकर, ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट पूना, १९२७ ई० । १६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख किया है, जिसका प्रतिलिपिकाल वि० सं १२८७ (ई. सन् १९३०) है। प्रतिके अन्तमें लिखा है___ "१२८७ वर्षे हरिचन्द्रकविविरचितधर्मशर्माभ्युदयकाव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरिआदेशेने कीर्तिचन्द्रगणिना लिखितमिति भद्रम"। __ अतः इतना स्पष्ट है कि ई० सन् १२३० के पहले ही महाकवि हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य लिखा जा चुका था। श्री पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अपने-'महाकवि हरिचन्दका समय शीर्षक निवन्धमें धर्मशर्माभ्युदयके ऊपर बोरनन्दिके चन्द्रप्रमचरित और हेमचन्द्र के 'योगसार' का प्रभाव बताया है। आपने लिखा है कि 'धर्मशर्माभ्युदय' में भोगोपभोगपरिमाणवतके अतिचारोंमें १५ खरकर्मोंका निर्देश किया है तथा अनर्थदंडवतके स्वरूपमें खरकर्मों के त्यागको स्थान दिया है । अतः हरिचन्दका समय वि० सं० १२०० के लगभग होना चाहिये ।' इस कथनका समर्थन प्रो० अमृतलालजी शास्त्रीने "महाकवि हरिचन्द' (जैन सन्देश शोधांक ७) शीर्षक निबन्धमें किया है । आपने श्री पंडिस कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके प्रमाणोंको दुहराते हुए कुछ नवीन तथ्य भी प्रस्तुत किये, पर मूल तर्क दोनों महानुभावोंके समान हैं। ___ इस सम्बन्ध में विचारणीय यह है कि क्या खरकर्मोंका त्याग हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती साहित्यमें भी मिलता है ? 'उवासगदसर के आनन्द अध्ययन और 'समराइच्चकहा' में भी खरकर्मोके त्यागका विवेचन है । अतः कवि हरिचन्दने खरकों के त्यागका कथन हेमचन्द्रके आधार पर न कर 'उवासगदसा' आदि ग्रन्थोंके आधार पर किया होगा । अतएव हेमचन्द्र के पश्चात् हरिचन्द्रका समय माननेका कोई सबल प्रमाण नहीं मिलता है । प्रो० के० के० हिण्डीकीने हरिचन्द्रको वादीभसिंहके पश्चात् (ई० सन् १०७५११७५)का कवि माना है, पर वादीसिंहके समयके सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है। स्व० श्रीनाथरामजी प्रेमी वादीसिंहका काल वि० सं०की १२वीं शती; श्री पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री अकलंकदेवके समकालीन और श्री डॉ० १. पाटणके संघवीपाड़ाके पुस्तकभण्डारकी सूची, गायकवाड़ सीरिजसे प्रकाशित, बड़ौदा १९३७ ई.। २. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण ११-१२, पृ० ३७६-३८२ । ३. भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित जीवन्ध रचम्पूका अंग्रजी प्राक्कथन (Fureword), ४. जनसाहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृ० ३२१ । ५. न्यायकुमुदचन्द्र', प्रथम भाग, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, १९३८, प्रस्ता० पु० १११ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० दरबारीलालजी कोठिया' नवम शती मानते हैं । अतः श्रीहिण्डोकी द्वारा निर्णीत समय भी निविवाद नहीं है । धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पूके आन्तरिक परीक्षण करनेपर कुछ तथ्य इस प्रकार उपलब्ध होते हैं जिनके आधार पर महाकवि हरिचन्द्र के समयका निर्णय किया जा सकता है। धर्मशर्मा (पा २ 7 प्रयोग आया है । इस शब्दका प्रयोग वाणभट्टने भी हर्षचरितके प्रथम उच्छ्वासमें किया है। 'नेषधचरित' में हंस दमयन्तीसे कहता है—सुन्दरी ! अकेला चन्द्रमा तुम्हारे नयनोंको किसी प्रकार तृप्ति नहीं दे सकता । अतः नलके मुखचन्द्रके साथ वह तुम्हारे लोचनोंका आसेचनक' बने । स्पष्ट है कि 'मासेचनक' शब्द हर्षचरितसे विकसित होकर धर्मशर्माभ्युदयमें आया और वहाँसे नेषधमें गया । नैषधमहाकाव्यपर धर्मशर्माभ्युदयका और भी कई तरहका प्रभाव है | 'धर्मशर्माभ्युदय' का नाम सम्भवतः पाश्वभ्युदय के अनुकरण पर रखा गया होगा। संस्कृत काव्यों में अभ्युदयनामान्तवाले काव्यों में सम्भवतः जिनसेनका पाश्वभ्युदय सबसे प्राचीन है । ९वीं शतीके महाकवि शिवस्वामीका 'कप्फिणाभ्युदय " महाकाव्य है, जिसका कथानक बौद्धोंके अवदानोंसे ग्रहण किया गया है । १३वीं शती में दाक्षिणात्य कवि वेंकटनाथ वेदान्तदेशिकने २४ सगं प्रमाण 'यादवाभ्युदय' महाकाव्य लिखा है। जिसपर अप्पय दीक्षितने (ई० १६००) एक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। महाकवि आशाघरने 'भरतेश्वराभ्युदय' नामक काव्य लिखा है | अतः यह निष्कर्ष निकालना दूरकी कौड़ी बैठाना नहीं है कि पाश्वभ्युदय के अनुकरण पर महाकवि हरिचन्द्रने अपने इस महाकाव्यका नामकरण किया हो । महाकवि हरिचन्द्र के समय निर्णय के लिये एक अन्य प्रमाण यह भी ग्रहण किया जा सकता है कि जीवन्धरचम्पूकी कथावस्तु कविने 'क्षत्रचूडामणि' से ग्रहण की है। श्रीकुप्पुस्वामीने अपना अभिमत प्रकट किया है कि 'जीवकचिन्ता १. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, सन् १९५० ई०, प्रस्तावना, पृ० २५-२७ । २. आसेचनक- दर्शनं नप्तारम् – हर्षचरित, चौखम्बा संस्करण, प्रथम उच्छ्वास । ३. नैषधमहाकाव्य, चौखम्बा संस्करण, ३११ । ४. नैषधपरिशीलन, डॉ० चण्डीप्रसाद शुक्ल द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध हिन्दुस्तानी ऐकेडमी, इलाहाबाद, सन् १९६० ई० । ५. पंजाब विश्वविद्यालय सीरीज, संख्या २६, ई० सन् १९३७में लाहोरसे प्रकाशित । ६. संस्कृत-साहित्यका इतिहास वाचस्पति, गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १९६०, पृ० ८६८ । १८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा 1 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि'में जीवन्धरचरित मिलता है, वह 'क्षत्र-चूड़ामणि'से प्रभावित है। इस आधार पर कवि हरिवनका प्रमय १८ नो मतान्दोके जामा होना चाहिये। __ महाकवि असग द्वारा विरचित 'वर्द्धमानचरितम् के अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि कविने कई सन्दर्भ और उत्प्रेक्षाएं जीवन्ध रचम्पू, धर्मशर्माभ्युदय और चन्द्रप्रभचरितसे ग्रहण की हैं । उक्त काव्यग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह सहजमें ही स्पष्ट हो जाता है कि हरिचन्द्रने असगका अनुकरण नहीं किया, बल्कि महाकवि असगने हो हरिचन्द्रका अनुकरण किया है। यथा प्रथिता विभाति नगरी गरीयसी धुरि यत्र रम्यसुदतीमुखाम्बुजम् । कुरुविन्दकुण्डलविभाविभापितं प्रविलोक्य कोपमिव मन्यते जनः ।। जीवन्धर०, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ६२५ यत्रोल्लसत्कुण्डलपरागच्छायावतंसारुणिताननेन्दुः । प्रसाद्यते किं कुपितेति कान्ता प्रियेण कामाकुलितो हि मढ़ः ॥ वर्धमानचरितम्, सोलापुर, ई० १५३१, श२६ सोदामिनीव जलदं नवमजरीव चूतद्रुमं कुसुमसंपदिवाद्यमासम् । ज्योत्स्नेव चन्द्रमसमच्छविमेव सूर्य तं भूमिपालकमभूषयदायताक्षी॥ जीवन्धरचम्पू ।२७ विद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाई चुतद्रुमं नूतनमन्जरीव । स्फुरत्प्रभेवामलपद्मरागं विभूषयामास तमायताक्षी । वर्धमानचरितम् ११४ हरिचन्द्रने धर्मशर्माभ्युदयके दशम सर्गमें विन्ध्यगिरिको प्राकृतिक सुषमाका वर्णन किया है । महाकवि असगने इस सन्दर्भके समान ही उत्प्रेक्षाओंद्वारा विजयाद्धका वर्णन किया है । अत: वर्द्धमानचरितके रचयिता असगने हरिचन्द्रका अनुसरण कर अपने काव्यको लिखा है। इसी प्रकार 'नेमिनिर्वाण' काव्यके रचयिता वाग्भट्टने भी 'धर्मशर्माभ्युदय'का अनेक स्थानोंपर अनुसरण किया है। 'धर्मशर्माभ्युदय'के पञ्चम सर्गका नेमिनिर्वाणके द्वितीय सर्गपर पूरा प्रभाव है । असगका समय ई० सन् ९८८ है । अतः हरिचन्द्रका समय इनके पूर्व मानना चाहिये। श्रीमती स्वप्ना' बनर्जीने धर्मशर्माभ्युदयकी हस्तलिखित प्रतिके लेखक विशालकीति और शब्दार्णवचन्द्रिकामें आये हुए बिशालकोतिको एक मानकर हरिचन्दका समय १२वीं शतीका अन्तिम पाद सिद्ध किया है। पर धर्मशर्माभ्युदयके अन्तरंग अनुशीलनसे हरिचन्द्रका समय ई० सन्की १०वीं शती है। १. मरु घरफेसरी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, जोधपुर, पृ० ३१५ । आचार्यसुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाएँ महाकवि हरिचन्द्र की दो रचनाएं उपलब्ध हैं१. धर्मशर्माभ्युदय २. जीवन्धरचम्पू कुछ विद्वान 'जीबन्धरचम्पू' को 'धर्मशर्माभ्युदय के कर्त्ता हरिचन्द्रकी कृति नहीं मानते हैं. पर यह ठीक नहीं है । यतः इन दोनों रचनाओं में भावों, कल्पनाओं और शब्दोंको दृष्टिसे बहुत साम्य है । जीवन्धरचम्पूमें पुण्यपुरुष जीवन्धरका चरित वर्णित है । कथावस्तु ११ लम्भों विभक है तथा कथावस्तुका आधार वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि एवं क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ हैं । यों तो इस काव्यपर उत्तरपुराणका भी प्रभाव है, पर कथावस्तुका मूलस्रोत उक्त काव्यग्रन्थ ही हैं। गद्य-पद्यमयी यह रचना काव्यगुणोंसे परिपूर्ण है । द्राक्षारस के समान मधुर काव्य-रस प्रत्येक व्यक्तिको प्रभावित करता है । धर्मशर्माभ्युदय इस महाकाव्य में १५ वें तीर्थंकर धर्मनाथका चरित वर्णित है। इसकी कथावस्तु २१ सर्गो में विभाजित है । धर्मं शर्म - धर्म और शान्ति के अभ्युदयवर्णनका लक्ष्य होने से कविने प्रस्तुत महाकाव्यका यह नामकरण किया है। कविने इस महाकाव्यको कथावस्तु उत्तरपुराणसे ग्रहण की है। इसमें महाकाव्योचित धर्मका समावेश करनेके लिये स्वयंवर, विन्ध्याचल, षड्ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, चन्द्रोदय एवं रतिक्रीड़ाके वर्णन भी प्रस्तुत किये हैं | उत्तरपुराण में धर्मनाथके पिताका नाम भानु बताया है, पर धर्मशर्माभ्युदयमें महासेन । माताका नाम भी सुप्रभा के स्थान पर सुव्रता आया है । कविने कथावस्तुको पूर्वभवावलोके निरूपणसे आरम्भ न कर वर्तमान जीवन से प्रारम्भ की हैं। रघुवंशके दिलीपके समान महासेन भी पुत्र चिन्तासे आक्रान्त हैं। वे सोचते हैं कि जिसने जीवनमें पुत्रस्पर्शका अलोकिक आनन्द प्राप्त नहीं किया, उसका जन्म धारण व्यर्थ है । अतः महासेन नगर के बाहरी उद्यानमें पधारे हुए ऋद्धिवारी प्रचेतानामक मुनिके निकट पहुँचते हैं। वे उनके समक्ष पुत्र- चिन्ता व्यक्त करते हैं। प्रसंगवश सुनिराज धर्मनाथकी पूर्वभवाचली बतलाते हैं और छह महीने के उपरान्त तीर्थंकर पुत्र होनेकी भविष्यवाणी करते हैं । कविने धीरोदात्त नायक में काव्योचित गुणोंका समावेश करनेपर भी पौराणिकता की रक्षा की है । वनमें तीर्थंकर धर्मनाथके पहुंचते हो, षड् ऋतुओंके फल-पुष्प एकसाथ विकसित हो जाते हैं। धर्मनाथ के निवासके लिये कुवेरने २० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दर नगरका निर्माण किया, जन्मके दश अतिशयोंको काव्यका रूप देनेका प्रयास किया है । और नायकमें अपूर्व सामर्थ्यका चित्रण करते हुए कहा है कि मार्ग चलनेके कारण लांत न होनेपर भी रुढ़िवश उन्होंने स्नान किया और मार्गका वेश बदला' | इस प्रकार कविने नायकको पौराणिकतासे ऊपर उठानेकी चेष्टा की है किन्तु तीर्थकरत्वकी प्रतिष्ठा बनाये रखने के कारण पूर्णतया उस मीमाका अतिक्रममा नहीं हो सका है ! इस महाकाव्यमें इतिवृत्त, वस्तुव्यापार, संवाद और भावाभिव्यञ्जन इन चारोंका समन्वित रूप पाया जाता है । प्रकृति-चित्रणमें भी कविको अपुर्व सफलता प्राप्त हुई है। यहाँ उदाहरणार्थ गंगाका चित्रण प्रस्तुत किया जाता है तापापनोदाय सदैव भूत्रयोविहारखेदादिव पाण्डुरशुतिम् । कीर्तेर्वयस्थामिव भतुरप्रतो विलोक्य गङ्गां बहु मेनिरे नराः ।।५।६८ ।। शम्भोजराजूटदरीविवर्तनप्रवृत्तसंस्कार इव क्षितावपि । यस्याः प्रवाहः पयसां प्रवर्तते सुदुस्तरावतंतरङ्गभङ्गरः ॥९१६९ ।। सभी लोग अपने समक्ष गंगानदीको देखकर बहुत प्रसन्न हुए। यह नदी जगल-संतापको दूर करनेके लिये त्रिभुवनमें विहार करनेके खेदसे ही मानों श्वेत हो रही है। यह नदो स्वामी धर्मनाथकी त्रिभुवन-व्यापिनी कोतिकी सहेलोसो जान पड़ती है। जिस गंगानदीके जलका प्रवाह पृथ्वी में भी अत्यन्त दुस्तर आवों और तरंगोंसे कुटिल होकर चलता है, मानों महादेवजोके जटाजूटरूपी गुफाओंमें संचार करते रहने के कारण उसे वैसा संस्कार ही पड़ गया है। वह गंगा निकटवर्ती बनोंको वायुसे उठती हुई तरंगों द्वारा फैलाधे हुए फैनसे चिह्नित है। अतः ऐसी जान पड़ती है मानों हिमालयरूपी नागराजके द्वारा छोड़ी हुई वांचुली ही हो। इस प्रकार कविने गंगाके श्वेत जलका चित्रण विभिन्न उत्प्रेक्षाओं द्वारा सम्पन्न किया है। उसे रत्नसमूहोंसे खचित पृथ्वीको करधनी बताया है अथवा आकाशसे गिरी हुई मोतियोंकी माला ही बताया है। इसी प्रकार कविने सूर्यास्त, चन्द्रोदय, रजनी, बन आदिका भी जोवन्त चित्रण किया है । कवि रानी सुव्रताके ओष्ठका चित्रण करता हुआ कहता है प्रवाल-बिम्बीफल-विद्रुमादयः समा बभूवुः प्रभयैव केवलम् । रसेन तस्यास्त्वधरस्य निश्चितं जगाम पीयूषरसोऽपि शिष्यताम् ॥२।५।।। १, धर्मशर्माभ्युदय ११।४, ११५ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसलय, बिम्बीफल और विद्रुम आदि केवल वर्णको अपेक्षा हो उसके ओष्ठके समान थे । रसको अपेक्षा तो अमृत भी निश्चय ही उसका शिष्य बन चुका था । नासिका, कर्ण, मुख, कटि भूला अति अपूर्व चित्रण किया है। सुव्रताकी भोहोंका निरूपण करता हुआ कवि कहता हैइमानालोधनगोचरां विधिविधाय सृष्टेः कलशापंणोत्सुकः । लिलेख वस्त्र तिलकामध्ययोयोमिषादोमिति मङ्गलाक्षरम् ॥२५५॥ इस निरवद्य सुन्दरीको बनाकर विघासा मानों सृष्टिके ऊपर कलशा रखना चाहता था। इसीलिये तो उसने तिलव से चिन्हित भौंहोंके बहाने उसके मुख पर 'ओम्' यह मंगलाक्षर लिखा था। इस प्रकार कविने प्रत्येक उत्प्रेक्षाको तर्कसंगत बनाया है । 'धर्मशर्माभ्युदय' में श्रृंगार और शान्तरसका अपूर्व चित्रण हुआ है । कविने भाव सौंदर्य की व्यापक परिधि में कल्पना, अनुभूति, संवेग, भावना, स्थायी और संचारी भावोंका समावेश किया है। इसमें भावोंकी उमड़-घुमड़ है, पर सीमाका अतिक्रमण नहीं । वात्सल्यभावका चित्रण भी षष्ठ सगमें आया है। अलंकार-योजनाकी दृष्टिसे ७ २२, २०११०, ७४२, ११११२, १४/३६, १७७६ आदि में उपमा, ११४५ में उत्प्रेक्षा, ३।३० में अर्थान्तरन्यास, १७/८० में असंगति, ४/२० में उल्लेख, ४/२२ में तद्गुण, १०।१९ में भ्रान्तिमान्, २२६० में व्यतिरेक, १७/४५ में विरोधाभास और २।३० में परिसंख्या अलंकार वर्तमान हैं। अनुप्रास, यमक, लेखकी अपेक्षा ११वां और १९वां सगं प्रसिद्ध है । हरिचन्द्रने १९ वें सगमें एकाक्षर और द्वधक्षर चित्रकी योजना की है । १९१८५ में सर्वतोभद्र, १९५/९३ मुरजबन्ध, १९७८ में गोमूत्रिका, १९८४ में अर्द्धभ्रम, १९/९८ षोडषदल पद्मबन्ध एवं १९ १०१ में चक्रबन्ध आये हैं। निश्चयतः यह काव्य उदात्त शैली में लिखा गया है और इसमें उत्कृष्ट काव्य के सभी गुण विद्यमान हैं। इस काव्यके अन्तिम सर्गमें जैनाचार और जेनदर्शन के तत्त्व वर्णित हैं । वाग्भट्ट प्रथम वाग्भट्टनाम के कई विद्वान् हुए हैं। 'अष्टांगहृदय' नामक आयुर्वेदग्रन्थके रचयिता एक वाग्भट्ट हो चुके हैं। पर इनका कोई काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धान्त भवन आराकी विक्रम संवत् १७२७ की लिखी हुई प्रतिमें निम्न लिखित पद्य प्राप्त होता है अहिच्छत्रपुरोत्पन्नप्राग्बाटकुलशालिनः । छाडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्भटः कविः ||८७ २२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह प्रशस्ति-पद्य श्रवणबेलगोलाके स्व० पं० दौर्बलिजिनदास शास्त्री के पुस्तकालयवाली नेमिनिर्वाण काव्यकी प्रतिमें भी प्राप्य है ।' प्रशस्ति-पद्य से अवगत होता है कि वाग्भट्ट प्रथम प्राग्वाट -- पोरवाड़ कुलके थे और इनके पिताका नाम छाड़ था । इनका जन्म अहिछत्रपुर में हुआ था । महामहोपाध्याय डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा के अनुसार नागौरका पुराना नाम नागपुर या अहिछत्रपुर है। महाभारत में जिस अहिछषका उल्लेख है वह तो वर्तमान रामनगर (जिला बरेली उत्तर प्रदेश ) माना जाता है । 'नायाधम्मक हाओ में भी अहिछत्रका निर्देश आया है, पर यह अहिछत्र चम्पाके उत्तरपूर्व अवस्थित था। विविधतीर्थंकल्प में अहिछत्रका दूसरा नाम शंखवती नगरी आया है । इस प्रकार अहिछत्रके विभिन्न निर्देशोंके आधार पर यह निर्णय करना कठिन है कि वाग्भट्ट प्रथमने अपने जन्मसे किस अहिछत्रको सुशोभित किया था । डॉ० जगदीशचन्द्र जेनने अहिछत्रकी अवस्थिति रामनगरमें मानी है ।" किन्तु हमें इस सम्बन्ध में ओझाजीका मत अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है और कवि वाग्भट्ट प्रथमका जन्मस्थान नागौर ही जंचता है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है, यतः मल्लिनाथको कुमाररूप में नमस्कार किया है ।" स्थितिकाल - वाग्भट्ट प्रथमने अपने काव्य में समय के सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं किया है | अतः अन्तरंग प्रमाणोंका साक्ष्य ही शेष रह जाता है । गग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयने अपने लक्षणग्रंथ में 'नेमिनिर्वाण' काव्यके छठे सर्गके "कान्तारभूमी" (६४६) "जहुर्वसन्ते" (६।४७) और "नेमिविशालनयनयो: " ( ६ |५१) पद्य ४३५, ४१३९ और ४१३२ में उद्धृत किये हैं । निर्वाणके सातवें सर्गका "वरण: प्रसून विकरावरणा" २६ पद्य भो वाग्भटालंकारके चतुर्थं परिच्छेदके ४० वें पद्यके रूपमें आया है । अतः नेमिनिर्वाणकाव्यकी रचना वाग्भटालंकारके पूर्व हुई है । वाग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयका समय जयसिंहदेवका राज्यकाल माना जाता है | प्रो० 'बूलर'ने अनहिलवाड़ के चालुक्य राजवंशकी जो वंशावली अंकित की है उसके १. जैनहितैषी भाग ११, अंक ७-८, पृ० ४८२ । . २. नागरीप्रचारिणी पत्रिका, काशी, भाग २, पृ० ३२९ । ३. महाभारत, गीताप्रेस, ५।१९।३० । ४. नायाचम्मकामो १५।१५८ । ५. Life in Ancient India as depicted in the Jain Catons Bombay, 1947, pp. 264-265. ६. नेमिनिर्वाण काव्य १११९ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार जसिंहदेवका राज्यकाल ई० सन् १०९३-११४३ ई० सिद्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्रके द्वधाश्रय-काव्यसे सिद्ध होता है कि वाग्भट्ट चालुक्यवंशीय कर्णदेवके पुत्र जयसिंहके अमात्य थे। अत्तएव 'नेमिनिर्वाण'की रचना ई० ११७९के पूर्व होनी चाहिए। ___'चन्द्रप्रभचरित', 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नेमिनिर्वाण' इन तीनों काव्योंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि 'चन्द्रप्रभचरित'का प्रभाव 'धर्मशर्माभ्युदय' पर है और 'नेमिनिर्वाण' इन दोनों काव्योंसे प्रभावित है। धर्मशर्माभ्युदयके "श्रीनाभिसुनौश्चिरमङ्घ्रियुग्मनखेन्दवः" (धर्म० १।१) का नेमिनिर्वाणके "श्रोनाभिसनो: पदपायुग्मनखाः" (नेमि० १११) पर स्पष्ट प्रभाव है । इसी प्रकार "चन्द्रप्रभं नौमि यदीयमाला नून" (धर्म० १२) से "चन्द्रप्रभाय प्रभवे त्रिसन्ध्यं तस्मै' (नेमि० १५८) पद्य भी प्रभावित है । अतएव नेमिनिर्वाणका रचनाकाल ई• सन् १०७५-११२५ होना चाहिए। रचनाएँ बाग्भट्ट प्रथमका व्यक्तित्व श्रद्धाल और भक्त कविका है। उन्होंने अपने महनीय व्यक्तित्व द्वाराजनकाव्यको विशेषरूपसे प्रभावित किया है । इनके द्वारा लिखित एक ही रचना उपलब्ध है, वह है "नेमिनिर्वाणकाव्य" । यह महाकाव्य १५ सोंमें विभक्त है और तीर्थंकर नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है । चतुर्विंशति तीर्थंकरोंके नमस्कारके पश्चात् मूलकथा प्रारम्भ की गई है। कविने नेमिनाथके गर्भ, जन्म, विवाह, तपस्या, मान और निर्वाण कल्याणकोंका निरूपण सीधे और सरलरूपमें किया है। कथावस्तुका आधार हरिवंशपुराण है। नेमिनाथके जीवनकी दो मर्मस्पर्शी घटनाएं इस काव्यमें अंकित हैं। एक घटना राजुल और नेमिका रैवतक पर पारस्परिक दर्शन और दर्शनके फलस्वरूप दोनोंके हृदय में प्रेमाकर्षणकी उत्पत्तिरूपमें है । दूसरी घटना पशुओंका करुण क्रन्दन सुन विलखती राजुल तथा आगनेत्र हाथजोड़े उग्रसेनको छोड़ मानवताको प्रतिष्ठार्थ वनमें तपश्चरणके लिए जाना है। इन दोनों घटनाओंकी कथावस्तुको पर्याप्त सरस और मार्मिक बनाया है। कविने वसन्तवर्णन, रैवतकवर्णन, जलक्रीड़ा, सूर्योदय, चन्द्रोदय, सुरत, मदिरापान प्रभृति काव्यविषयोंका समावेश कथाको सरस बनानेके लिए किया है। कथावस्तुके गठनमें एकान्वितिका सफल निर्वाह हुआ है । पूर्व भवावलिके कथानकको हटा देने पर भी कथावस्तुमें छिन्न-भिन्नता नहीं आती है। यों तो यह काव्य अलंकृत शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है; पर कथागठनकी अपेक्षा इसमें कुछ शैथिल्य भी पाया जाता है । २४ : तीर्थकर महावीर धौर जनकी आचार्य-परम्परा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविने इस काव्यमें नगरी, पर्वत, स्त्री-पुरुष, देवमन्दिर, सरोवर आदिका सहज-ग्राह्य चित्रण किया है। रसभाव-योजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है । शृगार. रौद्र, वीर और शान्त रसोंका सुन्दर निरूपण आया है । विरहकी अवस्था में किये गये शीतलोपचार निरर्थक प्रतीत होते हैं। एकादश सर्गमें विरोग-शृंगारका अद्भुत चित्रण आया है। अलंकारोंमें २।४२ में अनुप्रास, २९ में यमक, ११११ में इलेष, ३।४० और ३१४१ में उपमा, ४/५ में रूपक, १११८ में विरोधाभास, १०१० में उदाहरण, ८१८० में सहोक्ति, १।४२ मे परिसंख्या और १४१ में समासोक्ति प्राप्त हैं । उपजाति, वसंततिलका, मालिनी, रुचिरा, हरिणी, पुष्पिताग्रा, शृगधरा, शार्दूलविक्रीड़ित, पृथ्वी, मोहता, अनुभम गरम रिलम्ति, ना, शशिवदना, बन्धूक, विद्युन्माला, शिखरिणी, प्रमाणिका, हँसरुत, रुक्मवती, मत्ता, माण रंग, इन्द्रवज्वा, भुजंगप्रयात, मन्दाक्रान्ता, प्रमिताक्षरा,कुसुविचित्रा, प्रियम्बदा, शालिनी, मौतिकदाम, तामरस, तोटक, चन्द्रिका, मंजुभाषिला, मत्तमयूर, नन्दिनी, अशोकमालिनी, ग्विणी, शरमाला, अच्युत, शशिकला, सोमराजि, चण्डवृष्टि, प्रहरणकलिका, नित्यभ्रमरविलासिता, ललिता और उपजाति छन्दोंका प्रयोग किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिसे इस काव्यका सप्तम सर्ग विशेष महत्वपूर्ण है । जिस छन्दका नामांकन किया है कविने उसी छन्दमें पद्यरचना भो प्रस्तुत को है । कवि कल्पनाका धनी है । सन्ध्याके समय दिशाएँ अन्धकारद्रव्यसे लिप्त हो गई थी और रात्रिमें ज्योत्स्नाने उसे चन्दनद्रव्यसे चचित कर दिया, पर अब नवान सूर्यकिरणोंसे संसार कुंकुम द्वारा लीपा जा रहा है। सन्ध्यागमे ततत्तमोमृगनाभिपङ्कनक्तं च चन्द्रधिचन्दनसंचयेन । यच्चचितं तदधुना भुक्न नवीनभास्वत्करोघघुसूर्णरुपलिप्यते स्म ।।३।१५।। मग्नां तमःप्रसरपंकनिकायमध्याद् गामुद्धरन्सपदि पर्वततुङ्गशृङ्गाम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकता स्वकीयमहसां पतिः करसहस्रमसावखिन्नः ॥३।१६।। अन्धकाररूपी कीचड़में फंसी हुई पृथ्वीका पर्वतरूपी उन्नत शृंगोंसे उद्धार करते हुए उदयको प्राप्त सूर्यदेवने हजारों किरणोंको फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है। इस प्रकार काव्य-मूल्योंकी दृष्टि से यह काव्य महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमालासिरीजमें ५६ संख्यक ग्रंथके रूपमें हुआ है । चामुण्डराय चामुण्डराय 'वीरमार्तण्ड', 'रणरंगसिंह', 'समरघुरन्धर' और 'वैरिकुल श्रावार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालदण्ड होने पर भी कलाकार एवं कलाप्रिय है । बाहुलचरितमें इनकी माताका नाम कालिकादेवी बतलाया गया है। इनके पिता तथा पूर्वज गंगवंशके श्रद्धाभाजन राज्याधिकारी रहे होंगे । वे महाराज मारसिंह तथा राजमल्ल द्वितीयके प्रधानमंत्री थे। इनका वंश ब्रह्मक्षत्रियवंश बताया गया है।' चामुण्डरायपुराणसे यह भी अवगत होता है कि इनके गुरुका नाम अजित्तसेन था । अभिलेखोंसे यह भी निर्विवाद ज्ञात होता है कि चामुण्डराय जन्मना जैन थे। नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसारमें 'सो अजियसेणणाही जस्स गुरु'२ कहकर अजितसेनको उनका दीक्षागुरु बताया है। मंत्रीवर चामुण्डरायने आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवतीसे भी शिक्षा प्राप्त की थी। चामुण्डराय अपनी मातृभाषा कन्नड़के साथ संस्कृतमें भी पारंगत विद्वान् थे। वे इन दोनों भाषाओं में साधिकार कविता एवं लेखनकार्य करते थे। उनको उपाधियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि खेडगमुद्धमें बज्ज्वलदेवको हरानेसे उन्हें 'समरधुरन्वर'की उपाधि; मोलम्बयुद्धमें गोलूरके मैदान में उन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष्यमें उन्हें 'वीरमातण्डको उपाधि', उक्कंगोके किले में राजादित्यसे वीरतापूर्वक लड़नेके उपलक्ष्य में 'रणरंगसिंह की उपाधि; बागेयरके किलेमें त्रिभुवनवीरको मारने और गोविन्दारको उसमें न घुसने देनेके उपलक्ष्य में वैरिकुलकालदण्ड'; राजाकामके किले में राजवास सिवर, ऋड़ामिक आदि योद्धाओंको हरानेके कारण उन्हें 'भुजविक्रम'को उपाधि; अपने छोटे भाई नागवर्माके घातक मदुराचयको मार डालनेके उपलक्ष्यमें 'समरपरशुराम'को उपाधि एवं एक कबीलेके मुखियाको पराजित करने के उपलक्ष्यमें 'प्रतिपक्षराक्षस'की उपाधि प्राप्त हुई थी। नैतिक दृष्टिसे 'सम्यक्त्वरत्नाकर', 'शौचाभरण', 'सत्ययुधिष्ठिर' ओर 'सुभटचूड़ामणि' उपाधियाँ प्राप्त थीं। चामुण्डराय गोम्मट, गोम्मटराय, राय और अण्णके नामोसे भी प्रसिद्ध था । संभवत: गोम्मट इनका घरेलू नाम था । इसीसे बाहुबलीको मूत्ति गोम्मटेश्वर कही जाने लगी। विध्यगिरिपर्वतपर इस मूत्तिके अतिरिक्त उन्होंने एक त्यागद ब्रह्मदेवनामक स्तम्भ भी बनवाया था। इस पर चामुण्डरायकी एक प्रशस्ति भी अंकित है। इन्होंने चन्द्रगिरि पर एक मन्दिरका निर्माण कराया, जो चामुण्डरायवसत्तिके नामसे प्रसिद्ध है । चामुण्डरायपुराण एवं अन्य १. "जगत्पवित्रब्रह्मशत्रियवंशभागे", चा० पु०, १०५ । २. गोम्मटसार कर्मकाण, भाषा ९६६ । २६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त सामग्रीसे यह भी ज्ञात होता है कि इन्हें एक पुत्र भी था, जिसका नाम जिनदेवन था । उसने बेलगोलामें जिनदेवका एक मन्दिर बनवाया था । चामुण्डरायका परिवार धर्मात्मा और श्रद्धालु था। स्थितिकाल चामुण्डरायने अपने 'त्रिष्टिलक्षणमहापुराण' में कुछ प्रमुख आचार्यों और ग्रंथकारोंका निर्देश किया है तथा कुछ संस्कृत और प्राकृतके पद्य भो उद्धृत किये हैं। गृद्धपिच्छाचार्य, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद, कवि परमेश्वर, वीरसेन, गुणभद्र, धर्मसेन, कुमारसेन, नागसेन, चन्द्रसेन, आर्यनन्दि, अजितसेन, धीनन्दि, भूतबलि, पुष्पदन्त, गुणधर, नागहस्ती, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, माघनन्दि, शामकुण्ड. तेम्बलराचार्य, एलाचार्य शभनन्दि, रविनन्दि और जिनसेन आचार्योंका उल्लेख चामुण्डरायपुराणमें पाया जाता है । इन उल्लेखोंसे चामुण्डरायके समयपर प्रकाश पड़ता है | चामुण्डरायने अपने महापुराणको शक सं० ९०० (ई० सन् ९७८) में पूर्ण किया है। इन्होंने श्रवणबेलगोलामें बाहुबलि स्वामीको मूत्तिको प्रतिष्ठा ई० सन् ९८१में की है। ब्रह्मदेवस्तम्भपर ई. सन् ९७४का एक अभिलेख पाया जाता है | गोम्मटेश्वरको मत्तिके समीप ही द्वारपालकोंको बांयी ओर प्राप्त एक लेखसे, जो ११८० ई० का है, मूत्तिके सम्बन्धमें निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं :-- ___ भगवान बाहुबलि पुरुके पुत्र थे। उनके बड़े भाई द्वन्द्वयुद्धमें उनसे हार गये । लेकिन भगवान बाहुबलि पृथ्वीका राज्य उन्हें ही सौंपकर तपस्या करने चले गये । और उन्होंने कर्मपर विजय प्राप्त की । पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र भरतने पोदनपुरमें बाहुबलिको ५२५ धनुष ऊँची एक मूत्ति बनवाई। कुछ कालोपरान्त उस स्थानमें, जहाँ बाहुबलिको मूर्ति थो, असंख्य कुक्कुट सर्प उत्पन्न हुए । इसीलिए उस मूत्तिका नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ा । कुछ समय बाद यह स्थान साधारण मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया । उस मूत्तिमें अलौकिक शक्ति थी। उसके तेज:पूर्ण नस्त्रोंको जो मनुष्य देख लेता था वह अपने पूर्व जन्मकी बातें जान जाता था । जब चामुण्डरायने लोगोंसे इस जिनमत्तिके बारेमें सुना, तो उन्हें उसे देखनेको उत्कट अभिलाषा हुई । जब वे वहाँ जानेको तैयार हुए। तो उनके गुरुओंने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इस पर चामुण्डरायने इस वर्तमान मूर्तिका निर्माण करवाया। ___ इस अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् ११८० के पूर्व चामुण्डरायका १. जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग ६, किरण ४, पु० २६१ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश व्याप्त हो चुका था और वे गोम्मटेशमूर्तिके प्रतिष्ठापक के रूप में मान्य हो चुके थे । अतएव संक्षेप में चामुण्डरायका समय ई० सन् की दशम शताब्दी है । रचना चामुण्डराय संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओं में कविता लिखते थे । इनके द्वारा रचित चामुण्डरायपुराण और चारित्रसार ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं । चामुण्डरायपुराणका अपर नाम त्रिषष्ठिपुराण है। यह ग्रन्थ कन्नड़गद्यका सबसे प्रथम ग्रन्थ है । यद्यपि कविपरम्परासे आगत लेखकके प्रसाद और माधुर्यकी झलक इस ग्रन्थ में पर्याप्त है तो भी स्पष्ट है कि यह कृति सर्वसाधारण के उपदेशके लिए लिखी गई है यद्यपि इसमें पम्पका उपयुक्त शब्द- अर्थ - चयन, रण्णका लालित्य तथा वाणका शब्द अर्थ - माधुर्य नहीं है, तो भी इसका अपना सौष्ठव निराला है । इसमें जातक कथाकी-सी झलक मिलती है । यों तो इस ग्रन्थमें ६३ शलाकापुरुषोंकी कथा निबद्ध की गई है; पर साथ में आचार और दर्शनके सिद्धान्त भी वर्णित है । । चारित्रसार आचारशास्त्रका संक्षेपमें स्पष्टरूपसे वर्णन इस ग्रन्थ में गद्यरूपमें प्रस्तुत किया गया है । इस ग्रंथका प्रकाशन माणिकचन्द्रग्रंथमाला के नवम ग्रन्थके रूपमें हुआ है। आरम्भमें सम्यक्त्व और पंचाणुव्रतोंका वर्णन है । संकल्पपूर्वक नियम करनेको व्रत कहते हैं। इसमें सभी प्रकारके सावधोंका त्याग किया जाता है । व्रतीको निःशल्य कहा है। लिखा है 'अभिसंधिकृतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसा वद्यनिवृत्त्यसंभवादणुव्रतं द्वीद्रियादीनां जंगमप्राणिनां प्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्च निवृतः । अगारीत्याद्यणुव्रतम् ' व्रतोंके अतिचार, रात्रिभोजनत्याग व्रतका कथन भी अणुव्रतकथनप्रसंग में वाया है । द्वितीय प्रकरणमें सप्तशीलोंका कथन आया है । साथ ही उनके अतिचार भी वर्णित हैं। अनर्थदण्डव्रतका कथन करते हुए अपव्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति ये पाँच उसके भेद कहें हैं। जय, पराजय, बन्घ, बध, अगच्छेद, सर्वस्वहरण आदि किस प्रकार हो सके, इसका मनसे चिन्तन करना अपध्यान है | पापोपदेशके क्लेशवाणिज्य, तिर्यगवाणिज्य, बधकोपदेश और आरम्भकोपदेश भेद हैं । क्लेशवाणिज्यका कथन करते हुए लिखा है कि दासीदास आदि जिस देशमें सुलभ हों उनको बहाँसे लाकर अर्थलाभ के हेतु बेंचना क्लेशवाणिज्य है । गाय-भैंस आदि पशुओंको अन्यत्र ले जाकर बेचना तिरंग् २८ : तीर्थंकर महावोर और उसकी आचार्य-परम्परा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणिज्य है। पक्षीमार और शिकारियोंको किसी प्रदेशविशेष में रहने वाले पशुपक्षियों की सूचना देना बधकोपदेश है। अधिक मिट्टी, जल, पवन, वनस्पति आदिके आरम्भका उपदेश देना आरम्भकोपदेश है । अनर्थदण्डव्रतका और भी अधिक विश्लेषण किया है तथा विष, शस्त्र आदिके व्यापारको अनर्थदण्डके अन्तर्गत माना है। इस प्रकार सात शीलोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। गृहस्थके इज्या, वार्त्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप इन छः षट्कर्मोका कथन भी आया है । इज्याका अर्थ अर्हत्पूजा से है। इसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, टाक और इन्द्रध्वज भेद हैं। वार्त्ताम अर्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि आजीविका वृत्तियोंसे है । दत्तिका अर्थ दान है। इसके दयादत्ति, पात्रदन्ति, समदत्ति और सकलदत्ति ये चार भेद हैं। सात शीलोंके पश्चात् मारणान्तिक सल्लेखनाका कथन आया है । तृतीय प्रकरण में षोडशभावनाका निरूपण है। दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलयतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्तिकरण, अहंभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यका परिहाणि मार्ग प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य इन सोलह भावनाओंके स्वरूप हैं। } चतुर्थ प्रकरणमें अनगारधर्मका वर्णन है । आरंभ में दश धर्मोकी व्याख्या की गयी है। अनन्तर तीन गुप्ति और पाँच समितियोंका कथन आया है । संयमी निग्रंथांके पांच भेद बतलाये हैं- पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनके स्वरूप और भेद-प्रभेद भी वर्णित हैं । परीषहजयप्रकरण में २२ परिषहोंका उल्लेख करने के अनन्तर किस गुणस्थानवालेको किन परिषहोंको सहन करना चाहिए, इसका वर्णन आया है । अन्तिम प्रकरण तप-वर्णनका है । इसी संदर्भ में द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन भी आया है। तपका लक्षण बतलाते हुए लिखा है 'रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थं मार्गाविरोधेन तप्यत इतितः । तद्विजिवम्, बाह्यमाभ्यन्तरञ्च । अनशनादिबाह्यद्रव्यापेक्षत्वापरप्रत्ययलक्षणत्वाच्च बाह्यं तत् षविधं अनशनावमोदयं वृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविकशय्यासनकायक्लेशभेदात् । आभ्यन्तरमपि षड्विधं प्रायदिचत्तविनयव्यावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गंध्यानभेदात् । " + 7 } इस संदर्भ में उग्र तपश्चरण से प्राप्त ऋद्धियोंका कथन भी आया है । इस १. चारित्रसार, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृष्ठ ५९ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार चामुण्डरायने चारित्रसारग्रंथमें श्रावक और मुनि दोनोंके आचारका वर्णन किया है। चामुण्डरायका संस्कृत और कन्नड़ गद्यपर अपूर्व अधिकार है । उन्होंने ग्रंथान्तरोंके पद्य भी प्रमाणके लिये उपस्थित किये हैं। अजितसेन अलंकारचिन्तामणिनामक ग्रंथके रचयिता अजितसेननामके आचार्य है। इन्होंने इस ग्रंथके एक संदर्भ में अपने नामका अंकन निम्न प्रकार किया है-- ___'अत्र एकाद्यक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतश्चिन्तामणि" डॉ० ज्योतिप्रसादजीने' अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत तुलुवप्रदेशके निवासी सेनगण पोरारिगच्छके मुनि संभवतया पार्श्वसेमके प्रशिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे। अजितसेनके नामसे श्रृंगारमञ्जरीनामक एक लघुकाय अलंकार-शास्त्रका ग्रंथ भी प्राप्त है । इस ग्रन्थमें तीन परिच्छेद हैं । कुछ भंडारोंकी सूचियोंमें यह ग्रंथ 'रायभूप'को कृत्तिके रूप में उल्लिखित है। किन्तु स्वयं ग्रंथको प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस शृंगारमंजरीकी रचना आचार्य अजितसेनने शीलविभूषणा रानी बिटुलदेवीके पुत्र और 'राय' नामसे विख्यात सोमवंशी जैन नरेश कामरायके पढ़नेके लिए संक्षेपमें की है। एक प्रतिके अन्तमें श्रीमदजितसेनाचार्यविरचिते.......' तथा दूसरोके अन्तमें 'श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजितसेनदेवयतीश्वरविरचितः' लिखा है। निःसन्देह विजयवर्गीने राजा कामरायके निमित्त श्रृंगाराणंवचन्द्रिका ग्रंथ लिखा है। सोमवंशी कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। दक्षिण कन्नड़ जिले तुलप्रदेशके अन्तर्गत बंगवाडिपर इस वंशका राज्य था। १२वीं-१३वीं शतीमें तुलुदेशीय जैन राजवंशोंमें यह वंश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था। इस वंशके एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिंहवंगराज (१९५७१२०८ ई०)के पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने क्रमशः राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यवंगकी बहन रानी बिट्ठलदेवी (१२३९-४४ ई.) राज्यको संचालिका रही । और सन् १२४५में इस रानी बिट्टलाम्बाका पुत्र उक्त कामराय प्रथम वंगनरेन्द्र राजा हुआ। विजयवर्णीने उसे गुणार्णव और राजेन्द्रपूजित लिखा है। १. अलंकारचिन्तामणि, शोलापुर संस्करण, पृ. ४४, पंक्ति ९ । २. बैन संदेश, शोषांक २, नवम्बर २०, १९५४, १० ७९ । ३, जैन ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह, भाग १, वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, पु० ८९-९१ । ३० : तीयंकर महापौर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. ज्योतिप्रसादजीने ऐतहासिक दृष्टिसे अजितसेनके समयपर विचार किया है। उन्होंने अजितसेनको अलंकारशास्त्रका वेत्ता, कवि और चिन्तक विद्वान बतलाया है। इसमें सन्देह नहीं कि अजितसेन सेनसंघके आचार्य थे । शृंगारमजरीके कर्ताने भी अपनेको सेनगण-अग्रणी कहा है । अतः इन दोनों ग्रंथोंके कर्ता एक ही अजित्तसेन प्रतीत होते हैं। स्थितिकाल ___अजितसेनने अलंकारचिन्तामणिमें समन्तभद्र, जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट्ट, अहंदास आदि आचार्योंके ग्रंथोंके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ! रिचन्द्रका समय दशम शती, वाग्भट्टका ११वीं शती और अर्हदासका १३वीं शतीका अन्तिम चरण है । अतएव अजितसेनका समय १३वीं शती होना चाहिये। डॉ. ज्योतिप्रसादजीका कथन है कि अजितसेनने ई० सन् १२४५के लगभग शृंगारमञ्जरीकी रचना की है, जिसका अध्ययन युबकनरेश कामराय प्रथम वंगनरेन्द्रने किया। और उसे अलंकारशास्त्रके अध्ययनमें इतना रस आया कि उसने ई० सन् १२५०के लगभग विजयकीतिके शिष्य विजयवर्णसि शृंगारार्गवचन्द्रिकाकी रचना कराई | आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदिविद्यागुरु अजितसेनको भी इसी विषयपर एक अन्य विशद ग्रंथ लिखनेको प्रेरणा को हो और उन्होंने अलंकारचिन्तामणिके द्वारा शिष्यकी इच्छा पूरी की हो । ____ अहद्दासके मुनिसुव्रतकाव्यका समय लगभग १२४० ई० है और इस काव्य ग्रंथकी रचना महाकवि पं० आशाधरके सागारधर्मामृतके बाद हुई है । आशाधरने सागरधर्मामृतको ई० सन् १२२८में पूर्ण किया है। अतएव अलंकारचिन्तामणिका रचनाकाल ई. १२५०-६०के मध्य है। रचनाएँ __ अजितसेनकी दो रचनाएं 'शृंगारमञ्जरी' और 'अलंकारचिन्तामणि' हैं। अलंकारचिन्तामणि पाँच परिच्छेदों में विभाजित है। प्रथम परिच्छेदमें १०६ श्लोक हैं । इसमें कवि-शिक्षापर प्रकाश डाला गया है । कवि-शिक्षाको दृष्टिसे यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाकाव्यनिर्माताको कितने विषयोंका वर्णन किस रूपमें करना चाहिए, इसको सम्यक विवेचना की गई है। नदी, वन, पर्वत, सरोवर, आखेट, ऋतु आदिके वर्णनमें किन-किन तथ्योंको स्थान देना चाहिए, इसपर प्रकाश डाला गया है। काव्य आरंभ करते समय किन शब्दोंका प्रयोग करना मंगलमय है, इसपर भी विचार किया गया है । यह प्रकरण अलं. कारशास्त्रकी दृष्टि से विशेष उपादेय है। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद शब्दालंकारके चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ये चार मेद बतलाकर चित्रालंकारका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। तृतीय परिच्छेद में वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकका विस्तारसहित निरूपण आया है । चतुर्थ परिच्छेद में उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान् अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोकि, विनोति, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, व्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, मतद्गुण, विरोध विशेष अधिक विभाग, विशेषीवित, असंगति, चिन, अन्योन्य, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदंशना, व्यतिरेकः इश्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अत्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्त प्रतीप, धनुमान, काव्यलिंग अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधि, भाविक, प्रेम, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, उदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, माला, सार, संसृष्टि और संकर इन ७० अर्थालंकारोंका स्वरूप यणित है । · पञ्चम परिच्छेदमें नव रस, घार रीतियों, द्राक्षापाक और शय्यापाक शब्दका स्वरूप, शब्द के भेद - रूड़, यौगिक और मिश्र, वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्यार्थं, जहल्लक्षणा, अजहल्लक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा, कौशिकी, आर्यभटी, सास्वती और भारती वृत्तियाँ, शब्दचित्र, अर्थ-चित्र, व्यंग्यार्थ के परिचायक संयोगादि गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार पूर्वक निरूपित हैं । I वक्रोक्ति अलंकारका कथन दो संदर्भों में आया है तृतीय परिच्छेद और चतुर्थ परिच्छेद । इसमें पुनरुक्तिकी शंका नहीं की जा सकती है, यतः वक्रोक्ति शब्द शक्तिमूलक और अर्थशक्तिमूलक होता है । तृतीय परिच्छेदमें शब्दशक्तिमूलक और चतुर्थ परिच्छेद में अर्थशक्तिमूलक वक्रोक्ति निरूपित है । इस अलंकारग्रंथमें नाटकसम्बन्धी विषय और ध्वनिसम्बन्धी विषयोंको छोड़ शेष सभी अलंकारशास्त्रसम्बन्धी विषयोंका कथन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-लक्षण और लक्ष्यउदाहरण | लक्षणसम्बन्धी सभी पद्य अजित्तसेन के द्वारा विरचित हैं और उदाहरणसम्बन्धी श्लोक महापुराण, जिनशतक, धर्मशर्माभ्युदय और मुनिसुव्रतकाव्य आदि ग्रन्थोंसे लिये हैं। इसकी सूचना भी ग्रन्थकारने निम्नलिखित पद्यमें दी है- ३२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोदाहरणं पूर्वपुरागादिसुभाषितम् । पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपर स्तोत्रमिदं ततः॥५॥ अपने मतकी पुष्टिके लिए 'वाग्भटालंकार'के लक्षण और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं | इनका निरूपण 'उक्तंच' लिखकर किया है। शब्दालंकारोंके वर्णनको दृष्टिसे यह ग्रंथ अद्वितीय है। विषयोंका विशद वर्णन प्रत्येक पाठकको यह अपनी लोर आकृष्ट करता है। विजयवर्णी विजयवर्णीने 'शृंगारार्णवन्द्रिका' नामक ग्रंथको रचना कर अलंकारशास्त्रके विकासमें योगदान दिया है । इनके व्यक्तिगत जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्रन्थप्रशस्ति और पुष्पिकासे यह ज्ञात होता है कि वे मुनीन्द्र विजयकीत्तिके शिष्य थे | एक दिन बातचीतके क्रममें वंगवाडोके कामरायने इनसे कविताके विभिन्न पहलुओंको व्याख्या प्रस्तुत करनेका आग्रहकिया । राजाको प्रार्थनापर इन्होंने 'अलंकारसंग्रह' अपरनाम 'शृंगारार्णवचन्द्रिका'की रचना की। इस रचनामें बिजयवर्णीने विभिन्न विषयोंपर विचार करते हुए अलंकार, अलंकारोंके लक्षण और उदाहरण लिखे हैं। उदाहरणोंमें कामरायको प्रशंसा की गयी है। रचनाको प्रस्तावनामें विजयवर्णीने कर्णाटकके कवियोंकी कविताओंके संदर्भ दिये हैं। इन संदर्भोके अध्ययनसे इस तथ्यपर पहुँचते हैं कि विजयवर्णीने गुणवर्मन आदि कवियोंकी रचनाओंका अध्ययन किया था। वे राजा कामरायके व्यक्तिगत सम्पर्क में थे। ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है "श्रीमद्विजयकोन्दोः सूक्तिसंदोहकौमुदी। मदीचित्तसंतापं हत्वानन्दं दद्यात्परम् ।।१।४॥ श्रीमद्विजयकीाख्यगुरुराजपदाम्बुजम् । मदीयचित्तकासारे स्थेयात् संशुद्धधाजले ।।१५।। गणवर्मादिकर्नाटकवीनां सूक्तिसंचयः । वाणीविलासं देयात्ते रसिकानन्ददायिनम् ॥१७॥" विजयवर्णीने अपनी प्रशस्तिमें आश्रयदाता कामरायका निर्देश किया है। इन्हें स्याद्वादधर्म में चित्त लगानेवाला और सर्वजन-उपकारक बताया है। ई. सन् १९५७में बंगवाडीपर वीर नरसिंह शासन करता था। उसका एक भाई पाण्ड्यराज था । चन्द्रशेखर वोर नरसिंहका पुत्र था और यह १२०८ आचार्यतुल्य एवं काव्यकार लेखक : ३३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई० में सिंहासनासीन हुआ था और उसका छोटा भाई पाण्डधप्प ई० सन् १२२४में राज्यपर अभिषिक्त हुआ था। उनकी बह्न बिठुलदेवी ई० सन् १२३२ में राज्यप्रतिनिधि नियुक्त की गयीं 1 बिटुलदेवीका पुत्र ही कामराय था, जो ई० सन् १२६४में राज्यासन हुआ। इतिहास बतलाता है कि सोमवंशो कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध थी और इस वंशका शासन दक्षिण कन्नड जिलेके अन्तर्गत वंगवाडीपर विद्यमान था । वीर नरसिंह वंगराजने ई० सन् ११५७से ई० सन् १२०८ तक शासन किया। इसके पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने ई० सन् १२३९ तक राज्य किया । पाण्ड्यवंगकी बहन रानी बिटूलदेवी ई० सन् १२३९से ई० सन १२४४ तक राज्यासीन रहीं। तत्पश्चात् रानी बिट्ठलदेवी अथवा बिटुलाम्बाका पुत्र कामराय दंगनरेन्द्र हा । 'विजयवर्णी'ने उसे गुणार्णव और 'राजेन्द्रपूजिस' लिखा है। प्रशस्तिमें बताया है "स्याद्वादधर्मपरमामृतदसचित्तः सर्वोपकारिजिननायपदाअभृङ्गः । कादम्बवंशजलराशिसुधामयूखः __ श्रीरायवंगनृपतिर्जगतीह जीयात् ।। कोतिस्ते विमला सदा वरगुणा वाणी जयश्रीपरा लक्ष्मीः सर्वहिता सुखं सुरसुखं दानं विधानं महत् । ज्ञानं पीनमिदं पराक्रमगुणस्तुङ्गो नयः कोमलो रूप कान्ततरं जयन्तनिभ भो श्रीरायभूमीश्वर ॥''' कामरायको वर्णीने पाण्ड्यवंगका भागिनेय बताया है 'तस्य श्रीपाण्ड्यवङ्गस्य भागिनेयो गुणार्णवः । विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्रो राजेन्द्रपूजितः ।।२ विजयवर्गीके समयका निश्चय करनेके लिए 'शृंगारार्णवचन्द्रिका'का प्रतापरुद्रयशोभूषण, शृंगारार्णव और अमृतनन्दिके अलंकारसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि 'शृंगारार्णवचन्द्रिका' विषय और प्रतिपादनशैलीकी दृष्टिसे 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' और 'अलंकारसंग्रह से बहुत प्रभावित है । अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथोंको शृंगारार्णवन्द्रिकाने प्रभावित किया हो । डॉ० पी० बी० काणेने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण'का १. श्रृंगारार्णवचन्द्रिका, दशम परिच्छेद, पद्यसंख्या १९५ एवं १९७ । २. वहीं, प्रथम परिच्छेद, पद्यसंख्या १६ । ३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकाल १४वीं शती माना है और श्रीबालकृष्णमूत्तिने अमृतानन्दिका १३वीं शती निर्धारित किया है । पर सी० कुन्हनराजा अमृतानन्द योगोका समय १४वी शसीका प्रथम अद्धीश मानते हैं। इस प्रकार 'शृंगारार्णवचन्द्रिकाका रचनाकाल १३वीं शती माना जा सकता है। बंगरायकी जैसी प्रशंशा कविने की है उससे भी यही ध्वनित होता है कि विजयवर्णी वंगनरेश कामरायका समकालीन है । कामरायके आश्रयमें रहकर उनकी प्रार्थनासे ही शृंगारार्णवचन्द्रिकाका प्रणयन किया गया है। विजयवर्गीको शृंगाराणवचन्द्रिका नामक एक ही रचना प्राप्त होती है। विजयवर्णीने पूर्वशास्त्रोंका आश्रय ग्रहण कर हो इस अलंकारग्रन्थको लिखा है। उन्होंने व्याख्यात्मक एवं परिचयात्मक पद्यपंक्तियां मौलिकरूपमें लिखी हैं | विषयके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविने परम्परासे प्राप्त अलंकारसम्बन्धी विषयोंको ग्रहण कर इस शास्त्रकी रचना की है। कविकी काव्यप्रतिभा सामान्य प्रतीत होती है। वह स्थान-स्थानपर यतिभंग दोष करता चला गया है । यद्यपि विषयवस्तुकी अपेक्षा यह ग्रंथ साहित्यदर्पणादि प्रन्थों की अपेक्षा सरल और सरस है तो भी पूर्व कवियोंका ऋण इसपर स्पष्टतः झलाता श्रृंगारार्णवचन्द्रिका दश परिच्छेदोंमें विभक्त है १. वर्णगणफलनिर्णय, २. काव्यगतशब्दार्थनिर्णय, ३. रसभावनिर्णय४. नायकभेदनिर्णय, ५. दसगुणनिर्णय, ६. रीतिनिर्णय, ७, वृत्तिनिर्णय, ८. शय्याभागनिर्णय, ९. अलंकारनिर्णय और १०. दोषगुणनिर्णय । प्रथम परिच्छेदमें मंगलपद्यके पश्चात् कदम्बवंशका सामान्य परिचय दिया गया है और बताया गया है कि कामरायको प्रार्थनासे विजयवर्णीने अलंकारशास्त्रका निरूपण किया। काव्यको परिभाषाके पश्चात् पद्य, गद्य और मिश्र ये तीनों काव्यके भेद वर्णित हैं। इस अध्यायका नाम वर्णगणफलनिर्णय है। अतः नामानुसार वर्ण और गणका फल बतलाया गया है। किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर सुखप्रद होता है और किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर दुःखप्रद होता है, इसका कथन आया है । लिखा है अकारादिक्षकारान्ता वर्णास्तेषु शुभावहाः। केचित् केचिदनिष्टाख्यं वितरन्ति फलं नृणाम् ।। ददात्यवर्णः संप्रीतिमिवों मुदमुद्वहेत् । कुर्यादुवर्णो द्रविणं ततः स्वरचतुष्टयम् ।। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपख्यातिफलं दद्यादेचः सुखफलावहाः । त्रबिन्दुविसर्गास्तु पक्षादी संभवन्ति नो॥ कखगधाश्च लक्ष्मी ते वितरन्ति फलोत्तमाम् । दत्ते चकारोऽपख्याति छकारः प्रीतिसौख्यदः ।। मित्रलामं अकारोऽयं विधत्ते भीभूतिद्वयम् । सः करोति टठौ खेददुःखे वे कुरतः क्रमात् ।। पात् जारी कर सभी वर्ण शुभप्रद है; पर बीच-बीच में कुछ वर्ण अनिष्टफलप्रद भी बसाये गये हैं। अवर्णसे काव्यारम्भ करनेपर प्रोसि यवर्णसे काव्य आरम्भ करनेपर बानन्द और उवर्णसे काव्यारम्भ करने पर धनकी प्राप्ति होती है। ऐच, ए, ऐ, ओ, मो वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर सुख फल प्राप्त होता है और ऋल ऋल वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर अपकीर्ति होती है | छ, त्र, · और : पदादिमें नहीं रहते हैं। क ख ग घ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। चकारसे काव्यारम्भ करनेपर अपकीति, छकारसे काव्यारम्भ करनेपर प्रीति-सौख्य, जकारसे काव्यारम्भ करनेपर मित्रलाभ, झकारसे काव्यारम्भ करनेपर भय और टकार-उकारसे काव्यारम्भ करनेपर खेद और दुःख प्राप्त होते हैं। डकारसे काव्यारम्भ करनेपर शोभाकर, ढकारसे काव्यारम्भ करनेपर अशोभाकर णकारसे काव्यारम्भ करनेपर भ्रमण और तकारसे काव्यारम्भ करनेपर सुख होता है । इस प्रकार वर्ण और गणोंका फल बताया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें काव्यगत शब्दार्थका निश्चय किया है । इसमें ४२ पद्य हैं। मुख्य और गौण अर्थोके प्रतिपादनके पश्चात् शब्दके भेद बतलाये गये हैं । तृतीय परिच्छेदमें रसभावका निश्चय किया गया है। बारम्भमें ही बताया है कि निर्दोष वर्ण और गणसे युक्त रहनेपर भी निर्मलार्थ तथा शब्दसहित काव्य नीरस होनेपर उसी प्रकार रुचिकर नहीं होता जिस प्रकार बिना लवणका व्यञ्जन | पश्चात् विजयवर्णीने स्थायीभावका स्वरूप, भेद एवं रसोंका निरूपण किया है। लिखा है 'निरवद्यवर्णगणयुतमपि काव्यं निर्मलार्थ शब्दयुतम् । निर्लवणशाकमिव तन्न रोचते नीरसं सतां मानसे ॥३शशा' सात्त्विकभायका विश्लेषण भी उदाहरण सहित किया गया है। रसोंके सोदाहरणस्वरूप निरूपणके पश्चात् रसोंके विरोधी रसोंका भी कथन किया है। चतुर्थ परिच्छेद नायकभेदनिश्चयका है। नायकमें जनानुराग, प्रियंवद, __३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्मित्व, शौच, विनय, स्मृति, कुलीनता, स्थिरता, दृढ़ता, माधुर्य, शौर्य, नवयौवन, उत्साह, दक्षता, बुद्धि, त्याग, तेज, कला, धर्मशास्त्रशता और प्रज्ञा ये नायकके गुण माने गये हैं। नायकके चार भेद हैं-धीरोदात्त, धीरललित, धीरशान्त और धीरोद्धत। क्षमा, सामर्थ्य , गांभीर्य, दया, आत्मश्लाघाशन्य आदि गुण धीरोदात्त नायकके माने गये हैं। इस प्रकार नायक, प्रतिनायक आदिके स्वरूप, भेद और उदाहरण वर्णित हैं। पांचवें परिच्छेदमें दस गुणोंका कथन आया है । षष्ठ परिच्छेदमें रीतिका स्वरूप और भेद, सप्तममें वृत्तिका भेद और स्वरूप बताया गया है । केशिको, आर्यभटी, भारती और सात्वती इन पारदत्तियांका उदाहरणसहित निरूपण आया है। अष्टम परिच्छेदमें शय्यापाक और द्राक्षापाकके लक्षण आये है। नवम परिच्छेदमें अलंकारोंका निर्णय किया गया है । उपमाके विपर्यासोपमा, मोहोपमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, सन्तानोपमा, निन्दोपमा, आचिख्यासोपमा, विरोधोपमा, प्रतिशेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असंभाषितोपमा, बहूपमा, विकियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा, हेतूपमा, आदि उपमाके भेदोंका सोदाहरण स्व. रूप बतलाया है । रूपक अलंकारके प्रसंगमें समस्तरूपक, व्यस्तरूपक, समस्तव्यस्तरूपक, सकलरूपक, अवयवरूपक, अयुक्तरूपक, विषमरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, क्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक, अपहृतिरूपक आदि भेदोंका विवेचन किया है । वृत्तिअलंकारके अन्तर्गत उसके भेद-भेद भी वर्णित हैं । दीपक, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, आक्षेप, उदात्त, प्रेय, ऊर्जस्व, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, श्लेष, निदर्शना, व्याअस्तुत्ति, आशीः, अक्सरसार, भ्रान्तिमान, संशय, एकावलो, परिकर, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर, संकर, आदि अलंकारोंके मेद-अभेदों सहित लक्षण व उदाहरणोंका विवेचन किया है। दशम परिच्छेदमें दोष और गुणोंका विवेचन किया है। यह परिच्छेद कान्यके दोष और गुणोंको अवगत करनेके लिए विशेष उपयोगी है । इस प्रकार इस ग्रंथमें अलंकारशास्त्रका निरूपण विस्तारपूर्वक किया गया है। आचार्य विजयवर्षीने सरस शैलीमें अलंकार-विषयका समावेश किया है। अभिनव वाग्भट्ट अलंकारशास्त्रके रचयिताओंमें वाग्भट्टका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, चम्पू आदि विधाओंके मर्म विद्वान थे। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके पिताका नाम नेमिकुमार था। तेमिकुमारने राहडपुरमें भगवान नेमिनाथका और नलोटपुरमें २२ देवकुलकाओं सहित बादिनाथका विशाल मंदिर निर्मित किया था । काव्यानुशासनमें लिखा है नाभेयचैत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां । द्वाविंशतिविदधता जिनमन्दिराणि । मन्ये निजाग्रवरप्रभुराह्डस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशांकः ।। - काव्यानुशासन पू० ३४ नेमकुमार के पिताका नाम मक्कलप और माताका नाम महादेवी था । इनके राहड और नेमिकुनार दो पुष में, जिनमें नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमिकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहड़के परम भक्त थे और उन्हें श्रद्धा और प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे । कवि वाग्भट्ट भक्ति रसके अद्वितीय प्रेमी थे। उन्होंने अपने अराध्य के चरणोंमें निवेदन करते हुए बताया है कि मैं न मुक्तिकी कामना करता हूं और न धनवैभवकी । मैं तो निरन्तर प्रभुके चरणोंका अनुराग चाहता हूँ 1 नो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवेः कार्यं न सांसारिकैः, कित्वायोज्य करौ पुनरिदं त्वामीशमभ्यचंये । स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मंदिरे, कान्तारे निशि वासरे च सततं भक्तिमंमास्तु त्वमि । अर्थात् हे नाथ में सुतिपुरीकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योंको पूतिके लिए वन-सम्पत्तिकी ही आकांक्षा करता है; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़ मेरी यही प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरण में स्थितिमें, चलनेमें, सुख-दुःख में, मन्दिर में, वन, पर्वत आदिमें, रात्रि और दिनमें आपकी ही भक्ति प्राप्त होती रहे । मैं आपके चरणकमलोंका सदा भ्रमर बना रहूँ । P I कवि वाग्भट्ट ने अपने ग्रंथों में अपने सम्प्रदायका उल्लेख नहीं किया है, पर काव्यानुशासनकी वृत्तिके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी होना सूचित होता है। उन्होंने समन्तभद्र के बृहत्स्वयं भूस्तोत्रके द्वित्तीय पद्यको "प्रजापतियः प्रथमं जिजीविषुः " आदि " आगमासवचनं यथा" वाक्यके साथ उद्धृत किया है । इसी प्रकार पृष्ठ ५पर यह ६५व पद्य भी उद्धत है--- नयास्तवस्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोहषातयः । भवन्त्यभि प्रेतगुणा यसस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।। इसी प्रकार पृष्ठ १५पर आचार्य वीरनन्दीके मंगल-पचको उद्धृत किया है । पृष्ठ १६५ र नेमिनिर्वाण काव्यका निम्नलिखित पद्य उद्धृत है ३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणप्रतीतिः सुजनाज्जनस्य दोषेष्ववडा खलबल्पितेषु । अतो ध्र वं नेह मम प्रबन्धे प्रभूतदोषेऽप्ययशोवकाशः ।।१२७ इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर सम्प्रदायके कवि हैं। इस ग्रन्थमें 'चन्द्रप्रभ' और 'नेमिनिर्वाण के अतिरिक्त धनञ्जयको नाममाला और राजोमतिपरित्यागके भी उद्धरण मिलते हैं । स्थितिकाल काव्यानुशासन और छन्दोनुशासनके रचयिता वाग्भट्टका समय आशाघरके पश्चात् होना चाहिए | कविने नेमिनिर्वाणके साथ राजीसिपरित्याग या राजोमतिविप्रलंभके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । काव्यानुशासनमें आये हुए निम्नलिखित उद्धरणसे भी वाग्भटके समयपर प्रकाश पड़ता है "इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योजप्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तरथा-माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, औजसि श्लेषः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽयंव्यक्तिः समता चान्तभवति।" इस अवतरणमें दण्डी, वामन और वाग्भट्टको मान्यताओंका कथन आया है। वाग्भट्टने वाग्भटालंकारको रचना जयसिंहके राज्यकालमें अर्थात् वि० सं० की १२वीं शताब्दिमें की है। अत्तएक काव्यानुशासनके रचयिता वाग्भट्टका समय १२वीं शताब्दिके पश्चात् होना चाहिए। आशाधरके 'राजीमतिविप्रलंभ' या 'राजीमतिपरित्याग' काव्यके उद्धरण आनेसे इन वाग्भट्टका समय आशाघरके पश्चात् अर्थात् वि० की १४वीं शतीका मध्यभाग होना चाहिए । रचनाएं __ वाग्भट्ट केवल अलंकार या छन्द शास्त्रके हो शाता नहीं हैं, अपितु उनके द्वारा प्रबन्धकाव्य, नाटक और महाकाव्य भी लिखे गये हैं | काव्यानुशासनकी वृत्तिमें लिखा है_ "विनिर्मितानेकनव्यनाटकच्छन्दोऽलंकारमहाकाव्यप्रमुखमहाप्रबन्धबन्धुरोऽपारतारशास्त्रसागरसमुत्तरणतीर्थायमानशेमुषो "महाकविश्रीवाग्भटो।" इस अवतरणसे स्पष्ट है कि वाग्भट्टने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; पर अभी तक उनके दो ही अन्य उपलब्ध है-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । छन्दोनुशासनको पाण्डुलिपि पाटणके श्वेताम्बरीय ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है। १. काव्यानुशासन २।३१ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी ताड़पत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० हैं। इसपर स्वोपज्ञवृत्ति भी । पायी जाती है । मंगलपद्यमें कविने बताया है वि, नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः ।। यह छन्दग्रन्थ पांच अध्यायोंमें विभक्त है-१. संज्ञा, २. समवृत्ताख्य, ३. अर्द्धसमवृत्तास्य, ४. मात्रासमक और ५. मात्राछन्दक । काव्यानुशासनके समान इस ग्रंथमें दिये गये उदाहरणोंमें राहड और नेमिकुमारकी कोतिका खुला गान किया गया है । छन्दशास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रन्य उपयोगी मालूम पड़ता है। काव्यानुशासन यह रचना निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे छप चुकी है। रस, अलंकार, गुण, छन्द और दोष आदिका कथन आया है । उदाहरणोंमें कविने बहुत ही सुन्दरसुन्दर पद्योंको प्रस्तुत किया है। यथा कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तब वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये हुं हुं तहि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां । मोहोऽनेन विनिजितः प्रभुरसौ तकिङ्कराः के बयं इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः ॥ अर्थात् एक समय कामदेव और रति जंगलमें विहार कर रहे थे कि अचानक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर चड़ी। जिनेन्द्रके सुभग शरीरको देखकर उनमें जो मनोरंजक संवाद हुआ उसीका अंकन उपर्युक्त पद्य में किया गया है । जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ, यह कौन है ? कामदेव उत्तर देता है. यह जिन हैं-रागद्वेष आदि कर्मशत्रुओंको जीतने वाले । पुन: रति पूछती है कि ये तुम्हारे वशमें हुए हैं ? कामदेव उत्तर देता है-प्रिये वे मेरे वशमें नहीं हुए, क्योंकि प्रतापी हैं। पुन: रति कहती है कि यदि तुम्हारे वशमें ये नहीं हैं तब तुम्हारा लोक-विजयी होनेका अभिमान व्यर्थ है। कामदेव रतिसे पुनः कहता है कि इन जिनेन्द्रने हमारे प्रभु मोहराजको जीत लिया है। अतएव जिनेन्द्रको वश करनेकी मेरी शक्ति नहीं। इसी प्रकार कारणमालालंकारके उदाहरणमें दिया गया पध भी बहुत सुन्दर है४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितेन्द्रियत्वं बिनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते । . गुणप्रकर्षेण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः । इस प्रकार यह काव्यानुशासन काव्यशास्त्रको शिक्षा देता है। इसमें अलकारोंके साथ गुणदोष और रीतियोंका भी कथन आया है। 'अष्टांगहृदय के कर्ता वाग्भट्ट जैनेतर मालूम पड़ते हैं । महाकवि आशाधर आशाधरका अध्ययन बड़ा ही विशाल था । वे जनाचार, अध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयोंके प्रकाण्ड पण्डित थे । दिगम्बर परम्परामें उन जैसा बहुश्रुत गृहस्थ-विद्वान् ग्रन्थकार दूसरा दिखलाई नहीं पड़ता । आशाघर माण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूलनिवासी थे। किन्तु मेवाड़ पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणोंके होनेसे अस्त होकर मालवाकी राजधानी धारा नगरी में अपने परिवार सहित आकर बस गये थे। पं० आशाघर बघेरवाल जातिके श्रावक थे। इनके पिताका नाम सल्लक्षण एवं माताका नाम श्रीरत्नी था । सरस्वती इनकी पत्नी थीं, जो बहुत सुशील और सुशिक्षिता थीं। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। सागारधर्मामृत्तके अन्त में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है व्याघ्नेरवालवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः 1 सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षु राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।। आशाधरजीने अपने सुयोग्य पुत्रको स्वयं प्रशंसा की है । कहा जाता है कि उनके पिता अपनी योग्यताके कारण मालवानरेश अर्जुन वर्मदेवके सन्धिविग्रह मन्त्री थे। आशाधरजीने धार नगरीमें व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पं० महावीर थे। विन्ध्यवर्माका राज्य समाप्त होनेपर आशाधर नालछा-नलकच्छपुरमें रहने लगे थे। उस समय नलकच्छपुरके राजा अर्जुन वर्मदेव थे। उनके राज्यमें इन्होंने अपने जीवनके ३५ वर्ष व्यतीत किये और वहाँके अत्यन्त सुन्दर नेमिचैत्यालयमें ये जैन साहित्यको उपासना करते रहे। लाचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशाधरके पाण्डित्यकी प्रशंसा उस समयके सभी भट्टारक विद्वानोंने की है | उदयसेनने आपको "नयविश्वचक्षु' तथा 'कलि-कालिदास' कहा है । मदनकोत्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुञ्ज" कहकर आशाधरकी प्रशंसा की है। स्वयं गृहस्थ रहनेपर भी बड़े-बड़े मुनि और भट्टारकोंने इनका शिष्यत्व स्वीकार किया है । जैन के अतिरिक्त अन्य मतवाले विद्वान् भी आपको विद्वत्तापर मुग्ध थे | मालवानरेश अजुनदेव स्वयं विद्वान और कवि थे। अमरुकशतककी रससञ्जीवनी नामकी एक संस्कृतटीका काव्यमाला में प्रकाशित हुई है । इस टीकामें 'यदुक्तमुपाध्यायेन बालसरस्वत्यपरनाम्ना मदतेन' इस प्रकार लिखकर मदनोपाध्यायके श्लोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत किये हैं और भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकाको प्रशस्तिके नवम श्लोकके अन्तिम पादकी टीकामें पं० आशावरने 'आपु': प्राप्ताः बालसरस्वति महाकविमदनादय:' लिखा है । इससे स्पष्ट है कि अमरुकशतक में उद्धृत उदाहरणस्वरूप श्लोक आशाघरके शिष्य महाकवि मदनके हैं । इसके अतिरिक्त प्राचीन लेखमालामें अर्जुन वर्मदेवका तीसरा दानपत्र प्रकाशित हुआ, जिसके अन्त में 'रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन' लिखा है | अतः यह स्पष्ट है कि आशाधर के शिष्य मदनोपाध्याय, जिनका दूसरा नाम बालसरस्वती था, मालवाघीश महाराज अर्जुनदेवके गुरु थे। अमरुकशतककी टीकामें आये हुए पद्योंसे यह भी ज्ञात होता है कि मदनोपाध्याय का कोई अलंकारग्रन्थ भी था, जो अभी तक अप्राप्त है । - मदनकीत्तिके सिवा आशाधरके अनेक मुनि शिष्य थे । व्याकरण, काव्य न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयोंमें उनकी असाधारण गति थी। बताया हैयो द्राग्व्याकरणाधिपारमनयच्छुश्रूषमाणान कानू षट्तकपरमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्ययिनः केऽक्षिपन् । चेयः केऽस्खलितं न येन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः पीत्या काव्यसुषां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठां न के ॥ ९ ॥ अर्थात् शुश्रूषा करनेवाले शिष्योंमेंसे ऐसे कौन हैं, जिन्हें आशाधरने व्याकरणरूपी समुद्रके पार शीघ्र ही न पहुँचा दिया हो तथा ऐसे कौन हैं, जिन्होंने आशाधरके षट्दर्शनरूपी परमशस्त्रको लेकर अपने प्रतिवादियोंके न जीता हो, तथा ऐसे कौन हैं जो आशाधरसे निर्मल जिनवाणीरूपी दीपक ग्रहण करके १ इत्युदयसेन मुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । प्रनापुष्जोसीति च योऽभिहितो मदनकी नियतिपतिना ॥ ४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गमें प्रवृद्ध न हुए हों और ऐसे कौन शिष्य हैं जिन्होंने आशापरसे काव्यामृतका पान करके रसिकपुरुषों में प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो ? ___ आशाधरने अपने अन्य दो शिष्योंके नाम भी दिये हैं-वादीन्द्र विशालकीति और भट्टारक देवचन्द्र 1 विशालकीत्तिको षड्दर्शनन्यायको शिक्षा दी थी और देवचन्द्रको धर्मशास्त्रको । मदनोपाध्यायको काव्यका पण्डित बनाकर अर्जुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाका राजगुरु बनाया था। इससे स्पष्ट है कि आशाधर महान विद्वान् थे और इनके अनेक शिष्य थे। धारा नगरीसे दस कोसको दूरीपर नलकच्छपुर स्थित था। यहां आकर आशाधरने सरस्वतीको साधना विशेषरूपसे की। आशाधरका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे अनेक विषयोंके विद्वान होनेके साथ असाधारण कवि थे। उन्होंने अष्टांगहृदय जैसे महत्त्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रन्थपर टीका लिखी। काव्यालंकार और अमरकोशको टीकाएँ भी उनकी विद्वत्ताको परिचायक हैं । आशाधर श्रद्धालु भक्त थे । उनके अनेक मित्र और प्रशंसक थे। उनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज था, जिससे मुनि और भट्टारक भी उनका शिष्यत्व स्वीकार करने में गौरवका अनुभव करते थे। उनकी लोकप्रियताको सूचना उनकी उपाधियाँ ही दे रही हैं। स्थितिकाल ___ महाकवि आशाघरने अपने ग्रन्थों में रचना-तिथिका उल्लेख किया है। उन्होंने अनगारधर्मामृतको भव्यकुमुदचन्द्रिका टोका कात्तिक शुक्ला पंचमी सोमवार वि० सं० १३०० को पूर्ण की थी। इस समय इनको आयु ६५-७० वर्षकी रही होगी। इस प्रकार उनका जन्म वि० सं० १२३०-३५ के लगभग आता है । पं. आशाधरके तीन ग्रन्थ मुख्य हैं और सर्वत्र पाये जाते हैं। जिनयज्ञकल्प, सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृत | जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें कई ग्रन्थों के नाम आये हैं स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः । तर्कप्रबन्धो निरवद्यपद्यपीयूषपूरो वतिस्म यस्मात् ॥१०॥ सिद्धथई भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलम् यस्त्र विद्यकवीन्द्रमोदनसहं स्वश्रेयसेऽरीरचत् । योऽहंद्वाक्यरसं निवन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम् विर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रं हृदि ॥११॥ आयुर्वेदविदामिष्टा व्यक्तुं वाग्भटसंहिताम् । अष्टामहृदयोद्योतं निबन्धमसृजञ्च यः ॥१२॥ आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक ४३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकरनामका न्यायग्रन्थ, जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, आशाधरके हृदय-सरोवरसे प्रवाहित हुआ । भरतेश्वराभ्युदयनामक उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सके अन्त में 'सिद्ध' शब्द आया है, जो तीनों विद्याओंके जानकार कवीन्द्रोंको आनन्द देनेवाला है और स्वोपज्ञटीकासे प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त 'धर्मामृत' शास्त्र, वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृद्रयोद्योतिनी टीका रची । मूलाराघना और इष्टोपदेशपर भी टीकाएँ लिखीं। अमरकोशपर क्रियाकलापनामक टीका बनायी। आराधनासार और भूपालचतुर्विंशतिका आदि की टोकाएँ भी लिखीं। वि० सं० १२८५ के पूर्व रचे हुए ग्रन्थों की तालिका जिनयज्ञकल्पको प्रशस्तिमें पाई जाती है। इसके पश्चात् वि० सं० १२८६ से १२९६ तकके मध्य में रचे गये ग्रन्थोंका उल्लेख सागारधर्मामृतकी टीकामें पाया जाता है । १२९६ के अनन्तर जो ग्रन्थ रचे, उनका निर्देश अनागरधर्मामृतटीकामें पाया जाता है। इस टीका में राजीमतिविप्रलंभनामक खण्डकाव्य, अध्यात्म रहस्य और रत्नत्रयविधान इन तीन प्रत्योंका निर्देश मिलता है । आशाधर के समय की पुष्टि अर्जुनवर्मदेव के दानपत्रोंसे भी होती है । अर्जुनचर्मदेव के तीन दानमात्र प्राप्त हुए हैं - १. वि० सं० १२६७ का २. वि० सं० १२७० का, ३. वि० सं० १२७२ का। इसके पश्चात् अर्जुनदेव के पुत्र 'देवपालदेवके राज्यत्वकालका एक अभिलेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का है। इससे ज्ञात होता है कि १२७२ और १२७५ के बीचमें अर्जुनदेव के राज्यका अन्त हो चुका था । अजुनदेवके राज्यका प्रारम्भ वि० सं० १२६७ के कुछ पहले हुआ है । वि० सं० १२५० में जब आशाधर धारामें आये थे तब विन्ध्यवर्माका राज्य था, क्योंकि विन्ध्यवर्मा मन्त्री विद्यापति बिल्हणने आशाचरकी विद्वत्ताकी प्रशंसा की है। यदि आशाधरके विद्याभ्यासकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७-५८ तक रहता है । विन्ध्यदर्माके पश्चात् सुभटवर्माका राज्यकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो अर्जुनदेवके राज्यकालका समय वि० सं० १२६५ आता है। इसी समयके आशाधर नलकच्छमें आये होंगे ! लगभग पिप्पलियाके अर्जुनदेवके दानपत्रमें उनकी कुलपरम्परा निम्न प्रकार आई है " १. बंगाल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल, जिल्द ५ पृ० ३७८ तथा भाग ७, पृ० २५ गौर ३२ । ४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोज-उदयादित्य-नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा या विजयवर्मा, सुभटवर्मा और अर्जुनवर्मा । अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल और देवपालके पश्चात् उसका पुत्र जयतुंगिदेव (जयसिंह) राजा हुआ । ____ आशाधर जिस समय धारामें आये उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामृतको टीका लिखो तब जयतुंगिदेव राजा थे । इस प्रकार आशाधर धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। विन्ध्यवर्माके मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर लिखा "आशाधरत्वं मयि विद्धि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजर्यमार्य । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥" इस प्रकार आशाधरका समय वि० को तेरहवीं शती निश्चित है। रचनाएं आशापरने विपुस मस्जिदों शाहिलाका सृार किया है। मेरी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे। अबतक उनकी निम्नलिखित रचनाओंके उल्लेख मिले हैं--- १. प्रमेयरलाकर, २. भरतेश्वराभ्युदय, ३. ज्ञानदीपिका, ४. राजीमतिविप्रलंभ, ५. अध्यात्मरहस्य, ६. मूलाराधनाटीका, ७. इष्टोपदेशटीका, ८. भूपालचतुर्विशतिकाटीका, ९. आराधनासारटीका, १०. अमरकीसटीका, ११. क्रिया-- कलाप, १२. काव्यालंकारटीका, १३. सहस्रनानस्तवन सटीक, १४. जिनयन कल्प सटीक, १५. विषष्टिस्मृतिशास्त्र, १६ नित्यमहोद्योत, १७, रत्नत्रयविधान, १८. अष्टांगहृद्योतिनीटीका, १९. सागारधर्मामृत सटीक और २०. अनगारधर्मामृत सटीक। अध्यात्मरहस्य पं० आशापुरजीने अपने पिताके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र प्रसन्न, गम्भीर और आरब्ध योगियोंके लिये प्रिय बस्तु है। योगसे सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरा नाम योगोद्दीपन भी है। कविने लिखा है "आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्यं नाम यो व्यधात् । शास्त्रं प्रसन्न गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥" अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इत्याशाधर- विरचित-धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनो नामाष्टा दशोऽध्यायः ।' दृष्टि हम ग्रन्थ ७२ प हैं और स्वात्मा, सुखात्मा श्रुतिमति, ध्याति, और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है । पश्चात् रत्नत्रयादि दूसरे विषयों का विवेचन किया है। वस्तुतः इस अध्यात्मरहस्यमें गुण-दोष, विचारस्मरण आदिकी शक्ति से सम्पन्न भावमन और द्रव्यमनका बड़ा ही विशद विवेचन किया है । यह योगाभ्यासियों और अध्यात्मप्रेमियोंके लिये उपयोगी है । धर्मामृत आशाधरने धर्मामृत ग्रन्थ लिखा है, जिसके दो खण्ड हैं- अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत | अनगारधर्मामृत में मुनिधर्मका वर्णन आया है तथा मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुणों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। आशाघर विषयवस्तुके लिये मूलाचार के ऋणी हैं । सागारधर्मामृत में गृहस्थधर्मका निरूपण आठ अध्यायोंमें किया है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मके ग्रहणकी पात्रता बतलाकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत तथा सल्लेखनाके आचरणको सम्पूर्ण सागरघमं बतलाया है । उक्त १२ प्रकारके धर्मको पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे, नैष्ठिक आचरणरूपसे और साधक आत्मलीन होकर पालन करता है । आठ मूलगुणों का धारण, सप्त व्यसनोंका त्याग, देवपूजा, गुरूपासना और पात्रदान आदि क्रियाओंका आचरण करना पाक्षिक आधार है । घर्मका मूल अहिंसा और पापका मूल हिंसा है। अहिंसाका पालन करनेके लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्यका त्याग अपेक्षित है । रात्रिभोजनत्याग भी अहिंसा अन्तर्गत है । गृह-विरत श्रावक आरम्भिक हिंसाका पूर्ण त्याग करता है और गृह-रस श्रावक, संकल्पी हिंसाका सत्याणुव्रत, अचीर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाव्रतका धारण करना भी आवश्यक है। श्रावक गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन करता हुआ अपनी दिनचर्याको भी परिमार्जित करता है । वह एकादश प्रतिमाओं का पालन करता हुआ अंतमें सल्लेखना द्वारा प्राणोंका विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार धर्मामृतमें श्रमण और श्रावक दोनोंको चर्याओंका वर्णन किया है । जिनयज्ञकल्प प्रतिष्ठा विधिका सम्यक् प्रतिपादन करनेके लिये बाशावरने छ: अध्यायोंमें जिनयज्ञकल्पविधिको समाप्त किया है। प्रथम अध्यायमें मन्दिरके योग्य भूमि, ४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति निर्माण के लिये शुभ पाषाण, प्रतिष्ठायोग्य मूर्ति, प्रतिष्ठाचार्य, दीक्षागुरु यजमान, मण्डप विधि, जलयात्रा, यागमण्डल- उद्धार आदि विषयोंका वर्णन है । द्वितीय अध्यागमें तीर्थजल लानेको विधि, पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अन्य देवपूजा, जिनयज्ञादिविधि, सकलीकरणक्रिया, यज्ञदोक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठाविधि और वेदी प्रतिष्ठा विधि बर्णित है । तृतीय अध्यायमें यागमण्डलको पूजाविधि और यागमण्डल में पूज्य देवोंका कथन किया है । चतुर्थ अध्याय में प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप अहंन्तप्रतिमा की प्रतिष्ठाविधि, गर्भकल्याणक की क्रियाओंके अनन्तर जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, नेत्रीन्मीलन, केवलज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणककी विधियोंका वर्णन आया है । पञ्चम अध्याय में अभिषेक-विधि, विसर्जन विधि, जिनालय - प्रदक्षिणा पुण्याहवाचन, ध्वजारोहण विधि एवं प्रतिष्ठाफलका कथन आया है । षष्ठ अध्याय में सिद्ध प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि बृहदसिद्धचक और लघुसिद्धचक्रका उद्धार, आचार्य प्रतिष्ठा विधि, श्रुतदेवता प्रतिष्ठा विधि एवं यक्षादिकी प्रतिष्ठा विधिका वर्णन है । षष्ठ अध्यायके अन्त में ग्रन्थकर्ताको प्रशस्ति अंकित है । परिशिष्ट में श्रुतपूजा, गुरुपूजा आदि संगृहोत हैं । त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र 1 P P 2 इस ग्रन्थमें ६३ शलाका-पुरुषों का संक्षिप्त जीवन-परिचय आया है । ४० पद्यों में तीर्थंकर ऋषभदेवका ७ पद्यों में अजितनाथका ३ पद्योंमें संभवनाथका ३ पद्यों में अभिनन्दनका, ३ में सुमतिनाथका, ३ में पद्मप्रभका, ३ में सुपाद जिनका १० में चन्द्रप्रभका, ३ में पुष्पदन्तका, ४ में शीतलनाथका, १० में श्रेयांस तीर्थंकरका, ९ में वासपूज्यका १६ में विमलनाथका १० में अनन्तनाथका १७ में बर्मनाथका २१ में शान्तिनाथका ४ में कुन्थुनाथका २६ में अरनाथका १४ में मल्लिनाथका और ११ में मुनिसुव्रतका जीवनवृत्त वर्णित है । इसी संदर्भमें राम-लक्ष्मणकी कथा भी ८१ पद्योंमें वर्णित है । तदनन्तर २१ पद्योंमें कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदिके जीवनवृत्त आये हैं। नेमिनाथका जीवनवृत्त भी १०१ पद्यों में श्रीकृष्ण आदिके साथ वर्णित है । अनन्तर ३२ पद्योंमें पाश्र्वनाथका जीवन अंकित किया गया है । पश्चात् ५२ पद्योंसे महावीर-पुराणका अंकन है । तीर्थंकरोंके काल में होनेवाले चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिका भी कथन आया है | ग्रन्थके अन्त में १५ पद्योंमें प्रशस्ति अंकित है । ग्रन्थ-रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है— I नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालयेऽसिवत् । ग्रन्थोऽयं द्विनद्वयेक विकमार्कसमात्यये ||१३|| अर्थात् वि० सं० १२९१ में इस ग्रंथको रचना की है। आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि अईहास संस्कृत गद्य और पद्यके निर्माताके रूपमें यहाकवि भईहाम अद्वितीय हैं । मुनिसुवतकाव्य, पुरदेवचंपू और भव्यजनकंठाभरणको प्रशस्तियोंसे यह स्पष्ट है कि महाकवि अहंदास प्रतिभाशाली विद्वान थे। कविने इन ग्रंथोंकी प्रश. स्तियोंमें आशाधरका नाम बड़े आदरके साथ लिया है। अतः यह अनुमान लगाना सहज है कि इनके गुरु आशाधर थे। मुनिसुव्रतकान्यके एक पद्यसे यह ध्वनित होता है कि अहंदास पहले कुमार्ग में पड़े हुए थे, पर आशाषरके धर्मामृतके अध्ययनसे उनके परिणामोंमें परिवर्तन हुआ और वे जैनधर्मानुयायी हो गये । बताया है--- धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् । स्यक्त्वा श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ।। सबर्मामृतमुदघृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् । पार्य पायमितश्रम: सुखपदं दासो भवाम्यहंतः ।।१०।६४ x अहंद्दासः सभक्त्युल्लसितमवसितं भूघरे तत्र कृत्वा । कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुलमहितः प्रापदात्मीयलोकम् ।। अर्हदासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञं । गुम्फित्या काव्यबन्धं कविकुलमाहितः प्रापदुच्चैः प्रमोदम् ॥१०१६३ अर्थात् कुमार्गासे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था, उसे छोड़कर बहुत्तकाल तक भटकता हआ में अत्यन्त थक गया । किसी प्रकार काललब्धि वश से प्राप्त किया। उस सन्मार्गको पाकर जिनवचनरूपी क्षीरसमुद्रसे उद्धृत किये और सुखके स्थान समीचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी-पीकर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवानका दास होता हूँ। देवताओंसे पूजित सथा अहंदु भगवानके दास इन्द्रदेव उस सम्मेदपर्वत पर तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथका मोक्षकल्याणक सम्पन्न कर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुलपूजित अहंद्दासने भी गौतम स्वामीसे कहे गये श्रीजिनेन्द्रचरितको काव्यरूपमें अथित कर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की। उपर्युक्त ६४वें पद्यमें आया हुआ 'धर्मामृत' पद आशाधरके 'धर्मामृत' ग्रन्थका सूचक है । इस पद्यसे यह अवगत होता है कि अहंद्दास पहले कुमार्गमें पड़े ४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए थे। आशाधरके धर्मामृतने और उनकी उक्तियोंने उन्हें सुमार्ग में लगाया । बहुत संभव है कि कवि महेंद्दास पहले जैनधर्मानुयायी न होकर अन्य धर्मानुयायी रहे हों। यही कारण है कि उन्हें ब्राह्मणधर्म और वैदिक पुराणोंका अच्छा परिज्ञान है | 'दासो भवाम्यहंतः' पद्यसे भी यही ध्वनित होता है। श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि अदास नाम न होकर विशेषण जैसा है। उन्होंने लिखा है - " चतुर्विंशतिप्रबन्धको पूर्वोक्त कथाको पढ़नेके बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकीति हो तो कुमार्ग में ठोकरें खाते-खाते अन्तमें आशाधरको सूक्तियोंसे अद्दास न बन गये हों । पूर्वोश ग्रंथोंमें जो सव किये गये हैं उसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अहंदास नाम भी विशेषण जैसा ही मालूम होता है। संभव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । यह नाम एक तरह की भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है" ।" 'प्रेमी' जीने मदन कीर्तिको ही विशालकीर्ति और आशाधरकी प्रेरणासे अहंदासके रूपमें परिवर्तित स्वीकार किया है, पर पुष्ट प्रमाणोंके अभाव में प्रेमीजीके इस कथनको स्वीकार नहीं किया जा सकता । तथ्य जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि अहासको आशाधर के ग्रन्थों और वचनोंसे बोध प्राप्त हुआ है । स्थितिकाल sa अदासने मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरण में आशाधरका निर्देश दिया है | आशा धरने वि० सं० १३०० में अनगारधर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी। अतः कवि अर्हदास आशाधरके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं। अब विचारणीय यह है कि वे आशाधरके समकालीन हैं या उनके पश्चात्वर्त्ती विद्वान् हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में आशाधरका उल्लेख जिस रूपमें किया है उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आशाधरके समकालीन रहे हों । मुनिसुव्रतकाव्य की प्रशस्ति मिथ्यात्वकर्म पटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयान निदानभूते ॥ आशाधरोक्तिलसदंजन संप्रयोगेरच्छीकृते पृथुल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ||१०|६५॥ अर्थात् मेरे नयन-युगलं चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे टके हुए थे और मुझे कुमार्ग में ले जाने में कारण थे। आशावर के उक्तिरूपी उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेव के महान् सत्पथका आश्रय लिया । १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पू० १४२-४३ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुदेव चंपूका अन्तिम पद्य farmaise मम मानसेऽस्मिन् आशाघरोक्तिकतकप्रसरे प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्वंपूदंभजलजेन समुज्जजम्भे ॥ कविप्रशस्ति अर्थात् मेरा यह मानसरूप सरोबर मिध्यात्वरूपी कीचड़से कलुषित था । आशाधरकी उक्तिरूपी निर्मलीके प्रभाव से जब वह निर्मल हुआ तो ऋषभदेवकी भक्ति प्रसन्न हुई शरद् ऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पूरूप कमल विकसित हुआ । इन पद्योंसे इतना ही स्पष्ट होता है कि आशाधरकी उक्तियोंसे उनकी दृष्टि या मानस निर्मल हुआ था पर वे आशावर के समकालीन थे या उत्तरकीलीन थे, इस पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। भव्यजनकण्ठाभरण में एक ऐसा पद्य आया है, जो कुछ अधिक प्रकाश देता है सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्याश्चरितात्मधर्माः । तएव शेषाश्रमिणां साहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः || २३६|| आचार्य उपाध्याय और साधुका स्वरूप बतलाने के पश्चात् ग्रन्थकार कहते हैं कि उन आचार्य आदिको सूक्तियोंके द्वारा ही जो संसारसे भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रम में रहते हुए आत्मधर्म का पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचयं, बानप्रस्थ और सात्रु आश्रम में रहने वालोंकी सहायता करते है वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य है । इस पद्य में प्रकारान्तरसे आशावर की प्रशंसा की गई है मोर बताया गया हैं कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी वे जैनधर्मका पालन करते थे तथा अन्य आश्रमवासियोंकी सहायता भी किया करते थे । इस पद्यमें आशाधरकी जिस परोपकारवृत्तिका निर्देश किया गया है उसका अनुभव कविने संभवत: प्रत्यक्ष किया है और प्रत्यक्षमें कहे जाने वाले सवचन भी सूक्ति कहलाते हैं । अतएवं बहुत संभव है कि अद्दास आशा धरके समकालीन हैं। अतएव अर्हद्दासका समय वि० सं० १३०० मानना उचित ही है। यदि अद्दासको आशाधरका समकालीन न मानकर उत्तरकालीन माना जाय तो उनका समय वि० की १४वीं शतीका प्रथम चरण आता है । रचनाएँ अद्दासकी तीन रचनाएं उपलब्ध हैं - १. मुनिसुव्रतकाव्य, २. पुरुदेव - चम्पू और ३. भव्यजनकण्ठाभरण | ५०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्य इस महाकाव्य में २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की कथा वर्णित है । कविने १० समें काव्यको समाप्त किया है । कथा मूलतः उत्तरपुराणसे गृहीत है । afat कथानकका मूलरूपमें ग्रहणकर प्रासंगिक और अवान्तर कथाओंकी योजना नहीं की है । काव्यमें शृंगारभावनाका आरोप किये बिना भी मानवजीवनका सांगोपांग विश्लेषण किया है । काव्यके इस लघु कलेंवरमें विविध प्राकृतिक दृश्योंका चित्रण भी किया गया है । मगधदेशकी विशेषताओं को प्रकृतिके माध्यम द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कहा है- नगेषु यस्योन्नतदेशजाताः सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः । भव्या भवन्त्याप्तगुणाभिरामा मुक्ताः सदा लोकशिरोविभूषाः ||१|२४|| तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपद्मच्छदला छितानि । पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजुः कांचीपदानीव नखाञ्चितानि ॥ १२६ ॥ मगधके उत्तरी भाग में फैली हुई पर्वतश्रेणीपर विविध वृक्ष, मध्य भागमें लहलहाते हुए जलपूर्ण खेत और उनमें उत्पन्न रक्तकमल दर्शकों के चित्तको सहज में हो आकृष्ट कर लेते हैं। राजगृहके निरूपण प्रसंग में विविध वृक्ष- लता - कमलोंसे परिपूर्ण सरोवरोंके रेखाचित्र भी अंकित किये गये । द्वितीय पद्यमें बताया है कि वृक्ष-पंक्ति से युक्त नदियों के सुन्दर विकसित कमलपत्रोंसे चिह्नित विस्तृत पुलिन नायिकाके नखक्षत जघनके समान सुशोभित होते हैं । वाटिकाओंके वृक्षों और क्रीड़ापर्वतोंपर स्नान करनेवाली रमणियों का चित्रण करते हुए कविने लिखा है —— बहिर्वने यत्र विधाय वृक्षारोहं परिष्वज्य समर्पितास्याः || कृताधिकाराइव कामतंत्रे कुर्वन्ति संग विटपेतत्यः ॥ १३८ ॥ आरामरामाशिरसीव केलिले लताकुन्तलमासि यत्र ॥ सकुङ्कुमा निवारिधारा सोमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ॥ १ ॥ ३५९ || राजगृह के बाहरी उपवनोंमें वृक्षोंपर चढ़ी हुई लतायें काम-शास्त्रमें प्रवीण उपपतियोंका आलिंगन तथा चुम्बन करती हुई कामिनियोंके समान जान पढ़ती हैं । जिस राजगृहमें स्त्रीरूपिणी वाटिकाओं में उनके मस्तक के समान वेणी रूपिणी लताओंसे मंडित क्रीडापर्वतोंपर स्त्रियोंके स्नान करनेसे कुंकुममिश्रित जलवारा - झरने से गिरती हुई सीमन्तके सिन्दूर के समान शोभित थी । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविने उक्त दोनों पद्योंमें प्रकृतिका मानवीकरण कर मनोरम और मधुर रूपोंको प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षाजन्य चमत्कार दोनों ही पद्योंमें वत्तंमान है। दशम सगमें जिनेन्द्र-सान्निध्यसे नीलीवनके अशोकसत्रच्छद, धम्पक, आम्र आदि वृक्षोंका क्रमश: सुन्दरी स्त्रियोंके चरणघात, चाटुवाद, छाया, कटाक्ष आदिके बिना ही पुष्पित होना वर्णित है। कविने यहीं काव्यरूढ़ियोंका भी अतिक्रमण किया है। आलम्बनरूपमें प्रकृतिचित्रण करते हुए कविने वर्षाकालमें मेघगर्जन, हंसशावकों और वियोगीजनोंके कम्पित होने, सोंके बिलसे निकलने, मयूरोंके नत्यमग्न होने एवं चातकोंके अधरपुटके उन्मीलित होनेके वर्णन द्वारा वर्षाकालीन प्रकृतिका भव्यरूप उपस्थित किया है।' पातिमें मानदीप प्रधान र सानोदे भी शुदा उदाहरण आये हैं। हेमन्त वर्णन-प्रसंगमें प्रातःकालीन बिखरे हुए ओस-बिन्दुओंसे सुशोभित, लताओंसे लिपटे हुए और उनके गुच्छोंरूपी स्तनोंका आलिंगन किये हुए वृक्षोंपर संभोगान्तमें निस्सृत श्वेतकणोंसे युक्त युवकोंका आरोप स्वभावतः उद्दीपक है। वर्षाकालमें नायक और आकाशमें नायिकाका आरोपकर गाढ़ालिंगनका सरस वर्णन प्रस्तुत किया गया है | आकाश-नायिकाके स्तनप्रदेशपर स्थित माला टूट जाती है, जिससे उसके मोती और मूंगे इन्द्रबधूटो और ओलोंके रूपमें बिखरे हुए दीख पड़ते हैं।' कविने वसुधामें वात्सल्यमयी माताका आरोप कर भावोंकी सूक्ष्म अभिथ्यञ्जना की है। माता अपने पुत्रों-वृनोंका अत्याचारी सूर्यसंतापसे रक्षण करनेके हेतु उसके सामने दाँत निकालकर गिड़गिड़ा रही हैप्रासादचैत्यपरिखालतिकाद्रुमक्षमा जाता ध्वजकुजहयंगणक्षमाश्च । पीठानि चेति हरसंख्यभुवस्सदंतरेकांतकेलिसदनं जिनबोधलक्ष्म्याः ।।१।१०।। इस प्रकार इस काव्य में कविने कल्पनाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा संदर्भाशोंको चमत्कारपूर्ण और सरस बनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या, १. मुनिसुव्रतकाव्य ९।१३ । २. बही ९।२८ । ३. बही ९२२ । ५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकावली आदि अलंकार रसोत्कर्ष उत्पन्न करलेमें सहायके हैं। इस काव्यमें पौराणिक मान्यताएं भी वर्णित हैं। पर यथार्थतः यह शास्त्रीय महाकाव्य है। पुरुदेव चम्पू ___इस चम्पूकाव्यमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका जीवनवृत्त वणित है । कथावस्तु १० स्तवकोंमें विभक्त है। कविने गद्य और पद्य दोनों ही प्रोढरूपमें लिखे हैं। मंगलपद्योंके जन जम्बूदोमा हि-तृत वर्णन है : रिडलके राज्यका परिसंख्याद्वारा वर्णन करते हुए लिखा है_ 'यस्मिन्महीपाले महीलोकलोकोत्तरप्रसाद शांतकुंभमयस्तंभायमानेन निजभुजेन धरणीयेगदनिविशेषमाविभ्राणे, बंधनस्थितिः कुसुमेषु चित्रकाव्येषु च अलंकाराश्रयता महाकविकाव्येषु कामिनीजनेषु च, धनलिनांबरता प्रावृषेण्यदिवसेषु कृष्ण पक्षनिशासु च, परमोहप्रसिंपादनं प्रमाणशास्त्रेषु युवतिजनमनोहररांगेषु च, शुभकरवालशून्यत्ता कोदंडधारिषु कच्छपेषु च परं व्यवतिष्ठत ॥ कविने भावात्मक विषयोंका समावेश पद्योंमें किया है और वर्णनात्मक संदर्भोका गद्यमें ! वर्णनशैलो बड़ो ही रमणीय और चित्ताकर्षक है । देवांगनाएं जन्माभिषेकके पश्चात् नृत्य करती हुई भावपूर्वक ऋषभदेवकी पूजा करती हैं "नटत्सुरवधूजनप्रविसरत्कटाक्षावलिं । कपोलतलसंगतां त्रिभवनाधिपस्यादरात् ॥ सुराधिपतिसुन्दरी स्नपनतोयशंकावशात् । प्रमार्जयितुमुद्यता किल बभूव हासास्पदम् ।।५।१३।।" इस प्रकार इस चम्पूमें काव्यात्मक सभी गुण वर्तमान हैं। इसको गद्य-शैली तो पद्योंको अपेक्षा अधिक प्रौढ है । भव्यजनकण्ठाभरण इस काव्यमें कुल २४२ पद्य हैं। इसमें आचार, नीति, दर्शन और सूक्ति इन सभीका समन्वय है । कतिपय पौराणिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गई है । इस ग्रन्थके प्रारंभमें वैदिक-पुराणोंकी कई मान्यताएं अकित हैं । गणेश, कात्तिकेय, शिव-पार्वतीके आख्यान निर्दिष्ट कर संकेतरूपमें उनकी समीक्षा भी की गई है । प्रसंगवश इस ग्रन्थमें यापनीय-सम्प्रदाय, श्वेताम्बर-सम्प्रदाय, आदिको भो समीक्षा की गई है। कविने बताया है कि धर्म सदा अहिंसासे होता है, हिसासे नहीं । जिस प्रकार कमल जलसे ही उत्पन्न हो सकता है अग्नि से नहीं, उसी प्रकार इन्द्रियनिग्रह और कषाविजय अहिंसा द्वारा ही संभव है, हिंसा द्वारा नहीं आचार्यतुल्य काम्यकार एवं लेखक : ५३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाप्यहिंसाजनितोऽस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतः स्यात् । न जायते तोयजकमग्नेर्न चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ॥८॥ अहिंसा के पालनार्थं मद्य, मांस, मधुके त्यागका और निर्मल आचरण पालन करनेका कथन किया है । कविने आसमें सर्वज्ञताकी सिद्धि करते हुए लिखा है— यथैव ॥१२३|| 'तत्सूक्ष्मद्रान्तरिता: पदार्थाः कस्यापि पुंसो विशदा भवन्ति । व्रजन्ति सर्वेप्यनुमेयतां यदेतेऽनलाद्या भुवने अर्थात् संसार में जो परमाणु इत्यादि सूक्ष्म पदार्थ हैं, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ हैं और हिमवन आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं वे किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि इन सभी पदार्थोंको हम अनुमानसे जानते हैं । जो पदार्थं अनुमानसे जाना जाता है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होता है । जैसे पर्वत में छिपी हुई अग्निको हम दूरसे उठता हुआ कुँआ देखकर अनुमानसे जानते हैं। पश्चात् उसका प्रत्यक्षीकरण होता है । इस ग्रन्थपर 'समन्तभद्र' के 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार का विशेष प्रभाव है । ग्रन्थकर्त्ताने ११६ पद्यों तक कुदेवोंकी समीक्षा की है। आपका स्वरूप बतलानेके अनन्तर जिनवाणीका माहात्म्य ७ पद्योंमें दिखलाया गया है । तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनका वर्णन आया हैं । इस संदर्भ में ३ मूढ़ता, ८ मद और ८ अंगों का स्वरूप भी दर्शाया गया है। तत्पश्चात् सम्यक दर्शनका माहात्म्य बतलाकर सज्जाति आदि सप्त परमस्थानोंका स्वरूप भी एक एक पद्यमें अंकित किया गया है । २०६ पद्यसे २१२ पद्य तक परमस्थानोंका स्वरूप वर्णन है । २१३वें और २१४वें पद्य में सम्यक्ज्ञानका कथन आया है । कविने रत्नत्रय को ही वास्तविक धर्म कहा है और उसका महत्त्व २२४वें और २२५ पद्य में प्रदर्शित किया है । २२६वें पद्यसे २३३ पद्य तक पञ्चपरमेष्ठीका स्वरूप इस लघुकाय ग्रन्थ में जैन सिद्धान्तों का वर्णन आया है । वर्णित है। इस प्रकार पद्मनाभ कायस्थ राजा यशोधरकी कथा जैनकवियोंको विशेष प्रिय रही है । पद्मनाभने यशोधरचरितकी रचना कर इस श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ी है। पद्मनाभको जैनधर्मसे अत्यधिक स्नेह था और इस धर्म के सिद्धान्तोंके प्रति अपूर्व आस्था थी । पद्मनाभका संस्कृत भाषापर अपूर्व अधिकार था। उन्होंने भट्टारक गुणकीत्तिके सान्निध्य में रहकर जैनधर्मके आचार-विचारों और सिद्धान्तों का अध्ययन किया था । गुणकीर्ति के उपदेशसे हो इन्होंने यशोधरचरित या दया ५४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दविधान काव्यग्रन्थ राजा वीरमदेवके राज्यकालमें लिखा है। जब कविका काव्य पूर्ण हो गया, तो सन्तोषनामके जयसवालने उसको बहुत प्रशंसा की और विजयसिंह जयसवालके पुत्र पृथ्वीराजने उक्त ग्रन्थको अनुमोदना की। कुशराज जयसवालकुलके भूषण थे और ये वीरमदेवके मंत्री थे। इन्हींको प्रेरणासे यशोधरचरित लिखा गया। कुशराज राज्यकार्यम बड़े ही निपुण थे। इके पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लौणादेवी था। पितामहका नाम लण्ण और पितामहीका नाम उदितादेवी था। आपके पांच और भाई थे, जिनमें चार बड़े और एक सबसे छोटा था । हंसराज, सैराज, रैराज, भवराज और क्षेमराज । क्षेमराज सबसे बड़ा और भवराज सबसे छोटा था। कुशराज राजनीतिज्ञ होने के साथ धर्मात्मा भी था। इसने ग्वालियरमें चन्द्रप्रभजिनका एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठान करवायी थी। कुशराजको तीन पत्नियां थीं-रल्हो, लक्षणश्रो और कोशोरा । रल्हो गृहकार्यमें कुशल और दानशीला थी। वह नित्य जिनपूजा किया करती थी। इससे कल्याणसिंह नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा ही रूपवान्, दानी और श्रद्धालु था । शेष दोनों पत्नियाँ भी-धर्मात्मा और सुशीला थीं। कुशराज ने श्रुतभक्तिवश यशोधरचरितकी रचना कराई । पद्मनाभ मेधावी कवि होने के साथ समाजसेवी विद्वान् थे। जैन भट्टारकों और थावकोंके सम्पर्कसे उनका चरित्र अत्यन्त उज्जवल और श्रावकोचित था। ग्रन्थप्रशस्तिसे पद्मनाभके सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है, पद्मनाभने अपने प्रेरक कुशराजके वंशका विस्तृत परिचय दिया है। स्थितिकाल पद्मनाभने अपना यह काव्यग्रन्थ वीरमदेवके राज्यकालमें लिखा है। वीरमदेव बड़ा ही प्रतापी राजा तोमर-वंशका भूषण था | लोकमें उसका निर्मल यश व्याप्त था। दान, मान और विवेकमें उस समय उसकी कोई समता करनेवाला नहीं था। यह विद्वानोंके लिए विशेषरूपसे आनन्दायक था । यह ग्वालियरका शासक था। वीरमदेवके पिता उद्धरणदेव थे, जो राजनीति में दक्ष और सर्वगुणसम्पन्न थे। ई० सन् १४०० या उसके आस-पास हो राज्यसत्ता वीरमदेवके हाथमें आयो । ई० सन् १४०५में मल्लू एकबालखाने ग्वालियरपर आक्रमण किया था। पर उस समय उसे निराश होकर ही लौटना पड़ा। दूसरी बार भी उसने आक्रमण किया; पर वीरमदेवने उससे सन्धि कर ली। आचार्य अमृतचन्द्रको 'तत्त्वदीपिका'की लेखकप्रशस्तिसे वीरमदेवका राज्यकाल भाचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १४६६ तक वर्तमान रहा । अतएव उनके राज्यकालकी सीमा ई० सन् १४०५-१४१५ ई० तक जान पड़ती है । इसके पश्चात् ई० सन् १४२४से पूर्व वीरमदेवके पुत्र गणपतिदेवने राज्यका संचालन किया है। इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि पद्मनाभने ई. सन् १४०५-१४२५ ई० के मध्यमें किसी समय 'यशोधरचरित' की रचना की है। रचना राजा यशोधर और रानी चन्द्रमतीका जीवन-परिचय इस काव्यम अंकित है। पौराणिक कथानकको लोकप्रिय बनाने की पूरी चेष्टा की गई है । ____ कथावस्तु ९ सर्गों में विभक्त है । नवम सर्गमें अभयचि आदिका स्वगंगमन बताया गया है । कविता प्रौढ है । उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तरन्यास, कायलिंग आदि अलंकारों द्वारा काव्यको पूर्णतया लोकप्रिय बनाया गया है । ज्ञानकोत्ति यति वादिभूषणके शिष्य थे। इन्होंने यशोधरचर्चारितकी रचना नानके भाग्रहसे संस्कृतभाषामें को | नान उस समय बंगालके गवर्नर महाराजा मानसिंहके प्रधान अमात्य थे । कविने सम्मेदशिखरकी यात्रा की है और वहाँ उन्होंने जीर्णोद्धार भी कराया है । ज्ञानकीति बंगालप्रान्तके अकच्छरपुर नामक नगरमें निवास करते थे। यशोधरचरितके अन्तमें लम्बी प्रशस्ति दी गई है, जिससे अवगत होता है कि शाह श्रीनानुने यशोधरचरित लिखाकर भट्टारक श्रीचन्द्रकीतिके शिष्य शुभचन्द्रको भेंट किया था। इस ग्रन्थमें रचनाकाल स्वयं अंकित किया है 'शते षोडशएकोनषष्टिवासरके शुभे । __ माघे शुक्लेऽपि पंचम्यां रचितं भृगुवासरे ॥ ५ ॥ अर्थात् सोलहसी उनसठ (१६५९) में माघ शुक्ल पञ्चमी शुक्रवारको ग्रन्थ समाप्त हुआ । यह काव्य मानसिंहके समयमें लिखा गया है। काव्यके अन्तको प्रशस्ति निम्न प्रकार है__ "इति श्रीयशोधरमहाराजचरिते भट्टारकश्रीवादिभूषणशिष्याचार्यश्रीज्ञानकोत्तिविरचिते राजाधिराजमहाराजमानसिंहप्रधानसाहश्रीनानूनामांकिते भट्टारकधीअभयाच्यादिदीक्षाग्रहणस्वर्गादिप्रासिवर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥" ५६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि यह यशोधरचरित भो ९ सों में पूर्ण हुआ है। ज्ञानकोत्तिने अपनी पूरो पट्टावलो अंकितकी है। बताया है कि मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वतीगच्छ और बलात्कार गणके भट्टारक वानिभूषणके पट्टधर शिष्य थे । ज्ञानकोत्ति पद्मर्कात्तिके गुरुभाई भी हैं। ज्ञानकोत्तिने सोमदेव, हरिषेण, वादिराज, प्रभंजन, धनञ्जय, पूष्पदन्त और वासबसेन आदि बिद्वानोंके द्वारा लिखे गये यशोधर महाराजके चरितको अनुभदना पबुद्धिसै पिने इसी साली है : ज्ञानकीतिने पूर्ववर्ती आचार्योंमें उमास्वामि, समन्तभद्र, वादीभसिंह, पूज्यपाद, भट्टाकलंक और प्रभाचन्द्र आदि विद्वानोंका स्मरण किया है। ग्रन्थको भाषाशैली प्रौढ है। यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य उद्धृत किया जाता है-- दोदंण्डचण्डबलत्रासितशत्रलोको रत्नादिदानपरिपोषितपात्रओधः । दोनानुवृत्तिशरणागतदीर्घशोक: पृथ्व्यां बभूव नृपतिर्वरमानसिंहः ।।१६।। इस प्रकार ज्ञानकीतिका यह काव्य काव्यगुणोंगे युक्त होनेके कारण जनप्रिय है। धर्मधर कवि धर्मधर इक्ष्वाकुवंशमें समुत्पन्न गोलाराडान्वयी साहू महादेवके प्रपुत्र और आशपाल के पुत्र थे । इनकी माताका नाम हीरादेवी था। विद्याधर और देवधर धर्मधरके दो भाई थे। पं० धर्मधरकी पत्नीका नाम नन्दिका था। नन्दिकासे दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। पुत्रोंका नाम पराशर और मनसुख था। कविने संस्कृतमें 'नागकुमारचरित' की रचना की। इस चरित-काव्यके आरम्भमें मूलसंघ सरस्वतीगच्छके भट्टारक पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और जिनचन्द्रका उल्लेख किया गया है। लिखा है भद्रे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाभिधो गुरुः । तदाम्नाये गणी जात: पद्मनन्दी यतीश्वरः ।। ५ ।। तत्पट्टे शुभचन्द्रोऽभूज्जिनचन्द्रस्ततोऽजनि । नत्वा तान् सद्गुरून् भवत्या करिष्ये पंचमीकथा ॥ ६ ॥ शुभा नागकुमारस्य कामदेवस्य पाचनीं । करिष्यामि समासेन कथा पूर्वानुसारतः ॥ ७॥ अतएव स्पष्ट है कि कवि मूलसंघ सरस्वतीगच्छका अनुयायी था। स्मितिकाल कविने नागकुमारचरितका रचनाकाल ग्रन्थकी प्रशस्तिमें दिया है। इस भाचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि वि० सं० १५११ में श्रावणशुक्ला पूर्णिमा सोमवारके दिन इस ग्रन्थको लिया है व्यतीते विक्रमादित्ये रुद्रेषु शशिनामनि । श्रावणे शुक्लपक्षे च पूर्णिमाचन्द्रवासरे ॥ ५३ ।। कविन नागकुमारचरित यदुवंशी लम्बकंचुक्रगोत्री साहू नल्हूकी प्रेरणासे रचा है। साह नलह चन्द्रपाट या चन्द्रपाड नगरके दत्तपल्लीके निवासी थे । नल्ह साहूके पिताका नाम धनेश्वर या धनपाल था, जो जिनदासके पुत्र थे । जिनेदासके चार पुत्र थे-शिवपाल, जयपाल, धनपाल, धुपाल 1 नल्हू साहूकी माताका नाम लक्षणश्री था। उस समय चौहानवंशी राजा भोजराजके पुत्र माधवचन्द्र राज्य कर रहे थे। धनपाल मन्त्री पदपर प्रतिष्ठित था साहू नल्हूके भाईका नाम उदयसिंह था । साहू नल्हू भी राज्य द्वारा सम्मानित थे । इनकी दो पत्नियां थीं-दुमा और यशोमती । तेजपाल, विजयपाल, चन्दनसिंह और नरसिंह ये चार पुत्र थे । इस प्रकार साहू नल्हू सपरिवार धर्मसाधना करते थे। नागकुमारचरितकी प्रशस्तिमें साहू नल्हूके समान ही चौहानवंशी राजाओंका परिचय प्राप्त होता है | सारंगदेव और उनके पुत्र अभयपालका निर्देश आया है | अभयपाल का पुत्र रामचन्द्र था, जिसका राज्य वि० सं० १४४८ में विद्यमान था । रामचन्द्रके पुत्र प्रतापचन्द्रके राज्यमें रइधूने ग्रन्थ-रचना की है । प्रतापचन्द्रका दूसरा भाई रणसिंह था। इनका पुत्र भोजराज हुआ। भोजराजकी पत्नीका नाम शीलादेवी था। इसके गर्भसे माधवचन्द्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इस माधवचन्द्रके कनकसिंह और नृसिंह दो भाई थे । माधवचन्द्रके राज्यकाल में ही कवि धर्मधरने नागकुमारचरितकी रचना की है। माधवचन्द्रका राज्यकाल वि० सं० को १६ वीं शती है। अतः कवि धर्मधरका समय नागकुमारकी प्रशस्तिमें उल्लिखित पुष्ट होता है । रचनाएँ कवि धर्मधरको दो रचनाएँ उल्लिखित मिलती हैं--श्रीपालचरित और नागकुमारचरित | पुण्यपुरुष श्रीपालकी कथा बहुत ही प्रसिद्ध रही है। इस कथाका आधार ग्रहण कर विभिन्न भाषाओंमें काव्य लिखे गये । नागकुमार चरितको रचना धर्मधरने अपभ्रंशके महाकवि पुष्पदन्तके 'णायकुमारचरिउ' के आधार पर की है । ग्रन्थके परिच्छेदके अन्तमें पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार मिलता है_ 'इति श्रीनागकुमारकामदेवकथावतारे शुक्लपंचमीवतमाहात्म्ये साधुनल्हूकारापिते पण्डिताशपालात्मजधर्मघरविरचिले श्रेणिकमहाराजसमवसरणप्रवेशवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेद: समाप्तः।' ५८ : तीर्थकर, महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागकुमारचरित सरल और बोधगम्य शैलीमें लिखा गया काव्य है। इसका काव्य और इतिहासकी दृष्टि से अधिक मूल्य है । गुणभद्र द्वितीय गुणभद्र नामके कई जैनाचार्य हुए हैं। सेनसंघो जिनसेन स्वामीके शिष्य और उत्तरपुराणके रचयिता प्रथम गुणभद्र हैं और प्रस्तुत धन्यकुमारचरितके कर्त्ता द्वितीय गुणभद्र हैं। द्वितीय गुणभद्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि वे म.णिक्यसेनके प्रशिष्य और नेमिसेनके शिष्य थे । ये सिद्धान्सके विद्वान् थे। मिथ्यात्व तथा कामके विनाशक और स्याद्वादरूपी रत्नभूषणके धारक थे । इन्होंने राजा परमादिके राज्यकालमें विलासपुरके जैन मन्दिरमें रहकर लम्बकंचुक वंशके महामना साहू शुभचन्द्रके पुत्र वल्हणके धर्मानुरागसे धन्यकुमारचरितको रचना की थी। ग्रन्धकी प्रशस्तिमें परमादिका नाम आता है। डा. ज्योतिप्रसादजीने परमादिका निर्णय करते हुए लिखा है-"दसवीं-चौदहवीं शतीके बीच दक्षिण भारतमें गंग, पश्चिमी चालुक्य, कलचुरी परमार आदि अनेक वंशोंके किन्हींकिन्हीं राजाओंका उपनाम या उपाधि पेर्माडि, पेम्भडि, पेविडि, पेर्माडिरेक, पेमडिराय आदि किसी-न-किसी रूपमें मिलता है, किन्तु 'परमादिन' रूपमें कहीं नहीं मिलता। उत्तर भारत में महोबेके चन्देलोंमें चन्देल परमाल एक प्रसिद्ध नरेश हुआ है । वह दिल्ली, अजमेरके पृथ्वीराज चौहानका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था और सन् १९८२ ई० में उसके हाथों पराजित भी हुआ था। ११६७ ई० से बुन्देलखण्डके जैन शिलालेखोंमें इस राजाका नामोल्लेख मिलने लगता है और १२०३ ई० में उसकी मृत्यु हुई मानी जाती है। यह राजा चन्देलनरेश मदन वर्मदेवका पौत्र एवं उत्तराधिकारी था। इसके पिसाका नाम पृथ्वीवर्मदेव था और उसके उत्तराधिकारीका नाम त्रैलोक्यवर्मदेव था । इसके अपने शिलालेखोंमें इसका नाम 'परमादिदेव' या ‘परमादि' दिया है, जो कि धन्यकुमारचरितमें उल्लिखित परमादिन' से भिन्न प्रतीत नहीं होता।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि गुणभद्रने धन्यकुमारचरितको रचना चन्देलपरमारके राज्यमें १२ वीं या १३ वीं शतीमें की होगी। विचारके लिए जब माणिक्यसेन और नेमिसेनके सेनसंघी नामोंको लिया जाता है तो एक ही माणिकसेनके शिष्य नेमिसेन मिलते हैं, जिनका निर्देश शक सं० १५१५ के प्रतिमालेखमें पाया जाता है। सम्भवतः ये कारंजाके सेनसघी भट्टारक थे। १. जैन सन्देश, शोधांक ८, २८ जुलाई १९६०, पृ० २७५ । याचार्यतुल्य काव्यफार एवं लेखक : ५९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः धन्यकुमार चरितके रचयिता गुणभद्र और उनके गुरु प्रगुरु भट्टारक नहीं थे । बिजौलिया-अभिलेख के रचयिता गुणभद्र भी स्वयंको महामुनि कहते हैं । ११४२ ई० के एक चालुक्य-अभिलेख में किन्हीं वीरसेनके शिष्य एक माणिवयसेनका उल्लेख मिलता है। संभव है उनके कोई शिष्य नेमिसेन रहे हों, जिनके शिष्य बिजोलिया-अभिलेख के रचयिता गुणभद्र हो । ई० सन् १३७ में रचित जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें अय्यपायेंने एक पूर्ववर्ती प्रतिष्ठाशास्त्रकारके रूपमें गुणभद्रका उल्लेख किया है। संभव है कि बिजौलियामें मन्दिरप्रतिष्ठा करानेवाले यह आचार्य गुणभद्र ही अय्यपार्य द्वारा अभिप्रेत हों । अतएव धन्यकुमारचरितकी रचना महोबेके चन्देलनरेश परमादिदेवके शासनकालमें की गई होगी। बिजौलिया-अभिलेख के रचयितासे इनकी अभिन्नता मालूम पड़ती है । धन्यकुमारचरितकी प्रशस्ति वि० सं० १५०१ की लिखी हुई है। अतः धन्यकुमारचरितका रचनाकाल इसके पूर्व होना चाहिए । ललितपुरके पास मदनपुरसे प्राप्त होनेवाले एक अभिलेख में बताया गया है कि ई० सन् ११२२ वि० सं० १२३९ में महोबा के चन्देलवंशी राजा परमादिदेवपर सोमेश्वर के पुत्र पृथ्वीराजने आक्रमण किया था। बहुत संभव है कि इसका राज्य विलासपुर में रहा हो । अतएव धन्यकुमारचरितकी रचनाकाल वि० की १३वीं शती होना चाहिए। धन्यकुमारचरितकी कथावस्तु ७ परिच्छेदों या सगमें विभक्त है । और इसमें पुण्यपुरुष धन्यकुमारके आख्यानको प्रायः अनुष्टुप छन्दों में लिखा है। पुष्पिकावाक्य में लिखा है 'इति धन्यकुमारचरिते तस्वार्थ भावना फलदर्शके आचार्य श्रीगुणभद्रकृते भव्य-वल्हण - नामाङ्किते धन्यकुमारशालिभद्रयति-सर्वार्थसिद्धिगमनो नाम सप्तमः परिच्छेदः । श्रीधरसेन श्रीधरसेन कोष - साहित्य के रचयिताके रूपमें प्रसिद्ध हैं । इनका विश्व लोचन कोष प्राप्त है। इस कोषका दूसरा नाम मुक्तावली -कोष है। कोषके अन्तमें एक प्रशस्ति दी हुई है, जिससे श्रीधरसेनकी गुरुपरम्पराके सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है ६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनान्वये सकलसत्वसमपित्तश्री: श्रीमानजायस कविर्मुनिसेननामा । आन्वीक्षिकी सकलशास्त्रमयी च विद्या यस्यास चादपदवी न दवीयसी स्थात् ॥ १॥ तस्मादभूदखिलवाङ्मयपारदश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्रीश्रीधरः सकलसत्कविगुम्फितत्त्वपीयूषपानकृत्तनिर्जरभारतीकः ॥२ ।। तस्यात्तिशायिनि कदेः पथि जागरूकधीलोचनस्य गुरुशासनलोचनस्य । नानाकवीन्द्ररचितानभिधानकोशानाकृष्य लोचनमिवायमदीपि कोशः ॥ ३ ॥ साहित्यकर्मकवितागमजागरूकैरालोकित: पदविदां च पुरे निवासी। वर्मन्यधीत्य मिलित: प्रतिभान्वितानां चेदस्ति दुर्जनवचो रहितं तदानीम् ॥ १ ॥ अर्थात् कोशकी प्रशस्तिके अनुसार इनके गुरुका नाम मुनिसेन था, ये सेनसंघके आचार्य थे। इन्हें कवि और नैयायिक कहा गया है। श्रीधरसेन नाना शास्त्रोंके पारगामी और बड़े-बड़े राजाओं द्वारा मान्य थे । सुन्दरगणिने अपने धातुरत्नाकरमें विश्वलोचनकोशके उद्धरण दिये हैं और धातुरत्नाकरका रचनाकाल ई० १६२४ है, अत: श्रीधरसेनका समय ई० १६२४ के पहले अवश्य है। विक्रमोर्वशीय पर रंगनाथने ई० १६५६ में टोका लिखी है । इस टीकामें विश्वलोचनकोशका उल्लेख किया गया है । अतः यह सत्य है कि विश्वलोचनकी रचना १६वीं शताब्दीके पूर्व हुई होगी। शैलीकी दष्टिसे विश्वलोचनकोश पर हैम, विश्वप्रकाश और मेदिनी इन तीनों कोशोंका प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। विश्वप्रकाशका रचनाकाल ई० ११०५, मेदिनीका समय इसके कुछ वर्ष पश्चात् अर्थात् १२वीं शतीका उत्तराद्धं और हेमका १२वीं शतीका उत्तराद्ध है । अतः विश्वलोचनकोशका समय १३वीं शतीका उत्तराचं या १४वीं का पूर्वार्ध मानना उचित होगा। इस कोशमें २४५३ श्लोक हैं। स्वरवर्ण और ककार आदिके वर्णक्रमसे शब्दोंका संकलन किया गया है । इस कोशकी विशेषताके संबंधों इसके संपादक श्रीनन्दलाल शर्माने लिखा है "संस्कृतमें कई नानार्थ कोश हैं, परन्तु जहाँ तक आचार्यतुरूप कान्यकार एवं लेखक : ६१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम जानते हैं, कोई भी इतना बड़ा और इतने अधिक अर्थोको बतलानेवाला नहीं है। इसमें एक-एक शब्दको लीजिये -- जहाँ अमर में इसके चार व मेदिनी में दश अर्थ बतलाये गये हैं, वहाँ इसमें १२ अर्थ बतलाये गये हैं, यहो इस कोशको विशेषता है ।" नागदेव नामदेव संस्कृत के अच्छे कवि और गद्यकार हैं। इन्होंने 'मदनपराजय' ग्रन्थ के आरम्भ में अपना परिचय दिया है। बताया है कि पृथ्वी पर पवित्र रघुकुलरूपी कमलको विकसित करनेके लिये सूर्यके समान चंगदेव हुआ । चंगदेव कल्पवृक्षके समान याचकोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला था । इसका पुत्र हरिदेव हुआ । हरिदेव दुर्जन कवि-हाथियोंके लिये सिंहके समान था । हरिदेवका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी प्रसिद्धि इस भूतलपर महान् वैद्यराजके रूप में थी । नागदेव हेम और राम नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों भाई भी अच्छे देश थे । रामके प्रियंकर नामक एक पुत्र हुआ, जो अर्थियोंके लिये बड़ा प्रिय था । प्रियंकर के भी श्री मल्लुमित् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्री मल्लुगित् जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलके प्रति उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्रसमुद्र में पारंगत था । मल्लुगित्का पुत्र में नागदेव हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ । छन्द, अलंकार, काव्य और व्याकरणशास्त्रका भी मुझे परिचय नहीं है । " इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नागदेव सारस्वत कुलमें उत्पन्न हुआ था और उसके परिवारके सभी व्यक्ति चिकित्साशास्त्र या अन्य किसी शास्त्र से परिचित थे । यः शुद्धरामकुलपद्मविकासनार्को जातोऽथिनां सुरतरुर्भुखि बङ्गदेवः । तनन्दनो हरिरसत्कविनागसिंहः तस्माद्भिषजनपतिर्भुवि तज्जावुभौ सुभिषजाविह हेमरामी रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सितमहाम्बु धिपारमाप्त : श्री मल्लुगिज्जिनपदाम्बुजमत्तभृङ्गः तज्जोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकशानंन नागदेवः ॥ २ ।। ।। ३ ॥ संयुतः । छन्दोऽलंकारकाव्यानि नाभिषानानि वेदम्यहम् ॥ ४ ॥ ६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिफाल r नागदेवते 'मदनपराजय' की रचना कब की इसका निर्देश कहीं नहीं मिलता है | 'मदनपराजय' पर आशाधरका प्रभाव दिखलाई पड़ता है तथा ग्रन्थकर्माने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि हरदेवने अपभ्रंश में 'मदनपराजय' ग्रंथ लिखा है उसी ग्रन्थ आधारपर संस्कृत भाषा में 'मदनपराजय' लिखा गया है | अतः हरदेवके पश्चात् ही नागदेवका समय होना चाहिए। हरदेवने भी 'मयणपराज उ' का रचनाकाल अंकित नहीं किया है। इस ग्रन्थकी आमेर भंडारकी पाण्डुलिपि वि० सं० १५७६ की लिखी हुई है । अतः हरदेवका समय इसके पूर्व सुनिश्चित है। साहित्य, भाषा एवं प्रतिपादन शैलीको दृष्टिसे 'भयणपराजउ' का रचनाकाल १४ वीं शती प्रतीत होता है । अतएव नागदेवका समय १४वीं शतीके लगभग होना चाहिए। यदि आशाधर के प्रभावको नागदेवपर स्वीकार किया जाय, तो इनका सम्म १४ सिटक है । यतः आशाधरने 'अनगारधर्मामृत' की टीका वि० सं० १३०० में समाप्त की थी । इस दृष्टिसे नागदेवका समय वि० को १४ वीं शती माना जा सकता है । नागदेवने अपने ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणों के अध्ययन से भी नागदेवका समय १४ वीं शती आता है । 'मदनपराजय' की जो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं उनमें एक प्रति भट्टारक महेन्द्रकी र्तिके शास्त्र भण्डार आमेर की है । यह प्रति वि० सं० १५७३ में सूर्यसेन नरेशके राज्यकाल में लिखी गई है | इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में बताया है कि मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नाय तथा सरस्वतीगच्छ में जिनेन्द्रसूरिके पट्टपर प्रभाचन्द्र भट्टारक हुए, जिनके आम्नायवती नरसिंह के सुपुत्र होलाने यह प्रति लिखकर किसी ती पात्रके लिये समर्पित की। नरसिंह खण्डेलवास के निवासी पाम्पत्य कुलके थे । इनकी पत्नीका नाम मणिका था। दोनोंके होला नामक पुत्र था, जिसकी पत्नीका नाम वाणभू था | होलाके बाला और पर्वत नामक दो भाई थे और इस प्रतिको लिखाने में तथा व्रती के लिए समर्पण करने में इन दोनों भाइयोंका सहयोग था । इस लेख से यह भी प्रतीत होता है कि बाला की पत्नीका नाम धान्या था । और इसके कुम्भ और बाहू नामक दो पुत्र भी थे । इस पाण्डुलिपिके अवलोकनसे इतना स्पष्ट है कि नागदेवका समय वि० सं० १५७३ के पूर्व है । अतएव संक्षेपमें ग्रन्थके अध्ययनसे नागदेवका समय आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ ही बाद होना चाहिए । नागदेव बड़े ही प्रतिभाशाली और सफल काव्यलेखक थे । 'मदनपराजय' के पुष्पिका-वाक्यों में लिखा मिलता है - इति " ठाकुरमाइन्दआचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ६३ | Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवस्तुतजिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्धे श्रुतावस्थानामप्रथमपरिच्छेदः" | ठाकुर माइन्ददेव और जिनदेवको किस प्रकार इस ग्रन्थका कर्ता बतलाया गया है । श्री जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित और श्री पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थं द्वारा अनूदित 'मकरध्वजपराजय के परिच्छेद के अन्तमें भी मदनपराजय के कर्ताको ठाकुर माइन्ददेवसुत जिनदेव सूचित किया गया है । यों तो मदनपराजयके प्रारम्भमें ही नागदेवने अपने पिताका नाम भल्लुगित बताया है। नागदेव से पूर्व छठो पीढ़ी में हुए हरदेवने 'मदनपराजय' को अपभ्रंशमें लिखा है । श्री डा० हीरालालजीने अपने एक निबन्ध में लिखा है"इस काव्यका ठाकुर मयन्ददेव के पुत्र जिनदेवने अपने स्मरपराजयमें परिवर्द्धन किया, ऐसा प्रतीत होता है"", पर जबतक 'मदनपराजय' और 'स्मरपराजय' ये दोनों रचनाएँ स्वतन्त्र रूपसे उपलब्ध नहीं होती है तब तक यह केवल अनुमानमात्र हैं । हमारा अनुमान है कि नागदेवने 'मदनपराजय' को ही स्मरपराजय, मारपराजय और जिनस्तोत्र के नामसे अभिहित किया है। अतएव नागदेवका ही अपरनाम जिनदेव होना चाहिए । रचना नागदेव द्वारा रचित मदनपराजय प्राप्त होता है। सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजयमें भाषा साम्य, शैलीसाम्य और ग्रन्थोद्धृत पद्यसाम्य होनेसे सम्यक्त्वकौमुदीके रचयिता भी नागदेव अनुमानित किये जा सकते हैं, पर यथार्थतः नागदेवका एक ही ग्रन्थ मदनपराजय उपलब्ध है । 'मदनपराजय' में रूपकशैली द्वारा मदनके । पराजित होनेकी कथा वर्णित है । यह कथा रूपकशैली में लिखी गई है। बताया है कि भवनामक नगर में मकरध्वज नामक राजा राज्य करता था एक दिन उसको सभामें शल्या, गारव, कर्मदण्ड, दोष और आश्रव आदि सभी योद्धा उपस्थित थे। प्रधान सचिव मोह भी वर्त्तमान था । मकरध्वजने वार्तालापके प्रसंग में मोहसे किसी अपूर्वं समाचार सुनाने की बात कही । उत्तरमें उसने मकरध्वजसे कहा- राजन् आज एक ही नया समाचार है और वह यह है कि जिनराजका बहुत ही शीघ्र मुक्ति-कन्याके साथ विवाह होने जा रहा है। मकरध्वजने अबतक जिनराजका नाम नहीं सुना था और मुक्तिकन्यासे भी उसका कोई परिचय नहीं था । वह जिनराज और मुक्तिकन्याका परिचय प्राप्तकर आश्चर्यचकित हुआ । १. नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष ५० अंक ३, ४ १० १२१ । ६४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह मुक्ति कन्याका वर्णन सुनते हो उसपर मुग्ध हो गया और उसने विचार व्यक्त किया कि संग्रामभूमिमें जिनराजको परास्त कर वह स्वयं ही उसके साथ विवाह करेगा। मोहने नीतिकौशलसे उसे अकेले संग्रामभूमिमें उत्तरनेसे रोका। मकरध्वजने मोहकी बात मान ली। किन्तु उसने मोहको आज्ञा दी कि वह जिनराजपर चढ़ाई करने के लिए शीघ्र हो अपनो समस्त सेना तैयार करके ले आये । मकरध्वज की रति और प्रीति नामक दो पत्नियां थीं। उसने रतिको मुक्तिकन्याको मकरध्वजके साथ विवाह करानेके हेतु समझाने को भेजा । मार्ग में मोहकी रतिसे भेंट हुई। मोहने रतिको लोटा दिया और मकरध्वजको बुराभला कहा । मोहकी सम्पत्ति के अनुसार मकरध्वजने राग-द्वेष नामके दूलोको जिनराजके पास भेजा । दूतोंने जिनराजको सभामें जाकर मकरध्वज्ञका संदेश सुनाया। वे कहने लगे कि मकरध्वजका आदेश है कि आप मुक्ति कन्या के साथ विवाह न करें और आप अपने तीनों रत्न महाराज मकरध्वजको भेंट कर दें और उनको अधीनता स्वीकार कर लें। जिनराजने मकरध्वजके प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया। जब राग-द्वेष बढ़-बढ़कर बातें करने लगे, ता संयमने उन्हें चांटा लगाकर उन्हें सभामं अलग कर दिया । संग्रमसे अपमानित होकर राग-द्वेष मकरध्वजके पास आ गये। मकरध्वज जिनेन्द्रके समाचारको सुन कर उत्तेजित हुआ । उसने अन्यायको बुलाकर अपनी सेनाको तैयार करनेका आदेश दिया। जिनराजको सेना संवेगकी अध्यक्षता में तैयार होने लगी । मकरध्वजने बहिरात्माको जिनराजके पास भेजा और क्रोध, द्वेष आदिने वीरतापूर्वक संवेग, निर्वेद के साथ युद्ध किया। जिनराजने शुक्लध्यानरूपी बीरके द्वारा कर्म धनुषको तोड़कर मुक्ति - कन्याको प्रसन्न किया। मकरध्वजको समस्त सेना छिन्न-भिन्न हो गई और मुक्तिश्रीने जिनराजका वरण किया । इस रूपक काव्य में कवि नागदेवने अपनी कल्पनाका सूक्ष्म प्रयोग किया है । इस संदर्भ में कविने मुक्ति कन्याका जैसा हृदयग्राही चित्रण किया है : अन्यत्र मिलना दुष्कर है । अलंकार, रम और भाव संयोजनकी दृष्टिसे भी यह काव्य कम महत् नहीं है। पंडित वामदेव पं० बामदेव मूलसंघके भट्टारक विनयचन्द्रके शिष्य त्रेलोक्यकीर्तिके प्रसि और मुनि लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य थे। पं० वामदेवका कुल मैगम था। नंगम आचार्यतुल्य काव्यन एवं लेखक To : Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगम कुल कायस्थोंका है। इससे स्पष्ट है कि पं० वामदेव कायस्थ थे । वामदेव प्रतिष्ठादि कर्मकाण्डोंके ज्ञाता और जिनभक्तिमें तत्पर थे ।' इन्होंने नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके त्रिलोकसारको देखकर त्रैलोक्यदीपक ग्रंथको रचना की है। इस प्रथम विनामें प्रेरक पुरवाड वंशके कामदेव प्रसिद्ध थे। उनकी पत्नीका नाम नामदेवी था, जिसने राम-लक्ष्मणके समान जोमन और लक्ष्मण नामक दो पुत्र उत्पन्न किये थे । इनमें जोमनका पुत्र नेमिदेव नामका था, जो गुणभूषण और सम्यक्त्वसे विभूपित था । वह बड़ा उदार, न्यायी और दानी था। कामदेवकी प्रार्थनासे ही त्रैलोक्यदीपकको रचना सम्पन्न हुई है। स्थितिकाल पं० वामदेवका स्थितिकाल निश्चितरूपसे नहीं बतलाया जा सकता है । लोक्यदीपक ग्रन्थको एक प्राचीन प्रति वि० सं० १४३६में फिरोजशाह तुगलकाके समय योगिनीपुर (दिल्ली) में लिखी गई मिली है। यह प्रति अतिशयक्षेत्र महावीरजीके शास्त्र-भण्डारमें विद्यमान है, जिससे इस ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० १४२६के बाद नहीं हो सकता है। बहुत संभव है कि पं० बामदेव वि० सं० १४३ के आस-पास जीवित रहे हों। अतएव वामदेवका समय वि० को १५वीं शती है। रचनाएँ पं० वामदेवको दो रचनाएँ 'लोक्यदीपक' और 'भावसंग्रह' उपलब्ध हैं। 'भावसंग्रह' में ७८२ पद्य है। इस ग्रन्थके अन्तमें प्रशस्ति भी दी हुई है । इस प्रशस्तिके आधारगर पं० वामदेवके गुरु मुनि लक्ष्मीचन्द्र थे । 'भावसंग्रह' की रचना देवसेनके प्राकृत भावसंग्रहके आधारपर ही हुई १. भूया व्यजनस्य विश्वहितः श्रीमूलरांधः श्रिय यथाभूद्विनयेन्दुर गुतगुणः गच्छीलदुग्धार्णवः । सच्छिष्योजनि भद्रमति मलस्त्रलोकाकोतिः शशी । येनकान्तमहातग: प्रशमितं स्याद्वादविद्याकरः ॥७७९।। X तच्छिम्यः क्षितिमण्डले विजयते लक्ष्मीन्दुनामा मुनिः ।।७८०।। श्रीमतलार्वज्ञपूजाकरणपरिणतस्तत्वचिन्तारसालो लदमोचन्दांत्रिपद्यमधुकर: श्रीवामदेवः सुधीः । उत्पत्तिर्यस्य जाता शशिविशदकुले नैगमधीविशाले साऽय जीव्यात्प्रकामं जगति रमलसद्भाकशास्त्रप्रणेता ॥७८१|| ६६ : तानार महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीत होती है। यह प्राकृत भावसंग्रहका संस्कृत अनुवाद प्रतीत होता है । यद्यपि वामदेवने स्थान-स्थानपर परिवर्तन, परिवर्द्धन और संशोधन भी किये हैं। पर यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। यह देवसेन द्वारा रचित्त भावसंग्रहका रूपान्तर मात्र है । वामदेवने 'उक्त च' कहकर ग्रन्थान्तरोंके उद्धरण भी प्रस्तुत किये है। गीताके उद्धरण कई स्थलोपर प्राप्त होते हैं। वैदिकपुराणासे भी उद्धरण ग्रहण किये गये हैं । मित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त, नास्तिकवाद, वेनेयकमिथ्यात्व, अज्ञान, केबलि-भुक्ति, स्त्री-मोक्ष, सग्रंथ-मोक्षकी समीक्षाके पश्चात् १४ गुणस्थानोंका स्वरूप और ११ प्रतिमाओंके लक्षण प्रतिपादित किये गये हैं । इज्या, दत्ति, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप आदिका कथन आया है । भावसंग्रहके अतिरिक्त बामदेवके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थ और भी मिलते हैं१. प्रतिष्ठासूक्तिसंग्रह २. तत्त्वार्थसार ३. लोक्यदीपक ४. श्रुतज्ञानोद्यापन ५. त्रिलोकसारपूजा ६. मन्दिरसंस्कारपूजा ५० मेधावी और उनकी रचना मेधावीके गुरुका नाम जिनचन्द्र सूरि था । इन्होंने 'धर्म संग्रह-श्रावकाचार' नामक ग्रंथको रचना हिसार नामक नगरमें प्रारंभ की थी और उसको समाप्ति नागपुर में हुई। उस समय नागपुर पर फिरोजशाहका शासन था। मेधावीने "धर्मसंग्रहश्रावकचार के अन्तमें प्रशस्ति अंकित की है, जिसमें बताया है कि कुन्दकुन्दके आम्नायमें पवित्र गणोंके धारक स्याद्वाविद्याके पारगामी पद्मनन्दि आचार्य हुए। इन पद्मनन्दिके पट्टपर द्रव्य और गुणोंके ज्ञाता शुभचन्द्र मुनिराज हुए। इन शुभचन्द्र मुनिराजके पट्टपर ध्रुतमुनि हुए। इन श्रुतमुनिसे मेघावीने अष्टसहस्री मंथका अध्ययन किया। जिनचन्द्र के शिष्योंमें रत्नकोत्तिका भी नाम आया है। मेधावो श्रावकाचारके अद्वितीय पंडित थे । इन्होंने समन्तभद्ग, वसुनन्दि और आशाधर इन तीनों आचार्योंके श्रावकाचारोंका अध्ययन कर धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना की है। मेधावीने ग्रंथरचनाकालका निर्देश कर अपने समयको सूचना स्वयं दे दी है। बताया हैसपादलक्षे विषयेऽतिसुन्दरे श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् । पेरोजखानो नृपतिः प्रपाति स न्यायेन शौर्येण रिपूनिहन्ति च ।। १८ ।। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ६७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः ___पूर्ण व्यघां ग्रन्थमिमं तु कात्तिके । चन्द्राब्धिवाणैकमितेऽत्र (१५४१) वत्सरे कृष्णे त्रयोदश्यहनि स्वशक्तिसः ।। २१ ।। वि० सं० १५४१ कात्तिक कृष्णा त्रयोदशीके दिन धर्मसंग्रहश्रावकाचारको समाप्ति हुई है। इस प्रकार मेधावीने ग्रंथरचनाका समय सूचित कर अपने समयका निर्देश कर दिया है । अतएव कविका समय पिक की १६वीं शती है । कविका एक ही ग्रन्थ उपलब्ध है-धर्मसंग्रहश्रावकाचार 1 इस श्रावकाचारमें १० अधिकार हैं । प्रथम अधिकारमें श्रेणिक द्वारा गौतम मणधरसे श्रावकाचार सम्बन्धी प्रश्न पूछना और गौतमका उत्तर देना वर्णित है। इस अधिकारमें प्रधानतः राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर तीर्थंकर महावीरके समवशरणका वर्णन आया है और उसका द्वितीय अधिकारमें विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानस्संभ, वीथियों, गोपुर, वप्र, प्राकार, तोरण आदि भी इसी अधिकारमें वर्णित है। तृतीय अधिकारमें श्रेणिक महाराजका समवशरण में पहुँचकर अपने कक्षमें बैठना एवं महावीरकी दिव्यध्वनिका खिरना वर्णित है। चतुर्थ अधिकारमें सम्यग्दर्शनका निरूपण आया है । सम्यग्दर्शनको ही धर्मका मूल बतलाया है। जब तक व्यक्तिको आस्था धर्मोन्मुख नहीं होती तब तक वह अपनी आस्माका उत्थान नहीं कर सकता । असः मेधावीने सम्यग्दर्शनके साथ अष्टमूलगुण, द्वादश प्रतिमाएं, सात तत्व, नव पदार्थ आदिका कथन किया है । इसी प्रसंगमें ३६३ मिथ्यावादियोंकी समीक्षा भी की गई है। चतुर्थ अधिकारका ८१वां पद्य आशाधरके सागारधर्मामतके प्रथम अध्यायके १३वें पद्यसे बिल्कुल प्रभावित है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेधावीने चतुर्थ अध्यायके ७७, ७८ और ७९वें पद्य भी आशाधरके सागारधर्मामतके अध्ययनके पश्चात् ही लिखे हैं । पंचम अधिकारमें दर्शन-प्रतिमाका वर्णन किया गया है और प्रसंगवश मद्य, मांस और मधुके त्याग पर जोर दिया गया है। नवनीत, पंच उदुम्बरफल, अपक्ष्यभक्षण, द्यूतक्रीडाके त्यागका भी निर्देश किया गया है। षष्ठ अधिकारमें पंचाणवतोंका स्वरूप आया है और सप्तममें सात शीलोंका वर्णन किया है। अष्टम अधिकारमें सामायिकादि दश प्रतिमाओंका वर्णन किया गया है । नवम अधिकारमें ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांच समितियोंके स्वरूपवर्णनके पश्चात् नैष्ठिक श्रावकके लिए विधेय कर्तव्योपर प्रकाश डाला गया है । इस अधिकारमें संयम, दान, स्वाध्याय मल्लेखनाका भी वर्णन आया है। दशम अधिकारमें विशेष रूपसे समाधिमरणका कथन किया गया है 1 ६८ : तीर्थकार महाबोर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो साधक अपनी मृत्युके समयको शान्तिपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार मेधावीने धर्मसंग्रहश्रावकागरकी रचना कर श्रावकाचारको संक्षेपमें बतलानेका प्रयास किया है। इस ग्रन्थका प्रकाशन बाबू सूरजभान वकील देवबन्द द्वारा १९१० में हो चुका है। रामचन्द्र मुसुक्षु रामचन्द्र मुमुक्षुने 'पुण्यासव-कथाकोश'को रचना की है। इस ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें बताया गया है कि वे दिव्य मुनि केशवनन्दिके शिष्य थे । प्रशस्तिमें लिखा है "यो भव्याब्बदिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो नानादुःखविधायिकर्मकुभूतो वजायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान् ख्यातः केशवनन्दिदेवतिपः श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ।।१।। शिष्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु त्विा शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पद्यनम्द्यालयाद्वे । वन्द्या वादीभसिंहात् परमयतिपते: सोऽव्यधाद्भव्यहेतो ग्रन्थं पुण्यासवाख्यं गिरिसमितिमिते (५७) दिव्यपद्यैः कथार्थः ।।२।। अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दको वंशपरम्परामें दिव्यबुद्धिके धारक केशवनन्दि नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए । वे भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्यसमान, संघमके परिपालक, कामदेवरूप, हाथोके नष्ट करने में सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वनके समान थे । बड़े बड़े ऋषि और राजा महाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे समस्त विद्याओं में निष्णात थे। उनका भव्य शिष्य समस्त जनोंके हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ। उसने यशस्वी पचनन्दि नामक मुनिके पासमें शब्द और अपशब्दोंको जानकर व्याकरणशास्त्रका अध्ययन करके कथाके अभिप्रायको प्रकट करने धाले ५७ पद्यों द्वारा भव्यजीवोंके निमित्त इस पुण्यास्रव कथा ग्रन्थको रचा है। वे पद्मनन्दि मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कोतिसे विभूषित, वन्दनीय एवं वादीरूपी हाथियोंको परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे । कुन्दकुन्दाचार्यको इस वंशपरम्परामें पद्मनन्दि विरात्रिक हुए । वे देशीयगणमें मुख्य और संघके स्वामी थे। इसके पश्चात् माधवनन्दि पंडित हुए, जो महादेवको उपमाको धारण करते थे। इनसे सिद्धान्तशास्त्रके पारंगत मासोपवासी गुणरत्नोंसे विभूषित, पंडितोंमें प्रधान वसुनन्दि सूरि हुए। वसुनन्दिके शिष्य मोलिनामक गणी हुए। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ६९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये निरन्तर भव्यजीवरूप कमलोंके प्रफुल्लित करने में सूर्य के समान तत्पर थे । ये देवोंके द्वारा वन्दनीय थे । उनके शिष्य मुनिसमूह द्वारा वन्दनीय श्रीनन्दि सूरि हुए । उनकी कीत्ति चन्द्रमा के समान थी। वे ७२ कलाओं में प्रवीण थे । उन्होंने अपने ज्ञानके तेजसे सभी दिशाओंको आलोकित कर दिया था । श्रीनन्दि चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, शैव आदि दर्शनोंके विद्वान् थे । उपर्युक्त प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि केशवनन्दि अच्छे विद्वान् थे और उन्हींके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु रामचंद्र महायशस्वी वादीभसिंह महामुनि पद्मनन्दि से व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था। कुछ विद्वानोंका अभिमत हैं कि प्रशस्तिके अंतिम छः पद्य पीछेसे जोड़े गये हैं । ये प्रशस्ति पद्य ग्रंथका मूल भाग प्रतीत नहीं होते । यह संभव है कि इस प्रशस्ति में उल्लिखित पद्मनन्दि रामचन्द्र के व्याकरणगुरु रहे हों । प्रशस्ति के आधारपर पद्मनन्दि, माधवनन्दि, वसुनन्दि, मोली या मौनी और श्रीनन्द आचार्य हुए हैं। सिद्धान्तशास्त्रके ज्ञाता वसुनन्दि मूलाचारटीकाके रचयिता वसुनन्दि यदि हैं तो इनका समय १२३४ ई० के पूर्व होना चाहिए । रामचन्द्र मुमुक्ष संस्कृत भाषा के प्रौढ़ गद्यकार हैं। उन्होंने संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंकी रचनाओंका पुण्यास्त्रवकथाकोशके रचनेमें उपयोग किया है । कन्नड़ भाषा के अभिज्ञ होनेसे उन्हें दक्षिणका निवासी या प्रवासी माना जा सकता है । रामचन्द्र के इस कथाकोशसे यह स्पष्ट होता है कि रचfraाकी कृति में व्याकरण शैथिल्य है । उनकी शैली और मुहावरोंसे भी यहाँ सिद्ध होता है । स्थितिकाल रामचन्द्र मुमुक्षुने अपने लेखनकाल के सम्बन्धमें कुछ भी उल्लेख नहीं किया है । इनके स्थितिकालका निर्णय ग्रन्थोंके उपयोग के आधारपर ही किया जा सकता है । इन्होंने हरिवंशपुराण महापुराण और वृहद्कयाकांशका उपयोग किया है । हरिवंशपुराणका समय ई० सन् ७८३ महापुराणका समय ईं० सन् ८९७ और वृहदशाकोशका ई० सन् ९३१-३२ है | अतएव रामचन्द्रका समय ई० सन् की १०वीं शताब्दी के पश्चात् है । रामचन्दकी कृति के आधार से कन्नड़ कवि नागराजने ई० सन् १३३१ में कन्नड़ की रचना की है। अतएव १३३१ के पूर्व इनका समय संभाव्य है । यदि प्रशस्ति में उल्लिखित यमुर्नान्द मूलाचारकी टीका के रचयिता सिद्ध हो जायें, तो रामचन्द्रका समय १३वीं शती के मध्यका भाग होगा । ७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा 1 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात यह है कि रत्नकरण्डके टीकाकार प्रभाचन्द्र ने रामचन्द्रको कथाएँ इस टीका में ग्रहण की हैं तो रामचन्द्र प्रभाचन्द्रसे भी पूर्व सिद्ध होंगे । हमारा अनुमान है कि पुण्यास्त्रवकथाकोशके रचयिता केशवनन्दिके शिष्य रामचन्द्र आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ पूर्ववर्ती हैं । रचनाएं रामचन्द्र मुमुक्षुकी पुण्यास व कथा कोश के साथ शान्तिनाथचरित कृति भी बतलायी जाती है । पद्मनन्दिके शिष्य रामचन्द्र द्वारा रचित धर्मपरीक्षा ग्रन्थ भी संभव है | पुण्यात्रव ४५०० श्लोकोंमें रचित कथा-ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका सारांश कविने ५७ पद्योंमें निबद्ध किया है । आठ कथायें पूजाके फलसे; नी कथाएँ पंचनमस्कारके फलसे; ७ कथायें श्रुतोपयोग के फलसे; ७ कथाएं शीलके फलसे सम्बद्ध; ७ कथाएँ उपवासके फलसे और १५ कथाएँ दानके फल से सम्बद्ध हैं। शैली वैदर्भी है, जिसे पूजा, दर्शन, स्वाध्याय आदिके फलोंको कथाओं के माध्यम द्वारा व्यक्त किया गया है । वादिचन्द्र बलात्कारगणकी सूरत- शाखाके भट्टारकोंमें कवि वादिचन्द्रका नाम उपलब्ध होता है। इनके गुरु प्रभाचन्द्र और दादागुरु ज्ञानभूषण थे। इनकी जाति हुंबड़ बतायो गई है। सूरत शाखा के भट्टारकपट्टपर पद्मनन्द देवेन्द्र कीति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और वादिचन्द्रके नाम उपलब्ध होते हैं । वादिचन्द्र के पट्टपर महीचन्द्र आसीन हुए थे । वादिचन्द्र काव्यप्रतिभा की दृष्टिसे अन्य भट्टारकका अपेक्षा आगे हैं । उनकी भाषा प्रौढ़ है और उसमें भावगांभीर्य पाया जाता है। ग्रंथरचना करने के साथ उन्होंने मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा भी करवाई थी । धर्म और साहित्य के प्रचार में उनका बहुमूल्य योग रहा। मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके विद्वानोंमें इनकी गणना की गई है । स्थितिकाल भट्टारक वादिचन्द्र सूरि के समय में वि० सं० १६३७ ( ई० सन् १५८०) में उपाध्याय धर्मकीत्तिने कोदादा में श्रीपालचरितकी प्रति लिखी है । बताया है "संवत् १६३७ वर्षे वैशाख वदि ११ सोमे अदेह श्रीकोदादाशुभ स्थाने श्री शीतलनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे भ० श्रीज्ञानभूषणदेवाः तत्पठ्ठे भ० श्री आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक ७२ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीवादिचन्द्रः तेषां मध्ये उपाध्याय धर्मकीर्ति स्वकर्मक्षयार्थ लेखि वि० सं० १६४० (६० सन् १५८३ ) में वाल्मीकिनगरमें पार्श्वपुराण की रचना; वि० ० सं० १६५१ ( ई० सन् १५९४ ) में श्रीपाल - आख्यान एवं वि० सं० १६५७ ( ई० सन् १६००) में अंकलेश्वर में यशोधरचरितका प्रणयन कवि द्वारा हुआ है। वादिचन्द्र ने ज्ञानसूर्योदयनाटककी रचना माघ शुक्ला अष्टमी वि० सं० १६४८ ( ई० सन् १५९१ ) में मधूकनगर गुजरात में समाप्त की थी । " कविकी एक अन्य रचना पवनदूतनामक खण्डकाव्य भी उपलब्ध है । पर इस काव्य में कविने रचनाकालका निर्देश नहीं किया है। वादिचन्द्रका समय वि० सं० १६३७ - १६६४ संभव है । रचनाएँ कवि वादिचन्द्र खण्डकाव्य, नाटक, पुराण एवं गीतिकाव्योंका प्रणयन किया है । इनके द्वारा विति निम्नलिखित जान है :--- १. पार्श्वपुराण - इस पौराणिक ग्रन्थ में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथका चरित वर्णित है । इसका परिमाण १५८० अनुष्टुप् श्लोक है । २. श्रीपाल - आख्यान - गुजरातीमिश्रित हिन्दी में यह गीतिकाव्य लिखा गया है । भाषाका नमूना निम्न प्रकार है प्रगट पाट त अनुक्रमे मानु ज्ञानभूषण ज्ञानवंतजी । तस पद कमल भ्रमर अविचल जस प्रभाचन्द्र जयवंतजी | जगमोहन पाटे उदयो वादीचन्द्र गुणालजी । नवरसगीते जेणे गायाँ चक्रवति श्रीपालजी ॥ ३. सुभगसुलोचनाचरित - यह कथात्मक काव्य है। इसमें ९ परिच्छेद | कविने अन्तिम प्रशस्तिमें उक्त काव्यकी विशेषतापर प्रकाश डालते हुए लिखा है - "विहाय पद- काठिन्यं सुगर्भवंचनोत्करैः । चकार चरितं साध्वा वादिचन्द्रोऽल्पमेधसा ||" १. भट्टारक-सम्प्रदाय, शोलापूर, लेखांक ४९१ । २. शून्यादे रसाब्ज्ञांके वर्षे पक्षं समुज्ज्वले | कार्तिके मासि पंचम्यां वाल्मीके नगरे मुदा । पादपुराण लेखांक -४९२ । ३ "संवत सोल एकावनावर्षे कीधो ये परबंघजी ।" - श्रीपाल - आख्यान लेखांक ४९४ | ४. "सप्तपंच राजांक वकारि सुशास्त्रकम् " -- यशोधरचरित, लेखांक ४९५ । ५. "वसुर्वेद रसाब्जां के वर्पे माघे सिताष्टमी दिवसे"-- ज्ञानसूर्योदयनाटक, लेखांक ४९३ । ७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि कविने समस्यन्त कठोर पदोंको छोड़ सरल और लघु असमस्यन्त पदोंका चयन इस काव्यमें किया है। ४. भानसूर्योदय नाटक-इस नाटकके पात्र भावात्मक हैं। सूत्रधार और नटीके बीच सम्पन्न हुए वार्तालाप काटा गया है कि सागमत' मान्स है ! किसी कर्मके प्रभावसे व्यक्ति भ्रान्त होते हैं और पुनः शान्ति प्राप्त करते हैं। चैतन्य-आत्माकी सुमति और कुमति नामक दो पस्नियोंसे पृथक्-पृथक् दो कुल उत्पन्न हुए हैं। सुमतिके पुत्र विवेक, प्रबोध, सन्तोष और शील हैं तथा कमतिके मोह. मान, मार, क्रोध और लोभ हैं। कुमतिको प्रेरणासे आत्माने मोह और काम नामक पुत्रोंको राज्य दे दिया। विवेकको यह अच्छा न लगा। अतएव वह ध्यान आदिको सहायतासे मोह और कामको वश करता है तथा मक्तिलाम करता है। __... पवनदत्त इसमें १०१ पद्य हैं ! यह मेघदूतको शैलीमें लिखा गया एक स्वतंत्र काव्य है । इसमें बताया है कि उज्जयिनी में विजयनरेश नामक राजा रहता था। उसकी पत्नीका नाम तारा था । अपनी रानीसे बहुत प्रेम करता था । एक दिन अशनिवेग नामका एक विद्याधर ताराको हरकर ले गया । रानोके वियोगसे राजा दुःखी रहने लगा। विरहावस्था में वह पवनको दूस बनाकर रानीके पास भेजनेका निश्चय करता है। अपनी विरहावस्थाका चित्रण करनेके अनन्तर पबनको वह मार्ग बतलाता है । इस सन्दर्भ में वन, मदी, पर्वत, नगर और नगरोंमें निवास करनेवाली स्त्रियों तथा उनकी विलासमयी चेष्टाओंका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। पवन राजाका सन्देश लेकर अशनिवेगके नगरमें पहुंचता और अशनिवेगके महल में जाकर ताराको उसके प्रियका सन्देश सुनाता है 1 तदनन्तर अशनिवेगकी सभामें जाकर उसे ताराके बापस दे देनेका परामर्श देता है। अशनिवेग विजयनरेशको युद्धको धमकी देता; पर उसको माता उसे युद्ध न करनेका परामर्श देती है। और ताराको पवनके हाथ सौंप देती है । पवन ताराको लेकर वापस आ जाता है । यह काश्य मन्दाक्रान्ता छन्दोंमें लिखा गया है। भाषा सरल, सरस और प्रसादगुणमय है। ऋतुओंका चित्रण काव्यात्मक शैलीमें किया गया है। ताराके शीलकी अभिव्यञ्जना बहुत ही सुन्दर हुई है । ६. पाण्डवपुराण-इसमें पाण्डवोंका वृत्तान्त वर्णित है। ७. यशोधरचरित-महाराज यशोधरको लोकप्रिय कथा इसमें दी है। ८. होलिकाचरित-एक सरस चरितकाव्य है । माघार्यतुरुप काम्पकार एवं लेखक : ७३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रतिभा कवि वादिचन्द्रने अपनी रचनाशैली द्वारा लोकरुचिको तो परिस्कृत किया हा है, कोमल पदावली एवं भाषाका व्यवहार कर नई उद्भावना प्रसूत को हैं । इनके साहित्यके प्रधान तीन गुण है-ललित पद, सुकुमार भाव एव अविकटाक्षर-बन्ध । कविकी एक अन्य विशेषता रूपकात्मकताकी भी है। भावात्मक पदार्थोंकाम, मोह, विवेक. सुमति, कुमति आदिका प्रयोग स्थूलपात्रके रूप में चिहित है । अतः प्रलोक काव्य लिखनेमें भो कवि किसीसे पीछे नहीं है। राजा पवनस प्रार्थना करता हुआ कहता है-- "क्षित्यां नोरे हुत भुजि परव्याम्नि कालं विशाले त्व लोकानां प्रथममकथि प्राणसंत्राणतत्त्वम् । तस्माद्वातीघरचलगते तान्वियामे हि नार्याः, स्यान वान्तविपुलकरुणः सत्त्वरक्षानपेक्षः ॥'-पवनदुत । पद्य ३ हे पवन ! हर समय प्राणकी रक्षा करनेवाले पञ्चभूतोंमें-पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और कालमें तुम्हारी गणना प्रधानरूपसे की जाती है | अतएव मेरे वियोगमं जो मेरी प्रियाके प्राण निकलनेकी तैयारी कर रहे हैं उन्हें तुम जाकर रोक दो। अतः जीवके हृदयमें दयाका भाव उमड़ा रहता है वे प्राणियोंकी रक्षासे कदापि विमुख नहीं होते । पबनका महत्त्व अत्तलाते हुए राजा पुनः कहता है"एते वृक्षाः सति नवघनेऽप्यत्र सर्वत्र भूमी बोभूयन्ते न हि बहुफलास्त्वां विनेति प्रसिद्धिः । तस्मात्तांस्त्वं घनफलधनान्संप्रयच्छन्प्रकर्याः प्रायः प्राप्ताः पवनमतुलां पुष्टितामानयन्ति ।।"-पवनदूत ४ देखो समस्त संसारमें तुम्हारे विषयमें यह प्रसिद्धि है कि नवीन वर्षाके होनेपर भी वृक्ष तुम्हारे बिना अधिक नहीं फलते 1 अतः तुम जाते समय इस बातकी याद रखना कि तुम्हें मार्ग में जो-जो वृक्ष मिलें उन्हें खूब फलयुक्त बनाते हुए जाना; क्योंकि पवनको प्राप्त कर प्रायः सभी पुष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार कविने विरही नायक द्वारा पवनसे विभिन्न प्रकारकी बातें कराई हैं । संक्षेपमें कवि वादिचन्द्रको अपनी रचनाओंके प्रणयनमें पर्याप्त सफलता मिली है। ७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोडुय्य कवि दोड्डय्यने 'भुजबलिचरितम्' नामक एक ऐतिहासिक खण्डकाव्यको रचना की है । ये आत्रेय गोत्रीय विप्रोत्तम और जैन धर्मावलम्बी थे । ये पिरियपट्टणकै निवासी करणिकतिलक देवप्यके पुत्र थे | इनके गुरुका नाम पंडित मुनि था । कविने अपना परिचय देते हुए हिस्टा है.-- आदिब्रह्मविनिर्मितामलमहावंशाब्धिचन्द्रायमा नायोद्भवविप्रगोत्रतिलकः श्रीजनविप्रोत्तमः । दोड्ड ट्यः सुगुणाकरोऽस्ति पिरिराजाख्यानसत्पत्तने, तेनासी जिनगोम्मटेशचरितं भक्त्या मुदा निर्मितम् || स्थितिकाल थी पं० के० भुजबलि शास्त्रीने कविका समय १६वीं शताब्दी माना है । भाषा और शैलीकी दुष्टिसे भी इस कविका समय १६वीं शतीके आसपास प्रतीत होता है। रचना और काव्यप्रतिभा कविकी एक ही रचना 'भुजबलिचरितम्' उपलब्ध है । यह रचना जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १०, किरण २ में प्रकाशित है । “भुजबलिचरित'का नाम 'भुजबलिशतकम्' भी है। इस काव्यमें मैसूर राज्यान्तर्गत श्रवणबेलगोलस्थ प्रसिद्ध अलौकिक एवं दिव्य गोम्मटस्वामीको मूर्तिका इतिहास वर्णित है । कविने चरित आरम्भ करते ही रूपक-अलंकार द्वारा प्रशस्त भुजबालचरितको प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा की है। श्रीमोक्षलक्ष्मीमुखपद्मसूर्य नाभेयपुत्रं वरदोबलीशम् । नत्वादिकाम भरतानुजातं तस्य प्रशस्तां सुकथां प्रवक्ष्ये ।। १ ।। कविने प्रस्तुत पद्यमें नाभेयपुत्र-भुजबलिको मोक्षलक्ष्मी मुस्वपक्षको विकसित करनेवाला सूर्य कहा है | इस सन्दर्भ में उपमेय और उपमानके साधम्यका पूरा विस्तार पाया जाता है | भाभेयपुत्रमें सूर्यं साधर्म्य न होकर ताप्य बन गया है । अतः यहाँ ताद्प्यप्रतीतिजन्य चमत्कार पाया जाता है । कतिपय पद्योंको पढ़नेसे कालिदासकी रचनाओंको स्मृति हो आती है। कुमारसम्भवके "अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा" १ का स्पष्ट प्रभाव निम्नलिखित पचपर वर्तमान है आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदुत्तरस्यां दिशि पौदनाख्यापुरी विभाति त्रिदशाधिपस्य । पुरप्रभास्वत्प्रतिबिम्बितादर्शमेव जेनक्षितिमण्डलेऽस्मिन् ||१६|| कवि गोम्मटेशकी भूतिको कामधेनु, चिन्तामणि, कल्पवृक्ष आदि उपमानोंसे तुलना करता हुआ उसका वैशिष्ट्य निरूपित करता है - अकृत्रिमात्प्रतिमापि कायोत्सर्गेण भातीव सुकामधेनुः । चिन्तामणि: कल्पकुंजः पुमानाकृति विधत्ते जिनविम्बमेतत् ॥ २१॥ कविकी भाषा प्रौढ है। एक-एक शब्द चुन-चुनकर रखा गया है। गोम्मटेशके मस्तकाभिषेकका वर्णन करता हुआ कवि कहता है अष्टाधिक्यसहस्र कुम्भनिभूतैः सन्मन्त्रपूतात्मकैः कर्पूरोत्तमकुंकुमादिविलसद्गंधच्छटामिश्रितैः गंगाद्युद्धजलै रशेषकलिलोत्सन्तापविच्छेदके: श्रीमद्दोव लिमस्तकाभिषवणं चक्रे नृपाग्रेसरः ॥४४॥ अभिषेक में प्रयुक्त जलको विशेषता और पवित्रताका मूर्तिमान चित्रण करता हुआ कवि कहता है--- पीयूष वत्साधुकरैरनिद्येश्चोच्चोडूनैः सारत रैजलौघैः । श्री गुम्मटाधीश्वरमस्तकाये स्नानं चकार क्षितिपाग्रगण्यः ॥४५॥ कविने भावव्यञ्जनाको स्पष्ट करनेके लिए रूपक अलंकारको अनेक पद्योंमें सुन्दर योजना की है। हेमसेन मुनिको कुन्दकुन्दवंशरूपी समुद्रकी समृद्धि के लिए चन्द्रमा, देशीयगणरूपी आकाशके लिए सूर्य, वक्रगच्छके लिए हर्म्यशेखर एवं नन्दिसंघरूपी कमलवन के लिये राजहंस कहा है कुन्दकुन्द वंशवार्धिपूर्णचन्द्र चारुदे -- I शीगणसूर्यवगच्छम्यंशेखर । भूतले त्वं जयात्र हेमसेनपण्डितार्य सम्मुने ||१२|| नन्दिसंघपद्मषण्ड राजहंस राजभल्ल राजमल्लके जीवन-परिचय के सम्बन्धमें लाटीसंहिता के अन्तमें प्रशस्ति उपलब्ध है। इस प्रशस्तिसे यद्यपि सम्पूर्ण तथ्य सामने नहीं आते — केवल उससे निम्नलिखित परिचय ही प्राप्त होता है एतेषामस्ति मध्ये गुहनुपरुचिमान् फामनः संघनाथ - स्तेनोच्चैः कारितेयं सदनसमुचिता संहिता नाम लाटो | ७६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयोऽर्थं फामनीयैः प्रमुदितमनसा दानमानासनाद्यैः । स्वोपज्ञा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हेमचन्द्र ||३८|| - लाटी संहिता ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति, पद्य ३८ इस पद्यसे ग्रन्थकर्ता सम्बन्ध में इतना ही अवगत होता है कि वे हेमचन्द्रकी आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की थी। यहाँ जिन हेमचन्द्रका निर्देश आया है वे काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र हैं, जो माथुरगच्छपुष्करगणान्वयी भट्टारक कुमारसेन के पट्टशिष्य तथा पद्मनन्दि भट्टारकके पट्टगुरु थे, जिनकी कविने लाटीसहिता के प्रथमसर्ग में बहुत प्रशंसा की है। बताया है। कि वे भट्टारकोंके राजा थे । काव्यसंघरूपी आकाशमं मिथ्यायकारको दूर करनेवाले सूर्य थे और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दूसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे । इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्र की आम्नायमें ताल्हू विद्वान्को भी सूचित किया गया है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल्ल काष्ठासंधी विद्वान् थे । इन्होंने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिष्य न लिखकर आम्नायी बसाया है । और फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिता के लिखने को सूचना दो हैं | इससे यह स्पष्ट है कि राजमल्ल मुनि नहीं थे । वे गृहस्थाचायें या ब्रह्मचारी रहे होंगे । राजमल्लका काव्य अध्यात्मशास्त्र, प्रथमानुयोग और चरणानुयोगपर आवृत है । 'जम्बूस्वामी चरित' में कविने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि में पदमें तो सबसे छोटा हूँ ही, वय और ज्ञान आदि गुणोंमें भी सबसे छोटा हूँ 'सर्वेभ्योऽपि लघीयांश्व केवलं न क्रमादिह । वयसोऽपि लघुर्बुद्धा गुणैर्ज्ञानादिभिस्तथा ॥ १॥ १३४ ॥ ।' -- जम्बूस्वामोचरित १११२४| स्थितिकाल कवि राजमल्लने लाटी संहिताकी समाप्ति वि० सं० १६४१ में आश्विन दशमी रविवार के दिन को है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है (श्री) नृपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणते सहैकचत्वारिंशद्धि रब्दानां सति । शतषोडश ||२|| छाचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्रापि चाश्विनोमासे सिपक्षं शुभान्विते । दशम्यां च दशरथे शोभने रविवासरे || ३ || जम्बूस्वामी चरित के रचनाकालका भी निर्देश मिलता है। यह ग्रन्थ वि० सं० १६३२ चैत्र कृष्णा अष्टमी पुनर्वसु नक्षत्र में लिखा गया है। इस काव्य के आरम्भ में बताया गया है कि अगलपुर (आगरा ) में वादशाह अकबरका राज्य था | कविका अकबर के प्रति जजिया कर और मद्यकी बन्दी करनेके कारण आदर भाव था । इस काव्यको अग्रवालजाति में उत्पन्न गगंगोत्री साहू टोडरके लिए रचा है । ये साहु टोडर अत्यन्त उदार, परोपकारी, दानशील और विनयादि गुणोंसे सम्पन्न थे । कविने इस संदर्भ में साहु टोडरके परिवारका पूरा परिचय दिया है। उन्होंने मथुराकी यात्रा की थी और वहाँ जम्बूस्वामो क्षेत्रपर अपार धनव्यय करके ५०१ स्तूपोंकी मरम्मत तथा १२ स्तूपों का जीर्णोद्धार कराया था । इन्हींकी प्रार्थनासे राजमल्लने आगरा में निवास करते हुए जम्बूस्वामीचरितको रचना की है। अतएव संक्षेपमें कवि राजमल्लका समय विक्रमकी १७वीं शती है | हमारा अनुमान है कि पञ्चाध्यायीकी रचना कविने लाटीसंहिताके पश्चात् वि० सं० १६५० के लगभग की होगी । श्रो जुगलकिशोर मुख्तार जीने लिखा है - " पञ्चाध्यायीका लिखा जाना लाटीसंहिताके बाद प्रारंभ हुआ है | अथवा पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पछेि, इसमें सन्देह नहीं कि वह लाटीसंहिता के बाद प्रकाशमें आयी है। और उस वक्त जनता के सामने रखी गई है जबकि कवि महोदयकी यह लोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी। यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिक या प्रथकर्त्ता के नामादिकी कोई योजना नहीं हो सकी और वह निर्माणाधीन स्थिति में ही जनताको उपलब्ध हुई है ।" अतएव यह मानना पड़ता है कि पञ्चाध्यायो कवि राजमल्लकी अंतिम रचना है और यह अपूर्ण है 1 रचनाएँ कवि राजमल्लको निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती हैं१. लाटीसंहिता २. जम्बूस्वामीचरित ३. अस्थात्मकलमार्त्तण्ड ४. पञ्चाध्यायी ५. पिङ्गलशास्त्र १. श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार, वीर वर्ष ३ अंक १२-१३ । ७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामी चरित - इस चरितकाव्य में पुण्यपुरुष जम्बूस्वामीकी कथा वर्णित है । १३ सर्ग हैं और २४०० पद्य । कथामस्ववर्णन में आगरा का बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है । इस ग्रन्थको रचना आगरामं ही सम्पन्न हुई है । इस काव्यको कथावस्तुको दो भागोंमें विभक्त कर सकते है - पूर्वभव और वर्तमान जन्म । पूर्वभवावली में भावदेव और भवदेवके जोवनवृत्तोंका अंकन है । कविने विद्यच्चरचोरका आख्यान भी वर्णित किया है । आरभके चार परिच्छेदो में वर्णित सभी आख्यान पूर्वभवावलीसे सम्बन्धित हैं । पञ्चम परिच्छेद से जम्बूस्वामीका इतिवृत्त आरंभ होता है । जम्बूकुमारके पिताका नाम अर्हदास था । जम्बूकुमार बड़े ही पराक्रमशाली और वीर थे। इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथीको वश किया, जिससे प्रभावित होकर चार श्रीमन्त सेठोंने अपनी कन्याओं का विवाह उनके साथ कर दिया। जम्बूकुमार एक मुनिका उपदेश सुन विरक्त हो गये और वे दीक्षा लेनेका विचार करने लगे। चारों स्त्रियोंने अपने मधुर हाव-भावों द्वारा कुमारको विषयभोगोंके लिए आकर्षित करना चाहा पर वे मेरुके समान अडिग रहे । नवविवाहिताओंका कुमारके साथ नानाप्रकारसे रोचक वार्तालाप हुआ और उन्होंने कुमारको अपने वशमें करने के लिए पूरा प्रयास किया पर अन्त में वे कुमारको अपने रागमें आबद्ध न कर सकीं। जम्बूकुमारने जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरण किया तथा केवलज्ञान और निर्वाण पाया । 1 कविने कथावस्तुको सरस बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। युद्धक्षेत्रका वर्धन करता हुआ कवि वोरता और रौद्रताका मूर्तरूप ही उपस्थित कर देता है"प्रस्फुरत्स्फुरदस्रौघा भटाः सदशिताः परे । औत्पातिका इवानीला सोल्का मेघाः समुत्विताः ॥ करवा कराला करे कृत्वाऽभयोश्वरः । पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वसौन्दयं परिजशिवान् ॥ कराएं विभूतं खक्ष्मं तुलयत्कोऽप्यभाद्भटः । प्रभिमिसुरिवानेन स्वामीसत्कारमोरवन् ॥" जम्बूस्वामीचरित, अ१०४-१०६ कविने इस संदर्भ में दुष्पविम्बी योजना को है। समरणें मॉस्चर अस्त्र धारण किये हुए बोटा इस प्रकारके दिखलाई पड़ते हैं जिसप्रकार उत्पातकालमें नीले मेघ उकासे परिपूर्ण परिलक्षित होते है । यह निमित्तकामि है कि उत्पातकालमें टूटकर पढ़नेवाली उल्काएँ बनियमित रूपसे झटित यति करती हैं और वे नीले मेषोंके साथ मिलकर एक नया रूप प्रस्तुत करती हैं । कविने इसी बिम्बको अपने मान्नसमें ग्रहणकर दीप्तिमान अस्त्रोंसे परिपूर्ण योद्धाओंकी आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ७९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभाका चित्रण किया है। द्वितीय पामें हाके अग्रभागमें धारण किये गये करवाल में योद्धाओं को रोषपूर्ण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है । इस कल्पनाको भी कविने चमत्कृत रूप में ग्रहण किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामीचरित में विम्बों, प्रतीकों, अलंकारों और रसभावोंकी सुन्दर योजना की गई है । एकादश सगमें सूक्तियोंका सुन्दर समावेश हुआ है । लाटी संहिता -लाटी संहिता की रचना कविने वैराट नगर के जिनालय में की है । यह नगर जयपुरसे ४० मीलकी दूरी पर स्थित है। किसी समय यह विराट मत्स्यदेशको राजधानी था। इस नगरकी समृद्धि इतनी अधिक थी कि यहाँ कोई दोन-दरिद्री दिखाई नहीं पड़ता । अकबर बादशाहका उस समय राज्य था । और वहो इस नगरका स्वामी तथा भोक्ता था। जिस जिनालय में बैठकर कविने इस ग्रन्थको रचना की है वह साधु दूदाके ज्येष्ठ पुत्र और फामन के बड़े भाई ' न्योता'ने निर्माण कराया था । इस संहिताग्रंथ की रचना करनेकी प्रेरणा देने वाले साहू फामनके वंशका विस्तार सहित वर्णन है । और उससे फामन के समस्त परिवारका परिचय प्राप्त हो जाता है। साथ ही यह भो मालूम होता है कि वे लोग बहुत वैभवशाली और प्रभावशाली थे। इनकी पूर्वनिवासभूमि 'डीकनि' नामको नगरी थो । और ये काष्ठासंघी भट्टारकोंकी उस गद्दीको मानते थे, जिसपर क्रमशः कुमारसेन, हेमचन्द्र, पद्मनन्दि, यशः कीर्ति और क्षेमकीति नामके भट्टारक प्रतिष्ठित हुए थे । क्ष ेमकोतिभट्टारक उस समय वर्तमान थे और उनके उपदेश तथा आदेशसे उक्त जिनालय में कितने ही चित्रोंकी रचना हुई थी । इस प्रकार कवि राजमल्लने वेराटनगर, अकबर बादशाह काष्ठासंघो भट्टारक बश, फामन कुटुम्ब, फामन एवं वैराट जिनालयका गुणगान किया है। लाटासंहितामें श्रावकाचारका वर्णन है और इसे ७ सर्गों में विभक्त किया गया है । प्रथम सर्ग में ८७ पद्य हैं और कथा मुखभाग वर्णित है । द्वितीय सर्ग में अष्टमूलगुणका पालन और सहाव्यसनत्यागका वर्णन आया है । इस सर्ग में २१९ पच है। तृतीय सर्ग में सम्यग्दर्शनका सामान्यलक्षण वर्णित है और चतुर्थ सर्ग में सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप निरूपित है और इसमें ३२२ पद्य हैं । पञ्चम सर्ग में २७३ पद्मों में सहसा के त्यागरूप प्रथमाणुञ्जतका वर्णन किया गया है। षष्ट सगं में सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रतका २०६ पद्योंमें कथन किया गया है। इसी अध्यायमें गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का भी अतिचार सहित वर्णन आया है । सप्तम अध्याय में सामायिक आदि प्रतिमाओंका वर्णन आया है । अन्तमें ४० पद्य प्रमाण ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति दी गई है । पर इस प्रशस्ति में कविका परिचय अंकित नहीं है । ८०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा V Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्यात्मकमलमासंग'-छोटी-सी रचना है और उसमें अध्यात्म-विषयका कथन आया है। अध्यात्मशास्त्रका अर्थ है परोपाधिके बिना मूलवस्तुका निर्देश करना अध्यात्मरूपी कमलको विकसित करनेके लिए यह कृति सर्यके समान है। इसपर 'समयसार' आदि ग्रंथोंका प्रभाव है। इस ग्रंथमें ४ अध्याय और १०१ का है। प्रथम घणय किया और बडार दोनों प्रकारके रत्नत्रयका, दूसरे अध्याय में जीवादि सप्ततत्वोंके प्रसंगसे, द्रव्य, गुण और पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और नौव्यका; तीसरे अध्यायमें जीवादि छः द्रव्योंका और चौथे अध्यायमें आस्रव आदि शेष तत्त्वोंका निरूपण किया है। पिङ्गलशास्त्र-इसमें छन्दशास्त्रके नियम, छन्दोंके लक्षण और उनके उदाहरण आये हैं। इसकी रचना भूपाल भारमल्लके निमित्तसे हुई है। ये श्रीपाल जातिके प्रमुखपुरुष वणिकसंघके अधिपति और नागौरी तपागच्छ आम्नायके थे । इनके समय में इस पट्ट पर हर्षकोत्ति अधिष्ठित थे। इसकी रचना नागौरमें हई है । ऐसा अनुमान होता है कि कवि आगरासे नागौर चला गया था। भूपाल भारमल्ल भी वहींके रहनेवाले थे। ____पश्चाध्यायी–यह ग्रंथ अपूर्ण है। फिर भी जैनसिद्धान्तको हृदयंगत करने. के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। जिस प्रकार अन्य ग्रंथोंके निर्माणका हेतु है उसी प्रकार पञ्चाध्यायीके निर्माणका भी कोई हेतु होना चाहिए । इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रंथकी रचना कविने दीर्घकालीन अभ्यास, मनन और अनुभवके बाद की है । मंगलाचरण प्रवचनसारके आधारपर किया गया है । इस ग्रंथके दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं। प्रथम अध्यायमें सत्ताका स्वरूप, द्रव्यके अंशविभाग, द्रव्य और गुणोंका विचार, प्रत्येक द्रव्यमें संभव गुणोंका कथन, अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्यायोंका विशेष वर्णन, गुण, गुणांश, द्रव्य और द्रव्यांशका निरूपण भी पाया जाता है । द्रष्यके विविध लक्षणोंका समन्वय करने के पश्चात् गुण, गुणोंका नित्यत्व, मेद, पर्याय, अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुविचार, सत् पदार्थ, नयोंके भेद, नयाभास, जीवनव्य और उसके साथ संलग्न कर्मसंस्कारका भी कथन किया गया। दूसरे अध्यायमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुसिद्धिके पश्चात् अमूर्त पदार्थों की सिद्धि और द्रव्योंकी क्रियावती और भाववत्तो शक्तियोंका भी कथन आया है । स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्तियोंके विचारके पश्चात् जीवतत्त्व, चेतना, ज्ञानीका स्वरूप, ज्ञानीके चिह्न, सम्यग्दर्शनका लक्षण, उसके प्रशमादि भेद, सप्तमय, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, तीन मूढ़ता आदिका भी निरूपण आया है। इसी अध्यायमें औदयिकमावोंका स्वरूप, ज्ञानावरणादि कोका आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार, मिथ्यात्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । जैन दर्शनको प्रमुख बातोंकी जानकारी इस अकेले ग्रंथसे ही संभव है। इस प्रकार राजमल्लने उपयोगी कृतियोंका निर्माण कर श्रुतपरम्पराके विकासमें योग दिया है । काव्य प्रतिभाकी दृष्टि से भी राजमल्ल कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। पग्रसुन्दर वि० सं०की १७वीं शसी में पद्मसुन्दर नामके अच्छे संस्कृत-कवि हुए हैं। पं० पद्मसुन्दर आनन्दमेरुके प्रशिष्य और पं० पद्ममेरुके शिष्य थे । कविने स्वयं अपनेको और अपने मुरुको पंडित लिम्बा है। इससे यह अनुमान होता है कि पं० पासुन्दर गद्दीघर भट्टारकके पाण्डेय या पंडित शिष्य रहे होंगे । भट्टारकोंको गधियों पर कुछ पंडित शिष्य रहते थे, जो अपने गुरु भट्टारकको मृत्युके पश्चात् मट्टारकपद सो प्राप्त नहीं करते थे। पर वे स्वयं अपनी पंडिसपरम्परा चलाने रूपये । बोर उनोसयास् उनके लिय-प्रतिक्षिय पंडित कहलाते थे। मालुम्बरले 'भविन्यसपरित' की रचना की है । और इस ग्रंथके मास. में जो प्रशस्ति अंकित की गई है उसमें काष्ठासंघ, माथुरान्वय और पुष्करगमके भट्टारकों की परम्परा भी मंकित है । कविके आश्रयदाता और ग्रंथ रखनेकी प्रेरणा करनेवाले साहू रावल इन्हीं भट्टारकोंको आम्नायके थे। ग्रंग रचोकी प्रेरणा सहें परस्थावर' में उस समयके प्रसिद्ध पनी साहू राबमल्लको प्रार्थनाले प्राप्त हुई थी। यह 'चरस्थावर' मुजफ्फरनगर जिलेका बतं. भान 'चरथावल' नान पड़ता है। साहू रायमाल गोयलगोत्रीय अग्रवाल थे। इनके पुर्नज छाजू चौधरी देशविसमें शिल्पास इनके पांच पुत्र हुए, जिनमें एक नरसिंह नामका भी पा । सीके रोकार राबवल्ल हुए थे । रायमल्लकी दो पत्नियां थीं। लने प्रवापरली मोरन्द्र नामक पुष गोर भीमाहोते उदयसिंह, पति और जननामक तीन पुत्र हुए। पीतालि, काति, मृमभान, भानुमति और कुमारन कारकों पीलिममापली आयी है। पारोमास या विपत की प्रतिलिपि को गई है। ___८२ : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिका पं० पद्मसुन्दरने अपने प्रभ्थोंमें रचनाकालका अंकन किया है । अतः इनके स्थितिकालके सम्बन्धमें जानकारी प्राप्त करना कठिन नहीं है । प्रशस्तिके अनुसार भविष्यदत्तचरितका रचनाकाल कार्तिक शुक्ला पंचमी वि० सं० १६१४ और रायमल्लाभ्युदयका रचनाकाल ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी वि० सं० १६१५ है । अतएव पं० पद्मसुन्दरका समय वि० सं० की १७वीं शती निश्चित है । चना पं० पद्मसुन्दरकी दो ही रचनाएं उपलब्ध हैं-- भविष्यदत्तवरित और राथमल्लाभ्युदयमहाकाव्य । भविष्यदत्तचरितमें पुण्यपुरुष भविष्यदत्तकी कथा अंकित है। श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीको सूचनाके अनुसार फाल्गुन शुक्ला सप्तमी वि० सं० १६१५ की लिखित भविष्यदत्तचरितकी अपूर्ण प्रति बंबईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें विद्यमान है । भविष्यदत्तकी कथा पाँच सर्गों या परिच्छेदों में विभक्त है । रायमल्लाभ्युदयमहाकाव्य में २५ सगँ हैं । इसमें २४ तीर्थंकरोंके जीवनवृत्त गुम्फित किये गये हैं । ग्रंथका प्रारंभिक अंश और अन्त्यप्रशस्ति इतिहास की दृष्टिसे उपयोगी है। ग्रंथकै अन्तमें पुष्पिकावाक्य निम्नप्रकार लिखा गया है " इति श्रीपरमाप्तपुरुषचतुर्विंशतितीर्थंकरगुणानुवादचरिते पं० श्रीपद्ममेरुविनेये पं० पद्मसुन्दरविरचिते वर्द्धमानजिनचरितमंगलकीर्त्तनं नाम पंचविशः सर्गः ।" पं० जिनदास पं० जिनद्रास आयुर्वेदके निष्णात पंडित थे । इनके पूर्वज हरिपतिको पद्यावतीदेवीका वर प्राप्त था । ये पेरीजशाह द्वारा सम्मानित थे । इन्हींके वंश में पद्यनामक श्रेष्ठ हुए, जिन्होंने याचकोंको बहुत-सा दान दिया । पद्म अत्यन्त प्रभावशाली थे । अनेक सेठ, सामन्त और राजा इनका सम्मान करते थे । पद्मका पुत्र वैद्यराज बिझ था। बिझने शाह नसोरसे उत्कर्षं प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्रका नाम सुहुजन था, जो विवेकी और वादिरूपी मृगराजोंके लिये सिंहके समान था । यह भट्टारक जिनचन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित हुआ और इसका नाम प्रभाचन्द्र रखा गया। इसने राजाओं जैसो विभूतिका परित्याग किया था। उक्त बिझका पुत्र घमंदास हुआ, जिसे महमूहशाहने बहुमान्यता प्रदान की थी। यह वैद्यशिरोमणि और यशस्वी था। इनकी धर्मपत्नीका नाम आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मश्री था, जो अद्वितीय दानी सदृष्टिरूपसे मन्मपविजयी और हसमुख थी। इसका रेखा नामक पुत्र आयुर्वेदशास्त्रमें प्रवीण वैद्योंका स्वामी और लोक. प्रसिद्ध था। रेखा चिकित्सक होनेके कारण रणस्तम्भ नामक दुर्गमें बादशाह शेरशाहके द्वारा सम्मानित हुए थे 1 प्रस्तुत जिनदास रेखाके ही पुत्र थे। इनकी माताका नाम रेखश्री और धर्मपत्नीका नाम जिनदासी था, जो रूपलावण्यादि गुणोंसे अलंकृत थी। पं० जिनदास रणस्तंभ दुर्गके समीपस्थ नवलक्षपुरके निवासी थे।' स्थितिकाल जिनदासकी एक 'होलीरेणुकाचरित' रचना उपलब्ध है। इस रचनाके अन्तमें कविने इसका लेखन-काल दिया है । अतः जिनदासके समयमें किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है । प्रशस्तिमें लिखा है वसुखकायशीतांशुमिते (१६०८) संवत्सरे तथा। ज्योष्टमासे सिते पक्षे दशम्यां शुक्रवासरे ॥६१।। अकारि ग्रंथः पूर्णोन नाम्ना दृटिप्रबोधकः । श्रेयसे बहुपुण्याय मिथ्यात्वापोहहेतवे ।।६२।। अर्थात् वि० सं० १६०८ ज्येष्ठशुक्ला दशमी शुक्रवारके दिन यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ है। पं० जिनदासने यह ग्रन्थ भट्टारक धर्मचन्दके शिष्य भट्टारक ललितकोत्तिके नामसे अंकित किया है। पुष्पिकावाक्यमें लिखा है 'इति श्रीपंडितजिनदासविरचिते मुनिश्रीललितकीत्तिनामाङ्किते होलीरेणुकापर्वचरिते दर्शनप्रबोधनाम्नि धूलिपर्व-समयधर्म-प्रशस्तिवर्णनो नाम सप्तमोऽध्यायः । रखमा पंडित जिनदासकी एक ही रचना प्राप्त है--'होलिकारेणचरित'। इस रचनामें पञ्चनमस्कारमंत्रका महात्म्य प्रतिपादित है। रचना सात अध्यायों में विभक्त है । श्लोकसंख्या ८४३ है। कविने शेरपुरके शान्तिनाथचैत्यालयमें ५१ पद्योंवाली होलीरेणुकाचरितकी प्रतिका अवलोकनकर ८४३ पद्योंमें इसे समाप्त किया है। काव्यत्त्वकी दृष्टिसे यह रचना सामान्य है। ब्रह्म कृष्णदास ब्रह्म कृष्णदास लोहपत्तन नगरके निवासी थे। इनके पिताका नाम हर्ष १. जैनग्नन्यप्रशस्तिसंग्रह, प्रस्तावना, पृ. ३२-३३ । ८४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और माताका नाम वोरिका देवी था। इनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम मंगलदासे था | ये दोनों भाई ब्रह्मचारी थे। ब्रह्म कृष्णदासने मुनिसुव्रतपुराणकी प्रशस्तिमें रामसेन भट्टारककी परम्परामें हुए अनेक मट्टारकोंका स्मरण किया है । ब्रह्म कृष्णदास काष्ठासंघके भट्टारक भुवनकीर्त्तिके पट्टधर भट्टारक रत्नकीर्त्तिके शिष्य थे । भट्टारक रत्नकीर्ति न्याय, नाटक और पुराणादिके विज्ञ थे । ब्रह्म कृष्णदासका व्यक्तित्व आत्म-साधना और ग्रन्थ-रचनाको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । स्थितिकाल ब्रह्म कृष्णदासने अपनी रचना मुनिसुव्रतपुराणमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है कि कल्पबल्ली नगरमें वि० सं० १६८१ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीके दिन अपरा समय में ग्रन्थ पूर्ण हुआ । लिखा है www 'इन्द्रष्टट्चन्द्रमतेऽथ वर्षे (१६८१) श्रीकात्र्तिकारव्ये धवले व पक्षे । जीये त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सौख्याय विनिर्मितोऽयं ॥९६॥ लोहपत्तननिवासमहेभ्यो हर्ष एवं वाणिजामिन हर्षः । सत्सुतः कविविधिः कमनीयो भाति मंगलसहोदरकृष्णः ॥९७॥ श्री कल्पवल्लीनगरे गरिष्ठे श्रीब्रहाचारीश्वर एष कृष्णः । कंठावलंब्यूज्जितपूरमल्लः प्रवर्द्धमानो हितमा [स] तान ||१८|| इन प्रशस्ति-पद्योंमें कविने अपनेको ब्रह्मचारी भी कहा है तथा इनके आधार पर कविका समय वि० की १७वीं शती है । रचना मुनिसुव्रतपुराण में कविने २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतका जीवन अंकित किया है । इसमें २३ सन्धि या सगँ हैं । और ३०२५ पद्य हैं। यह रचना काव्यगुणोंकी दृष्टिसे भी अच्छी है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक अर्थान्तरन्यास, विभाचना आदि अलंकारों का प्रयोग पाया जाता है। इसकी प्रति जयपुरमें सुरक्षित है । अभिनव चारुकीर्ति पंडिताचार्य अभिनव चारुकीति पंडिताचार्य द्वारा विरचित 'प्रमेयरत्नालंकार' नामक प्रमेय रत्नमालाको टीका प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेद के अन्तमें निम्नलिखित पुष्पिकावाक्य उपलब्ध होता है आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इति श्रीमत्स्याद्वादसिद्धान्तपारावारपारीणमानस्य देशीगणाप्रगण्यस्य श्रीमतेलुगुलपुरनिवासरसिकस्याभिनवचारुकोतिपण्डिताचार्यस्य कृतौ परीक्षामुखसूत्रव्याख्यायां प्रमेयरलालङ्कारसमाख्यायां प्रमाणस्वरूपपरिच्छेदः प्रथमः।" इससे स्पष्ट है कि अभिनव चारुकीति पण्डिताचार्य देशोगणके आचार्य थे और बेलुगुलपुरके निवासी थे । स्याद्वादविद्याम निम्नात थे । अतएव अच्छे यायिक और तार्किकके रूपमें उनकी ख्याति रही होगी। प्रशस्तिके अनुसार ग्रंथकार देशीगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय इंगुलेश्वरलिके आचार्य थे । और परम्परानुसार श्रवणबेलगोल पट्टपर आसीन हुए थे। यह परम्परर ११वों शतीमें आरंभ हुई और इसमें चारुकीति नामके अनेक पट्टाधीश हुए। कभी-कभी श्रुतकीर्ति, अजितकति आदि कतिपय अन्य नामोंके भी भट्टारक हुए हैं । पर अधिकतर चारुकीति नामके भट्टारक हुए हैं। परस्पर भेद बतलानेके लिए अभिनव, पंडितदेव, पंडितार्य, पंडिताचार्य आदि विशेषणोंमेंसे एक या दो विशेष प्रयुक्त होते रहे हैं। अभिनव पंडिताचार्य चारुकोत्तिकी एक अन्य रचना 'गीतवीतराग' भी उपलब्ध है । इस ग्रन्थमें कविने निम्न लिखित प्रशस्ति अंकित की है "गाने यवंशांबुधिपूर्णचन्द्रः यो देवराजोजनि राजपुत्रः, तस्यानुरोधेन च गीतवीतरागप्रबन्धं मुनिपश्चकार ।।१।। द्राबिडदेशविशिष्ट सिंहपुरे लब्धशस्तजन्मासौ; बेलुमोलपण्डिसवर्यश्चक्रे श्रीवृषभनाथविरचितम् ॥२॥ स्वस्ति श्रीबेलगोले दोबंलिजलनिकटे कुन्दकुन्दान्वयेनोऽ भूतं स्तुत्या पुस्तकालश्रुतगुभरः ख्यातदेशोगणार्यः, विस्तीर्णाशेषरीतिप्रगुणरसंभूतं गीतयुग्वीतरागम् शस्ताधीशप्रबन्धं बृधनुतमतनोत् पण्डिताचार्य वर्यः । इति श्रीमदायराजगुरुभूमण्डलाचार्यवर्णमहावादवादश्वरायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्तिबल्लागरायजीवरक्षापाल कृत्यायने कवि रुद्वालीविराजितश्रीमद्देलुगुलसिद्धसिंहासनाधीश्वरश्रीमदभिनवचारुकीर्तिपण्डिताचार्यवयंप्रगीतवीतरागाभिवानाष्टपदी समासा ।" इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि अभिनव पंडिताचार्यका जन्म दक्षिण भारतके सिंहपुर में हुआ था | जब श्रवणबेलगोलमें भट्टारक पद प्राप्त किया, तो इनका उपाधिनाम चारुकीत्ति हो गया । कविने गंगवंशके राजपुत्र देवराजके अनुरोध से गीतवीतरागकी रचना समाप्त की है। ८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव पंडिताचार्यका उल्लेख श्रवणबेलगोलके निम्नलिखित अभिलेखमें पाया जाता है 'स्वस्ति श्रीमूलसङ्घदेशिय गणपुस्तकगच्छ कोण्डकुन्दान्वयद श्रीमदभिनवचारुकीत्ति पण्डिताचार्य्यर शिष्यलुसम्यक्त्वाद्यनेक-गुण-गणाभरणभूषिते रायपात्रचूडामणिबेलूगुलद मङ्गायि माडिसिद त्रिभुवनचूडामणियेम्ब चैत्यालय के मङ्गलमहा श्री श्री श्री ।" इस अभिलेखसे अभिनव पण्डिताचार्यका समय शक सं० २२४७के पूर्व होना चाहिए । इन्होंने अपने शिष्य मङ्गायसे त्रिभुवनचुडामणि चैत्यालयका निर्माण कराया था, जो कालान्तर में माय वसति के नामसे प्रसिद्ध हुआ । दूसरे अभिनव पण्डिताचार्यका निर्देश शक् सं० १४६६, ई० सन् १५४४के अभिलेख में पाया जाता है। विजयनगरनरेश देवरायकी रानी भोमादेवीसे इन अभिनवपंडिताचार्यने शान्तिनाथबसतिका निर्माण कराया था । अतः इस आधार पर अभिनव पण्डिताचार्यका समय वि० की १६वीं शती सिद्ध होता है । बताया है "स्वस्ति श्रीमद् राय-राज-गुरु- मण्डलाचार्य्यं महावादवादीश्वर रायवादिपितामह सकळविद्वज्जन- चक्रवत्तिगलु' बल्लाल राय जीव रक्षपालकाद्यनेक बिरुदावलि विराजमान रुमप्य श्रीमच्चारुकीत्ति पण्डित देवरुगल प्रशिष्ठरादतच्छिष्य श्रीमदभिनव चारुकीर्ति पण्डित - देवरुगल प्रिय शिष्य रावतस्याग्रजशिष्य श्री माच्चरुकीर्ति पण्डितदेवरुगल सतीर्थ्य राद श्रीमच्छान्तिकीर्ति देवरु (ग) लु शकवष ॥" हमारा अनुमान है कि ये द्वितीय अभिनव पण्डिताचार्य हो गीतवीतराग और प्रमेयरत्नमालालंकारके रचयिता हैं । गीतवीतराग पर ई० सन् १८४२ को बोम्भरसकी कन्नड़ टीका भी प्राप्त है। गीतवीतरागकी पाण्डुलिपि ई० सन् १७५८ की उपलब्ध है । अतएव अभिनव पण्डिताचार्यका समय ई० सन् की १६वीं शतो होना चाहिए। डा० ए० एन० उपाध्येने इनके समयकी पूर्व सीमा १४०० ई० और उत्तर सीमा १७५८ बतलायी है | हमारा अनुमान है कि मध्यमें इनका समय ई० सन्की १६वीं शती होना चाहिए । रचनाएँ अभिनव पंडिताचार्यकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं---गीतवीतराग और प्रमेयरत्नालंकार | गीतवीतराग में प्रबन्धगीत लिखे गये है । कविने स्वाराध्य ऋषभ१. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, माणिकचन्ददिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, प्रभाङ्क, २८, अभिलेखसंख्या १३२ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवके दश जन्मोंको कथा गोनोंमें निबद्ध की है । कथावस्तु २५ पबन्धोंमें निभक्त . है। प्रथम प्रबन्धमें महाबलकी प्रशंसा, द्वितीयमें महाबलका वैराग्योत्पादन, तृतीयमें ललिताङ्गका वनविहार, चतुर्थ में श्रीमतीका जातिस्मरण, पंचममें वनजंघका पट्टकार्थ विवरण, षष्ठमें वनजंध और श्रीमतीके सौन्दर्यका चित्रण, सप्तममें श्रीमतीका विरहवर्णन, अष्टममें भोगभूमिवर्णन, नवममें आर्यका-गुरुगुण स्मरण, दशममें श्रीधरका स्वर्गवैभववर्णन, एकादशमें सुविधि पुत्रसम्बोधन, द्वादशमें अच्युतेन्द्र के दिव्य शरीरका वर्णन, प्रयोदशमें वननाभिके शारीरिक सौन्दर्यका चित्रण, चतुर्दशमें सर्वार्थसिद्धि विमानका चित्रण, पन्द्रहवेंमें मरुदेवीका निरूपण, सोलहवेंमें मरुदेवीके स्वप्न, सप्तदशमें प्रभात वर्णन, अठारहवेम जिनजन्माभिषेक, उन्नीसवेंमें परमौदारिक शरीर, बीसवेमें ऋषभदेवका वैराग्य, इक्कीसव में ऋषभदेवका तप, बाइसमें समवशरणका वर्णन, तेइसमें समवशरणभूमिका चित्रण और चौबीसवेंमें अष्टप्रातिहारियों का कथन आया है। प्रसंगवश ललितादेवको कथाको पर्याप्त विस्तृत किया गया है । गोतिकाव्यको दृष्टिसे यह काव्य अत्यन्त सरस और मधुर है । कवि श्रीमतीको भावनाका चित्रण करता हुआ कहता है--- 'चन्दलिप्तसुवर्णशरीरसुधौतबसनबरपोरम्, मन्दरशिखरनिभामलमणियुतसन्नुलमुकुटमुदारम् । कथमिह लप्स्ये दिविजवरं मानिनिमन्मथकेलिपरम् ।। इन्दुविद्वर्यानभमणिकुण्डलमण्डितगण्डयगेशम्, चन्दिरदलसमनिटिलविराजितसुन्दरतिलकसुकेशम् ॥' प्रमेयरत्नमालालंकार-यह नव्यशैलीमें लिखी गई प्रमेयरत्नमालाकी टीका है । लेखकने प्रमेयरत्नमालामें आये हुए समस्त विषयोंका स्पष्टीकरण नव्यशेलीमें किया है। प्रमाणके लक्षणको व्याख्या करते हुए न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंसे विषय-सामग्री ग्रहणकर आये हुए प्रमेयोंका स्पष्टीकरण किया है। प्रमाण-लक्षणमें सांख्य, प्राभाकर आदिके मतोंकी भी समीक्षा की है । इस प्रथको चार विशेषताएं हैं १. मूल मुद्दोंका स्पष्टीकरण । २. व्याख्यानको विस्तृत और मौलिक बनानेके हेतु ग्रन्थान्तरोंके उद्धरणोंका समावेश । ३. गढ़ विषयोंका पद-व्याख्यानके साथ स्पष्टीकरण | ४. विषयके गांभीर्यके साथ प्रौढ़भाषाका समावेश । ८८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार ग्रन्थकारने अपने इस प्रभेयरत्नमालालंकारको एक स्वतंत्र ग्रंथका स्थान दिया। वहाँ उदाहरणार्थं कुछ संदर्भांश उपस्थित किया जाता है ज्ञानको प्रमाण सिद्ध करते हुए बौद्धमत की समीक्षा निम्न प्रकार की है"अत्राहुर्योद्धा, अद्वेतिनश्च - ज्ञानं द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पकं चेति । तत्र नयनोन्मीलनान्तरं निष्प्रकारकं" वस्तुस्वरूपमात्रविषयकं ज्ञानं यज्जायते तनिर्विकल्पकम् । उक्तं च- कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रथमं निर्विकल्पकम् | बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् । इति ॥ - कल्पना पदवाच्यत्वं तदपोढ़ तदविषयकमित्यर्थः । क्षणिकपरमाणुरूपस्वलक्षणात्मकशुद्धवस्तुविषयकं सौगत्तमते निर्विकल्पकम् । अपोहस्य पदवाच्य स्वेऽपि स्वलक्षणे तदभावात् स्वलक्षण विषयके निर्विकल्पके पदवाच्यत्वस्य भानं न सम्भवति । न च स्वलक्षणस्य पदवाच्यत्वं कुतो नास्तीति वाच्यम् । पदवाच्यत्वं हि पदसङ्केतः । स खलु व्यवहारार्थः संकेतकालमारभ्य व्यवहारकालपर्यन्तस्थायिनि पदार्थे युज्यते ।" प्रमेयरत्नमालालंकार में अनेक नवीन तथ्यों का समावेश लेखकने किया है। अरुणमणि अरुणमणि भट्टारकतकीत्तिके प्रशिष्य और बुधराघवके शिष्य थे। इन्होंने ग्वालियर में जैनमन्दिरका निर्माण कराया था। इनके ज्येष्ठ शिष्य बुधरत्नपाल थे, दूसरे वनमाली और तीसरे कानरसिह । अरुणमणि इन्हीं कानरसिंह के पुत्र थे| इन्होंने अजितपुराण के अन्त में अपनी प्रशस्ति अंकित की है | अरुणमणिका अपरनाम लालमणि भी है। प्रशस्ति में बताया है कि काष्ठासंघ में स्थित माथुरगच्छ और पुष्करगणमें लोहाचार्यके अन्वय में होनेवाले भट्टारक धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीर्ति, यशः कीर्ति, जिनचन्द्र श्रुतकीत्तिके शिष्य बुधराघव और उनके शिष्य बुधरत्नपाल, वनमाली बोर कानरसिंह हुए है। इनमें कानरसिंहके पुत्र अरुणमणि या लालमणि है । स्थितिकाल अजितपुराण में ग्रन्थका रचनाकाल अंकित है, जिससे अरुणमणिका समय निर्विवाद सिद्ध होता है। प्रशस्ति में लिखा है रस-वृष-यति-चन्द्रे नियमित सितवारे वैजयंती - दशाम्यां । ख्यातसंवत्सरे (१७१६ ) ऽस्मिन् आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ८९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितजिनचरित्रं बोधपात्रं बुधाना । रचितममलवाग्मि-रक्त.रत्नेन तेन ||४०।। मुद्गले भूभुजां श्रेष्ठे राज्येऽवरंगसाहिके। जहानाबाद-नगरे पाश्चनाजिनालये ।।४।। अर्थात् अरुणमणिने औरंगजेबके राज्यकालमें वि० स० १७१६ में जहानाबाद नगर वर्तमान नई दिल्ली के पार्श्वनाथ जिनालयमें अजितनाथपुराणकी समाप्ति की है । अतः कविका समय १८वीं शती है । रचना __ कविकी एक ही रचना अजितना उपलका है: इनकी जातिभित्री जैन सिद्धान्त भवन आरामें भी है। द्वितीय तीर्थकर अजितनाथका जीवनवृत्त वर्णित है। जगन्नाथ जगन्नाथ संस्कृत-भाषाके अच्छे कवि हैं । ये भट्टारक नरेन्द्रकीत्तिके शिष्य थे। इनका वंश खण्डेलवाल था और पोमराज श्रेष्टिके सुपुत्र थे। इनका भाई वादिराज भी संस्कृत-भाषाका प्रौढ़ कवि था। इन्होंने वि० सं० १७२९ में वाग्भटालंकारकी कविचन्द्रिका नामकी टोका लिखी थी। ये तक्षक वत्तमान टोडा नामक नगरके निवासी थे। वादिराजके रामचन्द्र, लालजो, नेमिदास और विमलदास ये चार पुत्र थे। विमलदासके समयमें टोडामें उपद्रव हुआ था, जिसमें बहुतसे अन्य भी नष्ट हो गये थे। बादिराज राजा जयसिंहके यहां किसी उच्चपदपर प्रतिष्ठित थे। कविवर जगन्नाथने कई सुन्दर रचनाएं लिखी हैं। स्थितिकाल जगन्नाथने वि० सं० १६९९ में चतुर्विशतिसन्धान स्वोपाटीकासहित लिखा है। इनका समय १७ वीं शतीका अन्त और अठारहवीं शतीका प्रारंभ होना चाहिए। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीले जैनात्यप्रशत्तिसंग्रह प्रथम भागकी प्रस्तावनामें कविवर जगन्नाथकी कई रचनाओंका निर्देश किया है। इनके अनुसार कविको सात रचनाएं हैं १. चतुर्विशतिसन्धान स्वोपज्ञ २. सुखनिधान ९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आवार्य-परम्परा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ज्ञानलोचनस्तोत्र ४. शृंगारसमुद्रकाव्य ५. श्वेताम्बर-पराजय ६. नेमिनरेन्द्रस्तोत्र ७. सुषेणचरित्र । चतुर्विशतिसन्धानकाव्यमें एक ही पद्य है, जिसके २४ अथं कविने स्वयं किये हैं । पहा इस प्रकार है-- श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपति: श्रीगुमाङ्कोऽय धर्मों यंपुष्पदन्तो मुनिसुव्रतजिनोऽनन्तवाक् श्रीसुपाश्वः । शान्तिः पद्मप्रभोरो विमलविभरसौ वर्द्धमानोप्यजाको मल्लिमिनमियाँ सुमतिखतु सच्छीजगन्नाथधीरम् ॥" इस पद्यमें २४ तीर्थंकरोंको नमस्कार किया गया है। कविने पृथक्-पृथक् २४ अर्थ लिखे हैं। दूसरी कृति सुखनिधान है, जिसकी रचना कवि जगन्नायने तमालपुरमें की है । इस ग्रन्थमें कविने अपनी एक अन्य कृतिका भी उल्लेख किया है । 'अत्याध अस्माभिरुक्तं 'श्रृंगारसमुद्रकाव्ये वाक्य के साथ शृंगारसमुद्रकाव्यकी सूचना दी है । अतः कषिको यह रचना भी महत्त्वपूर्ण रही होगी । एक अन्य कृति श्वेताम्बर-पराजय है। इसमें श्वेताम्बरसम्मत केलिभक्तिका सतिक निराकरण किया है। इस पंचमें भी एक अन्य कृतिका निर्देश मिलता है। वह कृति हैं 'स्वोपझनेमिनरेन्द्रस्तोत्र' । इस कृतिकी रचना कविने वि० सं० १७०३ में की है । किस्सा है "वत्से गुणाघ्रजीतेन्दुपुते (१७७३) द्वीपोत्सवे दिने । मृत्ति वादः समातोयं सितम्बर-कुयुक्तिहा ॥१॥ पति पताम्बर-पराजये कषि-गमक-बारिवामित्वगुणालंकृतेन खोहिल्ल बकोदमपोमराजलसुतेन पचायवादिना कृते केवलिनिराकरण समाप्तम्।" कविको एक अन्य रचना 'सुषेणचरित'का भी निर्देश मिलता है । यह अंक मारक महेन्द्रकोसिके आमेर-शास्त्रमण्डारमें सुरक्षित है। सुसनियामा की कथा अंकित है। यह पांच परिच्छेदोंमें में करिसmamt धाचार्यतुल्य काम्यकार एवं पलक : ११ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वीरा विशुद्धमतयो मम सच्चरित्रं कुर्वन्तु शुद्धमिह यम विपर्ययोक्तं । दीपो भवेत्किल करे न तु यस्य पुंसो दोषो न चास्ति पतने खलु तस्य लोके 11 आचार्य पूर्णेन्दु- समस्त की त्ति-सरोजकीर्त्यादिनिदेशतो मै । कृतं चरित्र सुपुरांतमाले श्रीपालराज्ञः शंधामनाम्ना ।।२०९ || इस प्रकार कवि जगन्नाथ गद्य-पद्यरचना में सिद्धहस्त दिखलाई पड़ते हैं । सुखनिधानमें विदेहक्षेत्रस्थ श्रीपालका चरित निबद्ध किया गया है। ९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद अपभ्र श-भाषाके कवि और लेखक प्राकृत और संस्कृतकै साथ अपभ्रंशने काव्यभाषाके सिंहासनको अलंकृत किया | गुर्जर, प्रातिहार, पालवंश, चालुक्य, चौहान, चेदि, गहड़वाल, चन्देल, परमार आदि राजाओंके राज्यकालमें अपभ्रंशका पर्याप्त विकास हुआ। छठवीं शतीसे चौदहवीं शती तक अपभ्रंशमें अनेक मान्य आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी लेखनीसे अपभ्रंश-साहित्यको मौलिक कृतियां समर्पित की। अपभ्रंशका सबसे पुराना उल्लेख पतञ्जलिके महाभाष्यमें मिलता है। भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें भी अपभ्रंशका निर्देश किया है। हिमवत, सिन्धु, सौवीर तथा अन्य देशोंमें उकारबहुला भाषाको अपभ्रंश कहा है।' भामह, दण्डी, रुद्रट आदि आचार्योंने भी अपभ्रंशको काव्यभाषा होनेका संकेत किया है। छठी शतीके बल्लभीके राजा गुहसेनके एक ताम्रलेखमें संस्कृत, १. नाट्यशास्त्र १८१८२ । - ९३ - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और अपभ्रंश इन तीन भाषाओं में प्रबन्ध-रचना लिखने के लिये नियमन किया है । ८वीं शताब्दी तक आते-आते अपभ्रंश-काव्यका रूप इतना विश्रुत और लोकरंजक हो चुका था कि उद्योतनसुरिने अपनी कुवलयमाला (वि० सं० ८३५) में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशको तुलना करते हुए लिखा है-संस्कृत अपने बड़े-बड़े समासों, निपातों, उपसगी, विक्तियों और लिगाको दुर्गमता कारण दुर्जन हृदयके समान विषम है। प्राकृत समस्त कला-कलापोंके मालारूपी जन-कल्लोलोंसे संकुल लोकवृतान्तरूपी महोदधि-महापुरुषोंके मुखसे निकली हुई अमृतधाराको विन्दु-सन्दोह एवं एक-एक क्रमसे वर्ण और पदोंके संघटनसे नानाप्रकारकी रचनाओंके योग्य होते हुए सज्जन-वचनके समान सुखसंगम है और अपभ्रंश संस्कृत, प्राकृत दोनोंके शुद्ध-अशुद्ध पदोंसे युक्त तरंगों द्वारा रंगीली चालवाले नववर्षाकालके मेघों के प्रपातसे पुरद्वारा प्लावित नदीके समान सम और विषम होती हुई प्रणय-कुपिता प्रणयिनीके वार्तालापके समान मनोहर होती है। राजशेखर, हेमचन्द्र आदिने भी अपभ्रश-भाषाके काम्पोषित रूपपर विचार किया है और सभीने मुक्तकण्ठसे अपभ्रंशको काध्यकी भाषा स्वीकार किया है। महाकवि कालिदासके 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में अपन'शके अन्य प्रबन्ध-काव्योंकी अपेक्षा भाषाका सर्वाधिक समृद्ध और परिष्कृत रूप प्राप्त होता है। ८वीं शतीसे अपभ्र शके प्रबन्ध-काव्योंको परम्परा प्राप्त होने लगी है। बउमुहु-चतुर्मुखका अबतक कोई काव्य उपलब्ध नहीं है । पर 'पउमचरिउ' को उत्थानिका एवं प्रशस्तिसे यह ध्वनिप्त होता है कि चतुर्मुखदेवने महाभारतकी कथा लिखी थी। पञ्चमी-परित भी उनकी कोई रचना रही है। बतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि इन लेखकोंने संस्कृत और प्राइतके समान हो अपभ्रंश-भाषामें भी सरस काव्य-रचनाएं लिखी हैं। इन रचनाबोंमें काम्यतत्त्वके साथ दर्शन मौर आवारके सिद्धान्त भी प्राप्स होते हैं । हम यही अपभ्रश-भाषाके कमियोंका इतिवृत्त अंकित करेंगे। वस्तुत: मध्यकालीन साहित्यका इतिहास ही अपनसका इतिहास है। जैमाचार्यों ने इस भाषामें सहस्रों रचनाएँ लिखी हैं। कवि चतुर्मुख चतुर्मुख कवि अपन शके ख्यातिप्राप्त कवि हैं। स्वयंभुने अपने 'पउमचरित 'रिटुणेमि-चरित' और 'स्वयंभुश्छन्द' में चतुर्मुख कविका उल्लेख किया है । महाकवि ९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी भावार्य-परम्परा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पदन्तने भी अपने महापुराण में अपने पूर्वके ग्रन्थकर्ताओं और कवियोंका उल्लेख करते हुए चउमुह (चतुर्मुख) का निर्देश किया है । लिखा है | चहु सयंभु सरिहरिसु दोणु, गालोइउ कइईसाणु वाणु ।' अर्थात न मैंने चतुर्मुख स्वयंभ, श्रीहर्ष और द्रोणका अवलोकन किया न कवि ईषाण और चाणका ही । कवि पुष्पदन्त ६९वीं सन्धिमें भी रामायणका प्रारम्भ करते हुए स्वयंभु और चउमुहका पृथक्-पृथक् निर्देश किया है— कइराउ सयंभु महायरिउ, सो सयणसहासह परियरिउ । सुकइत्तणु सीसउ काई तहिं ॥ चउमुह नयारि मुहाई जहि P अर्थात् स्वयंभु महान आचार्य हैं। उनके सहस्रों स्वजन हैं और चतुर्मुखके तो चार मुख हैं, उनके आगे सुकवित्व क्या कहा जाये । } हरिषेणते अपनी धर्म-परीक्षा में चतुर्मुखका निर्देश किया, 'रिट्टणेमिचरिउ' में स्वयंभूने लिखा है कि पिंगलने छन्द - प्रस्तार, भामह और दण्डीने अलंकार, वाणने अक्षराडम्बर, श्रीहर्षने निपुणत्व और चतुर्मुखने छर्दनिका द्विपदी और कोंसे जटित पद्धड़ियाँ दी हैं । अतएव स्पष्ट है कि चतुर्मुख स्वयंभुके पूर्ववर्ती हैं । 'पउमचरिउ' के प्रारम्भमें बताया है कि चतुर्मुखदेव के शब्दोंको स्वयंभुदेवकी मनोहर वाणीको और भद्रकविके 'गोग्रहण' को आज भी कवि नहीं पा सकते हैं । इस तरह जलक्रीड़ाके वर्णनमें स्वयंभुकी, 'गोग्रह' कथामें चतुर्मुखदेवकी और 'मत्स्यभेद' में भद्रको तुलना आज भी कवि नहीं कर सकते । डॉ० हीरालालजी जैन और प्रो० एच० डी० वेलणकरने भी चतुर्मुखको स्वयंभुसे पृथक् और उनका पूर्ववर्ती माना है । पद्धड़िया छन्दके क्षेत्र में चतुर्मुखका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । सम्भवतः इनकी दो रचनाएँ रही हैं-महाभारत और पञ्चमीचरिउ । आज ये रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । अतः इनके काव्य-सौन्दर्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता है । महाकवि स्वयंभुदेव महाकवि स्वयंभु अपभ्रंश- साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोकरुचिका सर्वाधिक ध्यान रखा है । स्वयंभुकी रचनाएँ अपभ्रंशकी आख्यानात्मक रचनाएँ हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियोंपर पड़ा है । काव्य १. पुष्पदन्तका महापुराण, माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, ११५ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचयिता के साथ स्वयंभु छन्दशास्त्र और व्याकरणके भी प्रकाण्ड पण्डित थे । छन्दचूडामणि, विजयपरिशेष ओर कविराज धवल इनके विरुद थे । कवि स्वयंभू के पिताका नाम मारुतदेव और माताका नाम पद्मिनी था । मारुतदेव भी कवि थे। स्वयंभुने छन्दमें 'तहा य माउरदेवस्स' कहकर उनका निम्नलिखित दोहा उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है लद्धउ मित्त भमंतेण रक्षणा अरवदेण । सो सिज्जते सिज्जइ वि तह भरइ भरतेण ॥ ४-९ स्वयंभुदेव गृहस्थ थे, मुनि नहीं । 'पउमचरित्र' से अवगत होता है कि इनकी कई पत्नियां थीं, जिनमें दोके नाम प्रसिद्ध हैं - एक अइच्चबा (आदित्यम्बा) और दूसरो सामिब्धा । ये दोनों ही पत्नियाँ सुशिक्षिता थीं । प्रथम पत्नीने अयोध्याकाण्ड और दूसरीने विद्याधरकाण्डकी प्रतिलिपि की थी । कविने उक्त दोनों काण्ड अपनी पत्नियोंसे लिखवाये थे । स्वयंभुदेवके अनेक पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र त्रिभुवनस्वयंभु थे । श्रीप्रेमीजीका अनुमान है कि त्रिभुवनस्वयंभुकी माताका नाम सुअव्वा था, जो स्वयंभुदेवकी तृतीया पत्नी थीं। श्रीप्रेमीजीने अपने कथन की पुष्टिके लिये निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है सब्वे वि सुआ पंजरसुअञ्च पढ़ि मक्खराई सिक्खति । कइराअस्स सुओ सुअव्व-सुइ-गन्भ संभूओ ॥ अपभ्रंश में 'सुअ' शब्दसे सुत और शुक्र दोनोंका बोध होता है । इस पद्य में कहा है कि सारे ही सुत पिंजरे के सुखोंके समान पढ़े हुए ही अक्षर सीखते हैं, पर कविराजसुत त्रिभुवन श्रुत इव श्रुतिगर्भसम्भूत है'। यहाँ श्लेष द्वारा सुअब्बाके शुचि गर्भसे उत्पन्न त्रिभुवन अर्थ भी प्रकट होता है। अतएव यह अनुमान सहज में ही किया जा सकता है कि त्रिभुवन स्वयंभुकी माताका नाम सुअब्बा था । स्वयंभु शरीरसे बहुत दुबले-पतले और ऊँचे बदके थे। उनकी नाक चपटी और दाँत विरल थे । स्वयंभुका व्यक्तित्व प्रभावक था । वे शरीर से क्षीण काय होने पर भी ज्ञान से पुष्टकाय थे। स्वयंभूने अपने वंश, गोत्र आदिका निर्देश नहीं किया, पर पुष्पदन्तने जपने महापुराण में इन्हें आपुलसंघीय बताया है । इस प्रकार ये यापनीय सम्प्रदाय के अनुयायी जान पड़ते हैं । १. अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ८-९, ० २९९ । २. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ३७४ । ९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभुने अपने जन्मसे किस स्थानको पवित्र किया, यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पकी व्यक्तियोंके नाम दाक्षिणात्य हैं। मारुतदेव, धवलइया, बन्दइया, नाग आइच्चंबा, सामिअंब्बा आदि नाम कर्नाटकी हैं । अप्तएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है 1 स्वयंभुदेव पहले धनञ्जयके आश्रित रहे और पश्चात् धवलइयाके । 'पउमचरित' की रचनामें कविने धनञ्जयका और 'रिट्ठणेमिचरित' की रचनामें घवलइयाका प्रत्येक सन्धिमें उल्लेख किया है। स्पिरिना कवि स्वयंभुदेवने अपने समयके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर इनके द्वारा स्मत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जानेसे इनके स्थितिकालका अनुमान किया जा सकता है । कवि स्वयंभुदेवने 'पउमचरिउ' और 'रिट्ठणेमिचरिउ'में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। इससे उनके समयकी पूर्वसोमा निश्चित की जा सकती है । पाँच महाकाव्य, पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रके व्याकरण, व्यास-बाणका अक्षराडम्बर, श्रोहर्षका निपुणत्व और रविषेणाचार्यको रामकथा उल्लिखित है । इन समस्त उल्लेखोंमें रविषेण और उनका पारित ही अर्वाचीन है। पद्मचरितको रचना वि० सं० ७३४ में हुई है। अतएव स्वयंभुके समयको पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है। स्वयंभुका उल्लेख महाकवि पुष्पदन्सने अपने पुराणमें किया है और महापुराणको रचना वि० सं० १०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभुके समयकी उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है । इस प्रकार स्वयंभुदेव वि० सं० ७३४-१०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है'स्वयंभुदेव हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेनसे कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिट्ठणेमिचरिउ' में हरिवंशके कर्ता जिनसेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराणके कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभुदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिये थे। यह बात नहीं जंचती कि बाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो चर्चा करते और जिनसेन आदिको छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभुदेव दोनों जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके होंगे । हरिवंशकी रचना वि० सं० ८४० में आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्त हुई थी। इसलिये ७३४ से ८४० के बीच स्वयंभुका समय माना जा सकता है।' डा. देवेन्द्र जैनने इनका समय ई० सन् ७८३ अनुमानित किया है । यह अनुमान ठीक सिद्ध होता है। रचनाएँ कविकी अभी तक कुल तीन रचनाएं उपलब्ध हैं और तीन रचनाएँ उनके नाम पर और मानी जाती हैं १. पउमचरित २. रिट्र्णेमिचरिउ ३. स्वयंभुछन्द ४. सोद्धयचरिउ ५. पंचमिचरित ६. स्वयंभुव्याकरण १. परामचरिउ 'पउमाचार एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। रानकवलो मीका रूप देकर कविने उक्त ग्रन्थको विशेषता प्रदर्शित की है बद्धमाण-मुहकुहर-विणिग्गय रामकहा-णइ एह कमागय अक्खर-वास-जलोह-मणोहर सु-अलंकार छन्द-मच्छोहर दोह-समास-पवाहावं किय सक्कय-पायय पुलिणालंकिय देसीभाषा-उभय-तडुज्जल कवि-दुक्कर-धण-सह-सिलायल' 'पउमचरिउ' का ग्रन्थप्रगाण बारह हजार श्लोक है। और इसमें सब मिलाकर ९० सन्धियां है। विद्याधरकाण्ड २० सन्धियाँ, अयोध्याकाण्ड २२ सन्धिया, सुन्दरकाण्ड, १४ सन्धियाँ, युद्धकाण्ड २१ सन्धियाँ, उत्तरकाण्ड १३ सन्धियाँ । ___ इन नब्बे सन्धियोंमें ८३ सन्धियोंकी रचना स्वयम्भुदेवने को है । विद्याधरकाण्डमें कुलकरोंके उल्लेखके अनन्तर राक्षस और वानरवंशका विकास बतलाया गया है। अयोध्या में सगरचक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। उसके साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे केलासपर्वतपर ऋषभदेवको वन्दनाके लिये गये। वहाँ पर जिनमन्दिरोंकी सुरक्षाके लिये उन्होंने उसके चारों ओर खाई खोदना आरम्भ १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ३८७ । २. परमचरिउ, प्रथम सन्धि, कड़वक २।१-४। ९८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 किया | घरणेन्द्र कुपित हुआ और उसने सबको भस्म कर दिया, केवल भगीरथ और भीम ही शेष बचे । चर्तीको हुआ और बहु भगीरथको राज्य देकर दीक्षित हो गया। सगर राजाका समधी सहस्राक्ष था । उसने अपने पिताकी हत्या करनेवाले पुण्यमेघ पर चढ़ाई की और उसे मार डाला । उसका पुत्र तोयदवाहन किसी प्रकार भाग कर द्वित्तीय तीर्थंकर अजितनाथके समयशरण में पहुँचा। सहस्राक्ष भी वहाँ आया। पर समवशरण में प्रवेश करते हो उसका क्रोध नष्ट हो गया । इसी तोयदवाहनने लंकानगरीकी नींव डाली और यहींसे राक्षसवंश आरंभ हुआ । हुआ । सगर के बाद ६४वीं पीढ़ीमें कीर्तिधवल अयोध्या के राज्यपर आसीन उसका साला श्रीकण्ठ सपत्नीक वहां आया । कीर्तिधवलने प्रसन्न होकर उसे वानरद्वीप दे दिया | श्रीकण्ठने पहाड़ीपर किष्कपुर बसाया । तदनन्तर अमरप्रभु राजा हुआ । उसने लंकाको राजकुमारीसे विवाह किया। नववधू जब ससुराल में आयी, तो आँगनमें बन्दरोंके सजीव चित्र देखकर भयभीत हो गयी । इसपर अमरप्रभु चित्रकारपर अप्रसन्न हो उठे । मन्त्रियोंने उसे बताया कि वानरोंसे उसके परिवारका पुराना सम्बन्ध चला आ रहा है। उसे तोड़ना ठीक नहीं । उसने बानरको अपना राजचिह्न मान लिया । लंका में राक्षसवंशको समृद्धि हुईं और क्रमश: मालीके भाई सुमालीका पुत्र रत्नश्रव - राजा हुआ । उसके तीन पुत्र थे- रावण, विभीषण और कुम्भकरण 1 एक लड़की भी थी चन्द्रनखा | रावण अत्यन्त शूरवीर और पराक्रमी था। मन्दोदरी के सिवा उसकी छह हजार रानियाँ थीं । रावण किष्कपुरके राजा बालिको हराना चाहता था । पर उसे उल्टी हार खानी पड़ी। बालि अपने अनुज सुग्रीवको राज्य देकर तप करने चला गया । रावण बड़ा जिनभक्त था । उसने अपने पराक्रमसे यम इन्द्र, वरुण आदि राजाओंको परास्त किया था । अयोध्याकाण्ड में अयोध्याके राजाओंका वर्णन आया है। इस नगरीमें ऋषभदेवके वंशले समयानुसार अनेक राजा हुए और सबने दिगम्बर दोक्षा लेकर तपस्या की और मोक्ष प्राप्त किया । इस वंशके राजा रघुके अरण्य नामक पुत्र हुआ । इसकी रानीका नाम पृथ्वीमति था । इस दम्पतिके दो पुत्र हुएअनन्तरथ और दशरथ राजा अरण्य अपने बड़े पुत्र सहित संसारसे विरक्त हो तपस्या करने चला गया । तथा अयोध्याका शासनभार दशरथको मिला । एक दिन दशरथकी सभा में नारद मुनि आये। उन्होंने कहा कि रावणने किसी निमित्तज्ञानीसे यह जान लिया है कि दशरथपुत्र और जनकपुत्री के निमित्तसे उसकी मृत्यु होगी । अतः उसने विभीषणको आप दोनोंको मारने के लिये नियुक्त आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है । आप सावधान होकर कहीं छुप जायें । राजा दशरथ अपनी रक्षाके लिये देश-देशान्तरमें गये और मार्ग में कैकेयीसे विवाह किया । कुछ समय पश्चात् महाराज दशरथके चार पुत्र हुए और एक युद्धमें प्रसन्न होकर उन्होंने कैकेयीको वरदान भी दिया। रामके राज्याभिषेकके समय कैकेयीने वरदान मांगा, जिससे राम, लक्ष्मण और सीता बन गये तथा महाराज दशरथने जिनदीक्षा प्रहण की । सीताहरण हो जानेपर रामने वानरवंशी विद्याधर पवनजय और अञ्जनाके पुत्र हनुमान एवं सुग्रीवसे मित्रता की । रामने सुग्रीवके शत्रु साहसगतिका वध कर सदाके लिये सूग्रीवको अपने वश कर लिया और इन्हींके साहाय्यसे रावणका वध कर सीताको प्राप्त किया। अयोध्या लौटकर लोकापवादके भयसे सीताका निर्वासन किया। सौभाग्यसे जिस स्थानपर जंगलमें सीताको छोड़ा गया था, वनजंघ राजा वहाँ आया और अपने घर ले जाकर सीताका संरक्षण करने लगा | सोताके पूत्र लवणाकुंशने अपके पराक्रमसे सारेषको जीतकर व मागकी गृति गी: जब यह वीर दिग्विजय करता हुआ अयोध्या आया, तो रामसे युद्ध हुआ तथा इसी युद्धमें पिता-पुत्र परस्परमें परिचित भी हुए । सीता अग्निपरीक्षामें उत्तीर्ण हुई। वह विरक्त हो तपस्या करने चली गयी और स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग प्राप्त किया। लक्ष्मणकी मृत्यु हो जानेपर राम शोकाभिभूत हो गये । कुछ काल पश्चात् बोध प्राप्त कर दिगम्बर मुनि बन दुद्धर तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया। यह सफल महाकाव्य है । इसकी आदिकालिक कथा रामकथा है । अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ बानरवंश और विद्याधरवंशके आख्यानके रूपमें आयी हैं। प्रासंगिक कथावस्तुमें प्रकरी और पताका दोनों ही प्रकारको कथाए हैं। पताकारूपमें सुग्रीव और मास्तनन्दनकी कथाएँ आधिकारिक कथाके साथ-साथ चली है और प्रकरीरूपमें वालि, भामण्डल, वनजंघ आदि राजाओंके आख्यान हैं । कथागठनको दृष्टिसे कार्य-अवस्थाएं, अर्थ-प्रकृतियां और सन्धियाँ सभी विद्यमान हैं। नायक, रस, अलंकार, संवाद, वस्तूव्यापारवर्णन आदि सभी दष्टियोंसे यह काव्य उत्तम कोटिका काव्य है। यहाँ कविके प्रकृतिवर्णनको उपस्थित किया जाता है । कविने इसमें उपमा और उत्प्रेक्षाओंका सुन्दर जाल बाँधा है हसइ व रिउ-धिरु मुह-वय बंधरु । विदुममाहरु मात्तिय-दंतरु ।।१।। छिवइ व मत्थए मेरु-महीहरु । तुज्झु वि मझु वि कवणु पईहरु ॥२॥ १०० : तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं चन्द्रकन्त-सलिलाहिसित्तु । अहिसेय-पणालुवफुसिय-चित्तु ॥ ३ ॥ जं विदुम-मरगय-कन्तिकाहिं । पि3 गयणुव सधण-पन्तियाहिं ॥ ४ ॥ जं इन्द्रणील-माला-मसीएं । आलिहइ दिस-भित्तीएं तोएं ॥५॥ जहि पोमराय-मणि-गणु विहाइ । विउ अहिणव-सञ्झा-राउ-गाई ।। ६॥ इसप्रकार यह ग्रन्थ अपभ्रंश-काव्यका मुकुटमणि है। रिद्वमिचरिउ ___यह हरिवंशपुराणके नामसे प्रसिद्ध है। अठारह हजार श्लोकप्रमाण है और ११२ सन्धियाँ हैं । इसमें तीन काण्ड हैं—यादव, कुरु और युद्ध । यादवमें १३, कुरुमें १९, और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्धकाण्डके अन्तमें अंकित है । यहाँ यह भी बताया गया गया कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचनामें कितना समय लगा। इन सन्धियोंमें ९९ सन्धि स्वंभुदेवके द्वारा लिखी गयी हैं । २९वी सन्धिके अन्तमें एक पद आया है, जिसमें बताया है कि पउमाचार उ या सुख्यधारउ बनाकर अब में हरिवंशी रचनामें '. प्रवृत्त होता हूँ। 'रिडणेमिचरिउ' अपभ्रंश-भाषाका प्रबन्धकाव्य है। रिटमिर्चारउकी रचना धवलइयाके आश्रयमें की गयी हैं । इस ग्रन्थमें २२खें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण और यादवोंको कथा अंकित है। पंचमीचरिउ यह ग्रन्थ पडियाबद्ध शैलीमें लिखा गया है। अभी तक यह अप्राप्त है। इसमें नागकुमारकी कथा वर्णित है । स्वयंभुछन्व स्वयंभुदेवने एक छन्दप्रन्धकी रचना की है, जिसका प्रकाशन प्रो० एच० डो० वेलणकरने किया है। इस ग्रन्थके प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें प्राकृतके वर्णवृत्तोंका और पांच शेष अध्यायोंमें अपभ्र शके छन्दोंका विवेचन किया है। साथ ही छन्दोंके उदाहरण भी पूर्वकवियोंके ग्रन्थोंसे चुनकर दिये गये हैं । इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्यायमें दाहा, अडिल्ला, पड़िया आदि छन्दोंके स्वोपज्ञ उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्थमें पउमरिज, बम्मतिलय, रअणावली आदि ग्रन्थोंके भी उदाहरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतके १. पजमचरित, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, ७२।३। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १०१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त, दिवाकर, अंगारगण, मारुतदेव, हरदास, हरदत्त, धणदत्त, गुणधर, जोवदेव, विमलदेव, मूलदेव, कुमारदत्त, त्रिलोचन आदि कवियोंके नाम भी बाये हैं । अपभ्रश-कवियों में चतुर्मुख, धुत, घनदेव, धइल्ल, अज्जदेव, गोइन्द, सुद्धसील, जिणास, विअड्ढके नाम भी आये हैं । स्वयंभुख्याकरण पउमचरिउके एक पद्यसे कविके अपभ्रंश-व्याकरण का भी संकेत प्राप्त होता है। बताया है कि अपन शरूप मतवाला हाथी तभी तक स्वच्छन्दतासे भ्रमण करता है, जब तक कि स्वयंभुव्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता । परन्तु यह व्याकरणग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। श्रीप्रेमीजीका मत है कि सुद्धयचरिय कोई पृथक् ग्रन्थ नहीं है, यह सुव्वयचरिउ होना चाहिए, जो पउमचरिउका अपर नाम है । निश्चयतः अपन शकाव्य-रचयिताओंमें स्वयंभुका महनीय स्थान है। ये काव्य और शास्त्र दोनोंके पारंगत विद्वान हैं। इनको रचनाग अस्तिनी शान्तायसा लौर द्वाराशी भरसक प्राप्त है। प्रकृतिचित्रण और निरीक्षणकी क्षमता उनमें अद्भुत थी। त्रिभुवनस्वयंभु स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवनस्वयंभु था। ये अपने पिताके सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान मेधावी कवि थे । कविराजचक्रवर्ती उनका विरुद था। प्रशस्तिके पद्योंसे उनकी विद्वताका पूरा परिचय प्राप्त होता है। लिखा है तिहुअण-सयम्भु-धवलस्सा को गुणे वणिं जए तरइ । वालेण विजेण सयम्भु-कश्व-भारो समब्बूढो ||५|| वायरण-दर-क्वन्धो आगम-मंगोपमाण-वियड-पओ। तिहुअण-सयम्भु-धवलो जिण-तित्थे वहउ कश्वभर' ॥६॥ अर्थात् त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताके सुकवित्वका उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसे छोड़कर स्वयंभुके समस्त शिष्योंमें ऐसा कौन था, जो कविके काव्य भारको ग्रहण करता। त्रिभुवनस्वयंभुको धवल-वृषभकी उपमा दी गयी है । व्याकरणके अध्ययनसे मजबूत स्कन्ध, आगमोंके अध्ययनसे सुदृढ अंग और व्याकरणके अध्ययनसे विकटपदविज्ञ त्रिभुवनस्वयंभुके अतिरिक्त १. पउमचरिउ, प्रशस्तिगाथा, पद्य ५,६ । १०२ : तीपंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य व्यक्ति काव्यभारको वहन नहीं कर सकता है। निश्चयतः त्रिभुवनस्वयंभु आगम, व्याकरण, काव्य आदि विषयोंके ज्ञाता थे। इस कथनसे स्पष्ट है कि त्रिभुवनस्वयंभु शास्वश पण्डित थे। जिसप्रकार स्वयंभुदेव धनन्जय और श्वलइयाके आश्रित थे, उसी तरह त्रिभुवन वन्दइयाके | ऐसा अवगत होता है कि ये तीनों ही आश्रयदाता किसी एक ही राजमान्य या धनी कुलके थे। धनञ्जयके उत्तराधिकारी धवलइया और धवलइयाके उत्तराधिकारी बन्दइया थे । एकके स्वर्गवासके पश्चात् दूसरेके और दूसरेके बाद तीसरेके आश्रयमें आये होंगे। बन्दइयाके प्रथमपुत्र गोविन्दका भी त्रिभुवनस्वयंभुने उल्लेख किया है, जिसके वात्सल्यभावसे पामचरिउके शेष सात सर्ग रचे गये हैं। बन्दइयाके साथ पउमारउके अन्तमें त्रिभुवनस्वयंभुने नाग, श्रीपाल आदि भव्यजनोंको आरोग्य, समृद्धि, शान्ति और सुखका आशीर्वाद दिया है।' त्रिभुवनस्वयंभुका समय स्वयंभुके समान ही ई० सन् की नवम शताब्दी है । त्रिभुवनस्वयंभुने पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउको पूर्ग : है। * डॉ हीरा जैनका अभिगत है त्रिभुवनस्वयंभुने रिट्ठणेमिचरिउके अपूर्ण अंशको पूर्ण किया है । परमचरिउ इनका पूर्ण अन्ध है। डॉ. भायाणी पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउ इन तीनोंको अपूर्ण मानते हैं और तीनोंकी पूर्ति त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा की गयी बतलाते हैं । पर एक लेखककी सभी कृतियाँ अधूरी नहीं मानी जा सकती हैं, क्योंकि लेखक एक कृतिको पूर्ण कर ही दूसरी कृतिका आरम्भ करता है। अप्रत्याशितरूपसे मृत्युके आ जाने पर कोई एक ही कृति अधूरी रह सकती है। अतः प्रेमीजीके इस अनुमानसे हम सहमत हैं कि त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताकी कृतियोंका परिमार्जन किया है। त्रिभुवनने रामकथाकन्याको सप्त महासगांगी या सात साँवालो कहा है - सत्त-महासंगंगी ति-रयण-भूसा-सु-रामकहकण्णा । तिहुअण-सयम्भु-जणिया परिणउ यन्दइय-मण-तणय ।। स्पष्ट है कि ८४वों सन्धिसे ९०वी सन्धि तक सात सन्धियाँ 'पउमचरिउ'की त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा विरचित हैं । ८४वों सन्धिसे ठीक सन्दर्भ घटित करनेके १. पदमचरिउ, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १७,१८ । २. पउमचरित, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १९ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १०३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये उसमें भी उन्हें कुछ कड़वक जोड़ने पड़े और पुष्पिकामें अपना नामांकन किया। हम प्रेमीजीके इस अनुमानसे पूर्णतया सहमत हैं कि स्वयंभुदेवने अपनी समझसे यह ग्रन्थ पूरा ही रचा था, पर उनके पुत्र त्रिभुवनस्वयंभुको कुछ कमी प्रतीत हुई और उस कमीको उन्होंने नयी-नयी सन्धियाँ जोड़कर पूरा किया। 'रिदठणेमिचरित' की २९ सन्धियां तो स्वयंभुदेवकी हैं। ९९वीं सन्धिके अन्तमें एक पद्य आया है, जिसमें कहा है कि 'पउमचरिउ' या 'सुव्वयचरिउ' बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचनामें प्रवृत्त होता हूँ। सरस्वतीदेवी मझे स्थिरता प्रदान करें। इस पद्यसे यह ध्वनित होता है कि त्रिभुवनस्वयंभुने 'पउमरिज' के संवर्द्धनके पश्चात् हरिवंशके संवर्द्धनको ओर ध्यान दिया और उन्होंने १०० से ११२ तककी सन्धियां रची । अन्तिम सन्धि तक पुष्पिकाओंमें त्रिभुवनस्वयं भुका माम प्राप्त होता है। १०६, १०८, ११०, और १११वीं सन्धिपद्योंमें मुनि यसःकीतिका नाम आता है। प्रेमोजीका अभिमत है कि यशःकातिने जीर्ण-शीर्ण प्रतिको ठीक-ठाक किया होगा और उसमें उन्होंने अपना नाम जोड़ दिया होगा। इस प्रकार त्रिभुवनस्वयंभुने 'सुद्धयचरिउ', 'पउमचरित' और 'हरिवंशचरिउ' इन तीनों ग्रन्थों में कुछ अंश जोड़कर इन्हें पूर्ण किया है । प्रेमीजीने सुद्धयचरिउको सुन्वयचरिउ माना है, पर यह मान्यता स्वस्थ प्रतीत नहीं होती। निश्चयतः त्रिभुवनस्वयंभु अपने पिताके समान प्रतिभाशाली थे । काव्यरचनामें इनकी अप्रतिहत गति थी। महाकवि पुष्पदन्त महाकाच स्वयम्भूको गमकथा यदि नदी है, तो पुष्पदन्तका महापुराण समुद्र । पुष्पदन्तका काम अलंकृत वागोका चरम निदर्शन है । दर्शन, शास्त्रीय ज्ञान और काव्यत्व इन तीनोंका समावेश महापुराणमें हुआ है। पुष्पदन्तका घरेलू नाम खण्ड या खण्डू था : इनका स्वभाव उग्र और स्पष्टवादी था। भरत और बाहुबलिके कथासन्दर्भमें उन्होंने राजाको लुटेरा और चोर तक कह दिया है । कविके उपाधिनाम अभिमानमेरु कविकुल तिलक, सरस्वतीनिलय और काव्यपिसल्ल थे । महापुराणके अन्तमें कविने १०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अपना परिचय अंकित किया है उससे कविके व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है । लिखा है__ "सूने घरों और देबकुलिकाओंमें रहनेवाले कलिमें प्रबल पापपटलों से रहित, बेघरबार, पुत्र-कलत्रहीन, नदी-वापिका और सरोवरोंमें स्नान करने वाले, पुगने वल्कल और वस्त्र धारण करनेवाले. धूलधसरित अंग, दुर्जनके संगसे रहित, पृथ्वीपर शयन करनेवाले, अपने हाथोंका तकिया लगाने वाले, पण्डितमरणकी इच्छा रखनेवाले, मान्यखेटवासी, अर्हन्तके उपासक, भरत द्वारा सम्मानित, काव्यप्रवन्धसे लोगोंको पुलकित करनेवाले, पापरूपो कीचड़को धोनेवाले, अभिमानमेरु पुष्पदन्तने यह काव्य जिनपदकमलों में हाथ जोड़े हुए भक्तिपूर्वक क्रोधनसंवत्सरमें आषाढशुक्ला दशमीको लिखा।" इन पंक्तियोंसे कविके व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है। कवि प्रकृतिसे अक्खड़ और निःसंग था । उसे संसार में किसी वस्तुकी आकांक्षा नहीं थी । वह केवल निःस्वार्थ प्रेम चाहता था। भरतने कविको प्रेम और सम्मान प्रदान किया । पुष्पदन्त मोजी और फक्कड़ स्वभावके थे। यही कारण है कि जीवनपर्यन्त काव्यसाधना करने पर भी वे अपनेको 'काव्य-पिसल्ल' (काव्य-पिशाच) कहना नहीं चूके। महाकवि पुष्पदन्त कश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिताका नाम केशव भट्ट और माताका नाम मुग्धादेवी था। आरंभमें कवि शैव था और उसने भैरव नामक किसी शैव राजाकी प्रशसामें काव्य-रचना भी की थो; पर बादमें वह किसी जैन मुनिके उपदेशसे जैन हो गया और मान्यखेट आनेपर मंत्री भरतके अनुरोधसे जिनभक्तिसे प्रेरित होकर काव्य-रचना करने लगा था । पुष्पदन्तने संन्यासविधिसे मरण किया। कविका जन्मस्थान कौन-सा प्रदेश है, यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता। मान्यखेटमें कविने अपनी अधिकांश रचनाएँ लिखी हैं । श्री नाथूराम प्रेमीने उन्हें दक्षिणमें बाहरसे आया हुआ बतलाया है । उनका कथन है कि एक तो अपभ्रंश-साहित्य उत्तरमें लिखा गया । दूसरे, पुष्पदन्तको भाषामें द्रविडशब्द नहीं हैं। मराठीशब्दोंका समावेश रहनेसे उन्हें विदर्भका होना चाहिए। डॉ० पी० एल० वैद्य डोड्ड, मोड्ड आदि शब्दोंको द्रविड़ समझते हैं । कविने यह तो लिखा है कि ये मान्यखेट पहुंचे पर कहाँसे मान्यखेट पहुंचे यह नहीं बताया है । इस काल में विदर्भ साधनाका केन्द्र था। संभव है कि वे वहीं से आये हों। धाचार्यसुरुप काव्यकार एवं लेखक : १०५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिकाल कवि पुष्पदन्त अपनी कृतियोंमें समयका निर्देश नहीं किया है; पर उन्होंने जिन ग्रंथों और ग्रंथकारोंका उल्लेख किया है उनसे कवि समयका निर्णय किया जा सकता है । कवि पुष्पदन्तने घवल और जयधचल ग्रंथोंका उल्लेख किया है । जयत्राटीका वीरसेनके शिष्य जिनसेनने अमोघवर्ष प्रथम सन् ८३७के लगभग पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि पुष्पदन्त उक्त सन्के पश्चात् ही हुए होंगे, पहले नहीं । हरिषेण कविकी 'धम्मपरिक्खा' में पुष्पदन्तका निर्देश आता है। धम्मपरिक्खाके रचयिता हरिषेण धक्कड़ वंशीय गोवर्द्धनके पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे । वे मेवाड़देशके चित्तौड़के रहनेवाले थे और उसे छोड़कर कार्यवश अचलपुर गये थे।' वहीं पर उन्होंने वि० सं० १०४४में अपना यह ग्रंथ समाप्त किया | अतएव इस आधारपर वि० सं० १०४४के पूर्व ही पुष्पदन्तका समय होना चाहिए | जयघवलाटीकाका निर्देश करनेके कारण ई सन् ८३७के पूर्व भी पुष्पदन्त नहीं हो सकते हैं । अतएव पुष्पदन्तका समय वि० सं० ८९४- १०४४के मध्य होना चाहिए। कविने अपने ग्रंथों में डिगु शुभतुरंग, वल्लभनरेन्द्र और कण्हायका उल्लेख किया है । और इन सब नामोंपर ग्रन्थको प्रतियों और टिप्पणग्रंथोंमें कृष्णराजः टिप्पणी लिखी है । इसका अर्थ यह हुआ कि ये सभी नाम एक ही राजाके हैं । बल्लभराय या वल्लभनरेन्द्र, राष्ट्रकूट राजाओं की सामान्यपदवी यी । अतएव यह स्पष्ट है कि कृष्ण राष्ट्रकूटवंश के राजा थे। 'णायकुमारचरिड' की प्रस्तावना में मान्यखेट नगरीके वर्णन प्रसंग में कवि कहता है कि वह राजा कण्हराय - कृष्णराजकी कृपाण जलवाहिनीसे दुर्गम है। राष्ट्रकूट वंश कृष्णनामके तीन राजा हुए। उनमें पहला शुभतुंग उपाधिधारी कृष्णराजा नहीं हो सकता क्योंकि उसके बाद ही अमोघवर्षने मान्यखेट को बसाया था । दूसरा कृष्णराज भी नहीं हो सकता है क्योंकि उसके समयमें गुणभद्रने उत्तरपुराणको रचना की थी। और यह पुष्पदन्तके पूर्ववर्ती कवि हैं । अतः कृष्ण तृतीय हो इनका समकालीन हो सकता है । कविके द्वारा वर्णित घटनाओंके साथ इसका ठीक-ठीक मेल बैठता है । इतिहाससे यह भली १. सिरिचित्तचवि अचलउरेहो, गडणियकज्जे जिणहरणरहो | तह छंदालंकारपसाहिद, धम्मपरिवत्र एहते साहिय ॥ २. विक्कमणिकपरियत कालए, वनगए वरिस सहसचउतालए । १०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौति प्रकट है कि कृष्ण तृतीयने चोलदेश पर विजय प्राप्त की थी। कविने धाराका द्वारा मामले की दिशा है। यह घटना कृष्ण तृतीयके बादकी और खोट्टिगदेवके समयको है । धनपालकी पाइयलच्छी कृतिसे भी सिद्ध है कि वि० सं० १०२९ में मालवनरेशने मान्यखेटको लूटा था ।२ यह यह धारा नरेश हर्षदेव था जिसने वोट्टिगदेवसे मान्यखेट छीना था। अत: कवि पुष्पदन्तको कृष्ण तृतीयका समकालीन होना चाहिए । यहाँ एक शंका यह है कि महापुराण शक सं० ८८८में पूरा हो चुका था और यह लूट शक् सं० ८९४ में हुई । तब इसका उल्लेख केसे कर दिया गया ? अतएव यह संभव है कि पुष्पदन्त द्वारा उल्लिखित संस्कृत-श्लोक प्रक्षिप्त हो। घशस्तिलकचंपूके लेखकने जिस समय अपना ग्रंथ समाप्त किया था उस समय कृष्ण तृतीय मेलपाटीमें पड़ाव डाले हुए था। सोमदेवने भी उसे चोलविजेता कहा है। अतः पुष्पदन्त और सोमदेव समकालीन सिद्ध होते हैं। श्रीनाथूराम प्रेमीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-"शक् सं० ८८१में पुष्पदन्त मेलपाटीमें भरतमहामात्यसे मिले और उनके अतिथि हुए। इसी साल उन्होंने महापुराण शुरू करके उसे शक सं० ८८७में समाप्त किया। इसके बाद उन्होंने नागकुमारचरित और यशोधरचरित लिखें । यशोघरचरितकी समाप्ति उस समय हुई, जब मान्यखेट लदा जा चुका था । यह शक सं० ८९४के लगभगकी घटना है। इस तरह वे शक सं०८८१से लेकर कम-से-कम ८९४ तक, लगभग १३ वर्ष मान्यखेटमें महामात्य भरत और नन्नके सम्मानित अतिथि होकर रहे, यह निश्चित है।" एक अन्य विचारणीय तथ्य यह है कि 'जसहरचरित' में तीन प्रकरण ऐसे हैं, जो पुष्पदन्त कृत नहीं है । ये प्रकरण गन्धर्वनामक कवि द्वारा प्रक्षिप्त किये गये हैं। गन्धर्वने लिखा है योगिनीपुर (दिल्ली)के वीसलसाहने उनसे अनुरोध किया कि पुष्पदन्तकृत 'जसहरचरिउ'में 'राजा और कोलाचार्यका मिशन', 'यशोधर-विवाह' एवं 'पात्रोंके जन्म-जन्मान्तरोंका विस्तृत निरूपण' जोड़कर इस ग्रन्थको उपादेय बना दीजिए। तदनुसार कृष्णके पुत्र गन्धर्वने वि० १. धारानाथ-नरेन्द्र-कोप-शिखि ना दग्धं जिंदग्धं प्रियं, क्वेदानी वसति करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कवि । २. विक्कमकालस्स गए अउणत्तिसुतीरे सहस्सम्मि मालव-नरिंद पाडौए लूडिए मण्णखेडम्मि" ३. जन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, १० ३२८-३२९ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १०७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १३६५ व्यतीत होने पर वैशाखमासमें यह रचना पूर्ण को ।' गन्धर्वके उक्त उल्लेखसे स्पष्ट है कि पुष्पदन्त ई. सन् १३०८से पूर्ववर्ती हैं। पुष्पदन्तके महापुराणपर एक टिप्पण प्रभाचन्द्र पण्डितने धाराके परमार नरेश जयसिंहदेवके राज्यकालमें लिखा है। जयसिंहदेवका ताम्रपत्र सं० १११२ (सन् १०५५)का प्राप्त हुआ है। महापुराणटिप्पणको एक अन्य प्रतिमें बताया गया है कि श्रीचन्द्र मुनिने भोजदेवके राज्यकालमें वि० सं० १०८० (सन् १०२३)में 'समुच्चयटिप्पण' लिखा। सम्भवत: ये श्रीचन्द्र 'दसण-रूह-दयण-करण्ड' और 'कहाकोसुके रचयिता हैं । अतः पुष्पदन्तका समय सं० १०८०से पूर्व है । महापुराणकी कुछ प्रतियों में सन्धि-शीर्षक पद्य आया है, जिसमें लिम्बा है-"जो मान्यखेट दोन और अनाथोंका धन था एवं विद्वानोंका प्यारा था, वह घारानाथ नरेन्द्रकी कोपारिनसे भस्म हो गया; अब पुष्पदन्त कवि कहाँ निवास करेंगे।" __उक्त घटना वही है, जो 'पाइयलच्छोनाममाला' तथा परमारनरेश हर्षदेव सम्बन्धी एक शिलालेखमें उल्लिखित है धनपालने अपने कोशको रचना सन् ९७२में की है। अतएव उक्त उल्लेखोंके प्रकाशमें यह माना जा सकता है कि मान्यखेटको लूटके समय पुष्पदन्त जीवित थे। 'गायकुमारचरिउ' (१२११११-१२) और महापुराणमें मान्यस्वेटके राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराजका निर्देश आया है। ____ खोट्टिगदेवका शक ८९३ (सन् ९७१)के अभिलेखमें उल्लेख आया है। कवि पुष्पदत्तने महापुराणको रचना सिद्धार्थ-संवत्सरमें आरम्भ की और क्रोधनसंवत्सरमें आषाढशुक्ला दशमीको (महा. १०२।१४।१३) समाप्त | कृष्णराज और खोट्टिगदेवके समयको दृष्टिसे ज्योतिषगणनानुसार क्रोधन-संवत्सर ई० सन् ९६५, ११ जूनको आता है । अतः यही समय महापुराणकी समाप्तिका है। महापुराणके पश्चात् क्रमशः 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउको रचना की गयो है । संक्षेपमें कविका समय ई. सन्को दशम शती है। आश्रयदाता और समकालीन राजा महाकवि पुष्पदन्त भरत और नन्नके आश्रयमें रहे थे। ये दोनों ही महा१. जसहरचरिज, ४।३०। २. महापुराण, प्रस्तावना, पृ. १४ । ३. 'कहाकोसु प्राकृत-पन्थपरिषद्, ग्रन्यांक १३, प्रस्तावना, पृ० ४ । ४. महापुराण, प्रस्तावना, पृ० २५ । ५, णायकुमारचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रस्तावना, पृ० १७ । १०८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मात्यवंश के प्रतापशाली और प्रभावशाली मंत्री थे । कविने तुडिंग राजाका उल्लेख किया है । यह कृष्णका घरेलू नाम है। इसके अतिरिक्त उसने वल्लभराय, बल्लभनरेन्द्र, शुभतुंगदेवका भी निर्देश किया है । वल्लभराय राष्ट्रकूटनरेशोंकी उपाधि थी, जो उन्होंने चालक्यनरेशोंको जीतने के उपलक्ष्य में ग्रहण की थी । तुडिंग या कृष्ण तृतीय, जगतुंग पिता के बाद राज्यसिंहासन राज्यकालमें ही स्वर्गवासी हो । कुष्ण तृतीय राष्ट्रकूट अमोघवर्ष तृतीय या बद्दिगके तीन पुत्र थे, और खोट्टिगदेव । कृष्ण सबसे बड़े थे, जो अपने पर आसीन हुए । जगत्तुंग छोटे थे और उनके गये थे । अतएव तृतीयो वंशके सबसे प्रतापी और सार्वभौम राजा थे । इनके पूर्वजों का साम्राज्य नर्मदासे लेकर दक्षिण में मैसूर तक व्याप्त था। मालवा और बुन्देलखण्ड भी इनके प्रभावक्षेत्र में थे । इस विस्तृत साम्राज्यको कृष्ण तृतीयने और भी वृद्धिंगत किया था | ताम्रपत्रों के अनुसार उसने पाण्ड्य और केरलको हराया, सिंहलसे कर वसूल किया और रामेश्वरम् में अपनी कीर्तिवल्लरीको विस्तृत किया । ये ताम्रपत्र शक सं० ८८१ के हैं । देवली के अभिलेखसे' अवगत होता है कि उसने कांचीके राजा दतिगको और बप्पुकको मारा, पल्लवनरेश अंतिगको हराया, गुर्जरोंके आक्रमणसे मध्यभारतके कलचुरियोंकी रक्षा की ओर अन्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त की । हिमालयसे लेकर लंका और पूर्व से लेकर पश्चिम समुद्र तक राजा उसको आज्ञा मानते थे । उसका साम्राज्य गंगाकी सीमा को भी पार कर गया था। संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि भरत और रन अमात्य पुष्पदन्तके आश्रयदाता थे । नन कौडिण्यगोत्रीय मरतके पुत्र थे और इनकी माताका नाम कुन्दव्वा था । इन्होंने अनेक जैनमन्दिर बनवाये और जैनशासनके उद्धारका महनीय कार्य किया । इस प्रकार मन्त्री भरत और नन्न में पिता-पुत्र सम्बन्ध घटित होता है । रचनाएँ पुष्पदन्त बसाधारण प्रतिभाशाली महाकवि थे। इतना ही नहीं, वे विदग्ध दार्शनिक और जैन सिद्धान्तके प्रकाण्ड पण्डित भी थे। क्षीणकाय होने पर भी उनकी आत्मा अत्यन्त तेजस्वी थी । वे सरस्वती-निलय और काव्यरत्नाकर कहे जाते थे । इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं १. जरनल बाम्बे ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी, जिल्द १८, ५० २३९ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १०९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकार या महापुराण-यह एक विशालकाय ग्रन्थ है और दो वण्डोंमें विभक्त है ---आदिपुराण एवं उत्तरपुराण । इन दोनों खण्डोंमें ६३ शलाकापुरुषोंके चरित गम्फित हैं। प्रथम खण्डमें आदि तीर्थकर ऋषभनाथ और भरतके परित्त निबद्ध किये गये हैं और दूसरे खण्डमें अजित, संभव आदि शेष २३ तीर्थकरोंकी एवं उनके समकालीन नारायण, प्रतिनारायण एवं बलभद्र आदिकी जीवन-गाथाएं निबद्ध हैं। उत्तरपुराणमें पद्मपुराण (रामायण) तथा हरिवंशपुराण (महाभारत) भी सम्मिलित हैं। मादिपुराणमें ८० आर उत्तरपुराण ४२ दिया है। दोनों का बोलप्रमाण २०,००० है । इसकी रचनामें कविको लगभग छः वर्ष लगे थे। ___ इस महान् रचनाके सम्बन्धमें कविने स्वयं स्वीकार किया है कि इसमें सब कुछ है, जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है । महापुराणकी रचना महामात्य भरतकी प्रेरणा और प्रार्थनासे सम्पन्न हुई है। इसीलिए कविने इसकी प्रत्येक सन्धिके अन्तमें 'महाभन्दभरताणुमण्णिए'-'महाभव्यभरताणुमानिते' विशेषण दिया है एवं इसकी अधिकांश सन्धियोंके प्रारम्भमें भरतका विविधमुख गुणसंकीर्तन किया गया है। गायकुमारचरित---यह एक सुन्दर महाकाव्य है। इसमें ९ सन्धिर्या हैं। और यह नन्ननामाङ्कित है। इसमें पञ्चमीके उपवासका फल प्राप्त करनेवाले नागकुमारका चरित वर्णित है। यह रचना बहुत ही प्रौढ़ एवं मनोहारिणी है। मान्यखेटमें नन्नके मन्दिरमें रहते हुए पुष्पदन्तने 'णायकुमारचरिउ'को रचना की । प्रारंभमें कहा गया है कि महोदधिके गणवर्म एवं शोभन नामक दो शिष्योंने प्रार्थना की कि आप पञ्चमीके फल प्रतिपादन करनेवाले काव्यकी रचना कीजिये । महामात्य नन्नने भी उसे सुननेकी इच्छा प्रकट की तथा नाइल्ल और शीलभट्टने भी आग्रह किया। कविने इस ग्रंथके प्रारंभमें काव्यके तत्त्वोंका भी उल्लेख किया है । कवि कहता है---- "दुविहालंकारें विफ्फुरति लीलाकोमलई पयाइ दिति । महफव्वणिहेलणि संचरति बहुहावभावविभम परति ! सुपत्थे अत्थे रिहि करति सम्वई विण्णाणई संभरति । गोसेसदेसभासउ चवंति लक्खणई विसिष्टुई दक्खति । अबरुदछंदमग्गेण जति पाणेहि मि दइ पाणाइँ होति । णवहिं मि रसेहिं संचिजमाण विग्गइतएण णिरु सोहगाण । चउदहपुग्विल्ल दुवालसंगि जिनवयणयिणिग्गयसत्तभंगि । वायरणवित्तिपायडियणाम पसियज महु देविमणोहिराय।" ११. : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस वाणीमें शब्दालंकार, अर्थालंकार, व्याकरणसम्मत कोमल पद, विविध प्रकारके हावभाव, छन्द, श्लेष, प्रसादादि रस-गुण, शृंगारादि नवरस, आचारांगादि द्वादश अंग, चौदह पूर्व, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त समाहित रहते हैं, वही वाणी सुन्दर और सुशील विलासयुक्त नायिकके समान जनसामान्यका चित्तआकृष्ट करती है। इस प्रकार कवि पुष्पदन्तने काव्यतत्त्वोंका विवेचन बहुत सुन्दररूपमें किया है। कवि इतिवृत्त, वस्तूव्यापार-वर्णन और भावाभिव्यञ्जनमें भी सफल हुआ है। राजगृह नगरका चित्रण करते हुए उत्प्रेक्षाकी श्रेणी ही प्रस्तुत कर दी है । कवि कहता है कि वह नगर मानों कमलसरोवररूपी नेत्रोंसे देखता था, पवनद्वारा हिलाये हुए वनोंके रूपमें नृत्य कर रहा था तथा ललित लतागृहोंके द्वारा मानों लुकाछिपी खेलता था | अनेक जिनमन्दिरों द्वारा उल्लसित हो रहा था । कामदेवके विषम वाणोंसे घायल होकर मानों अनुरक परेवोंके स्वरसे चीख रहा था। परिखामै भरे हुए जलके द्वारा वह नगर परिधान धारण किये हुए था तथा अपने श्वेत प्रकाररूपी चीरको ओढ़े था । वह अपने ग्रहशिखरोंकी निगों द्वारा स्वर्ग को छु नताशा । और माह चन्द्रकी अमृतधाराको पो रहा था। कुंकुमको छटाओंसे जान पड़ता था, जैसे वह रतिकी रंगभूमि हो और वहाँके सुखप्रसंगोंको दिखला रहा हो । वहीं जो मोतियोंकी रंगावलियां रची गई थीं, उनसे प्रतीत होता था, जैसे मानों वह हार-पंक्तियोंसे विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई ध्वजाओंसे पंचरंगा और और चारों वर्गों के लोगोंसे अत्यन्त रमणीक हो रहा था। जोयइ व कमलसरलोयणेहि गच्च व पवणहल्लियवहिं । ल्हिक्कइ व ललियबल्लीहरेहि उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहि । वणियउ व विसमवम्महसरेहिं कणइ व रयपारावयसरेहि। परिहद व सपरिहापरियणीरु पंगरइ व सियपायारचीरु । णं परसिहरागाह सग्गु छिवइ णं चंद-अमिय-धाराउ पियइ । कुंकुमछडएं ण रइहि रंग। णाधइ दपखालिय-सुहपसंगु । विरइयमोत्तियरंगावलहिं जं भूसिउ णं हारावलीहिं। चिधेहिं रिय णं पंचवष्णु चउवण्णजणेण वि अइखण्णु । इसप्रकार यह महाकाव्य रस, अलंकार, प्रकृतिचित्रण आदि सभी दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। असहरचरिउ-यह भी एक सुन्दर खण्डकाव्य है। इसमें पुण्यपुरुष यशोघरका चरित वर्णित है। इसमें ४ सन्धियाँ हैं। यह अन्य भरतके पुत्र और वल्लभ नरेन्द्रके गृहमंत्रीके लिए उन्होंके भवनमें निवास करते हुए लिखा गया आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १११ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसको दूसरी, तीसरी और चौथी सन्धिके प्रारंभ में नन्नके गुणकीर्त्तन करने वाले तीन संस्कृत-पद्य है । जसहरचरिउको प्राचीन प्रतियोंमें गन्धर्वं कविके बनाये हुए कतिपय क्षेपक भी उपलब्ध हैं। कवि पुष्पदन्त अपभ्रंशके श्रेष्ठ कवियों में परिगणित है । कोमलपद, गूढ़ कल्पना, प्रसन्न भाषा, छन्द - अलंकारयुक्तता, अर्थगंभीरता आदि सभी काव्यतत्त्व इनके ग्रन्थोंमें प्राप्त हैं । हमारे विचार में पुष्पदन्त नैषधकार श्रीहर्ष के समान ही मेधावी कवि हैं । उन जैसा राजनीतिका आलोचक बाणके अतिरिक्त दूसरा लेखक नहीं हुआ । मेलापाटीके उस उद्यान में हुई भरत और पुष्पदन्तकी भेंट भारतीय साहित्यकी बहुत बड़ी घटना है । यह अनुभूति और कल्पनाकी वह अक्षयघारा है, जिससे अपभ्रंश साहित्यका उपवन हरा-भरा हो उठा। धनपाल धनपालकी प्रतिभा आख्यान साहित्यके सृजन में अनुपम है। घनपालके पिताका नाम 'माएसर - मायेश्वर और माताका नाम घनश्री था । इनका जन्म धक्कड़ बंशमें हुआ था । यह धक्कड़ वंश पश्चिमी भारतको वैश्य जाति है । देलवाड़ा में तेजपालका वि० सं० १९८७ का एक अभिलेख है, जिसके घरकट या धक्कड़ जातिका उल्लेख है । आबूके शिलालेखोंमें भी इसका निर्देश मिलता है। प्रारंभ में यह जाति राजस्थानकी मूल जाति थी; बादमें यह देशके अन्य भागों में व्याप्त हुई | धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी था । 'भविसयत्तकहा' के 'जैनभंजिवि दियम्बरि लायउ के अतिरिक्त ग्रंथके भीतर आया हुआ सैद्धान्तिक विवेचन उनका दिगम्बर मतानुयायी होना सिद्ध करता है । घनपालने अष्टमूल गुणोंका वर्णन करते हुए बताया है कि मधु, मद्य, मांस और पांच उदम्बर फलोंको किसी भी जन्ममें नहीं खाना चाहिए। भावसंग्रहके कर्त्ता देवसेन के अनुसार है । सोमदेव और मान्यता है। कचिका यह कथन आशावर की भी यही कवि धनपालने १६ स्वर्गीका कथन भी दिगम्बर आम्नायके अनुसार ही किया है । कविने लिखा है १. महु मज्जु मंसु पंचुचराई खज्नंति ण जम्मंतर समाई । १६८ । २. महुमज्जुमंसविरई चाओ पुण जंवराण पंचहूं । अद्वेदे मूलगुणा वंति फुड देशविरयमि--- भावसंग्रह, गाथा ३५६ ॥ ११२ : वोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पुणु पुणु तवचरण चरेप्पिणु अणसणि पंडियमरणि मरेपिण। दिवि सोलहमहं पुण्णायामि हड सुखनिज्जुप्पहु गायि ।। -भविसयत्तरित २०,९। अतएव कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायो है, कविने अपने जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। केवल वंश और माता-पिताका नाम ही उपलब्ध होता है । यह निश्चित है कि कवि सरस्वतीका वरद पुत्र है। उसे कवित्व करनेको अपूर्व शक्ति प्राप्त है । स्पितिकाल कवि धनपालका स्थितिकाल विद्वानोंने वि. की दशवीं शती माना है। 'भविसयतकहा की भाषा हरिभद्र सूरिके 'नेमिनाहचरिउसे मिलती-जुलती है । अत: धनपालका समय हरिभद्रके पश्चात् होना चाहिए। श्री पी० वी० गणेने निम्नलिखित कारणोंके आधार पर इनका समय दशवीं शती माना है १. भाषाके रूप और व्याकरणकी दृष्टिसे इसमें शिथिलता और अनेकरूपता है । अतएव यह कथाकृति उस समयको रचना है, जब अपभ्रंश भाषा बोलचालकी थी। २. हेमचन्द्र के समय तक अपभ्रंश-भाषा रूढ़ हो चुकी थी। उन्होंने अपने व्याकरणमें अपभ्रशके जिन दोहोंका संकलन किया है, उनकी भाषाको अपेक्षा 'भविसयत्तकहा'की भाषा प्राचीन है | अत: धनपालका समय हेमचन्द्रके पूर्व होना चाहिए। ३. भविसयत्तकहा और पउभचरिउके शब्दोंमें समानता दिखाते हुए प्रो० भायाणीने निर्देश किया है कि भविसयत्तकहाके आदिम कड़वकोंक निर्माणके समय धनपालके ध्यान में 'पउमचरिउ' था । इसलिए धनपालका समय स्वयं भूके बाद और हेमचन्द्रसे पूर्व ही किसी कालमें अनुमित किया जा सकता है।' ४. दलाल और गुणेने भविसयत्तकहाकी भाषाके आधारपर धनपालको हेमचन्द्रका पूर्ववर्ती माना है । अतः धनपालका समय दशवीं शतीके लगभग होना चाहिए । भविसपत्तकहाकी सं० १३९३ की लिपि प्रशस्तिके आधारपर श्री डा० १. दि पउमचरित एण्व दि भविसयत्तकहा-धो भायाणी, भारतीय विद्या (अंग्रेजी) भाग ८, अंक १-२: सन १९४७, पृ० ४८-५० । आचार्यतुल्प काराकार एवं लेखक : ११३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने धनपालका समय वि० को १४वीं शती बतलाया है । पर यह उनका भ्रम है । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'अनेकान्त' वर्ष २२, किरण १ में श्रीदेवेन्द्रकुमारजी के मतको समीक्षा की है। और उन्होंने प्राप्त प्रशस्तिको मूलग्रंथकर्ताकी न मानकर लिपिकर्ताकी बताया है। अतः प्रशस्तिके आधारपर धनपालका समय १४वीं शती सिद्ध नहीं किया जा सकता है ! जब तक पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होता है तब तक धनपालका समय १०वीं शती ही माना जाना चाहिए । 1 धनपालका व्यक्तित्त्व कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त थे । अतः उन्होंने समुद्रयात्राकर सफल वर्णन किया है। विमाता के कारण पारिवारिक कलहका चित्रण भी सुन्दर रूपमें हुआ है । कवि धनपालका मस्तिष्क उर्वर था । वे शृंगार-प्रसाधनको भी आवश्यक समझते थे । विवाह एवं मांगलिक अवसरों पर एक करना उनको दृषि उचित था । रचना कविकी एक ही रचना 'भविसयत्तकहा' प्राप्त है । यह कथाकृति नगरवर्णन, समुद्र वर्णन, द्वीप-वर्णन, विवाह वर्णन, युद्धयात्रा, राज-द्वार, ऋतु-चित्रण, शकुनवर्णन, रूपवर्णन आदि वस्तु वर्णनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है । कविने प्रबन्ध में परिस्थितियों और घटनाओंके अनुकूल मार्मिक स्थलोंकी योजना की है । इन स्थलोंपर उसकी प्रतिभा और भावुकताका सच्चा परिचय मिलता है । भावोंके उतार-चढ़ाव में घटनाओंका बहुत कुछ योग रहता है । भविसत्तकहा में बन्धुदत्तका भविष्यदत्तको मेनाद्वीप में अकेला छोड़ना और साथके लोगोंका संतप्त होना, माता कमलश्रीको भविष्यदत्तके न लौटनेका समाचार मिलना, बन्धुदत्तका लौटकर आगमन, कमलश्रोका विलाप और भविष्यदत्तका मिलन आदि घटनाएँ मर्मस्पर्शी हैं । - कथावस्तु — हस्तिनापुरनगर में धनपति नामका एक व्यपारी था, जिसको पत्नीका नाम कमलश्री था । इनके भविष्यदत्त नामका एक पुत्र हुआ । धनपति सरूपानामक एक सुन्दरीसे अपना विवाह कर लेता है और परिणामस्वरूप अपनी पहली पत्नी और पुत्रकी उपेक्षा करने लगता है । धनपति और सरूपाके पुत्रका नाम बन्धुदत्त रखा जाता है। युवावस्थामें पदार्पण करने पर बन्धुदत्त व्यापारके हेतु कंचन द्वीपके लिये प्रस्थान करता है। उसके साथ ५०० व्यापारियोंको जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी माताकी अनुमतिसे उनके ११४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा A Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ हो लेता है । समुद्र में यात्रा करते हुए दुर्भाग्यसे उसको नौका आँधीसे पथभ्रष्ट हो मदनाग या मैनाक द्वीप पर जा लगती है । बन्धुदत्त घोखेसे भविध्यदत्तको वहीं एक जंगलमें छोड़कर स्वयं अपने साथियों के साथ आगे निकल जाता है । भविष्यदत्त अकेला इधर-उधर भटकता हुआ एक उजड़े हुए, किन्तु समृद्ध नगरमें पहुंचता है । वहीं एक जैनमन्दिरमें जाकर वह चन्द्रप्रभ जिनकी मा करता है । उसी बड़े नारों का एक रिन्य सुन्दरीको देखता है । उसोसे भविष्यदत्तको पता चलता है कि वह नगर कभी अत्यन्त समृद्ध था। एक असुरने इसे नष्ट कर दिया है । कालान्तरमें वही असुर वहां प्रकट होता है और भविष्यदत्तका उसी सुन्दरीसे विवाह करा देता है । चिरकाल तक पुत्रके न लौटनेसे कमलश्री उसके कल्याणार्थ श्रतपंचमी यतका अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त सपत्नीक प्रभूत सम्पत्तिके साथ घर लोटता है । लौटते हुए उसकी बन्धुदत्तसे भेंट होती है, जो अपने साथियोंके साथ यात्रामें असफल होनेसे विपन्नावस्थाको प्राप्त था । भविष्यदत्त उसका सहर्ष स्वागत करता है। यहाँसे प्रस्थानके समय पूजाके लिये गये हुए भविष्यदत्तको फिर धोखेसे वहीं छोड़कर बन्धुदत्त उसकी पत्नी और प्रचुर धनसम्पत्तिको लेकर साथियोंके साथ नौकामें सवार हो वहाँसे चल पड़ता है । मार्गमें फिर आँधीसे उसकी नौका पथभ्रष्ट हो जाती है और वे सब जैसे-तैसे हस्तिनापुर पहुंचते हैं। घर पहुंचकर बन्धुदत्त भविष्यदत्तको पत्नीको अपनी भावी पत्नी घोषित कर देता है । उनका विवाह निश्चित हो जाता है । कालान्तरमें दुःखी भविष्यदत्त भी एक यक्षकी सहायतासे हस्तिनापुर पहुंचता है । वहाँ पहुँचकर वह सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहता है । इधर बन्धुदत्तके विवाहको तैयारियाँ होने लगती हैं और जब विवाह-सम्पन्न होने वाला होता है तो राजसभामें जाकर बन्धुदत्तके विरुद्ध भविष्यदत्त शिकायत करता है और राजाको विश्वास दिला देता है कि वह सच्चा है । फलतः बन्धुदत्त दण्डित होता है और भविष्यदत्त अपने माता-पिता और पत्नीके साथ राजसम्मानपूर्वक सुखसे जीवन व्यतीत करता है । राजा भविष्यदत्तको राज्यका उत्तराधिकारी बना अपनी पुत्री सुमित्रासे उसके विवाहका वचन देता हैं ! ___ इसी बोच पोदनपुरका राजा हस्तिनापुरके राजाके पास दूत भेजता है और कहलवाता है कि अपनी पुत्री और भविष्यदत्तकी पत्नीको दे दो या युद्ध करो। राजा पोदनपुरमरेशकी शतंको अस्वीकार करता है और परिणामतः युद्ध होता है । भविष्यदत्तकी सहायता और वीरतासे राजा विजयी होता है । भविष्यदत्तकी वीरतासे प्रभावित हो राजा भविष्यदत्तको युवराज घोषित कर आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ११५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है । अपनी पुत्री सुमित्रा के साथ उसका विवाह भी कर देता है । भविष्यदत्त सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगता है । भविष्यदत्तकी प्रथम पत्नीके हृदय में अपनी जन्मभूमि या मैनाक द्वीपको देखने की इच्छा जाग्रत होती है । भविष्यदत्त, उसके माता, पिता और सुमित्रा सब उस द्वीपमें जाते हैं। वहाँ उन्हें एक जैन मुनि मिलते हैं, जो उन्हें सदाचार के नियमों का उपदेश देते हैं। कालान्तर में ये सब लौट आते हैं । एक दिन विभलबुद्धि नामक मुनि आते हैं। भविष्यदत्त उनके मुख से अपने पूर्व जन्मों की कथा सुनकर विरक्त हो जाता है और अपने पुत्रको राजभार सौंपकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेता है। भविष्यदत्त सपश्चरण करता हुआ कर्मोंको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करता है। श्रुतपंचमी के महात्म्यके स्मरणके साथ कथा समाप्त हो जाती है । घटना बाहुल्य इस कथाकाव्य में पाया जाता है । पर घटनाओंका वैचित्र्य बहुत कम है। कविने लौकिक आख्यानके द्वारा श्रुतपंचमीव्रतका माहात्म्य प्रदर्शित किया है । अन्तमें भी इसी व्रतके माहात्म्यका स्मरण किया गया है। धार्मिक विश्वासके साथ लौकिक घटनाओंका सम्बन्ध काव्यचमत्कारार्थं किया गया है । इस कृति में प्रबन्धकी संघटना सुन्दर रूप में हुई है । कथाके विकासके साथ ही कार्य-कारणघटनाओं की कार्य-कारण खला प्रतिपादित है । वस्तुतः यह एक रोमांचक काव्य है। इसमें लोक-जीवन के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं । करुण, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसोंका परिक्षक भी सुन्दर रूपमें हुआ है । अलंकारों में उपमा, परिणाम, सन्देह, रूपक भ्रान्तिमान, उल्लेख, स्मरण, अपलव उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना और सहोषित आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। छन्दोंमें पद्धड़ी, अडिल्ला, घत्ता, दुवई, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, मरइट्ठा, प्लवंगम, कलहंस आदि छन्द प्रधान हैं । वास्तव में धनपाल कविकी यह कृति कथानक रूढ़ियों और काव्य- रूढ़ियोंकी भी दृष्टिसे समृद्ध है । I धवल कवि अपभ्रंश - साहित्य के प्रबन्धकाव्य रचयिताओं में कवि धवलका नाम भी आदर के साथ लिया जाता है । कवि घवलके पिताका नाम सूर और माताका नाम केसुल्ल था । इनके गुरुका नाम अम्बसेन था । धवल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न ११६ : वीर्थंकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था; पर अन्तमें वह जैन धर्मावलम्बी हो गया था । कवि द्वारा निर्दिष्ट उल्लेखोंके आधारपर उसकी प्रतिभा और कवित्वशक्तिका परिशान होता है । धवलने हरिवंशपुराणको रचना की है। डॉ० प्रो० हीरालाल जैनने 'इलाहाबाद यूनिवर्सिटी स्टडीज' भाग १, सन् १९२५ में नवल कवि द्वारा रचित हरिवंशपुराणका निर्देश किया था। स्पिलिकाल कवि धवलके निर्देशों के आधारपर कविका समय १०वीं - ११वीं शती सिद्ध होता है । कविने ग्रन्थके प्रारम्भमें अनेक कवियोंका स्मरण करते हुए लिखा है कवि चयकवाइ पुब्वि गुणवंतत्र धीरसेनू हुँतउ णयवंतउ | पुणु सम्मत्तई धम्म सुरेगल, जेण पमाण गंथु किउ चंगउ । देवणंदि बहू गुण जस भूसिउ जे वायरण जिणि पयासिल | बज्जसू सुपसिद्ध मुनिवरु, जे पयमाणुगंधु किउ सुंदरु | मुणि महसेणु सुलोयण जेणवि, पउमचरित्र मुणि रविसेणेणवि । जिणसेणे हरिवंसु पवित्तुवि, जटिल मुणीण वरंगचरितु वि । दिणयरसेणें चरिउ अणंगहु, पउमसेण आयरिय पसंगहु । अंधसेणु जें अमियागहणु विरइय दोस-विवज्जिय सोहण | जिणचंद पहचरिउ मनोहरु, पावरहिउ घणमत अण्णामि किय इंमाई तुह पुराइ विण्हसेण रिसण सीहणंद गुरखें सिद्धसेणु जें गेए आगउ, भविय विणीय पर्याा सिउ राममंदि जे विविह पहाण जिणसासणि बहुरइय कहाणा । अगमहाकइ जें सु मणोहरु वीरडिणिदु-चरिउ किउ सुंदरु । कित्रिय कम सुकइ गुण आयर गेय कन्त्र जहि विरइय सुंदर । सणकुमार जे विरमउ मणहरु, कय गोविंद पवरु सेयंवरू । तह वक्खर जिणरखिय सावड जें जय धवल भुवणि विषखाइउ । सालिहद्द कि कइ जीय उदउ लोयइ चहुमुहुं दोण पसिद्धउ | इक्कहि जिणसासणि उचलियउ सेदु महाकइ जसु णिम्मलियs । पउमचरिउ जें भुवणि पयासिउ, साहूणरहि नरवरहि पसंसिद्ध । उजड़ तो वि किंपि अवभासमि महियलि जे पियबुद्धि पयामि । अणुपेहा वरदेवेणवकांतु १. हरिवंशपुराण १ ३ । J समुन्दरु | चरितई । सुनेहा । चंगउ | आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ११७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् कविचक्रवर्ती वीरसेन सम्यक्त्वयुक्तप्रमाणविशेष ग्रन्थके कर्ता, देवनन्दि, वज्रसूरि प्रमाणग्रन्थके कर्ता, महासेनका सुलोचनाग्रन्थ, रविषेणका पद्मचरित, जिनसेनका हरिवंशपुराण, जटिल मुनिका वरांगचरित, दिनकरसेनका अनंगचरित, पद्मसेनका पाश्वनाथचरित, अंभसेनकी अमृताराधना, धनदत्तका चन्द्रप्रभ रत, अनेक चरितग्रन्थोंके रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दीकी अनुप्रेक्षा, नरदेवका णवकारमन्त्र, सिलेका भकारिनोर, सर त के भने बाचानक, जिनरक्षित धवलादि ग्रन्थप्रख्यापक, असगका दीरचरित, गोविन्द कवि (श्वेत.) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्रका जीव-उद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढ़ महाकविका पउपचरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियोंका निर्देश किया है । इनमें पद्मसेन और असग कवि दोनों ही ग्रन्थकर्ताओंके समयपर प्रकाश डालते हैं। स्थिसिकाल असग कविका समय शक संवत् ११० (ई० सन् ९८८) एवं पनसेनका शक सं० ९९९ समय है, जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि शक सं० २९९. के पश्चात् कभी भी हुआ है। पद्मकोत्तिकी एकमात्र रचना पार्श्वपुराण उपलब्ध है । इन दोनों रचनाओंका उल्लेख होनेसे धवलकविका समय शक सं० को ११ वीं शताब्दीका मध्यकाल आता है। वर्द्धमानचरितकी प्रशस्तिमें बताया गया है कि श्रीनाथके राज्यकालमें चोल राज्यको विभिन्न नारयोंमें कविने आठ ग्रन्थोंकी रचना की हैविद्यामया अपठितेत्यसमाकृयेन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि । प्राप्यैव चोडविषये विरलानगर्यां ग्रथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ॥ -महावीरचरित, प्रशस्तिश्लोक १०५ 'पासणाहरिउ'म पद्मसेन या पप्रकोतिने रचनाकालका निर्देश निम्नप्रकार किया है.-- णव-सय-णउआण उये कत्तियमासं अमावसो दिवसे । रइयं पासपुराणं कइणा इह पउमणामेण ॥' अर्थात् सं० ९९९में कात्तिक मासको अमावस्याको इस ग्रन्थकी समाप्ति हुई । यहाँ सवत्से शक या विक्रम कौन-मा संवत् ग्रहण करना चाहिए, इसपर विद्वानों में मतभेद है। प्रो० प्रफुल्लकुमार मोदीने इसे शक-संवत् माना है और १. पासणाहचरिउ. प्राकृत-अन्ध-परिषद, प्रयाक ८, कवि-प्रशस्ति, पद्य ४ । ११८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवंश कोछड़ने विक्रम संवत् | हमारा अनुमान है कि ये दोनों ही संवत् शक संवत् हैं और धवल कविका समय शक संवत्को १०वीं शतीका अन्तिम पाद या ११वीं शतीका प्रथम है ! रचना कविका एक ही ग्रंथ हरिवंशपुराण उपलब्ध है । इस में रखें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथका जीवनवृत्त अंकित है। साथ ही महाभारतके पात्र कौरव और पाण्डव तथा श्रीकृष्ण आदि महापुरुषोंके जीवनवृत्त भी गुम्फित हैं । इस ग्रन्थ में १२२ सन्धियाँ हैं । ग्रंथ की रचना पन्झटिका और अल्लिलड् छन्द में हुई है । पढडिया, सोरठा, पत्ता, विलासिनी, सोमराजि प्रभृति अनेक छन्दोंका प्रयोग इस ग्रंथ में किया गया है। श्रृंगार, वोर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक भी सुन्दररूप में हुआ है। कविने, नगर, वन पर्वत आदिका महत्त्वपूर्ण चित्रण किया है। यहाँ उदाहरणार्थ मधुमासका वर्णन प्रस्तुत किया जाता है फग्गुणु गऊ महुमासु परायउ, मयणछलिउ लोउ अणुरायउ 1 वण सय कुसुमिय चारुमणोहर बहु मयरंदे मत्त बहु महुयर । गुमुगुमंत स्वणमण सुहावहि अइपपाठ पेम्मुकोहि । केसु व वर्णा वणारुण फुल्लिय, णं विरहग्गे जाल णमिल्लिया । घरिघरि पारिउ यि तणु मंडहि, हिंदोलह हिउहि उग्गार्याह । चणि परपठ महूर उल्लाह, सिहिउलु सिहि सिहरेहि घहावइ । - द्रिवंशपुराण १७-३ अर्थात् फाल्गुनमास समाप्त हुआ और मधुमास (चैत्र) आया । मदन उद्दीप्त होने लगा । लोक अनुरक्त हो गया । वन नाना पुष्पोंसे युक्त, सुन्दर और मनोहर हो गया । मकरन्द- पानसे मत मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं......घरोंमें नारियाँ अपने शरीरको अलंकृत करती हैं, झूला झूल रहीं हैं, विहार करती हैं, वनमें गाती कोयल मधुर आलाप करती हैं। सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं । इस काव्यमें करुण रसको अभिव्यंजना भो बहुत सुन्दर मिलती है । कंसवधपर परिजनोंके करुण विलापका दृश्य दर्शनीय है हा रह्य दह्य पाविट्ठ खला, पह अम्ह् मणोहर किय विहला । 1 हा विहि जिहीण पहं काइकिउ गिहि दरिसिवि तक्खणि चक्खु हिउ | देव या वुल्लाह काई तुहुं, हा सुन्दरि दरसहि विष्णु मुहु । हा आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक ११९ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा धरणिहि सगुणणिलयट्ठाह, वर सेज्जहि भरभवणेहि नाहि । पठ विणु सुण्णउं राउल असेसु, अण्णाहि हुवउ दिव्य देसु । हा गुणसायर, हा रूवजय हा बहरि महण सोहाध घरा । धत्ता — हा महुरालावण, सोहियसंदण, अम्हं सामिय करहिं । दुक्ख हि संतत्तउ, करुण रुवंतउ, उट्ठिवि परियणु संघवहि ॥५६, १ कविने संसार के यथार्थंरूपका भी चित्रण किया है। सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं। धनसे भी कुछ नहीं होता । सुख बन्धु बान्धव, पुत्र, कलत्र, मित्र, किसके रहते हैं ? वर्षाके जलबुलबुलोंके ममान संसारका वैभव क्षणभरमें नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार वृक्षपर बहुतसे पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्योंसे विभिन्न स्थानोंपर चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुतसे पथिक नदी पार करते समय नौका पर एकत्र हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने घरोंको चले जाते हैं, उसी प्रकार क्षणिक प्रियजनोंका समागम होता है । कभी धन आता है, कभी नष्ट होता है, कभी दारिद्र्य प्राप्त होता है, भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और विलीन होती हैं, फिर भी अज्ञ मानव गर्व करता है। जिस यौवन के पीछे जरा लगी रहती है उससे कौन-सा सन्तोष हो सकता है ?" इस प्रकार ग्रन्थकर्त्ताने संसारकी वास्तविक स्थितिका उद्घाटन किया है। रस और अलंकारके समान ही छन्द-योजनाको दृष्टिसे भी ग्रन्थ समृद्ध है । सामान्य छन्दों के अतिरिक्त नागिनी, ८९ १२, सोमराजी १९०१४, जाति ९०१५, विलासिनी ९०१८ आदि छन्दोंका प्रयोग मिलता है। कड़वकों के अन्तम प्रयुक्त पत्ता - छन्द के अनेक रूप हैं । हरिषेण हरिषेण मेवाड़ में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे । इनका वंश वक्कड़ या घरकट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था । इस वंश में अनेक कवि हुए हैं । इनके पिताका नाम गोवर्द्धन और माताका नाम गुणवती था । ये किसी कारणवश चित्रकूट छोड़कर अचलपुरमें रहने लगे थे । प्रशस्तिमें बताया है इह मेवाड़ देसि जण संकुलि, सिरिउजहर णिग्गय धक्कड - कुलि । पावकरिद कुम्भ-दारण हरि, जाउ कलाहि कुसल णामें हरि । १. हरिवंशपुराण ९१.७ ॥ १२० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तासु पुत्त पर-णारिसहोयरु, सुगमनाहि कु-पक्षण दिक्ष गोवड्हणु णामें उप्पणउ, जो सम्मत्तरयण-संपुण्णउ। . तहो मोवड्ढणासु पिय गुणवइ, जो जिणवस्पय णिच्च वि पणवइ । ताए जणिउ रिसेणे णाम सुउ, जा संजाउ विबुह-कइ विस्सुउ । सिरि चित्त उडु चइवि अचलउरहो, गयज-णिय-कज्जें जिणहरपउरहो।' हरिषेणने अन्य अपभ्रंश-कवियोंके समान कड़वकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुत-सी बातोंका समावेश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाड़देशमें विविध कलाओंमें पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। ये श्रीओजपुरके धक्कड़ कुलके वंशज थे । इनके एक गोवर्द्धन नामका धर्मात्मा पुत्र था। उसकी पत्नीका नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखसी थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ, जो विद्वान् वाषिके रूपमें विख्यात हुआ । उसने अपने किसी कार्यवश चित्रकूट छोड़ दिया और अचलपुर चला आया । यहाँ उसने छन्द और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थको रचना की । हरिषेणने अपने पूर्ववर्ती चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवास-मन्दिर था । स्वयंभू लोक और अलोकके जाननेवाले महान् देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे, जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी । कविने इन कवियोंकी तुलनामें अपनेको अत्यन्त मन्दबुद्धि कहा है। हरिषेणने अन्तिम सन्धिमें सिद्धसेनका स्मरण किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि हरिषेणके गुरु सिद्धसेन थे । सन्दर्भकी पंक्तियां निम्न प्रकार हैं :--- सिद्धि-पुरषिहि कंतु सुः तणु-मण-ययणे । भत्तिए जिण पणदेवि चितिड बह-हरिसंणे॥ मणुय-म्भिबुद्धिए कि किज्जइ, मणहरु जाइ कन्चु ण रइजइ। तं करंत अवियाणिय आरिस, हासु लहहि भउरणि गय पोरिस । चउमुह कन्यु विरयणि सयंभुवि, पुष्फयंतु अण्णाणु णिसुभिवि । तिणि वि जोग्ग जेण तं सीसइ, चउमुह मुह थिय ताव सरासइ । जो सयंभ सो देउ पहाण, बह कह लोयालोय वियाण' । पुप्फयंतु णउ माणुसु वुच्चइ, जो सरसइए कया विण मुच्चइ । ते एवंविह हउ अउ माणउ, तह छंदालंकार विहीणउ । कन्चु करंतुके मण विलजमि, सह विसेस णिय जण कि हरंजमि । १. धम्मपरिक्सा ११-२६ । प्राचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १२१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वि जिणिद धम्म अणुरायइ, वुह सिरि सिद्धसेण सुपसाई। . करमि सयं जिह लिणि दलथिउ जलु, अणहरेइ णिशुलु मुत्राहलु । धत्ता-जा जयरामें आसि विरइय पह पबंधि । सा हम्मि धम्मपरिक्ख सा पद्धडिय बधि । हरिषेणके व्यक्तित्वमै नम्रता, गुणग्राहकता, धमक प्रति श्रद्धा एवं आत्मसम्मानको भावना समाविष्ट है । उनके काव्य-वर्णनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वे पुराणशास्त्रके ज्ञाता थे और उनका अध्ययन सभी प्रकारके शास्त्रोंका था। स्थितिकाल कवि हरिषेणने 'धम्मपरिक्खा' के अन्तमें इस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित किया है । लिखा है-- विक्कम-णिव-परिवत्तिय कालए, ववगए वरिस-सहसेहि चउतालए। इय उप्पणु भविय-जण-सुहयरु, उभ-रहिय-अम्मासव-सरयरु । ११२२७ अर्थात् वि० सं० १०४४ में इस ग्रन्थको रचना हुई है । अतः कविका समय वि० सं० की ११वीं शती है।। __ कविने अपनेसे पूर्व जयरामको गाथा-छन्दोंमें विरचित प्राकृत-भाषाको धर्म-परीक्षाका अवलोकन कर इसके आधार पर ही अपनी यह कृति अपभ्रंशमें लिखी है। रचना __ कवि हरिषेणको एक ही रचना धर्म-परीक्षा नामकी उपलब्ध है। डा० १० एन उपाध्ये ने दश-धर्म परीक्षाओंका निर्देश किया है । अमिततकी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०७०में लिखी गई है। अर्थात् हरिषेणकी धर्म-परीक्षा अमितगतिसे २६ वर्ष पूर्व लिखी गई है। दोनों में पर्याप्त समानता है। अनेक कथाएँ पद्य एवं वाक्य दोनोंमें समान रूपसे मिलते हैं। पर जब तक हरिषेण द्वारा निर्दिष्ट जयरामकी धर्म-परीक्षा प्राप्त न हो तब तक इस परिणाम पर नहीं पहुंच सकते कि किसने किसको प्रभाषित किया है ? संभवत: दोनोंका स्रोत जयरामको धर्म-परीक्षा हो हो।' धर्म-परीक्षाम कविने ब्राह्मण-धर्म पर व्यंग्य किया है। उसके अनेक पौराणिक आख्यानों और घटनाओंको असंगत बत्तलाते हुए जैनधर्मके प्रति १. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, हरिषेणकी धम्मपरिवखा ऐनल्स ऑफ भण्डारकर मोरि यण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट भाग २३ पृ. ५९२-६०८ । १२२ : तोयंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्था और श्रद्धा उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया । ग्रंथको विषय-वस्तु निम्न प्रकार है___ मंगलाचरणके पश्चात् प्राचीन कवियोंका उल्लेख करते हुए आत्म-विनय प्रदर्शित की है। तदनन्तर जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मध्य प्रदेश वैताठ्य पर्वत ओर वैजयन्ती नगरीका चित्रण किया है । वैजयन्ती नगरीके राजाको रानीका नाम वायुवेगा था। उनके मनवेग नामक एक अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुआ। उसका मित्र पवनवेग भी धर्मात्मा और ब्राह्मणानुमोदित पौराणिक धममें आस्था रखने वाला था । पवनवेगके साथ मनवेग विद्वानोंकी सभामें कुसुमपुर गया। तीसरी सन्धिमें अंगदेशके राजा शेखरका कयानक देकर कवि अनेक पौराणिक उपाख्यानोंका वर्णन करता है। चौथो सन्धिमें अवतारवाद पर व्यंग्य किया है। विष्णु दश जन्म लेते हैं और फिर भी कहा जाता है कि वे अजन्मा है; यह कैसे संभव है ? स्थान-स्थानपर कविने 'तथा चोक्तं तैरेव' इत्यादि शब्दों द्वारा संस्कृतके अनेक पद्म भी उद्धृत किये हैं। इसी प्रसंगमें शिवके जाह्नवी और पार्वती प्रेम एवं गोपी-कृष्ण लीलापर भी व्यंग्य किया है । पांचवीं संधि में ब्राह्मण-धर्म की अनेक अविश्वसनीय और असत्य बातों की ओर निर्देश कर मनोवेग ब्राह्मणों को निरुत्तर करता है। इसी प्रसंगमें वह सीताहरण आदिके सम्बन्धमें भी प्रश्न करता है। सातवीं सन्धिमें गान्धारीके १०० पुत्रोंकी उत्पत्ति और पाराशरका धोवरकन्यासे विवाह वर्णित है। आठवीं' सन्धिमें कुन्तोसे कर्णको उत्पत्ति और रामायणको कथापर व्यंग्य किया है। नवीं संधिमें ममवेग अपने मित्र पवनदेगके सामने ब्राह्मणोंसे कहता है कि एकबार मेरे सिरने धड़से अलग होकर वृक्षपर चढ़कर फल खाये। अपनी बातकी पुष्टिके लिए वह रावण और जरासन्धका उदाहरण देता है। इसी प्रसंगमें मनवेग श्राद्ध पर भी व्यंग्य करता है। दशवों सन्धिमें गोमेध, अश्वमेधादि यज्ञों और नियोगादिपर व्यंग किया है । इस प्रकार मनवेग अनेक पौराणिक कथाओंका निर्देशकर और उन्हें मिथ्या प्रतिपादित कर राज्यसभाको परास्त करता है । पवनवेग भी मनवेगको युक्तियों से प्रभावित होता है और वह जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है। जैनधर्मानुकूल उपदेशों और आचरणोंक निर्देशके साथ ग्रंथ समाप्त होता है। ___ कविने इस ग्रन्यमें कवित्वशक्तिकाभी पूरा परिचय दिया है। प्रथम संधिके चतुर्थ कड़वको वैजयन्ती नगरीको सुन्दर नारीके समान मनोहारिणी बताया प्राचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १२३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। कविने विभिन्न उपमानोंका प्रयोग करते हुए इस नगरीको सुराधिपको नगरीसे भी श्रेष्ठ बताया है | वायुवेगारानीके चित्रणमें कविने परम्परागत उपमानोंका उपयोगकर उसके नखशिखका सौन्दर्य अभिव्यक्त किया है। ११ वी सन्धिके प्रथम कडवकमें मेवाड़ देशका रमणीय चित्रण किया है । यहाँके उद्यान, सरोवर, भवन आदि सभी दृष्टियोंसे सुन्दर एवं मनमोहक हैं। इस ग्रंथमें पद्धड़िया छन्दकी बहुलता है। इसके अतिरिक्त मदनावतार १११४, रिसानी ११, सपिणी ।७, कुलप. ९९, भुजंगप्रयात रा६, प्रमाणिका ३।२, रणक या रजक ३।११, मत्ता ३२१, विद्युन्माला २।९, दोधक १०३ आदि छन्दोंका प्रयोग किया है । छन्दोंमें वर्णवृत्त और मात्रिक वृत्त दोनों मिलते हैं। संक्षेपमें कविने सरल और सरस भाषामें भावोंकी अभिव्यञ्जना की है | वीर कवि महाकवि वीरने 'जंबुसामिचरिउ में अपना परिचय दिया है । उनका जन्म मालवा देशके गुस्वस्खेउ नामक ग्राममें हुआ था। उनके पिता 'लाडनागउ' गोत्रके महाकवि देवदत्त थे । देवदत्तने १. वरांगचरित २. शान्तिनाथराय ३. सद्धयवीरकथा और ४. अम्बादेवीरासकी रचना की थी । महाकवि वीरने अपने पिताको स्वयं तथा पुष्पदन्तके पश्चात् तीसरा स्थान दिया है। कविने लिखा है कि स्वयंभूके होने से अपभ्रंशका प्रथम कवि, पुष्पदन्तके होनेसे अपन'शका द्वितीय कवि और देवदप्तके होनेसे अपन शके तृतीय कविकी ख्याति हुई है। वीर कविने अपने समय तक सोन ही कवि अपभ्रशके माने हैं। स्वयंभू, पुष्पदन्त और देवदत्त । इससे यह ध्वनिस होता है कि कवि वीरके पिता देवदत्त भी अपभ्रंशके स्थातिनामा कवि थे। ___ कविकी मांका नाम श्री सनुबा था और इनके सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई ये तीन भाई थे। कविकी चार पलियां यी-१. जिनमति २. पावती ३. लीलावती ४. जयादेवी । इनकी प्रथम पलिसे नेमिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हमा था । बीर संस्कृत काव्य रचनामें भी निपुण थे; किन्तु पिताके मित्रोंकी प्रेरणा और आग्रहसे संस्कृत काव्यरचनाको छोड़कर अपभ्रंशप्रबन्धशेलोमें जंबुसामिचरिउ की रचना की है। कविका लाडवागत वंश इतिहास प्रसिद्ध बहुत पुराना है। इस वंशका प्रारंभ, पुन्नाट संघसे हुआ है। इस संघके आचार्य पुन्नाट-कर्नाटक प्रदेशमें विहार१. जंबुसामिचरित मारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन सन् १९६८; १४.५ । १२४ : तीर्थकर महावीर घोर उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते थे। इसलिए इसका नाम पुन्नाट पड़ा । तदनन्तर इसका प्रमुख कार्यक्षेत्र लाउबागच-गुजरात और सागवाड़ाके आसपासका प्रदेश हुआ। इसीलिए इसका नाम लाडवागडगच्छ पड़ा। पुम्नाट संघके प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिन्होंने शक संवत०५ (वि० सं० ८४०) में वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रहकर हरिवंशपुराणकी रचना की धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथके रचयिता आचार्य जयसेन लाहबागड संघके प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १०५५ में कर्नाटक-कराड (बम्बई) में निवास कर उक्त प्रथकी रचनाको पूर्ण किया था । इसी गणमें प्रद्युम्नचरित रचयिता महासेन, हरिषेण, विजयकीति आदि अनेक आचार्य हुए हैं । व्यक्तित्व महाकवि वीर काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष, छन्दशास्त्र, द्रव्यानुयोग, घरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयोंके ज्ञाता थे। 'जंबुसामिचरिउ'मैं' समाविष्ट पौराणिक घटनाओंके अध्ययनसे अवगत होता है कि महाकवि दोरके बल जैन पौराणिक परम्पराके ही साता नहीं थे अपितु बाल्मीकिरामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबन्धकाव्य आदि ग्रंथोंके भी पंडित थे। इनके व्यक्तित्वमें नम्रता और राजनीति-दक्षताका विशेष रूपसे समावेश हुआ है। कविको अपने पूर्वजोंपर गर्व है। वह महाकाव्य रचयिताके रूपमें अपने पिताका आदरपूर्वक उल्लेख करता है । संस्कृत भाषाका प्रौढ़ कवि और काव्य अध्येता होने के कारण वीर कविकी रचनामें पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है । वोरके 'जंबुसामिचरिउ से यह भी स्पष्ट है कि वह धर्मका परम श्रद्धालु, भक्तवती और कर्मसंस्कारोंपर आस्था रखनेवाला था। उसकी प्रकृति अत्यन्त उदार और मिलनसार थो। यही कारण है कि उसने मित्रों की प्रेरणाको स्वीकारकर अपन शमें काव्यकी रचना की। वोर कविको समाजके विभिन्न वर्गों एवं जीवन यापनके विविध साधनोंका साक्षात् अनुभव था । वह श्रद्धावान् सद् गृहस्थ था। उसने मेघवनपत्तनमें तीर्थंकर महावीरकी प्रतिमा स्थापित करवाई थी। कविके व्यक्तित्वको हम उनके निम्नकथनसे परख सकते हैं देंत दरिछं परवसणदुम्मणं सरसकच्चसव्वस्स । कइवीरसरिसपुरिसं घरणिधरती कयत्यासि | आषार्यतुल्य एवं काब्यकार लेखक : १२५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थे चाओ चरणपणमणं साहसीताण सोसे । सच्चावाणी वयणकमलए वच्छे सच्चापवित्ती ।। दरिद्रोंको दान, दूसरेके दुःखमें दुखी, सरसकाव्यको हो सर्वस्व मानने वाले पुरुषोंको धारण करनेसे ही पृथ्वी कृतार्थ होती है। हाथमें धनुष, साधुचरिस, महापुरुषों के चरणोंमें प्रणाम, मुखमें सच्ची वाणी, हृदयमें स्वच्छप्रवृत्ति, कानोंसे सुने हुए ध्रुतका ग्रहण एवं भुजलताओंमें विक्रम, वीर पुरुषका सहज परिकर होता है। ___ इस कथनसे स्पष्ट है कि कविके व्यक्तित्वमें उदारता थो, वह दरिद्रोंको दान देता था और दूसरोंके दुःखमें पूर्ण सहानुभूतिका व्यवहार करता था। कवि वीरताको भी जीवनके लिए आवश्यक मानता है। यही कारण है कि उसने युद्धोंका ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह युद्धभूमिमें सम्मिलित हुआ होगा। कवियोंके चरणोंमें नतमस्तक होना भी उसका कवित्वके प्रति सद्भाव व्यक्त करता है । सत्यवचन, पवित्र हृदय, अनवरत स्वाध्याय, भुजपराक्रम और दयाभाव उसके व्यक्तित्व के प्रमुख गुण हैं । स्थितिकाल 'जंबुसामिचरित'को प्रशस्तिमें कविन इस प्रन्यका रचनाकाल वि० सं० १०७६ माघ शुक्ला दशमी बताया है । लिखा है "विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएस परिसाणं । माहम्मि सुद्धपक्खे दसम्म दिवसम्मि संतम्मि ।। २ ।।" प्रस्तुत काव्यके अन्तःसाक्ष्य तथा अन्य बाह्यसाक्ष्योंसे मो प्रशस्तिमें उल्लिखित समय ठीक सिद्ध होता है। कवि योरने महाकवि स्वयंभू, पुष्पदन्त एवं अपने पिता देवदत्तका उल्लेख किया है। पूष्पदन्तके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि जब यह महाकवि अपने जीवनका उत्तराद्धकाल यापन कर रहा था और जिस समय राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयको मृत्युके पाँच ही वर्ष हुए थे उस समय धारा नरेश परमारवंशीय राजा सीयक था श्री हर्षने कृष्ण तृतीयके उत्तराधिकारी और अनुज खोट्टिगदेवको आक्रमण करके मार डाला था एवं मान्यखेटपुरीको बुरी तरह लूटा तथा ध्वस्त किया था (वि० सं० १०२९) । इस समय पुष्पदन्तके महापुराणकी रचना पूर्ण हो चुकी थी और अभिमानमेरु महाकवि पुषदन्तको ख्याति मालवा प्रान्त में भी हो चुकी थी। इसी समय वीर कविने अपने बाल्यकालमें ही सरस्वतीके इस वरद् पुत्रकी ख्याति सुनी होगी १२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इसको रचनाओंका अध्ययन किया होगा । यतः जंबुसामिचरिउपर पुष्यदन्तकी रचनाओंका गम्भीर और व्यापक प्रभाव दिखलायी पड़ता है। अतः कविके समयकी पूर्व सीमा वि० सं० १०२५ के लगभग आती है। इतना ही नहीं जंबुसामिचरिउपर नयन्दिके सुदंसणचरिउ (वि० सं० ११००) का प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। एक बात और विचारणीय यह है कि जंबुसामिचरिउकी पंचम, षष्ठ और सप्तम सन्धियोंमें हंसद्वीपके राजा रत्नशेखर द्वारा केरलके घेर लिये जाने और मगधराज श्रेणिकको सहायतासे राजा रत्नशेखरको परास्त किये जानेके बहानेसे वीर कविने जिस ऐतिहासिक युद्ध घटनाकी ओर संकेत किया है उसमें कविने स्वयं भी एक पक्षकी ओरसे भाग लिया हो तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं | यह घटना परिवर्तितरूपमें मुंजके द्वारा केरल, चोल तथा दक्षिणके अन्य प्रदेशोंपर वि० सं० १०३०-१०५० के बीच आक्रमण करके उन्हें विजित करनेकी मालूम पड़ती है। ___ योर कविके पश्चात् ब्रह्मजिनदासका संस्कृत 'जम्बुस्वामिचरित मिलता है जिसे उन्होंने वि० सं० १५२० में पूर्ण किया। यह रचना अपभ्रश काव्यका संस्कृत रूपान्तर है। महाकवि 'रइधू'ने भी 'अंबुसामिचरिउका निर्देश किया है । हरिषेणको 'धम्मपरिक्खा' वि० सं० १.४४ में लिखी गई है । अतः हरिषेण और पुष्पदन्त इन दोनोंके साथ कविका सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। जैन ग्रन्थावलीमें 'जंबुचरिउ'का उल्लेख आया है । इस ग्रन्थको रचना भी अपभ्रंशमें वि० सं० १०७६ में हुई है । जंबुचरिसके रचयिता सागरदत्त हैं, जो 'जंबुसामिचरित'के समान ही विषयवस्तुका वर्णन करते हैं। अतएव प्रशस्तिमें निर्दिष्ट जंबुसाभिचरिउका रचनाकाल यथार्थ है। रचना महाकवि वीरकी एक ही रचना जंबुसामिचरिउ उपलब्ध है। यह अपभ्रंशका महाकाव्य है और यह रचना ११ सन्धियोंमें पूर्ण हुई है । मंगलाचरणके अनन्सर कवि सज्जन-दुर्जन स्मरण करता है। पूर्ववर्ती कवियों के स्मरणके अनन्तर कवि अपनी अल्पमता प्रदर्शित करता है। मगधदेश और राजगृहका सुन्दर काव्यशैलीमें वर्णन किया गया है । तीर्थकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण पहुंचता है | और श्रेणिक प्रश्न करते हैं और गौतम गणघर उन प्रश्नोंका उत्तर देते हैं । मगध-मण्डलमें वर्धमान नामक ग्राममें सोमशर्मनामक गुणवान ब्राह्मण रहता था और जिसकी पत्नी सोमशर्मा नामक थी । उनके भवदत्त और भयदेव नामक दो पुत्र थे। जब वे क्रमशः १८ और १२ वर्षके थे तब उनके पिताका आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १२७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गवास हो गया और उनकी माता भी सती हो गई । माता-पिताके स्वर्गवासके अनन्तर भाई भवदत्त न्यायपूर्वक गृहस्थधर्मका पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् सुधर्म मुनिका उपदेश सुनकर भवदत्तको वैराग्य हो गया और छोटे भाई भय।। गृहस्थो मार सकार पद संभ हो गया। बारह वर्ष पश्चात् मुनि संघ विहार करता हुआ पुनः उसी गांवमें आया । छोटे भाई भवदेवको भो दीक्षित करनेको इच्छासे गुरुको अनुज्ञा लेकर भवदत्त मुनि भवदेवके घर आया। बड़े भाईका आगमन सुनकर वह बाहर आया उस समय भवदेवके विवाहको तैयारियां हो रही थीं । अतएव वह नववधूको अद्धमंडित ही छोड़कर भवदत्तके पास आया। भवदेवके आग्रहसे वहीं आहार लेकर जहाँ संघ ठहरा हुआ था वहाँ भवदत्त मुनि लौट आया। भवदेव भी भाईके साथ श्रद्धा और संकोचवश मुनि संघमें चला आया । यहाँ मुभिजनों की प्रेरणा तथा भाईको अन्तरंग इच्छाके सम्मानार्थ बेमनसे भवदेवने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। सदनन्तर संघ वहाँसे विहार कर गया। भवदेव दिनरात नागवसुके ध्यानमें लीन रहता हुआ घर लौटकर पुनः उसके साथ काम भोग भोगनेके अवसरकी प्रतीक्षामें समय व्यतीत करने लगा। १२ वर्ष पश्चात् मुनि सघ पुनः उसी वधमान गाँवके निकट आकर ठहरा । भवदेव इससे बहुत उल्लसित हुआ और बहाना करके अपने घरको ओर चल पड़ा। गाँव के बाहर ही एक जिन चैत्यालयमें उसकी नागवसुसे भेंट हो गई । व्रतोंके पालनेसे अति कृशगात्र अस्थिपंजर मात्र शेष रहनेसे भवदेव उसे पहचान नहीं सका । अपने कुल और पत्नीके सम्बन्धमें पूछने पर नागवसुने उसे पहचान लिया । नागवसुने उसे अपना परिचय दिया और तपः शुष्क शरीर दिखलाकर नाना प्रकारसे धर्मोपदेश दे भवदेवको प्रतिबद्ध किया । इस प्रकार बोध प्राप्त कर शवदेवने आचार्य के पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः दीक्षा ग्रहण कर कठोर तपश्चरण किया । और मृत्युके अनन्तर तृतीय स्वर्ग प्राप्त किया । स्वर्गसे च्युत हो भवदत्त पूर्व विदेहमें राजा वज्रदन्त और उसकी रानी यशोधनाके मर्भसे सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ। और भवदेवका जीव वहाँके राजा महापद्म और वनमाला नामक पटरानीका शिबकुमार नामक पुत्र हुआ। कालान्तरमै सागरचन्द्र दीक्षित हो गया। उसने भवदेवके जीव युवराज शिवकुमारको प्रतियोधित करनेका प्रयास किया; पर माता-पिताको अनुज्ञा न मिलने से वह घरमें ही धर्म-साधन करने लगा। इस तपके प्रभावसे भवदेवने १२८ : नीर्थ धर. महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः स्वर्ग में जन्म ग्रहण किया और भवदत्तके जीव सागरचन्द्रने आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में जन्म प्राप्त किया । चौथो सन्धिसे जम्बूस्वामीको कथा आरंभ होती है। इनके पिताका नाम अहंदास था । सन्धिमें जन्म, वसन्तोत्सव, जलक्रीड़ा आदिका वर्णन आया है। अनन्तर उनके द्वारा मत्त गजको परास्त करनेका कथन आया है । पाँचवीसे सातवीं सन्धितक जम्बूस्वामीके अनेक दीरतापूर्ण कार्योंका वर्णन किया है। महर्षि सुधर्मास्वामी अपने पांच शिष्योंके साथ उपवनमें आते हैं। जम्बूस्वामी उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं। वे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त जान कर विरक्त हो घर छोड़ना चाहते हैं। माता समझाती है। सागरदत्त श्रेष्ठिका भेजा हुआ मनुष्य आकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है । श्रेष्ठियोंकी कमलश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नामक चार कन्याओंसे जम्बूका विवाह होता है । " जम्बूके हृदय में पुनः वैराग्य जाग्रत होता है । उनकी पत्नियाँ वैराग्यविरोधी - कथाएं कहती हैं। जम्बू महिलाओंकी निन्दा करता हुआ वैराग्य निरूपक कथानक कहता है । इस प्रकार अर्द्धरात्रि व्यतीत हो जाती है । इतने में ही विद्युन्चर चोर चोरी करता हुआ वहाँ आता है । जम्बूस्वामी की माता भी जागती थीं । उसने कहा - 'चोर, जो चाहता है, ले ले' । चोरको जम्बूको मातासे जम्बूके वैराग्य भावकी सूचना मिलती है। विद्युच्चरने प्रतिज्ञा की कि वह या तो जम्बूको रागी बना देगा, अन्यथा स्वयं वह वैरागी बन जायगा । जम्बूको माता उस चोरको उस समय अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके पास ले जाती जाती है, ताकि विद्युच्चर अपने कार्य में सफल हो । दशवीं सन्धिमें जम्बू और विद्युच्चर एक दूसरेको प्रभावित करनेके लिए अनेक आख्यान सुनाते हैं। जम्बू वैराग्यप्रधान एवं विषय-भोगकी निस्सारताप्रतिपादक आख्यान कहते हैं और विद्युच्चर इसके विपरीत वैराग्यको निस्सारता दिखलानेवाले त्रिषयभोग-प्रतिपादक आख्यान । जम्बूस्वामोकी अन्तमें विजय होती है। वे सुधर्मास्वामीसे दीक्षा लेते हैं और उनका सभी पत्नियाँ भी आर्यिका हो जाती हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तमें निर्वाणपद लाभ करते हैं । विद्युच्चर भी दशविध धर्मका पालन करता हुआ तपस्या द्वारा सर्वार्थसिद्धि लाभ करता है । जम्बूचरिउके पढ़नेसे मंगल-लाभका संकेत करते हुए कृति समाप्त होती है । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १२९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थमें जम्बूस्वामीके पूर्वजन्मोंका भी वर्णन आया है। पूर्वजन्मोंमें वह शिवकुमार और भवदेव था और उसका बड़ा भाई सागरचन्द और भवदत्त । भवदेवके जीवनमें स्वाभाविकता है। भवदत्तके कारण ही भवदेवके जीवनमें उतार-चढ़ाव और अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित होते हैं । जम्बूस्वामीको पलियोंके पूर्व जन्म-प्रसंग कथा-प्रवाहमें योग नहीं देते। अतः बे अनावश्यक जैसे प्रतीत होते हैं। ___ जम्बूस्वामीके चरित्रको कवि जिस दिशाकी ओर मोड़ना चाहता है उसी ओर वह मुड़ता गया । कविने नायकके जीवन में किसी भी प्रकारकी अस्वा भाविकता चित्रित नहीं की है । राग और वैराग्यके मध्य जम्बूस्वामीका जीवन विकसित होता है। "जम्बूसामिचरिउ' में शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण घटित होते हैं। सुगठित इतिवृत्तके साथ देश, नगर, ग्राम, शैल, अटवी, उपवन, उद्यान, सरिता, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण आया है । रसभाव-योजनाकी दष्टिसे यह एक प्रेमाख्यानक महाकाव्य है । इस महाकाव्यका आरंभ अश्वघोष कृत 'सौन्दरनन्द' मझा सम्मान वई माईस छोटे भाई प्रयवके अनिच्छापूर्वक दीक्षित कर लिये जानेसे प्रियावियोगजन्य विप्रलम्भ श्रृंगारसे होता है। भवदेव के प्रेमकी प्रकर्षता और महत्ता इसमें है कि वह जनसंघक कठोर अनुशासनमें दिगम्बर मुनिके वेशमें बड़े भाईको देखरेख में रहते हुए भी तथा जैन मुनिके अतिकठोर आचारका पालन करते हुए भी १२ वर्षोंका दीर्घ काल अपनी पत्नी नायवसुके रूप-चिन्तनमें व्यतीत कर देता है । और अपनी प्रियाका निशिदिन ध्यान करता रहता है। १२ वर्ष पश्चात् वह अपने गांव लौटता है और प्रिया द्वारा ही उद्बोधन प्राप्त करता है। इस प्रकार काव्यकी कथावस्तु विप्रलंभ शृंगारसे आरंभ होकर शान्त रसमें समाविष्ट होती है । वीर (४।२१), गेद्र (५।३,५।१३), भयानक (१०।२), वीभत्स (१०२६), करुण (२१५, ११।१७), अद्भुत (२३, ५।२) एवं वात्सल्य (७१३, ६१७) में रसका परिणाम आया है। अलंकारोंमें उपारा ११६, मालोपमा ५१८, मालोत्प्रेक्षा ८१०, फलोत्प्रेक्षा ४११४, रूपकमाला २७, मिदर्शना १३, दष्टान्त १२, वक्रोक्तिः ४१८, विभावना ४१८, विरोधाभास ९।१२, व्यतिरेक ४|१७, सन्देह ४|१९, भ्रान्तिमान् ५२, और अतिशयोक्ति १।१७ अलंकार पाये जाते हैं। १३० : गेवर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पग Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दोंमें करिमकरभुजा (७।१०), दीपक (४।२२), पारण क (१२२), पडिया (१८), अलिल्लह (२६), सिंहावलोक (६६), बोटनक (४७), पादाकुलक {१२१), उर्वशी (३।४), सारीय (५।१४), स्रग्विणी (११९, ४।१६), मदनावतार (६:१०), त्रिपदी शंखनारी (४/५), सामानिका (९।१७), भुजंगप्रयात (४।२१), दिनमणि (७५), गाथा (९३१), उद्गाथा (७१), दोहा (४।१४), रत्नमालिका (२०१५) मणिशेखर (५।८) मालागाहो {७४}, दण्डक (४८) का प्रयोग कविने किया है । इस प्रकार महाकाव्यके सभी तत्त्व जंबुसामिचरिउमें पाये जाते हैं। श्रीचन्द श्रीचन्दका नाम 'दंसणकहरयणकरंडु'में पंडित श्रीचन्द्र भी आया है। कविने अपना परिचय 'दंसणकहरयणकरंडु'के अन्सकी प्रशस्तिमें अंकिस किया है । कविने लिखा है देशोगणपहाणु गुणगणहरु, अवइण्ण णावइ सई गणहरु । भब्वमणो-लि-दिणेसा, मिरिमिनि ति नित्ति गुणोस !! तासु सोसु पंडियचूडामणि, सिरिगंगेयपमह पउरावणि । xxx x धम्मुव रिसिवें जसरूवउ, सिरिसुयकित्तिणामु संभूयउ । सिरि चंदुज्जलजसु संजायज, णामे सहसकित्ति विक्खायउ । x सिरिचंदु णामु सोहण मुणोसु, संजायज पंडिउ पढम सीसु । तेणेउ अणेयच्छरियधामु, दसणकहरयणकरेंडुणामु । कारिंदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि । बुहसिरिचदें एउ कउ गंदउ कव्वु जयम्मि॥ इस प्रशस्तिसे तथा कथाकोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्रके पूर्व तीन विशेषण प्राप्त होते हैं- कवि, मुनि और पंडित । श्रीचन्द मुनि थे और ग्रन्थ-रचना करनेसे वे कवि और पंडितकी उपाधिसे अलंकृत थे । श्रीचन्दने प्रशस्तियों में अपनी गरुपरम्परा निम्न प्रकार अंकित की है श्रापार्यसुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय श्रीकीर्ति श्रुतकीति सहस्रकीति वीरचन्द्र श्रीचन्द्र सहस्रकीतिके पांच शिष्य थे-देवचन्द्र, वासवमुनि, उदयकोति, शुभचन्द्र और वीरचन्द्र। इन पांचों शिष्योंमेंसे वीरचन्द्र अन्तिम शिष्य थे। इन्हीं वीरचन्द्र के शिष्य श्रीचन्द्र हैं। श्रीचन्द्रने कथाकोशकी रचनाके प्रेरकोंका वंशपरिचय विस्तारपूर्वक दिया है । बताया है कि सौराष्ट्र देशके अपाहिल्लपुर (पाटण) नामक नगरमें प्राग्वाटवंशीय सज्जन नामके एक व्यक्ति हुए, जो मूलराल नरेशके धर्मस्थानके गोष्ठीकार अर्थात् धार्मिक कथावार्ता सुनानेवाले थे । इनके पुत्र कृष्ण हुए, जिनकी भगिनीका नाम जयन्ती और पत्नीका नाम राणू था। उनके तीन पुत्र हुएबीजा, साहनपाल और साढदेव तथा चार कन्याएँ-श्री, शृंगारदेवी, सुन्दू और सोखू । इनमें सुन्दू या सुन्दुका विशेषरूपसे जैनधर्मके उद्धार और प्रचारमें रुचि रखती थी। कृष्णकी इस सन्तानने अपने कर्मक्षयसे हेतु कथाकोशकी व्याख्या कराई। आगे इसो प्रशस्तिमें बताया गया है कि कर्त्ताने भव्योंकी प्रार्थनासे पूर्व आचार्यकी कृतिको अवगत कर इस सुन्दर कथाकोशको रचना की। इस कथनसे यह अनुमान होता है कि इस विषयपर पूर्वाचार्यको कोई रचना श्रीचन्द्रमुनिके सम्मुख थी। प्रथम उन्होंने उसी रचनाका व्याख्यान श्रावकोंको सुनाया होगा, जो उन्हें बहुत रोचक प्रतीत हुआ। इसीसे उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वतन्त्ररूपसे कथाकोशकी रचना कीजिये । फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रणयन किया गया है। प्रशस्तिमें ग्रंथकारके व्याख्यातृत्व और कवित्व आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्देश किया गया है । अतएव यह स्पष्ट है कि सौराष्ट्र देशके अणहिल्लपुरमें कृष्ण श्रावक और उनके परिवारकी प्रेरणासे कथाकोश ग्रन्धकी रचना हुई है। 'दसणकहरयणकरडु' ग्रंथको सन्धियोंके पुष्पिकावाक्योंमें 'पं० श्रीचन्द्र कृत' निर्देश मिलता है । यह निर्देश सोलहबों सन्धि तक ही पाया जाता है । १३२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७वीं से २१वीं सन्धि तककी पुष्पिकाओंमें 'इय सिरिचन्दमुणीन्दकए'(इति श्रीचन्द्रमुनिकृस) उल्लेख मिलता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'दंसणकहरयणकरंडु' की १६वीं सन्धिकी रचना तक श्रीचन्द्र श्रावक थे, पर इसके पश्चात् उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की होगी। अतएब उन्होंने 'दसणकहरयणकरंडु' की अवशिष्ट सन्धियाँ और कथाकोशको रचना मुनि अवस्थामें को है। श्रीचन्द्रका व्यक्तित्व श्रावक और श्रमण दोनोंका समन्वित रूप है। कवित्वके साथ उनकी व्याख्यानशैली भी मनोहर थी। श्रीचन्द्र राजाश्रयमें भी थे । श्रीमालपुर और अणहिल्लपुरके साथ उनका निकटका सम्बन्ध था । रचनासे यह भी ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्र मनुष्यजन्मको दुर्लभ समझ दिगम्बर दीक्षामें प्रवृत्त हुए थे। मनुष्यजन्मको दुर्लभताके लिए उन्होंने पाशक, धान्य धूत, रत्नकथा, स्वप्न, चन्द्रकवेध, कूर्मकथा, युग्म और परमाणुको दृष्टान्तकथाएं उपस्थित की हैं, जिससे उनका अध्यात्मप्रेमप्रकट होता है। कविके आख्यानको इस शैलोसे यह भी ध्वनित होता है कि वे संसारमें धर्म पुरुषार्थको महत्त्व देते थे। स्थितिकाल कवि श्रीचन्द्र ने 'दसणकहरयणकरंडु'को प्रशस्तिमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है एयारह-तेवीसा वाससया विक्कमस्स परवइणो । जइया गया हु तइया समाणियं सुंदरं कन्वं ॥१॥ कण्ण-रिंदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि । बुह-सिरिचंदें एउ किउ गंदउ कव्वु जयम्मि ।।२।। अर्थात् वि० सं० ११२३ व्यतीत होनेपर कर्ण नरेन्द्र के राज्य में श्रीमालपुरमें विद्वान् श्रीचन्द्रने इस 'दसणकहरयणकरंडु' काव्यको रचना की। यह कर्ण सोलंकीनरेश भीमदेव प्रथमके उत्तराधिकारी थे और इन्होंने सन् १०१४से ई० सन् १०९४ तक राज्य किया है। अतएव कविने ई० सन् १०६६में उक्त ग्रंथकी रचना की है, जो कर्णके राज्यकालमें सम्पन्न हुई है। __ श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड़की राजधानी थी । सोलंकीनरेश भीमदेवने सन् १०६० ई० में वहाँके परमारवंशी राजा कृष्णराजको पराजितकर बंदोमूहमें डाल दिया और भीनमालपर अधिकार कर लिया । उनका यह अधिकार उनके उत्तराधिकारी कर्णतक स्थिर रहा प्रतीत होता है। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दंसणकथणकरंडु' को १६वीं सन्धि तक 'पंडित' विशेषण उपलब्ध होता है और इसके पश्चात् 'मुनि' विशेषण प्राप्त होने लगता है । कथाकोशकी रचना ' दर्शन कथा रत्नकरण्ड' के पश्चात् हुई होगी। श्री डॉ० हीरालालजीने इस ग्रंथका रचनाकाल ई० सन् १०७०के लगभग माना है ।" 1 कथाकोषकी प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि महाश्रावक कृष्णके परिवारकी प्रेरणा से यह प्रथ लिखा है । इनके पिता सज्जन मूलराजनरेशके धर्मस्थान के गोष्ठीकार थे । ये मूलराज वही है, जिन्होंने गुजरात में वनराज द्वारा स्थापित चावड़ा वंशको च्युतकर ई० सत् ९४९में सोलंकी (चालुक्य) वंशकी स्थापना की थी। प्रशस्ति में यह भी बताया गया है कि ग्रन्थकार के परदादागुरु श्रुतकीर्तिके चरणोंकी पूजा गांगेय भोजदेव आदि बड़े-बड़े राजाओंने को थी । डॉ० हीरा. लालजीका अनुमान है कि गांगेय निश्चयतः डाहल (जबलपुर के आस-पासका प्रदेश) के वे ही कलचुरी नरेश गांगेयदेव होता वाहिए की कील पश्चा सन् १०१९ के लगभग सिंहासनारूढ़ होकर सन् १०३८ तक राज्य करते रहे । भोजदेव धारा के ये ही परमार वंशी राजा है, जिन्होंने ई० सन् १००० से १०५५ तक मालवापर राज्य किया तथा जिनका गुजरात के सोलंकी राजाओंसे अनेकबार संघर्ष हुआ । अतएव श्रीचन्द्रका समय ई० सन्की ११वीं शती होना चाहिए। रचनाएँ श्रीचन्द्र मुनिकी दो रचनाएं उपलब्ध है- 'दंसणकयणकरंडु' और 'कहाकीसु' । दंसणरकहरयणकरंडु प्रथम ग्रन्थ में २१ सन्धि हैं। प्रथम सन्धिमें देव, गुरु और धर्म तथा गुणदोषोंका वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक हैं । उत्तमक्षमादि दश धमं, २२ परीषह, पंचाचार, १२ तप आदिका कथन किया है। पंचास्तिकाय और षद्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धिमें आया है । समस्त कमौके भेद-प्रभेदका कथन भी प्राप्त होता है | कविने नामकर्मको ४२ प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए लिखा हैणारय- तिरिय णराण, सह देवाउ चउत्प । णामहो णामहं भेउ, सुण एवह बायालीस ||३६|| गइ जाइ णामु तणु अंगु-बंगु, णिम्माणय बंधण पाम अंगु । संघाणामु ठाणणामु, संहृणणष्णामु भासह अकामु ॥ रस फास गंधु अणुपुब्विणामु, वरणा गुरुल उवधायणामु । परघायातप उज्जोवणामु उस्सास विहायगई सामु || १. 'कहाको' प्राकृत-प्रन्थ-परिषद, अहमदाबाद, सन् १९६९, प्रस्तावना, पु०५ १३४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहारण पत्तेयंगणाम. तस यावर सुहुमासहुमणाम् ॥ सोहग्गणामु दोहग्गणाम्, सुस्सर दुस्सर सुह-असुहणाभु ॥ पज्जत्त इयर थिर अधिर नामु आदेउ तहा उणादेउणामु || जसकित्ति अजस कितीण णामु, तित्थयरणामु सिव सोक्खधाम । इय पिडापिडा पर्याद्धि जणिय, चालीसदु जाहिय भेव भणिय । णामक्ख होंति तेणवइ भेय, विवरिज्जहि जइ जाणह विर्णय । द्वितीय सन्धिमें सुभौम चक्रवत्र्त्तीको उत्पत्ति और परशुरामके मरणका वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धिमें पद्मरथ राजाका उपसर्ग- -सहन, आकाशगमन, विद्यासाधन और अंजन चोरका निर्वाण-गमन वर्णित है । चतुर्थं सन्धिमें अनन्तमतीकी कथा आयी है। पंचम सन्धिमें निविचिकित्सागुणका वर्णन आया है । षष्ठ सन्धिमें अमददृष्टिगुणका वर्णन है। सप्तम सन्धिमें उपगूहन ओर स्थितिकरण के कथानक आये है । अष्टम सन्धिमें वात्सल्य-गुणकी कथा वर्णित है | नवम सन्धिमें प्रभावना अंगकी कथा आयी है। दशम सन्धिमें कौमुदी यात्राका वर्णन है । ग्यारहवीं सन्धिमें उदितोदय सहित उपदेशदान वर्णित है । बारहवीं सन्धिमें परिवारसहित उदितोदयका तपश्चरण-ग्रहण आया है | १३वीं सन्धिमें बेत्तालकथानक वर्णित है । १४वीं सन्धिमें मालाकथानक आया है । १५वीं सन्धिमें सोमश्रीकी कथा वर्णित है । १६वीं सन्धिमें काशीदेश, वाराणसी नगरीके वर्णनके पश्चात् भक्ति और नियमोंका वर्णन है १७वीं सन्धिमें अनस्तमित अर्थात् रात्रिभोजन त्यागवत की कथा वर्णित है । १८वी सन्धिमें दया- धर्मके फलको प्राप्त करने वालोंकी कथा वर्णित है । १९वीं सन्धिमें नरकग सिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । २०वीं सन्धिमें बिना जाने हुए फल - भक्षण के त्याग की कथा वर्णित है । २१वीं सन्धिमें उदितोदय राजामोंको परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के आठ अंग, व्रतनियम, रात्रिभोजनत्याग आदिके कथानक वर्णित हैं । कथाओं के द्वारा कविने धर्म-तत्त्वको हृदयंगम करानेका प्रयास किया है। कथाकोश - इस ग्रन्थमें ५३ सन्धियां है और प्रत्येक सन्धिमें कम-से-कम एक कथा अवश्य आयी है। ये सभी कथाए धार्मिक और उपदेशप्रद है । कथाओंका उद्देश्य मनुष्यके हृदय में निर्वेद-भाव जागृत कर वैराग्यको ओर अग्रसर करना है । कथाकोषमें आई हुई कथाएँ तीर्थंकर महावीरके कालसे गुरुपरम्परा द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं। प्रथम सन्धिमें पात्रदान द्वारा धनकी सार्थकता प्रतिपादित कर स्वाध्यायसे लाभ और उसकी मावश्यकतापर जोर दिया है। इस सन्धिके अन्त में सोमशर्मा ज्ञानसम्पादनसे निराश हो आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण ग्रहण करता है तथा पाँच दिनोंके समाधिमरण द्वारा स्वर्गमं अवधिज्ञानी देव होता है । द्वितीय सन्धि में सम्यक्त्वके अतिचार और शंकादि दोषोंके उदाहरण आये हैं। इन उदाहरणोंको स्पष्ट करने के लिए आख्यानोंकी योजना की गई है। तृतीय सन्धिमें उपगूहन आदि सम्यक्त्वके चार गुण बतलाये हैं और उपगूहनका दृष्टान्त लिएर राजकुमार विशाखको कथा आई है। प्रसंगवश इस कथा में विष्णुकुमारमुनि और राजा बलिका आख्यान भी वर्णित है। चतुर्थ सन्धिमें प्रभावनाविषयक वञ्चकुमार की कथा अंकित है। पंचम सन्धि में श्रद्धानका फल प्रतिपादित करने के लिए हस्तिनापुर के राजा धनपाल और सेठ जिनदासकी कथा आयी है । छठी सन्धिमें श्रुतविनयका आख्यान, गुरुनिन्हवकथा, व्यंजन हीनकथा, अर्थहीन कथा, सप्तम सन्धिमें नागदत्तमुनिकथा, शूरमित्रकथा, वासुदेवकथा, कल्हास मित्रकथा और हंसकथा, अष्टम सन्धिमें हरिषेणचक्रीकथा, नवम सन्धिमें विष्णुप्रद्युम्नकथा और मनुष्यजन्मको दुर्लभता सिद्ध करनेवाले दृष्टान्त, दशम सन्धिमें संघीकथा एकादश सन्धिमें द्रव्यदत्तका आख्यान, जिनदत्त व सुदत्तका आख्यान, लकुचकुमारका आख्यान, पद्मरथका आख्यान, ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीआख्यान, जिनदास - आख्यान, रूद्रदत्त - आख्यान, द्वादश सन्धिमें श्रेणिकचरित, त्रयोदश सन्धिमें श्रेणिकका महावीरके समवशरण में जाना और वहाँ धर्मोपदेशका श्रवण करना, पन्द्रहवीं और सोलहवीं सन्धियोंमें विविध प्रश्न और आख्यानोंका वर्णन है । सत्रहवीं और अठाहरवीं सन्धिमें करकंडुका चरित वर्णित है । १९ वों और २० वीं सन्धिमें रोहिणीचरित वर्णित है । २१ व सन्धिमें भक्ति और पूजाफल सम्बन्धो आख्यान निबद्ध हैं । २२वीं सन्धिमें नमोकारमन्त्रको अराधना के फलको बतलानेवाले सुदर्शन आदिके आख्यान अंकित हैं । २३ वीं, २४ वीं और २५ बी सन्धियों में ज्ञानोपयोग के फलसम्बन्धी कथानक अंकित है । २६ वीं ओर २७ वीं सन्धिमें दान और धर्मसम्बन्धी कथानक आये हैं । २८ वींसे लेकर ३४ वीं सन्धि तक पंच पाप और विकारसम्बन्धी तथ्योंके विश्लेषण के लिए कथानक अंकित किये गये हैं । ३५ वीं सन्धिमें प्रशंसनीय महिलाओंक आख्यान, ३६ वीं सन्धिमें श्रावकधर्म और पंचाक्षरमन्त्र के उपदेशसम्बन्धी आख्यान गुम्फित हैं । ३७ वीं सन्धिमें शकटमुनि और पाराशर की कथा, ३८ वीं सन्धिमें सात्यकी रूद्रकथा ६९ वीं सन्धिमें राजमुनि कथा, ४० वीं सन्धिमें अर्थकी अनर्थमूलता सूचक आख्यान वर्णित हैं । ४१ वीं सन्धिमें धन के निमित्तसे दुःख प्राप्त करनेवाले व्यक्तियोंके आख्यान वर्णित हैं । ४२वीं सन्धिम निदानसे सम्बन्धित कथाएं आयी हैं । ४३वीं सन्धिमें तीनों शल्योंसे सम्बन्धित कथानक, ४४ वीं सन्धिमें स्पर्शन-इन्द्रियके अधीन रहनेवाले १३६ : तोथंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा J Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा चारों कषायों का सेवन करनेवाले व्यक्तियोंके कथानक आये हैं; ४५ वीं, ४६ वीं, ४७ वीं, ४८ वीं, ४९ वीं और ५० वीं सन्धियोंमें परीषहोंपर विजय करने वाले शीलसेन्द्र, सुकुमाल, सुकोशल, राजकुमार, सनत्कुमारचक्रवर्ती, भद्रबाहु, aiघोषमुनि, वृषभसेनमुनि अग्निपुत्र अभयघोष, विद्युच्चरमुनि, चिलास्पुत्र, धन्यकुमार, चाणक्यमुनि और ऋषभसेनमुनिको कथाएँ वर्णित हैं । ५१ वीं सन्धिमें प्रत्याख्यान के अखण्ड पालनपर श्रीपालकथा, प्रायश्वित्तपर राजपुत्रकथा, आहारगृद्धिपर शालिसिक्थकथा, भोजनकी लोलुपतापर सुभौम चक्रवर्तीकथा और संसारको अनिष्टतापर धनदेवकथा आई है । ५२ वीं सन्धि में कर्मफलको प्रबलतापर सुभोगनूपकथा, व्रत भंगपर धर्मसिंहमुनिकथा, ऋषभसेनमुनिकथा और आत्मघात द्वारा संघरक्षापर जयसेननृपकथा आई है । ५३ वीं सन्धिमें समाधिमरणपर शकटालमुनिको कथा अंकित है । इस कथाग्रंथ नगर, देश, ग्राम आदिके वर्णन के साथ यथास्थान अलंकारोंका भी प्रयोग किया गया है । श्रीधर प्रथम अपभ्रंश - साहित्य में श्रीधर और विष श्रीधर नामके कई विद्वानोंका परिचय प्राप्त होता है । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने संस्कृत और अपभ्रंशके सात कवियोंका परिचय दिया है।" श्रीधरके पूर्व 'विबुध' विशेषण भी प्राप्त होता है । श्री हरिवंश को छड़ने 'पासणाहचरिङ', 'सुकुमालचरिज' और 'भविसयत्तचरिउ' ग्रन्थोंका रचयिता इन्हीं श्रीधरको माना है । पर पं० परमानन्दजी 'पासणाहचरिउ' के रचयिता श्रीधरको भविसयत्तचरिउ' और सुकुमाल चरिउके रचयिताओंसे भिन्न मानते हैं। श्री डॉ० देवेन्द्रकुमारशास्त्रीने भो भविसयत्तचरिउके रचयिता श्रीधर या विबुध श्रीवरको उक्त ग्रन्थोंके रचयिताओंसे भिन्न बतलाया है । वस्तुतः 'पासणाहचरिउ का रचयिता श्रीधर, भविसयत्तचरिउके रचयितासे तो भिन्न है ही, पर वह सुकुमालचरिउके रचयितासे भी भिन्न है । इन तीनों ग्रन्थोंके रचयिता तीन श्रीधर हैं, एक श्रीधर नहीं । 'पासणाहचरिउ' के अन्त में जो प्रशस्ति अंकित है उससे कविके जीवनवृत्तपर निम्न लिखित प्रकाश पड़ता है १. अनेकान्त वर्ष ८, किरण १२, पृष्ठ ४६२ । २. अपभ्रंश-साहित्य, भारती साहित्य-मन्दिर, दिल्ली, पृ० २१० । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सिरिअयरवालकुल-संभवेण, जपणी-विल्हा-गम्भु(म्भ) वेण अणवरय-विणय-पणयारहेण, कइणा बुहगोल्हतणुरुहेण | पडियतिहुअणवइगुणभरेण, मणिणयसुहिसुअणेसिरिहरेण' ! -पासणाहचरिउ, प्रशस्ति कवि अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुआ था। इसकी माताका नाम वोल्हादेवो और पिताका नाम बुधगोल्ह था। कविने इससे अधिक अपना परिचय नहीं दिया है । कविका एक 'पासणाहपरिउ' हो उपलब्ध है । पर ग्रन्थके प्रारंभिक भागसे उनके द्वारा चन्द्रप्रभचरितके रचे जानेका भी उल्लेख प्राप्त होता है। पंक्तियाँ निम्न प्रकार है "विरएवि चंदप्पहचरिउ चारु, चिर-चरिय-कम्मदुक्खावहार। विहरते कोऊहलवसेण, परिहच्छिय वाससरिसरेण ।" 'पासणाहरिज'में कविने इस ग्रंथके रचे जानेका कारण भी बतलाया है। फवि दिल्लौके पास हरियाणा में निवास करता था। उसे इस ग्रंथके रचनेकी प्रेरणा साह नट्टलके परिवारसे प्राप्त हुई। साहू नट्टल दिल्ली (योगिनीपुर) के निवासी थे। उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय अनंगपाल तृतीयका शासन विद्यमान था । यह अनंगपाल अपने पूर्वज दो अनंगपालोंसे भिन्न था और यह बड़ा प्रसापो एवं वीर था । इसने हम्मीर वीरको सहायता की थी। प्रशस्तिमें लिखा है जहिं असिवर तोडिय रिउ कचालु, णरणाहु पसिद्ध अणंगुवालु णिरुदल वढियहम्मीर वीरू, वंदियण विदं पवियण्ण चोर । दुज्जण-हिय-यावणिदलणसोरु, दुग्णयणीरय-णिरसण-समीरु । बालभर-कंपाविय-णायराउ, भामिणि-यण-मण-संजणिय-राउ । दिल्लीकी शासन-व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित थी और सभी जातियोंके लोग वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे। नट्टल साहू धर्मास्मा और साहित्य-प्रेमी ही नहीं थे; अपितु उच्चकोटिके कुशल-व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग, वंग, कलिंग, कर्णाटक, नेपाल, भोट्ट, पांचाल, चेदि, गौड़, लक्क केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ आदि देशोंमें चल रहा था । कविको इन्हीं नट्टल साहूने 'पासणाहचरिज के लिखनेकी प्रेरणा दी थी। नट्टल साहूके पिताका नाम अल्हण साहू था और इनका वंश अग्नवाल था | नट्टल साहूकी माता बड़ी ही धर्मात्मा और शीलगुण सम्पन्न थी। नट्टल साहूके दो ज्येष्ठ भाई थे-राघव और सोढल । सोढल विद्वानोंको १३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्ददायक, गुरुभक्त और अर्हन्तके चरणोंका भ्रमर था । नट्टल साहू भी बड़ा ही धर्मात्मा और लोकप्रिय था। उसे कुलरूपी कमलोंका आकर, पापरूपी पांशुका नाशक, बन्दीजनोंको दान देनेवाला, तीर्थंकर मृत्तियोंका प्रति ष्ठापक, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त और रत्नत्रयधारी था । साहित्यिक अभिरुचि के साथ सांस्कृतिक अभिरुचि भी उसमें विद्यमान थी। उसने दिल्लीमे एक विशाल जैन मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। पांचवी सन्धि के पश्चात् पासणाहचरिउमें एक संस्कृत-पद्य आया है, जिससे उपर्युक्त तथ्य निस्सृत होता है "येनाराध्य विशुद्धवीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणे : संतोषिता बांधवाः ॥ जैनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा । स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ||" अतएव स्पष्ट है कि कवि श्रीधर प्रथमको पासणाहचरिउके रचनेकी प्रेरणा नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी । कविके दिल्ली-वर्णन, यमुना-वर्णन, युद्ध-वर्णन, मन्दिर वर्णन आदिसे स्पष्ट होता है कि कवि स्वाभिमानी था। वह नाना - शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी चरित्रको महत्त्व देता था । अलंकारोंके प्रति कविको विशेष ममत्ता है । वह साधारण वर्णनको भी अलंकृत बनाता है । भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों पर कविको अपूर्व आस्था है। उसकी दृष्टिमें कर्मठ जीवन ही महत्त्वपूर्ण है । स्थितिकाल पासणाहचरिउमें उसका रचनाकाल अंकित है । अतएव कविके स्थितिकालके सम्बन्ध में विवाद नहीं है । विक्कमर्णारद-सुपसिद्ध कालि, ढिल्ली-पट्टण घणकण-विसालि । सणवासी- एयारह सहि, परिवाडिए बरिस-परिगएहिं 1 कसमीहि आगणमासि, रविचारि समाणितं सिसिरभासि । सिरिपासणाह णिम्मलचरितु सबलामलरयणोह- दित्तु । अर्थात् वि० सं० १९८९ मार्गशीर्ष कृष्ण पूर्ण हुआ । अष्टमी रविवार के दिन यह ग्रंथ कविकी एक अन्य रचना 'वड्ढमाणचरिउ' भी प्राप्त है। इस रचना में भी कविने रचनाकालका निर्देश किया है । 'वड्माणचरिउ में अंकित की गई वाचायंतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३९ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशावली पासणाहचरिउकी वंशावली के समान है । कविने अपनेको बील्हाके गर्भसे उत्पन्न लिखा है । बताया है वील्हा - गन्भ समुभव दोहें । सव्वयहि सहुँ पर्याडय हें ॥ एउ चिरज्जिय पाव स्वयंकरु । वड्ढमाणचरिउ सुरु ॥ वड्ढमाणचरिउका रचनाकाल कविने वि० सं० १९९० ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी रविवार बताया है। लिखा है एया रहसएहि परिविगर्याह । संवच्छर सरणवह समेर्याह । पंचमिदिणे | सूरुवारे गयणं गणिठिइइ ॥ जे-पढम-पक्ख अतएव श्रीधर प्रथम या विबुध श्रोवरका समय विक्रमकी १२वीं शती निश्चित है । रचनाएँ विवुध श्रीधरकी दो रचनाएं निश्चित से मानी जा है-खणाहचरिउ' और 'वड्ढमाणचरित्र'। ये दोनों ही रचनाएँ पौराणिक महाकाव्य हैं। इनमें पौराणिक काव्यके सभी तत्त्व पाये जाते हैं । पासणाहचरिउ तीर्थंकर पार्श्वनाथका चरित अपभ्रंशके कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य के सन्देशको जनसामान्य तक पहुँचानेके लिए यह चरित बहुत ही उपादेय है । कवि श्रीधर प्रथमने अपने इस चरितकाव्य में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथका जीवनवृत्त गुम्फित किया है । कथावस्तु १२ सन्धियों में विभक्त है और इस ग्रंथका प्रमाण २५०० पद्य है । कविने यमुनानदीका चित्रण प्रियतमके पास जाती हुई विलासिनीके रूपमें किया है । उणासरि सुरणय-हिय हार, पणं बार विलासिणिए उरहार । डिंडीर पिंड उप्परिय पिल्ल, कीलिर रहूंग घोव्वड यणिष्ण | सेवाल - जाल-रोमावलिल्ल, बुह्यण-मण-परिरंजणच्छद्दल्ल | भमरावलिवेणीवलय लच्छि पवणाहयस लिलावत्त- नाहि, वणगयगलमय जलघसिणलित्त दियसंत-सरोरुह पवर-बत, पप्फुल्ल-पो मदल दीह अच्छि । विणियजणवयत्तणुताववाहि । दरफुडियसिप्पिउडदसणदत्त । रयणायर-पवरपियाणुरत । विउला मलपुलिणियंद जाम, उत्तिष्णी पयणहि दिट्टु ताम । हरियाणए देसे असंख गामे, गमियिणजणिय अगवरयकामे | १४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् सुर-नर-हृदयहार यमुना मानो वारविलासिनीका हृदयहार है। मानों उसकी फेनालि उस नारीका उपरितन वस्त्र हो । क्रीड़ारत चक्रवाक मानों उसके स्तन हों । शैवालजाल प्रबुद्ध मनको रंजन करनेवाली रोमालि, भ्रमरावलि वलय वेणी, प्रफुल्ल पद्मदल दीर्घ नयन, पवनावलम्बित सलिल आवर्त, तनुतापनाशक नाभि, बन्यगजमद युक्त सलिलचन्दनलेप, ईषत व्यक्त होते हुए शुक्तिपुट सुन्दर रद एवं विकसित कमल, सुन्दर मुख हों। रत्नाकरप्रियके प्रति अनुरक्त सरिता श्री. और वारविलासिनी रत्नालंकृत अपने प्रियके प्रति । उसके विपुल एवं निर्मल पुलिन मानों उसके मितम्ब थे। इस प्रकारकी सरिता कविने देखी और पार की । नदी पार कर वह हरियाणा प्रदेशके डिल्ली नामक नगरमें पहुंचा । कवि दिल्ली पहुंचने के साथ-साथ उसका रम्य वर्णन उपस्थित करता है। अलंकृत दिल्ली कविको अलंकृत शैली पाकर और भी आकर्षणयुक्त बन गई है । गगनचुम्बी शालाएँ, विशाल रणशिविर (मंडप), सुरम्य मंदिर, समद गज, गतिशील तुरंग, नारीपद-नूपुरध्वनि सुन नृत्यत मयूर एवं प्रशस्त हट्टमार्ग आदिका निर्देश कविने किया है... जहिं गयणामंडललग्गु साल, रण-मंडवपरिमंडित विसाल । गोउरसिरिकलसायपगंगु, जलपूरियपरिहालिंगियंगु । जहिं जण-मण-णयणाणंदिराई, मणियरगणमंडियमंदिराई । जहिं चदिसु सोहि घणवणाई, णायर-धार-खयर-सुहावणाई । जहिं समय-करडि घड धड हति,पडिसद्दे दिसि-विदिसि विस्फुडंति । जहि पवण-गयण धाविर तुरंग, परं वारि रासि भंगुर तरंग । दप्पुम्भउ भन तोणु व कणिल्लु, सविणय सोसु व बहु गोर सिल्लु । पारावार व वियरिय संखु, तिहुअणव-गुणणियरु व असंखु । इस प्रकार कविने शिलष्ट शैली में दिल्ली नगरकी वस्तुओंका चित्रण किया है। यह नगर नयनके समान तारक युक्त था, सरोवरके समान हारयुक्त और हार नामक जीवोंसे युक्त था, कामिनीजनके समान प्रचुर मान वाला, युद्धभूमिके समान नागसहित और न्याययुक्त, नभके समान चन्द्रसहित एवं राजसहित था। युद्धवर्णनमें कविने भावानुकूल शब्दों और छन्दोंकी योजना की है। इस प्रकार 'पासणाहचरिउ' काव्य गुणोंसे परिपूर्ण है। भाचार्यतुल्य कान्यकार एवं लेखक : १४१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड्डमाणचरित __बड्ढमाणचरिउके प्रेरक साहू नेमिचन्द्र हैं। इनके अनुरोधसे कविने इस ग्रंथकी रचना को है। नेमिचन्द्रका परिचय ग्रंथके प्रारम्भ और अन्त में दिया गया है । कविने लिखा है-- इक्कहि दिणि णरवरणंदणेण । 'सोमा-जणी'-आणंदणेण ।। जिणचरणकमलइंदिदिरेण । जिम्मलयर-गुण-माण-मादरेण ॥ जायस-कुल-कमल-दिवायरेण । जिणभणियागम-विहिणायरेण ।। णामेण मिचन्देण वृत्तु । भो 'कइ-सिरिहर' सइत्थजुत्तु। जिह(ण) विरइउ चरिउ दुहोवारि । संसारुभव-संताव-हारि ॥२॥ x जायसवंस-सरोय-दिणेसहो। अदिचित्तणिहित्त जिणेसहो । गरवर-सोमइं-सणुसंभूबहो । साहु णेमिचंदहो मुणभूवहो ।। वयणे विरइउ सिरिहर णामें । तियरणरक्खिय असुहर गामें ॥ अन्तिम प्रशस्ति पत्र अर्थात् नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगरके निवासी थे और जायस या जयसवालकुल-कमलदिवाकर थे । इनके पिताका नान साहू नरवर और माताका नाम सोमादेवी था। माता-पिता बड़े ही धर्मात्मा और साधुस्वभावके थे । साहूनेमिचन्द्रको धर्मपत्नीका नाम 'वीवा' देवी था । इनके तीन पुत्र थेरामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र । एक दिन साहू नेमिचन्द्रने कवि श्रीधरसे निवेदन किया कि जिस प्रकार चन्द्रप्रभचरित और शान्तिनाथचरित रचे गये हैं उसी तरह मेरे लिए अन्तिम सीर्थकरका चरित लिखिये । कविने प्रत्येक सन्धिके पुष्पिकावाक्यमें 'नेमिचन्द्रनामांकित' लिखा है । इतना ही नहीं, प्रत्येक सन्धिके प्रारम्भमें जो संस्कृत श्लोक दिया गया है उससे भी नेमिचन्द्र के गुणोंपर प्रकाश पड़ता है । द्वितीय सन्धिके प्रारम्भमें नंदत्वत्र पवित्रनिर्मललसच्चारित्रभूषाघरो। धर्मध्यान-विधो सदा-कृत-रतिविद्वज्जनानां प्रियः ।। प्राप्तान्तःकरणेत्सिताऽखिलजगवस्तु-वजो दुजय स्तत्त्वार्थ प्रविचारणोद्यतमनाः श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ॥ स्पष्ट है कि नेमिचन्द्र धर्मध्यानमें निपुण, सम्यग्दृष्टि, धोर, बुद्धिमान, लक्ष्मीपति, न्यायवान, भवभोगोंसे विरक्त और जनकल्याणकारक थे। इस प्रकार कविने रचनाप्रेरकका विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया है। ग्रंथ १० सन्धियोंमें विभक्त है १४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इसमें अन्तिम तीर्थंकरमहावीरका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। प्रथम सन्धि या परिच्छेदमें नन्दिवर्धन राजाके वेराग्यका वर्णन किया है। द्वितीय सन्धिमें 'मयबई' मृगपतिकी भवावलीका वर्णन किया गया है । तृतीय सन्धिमें बलवासुकी उत्पत्तिका वर्णन किया गया है। चतुर्थ सन्धिमें सेनानिवेशका वर्णन है। इसी सन्धिमें कविने युद्धका भी चित्रण किया है। पंचम सन्धिमें त्रिविष्टविजयका वर्णन है। षष्ठ सन्धिमें सिंह-समाधिका चित्रण है। सप्तम सन्धिमें हरिषेणराय मुनिका स्वर्ग-गमन वणित है । अष्टम सन्धिमें नन्दनमुनिका प्राणत कल्पमें गमन वर्णित है ! नवम सन्धिमें वीरनाथके चार कल्याणकोंका वर्णन है और दशम सन्धिमें तोर्थंकर महावीरका धर्मोपदेश, निर्वाणगमन, गुणस्थानारोहण एवं गुणस्थानक्रमानुसार प्रकृतियोंके क्षयका कथन आया है। इस प्रकार इस चरित-ग्रंथमें तीर्थंकर महावीरके पूर्वभव और वर्तमान जीवनका कथन किया है। नगर, ग्राम, सरोवर, देश आदिका सफल चित्रण किया गया है। कदिने श्वेतछत्र नगरीका चित्रण बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं जहि जल-खाइयहि तरंग-पति । सोहइ पवणाय गयणपति । जव-लिणि-समुभव-पाराणील। णं जंगम-हिहर माल लोल ।। जहि गयणंगण-गय-गोपुराई । रयणमय-कवाडहि सुन्दराई। पेखेवि नहि जंतु सुहा वि सम्गु । सिरु धुणई मउडमंडिय णहागु ॥ जहि निवसहि वणियण गय-पमाय । परदार-विरय परिमुक्क-माय । सद्दत्य-वियषखण दाण-सील । जिणधम्मासत्त विसुद्ध-सील ।। जहिं मंदिरभित्ति-विलंबमाण । णीशमणिकरो हइ घावमाण । माकर इंति गिहाण-कएण | कसणो ख्यालि भक्खण-रएण जहि फलिह-बद्ध-महिपले मुहेसु । णारी-यणाइ पडि-बिबिएसु । अलि पडइ कमल-लाले सनेउ । अहवा महवह ण हवाइ विवेउ॥ जहि फलिह-भित्ति-पहिबिंबियाई । णियरूवा जयणहि भावियाई । ससवत्ति-संक गय-रय-खमाह। बुज्झति तियउ णियपिययमाहं ॥१॥३ अर्थात् श्वेतछत्र नगरीको जल-परिखाओंमें पवनाहत होकर तरंग-पंक्ति ऐसी शोभित होती थी, मानों गगन-पंक्ति हो हो । नवनलिनी अपने पत्तों सहित महोघरके समान शोभित होती थी, आकाशको छूने वाले गोपुर रस्लमय मंडित किवाड़ोंसे युक्त शोभित थे। उन गोपुरोंको देखनेपर स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगता भावार्यतुत्य काव्यकार एवं लेखक : १४३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था | अतएव ऐसा प्रतीत होता था, मानों मुकुटमंडित आकाश अपना सिर धुन रहा है। वहाँके व्यापारी प्रमादरहित होकर निवास करते थे। और वे परस्त्री से विरक्त और छल-कपटसे रहित थे । वे शब्दार्थ में विचक्षण, दानशील और जिनमें आसक्त थे । वहाँके मन्दिरोंपर नीलमणिकी झालरें लटक रही थीं । इन झालरोंको मयूर कृष्ण सर्प समझकर मक्षण करनेके लिये दौड़ते थे । जहाँ स्फटिकमणिसे घटित फर्शके ऊपर स्त्रियोंके प्रतिबिम्ब पड़ते थे, जिससे भरे कमल समझकर उन प्रतिबिम्बोंके ऊपर उमड़ पड़ते थे । वहाँकी नारियाँ स्फटिक जटिल दीवालों में अपने प्रतिबिम्बोंको देखकर सपत्नीको आशंका से प्रसित हो झगड़ा करती थीं । इस नगरी में नन्दिवर्धन नामका राजा मनुष्य, देव, दानवादिको प्रसन्न करता हुआ निवास करता था । इसी प्रकार कविने युद्ध आदिका भी सुन्दर चित्रण दृष्टिसे भी यह काव्य ग्राह्य है। इसमें शान्त, भंगार सम्यकू योजना हुई है । किया है रस-योजनाको और भादों तीर्थंकर महावीरका जन्म होनेपर कल्पवासी देवगण उनका जन्माभिषेक सम्पन्न करनेके लिये हृर्षसे विभोर हो जाते हैं और वे नानाप्रकारसे क्रीड़ा करने लगते हैं। देवोंके इस उत्साहका वर्णन निम्न प्रकार सम्पन्न किया गया है- कप्पवासम्मि ऊण णाणामरा । चल्लिया चारु घोलंत सव्वामरा ॥ भत्ति- पब्भार-भावेण पुल्लणणा । भूरिकीला दिणोएहिं सोक्खाणणा || णच्चमाणा समाणा समाणा परे । गायमाणा अमाणा -अमाणा परे ॥ वायमाणा विभाणाय माणा परे । वाहणं वाह- माणा सईयं परे ॥ कोवि संकोडिकणं नन्द कोलए । कोवि गच्छे इंसट्ठओ लीलए । देविखकणं हरी कोवि आसंकए । वाहणं घावमाणं थिरो कए ॥ कोवि देवो करफोड़ि दावंतओ । कोदि वोमंगणे भत्ति धावंतओ ।। कोवि केणावि तं षण आवाहियो । कोवि देवोवि देखेदि आवाहिओ ॥९॥१० यह रचना भाषा, भाव और शैली इन तीनों ही दृष्टियोंसे उच्चकोटिको है । वस्तु वर्णन में कविने महाकाव्य रचयिताओंकी शैलीको अपनाया है । कविकी तीसरी रचना 'चंदप्पचरित' है। यह रचना अभी तक किसी भी ग्रंथागारमें उपलब्ध नहीं है । इसमें अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभका जीवनवृत्त अंकित है । 'पासणाहचरिउ' में इस रचनाका उल्लेख है । अतएव इसका रचनाकाल उक्त ग्रंथके रचनाकालसे कम-से-कम दो वर्ष पूर्व अवश्य है। इस प्रकार वि० संवत् १९८७ 'चंदप्पहचरिउ' का रचनाकाल सिद्ध होगा । १४४ : तीथंकर महावीर और उनकी धाचार्य - परम्परा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर द्वितीय श्रीधर द्वितीयको भी विबुध श्रीषर कहा गया है। इन्होंने अपभ्रंशमें 'भविसयत्तचरिउ' की रचना चन्द्रवाइनगर में स्थित माथुरवंशीय नारायणके पुत्र सुपट्ट साहू' की प्रेरणासे की है। यह काव्य नारायण साहूकी भार्या रूपिणीके निमित्त लिखा गया है।' सुपट्ट साहू नारायणके पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था । कविने ग्रंथके अन्तमें सुपट साहू और रूपिणीकी प्रशंसा करते हुए पूरा विवरण दिया है । साहुके पूर्वज अपने समयमें प्रसिद्ध थे। उसको सीता नामक गृहिणी थी, जो विनय आदि निर्मल गुणोंसे भूषित थी। उनके हालनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उन दोनोंके जगविख्यात देवचन्द नामका पुत्र हुआ। वह माथुरकुलका भूषण और गुणरत्नोंकी खान था | जैनधर्ममें उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। लक्ष्मीके समान उसकी माढ़ी नामकी धर्मपत्नी थो। उसके गर्भसे काञ्चनवर्ण साधारणनामके पुत्रने जन्म लिया। उसके दो पुत्र हुए। दूसरेका नाम नारायण था । इसी नारायणकी भार्या 'रूपिणी' थी, जिसने इस अन्थको लिखवाया । नारायण के पांच पुत्र हुए | सभी गुणवान और श्रद्धालु थे। ग्रन्थके रचयिता श्रीधर द्वितीय मुनि थे । उनका व्यक्तित्व रत्नत्रयस्वरूप था। अपने प्रेरक सुपट्ट साहकी अनन्य भक्ति, दान, पूजा, अत, आदि धार्मिक अनुष्ठानोंको कविने प्रशंसा की है। स्थितिकाल कविने 'भविसयत्तचरित' के रचनाकालका निर्देश किया हैणरणाहविक्कमाइच्चकाले, पयहत्तए सुहयारए विसाले । वारहसय बरिसहिं परिंगरहिं फागुण-मासम्मि बलक्खपाखे, दसमिहि-दिणे तिमिरुक्कर विवक्खे । रविवार समाणिउ एउ सत्थु, जिइ मई परियाणिउ सुप्पसत्थु । भासिउ भविस्सयत्तहो चरित्तु, पंचमि उचयासहो फलु पवित्तु । सिरिचन्दवारणयरहिएण, जिणधम्मकरणउक्कंठिएण। माहुरकुलगयणतमोहरेण, विबुह-पण-सुखयामणषणहरेण । महवरसुपट्टणामालएण विणएण भणि जोडेवि पाणि ।- भविष्यदत्तरित, १,२ । 'झ्य सिरिभविसयत्तचरिए विवृहसिरिसुकईसिरिहर-विरहए साहुणरायण-भज्जा-रुप्पिणिणामांकिए' । वही। आचार्यतुष्य काव्यकार एवं लेखक : १४५ - --- -- २. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् वि० सं० १२०० फालाम शक्ला दशमी, रविवारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। इस रचनाकालके निर्देशसे यह स्पष्ट है कि इन विबुध श्रीधरका समय वि. को १३वीं शती है । आमेर-शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें उक्त रचनाकालका उल्लेख हुआ है। पुष्पिकावाक्यमें कविने स्वनामके साथ अपने प्रेरकका नाम भी अंकित किया है "इय सिरि-भविप्तयत्त-चरिए विवुह-सिरिसुकइसिरिहर-विरइए साहुणारायण-भज्जा-रुप्पिणि-गामांकिए भविसयत्त-उप्पत्ति-वण्णणो णाम पढमो परिच्छेओ समत्तो। सन्धि १" कवि विवध श्रीधरने 'भविसयत्तचरिउ'की रचना कर कथा-साहित्यके विकासको एक नई मोड़ दी है 1 इस ग्रंयका प्रमाण १५३० श्लोक है। कथावस्तु-तीर्थंकरोंको वन्दनाके पश्चात् कविने कथाका आरंभ किया है। कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामका नगर है। इस नगरमें भूपालनामका राजा राज्य करता था। राजाने नानागण-अलंकृत धनपतिको नगरसेठके पट्रपर आसीन किया । धनपतिका विवाह धनेश्वरकी रूपवती कन्या कमलश्रोके साथ सम्पन्न हुआ। कई वर्ष व्यतीत हो जानेपर भी इस दम्पतिको सन्तानलाभ न हुआ। एक दिन उस नगरमें सुगुप्ति नामके मुनिराज पधारे । कमलश्रीने पादवंदन कर प्रश्न किया-स्वामिन् ! मुझ मन्दागिनीके पुत्र उत्पन्न होगा या नहीं ? मुनिराजने उत्तरमें पुत्रलाभ होनेका आश्वासन दिया। कुछ समय पश्चात् धनपतिको सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ । बालकका वापिनसंस्कार सम्पन्न किया गया और उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया । पाँच वर्ष की अवस्था में भविष्यदत्तका विद्यारंभ-संस्कार सम्पन्न हुआ और आठ वर्षकी अवस्थामें उसे उपाध्यायके यहाँ विभिन्न शास्त्रोंके अध्ययनार्थ भेज दिया। द्वितीय परिच्छेदमें बताया है कि पूर्व जन्ममें की गई मुनिनिन्दाके फलस्वरूप धनपतिने कमलश्रोका त्याग कर दिया। कमलश्री रोती हुई अपने पिताके घर गई । धनपतिका भेजा हुमा गुणवान् पुरुष धनेश्वर के यहाँ आया और कहने लगा कि कमलश्रीमें कोई दोष नहीं है, पर पूर्वकर्मोदयके विपाकसे धनपति इससे घृणा करता है । अतएव आप इसे अपने यहाँ स्थान दीजिए। ___ कमलश्रीके चले जानेके पश्चात् धनपत्तिने अपना द्वितीय विवाह धनदत्त सेठकी पुत्री सरूपाके साथ कर लिया । इससे बन्धुदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो साक्षात् कामदेवके समान था । युवा होनेपर बन्धुदत्त अपने ५०० साभियों १४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ व्यापारके लिए स्वर्णद्वीप जानेकी तैयारी करने लगा । जब भविष्यवतको स्वर्णद्वीप जानेवाले व्यापारियोंका समाचार मिला, तो वह अपनी माताको आज्ञा लेकर अपने सौतेले भाई बन्धुदतसे मिला और साथ चलनेकी इच्छा व्यक्त की । सरूपाने बन्धुदत्तको सिखलाया कि अवसर हाथ आते ही तुम भविष्यदत्तको मार डालना। ___ शुभ मुहूर्तमें जलपोतों द्वारा प्रस्थान किया गया और वे मदनद्वीप पहुंचे। वहाँसे आवश्यक सामग्री लेकर और भविष्यदत्तको वहीं छोड़कर बन्धुदत्तने अपने जलपोतको आगे बढ़ा दिया। भविष्यदत्त उस जनशून्य बनमें विलाप करता हुआ भ्रमण करने लगा। तृतीय परिच्छेदमें भविष्यदत्त जिनदेवका स्मरण करता हुआ प्रभातकालमें उठता है और चलकर तिलकपुर पहुंचता है। यहाँ भविष्यदत्तका मित्र विद्युत्प्रभ यशोधर मुनिराजसे अपनी पूर्वभवावलि जान फर अपने मित्रसे मिलने के हेतु चल पड़ता है। विद्युत्प्रभके संकेतसे भविष्यदत्तका विवाह वहाँ रहने वाली सुन्दरी भविष्यानुरूपाके साथ हो जाता है। __इधर कमलश्री अपने पुत्रके वियोगमें क्षीण होने लगी। उसने सुक्ता नामक आर्यिकासे श्रुतपंचमीव्रत ग्रहण किया और विधिवत् उसका पालन करने लगी। चतुर्थ परिच्छेदमें भविष्यानुरूपाका मधुर आख्यान आता है । भविष्यानुरूपा और भविष्यदत्त विपुल धन-रत्नोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचते हैं। संयोगसे इसी समय बंधुदत्त अपने जलपोतको लोटाता हुआ उघर आता है। वह उत्सुकतावश अपने जलपोतको तटपर खड़ा करता है। भविष्यदत्त अपने समस्त समान सहित भविष्यानुरूपाको जलपोत पर बैठा देता है। इतनेमें भविष्यानुरूपाको स्मरण आता है कि उसकी नाममुद्रा तिलकपुरकी सेजपर छूट गई है। वह अपने पतिदेवको मुद्रिका लानेके लिए भेज देती है और उधर बंधुदत्त अपने जहाजको खोल देता है। बन्धुदत्त भविष्यानुरूपाको प्रलोभन देता है और अपने अधीन करना चाहता है। भविष्यानुरूपा समुदमें कद कर प्राण देना चाहती है; पर वनदेवी स्वप्नमें आकर उसे धैर्य देती है और कहती है कि तुम्हारा पति एक महीने में तुमसे मिलेगा, तुम चिन्ता मत करो। बन्धुदत्तका जलपोत हस्तिनापुर लौट आता है और वह घोषित कर देता है कि भविष्यानुरूपा उसको वाग्दत्ता पत्नी है और वह शीघ्न ही उसके साथ विवाह करेगा। इधर भविष्यदल तिलकपुरके सुनसान बनमें उदास मन होकर निवास करता आचायतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १४७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह चन्द्रप्रभके जिनालय में जाकर विधिवत् भक्तिभाव करता है। इतने में वहाँ एक विद्याधर उपस्थित होता है और उससे कहता है कि में तुम्हें विमानमें हस्तिनापुर पहुँचाने के लिए लाया है। भविष्यदत्त नानाप्रका रके रत्नोंको लेकर हस्तिनापुर आता है और माँके चरणवन्दन कर आशीर्वाद लेता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भविष्यदत्त विविध प्रकारके मणि- माणिक्योंको लेकर राजाके समक्ष उपस्थित हुआ । भविष्यदत्तके मामाने राजासे कहा कि हमारे भजिके साथ बंधुदत्तका झगड़ा है । राजाने धनपति सेठको बुलाया; पर सेठने घर में विवाह होनेसे इस प्रसंगको टालना चाहा। तब राजाने उसे बलात् बुलाया | कमलश्रीने जाकर राजाके समक्ष भविष्यातुरूपाको नागमुद्रा तथा अन्य वस्त्राभूषण उपस्थित किये। राजा बन्धुदतकी करतूत को समझ गया और वह बन्धुदत्तको मारनेके लिये तैयार हुआ । पर भविष्यदत्तने उसके प्राणोंकी रक्षा की। राजाने भविष्यदत्तको आधा सिहासन दिया और अपनी पुत्रीको देनेका वचन दिया । धनपतिने कमलश्रीसे अपने व्यवहारके लिए क्षमा याचना की । भविष्यदत्तका भविष्यानुरूपा के साथ पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। राजाने भी आघा राज्य देकर अपनी पुत्री सुमित्राका भविष्यदत्त के साथ विवाह कर दिया । पंचम परिच्छेद भविष्यदत्तके राज्य करनेसे आरंभ होता है । भविष्यानुरूपाको दोहला उत्पन्न हुआ और उसने तिलकद्वीप जानेकी इच्छा प्रकट की । इतने में मनोवेग नामका एक विद्याधर भविष्यदत्त के पास आया और कहा कि मेरी माता तुम्हारे घरमें प्रिया के गर्भ में आई है। ऐसा मुझसे मुनिराजने कहा है । अतएव आप भविष्यानुरूपा के साथ मेरे विमानमें बैठकर तिलकद्वीपको यात्रा कोजिये । भविष्यदत्तने भविष्यानुरूपाको तिलकद्वीपका दर्शन कराया । भविष्यानुरूपाके गर्भसे सोमप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्षोंके पश्चात् कंचनप्रभ नामक द्वितीय पुत्र उत्पन्न हुआ । तदनन्तर तारा और सुतारा नामकी पुत्रियां उत्पन्न हुईं । सुमित्रा गर्भसे धरणीपति नामक पुत्र और धारिणी नामकी कन्या हुई । इस प्रकार भविष्यदत्त परिवार सहित राज्य करता रहा। उसने मणिभद्रकी सहायता से सिंहलद्वीप तक अपनी कीर्ति व्याप्त कर ली और अनेक राजाओं को अपने अधीन किया। एक दिन वह सपरिवार चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शनके लिए गया । उसने मुनिराज से श्रावकके व्रत ग्रहण किये ! षष्ठ परिच्छेद में भविष्यदत्तके निर्वाण-लाभका वर्णन है । कमलश्री, सुव्रताके साथ अधिक हो जाती है और घनपति ऐलकब्रत ग्रहण कर लेते हैं । बह कठोर तप कर दसवें स्वर्ग में इन्द्र होते हैं और कमलश्री स्त्रीलिंगका छेद कर रत्नचूल नामका देव होती है। भविष्यानुरूपा भी स्वर्गमें जाकर देव हुई और वहाँ पृथ्वीतल पर आकर पुत्र हुई । १४८: वीयंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवुध श्रीधरने कथाके मर्मस्पर्शी स्थलोंको पर्याप्त रसमय बनानेका प्रयास किया है। कमलश्री रात-दिन रोती है । उसकी आँखसे अश्रुधारा प्रवाहित होती है। भूखी, प्यासी और क्षीण शरीर होनेपर भी अपने मैले शरीरपर ध्यान नहीं देती । कविने लिखा है--- ता भणई किसोयरि कमलसिरि ण करमि कमल मुहुल्लउ । पर सुमति हे सुउ होइ मह फुट्ट ण मण हियउल्लउ । (३,१६) रोवइ धुवइ गयण चुव अंसुव जलधारहिं वत्तओ । भुक्खई खोण देह तम्हाइय मुणई मलिण गत्तओ । (४,५) कविने प्रकृति-चित्रण भी बहुत ही मनोरम शैलीमें उपस्थित किया है। भविष्यदत्त भयानक वनमें मदजलसे भरे हुए हाथियोंको देखता है। इस वनमें कहीं पर शाखामृग निर्भय होकर डालियोंसे निपके हुए थे; कहीं पर छोटी और कहींपर आकाशको छूने वाली बड़ी वृक्ष-शाखाओंपर लोटते हुए हरे फलोंको तोड़ते हुए वानर दिखलाई दे रहे थे। कहीं पर पुष्ट शरीर वाले सूअर, कहीं पर विकराल कालके समाः वन्य-पशु दिखाई पड़ रहे थे ! उसीके पासमें झरना प्रवाहित हो रहा, था जो पहाडको गुफाओंको अपने कल-कल शब्दसे भर रहा था। तें बाहुडंडेण कमलसिरिपुत्तेण दिवाई तिरियाई बहुदुखभरियाई रायवरहो जतासु मयजलविलित्तासु कित्थुवि मयाहीसु अणुलग्गु गिरभीसु कित्थुवि महोयाह गयणयलविगया सहासु लोडंतु हरिफलई तोडतु केथुवि वराहाहं वलवंतरेहाह महवग्धु आलग्गु रोसेण परिभग्गु केत्युवि विरालाई दिट्टई करालाई केत्युवि सियालाई जुज्झति थूलाई तहे पासे णिज्झरइ सरंतई गिरिकन्दर-विवराई भरंतई। इस ग्रन्थके संवाद भी बड़े रोचक हैं । प्रबन्ध-रचनामें कविने स्वाभाविकताके साथ काव्य-रूढ़ियोंका पालन किया है। यह अन्थ कडवक-पद्धसिमें पद्धडिया-छन्दमें लिखा गया है। श्रीधर तृतीय अवन्तोके मुनि सूकुमालका जोवनवृत्त अंकित कर 'सुकुमालचारिउ'की आचार्यतुष्य काव्यकार एवं लेखक : १४९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना इन्होंने को है ! गह ग्रन्थ पडियाटमें लिखा गया है । कथा छः सन्षियोंमें समाप्त हुई है । और प्रन्यका प्रमाण १२०० श्लोक है। ___ इस प्रन्यकी रचना कविने बलड (अहमदाबाद, गुजरात) नगरमें राजा गोविन्दचन्द्रके सययमें की है ! कविने यह ग्रन्थ साहू पीथाके पुत्र पुरवाडवंशोत्पन्न कुमारको प्रेरणासे लिखा है । सन्धि-पुष्पिकामोंमें आया है"इय सिरिसुकुमालसामि-मणोहरचरिउ, सुंदरयर-गुणरयण-नियर-भरिए बिवुहसिरिसुकइसिरिहर-विरइए, साहुपीथे पुत्र कुमारनामांकिए." इत्यादि ग्रन्थकी आद्यन्त प्रशस्तिमें साहू पीथाका विस्तृत परिचय दिया गया है। बताया है कि साहू पोथाके पिताका नाम साहू रजग्ग था और माताका नाम गल्हा देवी था । इनके सात भाई थे । महेन्द्र, मनहरु, जाल्हण, सलक्षण, सम्पुष्ण, समुद्रपाल और नेयपाल । पीथाको धर्मपत्नीका नाम सुलक्षणा था। इसीसे कुमारनामक पुत्रका जन्म हुआ। इस कुमारकी प्रेरणासे ही कविने सुकुमालचरिउकी रचना की है । यह चरित्त-काव्य वि० सं० १२०८ मार्गशीर्ष कुष्णा तृतीया सोमवारके दिन लिखा गया है । प्रशस्तिमें बताया है--- बारह-सयइ गयइ कय हरिसह, अट्ठोत्तरइ महोलि बरिसइ । कसण-पक्खि आगहो जायए, तिज्ज-दिवसि ससि-वासरि मायइ । सुकुमालचरिउमें कुल २२४ फड़वक हैं, । सुकुमालके पूर्वभवके साथ वत्तंमान जीवनका भी चित्रण किया गया हैं । पूर्वजन्ममें यह कौशाम्बी में राजमंत्रीका पुत्र था ! जिनधर्ममें अनुरक्ति होनेके कारण वह संसार विरक्त हो श्रमणधर्ममें दीक्षित हो गया । तपस्याके प्रभावसे अगले जन्ममें उज्जयिनीमें वह सुकुमाल नामका पुत्र हुआ । कवि नख-शिखवर्णनमें भी प्रवीण है । यहाँ परम्परागत उपमानों द्वारा नारी-चित्रणकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं "सहो गरवइहे घरिणि मयणालि, पहय-कामियण-मण-गहियावलि । दंत-पंति-णिजिय-मुत्तालि, णं मयहो करी वाणावलि । सयलतेउरमज्झे पहाणी, उछ सरासण मणि सम्माणी। जहि वयणकमलहो नउ पुज्जइ, चंदु वि अज्जु विवट्टइ खिज्जइ । कंकेल्ली-पल्लव-सम पाणिहिं, कलकल हंठि वीणणिह वाणिहिं । णियसोहागपरज्जिय गोरिहि, विज्जाहर-सुर-मण-पणचोरिहे ।" कुछ विद्वान् इन तीनों श्रीधरोंको एक मानते है । पर मेरे विचारसे ये तीनों भिन्न हैं। १५० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसेन देवसेन अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं । इन्होंने वाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, भूपाल नामक कवियोंका उल्लेख किया है । कवि देवसेन मुनि हैं। ये देवसेन गणी या गणधर कहलाते थे। ये त्रिशिप और पिन गणधर के शिष्य थे । विमलसेन शील, रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि दशधर्म, संयम यादिसे युक्त थे। ये महान तपस्वी, पंचाचारके धारक, पंच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त मुनिगणोंके द्वारा वन्दनीय और लोकप्रसिद्ध थे । दुर्द्धर पंचमहाव्रतोंको धारण करनेके कारण मलधारीदेवके नामसे प्रसिद्ध थे । यही विमलसेन 'सुलोयणाचरिउ' के रचयिता देवसेनके गुरु थे | देवसेनका व्यक्तित्व आत्माराधक, तपस्वी और जितेन्द्रिय साधकका व्यक्तित्व है। उन्होंने पूर्वाचार्योंसे आये हुए सुलोचनाके चरितको 'मम्मल' राजाकी नगरी में निवास करते हुए लिखा है । स्थितिकाल कविने यह कृति राक्षस-संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन पूर्ण की है। साठ संवत्सरोंमें राक्षस संवत्सर उनचासवाँ है । ज्योतिषको गणनाके अनुसार इस तिथि और इस दिन दो बार राक्षस-संवत्सर आता है। प्रथम बार २९ जुलाई सन् १०७५ ई० (वि० सं० ११३२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) और दूसरी बार १६ जुलाई सन् १३१५ ई० (वि० सं० १३७२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) में राक्षससंवत्सर आता है । इन दोनों समयों में २४० वर्षोंका अन्तर है। शेष संवतोंमें श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारका दिन नहीं पड़ता । कविने अपने पूर्ववर्ती जिन कवियों का उल्लेख किया है उनमें सबसे उत्तरकालीन कवि पुष्पदन्त हैं। अतः देवसेन भी पुष्पदन्तके बाद और वि० सं० १३७२ के पूर्व उत्पन्न हुए माने जा सकते हैं । 'कुवलयमाला' के कर्त्ता 'उद्योतनसूरि'ने सुलोचनाकथाका निर्देश किया है । जिनसेन, धवल और पुष्पदन्त कवियोंने भी सुलोचनाकथा लिखी है । कवि देवसेनने अपना यह सुलोचनाचरित कुन्दकुन्दके सुलोचनाचरितके आधार पर लिखा है । कुन्दकुन्दने गाथाबद्ध शैलीमें यह चरित लिखा था और देवसेनने इसे पढडियाछन्द में अनूदित किया है। लिखा है जं गाहाबचें आसि उत्तु सिरिकुन्दकुदगणिणा णिरुत्तु । तं एत्यहि पद्धडियह करेमि, परि किपि न गूढउ अत्थु देमि । तेष वि कवि गउ संसा लति, जे अत्यु देखि वसहि विचति । आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक १५१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय-निर्णयके लिये जैन साहित्यमें हए समस्त देवसेनोंपर विचार कर लेना आवश्यक है। जैन-साहित्यमें कई देवसेन हुए हैं। एक देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित शक संवत् ६२२ के शिलालेखमें आता है। दूसरे देवसेन धवलाटोकाके कर्ता आचार्य वीरसेनके शिष्य थे, जिनका उल्लेख आचार्य जिनसेनने जयधवलादीकाकी प्रशस्तिके ४४वें पचमें किया है। तीसरे देवसेन 'दर्शनसार के रचयिता हैं। चतुर्थ देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षादिके कर्ता आचार्यअमितगतिने अपनी गुरुपरम्परामें किया है । दूबकुण्डके वि० सं० ११४५ के अभिलेखमें उल्लिखित देवसेन पंचम हैं। ये लाडवागडसंघके आचार्य थे | छठे देवसेनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य यशःकोत्तिने वि० सं० १४९७ में अपने पाण्डवपुराणमें किया है। इन सभी देवसेनोंमें ऐसा एक भी देवसेन नहीं दिखलाई पड़ता है, जिसे विमलसेनका शिष्य माना जाय। भारसंग्रह के दिवसेन अपनेको विमलसेनका शिष्य लिखा है। अतः भावसंग्रह और सुलोचनाचरिसके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । इस प्रकार कविका समय वि० की १२वीं शती मालूम पड़ता है। प्रथम बार राक्षस संवत्सर श्रावण शुक्ला चतुर्दशी और बुधबारका योग २९ जुलाई, सन् १०७५ में घटित होता है । अतएव सुलोचनाचरितके रचयिता कवि देवसेनका समय वि० सं० ११३२ ठीक प्रतीत होता है। कविने 'सुलोयणाचरिउ'को रचना, २८ सन्धियोंमें की है। काव्यको दृष्टिसे यह रचना उपादेय है। कथामें बताया गया है कि भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापति जयकुमारकी पत्नीका नाम सुलोचना था । वह राजा अकम्पन और सुप्रभाकी पुत्री थी। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयंवरमें अनेक देशोंके बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हुए। सुलोचनाको देखकर वे मुग्ध हो गये । उनका हृदय विक्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्तिकी इच्छा करने लगे। स्वयंघरमें सुलोचनाने जयको चुना | परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्ककोत्ति ऋद्ध हो उठा । और उसने इसमें अपना अपमान समझा | अपने अपमानका बदला लेने के लिये अकोत्ति और जयमें युद्ध हुआ और अन्तमें जय विजयी हुआ। __ कवि देवसेन निरभिमानी है । वह हृदय खोलकर यह स्वीकार करता है १५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तने जिस सरस्वतीकी रक्षा की थी उसी सरस्वतीरूपी गोके दुग्धका पान कर कविने अपनी इस कृतिको लिखा है- चउमुह-सयंभु- मुहि रक्खिय दुहिय जा पुफ्फयंतेण । सरसइ - सुरहीए पयं पियं सिरिदेवसे ॥१०१॥ मंगल-स्तवनके अनन्तर कविने गुरु विमलसेनका स्तवन किया है। पूर्वकालीन कवियों का उल्लेख करनेके पश्चात् सज्जन दुर्जनका स्मरण किया गया हैं | काव्यमें मगव, राजगृह आदिके काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं । श्रृङ्गार, वीर और भयानक रसोंका सांगोपांग चित्रण हुआ है । युद्ध-वर्णन तो कविका अत्यन्त सजीव है । युद्धकी अनेक क्रियाओंको अभिव्यक्त करनेके लिए तदनुकूल शब्दोंकी योजना की गई है । झर-झर रुधिरका बहना, चर चर चर्मका फटना, कड़कड़ हड्डियों का टूटना या मुड़ना आदि वाक्य युद्धके दृश्यका सजीव चित्र उपस्थित करते हैं असि हिसण उद्विय सिहि जालई, जोह मुक्क जालिय सर जालई । पहरि-परि आमिल्लिय सहई, अरि वर घड थक्कय सम्मई । झरझरंत पर्वाहय बहुस्तरं णं कुसंभ रय राएँ रत्तई । चरर्यरत फाडिय चल चम्मई, कसमसंत चरिय तणु वम्मई | कइयत मोडिय चण हहुई, मंस खण्ड पोसिय भेरुंडई | दडदड़ंत धात्रिय वरुडई, हुंकरंत धरणि वडिय मुंडई | ६ | ११ कविने जय और अर्केकीत्तिके युद्धवर्णन प्रसंग में भुजंगप्रयातछन्द द्वारा योद्धाओंकी गतिविधिका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है भडो को विखण खगं खलंतो रणे सम्मुद्दे सम्मुह आणतो । भड़ो को विवागण वाणो दलंतो, समद्धाइउ दुद्धरां णं कयंतो । भडो को fair कोंतं सरंतो, करे गीढ चक्को अरी संपतो । भडो को विखंडेहि खंडी कथंगो, भड़ंत णमुक्को संगालो अभंगो । भडो को वि संगामभूमी घुलतो, विवण्योहु गिद्धावलो गोल अंती । भो को विधारण विट्ट सोसो, असी वावरेई अरो साण भोसो । भडो को वि रत्तपवाहे तरंतो, फुरंतपणं तडि सिग्धपत्तो । भडो को विहृत्थी विसाणे हि भिण्णे, मो को वि कंठद्ध छिण्णो णिसण्णो । ६।१२ कविते तीर्थंकर आदिनाथ के साथ देखादेखी दीक्षा ग्रहण करनेवाले राजाओके भ्रष्ट होनेपर उनके चरित्रका बहुत ही सुन्दर अंकन किया है । जो तपस्या आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक १५३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोको नष्ट कर मोक्ष देनेवाली है उस तपस्याका पाखण्डो लोग दुरुपयोग करते हैं और वे मनमाने ढंगसे पन्य और सम्प्रदायोंका प्रवर्तन करते हैं। कविने अपनी भाषा-शैलीको सशक्त बनाने के लिए अनुरणात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है। इन बन्धोके पढ़ते ही शब्दोंका रूपचित्र प्रस्तुत हो जाता है । ___ अठारहवीं सन्धिमें 'दोहयम' छन्दका प्रयोग किया है । तुकप्रेमके कारण दोहेके प्रथम और तृतीय चरण में भी तुक मिलाई गयो है । यहाँ अनुरणात्मक बन्धोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं। उम उमिय उमरु वसयागहिर सहाई, दो दो तिकय दिविलु उठ्ठियणिणदाई । भं भंत उच्च सर भेरी घहीराई, घण घायरुण रुणिय जय घट साराई । कडरहिय करडेहिं भुषणेक्कपूराई, धुम धुमिय मद्दलहि वज्जियई तुराई ।६।१० यह 'सुलोयणाचरित' अपभ्रंशका शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें माधुर्य, प्रसाद बौर ओज़ इन तीनों गुणोंके साथ सभी प्रमुख मलङ्कारोंकी योजना की गयो है। छन्दोंमें, खंडय, जंभेट्टिया, दुवई, उपखंडय, आरणाल, गलिलय, दोहय, वसा, मंजरी आदि छन्द सन्थियो प्रारम्भमें प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त पद्धडिया, पादाकुलक, समानिका, मदनावतार, भुजगप्रयात, सग्गिणी, कामिनी, विज्जुमाला, सोमराजी, सरासगी, णिसेणी, वसंतचच्चर, दुतमध्या, मन्दरावली, मदनशेखर आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं। भावोंकी अभिव्यंजना भी सशक्त रूपमें की गयी है । युद्धके समयको सुलोचनाकी विचारधाराका कवि वर्णन करता हुआ कहता है-- इमं जंपिकणं पउत्तं जयेणं, तुम एह कण्णा मनोहारवण्णा । सुरक्खेह णणं पुरेणेह कणं, तर जोह लक्खा अणेय असंखा ।। पिय तत्य रम्मोवरे चित्तकम्मे, अरंभीय चिंता सुउ हुल्लयत्ता । णियं सोययंती इणं चितवंती, अहं पावयम्मा अलवा अधम्मा ॥ इस प्रकार चिन्ता, रोष, सहानुभूति, ममता, राग, प्रेम, दया आदिकी सहज अभिव्यंजना की गयी है । अमरकीति गणि अपभ्रंश-काव्यके रचयिताओंमें अमरकोत्ति गणिका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कविको मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थीं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृह१५४ । बीर्थकर महायोर और उनकी नाचार्य परम्परा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाश्रम त्यागकर दीक्षित हो गये थे । उनकी गुरुपरम्परासे अवगत होता है कि वे माथुरसंघी चन्द्रकीर्तिके मुनीन्द्र के शिष्य थे। गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है अमितगति शान्तिसेन अमरसेन श्रीषेण L चन्द्रकीत्ति ' अमरकोत्ति इस गुरु-परम्परासे ज्ञात होता है कि महामुनि आचार्य अमितगति इनके पूर्व पुरुष थे, जो अनेक शास्त्रोंके रचयिता, विद्वान् और कवि थे । अमरकीत्तिने इन्हें 'महामुनि', 'मुनिचूड़ामणि', 'शमशोलघन' और 'कीत्तिसमर्थ, आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है। अमितगति अपने गुणों द्वारा नृपतिके मनको आनन्दित करनेवाले थे। ये अमितगति प्रसिद्ध आचार्य अमितगति हो हैं, जिनके द्वारा धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह और भावनाद्वात्रिंशिका जैसे ग्रंथ लिखे गये हैं । अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोह में अपनेको 'शम दम-यम- मूत्ति', 'चन्द्रशुभोरुकीत्ति' कहा है तथा धर्मपरीक्षामें 'प्रथितविशदकीत्ति' विशेषण लगाया है। अमितगति के समय में उज्जयिनीका राजा मुंज बड़ा गुणग्राही और साहित्यप्रेमी था। वह अमितगतिके काव्योंको सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें मान्यता प्रदान की । यद्यपि अमितगति दिगम्बर मुनि थे, उन्हें राजा-महाराजाओंकी कृपाकी आवश्यकता नहीं थी; पर अमितगतिकी काव्य-प्रतिभाके वैशिष्ट्य के कारण मुंज अमितगतिका सम्मान करता था । इन्हीं अमितगतिकी पांचवीं पीढ़ी में लगभग १५० - १७५ वर्षोंके पश्चात् अमरकीर्ति हुए। अमरकी सिने शान्तिसेन गणिको प्रशंसा में बताया है कि नरेश भी उनके चरणकमलों में प्रणमन करते थे । श्रीषेणसूरि वादिरूपी बनके लिए अग्नि थे । और इसी तरह चन्द्रकीति वादिरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि अमरकीत्तिको परम्परामें बड़े-बड़े विद्वान् मुनि हुए हैं । छाचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १५५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकोत्तिका व्यक्तित्व दिगम्बर मुनिका व्यक्तित्व है। वे संयमी, जितेन्द्रिय, शीलशिरोमणि, यशस्वी और राजमान्य थे। उनके त्याग और वैदुष्य के समक्ष बड़े-बड़े राजागण नतमस्तक होते थे । वस्तुत: अमरकीति भी अपनी गुरुपरम्परा के अनुसार प्रसिद्ध कवि थे । अमरकीत्तिने अपनी गुरु-परम्परा में हुए चन्द्रकीति मुनिको अनुज, सहोदर और शिष्य कहा है। इससे यह ध्वनित होता है कि चन्द्रकीति इनके समे भाई थे । स्थितिकाल कविने 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथकी प्रशस्ति में इस ग्रंथका रचनाकाल वि० सं० १२४७ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी गुरुवार बताया है बारह-सयहं ससत्त- चयालिहिं विक्कम संवच्छरहु विसार्लाहि । गर्याहमि भद्द्वय पक्खंतरि गुरुवारम्मि चउद्दिसि वासरि । इसके मासें इहु सम्मत्तिउ सहं लिहियउ आलसु अवहत्य | १४|१८ कविके ने गोधा में गायी कृष्णनरेन्द्रका राज्य था | इतिहाससे सिद्ध है कि इस समय गुजरातमें सोलंकी वंशका राज्य था. जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी। पर इस वंशके बंदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णका कोई उल्लेख नहीं मिलता। भीम द्वितीयने अनहिलवाड़ाके सिंहासन पर वि० सं० १२३६ से १२९५ तक राज्य किया। उनसे पूर्व वहाँ कुमारपालने सं० १२०० से १२३१, अजयपालने १२३१ से १२३४ और मूलराज द्वितीयने १२३४ से १२३६ तक राज्य किया था । ' भीम द्वितीयके पश्चात् वहाँ सोलंकीवंशकी एक शाखा बाधेरवंशकी प्रतिष्ठित हुई, जिसके प्रथम नरेश विशालदेवने वि० सं० १३०० से १३१८ तक राज्य किया । अनहिलवाड़ामें वि० सं० १२२७ से हो इस वंशका बल बढ़ना आरंभ हुआ था। इस वर्ष में कुमारपालकी माताकी बहिनके पुत्र अर्णराजने अहिलवाड़ाके निकट बाघेला ग्रामका अधिकार प्राप्त किया था । ज्ञात होता है कि चालुक्यवंशकी एक शाखा महीकांढा प्रदेश में प्रतिष्ठित थी और गोदहरा गोला नगर में अपनी राजधानी स्थापित की थी । कचिने वहाँके कृष्ण नरेन्द्रका पर्याप्त वर्णन किया है । वे नीतिज्ञ, बाहरी और भीतरी शत्रुओंके विनाशक और १. डॉ० प्रो० हीरालालजी अमरकोत्ति गणि और उनका षट्कर्मोपदेश, जैनसिद्धान्स भास्कर, भाग २, किरण २, पृ० ८३ । १५६ : तीथंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्दर्शन के सम्मानकर्त्ता थे । क्षात्रधर्मके साथ धर्म, परोपकार और दानमें उनकी प्रवृत्ति थी । उनके राज्य में दुःख दुर्भिक्ष और रोग कोई जानता ही न था। इस प्रकार ऐतिहासिक निर्देशोंसे भी कविका समय षट्कर्मोपदेशमें उल्लिखित समय के साथ मिल जाता है । गुरुपरम्परा के अनुसार भी यह समय घटित हो जाता है। अमितगति आचार्यका समय वि० सं० १०५० से १०७३ तक है। इनकी पांचवीं पोढ़ीमें अमरकीति हुए हैं । यदि प्रत्येक पीढोका समय ३० वर्ष भी माना जाय, तो अमरकीत्तिका समय वि० सं० १२२३ के लगभग जन्मकाल आता है । षट्कर्माप्रदेशको रचना के समय कविकी उम्र २५-३० वर्ष भी मान ली जाय, तां षट्कर्मोपदेश के रचनाकालके साथ गुरुपरम्पराका समय सिद्ध हो जाता है । अतएव कवि अमरकीत्तिका समय वि० की १३वीं शती सुनिश्चित हैं। 'षट्कर्मोपदेश' में कविको आठ रचनाओंका उल्लेख प्राप्त होता है । लिखा है परमेसरप नवरस भरिउ विरइयउ मिणाह्हो चरिउ । अणु वि चरितु सव्वत्य सहिउ पयडत्यु महावीरहो विहिउ । तोयउ भरित जसहर पिना डिला बंधे किय प्यासु ! टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरइउ जिह बुज्इ जडु | सक्कय- सिलोय - विहि-जणियविही गुफियउ सुहासिय रयण - णिही । धम्मो एस- चूडामणिवस्तु तह झाणपईज जि झार्णासक्खु । छक्कम्मुवएसे सहुं पबंध किय अट्ठ संख सई सच्चसंघ १६ १० P अर्थात् नवरसोंसे युक्त 'मिणाहचरिउ', श्लेष अर्थ युक्त 'महावीरचरिउ', पद्धड़िया छन्द में लिखित 'जसहचरिउ' जड़ बुद्धियोंको भी बोध प्रदान करने वाला 'धर्मचरित' का टिप्पण, संस्कृत श्लोकोंकी विधि द्वारा आनन्द उत्पन्न करनेवाला 'सुभाषितरत्ननिधि', 'धर्मोपदेशचूडामणि' ध्यानकी शिक्षा देनेवाला 'ध्यानप्रदीप' और बदकमका परिज्ञान करानेवाला 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथ लिखे हैं । इस आधार पर कविको निम्नलिखित रचनाएँ सिद्ध होती हैं " १. मिणा चरिउ (नेमिनाथचरित) २. महावीर चरिउ ( महावीर चरित) ३ जसहर चरिउ ( यशोधरचरित) ४. धर्मवरित - टिप्पण ५. सुभाषितरत्न - निवि आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १५७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. धर्मोपदेश-चूडामणि (धम्मोवएसचूडामणि) ७. ध्यान-प्रदीप (माणपई) ८. छक्कम्मुवएस (षट्कर्मोपदेश) मिणाहरित इस ग्रंथमें २५ सन्धियाँ है, जिनकी श्लोकसंख्या लगभग ६,८९५ है । इसमें २वें तीर्थकर नेमिनाथका जीवन-चरित गुम्फित है। प्रसंगबंश कृष्ण और उनके चचेरे भाइयोंका भी जीवन-चरित पाया जाता है। इस ग्रंथको कविने वि० सं० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको समाप्त किया है । वि० सं० १५१२ को इसकी प्रति सोनागिरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है। षटकर्मोपवेश-इस ग्रंथमें १४ सन्धियाँ और २१५ कड़वक हैं। इसका कुल प्रमाण २०५० श्लोक है । कविने इस ग्रंथमें गृहस्थोंके षट्को -१. देवपूजा, २. गुरुसेवा, ३. स्वाध्याय, ४. संयम, ५. षटकायजीवरक्षा और ६. दानका कथन किया है ! विविध कथाओंके सरस विवेचन द्वारा सात तत्वोंको स्पष्ट किया गया है। द्वितीय सन्धिसे ९वीं सन्धि तक देवपूजाका विवेचन आया है और उसे नूतनकथारूप दृष्टान्तोंके द्वारा सुगम तथा प्राय बना दिया गया है। दशवी सन्धिमें जिनपूजाकी कथा दी गई है। और उसकी विधि बतलाकर उद्यापनविधिका भी अंकन किया गया है। ११वीं सन्धिसे १४वीं सन्धि तक इन चार सन्धियोंमें पूजा-विधिके अतिरिक शेष पाँच कर्मोंका विवेचन किया गया है। षट्कर्मोपदेशकी रचनाके प्रेरक अम्बाप्रसाद बतलाये गये हैं। ये नागरफुलमें उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम गुणपाल और माताका नाम पचिणी था। यह ग्रंथ उन्हींको समर्पित किया गया है । प्रत्येक सन्धिके समातिसूचक पुष्पिकावाक्यमें इनका नाम स्मरण किया है । कहींकहीं अमरकीर्तिने अम्बाप्रसादको अपना लघु बन्धु और अनुजबन्धु भी कहा है। इससे अनुमान होता है कि कवि अमरकीति भी इसी कुलमें उत्पन्न हुए थे और अम्बाप्रसादके बड़े भाई थे। कविने इस ग्रंथकी समाप्ति गुर्जर विषयके मध्य महीयड (महीकांडा) देशके गोदइय (गोध्रा) नामक नगरके आदीश्वर चैत्यालयमें बैठकर की है। स्पष्टतः 'गुर्जर' गुजरात प्रान्तका बोधक है । अतएव 'महीयड' देश वर्तमान महीकांठा और 'गोदय' नगर वर्तमान गोध्राका बोधक है । अम्बाप्रसाद संभवतः इसी गोध्राके निवासी थे। कविको शेष रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । १५८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि कनकाअर मुनि कनकामरने ‘करकंडुचरिउ'के आदि और अन्तमें अपने गुरुका नाम पंडित या वुधमंगलदेव बताया है । अन्तिम प्रशस्ति में कहा है कि वे बाह्मणा वेशके चन्द्रऋषिगोत्रीय थे । जब विरक्त होकर बे दिगम्बर मुनि हो गये, तो उनका नाम कनकामर प्रसिद्ध हुआ | श्री डॉ. हीरालाल जी जेनने बताया है कि पट्टाबलियोंके अनुसार सुस्तिके शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा स्थापित कोटिकगणकी बैरिशाखाका एक कुल चन्द्रनामक हुआ । चन्द्रकुलके भी अनेक अन्वय और गच्छ हुए । उत्तराध्ययनको शिष्यहिता नामक वृत्तिके कर्ता शान्तिसूरि चन्द्र कुलके काठकरान्वयसे उत्पन्न थारापद्र-गच्छके थे और सुखबोधटीकाके कर्ता देवेन्द्र गणिण भी चन्द्रकुलके थे। किन्तु ये सब श्वेताम्बर परम्पराके भेद-प्रभेद हैं, दिगम्बर परम्पराके नहीं। मुनि कानकामर दिगम्बर मुनि थे । अतएव कमकामरका चन्द्रऋषिगोत्र देशीगणके चन्द्रकराचार्याम्नायके अन्तर्गत है । इतिहाससे यह सिद्ध है कि चन्देल नरेशोंने भी अपनेको चन्द्रात्रेयऋषिवंशी कहा है। अत: बहत्त संभव है कि चन्द्रकराचार्याम्नाय चन्देलवंशी राजकुलमेंसे ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित किया हो । स्वयं कनकामर भी इसी कुलके रहे हों। ___ कविकी गुरुपरम्पराके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती । अन्तिम प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको बुधमंगलदेवका शिष्य कहा है । श्री डॉ० हीरालाल जी जैनने रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामक संस्कृत-ग्रंथके रचयिता पं० मंगलदेवको कहा है। इस मंथकी पाण्डुलिपियां जयपुर और कारंजामें प्राप्त हैं। जयपुरकी प्रतिमें पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है "सं० १६८० वर्षे काष्ठासंघे नन्दतटग्रामे भट्टारकश्रीभूषणशिष्यपंडितमंगलकृतशास्त्ररत्नाकरनाम शास्त्र सम्पूर्ण ।" इससे डॉ० जैनने यह अनुमान लगाया है कि सं० १६८० ग्रंथरचनाका काल नहीं, लेखनका काल है। कारंजाके शास्त्रभंडारकी प्रतिमें उसका लेखनकाल १६६७ अंकित किया है। काष्ठासंघ और नन्दीतट ग्रामका प्राचीनतम उल्लेख देवसेनकृत दर्शनसार गाथा ३८ में प्राप्त होता है, जहां वि० सं० ७५३ में नन्दितटग्राममें काष्ठासंघको उत्पत्ति बताई गई है। यदि कनकामरके १. डॉ. हीरालाल : परिउफरकंड, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, सन् १९६४, प्रस्तावना आवायतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १५९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालके समीप श्रीभूषण और उनके शिष्य मंगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो जाय, तो उनकी परमा सामान और नलिटर मापके साथ जोड़ी जा सकती है। ___ 'करकंडुचरिउ'की रचना 'आसाइय'नगरीमें रहकर कविने की है । कारंजाकी प्रतिमें 'आसाइय' नगरी पर 'आशापुरी' टिप्पण मिलता है, जिससे जान पड़ता है कि उस नगरीको आशापुरी भी कहते थे। ___ इटावासे ९ मीलकी दूरी पर आसयखेड़ा नामक ग्राम है । यह ग्राम जैनियोंका प्राचीन स्थान है। आसइ गाँव एक मंचे खेड़ेपर बसा हुआ है, जिसके पश्चिमी ओर विशाल खण्डहर पड़े हुए हैं। उस पर बहुत दिगम्बर जैन प्रतिमाएं विखरी हुई मिलती हैं। यह आसाइय ग्राम अपने दुर्गके लिए प्रसिद्ध था । इसे चन्द्रपालने बनवाया था। मुनि कनकामरने आसाइय नगरीमें आकर अपने 'करकंडुचरिउ' की रचना की थी, जहाँके नरेश विजयपाल, भूपाल और कर्ण थे । अतः संभव है कि यह असाइयनगरी वर्तमान आसयखेड़ा ही हो। ई. सन् १०१७में मुहम्मद तुगलकने मथुरासे कक्षौज तक आक्रमण किया था। इटावाके पास मुंजके किले में हिन्दुओंसे उसका जबरदस्त संघर्ष हुआ । वहाँसे सुल्तानने आसइके दुर्गपर आक्रमण किया। उस समय आसइका शासक चाण्डाल भोर था । मुसलमानलेखकोंने लिखा है कि मुहम्मद तुगलकने पाँचों किलोको गिरवाकर मिट्टीमें मिला दिया। अतः यह संभव नहीं कि ई० सन् १०१७के पश्चात् कनकामर उसका उल्लेख नगरीके रूपमें करें। ___ डॉ. जैनने भोपालके समीप आसापुरीनामक ग्रामका उल्लेख किया है। वहाँ आशापुरीदेवीकी असाधारण मूत्ति विद्यमान है । संभवतः इसीपरसे इस ग्रामका नाम आशापुर पड़ा होगा। वहाँ एक जैन मन्दिरके भी भग्नावशेष प्राप्त हैं। उनमें एक १६ फुट ऊंची शान्तिनाथ तीर्थंकरको प्रतिमा भी है। डॉ० जैन इसी आशापुरीको कनकामरके द्वारा उल्लिखित आसाइय मानते हैं। स्थितिकाल कवि कनकामरने ग्रंथके रचनाकालका उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अपनेसे पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण ई० सन् ९६५में समाप्त किया था । अतएव करकंडुचरिउकी रचना ई० सन् ९६५के पहले नहीं हो सकती है । इस ग्रंथको प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५०२को उपलब्ध है। अत: कविका समय सं० १५०२के पश्चात् भी नहीं हो सकता है। १६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी पाचार्य-परम्परा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'करकंडुचरिउ'को अन्तिम प्रशस्तिमें विजयपाल, भूपाल और कर्ण इन तीन राजाओंका उल्लेख आता है । इतिहास बतलाता है कि विश्वामित्र-गोत्रके क्षत्रीयवंशमें विजयपाल नामके एक राजा हुए, जिनके पुत्र भुवनपाल थे। उन्होंने कलचुरी, गुर्जर और दक्षिणको जोता था। एक अन्य अभिलेखसे बांदा जिलेके अन्तर्गस चन्देलोंको राजधानी कालिंजरका निर्देश मिलता है। इसमें विजयपालके पुत्र भूमिपालका तथा दक्षिण दिशा और कर्ण राजाको जीतनेका उल्लेख है। एक अन्य अभिलेख जबलपुर जिलेके अन्तर्गत तावरमें मिला है | उसमें भूमिपालके उत्पन्न होनेका उल्लेख आया है। तथा किसी सम्बन्धमें त्रिपुरी और सिंहपुरीका भी निर्देश है। यह अभिलेख ११वीं-१२वीं शताब्दीका अनुमान किया गया है। इन लेखोंके विजयपाल और उनके पुत्र भुबनपाल या भूमिपाल तथा हमारे ग्रन्धके विजयपाल और भूमिपाल एक ही है । कण नरेन्द्रका समावेश भी इन्हीं अभिलेखोंमें हो जाता है। ____ डॉ. जैनने इतिहासके आलोकमें विजयपाल, कीत्तिवर्मा (भुवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजाओंका अस्तित्व ई० सन् १०४०-१०५१के आस-पास बतलाया है। अतः करकंड़चरिउका रचनाकाल ग्यारहवीं शतोका मध्यभाग सिद्ध होता है। प्रशस्तिके अनुसार पुष्पदन्तके पश्चात् अर्थात् ९६५ ई० के अनन्तर और १०५१ ई० के पूर्व कनकामरका समय होना चाहिए। वि० सं० १०९७ के लगभग कालिंजरमें विजयपाल नामक राजा हुआ । यह प्रतापी कलचुरोनरेश कण देवका समकालीन था। इसके पुत्र कोत्तिवर्माने कर्णदेवको पराजित किया था। अतएव मुनि कनकामरका समय वि० की १२वीं शताब्दी है। 'करकंडुचरिउ' १० सन्धियों में विभक्त है। इसमें करकण्डु महाराजकी कथा वर्णित है । कथाका सारांश निम्न प्रकार है____अंगदेशकी चम्पापुरी नगरीमें धाडीवाहन राजा राज्य करता था। एक बार वह कुसुमपुरको गया और वहां पद्मावतो नामको एक युवतीको देखकर उसपर मोहित हो गया । युवतीका संरक्षक एक माली था, जिससे बातचीत करनेपर पता लगा कि यह युवती यथार्थमें कोशाम्बोके राजा वसुपालकी पुत्री है । जन्म समयके अपशकुनके कारण पिताने उसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया था। राजपुत्री जानकर धाडीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया । और उमे चम्पापुरी में ले आयर | कुछ काल पश्चात् यह गर्भवती हुई और उसे यह दोला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द बरसातमें वह नररूप धारण करके अपने १. करकंडुधरिउ, प्रस्तावना पृ० ११-१२ । माचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १६१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतिके साथ एक हाथीपर सवार होकर नगरका परिभ्रमण करे । राजाने रानी: का दोहलापूर्ण करनेके लिए वैसा ही प्रबन्ध किया, पर दुष्ट हाथी राजा-रानीको लेकर जंगलकी ओर भाग निकला। रानीने समझा-बुझाकर राजाको एक वृक्षकी डाली पकड़कर अपने प्राण बचाने के लिए राजी कर लिया। और स्वयं उस हाथीपर सवार रहकर जंगल में पहुंची । वह हाथी एक जलाशयमें घुसा । रानीने कूदकर अपने प्राण बचाये ! जब वह बनमें पहुंची, तो सूखा हुआ वह बन हराभरा हो गया । इस समाचारको प्राप्तकर वनमाली वहां आया और उसे बहन बनाकर अपने साथ ले गया। मालिनको पद्मावतीके रूपपर ईष्या हुई और उसने किसी बहानेसे उसे अपने घरसे निकाल दिया । निराश होकर रानी श्मशानभूमिमें आई और वहीं उसे पुत्र उत्पन्न हुआ। मुनिके अभिशापसे मातंग बने हुए विद्याधरने उस पुत्रको ग्रहण कर लिया और अभिशापकी बात बतलाकर रानीको उसने आश्वस्त किया। मातंगने उस बालकको शिक्षित किया | हाथमें कंडु-सूखो खुजली होने के कारण उसका नाम 'करकंडु' पड़ गया । जब यह युवावस्थाका प्राप्त हुआ, त दन्तीपुरके राजाका परलोकवास हो गया । मन्त्रियोंने देवी विधिसे उत्तराधिकारीका चयन करना चाहा और इस विधिमें करकंडुकी राजा बना दिया गया । करकंडुका विवाह गिरिनगरकी राजकुमारी मदनावलीसे हुआ। एक बार उसके दरबारमें चम्पाके राजाका दूत आया, जिसने उससे चम्पानरेशका आधिपत्य स्वीकार करनेकी प्रेरणा की। करकंडु कोधित हुआ और उसने तत्काल चम्पापर आक्रमण कर दिया। दोनों ओरसे घमासान युद्ध होने लगा । अन्तमें पद्मावतीने रणभूमिमें उपस्थित होकर पिता-पुत्रका सम्मेलन करा दिया । धाड़ीवाहन पुत्ररत्नको प्राप्त कर बहुत हर्षित हुआ और वह चम्पाका राज्य करकांडुको सौंप दीक्षित हो गया। एक बार करकंडुने द्रविड़ देशके चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंपर आक्रमण किया । मार्ग में वह तेरापुर नगरमें पहुँचा । वहाँके राजा शिवने भेंट की और आकर बताया कि वहाँसे पास ही एक पहाड़ोके चढ़ावार एक गुफा है तथा उसी पहाड़ाके कपर एक भारी बामी है, जिसकी पूजा प्रतिदिन एक हाथी किया करता है। यह सुनकर करकंडु शिवराजाके साथ उस पहाड़ीपर गया । उसने गुफामें भगवान् पाश्वनाथका दर्शन किया और ऊपर चढ़कर बामीको भी देखा । उनके समक्ष ही हाथीने आकर कमल-पुत्रोंसे उस बामोकी पूजा की | करकंडुने यह जानकर कि अवश्य ही यहां कोई देव-मूर्ति होगी, उस बामीको खुदवाया । उसका अनु१६२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान सत्य निकला । वहाँ पार्श्वनाथ भगवान्की मूत्ति निकली, जिसे बड़ी भक्तिसे उसी गुफामें ले आये । इस बार करकंडुने पुरानी प्रतिमाका अवलोकन किया । सिंहासनपर उन्हें एक गाँठ-सी दिखलाई पड़ी, जो शोभाको बिगाड़ रही थी । एक पुराने शिल्पकारसे पूछनेपर उसने कहा कि जब यह गफा बनाई गई थी, तब वहाँ एक जलवाहिनी निकल पड़ी थी। उसे रोकने के लिए हो वह गांठ दी गई है । करकंडुको जल बाहिनीके दर्शनका कोसुल उत्पन्न हुआ और शिल्पकारको बहुत रोकने पर भी उसने उस गांठको तोड़वा डाला। गाँठके टूटते ही वहाँ एक भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा, जिसे रोकना असंभव हो गया । गुफा जलसे भर गई। करकंडुको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। निदान एक विद्याधरने आकर उसका सम्बोधन किया, उस प्रवाहको रोकनेका वचन दिया तथा उस गुफाके बननेका इतिहास भी कह सुनाया। दस निवासके सुनले अनन्ता नहुने हो दो गुमाएं और बनवाई । इसी बीच एक विद्याधर हाथीका रूप धरकर आया और करकंडुको भुलाकर मदनावलीको हरकर ले गया । ___ करकंडु सिंहलद्वीप पहुंचा और वहाँको राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया। जब वह जलमार्गसे लौट रहा था, तो एक मच्छने उसकी नौकापर आक्रमण किया | वह उसे मारने समुद्र में कूद पड़ा । मच्छ मारा गया, पर वह नावपर न बा सका । उसे एक विद्याधरपुत्री हरकर ले गयी। रतिवेगाने किनारेपर आकर, शोकसे अधीर हो पूजा-पाठ प्रारंभ किया जिससे पद्मावतीने प्रकट हो उसे आश्वासन दिया | उधर विद्याधरोने कररंडुसे विवाह कर लिया और नववत्रु सहित रतिवेगासे आ मिला। ____ करकंडुने चोल, चेर और पांडय नरेशोंको सम्मिलित सेनाका सामना किया और उन्हें हराकर प्रण पूरा किया। जब वह लौटकर पुनः तेरापुर आया, तो कुटिल विद्याधरने मदनावलीको लाकर सौंप दिया। वह चम्पापुरी आकर सुख-पूर्वक राज्य करने लगा। ___ एक दिन बनमालीने आकर सूचना दी कि नगरके उपवनमें शीलगुप्त नामक मुनिराज पधारे हैं। राजा अत्यन्त भक्तिभावसे पुरजन-परिजन सहित उनके चरणोंमें उपस्थित हुआ और अपने जीवनसम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे। राजा मुनिराजसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथाओंको सुनकर विरक्त हो गया और अपने पुत्र वसुपालको राज्य दे मुनि बन गया। रानियाँ और माता पद्मावती भी आर्यिका हो गई । करकंडुने घोर तपश्चरणकर मोक्ष प्राप्त किया । चरितनायकको कथाके अतिरिक्त अवान्तर ९ कथाएं भी आयी हैं | प्रथम आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १६३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार कथाएं द्वितीय सन्धिमें वर्णित हैं। इनमें क्रमशः मन्त्रशक्तिका प्रभाव, अज्ञान से आपत्ति, नीचसंगतिका बुरा परिणाम और सत्संगतिका शुभ परिणाम दिखाया गया है। पांचवीं कथा एक विद्याधरने मदनाचलीके विरहसे व्याकुल करकंडुको यह समझाने के लिए सुनाई कि वियोगके बाद भी पति-पत्नी का सम्मिलन हो जाता है। छठो कथा पाँचवीं कथाके अन्तर्गत ही आई है। सातवीं कथा शुभ शकुनका फल बतलाने के लिये कही गई है । आठवीं कथा पद्मावतीने समुद्र में विद्याधरी द्वारा करकंडुके हरण किये जानेपर शोकाकुला रतिवेगाको सुनाई है । नवीं कथा आठवीं कथाका प्रारंभिक भाग है, जो एक तोतेकी कथाके रूपमें स्वत्तन्त्र अस्तित्व रखती है । ये कथाएं मूलकथाके विकासमें अधिक सहायक नहीं हो पातीं। इनके आधारपर कविने कथावस्तुको रोचक बनानेका प्रयास किया है। वस्तुमें रसोत्कर्ष, पात्रोंको चरित्रगत विशेषता और काव्योंमें प्राप्य प्राकृतिक दृश्यों के वर्णनके अभावको कविने भिन्न-भिन्न कथाओंके प्रयोग द्वारा पूरा करनेका प्रयत्न किया है । करकंदुचरिउ धार्मिक कथा-काव्य है । इसमें अलौकिक और चमत्काकपूर्ण घटनाओंके साथ काव्यत्तत्त्व भी प्रचुररूपमें पाये जाते हैं । इस काव्यमें मानव जगत और प्राकृतिक जगत दोनों का वर्णन पाया जाता है । करकडुके दन्तिपुरमें प्रवेश करनेपर नगरकी नारियोंके हृदयकी व्यग्रता विचित्र हो जाती है । यह वर्णन काव्यको दृष्टिसे बहुत ही सरस और आकर्षक है " तहिं पुरवरि खुहियउ रमणियाउ झाणट्टिय मुणि-मण-दमणियाउ । कवि रहसई तरलय चलिय णारि बिउफ्फउ संठिय का विदारि । क विधाasara गेहलुद्ध परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध | कवि कज्जल बलहउ अहरे देइ णयगुल्लाएं लक्खारसु करेइ । frieवत्ति कवि अणुसरेद्र विवरीउ डिंभु के विकडिहिँ लेइ । कवि उरु करयलि करइ बाल, सिरु छंडिवि कडियले धरह माल । णिय-दर मणिविक वि वराय मज्जारु ण मेल्लइ साणुराय । कवि धावद वणिउ मणे घरति बिलंघल मोहइ घर सरंति । घप्ता - कवि माणमहल्ली मयणभर करकंडहो समुहिय चलिय । थिर-थर-पओहरि मयजयण उत्तप्त-कणयछवि उज्जलिय ॥२॥ अर्थात् करकंडुके आगमन पर ध्यानावस्थित मुनियोंके मनको विचलित १६४ : तीथंकर महावीर कोर उनकी आचार्य-परम्परा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेवाली सुन्दरियां भी विक्षुब्ध हो उठीं। कोई स्त्री आवेगसे चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेमलुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसीने गिरते हुए वस्त्रको भी परवाह न की, कोई अधरों पर काजल भरने लगी, कोई आँखोंमें लाक्षारस लगाने लगी, कोई दिगम्बरोंके समान आचरण करने लगी, किसीने बच्चेको उल्टा ही गोदमें ले लिया, किसीने नूपुरको हाथमें पहना, किसीने सिरके स्थानपर कटिप्रदेशपर माला डाल ली और कोई बेचारी बिल्लीके बच्चेको अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती ।..... कोई स्थिर और स्थूल पयोधर वाली, तप्त कनकच्छविके समान उज्ज्वल वर्ण वाली, मृगनयनी, मामिनी कामाकुल हो करकंडुके सामने चल पड़ो । ___ शोलगुप्त मुनिराजके आगमनपर पुरनारियोंके हृदयमै जैसा उत्साह दिखलाई पड़ता है वैसा अन्यत्र संभव नहीं। कविने लिखा है कि कोई सुन्दरी मानिनी मुनिके चरणकमलमें अनुरक्त हो चल दी, कोई नपुर-शब्दोंसे झनझन करती हुई मानों मुनिगुणगान करती हुई चल पड़ी। कोई मुनिदर्शनोंका हृदयमें ध्यान धरती हुई जाते हुए पतिका भी विचार नहीं करतो । कोई थालमें अक्षत और धूप भरकर बच्चेको ले वेगसे चल पड़ी | कोई सुगन्धयुक्त जाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों विद्याधरो पृथ्वो पर शोभित हो रही हो।' __ कवि देश, नगर, ग्राम, प्रासाद, द्वीप, श्मशान आदिक वर्णनमें भा अत्यन्त पटु है । अंगदेशका चित्रण करते समय उसने उस देशको पृथ्वीरूपो मारीके रूपमें अनुभव किया है । इस प्रसंगमें सरावर, धान्यसे भरे खेत, कृषक बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदिका भी चित्रण किया गया है ।२। कनकामरने श्रृंगार, वीर और भयानक रसका अद्भत चित्रण किया है । नारीरूप-वर्णनमें कविने परम्पराका आश्रय लिया है और परम्परामुक्त उपमानोंका प्रयोग कर नारीके नख-शिखका चित्रण किया है । पद्मावतोके रूपचित्रणमें अधरोंकी रक्तिमाका कारण आगे उठी हुई नासिकाको उन्नतिपर अधरोंका कोप कल्पित किया गया है। रतिवेगाके विलापमें कविने ऊहात्मक प्रसंगोंका प्रयोग किया है । वर्णनमें संवेदनाका बाहुल्य है । इसी प्रकार मदनावलीके विलुप्त होनेपर करकंडुका विलाप भी पाषाणको पिघला देने वाला है। १. करकंडुचरिउ ९।२, ३-७। २. वही श३-४-१० । पाचायतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १६५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारको नश्वरता और अस्थिरताका चित्रण करते हुए कविने बताया है कि कालके प्रभावसे कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किश्वर, खेचर, सुर, अमरपति सब कालके वशवर्ती हैं ।" प्रत्येक प्राणी अपने कर्मो के लिए उत्तरदायी, वह अकेला ही संसार में जन्म ग्रहण करता है, अकेला हो दुःख भोगता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है | करकंडुको प्रयाण करते समय गंगा नदी मिलता है । कविने गंगाका वर्णन जीवन्त रूपमें प्रस्तुत किया है गंगापरसु संपल एण गंगाणइ दिट्टी जंतएण । सा सोहई सिय-जल कुडिलयंत्ति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति । दूराव वती अविहाई, हिमवंत- गिरिदहो कित्ति पाई । बिहिं कुलहिं लोयहिं हंतएहिं आइन्चहो जल परिदितिएहिं । दब्भंकिय उड़ढहिँ करयलहिं गह भगइ गाइँ एयहि छलेहिं । हउँ सुद्धिय नियमग्गेण जामि मा रूसहि अम्महो उवरि सामि । शुभ्र जलयुक्त, कुटिल प्रवाहवाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी, मानों शेषनागकी स्त्री जा रही हो । दूरसे बहुतो हुई गंगा ऐसी दिखलाई पड़ती थी, जैसे वह हिमवंत गिरीन्द्रकी कीर्ति हो । दोनों कूलों पर नहाते हुए और आदित्यको जल चढ़ाते हुए, दर्भसे युक्त ऊँचे उठाये हुए करतलों सहित लोगोंके द्वारा मानों इसी बहानेसे नदी कह रही है "मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्ग से जाती हूँ । हे स्वामी ! मेरे ऊपर रुष्ट मत होइये ।" कविके वर्णन में स्वाभाविकता है । कविने भाषाको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए भावानुरूप शब्दों का प्रयोग किया है | पद-योजना में छन्दप्रवाह भी सहायता प्रदान करता है । ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है । कविने विभिन्न प्रकारके छन्द और अलंकारोंकी योजना द्वारा इस काव्यको सरस बनाया है । महाकवि सिंह महाकवि सिंह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषा के प्रकांड विद्वान थे । इनके पिताका नाम रल्हूण पंडित था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषा के १. करकंडुचरिउ ९८५११-१० । २. वही ९।६ । १६६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाण्ड पण्डित थे। ये गुर्जर कुलमें उत्पन्न हुए थे। कविका परिचय-सूचक पद्य 'पज्जण्णचरिउ'को १३वी सन्धिके प्रारंभमें पाया जाता है जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसर्वप्रियो, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छीसिंहनामा कविः । पुत्रो रल्हण-पण्डितस्य मतिमान् श्रीगणरागोमिह, दृष्टिज्ञान-चरित्रभूषिततनुवंशे विशालेऽवनी ।। इस संस्कृत-पद्यसे स्पष्ट है कि कवि सिंह संस्कृत-भाषाका भी अच्छा कवि था। कविको माताका नाम जिनमती बताया गया है । कविने इसोकी प्रेरणा. से 'पज्जपणचरिउकी रचना की है। कविने काव्यके आरंभ में विनय प्रदर्शित करते हुए अपनेको छन्द-लक्षण, समास-सन्धि आदिके ज्ञानसे रहित बताया है, तो भी कवि स्वभावसे अभिमानी प्रतीत होता है। उसे अपनी काव्य-प्रतिभाका गर्भवों सनिलो अप में किये गये एक संत-गद्यसे यह बात स्पष्ट होती है साहाय्यं समवाप्य नाम सुकवेः प्रद्युम्नकाव्यस्य यः । कर्ताऽभद् भवभेदकचतुरः श्रीसिंहनामा शमी॥ साम्यं तस्य कवित्वगर्वसहित: को नाम जातोऽवनौ । श्रीमज्जेनमतप्रणीतसुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः ।। कविने अपने सम्प्रदायके सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया | पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षण और गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कवि दिगम्बर सम्प्रदायका था। ग्रंथकी उत्थानिका और कथनशैली भी उक्त सम्प्रदायके काव्यों जैसी ही है । लिखा हैविउलगिरिहि जिह हयभवकंदहो, समवसरणु, सिरिवीरजिणिदहो । गरवरखयरामरसमवाए, गणहरु-पुच्छिल सेणियराए । मयरद्धयहो विणिज्जयमारहो, कहहि चरिउ पज्जुण्णकुमारहो । तं णिसुणेवि भणइ गणेसरु, णिसुणइ सेणिउ मगणरेसरु ।। कविका वंश गुर्जर था और अपनेको उसने उस गुर्जरकुलरूपी आकाशको प्रकाशित करनेवाला सूर्य लिखा है । कविने अपने पिताका नाम बुध रल्हण या रल्हण बताया है । बुध रल्ह्णको शोलादि गुणोंसे अलंकृत जिनमती नामकी पत्नी थी, जिसके गर्भसे कवि सिंहका जन्म हुआ था। कविके तीन भाई थे, जिनमें प्रथमका नाम शुभंकर, द्वितीयका गुणप्रवर और तृतीयका साधारण था । ये तीनों ही भाई धर्मात्मा और सुन्दर थे। ग्रन्थमें बताया है आचायतुल्य काध्यकार एवं लेखक : १६७ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह पय-रउ णिरु उष्णय अमक्ष्यमाणु, गुज्जरकुल- गहू- उज्जोय भाणु । जो उपवराणीविलासु, एवंविह विउसहो रल्हणासु । तहो पणइणि जिणमइ सुहय-सील, सम्मत्तवंत णं धम्मलील | कह सीहु ताहि गब्र्भतरंमि, संभवित्र कमलु जह सुर-सरंमि । जण वच्छल सज्जणु जणियहरिसु, सुइवंत तिविह वहरायसरि । उप्पणु सहोयरु तासु अवर, नरमेण सुहंकर गुणहंपवरु | साहारण लघुबड तासु जाउ, धम्मापुरत्तु अइदिव्वकाउ | I कवि सिंहके गुरु मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र थे । ये तप-तेजरूपी दिवाकर और व्रत, नियम तथा शोलके समुद्र थे । अमृतचन्द्रके गुरु माधवचन्द्र थे । इनकी 'मलबारी' उपाधि थी । यह उपाधि उसी व्यक्तिको प्राप्त होती थी, जो दुर्द्धर परीषहों, विविध उपसर्गों और शीत-उष्णादिकी बाधाओंको सहन करता था । कवि देवसेनने भी अपने गुरु विमलदेवको 'मलघारी' सूचित किया है । कवि सिंहका व्यक्तिस्वाती व्यक्ति है। वह घार भाषाओंका विद्वान् और आशुकवि था । उसे सरस्वतीका पूर्ण प्रसाद प्राप्त था। वह सत्कवियों में अग्रणी, मान्य और मनस्वी था। उसे हिताहितका पूर्ण विवेक था और समस्त विषयोंका विज्ञ होनेके कारण काव्यरचना में पटु था । 'पज्जुण्णचरिउ' में सन्धियोंकी पुष्पिकाओ में सिद्ध और सिंह दोनों नाम मिलते हैं । प्रथम आठ सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिद्ध और अन्य सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिंह नाम मिलता है । अतः यह कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्तिके नाम थे। वह कहीं अपनेको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है । दूसरी यह कल्पना भो सम्भव है कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियोंने इस काव्यकी रचना की हो, क्योंकि काव्यके प्रारम्भ में सिंहके माता- पित्ताका नाम और आगे सिद्धके पिताका नाम भिन्न मिलता है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका अनुमान है कि सिद्ध कविने प्रद्युम्नचरितका निर्माण किया था । कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंहने खण्डित रूपसे प्राप्त इस ग्रन्थका पुनरुद्धार किया ।" प्रो० डॉ० हीरालालजी जैनका भी यही विचार है । ग्रन्थको प्रशस्तिमें कुछ ऐसी पंक्तियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि कवि सिद्धकी रचना के विनष्ट होने और कर्मवशात् प्राप्त होने की बात कही गई है १. महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित, अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १०-११, पृ० ३९१ । २. नागपुर युनिवर्सिटी जर्नल, सन् १९४२, पृ० ८२-८३ । १६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई सिद्धहो विरयंतही विणासु, संपत्त कम्मवसेण तासु साथ ही अन्तिम प्रशस्तिके परकज्जं परकल्वं विडतं जेहि उद्धरियं से भी उक्त आशय की सिद्धि होती है। श्री हरिवंश कोछड़ने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है !" स्थितिकाल कवि सिंहने 'पज्जुष्णचरिउ' के रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । पर ग्रन्थ- प्रशस्ति में बह्मणवाड नगरका वर्णन करते हुए लिखा है कि उस समय वहाँ धोका था, जो अर्णोराजको क्षय करने के लिये कालस्वरूप था और जिसका माण्डलिकभृत्य गुहिलवंशीय क्षत्रिय भुल्लण ब्रह्मणवाडका शासक था । प्रशस्ति में लिखा है सरि-सर-णंदण-वण-संछण्णउ, मठ-विहार - जिण-भवण- खण्णउ । बम्हणवाडउणा में पट्टणु, अरिणरणाह सेणदलवदृणु । जो भुजइ अरिणखयकालही, रणधोरियहो सुअहो बल्लालहो । जासु भिच्चु दुज्जण मण सल्लणु, खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लणु । - - प्रद्युम्नचरित, प्रशस्ति । पर इस उल्लेख परसे राजाओंके राज्यकालको ज्ञातकर कुछ निष्कर्ष निकाल सकना कठिन है । मन्त्री तेजपाल द्वारा आबूके लूणवसतिचेत्यमें वि० सं० १२८७ के लेखमें मालबाके राजा बल्लालको यशोधवलके द्वारा मारे जानेका उल्लेख आया है । यह यशोधनल विक्रमसिंहका भतीजा था और उसके कैद हो जानेके पश्चात् राजगद्दी पर आसीन हुआ था। यह कुमारपालका माण्डलिक सामन्त अथवा भूत्य था । इस कथनकी पुष्टि अंचलेश्वर मन्दिरके शिलालेख से भी होती है । जब कुमारपाल गुजरातकी गद्दीपर आसीन हुआ था, तब मालवाका राजा बल्लाल चन्द्रावतीका परमार विक्रमसिंह और सपादलक्षसामरका चौहान १. अपभ्रंश- साहित्य, दिल्ली प्रकाशन, पु० २२१ । बाचार्यसुष्य काव्यकार एवं लेखक : १६९ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्णोराज इन तीनोंने मिलकर कुमारपालके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की। पर उनका प्रयत्न सफल नहीं हो सका। कुमारपालने विक्रमसिंहका राज्य उसके भसीजे यशोधवलको दे दिया, जिसने बल्लालको मारा था। इस प्रकार मालवाको गुजरातमें मिलानेका यत्न किया गया ।' कुमारपालका राज्यकाल वि० सं० ११९९ से १२२९ तक रहा है। अतः बल्लालकी मृत्यु ११५१ ई० वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है। ऊपरके विवेचनसे यह स्पष्ट है कि कुमारपाल, यशोधवल, बल्लाल और अर्णोराज ये सब समकालीन हैं। अतः ग्रंथ-प्रशस्तिगत कथनको दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रद्य म्नुचरितकी रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी। अतएव कवि सिंहका समय विक्रमको १२ वीं शतीका आन्तम पाद या विक्रमकी १३ वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है। डॉ. हीरालालजी जैनने 'पज्जुण्णचरिउ'का रचनाकाल ई० सन्की १२ वीं शतीका पूर्वार्द्ध माना है। पं० परमानन्दजी और डा. जैनके तथ्योंपर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करनेपर डॉ जैन द्वारा दिये गये तथ्य अधिक प्रामाणिक प्रतीत होते हैं। रचना कचिकी एकमात्र रचना प्रद्युम्नचरित है | इसमें २४ कामदेवोंमेंस २१ वें कामदेव कृष्णपुत्र प्रद्युम्नका चरित निबद्ध किया है। यह १५ सन्धियों में विभक्त है । रुक्मिणीसे उत्पन्न होते ही प्रद्य म्नको एक राक्षस उठाकर ले जाता है। प्रद्युम्न वहीं बड़े होते हैं। और फिर १२ वर्ष पश्चात् कृष्णसे आकर मिलते हैं। कविने परम्परानुसार जिनवन्दन, सरस्वतीचन्दनके अनन्तर आत्मविनय प्रदर्शित की है | बह सज्जन-दुर्जनका स्मरण करना भी नहीं भूलता | कविने परिसंख्यालकार द्वारा सौराष्ट्र दशका बहुत हो सुन्दर चित्रण किया है। लिखा है-- मय संग करिणि जहिं वेए कंडु, खरदंडु सरोरुहु ससि सखंडु । जहिं कव्वे बंधु विग्गहु सरीरु, धम्माणुरत्तु जणु पावभीरु । थदृत्तणु मलणु- वि मणहराहं, वरतरुणी पीणवण यण हराह । ह्य हिंसणि रायणि हेलणेसु, खलि विगयणेहु तिल-पीलणेसु । मज्झण्णयाले गुणगणहराहे, परयारगमणु • जहिं मुणिवराहं । पिय विरहु विजहिं कडु व उकसाज, कृडिल विज्जुब इहि कुंतलकलाउ॥१५॥ वस्तु-वर्णनमें कवि पटु है । उसने नाम, नगर, ऋतु, सरोवर, उपवन, पर्वत 1. Epigraphica Indica V. LVIII P. 200 । १७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिके चित्रण के साथ पात्रोंकी भावनाओंका भी झंकन किया है । प्रद्य म्नका अपहरण होनेपर रुक्मिणी विलाप करती है । कविने इस संदर्भ में करुण रसका अपूर्व चित्रण किया है। प्रद्युम्न लौट आनेपर सत्यभामा और रुक्मिणीसे मिलते हैं। रुक्मिणोके समक्ष वे अपनी बाल-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन करते हैं। इस संदर्भमें कविने भावाभिव्यंजनपर पूरा ध्यान रखा है। काव्यके आरंभमें कवि कृष्ण और सत्यभामाका बस्तुरूपात्मक चित्रण करता हुआ कहता हैपत्ताचाणउर चिमढणु, देवई-णंदणु, संख-चक्क-सारंगधरु । रणि कंस-खयंकरु, असुर-भयंकरु, वसुह-तिखंडहं गहियकरु ।।१-१२ रजी दाणव माणव दलइ दप्पु, जिणि गहिउ असुर-गर-खयर-कप्पु । पव-णव-जोवण सुमणोहराई, चक्कल-धण पौणपउउंहराई। छण इंदविवसम बयणियाहं, कुवलय-दल-दोहर-णयणियाहं । केकर-हार-कुंडल-धराह, कण-कण-कणंत कंकण कराहं । कयर खोलिर पयणेउराह, सोलह सहसई अंतेउराह । तह मज्झि सरस ताम रस मुहिय, जा विज्जाहरहंसु केउ दुहिय । सई सव्वसुलक्खणसुस्सहाव, णामेण पसिद्धिय सच्चहाव । दाडिमकुसुमाहरसुद्धसाम, अइविय उर मणणिरु मज्झ खाम । ता अग्गमहिसि तहो सुंदरास, इंदाणि व सग्गि पुरंदरासु । १-१३ इस काव्यमें रस-अलंकार आदिका भी समुचित समावेश हुआ है। लाखू पं० लाखू द्वारा विरचित 'जिनदत्तकथा' अपभ्र शके कथा-काव्योंमें उत्तम रचना है। कविने अपने लिए 'लक्खण' शब्द का प्रयोग किया है। पर लक्ष्मण रत्नदेवके पुत्र हैं और पुरवाडवंयमें उत्पन्न हुए हैं। किन्तु लाखूका जन्म जायसवंशमें हुआ है । अतएव लक्ष्मण और लाखू दोनों भिन्न कालके भिन्न कवि हैं । कवि लाखू जायस या जयसवालवंशमें हुए थे। इनके प्रपितामहका नाम कोशवाल था, जो जायसवंशके प्रधान तथा अत्यन्त प्रसिद्ध नरनाथ थे। कविने उनका निवास त्रिभुवनगिरि कहा है । यह त्रिभुवनगढ़ या तिहुनगढ़ भरतपुर जिलेमें बयानाके निकट १५ मील पश्चिम-दक्षिणमें करौली राज्यका प्रसिद्ध तानगढ़ है। इस दुर्गका निर्माण और नामकरण परमभट्टारक महाराजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपालने किया था । इसीलिए यह तिहुनगढ़ १. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, जैन सन्देश, शोधांक २, १८ दिसम्बर १९५८, पृ० ८१ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १७१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या त्रिभुवनगिरि कहलाया है। इसका निर्देश कवि बुलाकीचन्दके वचनकोश में भी मिलता है ।" लाखू तिहुणगढ़ से आकर बिलरामपुरमें बस गये थे । कविने स्वयं लिखा है सो तिहूवणगिरिभग्गउजवेण, घित्तउ बलेण मिच्छाहिवेण । लक्खणु सव्वाड समाणु साउ विच्छोयउ विहिणा जयिण राउ । सो इत्त तस्य हिडंतु पत्तु पुरे विल्लरामे लक्खणु सुपत्तु । - प्रशस्तिका अंतिमभाग इससे स्पष्ट है कि लाखू तिहुनगढ़से चलकर बिलरामपुर में बस गये थे । ग्रन्थकी प्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोसवाल राजा थे और उनका यश चारों ओर व्याप्त था । कविकै पिता भी कहींके राजा थे। कविके पिताका नाम साहुल और माताका नाम जयता था । 'अणुव्रत रत्नप्रदीप' को प्रशस्तिसे भी यही सिद्ध होता है । कविका जन्म कब और कहाँ हुआ, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है । पर त्रिभुवनगिरिके बसाये जाने और विध्वंस किये जाने वाली घटनाओं तथा दुबकुंडके अभिलेख और मदनसागर ( अहारक्षेत्र, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश ) में प्राप्त मूर्तिलेखोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि ११वीं शताब्दी में जयसवाल अपने मूलस्थानको छोड़ कर कई स्थानोंमें बस गये थे । संभवत: तभी कविके पूर्वज त्रिभुवनगिरिमें आकर बस गये होंगे । 'अणुखत रत्नप्रदीप' में लिखा है कि यमुना नदीके तट पर रायवद्दिय नामकी महानगरी थी। वहाँ आहवमल्लदेव नामके राजा राज्य करते थे । वे चौहान वंशके भूषण थे । उन्होंने हम्मीरवीरके मनके शूलको नष्ट किया था । उनकी पट्टरानीका नाम ईसरदे था । इस नगरमें कविकुलमंडल प्रसिद्ध कवि लक्खण रहते थे । एक दिन रात्रिके समय उनके मन में विचार आया कि उत्तम कवित्व - शक्ति, विद्याविलास और पाण्डित्य ये सभी गुण व्यथं जा रहे हैं। इसी विचारमें मग्न कविको निद्रा आ गई और स्वप्नमें उसने शासन- देवताके दर्शन किये । शासन - देवताने स्वप्न में बताया कि अब कवित्वशक्ति प्रकाशित होगी । प्रातःकाल जागने पर कविने स्वप्नदर्शनके सम्बन्धमें विचार किया और उसने देवीकी प्रेरणा समझ कर काव्य रचना करनेका संकल्प किया। और फलतः कवि महामंत्री कण्हसे मिला। कहने कविले भक्तिभावसहित सागारधर्म१. अगरचंद नाहटा, कवि बुलाकीचन्दरचित वचनकोश और जयसवालजाति, जैन संदेश, शोघांक २, १८ दि० १९५७, ०७० । १७२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निरूपण करनेका अनुरोध किया। ___ इससे यह सिद्ध होता है कि कवि त्रिभुवनगिरिसे आकर रायद्दिय नगरीमें रहने लमा था। यह रायबदिय आगरा और बांदीकुईके बीच में विद्यमान है ।' इससे ज्ञात होता है कि कविका वंश रायबहियमें भी रहा है। श्री डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने लिखा है कि "यदि जिनदत्तकथा बिल्लरामपुरवासी जिनधरके पुत्र श्रीधरके अनुरोध और सुख-सुविधा प्रदान करने पर लिखी गई, तो अणुप्रतरत्न प्रदीप आहृवमल्लके मन्त्री कृष्णके आश्रयमें तथा उन्हींके अनुरोधसे चन्द्रवाडमगरमें रचा गया । आहवमल्लको वंश-परम्परा भी चन्द्रवाड नगरसे बतलायी गयी है। इससे स्पष्ट है कि सं० १२७५ में कवि सपरिवार बिल्लरामपुरमें था और सं० १३१३ में चन्द्रवाडनगर ( फिरोजाबादके ) पासमें । यदि हम कविका जन्म तिहनगढ़में भी मान लें तो फिर रायद्दियमें वह कब रहा होगा। हमारे विचारमें लालू के बाबा रायड्डियके रहने वाले होंगे 1 किसी समय तिहनगढ़ अत्यन्त समृद्ध नगर रहा होगा। इसलिए उससे आकर्षित हो वहाँ जाकर बस गये होंगे । किन्तु तिहनगढ़के भग्न ही जाने पर वे सपरिवार बिल्लरामपुरमें पहुँच कर रहने लगे होंगे। संभवतः वहीं लाखूका जन्म हुआ होगा। और श्रीधरसे गाढ़ी मित्रता कर सुखस समय बिताने लगे होंगे। परन्तु श्रीधरके देहावसान पर तथा राज्याश्रयके आकर्षणसे चन्द्रवाडनगरीमें बस गये होंगे।" उपर्युक्त उद्धरणसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि लक्खणने अणुव्रतरत्नप्रदीपकी रचना रायड्डिय नगरीमें की और 'जिनदत्तकथा'की रचना बिल्लरामपुरमें की होगी। कवि अपने समयका प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कवि रहा है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त स्निग्ध और मिलनसार था। यही कारण है कि श्रीधर जैसे व्यक्तियोंसे उसकी गाढ़ी मित्रता थी। जिनदत्तकथाके वर्णनोंसे यह भी प्रतीत होता है कि कवि गृहस्थ रहा है। प्रभुचरणोंका भक्त रहने पर भी वह कर्मसिद्धान्तके प्रति अटूट विश्वास रखता है । शील-संयम उसके जीवन के विशेष गुण हैं। स्थिति-काल ___ कविने 'अणुव्रतरत्न-प्रदीप में उसके रचना-कालका उल्लेख किया है१. अणुव्रतरत्नप्रदीप, जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ६, किरण ३, पृ० १५५-१६० । २. भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश-कयाकाव्य, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भारतोयज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ० २१२। आचार्यतुल्य कान्यकार एवं लेखक : १७३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरह-सय-तेरह उत्तराले, परिगलिय - विक्कमाइच्चकाले । संवेयर इह सव्वहं समवख, कत्तिय मासम्मि असे पवखे । सत्तमि दिणे गुरुवारे समोप अमिरले सहि-जोग ! नव-भास रयते पायडत्थु सम्मत्तउ कमे कमे एहु सत्थु । - 'अणुव्रतरत्नप्रदीप', अन्तिम प्रशस्ति । वि० सं० १३१३ कार्तिक कृष्ण सप्तमी गुरुवार, पुष्य नक्षत्र, साध्य योग में नौ महीने में यह ग्रन्थ लिखा गया । कविने 'जियन्तकहा' में रचनाकालका उल्लेख करते हुए लिखा है चारसय सत्तरयं पंचुत्तरयं विक्कमकाल- विइत्तउ । पढमपक्ख रविवारए छठि सहारण, पुसमासि संमतिउ || अर्थात् वि० सं० १२७५ पौष कृष्णा षष्ठी रविवारके दिन इस कथाग्रन्थकी रचना समाप्त हुई । इस प्रकार कविका साहित्यिक जीवन वि० सं० १२७५ से आरम्भ होकर वि० सं० १३१३ तक बना रहता है । कविने प्रथम रचना लिखने के पश्चात् द्वितीय रचना ३८ वर्षके पश्चात् लिखी है । यही कारण है कि कविको चिन्ता उत्पन्न हुई कि उसको कवित्वशक्ति क्षीण हो चुकी है । अतएव रात्रिमें शासन-देवताका स्वप्नमें दर्शन कर पुनः काव्य-रचनामें प्रवृत्त हुआ । कविके आश्रयदाता चौहानवंशी राजा आहह्वमल्ल थे । आहवमल्लने मुसलमानोंसे टक्कर लेकर विजय प्राप्त की और हम्मीरवीरकी सहायता की । हम्मीर देव रणथम्भौरके राजा थे । अल्लाउद्दीन खिलजीने सन् १२९९ में रणथम्भौर पर आक्रमण किया और इस युद्धमें हम्मीरदेव काम आये । इस प्रकार आहवमल्लके साथ कविकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है। तिनगढ़ या त्रिभुवनगिरिमें यदुवंशी राजाओंका राज्य था । कवि लाखू इसी परिवार से सम्बद्ध था । ऐतिहासिक दृष्टिसे मथुराके यदुवंशी राजा जयेन्द्रपाल हुए और उनके पुत्र विजयपाल । इनके उत्तराधिकारी धर्मपाल और धर्मपालके उत्तराधिकारी अजयपाल हुए । ११५० ई० में इनका राज्य था । उनके उत्तराधिकारी कुँवरपाल हुए । वस्तुतः अजयपाल के उत्तराधिकारी हरपाल हुए ये हरपाल उनके पुत्र थे महावनमें ई० सन् १९७० का हरपालका एक अभिलेख मिला है' । हपालके पुत्र कोषपाल थे, जो लाखूके पितामहके १. दो स्ट्रगल फॉर इम्पायर, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, प्रथम संस्करण, पृ० ५५ ॥ १७४ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता थे । कोषपालके पुत्र यशपाल और यशपालके लाहढ़ हुए। इनकी जिनमती भार्या थी । इससे अल्हण, गाहुल, साहुल, सोहण, रग्रण, मयण और सतण हुए । इनमेंसे साहुल लाखू के पिता थे । इस प्रकार लक्खणका सम्बन्ध यदुवंशी I राजघराने के साथ रहा है । रचनाएँ afविकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं - ( १ ) चंदणछट्ठी कहा, (२) जिणयत्तकहा और (३) अणुवय- रयण- पईव । 'चंदनष्ठकथा-कविको प्रारम्भिक रचना है और इसका रचना-काल वि० सं० १२७० रहा होगा। यह रचना साधारण है और कविने इसके अन्तमें अपना नामांकन किया है "इय चंदणछट्ठिहि जो पालइ बहु लक्खणु ! सो दिवि भुजिवि सोक्खु मोक्खहु णाणे लक्खणु । " ''जिनदत्तकथा' - - इसकी प्रति आमेर शास्त्र-भंडार में प्राप्त है । कविने जिनदत्तके चरितका गुम्फन ११ सन्धियोंमें किया है। मगधराज्यके अन्तर्गत वसन्तपुर नगरके राजा शशिशेखर और उनकी रानी मैनासुन्दरीके वर्णनके पश्चात् उस नगरके श्रेष्ठि जीवदेव और उनकी पत्नी जीवनजसाके सौन्दर्यका वर्णन किया गया है। प्रभुभक्तिके प्रसादसे जीवनजसा एक सुन्दर पुत्रको जन्म देती है, जिसका नाम जिनदत्त रखा जाता है । जिनदत्तके वयस्क होनेपर उसका विवाह चम्पानगरीके सेठकी सुन्दरी कन्या विमलमतीके साथ सम्पन्न होता है । जिनदत्त धनोपार्जनके लिए अनेक व्यापारियोंके साथ समुद्र यात्रा करता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचता है और वहाँके राजाकी सुन्दरी राजकुमारी श्रीमती उससे प्रभावित होती है । दोनोंका विवाह होता है। जिनदत्त श्रीमतीको जिनधर्मका उपदेश देता है । कालान्तरमें वह प्रचुर धन सम्पत्ति अर्जित कर अपने साथियोंके साथ स्वदेश लोटता है । ईर्ष्या के कारण उसका एक सम्बन्धी धोखे से उसे एक समुद्र में गिरा देता है और स्वयं श्रीमतीसे प्रेमका प्रस्ताव करता है । श्रीमती शीलव्रतमें दृढ़ रहती है । जहाज चम्पानगरी पहुँचता है और श्रीमती बाँके एक चैत्यमें ध्यानस्थ हो जाती है । जिनदत्त भी भाग्यसे बचकर मणिद्वीप पहुँचता है और वहाँ श्रृंगारमतीसे विवाह करता है । वह किसी प्रकार चम्पानगरी में पहुँचता है और वहाँ श्रीमती और विमलवतीसे भेंट करता है और उनको लेकर अपने नगर वसन्तपुरमें चला आता है। माता-पिता पुत्र और पुत्रवधुओंको प्राप्तकर प्रसन्न होते हैं । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक १७५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ दिनोके पश्चात् जिनदत्तको समाधिगुप्त मुनिके दर्शन होते हैं । उनसे अपने पूर्वभव सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता . है तथा तपश्चरण द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है। कविने लोक-कथानकोंको धार्मिक रूप दिया है तथा घटनाओंका स्वाभाविक विकास दिखलाया है। इतना ही नहीं, कविने नगर-वर्णन, रूप-वर्णन, बाल-वर्णन, संयोग-वियोग-वर्णन, विवाह-वर्णन तथा नायकके साहसिक कार्योंका वर्णन कर कथाको रोचक बनाया है। इस कथा-काव्यमें कई मार्मिक स्थल हैं, जिनमें मनुष्य-जीवनके विविध मार्मिक प्रसंगोंको सुन्दर योजना हुई है। बेटीको भावभीनी बिदाई, माताका नई बहूका स्वागत करना, बेटेकी आरती उतारना, जिनदत्तका समुद्र में उतरना, समुद्र-संतरण, वनिताओंका करुण-विलाप ऐसे सरस प्रसंग हैं, जिनके अध्ययनसे मानवीय संवेदनाओंकी अनुभूति द्वारा पाठकका हृदय द्रवित एवं दीप्त हो जाता है । लज्जा, सौम्य, मोड़, विवोध, आवेग, अलमता स्मृति चिन्ता, वितर्क, धृति, चपलता, विषाद, उग्रता आदि अनेक संचारी भाव उद्बुद्ध होकर स्थायी भावोंको उद्दीप्त किया है। संयोग-वियोगवर्णनमें कविने रतिभावकी सुन्दर अभिव्यंजना की है। श्लेष, यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, लोकोक्ति, विनोक्ति, सन्देह आदि अलंकारोंकी योजना की गयी है। छन्दोंमें विलासिनी, मौक्तिकदाम, मनोहरदाम, आरनाल, सोमराजी ललिता, अमरपुरसुन्दरी, मदनावतार, पधिनी, पंचचामर, पमाडिया, नाराच, भ्रमरपद, तोड़या, त्रिभंगिका, जम्भेटिया, समानिका और आवली आदि प्रयुक्त कविने शृंगार और वीर-रसकी बहुत ही सुन्दर योजना की है । करुण रस भी कई सन्दर्भो में आया है। अनुवयरयणपईव इस ग्रंथमें कविने श्रावकोंके पालन करने योग्य अणुव्रतोंका कथन किया है । विषय-प्रतिपादनके लिये कथाओंका भी आश्रय लिया गया है। कविने लिखा है मिच्छत्त-जरहिव-ससण-मित्त णाणिय-रिंद महनियनिमित्त ॥२॥ अवराह-वलाय-विसम-वाय वियसिय-जीवणरुह-वयण छाय १७६ : दीपंकर महावीर और उनको अाचार्य-परम्परा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय-भरियागय-जण- रक्खवाल छण ससि परिसर- दल विउल-भाल | संसार - सरणि- परिभ्रमण-भीय गुरु चरण - कुसेसय - चंचरीय | पोरि-घसिय विबुद्ध-वग्ग णाणि - विम-वि-णीइ-मग्ग । जस-पसर- भरिय बंभंड-खंड मिच्छत्त- महीहर- कुलिस-दंड । तज्जिय- माया - मय-माण- डंभ महमइ करेणु आलाण-थंभ | समयाणुवेइ गुरुयण - विणीय दुत्थिय-पर-गिव्वाणावणीय | शास्त्रोपदेशके वचनामृतके पानसे तृप्त भव्यजन मिय्यात्वरूपी जीणं वृक्षको समाप्त कर डालते हैं । सम्यक्त्वरूपी सूर्यके उदय होते ही मिथ्यात्वरूपी अंधकार क्षीण हो जाता है। अपराधरूपी मेघोंको छिन्न-भिन्न करनेके लिए प्रचण्ड वायु, विकसित कमलके समान मुखकीर्तिके धारक, भयसे लदे हुए बाने वाले जनोंके रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डलके अर्द्धभाग समान भालयुक्त, संसारसरणिमें परिभ्रमणसे भीत, गुरुके चरणकमलोंके चंचरीक, धर्मके आश्रित हुए समझदार लोगोंका पोषण करने वाले, निरुपम राजनीतिमार्ग के ज्ञाता, यशके प्रसारसे ब्रह्माण्डखण्डको भर देने वाले, मिथ्यात्वरूपी पर्वतके वञ्चदण्ड, माया, मद, मान और दंभके त्यागी, महामतिरूपी हस्तिको बाँधने स्तंभ, समयवेदी, गुरुजन, विनीत्त और दुःखित नरोके कल्पवृक्ष, तुम कविजनोंके मनोरंजन, पापविभंजन, गुणगणरूपी मणियोंके रत्नाकर और समस्त कलाओंके निर्मल सागर हो । इस प्रकार कथाके माध्यम से अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सप्तव्यसनत्याग, चार कषायका त्याग, इन्द्रियोंका निग्रह, अष्टांग सम्यक्दर्शन, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ, स्वाध्याय, आत्मसन्तोष, जिनपूजा, गुरुभक्ति आदि धार्मिक तत्त्वोंका परिचय प्रस्तुत किया है। लेखककी शैली उपदेशप्रद न होकर आख्यानात्मक है । और कविने अन्यापदेश द्वारा धार्मिक तत्त्वोंकी अभिव्यञ्जना की है। यह ग्रंथ लघुकाय होनेपर भी कथाके माध्यमसे धार्मिक तत्त्वोंकी जानकारी प्रस्तुत करता है । भाचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १७७ १२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याकीचि प्रथम 'चंदप्पहचरिउके रचयिता कवि यश:कीति है। यशःकोतिनामके कई आचार्य हुए हैं। उनमेंसे कईने अपभ्रंश-काव्योंकी रचना की है। 'चन्दप्पहचरिउके रचयिता यशःकीतिने न तो ग्रंथका रचनाकाल ही अंकित किया है और न कोई विस्तृत प्रशस्ति ही लिखी है। पुष्पिकावाक्यमें कविने अपनेको महाकवि बताया है। लिखा है "इय-सिरि-चंदप्पह-चरिए महाकइ-जसकित्ति-विरइए महाभब्व-सिद्धपालसवण-भूसणं सिारचंदप्पह-सभिणियाणामणो णाम एयारहमी संधी-परिच्छेओ सम्मत्तो।" कविने आचार्य समन्तभद्रके मुनिजीवनके समय घटित होनेवाली और अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभके स्तोत्रके सामथ्र्यसे प्रकट होनेवाली चन्द्रप्रभकी मूर्तिसम्बन्धी घटनाका उल्लेख करके अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख किया है। आश्चर्य है कि कविने अपन शके किसी कविका नाम निर्देश नहीं किया है। कविने इस ग्रंथको हुम्बडकुलभूषण कुंवरसिंहके सुपुत्र सिद्धपालके अनुरोधसे रचा है। वे गुर्जरदेशके अन्तर्गत उन्मत्तदेशके वासी थे। आदि और अन्तमें कविने इस ग्रंथके प्रेरकका उल्लेख किया है तुंबड-कुल-नहलि पुष्फयंत, बहु देउ कुमरसिंहवि महंत । तहो सुउ णिम्मलु गुण-गण-विसालु, सुपसिद्धउ पभणइ सिद्धपालु । जसकित्तिविबुह-करि तुह पसाउ, मह पूरहि पाइय कन्व-भाउ । तं निसुणिवि सो भासेइ मंदु, पंगलु तोडेसइ केम चंदु। इह हुइ बहु गणहरणाणवंत, जिणवयण-रसायण-वित्थरंत । गुज्जर-देसह उम्मत्त गामु, तहि छड्डा-सुउ हुउ दोण णामु । सिद्धउ तहो णंदणु भब्ध-बंधु, जिण-धम्म-भारि में दिण्णु खंघु । तहु सुउ जिट्ठउ बहुदेव भब्बु, जे धम्मकज्जि विव कलिज दव्यु । तहु लहु जायउ सिरि कुमरसिंह, कलिकाल-करिदहो हणण सीहु । तहो सुउ संजायउ सिपालु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-रमालु। तहो डवरेहि इह कियउ गंधु, हउं णमु णमि किपिवि सत्थु गंधु । स्थितिकाल अंचके रचनाकालका उस्लेख न होनेसे महाकवि यःकोत्तिके समयके सम्बन्ध१५८ : तीपंकर महापार और अमाती बाबा परम्परा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है। आमेर-शास्त्रभण्डारमें इनके द्वारा रचित ग्रन्थकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं। एक वि०सं० १५८३ की और दूसरी १६०३की लिखी हुई है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अपने 'प्रशस्तिसंग्रह'ग्रंथमें वि० सं० १५३० में लिखित प्रतिका उपयोग किया है । अतः इतना सुनिश्चित है कि वि० सं० १५३० के पूर्व महाकवि यशकीति हुए हैं। पूर्ववर्ती कदियोंमें महाकवि यशःकीत्तिने जिन कवियोंका निर्देश किया है उनमें जिनसेन ही विक्रमकी नवम शताब्दीके कवि हैं। अत: नवम शताब्दीके पश्चात् और १५ वीं शताब्दीके पूर्व महाकवि यशःकीत्ति हुए हैं। पर यह ६०० वर्षांका अन्तराल खटकता है। कविकी रचनाका प्रेरक गुजरातका सिद्धपाल है। विक्रमको ११ वीं शताब्दीसे गुजरातकी समद्धि विशेषरूपसे बढ़ी है । सिद्धराज, जयसिंह और कुमारपालने गुजरातके यशकी विशेषरूपसे वृद्धि की है। अतएव कविकी रचनाका प्रेरक सिद्धपाल विक्रमसंवत् ११०० के उपरान्त होना चाहिए। अतएव कविने इस ग्रंथकी रचना ११ वीं शतीके अन्समें या १२ वीं शतीके प्रारंभमें की होगी। रचना चन्द्रप्रभचरित ११ सन्धियोंमें लिखा गया है। इसमें कविने आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी कथा गुम्फित की है । अथका आरंभ मंगलाचरण, सज्जन दुर्जनस्मरणसे होता है । अनन्तर कवि मंगलवती पुरीके राजा कनकप्रभका चित्रण करता है। संसारको असार और अनित्य जान राजा अपने पुत्र पद्मनाभको राज्य देकर विरक्त हो जाता है। दूसरीसे पांचवीं सन्धि तक पद्मनाभका चरित आया है और श्रीधर मुनिसे रामाका अपने पूर्व जन्मके वृत्तान्त सुननेका उल्लेख है। छठी सन्धिमें राजा पपनाम और राजा पृथ्वीपालके बीच युद्ध होनेकी घटना वर्णित है। राजा विजित होता है किन्तु पपनाम युद्धसे विरक्त हो जाता है और राज्यभार अपने पुत्रको देकर वह श्रीधर मुनिसे दीक्षा ग्रहणकर लेता है। आगेवाली सन्धियोंमें पचनाभके चन्द्रपुरीके राजा महासेनके यहाँ चन्द्रप्रभ रूपमें जन्म लेने, संसारसे विरक्त हो केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तमें निर्वाण प्राप्त करनेका वर्णन आया है। इस पंथकी थैली सरल और इतिवृत्तात्मक है। शैलीको आडम्बरहीनता भी इस गंथकी प्राचीनताका प्रमाण है। राजा, नगर, देश आदिका वर्णन सामान्यरूपमें ही आया है । कवि कहता है तहिं कणयप्पड नामेण राउ जेपिछिवि सुखइ हुउ विराउ । जसु भमई कित्ति भवणंतरम्मि, थेखि अइसकडि निय धरम्मि । आचार्यतुल्य काम्पकार एवं लेखक : १७९ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसु तेय जलणि नक्षीवियंगु, जलनिहि सलिलठ्ठिउ सिरिचु वंगु । आइच्चु वि दिणि दिणि देइ झंप, तत्तेअ तत्तु जय जणिय कंप। ' सबकुवि निपाइउ पढमु तासु, अब्भास करणि पडिमहं पयास । रूवाहकारिउ काम वीरू, किउ तासु अंगु मलिनहु सरीरु । धत्ता–तिहयणि बहु-गुणणि तसु पडिछंदु न दीसइ : होसइ गुण लेसइ जसु वाई सरिसी सइ ।। १९ ।। नारी-चित्रणमें भी कविने अलंकारोंका प्रयोग नहीं किया है। कथाके प्रवाहमें वस्तुरूपात्मक ही चित्रण किया गया है । यद्यपि अंग-प्रत्यंगका चित्रण कविने किया है; पर भुक्त उपमानोंसे आगे नहीं बढ़ सका है सिरिकताणामें तास कता, बहुरूव लछि सोहगा वंता । जीयें मुहु इंदहलंण वाणउ, जे पुष्णिमचंदहु उवमाण । तास तरलु णिम्मिलु जुउ णित्तहं, णं अलि उरि ठिउ केइय पत्तह । जइ सवणू जुवलु सोहाविलासु, णं मयण विहंगम धरण पासु । वच्छच्छलु में पीऊस कुंभ, अह मयण-गंध-गय-पीण-चुभ 1 अइ क्खीणु मज्झु णं पिसुणजण, यण रमण गुरुत्तणि कुवियमणू। जह पिहुल णियंवज अप्पमाणु, ठिउ मयणराय पीढहु समाणु । पत्ता-हा इय मयणहु, जयजय जयणहु, उरु जुअल घर तोरणु । अइ कोमल स्तुप्पलु जिय पय कतिहिं चोरणु ॥ २११०।। इस ग्रंथमें छन्दोंका वैविध्य भी नहीं है और अलंकारोंका प्रयोग भी सामान्य रूपमें हुआ है । यह सत्य है कि रसमय स्थलोंकी कमी नहीं है। देवचन्द कवि देवचन्दने 'पासणाहरिज' की रचना गुदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मंदिरमें की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण भारतमें कहीं अवस्थित है। कविने ग्रंथके अन्तमें अपना परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूलसंघ गच्छके विद्वान वासवचन्दका शिष्य था। अन्तिम प्रशस्तिसे गुरुपरम्परा निम्नप्रकार ज्ञात होती है श्रीकीर्ति देवकीति १८० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौनीदेव माधवचन्द्र अभयनन्दी T वासवचन्द्र देवचन्द्र वासचन्द्र के सम्बन्ध में अन्वेषण करनेपर दो वासवचन्द्रोंका पता चलता है । एक वे वासवचन्द्र हैं जिनका उल्लेख खजुराहोके वि०सं० १०११ वैसाख शुक्ला सप्तमी सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मन्दिरके अभिलेखमें हुआ है, जो वहाँके राजा धंगके राज्यकालमें उत्कीर्ण कराया गया था । द्वितीय वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अभिलेख में पाया जाता है । इस अभि लेखमें बताया है— 'वासवचन्द्र - मुनीन्द्रो रुन्द्र- स्याद्वाद - तक्कं कर्कश - विषणः । चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः ॥ " X X X 'श्रीमूलसङ्घद देशीयगणद वक्रगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद परियलिय वड्डदेवर . बलिय" "वासयचन्द्रपण्डित - देवरु ।' इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वाद - विद्याके विद्वान् थे । कर्कश सर्क करनेमें उनकी बुद्धि पटु थी । उन्होंने चालुक्य राजाकी राजधानी में 'बालसरस्वती' की उपाधि प्राप्त की थी । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनुमान किया है कि श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें उल्लिखित वासवचन्द्र ही देवचन्द्र के गुरु संभव हैं। पर यहाँ पर यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मूलसंघ देशोगण और वक्रगच्छ में 'कुन्दकुन्दके अन्वयमें देवेन्द्र सिद्धान्तदेव हुए। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव या वृषभर्नान्द थे । इन वृषभनन्दिके ८४ शिष्य थे। इनमें गोपनन्दि, प्रभाचन्द्र, दामनन्दि, गुणचन्द्र, माघनन्दि, जिनचन्द्र, देवेन्द्र, वासवचन्द्र, यशः कीर्ति एवं शुभकीर्ति प्रधान हैं । देवचन्द्र प्रशस्तिमें अभयनन्दिको वासवचन्द्रका गुरु बताया है । अतः इस गुरुपरम्पराका समन्वय श्रवणबेलगोलके शिलालेख में उल्लिखित ९. Epigraphica India, Vol. VIll, Page 136. २. सं० डॉ० प्रो० हीरालाल जैन, जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग, माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, अभिलेखसंख्या ५५, पद्य २५ । आचार्यश्य काव्यकार एवं लेखक : १८१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपरम्परासे नहीं होता । अथवा यह भी संभव है कि वृषभनन्दिके ८४ शिष्यों में कोई शिष्य अभयनन्दि रहा हो और उसका सम्बन्ध वासवचन्द्रके साथ रहा हो। ___ कवि देवचन्द्रका व्यक्तित्व गृहत्यागीका है। कविने बारंभमें पंचपरमेष्ठिकी वन्दना की है। तदन्तर आत्मलधुता प्रदर्शित करते हुए बताया है कि न मुझे व्याकरणका ज्ञान है, न छन्द-अलंकारका ज्ञान है, न कोशका ज्ञान है और न सुकवित्व शक्ति ही प्राप्त है। इससे कविकी विनयशीलता प्रकट होती है। पुष्पिकावाक्यमें कविकी मुनि कहा गया है। अतः उन्हें गृहत्यागी विरक्त साधुके रूपमें जानना चाहिये। प्रशस्तिकी पंक्तियों में उन्हें रत्नत्रयभूषण, गुणनिधान और अज्ञानतिमिरनाशक कहा गया है । रराणत्तय-भूसणसु गुण-निहाणु, अण्णाण-तिमिर पसरत-भाणु । कविका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है "सिरिपासणाहरिए चउबग्गफले वियजणमगाव भुमिदेवयंव-र महाकव्वे एयारसिया इमा संधी समत्ता।' स्थितिकाल ___कवि देवचन्द्रने कब अपने ग्रंथकी रचना की, यह नहीं कहा जा सकता । 'पासणाहचरिउ'की प्रशस्तिमें रचनाफालका अंकन नहीं किया गया है। और न ऐसी कोई सामग्री ही इस ग्रंथमें उपलब्ध है जिसके आधार पर कविका काल निर्धारित किया जा सके। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि उपलब्ध है वह वि०सं० १४९८के दुर्मति नामक संवत्सरके पौष महीनेके कृष्णपक्षमें अल्लाउद्दीन के राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रकीत्तिके पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीत्तिके समयमें देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पं० गांगदेवके पुत्र पासराजके द्वारा लिखाई गई है। अतएव वि० सं० १४९८ के पूर्व इस ग्रंथका रचनाकाल निश्चित है। यदि देवचन्द्रके गुरु वासवचन्द्रको देवेन्द्र सिद्धान्तदेवकी गुरुपरम्परामें मान लिया जाय, तो देवेचन्द्रका समय शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) के लगभग सिद्ध होता है। पासणाहरिउकी भाषाशैली और वर्ध्य विषयसे भी यह ग्रंथ १२वीं शताब्दीके लगभगका प्रतीत होता है। अतएव देवचन्द्रका समय १२वीं शताब्दीके लगभग है। रचना महाकवि देवचन्द्रकी एक ही रचना पासणाहरिउ उपलब्ध है। इस १८२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकी एक ही प्रति उपलब्ध है, जो पं० परमानन्दजीके पास है। इस ग्रंथमें ११ सन्धियाँ हैं और २०२ कड़वक है। कविने पार्श्वनाथचरितको इस ग्रंभमें निबद्ध किया है। पूर्वभवावलीके अनन्तर पार्श्वनाथके वर्तमान जीवनपर प्रकाश डाला गया है । उनको ध्यानमुद्राका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--- तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो वंदो। पंच-महव्वय-उद्दयकंधो, निम्ममु चत्तचब्दिहबंधो । जीवदयावरु संगविमुक्को, णं दहलक्खणु धम्मु सुरुक्को । जम्म-जरामरणुज्झियदप्पो, बारसभेयतवस्समहप्पो। मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयारहणे गिरितुगो। संजम-सील-विहूसियदेहो, कम्म-कसाय-हुआसण-मेहो । पुष्पंधणुवरतोमरवंसो, मोक्ख-महासरि-कीलणहंसो । इंदिय-सप्पइं विसहरमंतो, अप्पसरूव-समाहि-सरंतो। केवलणाण-पयासण-कखू, घाणपुरम्मि निवेसियचक्ख, । णिज्जियसासु पलंबिय-वाहो, णिच्चलदेह विसज्जियवाही । कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह वुत्तो। की लीर्थकर मारप एक गिलागर मानम्थ बैठे हुए हैं ! वे त्रिलोकवर्ती जीवोंके द्वारा वन्दनीय हैं, पंचमहाव्रतोंके धारक हैं। ममता-मोहसे रहित हैं और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभागरूप चार प्रकारके बन्धसे रहित हैं। दयालु और अपरिग्रही हैं। दशलक्षणधर्मके धारक हैं। जन्म, जरा और मरणके दर्पसे रहित और द्वादश तपोंके अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यतुल्य हैं। क्षमारूपी लसाके आरोहणार्थ वे गिरिके तुल्य उन्नत हैं। संयम और शीलसे विभूषित हैं। और कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेध हैं। कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले तथा मोक्षरूप महासरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस हैं। इन्द्रियरूपी विषधर सोको रोकनेके लिये मंत्र हैं ! आत्मसमाधिमें लीन रहने वाले हैं । केबलज्ञानको प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं। नासाग्रदृष्टि, प्रलंब बाहु, योगनिरोधल, व्याधिरहित एवं सुमेरुके समान स्थिर चित्त हैं। इससे स्पष्ट है कि 'पासणाहरित' एक सुन्दर काव्य है । इसमें महाकाव्यके सभी लक्षण पाये जाते हैं। बीच-बीचमें सिद्धान्त-विषयोंका समावेश भी १. जैन ग्रंथप्रशस्तिसंग्रह, वितीय भाग, वीर-सेवा-मंदिर, २१ परियागंज, दिल्ली, प्रस्तावना, पू० ७६ पर उद्भत । आवार्यतुल्य काम्यकार एवं लेखक : १८३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है । कविने इस ग्रंथके बन्धगठनके सम्बन्धमें लिखा है नाणाछंद-बंध-नीरंधहिं, पासचरिउ एयारह-संघिहिं । पउरच्छहि सुवण्णरस पउिहिं, दोन्निसयाई दोनि पद्धडियहि । चउवम्ग-फलहो पावण-पंथहो, सई चलवीस होंति फूड गंथहो। जो नरु देइ लिहाविद्ध दाणई, सहो संपज्जइ पंचई नाणई । जो पुणु बच्चइ सुलिय-भासई, तहो पुण्णेण फलहिं सव्यासई । जो पयउत्थु करे वि पजइ, सौ सग्गारा -सुर भुजः।। ओ आयन्नइ चिरु नियमिय मणु, सो इह लोइ लोइ सिरि भायणु । नाना प्रकारके छन्दों द्वारा इस ग्रंथको रचा गया है। नवरसोंसे युक्त चतुवर्गके फलको देने वाले मृदुल और ललित अक्षरोंसे युक्त नवीन अर्थको देने वाला यह ग्रंथ है। कविने संकेत द्वारा काव्यके गुणोपर प्रकाश डाला है । उदयचन्द्र उदयचन्द्रने अपभ्रश-भाषामें 'सुअंधदहमीकहा' ।सुगंधदशमी कथा) ग्रंथकी रचना की है। कविने इस ग्रंथके अन्तमें अपना संक्षिप्त परिचय दिया है इय सुअदिक्खहि कहिय सवित्थर, मई गावित्ति सुणाइय मणहर । णियकूलणह-उज्जोइय-चंदई। सज्जण-मण-कय-णयणाणदई। भवियण-कण्णग-मणहर भासई । जसहर-णायकुमारहो वायई । बुयण सुयणहं विणउ करतई। अइसुसील-देमइयहि कंतई। एमहि पुणु वि सुपास-जिणेसर। कवि कम्मक्खउ मह परमेसर । इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि कविका नाम उदयचन्द्र था और उसकी पत्लीका देवमति । श्री डॉ. हीरालालजी जैनने उदयचन्द्रके सम्बन्धमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि सुगन्ध-दशमी ग्रंथके कर्ता वे ही उदयचन्द्र हैं, जिनका उल्लेख विनयचन्द्र मुनिने अपने गुरुके रूपमें किया है | " निझरपंचमीकहा' में विनयबन्दने अपनेको माथुरसंघका मृनि बताया है। और इस प्रन्यकी रचना त्रिभुवनगिरिको तलहटीमें की गई बतलायो है । लिखा है पणविवि पंच महागुरु सारद परिवि मणि । उदयचंदु गुरु सुमरिवि वंदिय बालमुणि ।। विणयचंदु फलु अक्खइ णिझरपंचमिहि । णिसुणहु धम्मकहाणउ कहिन जिणागमहि । १८४ : तोयंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रइउ । तिहुयणगिरि तलहट्टी हु रासउ माथुरसंघ मुणिवरु - विणायचंदि कहिउ || X X X उदयचंदु गुणगणहरु गरुबउ | सो मई भावें मणि अणुसरियउ || बालइंदु मुणि विवि निरंतरु | णरगउतारी कहमि कहंतरु ॥ विनयचन्द्रमुनिकी एक अन्य रचना 'चूनड़ी' उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने माथुरसंघके मुनि उदयचन्द्र तथा बालचन्द्रको नमस्कार किया है । और त्रिभुवनगिरिनगरके अजयनरेन्द्रकृत 'राजविहार को अपनी रचनाका स्थान बताया है माथुरसंघ उदयमुणीसरु । गगन बाद गुरु गणहरु ! जंपर विणयमयंकु मुणि 1 तिहुयण गिरिपुर जगि विक्खायउ | सग्गखंड णं धरयलि आयउ || तह शिवसंते मुणिवरें अजयणरिदो राजाविहारहि । ar विरइय नूनडिय सोहहु मुणिवर जे सुयधारहिं || इन उद्धरणोंसे यह अवगत होता है कि उदयचन्द्र माथुरसंघके थे । सुगन्धदशमीकथाकी रचनाके समय वे गृहस्थ थे। उन्होंने अपनी पत्नीका नाम देवमति बताया है । यही कारण है कि विनयचन्द्रने 'निज्झरपंचमीकहा ' और बालचन्द्र ने 'नरगउतारी कथा' में उन्हें गुरु — विद्यागुरुके रूपमें स्मरण किया है, नमस्कार नहीं किया । उदयचन्द्रने दीक्षा लेकर जब मुनिचर्या ग्रहण कर ली, तो विनयचन्द्रने उन्हें 'चूनड़ी' में मुनोश्वर कहा है और अपने दीक्षागुरु बालचंद्रके साथ उन्हें भी नमस्कार किया है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि विनयचन्द्रने विद्यागुरु होने से उदयचन्द्रका सर्वत्र पहले उल्लेख किया है और दीक्षागुरु बालचन्द्रका पश्चात् । बालचन्द्रने भी उदयचन्द्रको गुरुरूपमें स्मरण किया है। उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र माथुर संघ मुनि थे। इस संघका साहित्यिक उल्लेख सर्वप्रथम अमितगतिके ग्रन्थोंमें मिलता है । सुभाषितरत्न १. हीरालाल जैन, सुगन्धदशमी कथा, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रस्तावना, १० २-३ । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १८५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहका रचनाकाल संवत् १०५० है और इस संघके दूसरे बड़े साहित्यकार अमरकोत्ति थे, जिन्होंने वि० सं० १२४७ में अपन शका 'छक्कम्मोवएस' लिखा. है । अतएव उदयचन्द्र माथुर संघके आचार्य थे। उदयचन्द्रने सुगन्धदशमी कथाके रचना-स्थानका उल्लेख नहीं किया। किन्तु उनके शिष्य बालचन्द्रने 'नरगउतारीकथा' का रचनास्थल यमुना नदीके तटपर बसा हुआ महावन बतलाया है। विनयचन्द्रने अपनी दो रचनाओं-'निसरपंचमीकथा' और 'चूनही' को त्रिभुवनांगारमें रचित कहा है। डॉ० हीरालालजीने महावनको मथुराके निकट यमुनानदीके तटपर बसा हुआ बताया है । और त्रिभुवनगिरि तिहनगढ़-थनगिर है, जो मथुरा या महावनसे दक्षिण पश्चिमकी ओर लगभग ६० मील दूर राजस्थानके पुराने करौली राज्य और भरतपुर राज्यमें पढ़ता है। इस प्रकार इन अन्यकारोंका निवास और विहार प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूभाग माना जा सकता है। स्पितिकाल उदयचन्द्रने अपनी रचना सुगन्धदशमीकथामें रचनाकालका निर्देश नहीं किया है और न विनयचन्द्रने ही अपनी किसी रचनामें रचनाकालका उल्लेख किया है । चुनड़ीमें यह अवश्य लिखा है कि त्रिभुवनगिरिमें अजयनरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए इस ग्रंथकी रचना की। डॉ० हीरालाल जैनकार कथन है कि भरतपुर राज्य और मथुरा जिलाके भूमिप्रदेशपर यदुवंशी राजाओंका राज्य था, जिसकी राजधानी श्रीपथ-बयाना थी। यहाँ ११वीं शतीके पूर्वार्द्ध में जगत्पाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन १०४४ ई. के उत्कीर्ण लेख में किया गया है। इनसे उत्तराधिकार त्रिभुवनपालने बयानासे १४ मील दूरीपर तिहनगढ़ नामका किला बनवाया । इस वंशके अजयपाल नामक राजाको एक प्रशस्ति खुदी मिली है, जिसके अनुसार सन् ११५० ई० में उनका राज्य वर्तमान था। इनका उत्तराधिकारी हरिपाल हुआ, जिसका ११७० ई० का अभिलेख मिला है। तिहनगढ़ या थनगढ़पर ११९६ ई० मुइजुद्दीन मु० गोरीने आक्रमण कर वहाँके राजा कुवरपालको परास्त किया। और वह दुर्ग वहाउद्दीन तुरिलको सौंप दिया । इस प्रकार मथुरापर १२वीं शती तक यदुवंशकी राज्यपरम्परा बनी रही। १. सुगन्धवशमी कथा, भारतीय जापपीठ प्रकाशन, प्रस्तावना, प० ।। १८६ : तोयंकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ऐतिहासिक विवेचनसे यह स्पष्ट होता है। कि सुगन्धदशमीकथाके कर्ता उदयचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरिमें अपनी दो रचनाएँ पूर्ण की थी उसका निर्माण यदुवंशी त्रिभुवनपालने अपने नामसे सन् १०४४ ई० के कुछ काल पश्चात् कराया। चुनड़ीकी रचना अजयनरेन्द्रके जिस राजविहार में रहकर को थी वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश द्वारा निर्मित हुआ होगा, जिनका ११५० ई० का उत्कीर्ण लेख महावनमें मिला है। सन् १९९६ ई० में मुसलमानोंके आक्रमणसे त्रिभुवनगिरि यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकल चुका था । अतएव त्रिभुवनगिरिमें लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथोंका रचनाकाल ११५० ई०-११९६ ई० के बीच संभव है। चूनड़ीकी रचनाके समय उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे, पर सुगन्धदशमीकथाको रचनाके समय के गृहस्थ थे । अतएव बालचन्द्र का समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी माना जा सकता है । रचना कांब उदयचन्द्रकी 'सुअंधदहमीकहा' नामको एक ही रचना उपलब्ध है। सुगन्धदशमी कथामें बताया गया है कि मुनिनिन्दाके प्रभावसे कुष्ठरोगकी उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीरमें दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरणके प्रभावसे पापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्च कुलमें जन्म होता है। कथामें बताया है कि एक बार राजा-रानी दोनों वन-बिहारके लिए जा रहे थे कि सुदर्शन नामक मुनि आहारके लिए आते दिखाई दिये। राजाने अपनी पत्नीको उन्हें आहार करानेके लिये वापस भेजा । रानीने कद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार करवाया। उसकी वेदनासे मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समाचार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक निकाल दिया। उसे कुष्ठ व्याधि हो गई और वह सात दिनके भीतर मर गई। कुत्ती, सूकरी, शृगाली, गदही आदि नीच योनियोंमें जन्म लेकर अन्ततः पूतगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई। सुव्रता आयिकासे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर पूतगन्धाको बड़ी आत्मग्लानि हुई और उसने मुनिराजसे उस पापसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सुगन्धदशमीव्रत्त ग्रहण किया और इस व्रतके प्रभावसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्ममें रनपुरके सेठ जिनदत्तकी रूपवती पुत्री तिलकति हुई। उसके जन्मके कुछ ही दिन बाद उसको माताका देहान्त हो गया। तथा उसके पित्ताने दूसरा विवाह कर लिया। इस पलोसे उसे तेजमतो कन्या उत्पन्न हुई । सौतेली माँ अपनी पुत्रीको जितना अधिक प्यार करती थी, तिलकमतीसे उतना ही द्वेष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दु:ससे व्यतीत होने सामना कियानों के बयस्क होनेपर पिताको विवाहकी चिन्ता हुई। पर इसी समय उन्हें पहल भावार्यतुल्य काम्पकार एवं सेखक : १८७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेश कनकप्रभका आदेश मिला कि वें रलोको खरीदनेके लिए देशान्तर जायें। जाते समय समय सेठ अपनी पत्नसिं कह च्या कि सुयोग्य वर देखकर दोनों कन्याओंका विवाह कर देना । जो भी वर घरमें आते वे तिलकमतिके रूपपर मुग्ध हो जाते और उसीकी याचना करते । पर सेठनी उसकी बुराई कर अपनी पुत्रीको आगे करती और उसीकी प्रशंसा करती। तो भी वरके हठसे विवाह तिलकमतिका ही पक्का करना पड़ा । विवाहके दिन सेठानी तिलकमतिको यह कहकर श्मसानमें बैठा आई कि उनकी कुलप्रथानुसार उसका वर वहीं आकर उससे विवाह करेगा, किन्तु घर आकर उसने यह हल्ला मचा दिया कि तिलकमति कहीं भाग गई। लग्नकी बेला तक उसका पता न चल सकनेके कारण वरका विवाह तेजमतीके साथ करना पड़ा । इस प्रकार कपटजाल द्वारा सेठानीने अपनी इच्छा पूर्ण की। ____ इधर राजाने भवनपर चढ़ कर देखा कि एक सुन्दर कन्या श्मशानमें बैठी हुई है । वह उसके पास गया और सारी बातें जानकर उससे विवाह कर लिया। राजाने अपना नाम पिंडार बतलाया। कन्याने यह सारा समाचार अपनी सौतेली माँको कहा । सौतेली माँने एक पृथक् गृहमें उसके रहनेकी व्यवस्था कर दी। राजा रात्रिको उसके पास आता और सूर्योदयके पूर्व ही चला जाता । पतिने रत्नजटित वस्त्राभूषण भी उसे दिये, जिन्हें देख सेठानी घबरा गई । और उसने निश्चय किया कि उसके पतिने राजाके यहाँसे इसे चुराया है। इसी बीच सेठ भी विदेशसे लौट आया। सेठानीने सब वृत्तान्त सुनाकर राजाको खबर दी । राजाने चिन्ता व्यक्त की और सेठको अपनी पुत्रीसे चोरका पता प्राप्त करनेका आग्रह किया। पूत्रीने कहा कि मैं तो उन्हें केवल चरणके स्पर्शसे पहचान सकती हूँ। अन्य कोई परिचय नहीं । इस पर राजाने एक भोजका आयोजन कराया, जिसमें सुगन्धाको आँखे बांधकर अभ्यागतोंके पैर घुलानेका काम सौंपा गया । इस उपायसे राजा ही पकड़ा गया। राजाने उस कन्यासे विवाह करने का अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जिससे समस्त वातावरण आनन्दसे भर गया। इस प्रकार मुनिके प्रति दुर्भावके कारण जो रस्नी दुःखी, दरिद्री और दुर्गन्धा हुई थी वही सुगन्धदशमीव्रतके पुण्य प्रभावसे पुनः रानीके पदको प्राप्त हुई। यह कथा वर्णनात्मक शैली में लिखी गई है, पर बीच-बीचमें आये हुए संवाद बहुत ही सरस और रोचक हैं। राजा-रानीसे कहता है दिट्ठउ वि सुदसणु मुणिवरिंदु। मयलंछणहीण अउच्च-इंदु । दो-दोसा-आसा चत्तकाउ। णाणत्तय-जुत्तउ चीयराउ । १८८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वंग-मलेण तिमिलानु | चन-जिगहा : को मिस्तु । परमेसरु सिरि मासोपवासि | गिरिकंदरे अहव मरााणवासि । सो पेविखवि परमाणदएण | पणिय पियपरमसणेहएण | इह पेसणजोगु ण अण्णु को वि | तो हउँ मि अह व फुडु पत्तु होइ । जाएप्पिणु अणुराएण वुत्तु । पारणउ करावहि मुणि तुरंत । लब्भइ पियमेलण भवसमुद्दे । वणकीलारोहणू गय वरिदे । इउ सुलगुड जीवहो भवि जि भए । दुलहउ जिणधम्मु भवण्णपए । दुलहड गुपनदाणु वि विमलु । मुत्ताहल-सिपिहि जेम जलु । अर्थात् मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परमानन्द हुआ । उन्होंने अपनी गनी श्रीमतोसे कहा--'प्रिय ! इस समय हमें अपने कर्तव्यका निर्वाह करना चाहिए। मुनि आहार-दानको क्रिया सेवक-सेविकाओंसे सम्पन्न होने की नहीं। इसे तो मुझे या तुम्हें सम्पन्न करना होगा। अतएव तुम स्वयं जाकर धर्मानुराग सहित मासोपवासी मुनिराजकी पारणा कराओ। इस भवसागरमें प्रियमिलन, बनकोडा, राजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्मजन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भव-समुद्रमें जिनधर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है । और उसमें भी अतिदुर्लभ है रद्ध सुपात्रदानका अवसर । जिस प्रकार मुक्ताफलकी सीपके लिये स्वातिनक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित घर जाकर अनुरागसहित इन मुनिराजको आहार कराओ, जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो, जिससे इनका धर्मसाधन सुलभ हो । ऋटुकफलोंका आहार-दान करनेसे रानीको अनेक कुगतियोंमें भ्रमण करना पड़ा। प्रथम-सन्धिके १२ कड़वकोंमें कुगति-भ्रमणके अनन्तर मुनिराज द्वारा विधिपूर्वक सुगन्धदशमीव्रतका विवेचन किया गया है। और दुर्गन्धाने उस व्रतका विधिपूर्वक पालन किया है। कविने विमाता और तिलकमतीके संवादका भी अच्छा चित्रण किया है। परीक्षाके हेतु राजाने भोजका आयोजन किया और उसी भोजमें राजा पतिके रूप में पहचाना गया। इस प्रकार कदिने इस कथाको पूर्णतया सरस बनानेका प्रयास किया है। बालचन्द्र कवि बालचन्द्रका सम्बन्ध उदयचन्द्र और विनयचन्द्रके साथ है । ये माथुरसंघके आचार्य थे। बालचन्द्रने अपने गुरुका नाम उदयचन्द्र बतलाया है । 'णिदुक्खसत्तमीकहा के आदिमें लिखा है आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १८९ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संसिजिणिदंह-पय-कमलु भव-सय-कलुस-कलंक-निवार । उदयचन्दगुरु घरेवि मणे बालइंदुमुणि विवि णिरंतरु ।' स्पष्ट है कि कविके गुरुका नाम उदयचन्द्र मुनि था। बालचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्र मुनि थे। कवि व्रतकथाओंका विज्ञ है और व्रताचरण द्वारा ही व्यक्ति अपना उत्थान कर सकता है। इस पर उन्हें विश्वास है। श्री डॉ हीरालालजी जैनने सुगन्धदशमी कथाकी प्रस्तावनामें उदयचन्द्रका समय ई० सन्की १२वीं शती सिद्ध किया है। उन्होंने विनयचन्द्र द्वारा रचित्त 'चूनड़ी के उल्लेखोंके आधारपर अभिलेखीय और ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत कर निष्कर्ष निकाले हैं। डॉ० जेनने लिखा है-"सुगन्धदशमोकथाके कर्ता उदयचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरि (तिहनगढ़ ) में अपनी उक्त दो रचनाएँ पूरी की थीं, उसका निर्माण इस यदुवंशके राजा त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ने अपने नामसे . सन् १०४४के कुछ काल पश्चात् कराया था तथा अजयनरेन्द्र के जिस राजविहारमें रहकर उन्होंने चूनड़ीकी रचना की थी, वह निस्संदेह इन्हीं अजयपालनरेश द्वारा बनवाया गया होगा, जिनका सन् ११५०का उत्कीर्ण लेख महाक्नसे मिला है। सन् १९९६ में त्रिभूवनगिरि उक्त यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकलकर मुसलमानोंके हाथमें चला गया। अतएव त्रिभुवनगिरिके लिखे गये उक्त दोनों ग्रन्थोंका रचनाकाल लगभग सन् १९५० और ११९६ के बीच अनुमान किया जा सकता है।" अतः स्पष्ट है कि कवि बालचन्द्रका समय ई० सन्की १२वीं शती है। रचनाएं कविकी दो कथा कृतियाँ उपलब्ध है—१. णिदुक्खसत्तमीकहा और २. नरक उतारोदुधारसीकथा । प्रथम कथानन्थमें 'निर्दु:खसप्तमीव्रतके करनेकी विधि और असपालन करने वालेकी कथा वर्णित है। यह व्रत भाद्रपद शुक्ला सप्तमीको किया जाता है । इस व्रतमें 'ॐ ह्र असिआउसा' इस मंत्रका जाप किया जाता है। व्रतके पूर्व दिन संयम धारण किया जाता है और व्रतके अगले दिन भी संयमका पालन किया जाता है। इस व्रतमें प्रोषधोपवासकी विधि सम्पन्न की जाती है। सात वर्षों तक व्रतके पालन करनेके पश्चात् उद्यापन करनेकी विधि बतायी है। लिखा है "किज धण सत्तिहि उज्जवणउं, विविह-गवणेहिं दुह-दमणउं । १. डॉ. हीरालाल जैन, सुगन्धदशमी कपा, भारतीय ज्ञानपीक प्रकासन, सन् १९९६, प्रस्तावना पृ० ४। १९. : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा -... Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणि वि मुणि भासियउ, राएँ गुण अणुराउ वहते । लयउ धम्मु सावय जाह, ति-य रणे हि विहिउ उत्तम सत्ते ।" कविका दूसरा ग्रन्थ 'नरकउतारोदुधारसी कथा' है । इस कथाम नरकगतिसे उद्धार करनेके लिए वारक्रमानुसार रसका परित्यागकर व्रताचरण करने और इस व्रताचरणके द्वारा प्राप्त किये गये फलका कथन किया है। ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है समवसरण-सीहासण-संठिउ, सो जि देव महु मणह पइट्ठउ । अवर जी हरिहर बंभु पडिल्लउ, ते पुण णमउं / मोह-गहिल्ला ॥ छह सण जा थिर करइ वियरइ वुद्धि-पगासा । सा सारद जब पुज्जियइ, लब्भइ बुद्धि सहासा । उदयचन्द्र मुणि गणहि जुगइणउ सोमई भावें मणि अणुसरिउ । वालइंदु सुणि णविवि णिरंतरु णरगउतारी कहयि कहतर । इस प्रकार मुनि बालचन्द्रने अपभ्रशमें कथा-ग्रन्थोंकी रचना कर माहित्यिक समृद्धिमें योगदान किया है। विनयचन्द्र विनयचन्द उदयचन्द्रके प्रशिष्य और बालचन्द्र के शिष्य थे । उदयचन्द्र और बालचन्द्रके समयपर पूर्व में प्रकाश डाला जा चुका है । अतएव उनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी प्रायः निर्णीत है। विनयचन्द्र ने तीन रचनाएँ लिखी हैं-१. चूनडीरास, २. निर्झरपंचमीकहारास और ३. कल्याणकरास । चूनडीरासमें ३२ पद्य हैं। यह रूपक-काव्य है । कवि मुनिविनयचन्द्रने चूनड़ी नामक उत्तरीयवस्त्रको रूपक बनाकर गीतिकाव्यकी रचना की है। कोई मुग्धा युवती हैंसती हुई अपने पतिसे कहती है कि हे प्रिय ! जिनमंदिरमें भक्तिभावपूर्वक दर्शन करने जाइये और कृपाकर मेरे लिये एक अनुपम चूनड़ी छपवाकर ले आइये, जिससे में जिनशासनमें प्रवीण हो सकूँ । वह यह भी अनुरोध करती है कि यदि आप उसप्रकारकी चुनड़ी छपवाकर नहीं दे सकेंगे, तो वह छापने वाला छीपा तानाकशी करेगा। पति पत्नीकी बातें सुनकर कहता है-हे मुग्धे, वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्तके रहस्यसे परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापक देनेको कहता है । कविने इस चूनड़ीरासमें द्रव्य, अस्तिकाय, गुण पर्याय, तत्त्व, दशधर्म, प्रत आदिका विश्लेषण किया है। . चूनड़ी उत्तरीयबस्त्र है, जिसे राजस्थानकी महिलाएं ओढ़ती हैं। कविने आचार्यसुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी रूपकके माध्यम से संकेतों द्वारा जैन सिद्धान्तके तत्त्वोंको अभिव्यंजना की है । यह गीतिकाव्य कण्ठको तो विभूषित करता ही है, साथ ही भेदविज्ञानकी भी शिक्षा देता है । इस सरस, मनोरम और चित्ताकर्षक रचना पर कविकी एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ीरासमें दिये गये शब्दोंके रहस्यको उद्घाटित किया गया है । निर्झरपंचमीकहा में निर्झरपंचमी व्रतका फल बतलाया गया है। इस व्रतको विधिका निरूपण करते हुए कविनं स्वयं लिखा है " धवल पक्खि लासाहि पंचमि जागरण सुह उपवासइ किज्जइ कातिंग उज्जवणू । अह सावण आरंभिय पुज्जद आगहणो, इह मइ णिज्झर पंचमि अक्विय भय हरणे ॥" अर्थात् आषाढ़ शुक्ला पंचमीके दिन जागरणपूर्वक उपवास करे और कार्तिकके महीने में उसका उद्यापन करे। अथवा श्रावणमें आरंभ कर अगह्नके महीने में उद्यापन करे। उद्यापनमें पांच छत्र, पांच चमर, पाँच वर्तन, पाँच शास्त्र और पाँच चन्दोवे या अन्य उपकरण मंदिर में प्रदान करने चाहिए। यदि उद्या - पनको शक्ति न हो, तो दूने दिनों तक व्रत करना चाहिए । निर्झरपंचमीव्रत के उद्यापनमें पंच परमेष्ठीकी पृथक्-पृथक् पाँच पूजा, चौबीसीपूजन, विद्यमानविंशतितीर्थंकरपूजन, आदिनाथपूजन और महावीरस्वामीका पूजन, इस प्रकार नौ पूजन किये जाते हैं । कवि विनयचन्द्रने इस कथा में निर्झरपंचमीव्रत के फलको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिकी कथा भी लिखी है। कल्याणकरासमें तीर्थंकरोंके पंचकल्याणकोंकी तिथियोंका निर्देश किया गया है । कविने लिखा है पढम पक्खि दुइर्जाह आसावहि, रिसइ गब्भज्जहि उत्तर सहि । अंधियारी हि संहिमि ( उ ) वंदमि वासुपूज्ज गम्भुत्थउ । विमल सुसिद्ध अट्ठमिहि दसमिहि, णामि जिण जम्मणु, सह तउ । सिद्ध सुहंकर सिद्धि पहु ॥ २ ॥ कविने अंतिम पद्यमें बताया है कि एक तिथिमें एक कल्याणक हो, तो एक भक्त करे, दो कल्याणक हों तो निविकृत्ति यह एक स्थानक करे, तीन हो तो आचाम्ल करे, चार हों तो उपवास करे अथवा सभी कल्याणकदिवसमें एक उपवास ही करे । १९२ श्रीयंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविने लिखा है"एयभत्तु एक्विजि कल्लाणइ, पिहि णिव्वियडि अहव इग ठाणइ । तिहि आयंबिलु जिणु भणइ, चहि होइ उववासु गिहत्यहं । अवा सयलह खबणविहि, विणयचंदमुणि कहित समत्थहं । सिद्धि सुहकर सिद्धिपहु" इस काध्यमें २५ पद्य हैं ! एक-एक पगमें प्रत्येक तीर्थकरके कल्याणकको तिथियां बतलायी गई हैं। किसी-किसी पद्यमें दो-दो तीर्थंकरोंकी कल्याणकतिथियाँ हैं और कहीं दो-दो पद्योंमें एक ही तीर्थंकरके कल्याणकको तिथि है। भाषा शैली प्रौढ़ है। यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत किया जाता है पिम्मल दुइजहि सुविहि सु केवलु मिहि छलिहि गब्भु सुमंगलु । अरजिण-णाणु दुवारसिहि संभव-संभउ पुण्णिम-धासरि णव कल्लाणहं अट्ठ दिण इय विहिं पहिं कत्तिय-अवसरि । महाकवि दामोदर महाकवि दामोदरका वंश मेउत्तय था | इनके पिताका नाम मल्ह था, जिन्होंने रल्हका चरित लिखा था। ये सलखनपुरके वासी थे। इनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम जिनदेव था। कवि मालवाका रहनेवाला था। यह दामोदर 'उक्ति-व्यक्ति-विवृत्ति' के रचयितासे भिन्न है । पुष्पिकावाक्यमें कविने निम्न प्रकार नामांकन किया है___"इय मिणाहरिए महामुणिकमलभद्दपच्चक्खे महाकइ-कणिठ्ठ-दामोयरचिरइए पंडियरामयंद-आएसिए महाकव्वे मल्ह-सुअ-णग्गएव-आयण्णिए लेमि. णिब्वाणगमणं पंचमो परिच्छेओ सम्मत्तो ।।१४५।।" इससे स्पष्ट है कि कवि दामोदरने महामुनि कमलभद्रके प्रत्यक्षमें पं० रामचन्द्रके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। कविके पिताका नाम मल्ह् था । उसने अपने वंशका परिचय भी निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है भेउत्तयवंश-उज्जोण-करणु, जे होण-दीण-दुइ-रोय-हरणु । मल्हइ-णंदणु गुण गणपवित्तु, तेणि भणिउ दल्हविरयहि चरित्तु । मई सलखणपुरि-णिवसंतएण, किउ भब्बु कब्बु गुरु-आयरेण । इस बंश-परिचयसे इतना ही ज्ञात होता है कि कवि सलखनपुरका निवासी था और उसके पिताका नाम मल्ह या मल्हण और बड़े भाईका नाम जिनदेव था। आचर्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९३ १३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविने 'णेमिणाहचरिउ' की रचना की है। और यह ग्रंथ टोडाके शास्त्रभण्डारमें विद्यमान है। इस ग्रंथकी रचनाकी प्रेरणा देनेवाले व्यक्ति मालवदेशमें स्थित सलग्लनपुरके निवासी थे। ये खंडेलवालकुलभूषण, विषयविरक्त और तीर्थंकर महावीरके भक्त थे। केशवके पुत्र इन्दुक था इन्द्र थे, जो गृहस्थके षट्कर्मोका पालन करते थे तथा मल्हके पुत्र नागदेव पुण्यात्मा और भव्यजनोंके मित्र थे । इन्हींकी प्रेरणा एवं अनुरोधसे इस नंथकी रचना की गई है। स्थितिकाल इस ग्रंथमें रचनाशालका उल्लेख आया है। बताया है कि परमारवंशी राजा देवपालके राज्यमें वि० सं० १२८७ में इस ग्रंथको रचना सम्पन्न हुई है । लिखा है "वारह-समाइं सहाजियाई, जिसमाहो कालहं । पमारहं पटु समुद्धरण परवाइ देवपालहं ॥" इस पद्यमें कनिने मालवाके परमारवंशी राजा देवपालका उल्लेख किया है। यह महाकुमार हरिश्चन्द्र वर्माका द्वितीय पुत्र था । अर्जुनवर्माको कोई सन्तान नहीं थी। अतः उसके राजसिंहासनका अधिकार इन्हींको प्राप्त हुआ था। इसका अपर नाम साइसमल्ल था। इनके समयके तीन अभिलेख और एक दानपत्र प्राप्त होते हैं। एक अभिलेख हरसोडा गाँवसे वि० सं० १२२७५ में और दो अभिलेख ग्वालियर-गज्यसे वि० सं० १२८६ और वि० सं० १२८५ के प्राप्त हैं। मानधातासे वि० सं० १२९.२ भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमाका दानपत्र भी मिला है। दिल्लीके सुल्तान सममूद्दीन अल्तमशने मालवा पर ई. सन् १२३१-३२ में आक्रमण किया था और एक वर्षको युद्धके पश्चात् ग्वालियरको विजित किया था। इसके पश्चात् भेलसा और उज्जयिनीको भी जीता था। उजयिनीके महाकाल मंदिरको भी तोड़ा था। सुल्तान जब लूट-पाट कर रहा था, उस समय वहाँका राजा देवपाल ही था ! इसीके राज्यकालमें पं० आगाचरने वि० सं० १२८५ में नलकच्छपुरमें 'जिनयज्ञकल्प' नामक ग्रन्थकी रचना की है। "जिनयज्ञकल्प'को प्रशस्तिमें देवपालका उल्लेख आया है ! दामोदर कविने वि० सं० १२८७ में 'मिणाहरित' लिखा था । उसममय देवपाल जीवित था। पर जब आशाधरने वि०सं० १२९२मै त्रिष्टिरम्मतिशास्त्र १. इंडियन एण्टी क्वेरी, जिल्द २०, पृ० ८३ तथा पु० ३११।। 2. Epigrahica Indica. Vol.'), l'age 108–113. १९४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा, उससमय देवपालकी मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र जयतुंगदेव राजा था। इससे यह ध्वनित होता है कि देवपालकी मृत्यु वि० सं० १२९२ के पूर्व हो चुकी थी । इसप्रकार कविने अपने ग्रन्थका जो रचनाकाल बतलाया है उसकी पुष्टि हो जाती है । अतः कवि दामोदरका समय वि० सं० की १३ वीं शती है । रचना दामोदरके नामसे कई रचनाएँ प्राप्त होती हैं। पर णेमिणाहचरिउकी प्रशस्ति में जो अपना परिचय दिया है उसका मेल श्रीपालकथा की प्रशस्तिसे नहीं बैठता है । अतएव णेमिणाहचरिउका रचयिता दामोदर श्रीपालकथाके रचयिता दामोदरसे भिन्न है । इस चरित-ग्रंथ में पांच सन्धिय है और २२वें तीर्थंकर नेमिनाथकी कथा गुम्फित है | प्रसंगवश कविने श्रीकृष्ण, पाण्डव और कौरवोंका भी जीवनवृत्त अंकित किया है । यह सुन्दर और अर्थपूर्ण खण्डकाव्य है । इसमें सूक्ति और नीति उपदेशों के साथ श्रावकधर्मका भी कथन आया है। इसी कारण कविने इस मिणाचरिउको दुर्गति - निवारक कहा है "चविह संघहं सुहंसति करणु, मिसर- चरिउ बहुदुःख हरण | दुज्जीह जि किणि वय-गुणई लेहि, भवि-भाव-सिद्धि संभवउ तेहि ।" यह चरित - काव्य आडम्बरहीन और गंभीर अर्थपरिपूर्ण है । कविने अपने गुरुका नाम दामोदर बताया है, जो गुणभद्रके पट्टधर शिष्य थे । पृथ्वीधरके पुत्र पं० ज्ञानचन्द्र और पं० रामचन्द्रने उपदेश दिया तथा जसदेवके पुत्र जसविधानने वात्सल्यका भाव प्रदर्शित किया था । दामोदर द्वितीय अथवा ब्रश दामोदर ब्रह्म दामोदरने सिरिपालचरिउ और चंदप्पहचरिउकी रचना की है। इन्होंने ग्रंथारंभमें अपनी गुरु-परम्परा अंकित की है । बताया है तोहि वद्दण पुष्णिमिदु, पहचंदु भडारउ जगि अणिदु । तो पट्टवर मंडल मियंकु, भव्वाण-पवोहणु बिहूय-संकु । सिरिपोमणदि गंदिय समोहु, सुहचंदु तासु सीसुवि विमोहु परवाइय-मयंग-पंचमुहु, परिपालिय-संजमणियम - विहु । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह पट्टसरोवर राहं जिणचंदभारउ भुवणहंसु । * बंदिवि गुरुयण - वरणाणवंत, भत्तीइ पसण्णायर सुसंत । बताया है कि मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्द, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र और कवि दामोदर हुए। सिरिपालचरिउके पुष्पिकावाक्यमें कविने अपना नाम ब्रह्म दामोदर बताया है और इस ग्रंथको देवराजपुत्र साहू नक्षत्र नामांकित कहा है । "इय सिरिपालमहाराजचरिए जयपयडसिद्धचक्कपरमातिसर्यावसेसगुणणियर भरिए बहुरो र घोर दुयर वाहि-पसर - णिण्णासणे धम्मइंपुरि सत्यपयप्रयासणी भट्टारयसिरिजिणचन्दसामिसीसब्रह्मदामोयरविरइए सिरिदेवराजगंदण - साहुणक्खत्त-णामं किए सिरिपालराय मुस्तिगमणविहि यण्णणो णाम चउत्थो संधिपरिच्छेओ समत्तो ।" कविने इस ग्रन्थको इक्ष्वाकुवंशीय देवराजसाहके पुत्र नक्षत्रसाहूके लिये रचा है | कविके गुरु जिनचन्द्र दिल्लीपट्टके भट्टारक थे। जिनचन्द्रकी उन दिनोंमें प्रभावशाली भट्टारकके रूपमें गणना थी । संस्कृत - प्राकृतके विद्वान् होनेके साथ ये प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां प्रायः सभी प्रान्तोंमें पायी जाती हैं। शान्तिनाथमूर्तिके अभिलेखसे अवगत होता है कि पद्मनन्दीके पट्टपर शुभचन्द्र और शुभचन्द्रके पट्टपर जिनचन्द्र आसीन हुए थे। जिनचन्द्र वि० सं० १५०७ में भट्टारकपदपर प्रतिष्ठत हुए और ६४ वर्षो तक अवस्थित रहे । उनके अनेक विद्वान् शिष्य थे, जिनमें पं० मेधावी और दामोदर प्रधान हैं । "सं० १५०९ वर्षे चैत्र सुदी १३ रविवासरे श्रीमूलसंचे भ० पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे श्रीशुभचन्द्रदेवाः तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रदेवाः श्रीथोपे ग्रामस्थाने महाराजाधिराजश्रीप्रतापचन्द्र देव राज्ये प्रवर्तमाने यदुबंशे लंबकंचुकान्वये साघुश्री उद्वर्ण तत्पुत्र असी । " X X X " संवत् १५०७ ज्येष्ठ नदि ५ भ० जिनचंद्रजी गृहस्थवर्ष १२, दिक्षावर्ष १५, पट्टवर्ष ६४ मास ८ दिवस १७, अन्तरदिवस १०, सर्व वर्ष ९१ मास ८ दिवस २७ बघेरवालजातिपट्ट दिल्ली ।" कविका स्थितिकाल पट्टावली, मूर्तिलेख एवं भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा लिखित ग्रन्थ-प्रशस्तियों आदिके आधार पर वि० की १६वीं शती है । ब्रह्म दामोदर दिल्लीकी भट्टारकगद्दीसे सम्बद्ध हैं और जिनचन्द्रके शिष्य है। अतः इनके समय - निर्णय में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है । कविकी 'सिरिपाल चरिउ' रचना काव्य और पुराण दोनों ही दृष्टियोंसे १९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्वपूर्ण है । इसमें ४ सन्धियाँ हैं ! और सिद्धचक्रका महात्म्य बतलानेके लिए चम्पापुरकं राजा श्रीपाल और नयनासुन्दरीका जीवनवृत्त अंकित है । नयनासुन्दरीने सिद्धचक्रव्रतके अनुष्ठानसे अपने कुष्ठी पति राजा श्रीपाल और उनके ७०० साथियाँको कुष्ठरोगसे मुक्त किया था । कविकी दूसरी रचना 'चंदप्पचरिउ' में अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभका जीवन गुम्फित है । इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि नागौरके भट्टारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। सुप्रभाचार्य सुप्रभाचार्यने उपदेशात्मक ७७ दोहोंका एक 'वैराग्यसार' नामक लघुकाय ग्रन्थ लिखा है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है । कविने स्वयं दिगम्बर साधुका रूप उपस्थित किया है। लिखा है I रिसिदयवरवंदिण सयण जं सुहु लहि विनअंति । झटितं धरू सुप्प भई घोरमसाणु नर्भाति ॥ ४६ ॥ डॉ० हरिवंश कोछड़ने कविका समय विचारधारा, शैली और भाषा के आधार पर ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्य माना है । कविकी यह रचना सांसारिक विषयोंकी अस्थिरता और दुःखोंकी बहुलताका प्रतिपादन कर धर्ममें स्थिर बने रहनेके लिये प्रेरित करती है । कचिने लिखा है सुप्पर भइ रे धम्मियहु, खसहू म धम्म णियाणि । जे सूरग्गमि धवल धरि, ते अंधवण मसाण ॥२॥ सुप्प भई मा परिहरहु पर-उवचार ( यार ) चरत्यु | ससि सूर दुहु अंधर्याणि अहं कवण थिरत्यु || ३ || अर्थात् सुप्रभ कवि कहते हैं कि हे धार्मिको ! निश्चित धर्मसे स्खलित न हो । जो सूर्योदय के समय शुत्र गृह थे, वे ही सूर्यास्त पर श्मशान हो गये । अतएव परोपकार करना मत छोड़ो, संसार क्षणिक है । जब चन्द्र और सूर्य अस्त हो जाते हैं, तब कौन स्थिर रह सकता है । यह संसार वस्तुतः विडम्बना है, जिसमें जरा, यौवन, जीवन मरण, धन, दारिद्रय जैसे विरोधी तत्त्व हैं । बन्धु बान्धव सभी नश्वर हैं, फिर उनके लिए पाप कर धन संचय क्यों किया जाय। कवि इसी तथ्यकी व्यंजना करता हुआ कहता है- आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसु कारणि धणु संचई, पाव करेवि, गहीरु । निछहु सुगाउ अप.ई, मिति लियि गरः। स ३३।। कवि धन-यौवनसे विरक्त हो, घर छोड़ धर्ममें दीक्षा लेनेका उपदेश देता है। कविका यह विश्वास है कि धर्माचरण ही जीवन में सबसे प्रमुख है। जो धर्मत्याग कर देता है वह व्यक्ति अनन्तकाल तक संसारका परिभ्रमण करता रहता है। कवि स्त्री, पुत्र और परिवारकी आसक्तिको पिशाचतुल्य मानता है। जबतक यह पिशाच पीछे लगा रहेगा, तक तक निरंजनपद प्राप्त नहीं हो सकता। कविने लिखा है जसु लग्गइ सुप्पउ भणई पिय-घर-घरणि-पिसाउ। सो किं कहिङ समायरइ मित्त णिरंजण भाउ ॥६१|| 'सुप्रभाचार्यः कथयति यस्य पुरुषस्य गृह-पुत्र-कलत्र-धनादिप्रीतिमद् वस्तु एव पिशाचो लग्नः तस्य पिशाचग्रस्तस्य पुरुषस्य न किमपि वस्तु सम्यग स्वात्मस्वरूप भासते यद्यदाचरते तत् सर्वमेव निरर्थकत्वेन भासते ।' कविने दामका विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया है और धनकी सार्थकता दानमें ही मानी है। जो दाता धन दान नहीं करता और निरन्तर उदर-पोषण में संलग्न रहता है, वह पशुतुल्य है । मानव-जीवनकी सार्थकता दान, स्वाध्याय एवं ध्यान-चिन्तनमें ही है। जो मूढ़ विषयोंके अधीन हो अपना जीवन नष्ट करता है वह उसी प्रकारसे निर्बुद्धि माना जाता है जिस प्रकार कोई व्यक्ति चिन्तामणि रत्नको प्राप्त कर उसे यों ही फेंक दे । इन्द्रिय और मनका निग्रह करने वाला व्यक्ति ही जीवनको सफल बनाता है । जसु मणु जीबई विसयसुह, सो णरु मुवो भणिज्ज। __ जसु पुण सुप्पय मणु मरई, सो णरु जीव भणिज्ज ।।६।। 'हे शिष्य ! यः पुरुषः अथवा या स्त्री ऐन्द्रियेन विषयसुखेन कृत्वा जीवति हर्ष प्राप्नोति स नरः वा सा स्त्री मृतकवत् कथ्यते । तत: सुप्रभाचायः कथयति कि यो भव्यः स्वमानसं निग्रह्मति स भव्यः सर्वदा जीवति-लोके: स्मयते।' इस प्रकार कवि सुप्रभने अध्यात्म और लोकनीति पर पूरा प्रकाश डाला है । इस दोहा-ग्रन्थके अध्ययतसे व्यक्ति अपने जीवन में स्थिरता और बोध प्राप्त कर सकता है। महाकवि रहधू महाकवि रइघूके पिताका नाम हरिसिंह और पितामहका नाम संघपत्ति देवराज था। इनकी माँका नाम विजयश्री और पलीका नाम सावित्री था। इन्हें १९८ : तीर्थंकर महावीर और उनको बाचार्य परम्परा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावित्रीके गर्भसे उदयराज नामक पुत्र भी प्राप्त था। जिस समय उदयराजका जन्म हुआ, उस समय कवि अपने 'मिणाहचरिउ' की रचना कर रहा था । रइधू पद्मावतीपुरवालवंश में उत्पन्न हुए थे। इनका अपरनाम सिंहसेन भी बताया जाता है । रइधू अपने माता-पिताके तृतीय पुत्र थे । इनके अन्य दो बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमशः बहोल और मानसिंह थे । रइघू काष्ठासंघ माथुरगच्छकी पुष्करणीय शाखासे सम्बद्ध थे ! रइधूके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे अवगत होता है कि हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानोंके श्रावकोंमें उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी । वे ग्रन्थ रचना के साथ मूर्ति प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रिया काण्ड भी करते थे। रइधूके बालमित्र कमलसिंह संघवीने उन्हें बिम्बप्रतिष्ठाकारक कहा है । गृहस्थ होने पर भी कवि प्रतिष्ठाचार्यका कार्य सम्पन्न करता था । कविके निवास स्थानके सम्बन्ध में निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है । पर ग्वालियर, उज्जयिनीके उनके भौगोलिक वर्णनको देखनेसे यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि कविको जन्मभूमि ग्वालियर के आसपास कहीं होनी चाहिये; क्योंकि उसने ग्वालियरको राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है उससे नगरीके प्रति कविका आकर्षण सिद्ध होता है । अतएव कविका जन्मस्थान ग्वालियर के आसपास होनी चाहिये । रइधूने अपने गुरुके रूपमें भट्टारक गुणकीर्ति, यश: कीर्ति श्रीपाल ब्रह्म, कमलकीर्ति, शुभचन्द्र और भट्टारक कुमारसेनका स्मरण किया है। इन भट्टाकोंके आशीर्वाद और प्रेरणासे कविने विभिन्न कृतियोंकी रचना की है। स्थितिकाल महाकवि रघूने अपनी रचनाओं की प्रशस्तियोंमें उनके रचनाकालपर प्रकाश डाला है । अभिलेखों और परवर्ती साहित्यकारोंके स्मरणसे भी कविके समय पर प्रकाश पड़ता है । कविने 'सम्मत्तगुणनिहाणकव्व की प्रशस्ति में इस ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० १४९९ भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार दिया है। 'रि' का रचनाकाल वि० सं० १४९६ अंकित है । रइधू- साहित्य में गणेशनृपसुत राजा डोंगरसिंहका विस्तृत वर्णन आया है । रइधू के 'सम्मइजिणचरिउ' के एक उल्लेख के अनुसार वह उस समय ग्वालियर दुर्ग में ही निवास १. सम्मत गुणनि हा णकव्च, ४।२४।८-१० । २. सुक्कोसलचरिव ४०२३०१-३ | 1 आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९९ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रहा था । इससे ज्ञात होता है कि डोंगर सिंहका राज्यकाल वि० सं० १४८२-१५११ है | अतः 'सम्मइजिणचरिउ' की रचना भी इसी समय हुई होगी । वि० सं० १४२७ का एक मूर्तिलेख उपलब्ध है, जिसमें कवि रइधूको प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। 'सुक्कोसलचरिउ' के पूर्व कचि 'रिट्ठणमिचरिउ', 'पासणाहचरिउ', 'बलहद्दचरिउ', 'तेसट्ठिमहापुरिसचरिउ', 'मेहेसर चरिउ', 'जसहचरिङ', 'वित्तसार', 'जीबंधर चरिउ', 'साबयचरिउ' और 'महापुराण' की रचना कर चुका था । महाकवि रहने 'धष्णकुमारचरिउ' की रचना गुरु गुणकीर्ति भट्टारकके आदेश से की हैं और गुणकीर्तिका समय अनुमानतः वि० सं० १४५७ - १४८६ के मध्य है । कवि महिंदुने अपने 'संतिणाहचरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियोंके साथ रइधूका भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध है कि रइधू वि० सं० १९८७ के पूर्व ख्यात हो चुके थे । श्री डॉ० राजाराम जैनने रइधू- साहित्य के अध्ययन के आधारपर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किये हैं १. महाकवि रइधूने भट्टारक गुणकीतिको अपना गुरु माना है । पद्मनाभ कायस्थने भी राजा वीरमदेव तोमर के मंत्री कुशराजके लिये भट्टारक गुणकोतिके आदेशोपदेशसे 'दयासुन्दरकाव्य' ( यशोधरचरित ) लिखा था । वीरमदेव तोमरका समय वि० सं० १४५७ १४७६ है | अतः गुणकीत्तिका भी प्रारंभिक काल उसे माना जा सकता है। अतः वि० सं० १४५७ रइधूके रचनाकालकी पूर्वावधि सिद्ध होती है । २. रइधूने कमलकीत्तिके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र तथा डूंगरसिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह कालको घटनाओंके बाद अन्य किसी भी राजा या भट्टारक अथवा अन्य किसी भी घटनाका उल्लेख नहीं किया, जिससे विदित होता है कि उक्त भट्टारक एवं राजा कीर्तिसिंहका समय ही रइबूका साहित्यिक अथवा जीवनका अन्तिम काल रहा होगा । राजा कीर्तिसिंह सम्बन्धी अन्तिम उल्लेख वि० सं० १५३६ का प्राप्त होता है । अतः यही रद्दधुकालकी उत्तरावधि स्थिर होती है। इस प्रकार रधूका रचनाकाल वि० सं० १४५७ - १५३६ सिद्ध होता है । १. सम्मइ ०१ । ३ । ९ - १० । २. महाकवि और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, सन् १९७२, पृष्ठ १२० । २०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा के साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, प्रकाशक प्राकृत जैन शास्त्र Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाएँ महाकवि रड़धूने अकेले ही विपुल परिमाण में ग्रन्थोंकी रचना की है। इसे महाकवि न कहकर एक पुस्तकालय - रचयिता कहा जा सकता है । डॉ० राजाराम जेनने विभिन्न स्रोतोंके आधारपर अभी तक कविकी ३७ रचनाओं का अन्वेषण किया है 1 , १. मेहेसरचरिउ (अपरनाम आदिपुराण), २. मिणाहचरिउ (अपरनाम रिट्ठमिचरिउ ) ३. पासणाहचरिउ, ४ सम्मइजिणचरिउ, ५. तिसठ्ठिमहापुरिसचरिङ, ६. महापुराण, ७. बलह्द्दचरिउ, ८. हरिवंशपुराण ९. श्रीपालचरित १०. प्रद्युम्नचरित, ११. वृत्तसार, १२. कारणगुणषोडशी, १३. दशलक्षणजयमाला, १४. रत्नत्रयी, १५. षड्धर्मोपदेशमाला, १६ भविष्यदत्तचरित १७. करकंडुचरित १८. आत्मसम्बोधकाव्य १९ उपदेश रत्नमाला २०. जिमंधरचरित, २१. पुण्याश्रवकथा, २२. सम्यक्त्वगुणनिधानकाव्य, २३. सम्यग्गुणारोहणकाव्य, २४. षोडशकारणजयमाला, २५. बारह भावना (हिन्दी), २६ सम्बोधपंचाशिका, २७. धन्यकुमारचरित २८ सिद्धान्तार्थसार २९ बृहत्सद्धचक्रपूजा (संस्कृत), ३०. सम्यक्त्वभावना, ३१. जसहर चरिउ, ३२ जीणंधरचरित, ३३. कोमुइकहापबंधु, ३४. सुक्कोसलचरिउ, ३५. सुदंसणचरिउ, ३६. सिद्धचक्कमाह्य, ३७. अणथमउकहा । , कविको रचना करनेको प्रेरणा सरस्वतीसे प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एक दिन कवि चिन्तित अवस्थामें रात्रिमें सोया । स्वप्न में सरस्वतीने दर्शन दिया और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कविने लिखा है सिविणंतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसण । आहालए तुज्झ हवं जाए सुपसण्ण ॥ परिहरहि मणचत करि भव्वु णिसु कब्वु । वलयहं मा डरहि भउ हरिउ भइ सव्व ॥ तो देविवयणेण पडिउवि साणंदु । तक्खणेण सयणाउ उठिउ जि गय-तंदु ॥ सम्मइ० - ११४४२-४ | अर्थात् प्रमुदितमना सरस्वतीदेवीने स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि में तुमपर प्रसन्न हूँ । मनकी समस्त चिन्ताएँ छोड़ हे भव्य ! तुम निरंतर काव्यरचना करते रहो । दुर्जनोंसे भय करनेकी आवश्यकता नहीं, क्यों कि भय सम्पूर्ण १. रद्दषू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, पृष्ठ ४९ । काचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २०१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिका आहरण कर लेता है। कवि कहता है कि मैं सरस्वतोके वचनोंसे प्रतिबुद्ध होकर आनन्दित हो उठा और काव्य-रचनामें प्रवृत्त हो गया | कविकी . रचनाओंके प्रेरक अनेक श्रावक रहे हैं, जिससे कवि इतने विशाल-साहित्यका निर्माण कर सका है। 'पासणाचरिउ'में कविने २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथकी कथा निबद्ध की है। यह ग्रन्थ डॉ.राजाराम जैन द्वारा सम्पादित होकर शोलापुर दोसी-ग्रन्धमालासे प्रकाशित है। यह कविका पौराणिक महाकाव्य है। कविने इसम पार्श्वनाथकी साधनाके अतिरिक्त उनके शौर्य, वीर्य, पराक्रम आदि गुणोंको भी उद्घाटित किया है। काव्यके संवाद रुचिकर हैं और उनसे पात्रोके चरित्रपर पूरा प्रकाश पड़ता है। रइधूकी समस्त कृतियोंमें यह रचना अधिक सरस और काव्यगुणोंसे युक्त है । कथावस्तु सात सन्धियोंमें विभक्त है । 'णेमिणाहचरिउ' में २२वें तीर्थकर नेमिनाथका जीवन चर्णित है। इसकी कथावस्तु १४ सन्धियोंमें विभक्त है और ३०२ कड़बक हैं। इस पौराणिक महाकाव्य में भी रस, अलंकार आदिकी योजना हुई है। इसमें ऋषभदेव, और वर्द्धमानका भी कथन आया है। प्रसंगवश भगत चक्रवर्ती, भोगभूमि, कर्मभूमि, स्वाग, नरक, य, समुद्र, भरत, ऐरावतादि क्षेत्र, पटकुलाचल, गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ, रत्नत्रय, पंचाणुव्रत, तीन गुणात, चार शिक्षाअत्त, अष्टमूलगुण, पद्रव्य एवं थावकाचार आदिका निरूपण किया गया है । भुनिधर्मके वर्णन-प्रसंगमें ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म द्वादश अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और षडावश्यकका कथन आया है।' इसप्रकार यह काव्य दर्शन और पुराण तत्त्वकी दृष्टिसे भी समृद्ध है। सम्मइजिणचरिउ'-इस काव्यमें अन्तिम तीर्थकर भगवान् महाचोरका जीवनचरित मुम्फित है। कविने दर्शन, ज्ञान और चारित्रको चर्चाके अनन्तर वस्तुवर्णनोंको भी सरस बनाया है। महावीर शंशव-कालमें प्रवेश करते हैं। माता-पिता स्नेहवश उन्हें विविध प्रकारके वस्त्राभूषण धारण कराते हैं। कवि इस मार्मिक प्रसंगका वर्णन करता हुआ लिखता है सिरि-सेहरु णिरुवमु रयणु-जडिउ । कुडल-जुउ सरेणि सुरेण घडिउ । भालयलि-तिलउ गलि-कुसुममाल 1 कंकाह हत्थु अलिगण खल ॥ किकिणिहि-सद्द-मोहिय-कुरंग । कडि-मेहलडिकदेसहिँ अभंग || तह कट्टारू वि मणि छुरियवंतु । उरु-हार अद्धहारहिँ सहतु । गेवर-सज्जिय पायहिं पइट्ठ । अंगुलिय समुद्दादय गुणछ । -सम्मइ०-५/२३१५-९। १. मिगाहचरिउ १३।५। २०२ : वीथंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेहेस रच रिज इस काव्य में जयकुमार और सुलोचनाकी कथा अंकित है। इस ग्रन्थमें कुल १३ सन्धिय ३०४ कड़वक और १२ संस्कृत पद्य हैं । यद्यपि इसमें मेधेश्वरकी कथा अंकित की गई है, पर कविने उसमें अपनी विशेषता भी प्रदर्शित की है। वह गंगा नदी में निमग्न हाथीपरसे सुलोचनाको जलमें गिरा देता है। आचार्य जिनसेन अपने महापुराण में सुलोचनासे केवल चीत्कार कराके ही गङ्गादेवी द्वारा हाथीका उद्धार करा देते हैं। पर महाकवि ग्धू इस प्रसंगको अत्यन्त मार्मिक बनाने के लिए सती-साध्वी नायिका सुलोचनाको करुण चीत्कार करते हुए मूच्छित रूपमें अंकित करते हैं। पश्चात् उसके सतीत्वकी उद्दाम व्यंजनाके हेतु उसे हाथीपर से गङ्गाके भयानक गर्तमें गिरा देते हैं । नायिकाको प्रार्थना एवं उसके पुण्यप्रभावसे गङ्गादेवो प्रत्यक्ष होती है और सुलोचनाका जय-जयकार करती हुई गङ्गातटपर निर्मित रत्नजटित प्रासादमें सिहासनपर उसे आरूढ़ कर देती है । कथानकका चरमोत्कर्ष इसी स्थानपर संपादित हो जाता है । कविने मेहेसरचरिउको पौराणिक काव्य बनाने का पूरा प्रयास किया है । सिरिबालचरि श्रीपाल चरितकी दो बाराएँ उपलब्ध होती है । एक धारा दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है और दूसरी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें। दोनों सम्प्रदायों की कथावस्तु में निम्नलिखित अन्तर है- १. माता-पिता के नाम सम्वन्धी अन्तर | २. श्रीपालकी राजगद्दी और रोग सम्बन्धी अन्तर । ३. मांका साथ रहना तथा वैद्य सम्बन्धी अन्तर । ४. मदनसुन्दरी - विवाह सम्बन्धी अन्तर । ५. मदनादि कुमारियोंकी माता तथा कुमारियोंके नामोंमें अन्तर । ६. विवाह के बाद श्रीपाल भ्रमण में अन्तर । ७. श्रीपालका माता एवं पत्नीसे सम्मेलनमें अन्तर । श्रीमालचरित एक पौराणिक चरित-काव्य है । कविने श्रीपाल और नयनासुन्दरीके आख्यानको लेकर सिद्धचक्रविधान के महत्त्वको अंकित किया है। यह विधान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसके द्वारा कुष्ठ जैसे रोगोंको दूर किया जा सकता है। नयनासुन्दरी अपने पिताको निर्भीकतापूर्वक उत्तर देती हुई कहती है १. मेहेसर० ७११६।१-१०-१० १ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २०३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भो ताय ताय पढ़ें रुि अजुत्तु । जंपियउ ग मुणियउ जिणहु सुत्तु । वरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सा लज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय । वाद-विचाउ नउ जत्तु ताउ । तहें पुणु तुअ अक्खमि णिसुणि राय । बिलोयविरुद्ध एहु कम्मु । जं सु सईबरु हि सुछम्मु । जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाह । तो लोयसुहिल्लउ इहू पवाहु । २।६।५ । अर्थात् है मिलाजी, आपने बिके ही मुझे अपने आप अपने पत्तिके चुनाव कर देनेका आदेश दिया है, किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निर्लज्जताका कार्य नहीं कर सकतीं । हे पिताजी, मैं इस सम्बन्ध में वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती। अतएव हे राजन, मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें । आपका यह कार्य लोक-विरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयं अपने पतिका निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें । नयनासुन्दरीको भवितव्यता पर अपूर्व विश्वास है । वह स्वयंकृत कर्मों के फलभोगको अनिवार्य समझती है । कविने प्रसंगवश सिद्धचक्रमहात्म्य, नवकारमहात्म्य, पुण्यमहात्म्य, सम्यक्त्वमहात्म्य, उपकारमहिमा एवं धर्मानुष्ठानका महात्म्य बतलाया है । इस प्रकार यह रचना व्रतानुष्ठानकी दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है । बलह्द्दचरिउ इस ग्रन्थ में रामकथा वर्णित है । बलभद्र रामका अगर नाम है । कविने परम्परागत रामकथाको ग्रहण किया है और काव्योचित बनानेके लिए जहाँ तहाँ कथामें संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं । सुक्कोसलचरिच यह लोकप्रिय आख्यान है । कवि रइधूने चार सन्धियों और ७४ कड़वकोंमें इस ग्रन्थको पूर्ण किया है। पुण्यपुरुष सुकोसलकी कथा वर्णित है । घण्णकुमारचरि कविने धन्यकुमारके चरितको लेकर खण्डकाव्यकी रचना की है। इस काव्यग्रन्थमें बताया गया है कि पुण्यके उदयसे व्यक्तिको सभी प्रकारकी सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं । कविने धर्म-महिमा, कर्म-महिमा, पुण्य-महिमा, उद्यम-महिमा, आदिका चित्रण किया है । २०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्तगुणणिद्वाणकथ्व यह अध्यात्म और आचारमूलक काव्य है । इसमें कविने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंगो के नामोल्लेख कर उन अंगोंको धारण करनेके कारण प्रसिद्ध हुए महान् नर-नारियोंके कथानक अंकित किये हैं । ग्रन्थमें चार सन्धियाँ और १०२ कड़वक हैं | जसहरधरिज रघूने भट्टारक कमलकीर्तिकी प्रेरणासे अग्रवालकुलोत्पत्र श्रीहेमराज संघपतिके आश्रय में रहकर इस ग्रन्थकी रचना की है। इसमें ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं । पुण्यपुरुष यशोधरकी कथा वर्णित है । विससार इस रचना में कुल ८९३ गाथाएँ हैं और ७ अंक हैं । कविने सिद्धोंको नमस्कार कर व्रतसार नामक ग्रन्थ के लिखनेकी प्रतिज्ञा की है । इसमें सम्यग्दर्शन, १४ गुणस्थान, द्वादशव्रत, ११ प्रतिमा, पंचमहाव्रत, ५ समिति, षड्आवश्यक आदिके साथ कर्मोकी के विधि प्रदेशबन्ध, अनुभागबन्ध, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, दशधर्म, ध्यान, तीनों लोक आदिका वर्णन आया है । सिद्धान्त विषयको समझने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है । सिद्धसत्यसारो (सिद्धान्तार्थसार ) द्वादश इसमें १३ अंक और १९३३ गाथाएँ हैं । गुणस्थान, एकादश प्रतिमा, व्रत, सप्त व्यसन, चतुविध दान, द्वादश तप, महायत समितियाँ, पिण्डशुद्धि, उत्पाददोष, आहारदोष, संयोजनदोष, इंगारधूमदोष, दातृदोष, चतुर्दश मलप्रकार, पंचेन्द्रिय एवं मन निरोध, षड्ज्ञावश्यक, कर्मबन्ध, कर्मप्रकृतियाँ, द्वादशांगश्रुत, द्वादशांगवाणीका वर्ण्यविषय द्वादश अनुप्रेक्षा, दश धर्म, ध्यान आदिका वर्णन आया है । Į J थमिकहा इसमें रात्रि भोजनत्यागका वर्णन है । तथा उससे सम्बन्धित कथा भी आई है। इसप्रकार महाकवि रइधूने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, आचार एवं दर्शन विषयक रचनाएँ अपन शमें प्रस्तुत कर अपभ्रंश - साहित्यको श्रीवृद्धि की है । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीके पश्चात् रइधू- साहित्यको सुव्यवस्थित रूपसे प्रकाशमें लाने का श्रेय डॉ० राजाराम जैनको है । महाकवि रघूने षट्धर्मोपदेशमाला, उवएसरयणमाला, अप्पसंब्बो कब्व और संबोहपंचासिका जैसे आचार सम्बन्धी ग्रन्थों की भी रचना की है । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २०५ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलकीर्ति अपभ्रशमें कथा-साहित्यकी रचना करनेवाले कवि विमलकीर्ति प्रसिद्ध हैं कवि माथुरगच्छ बागडसंघके मुनि रामकीर्तिका शिष्य था । सुगन्धदशमीकथाकी प्रशस्निमें विमलकीतिको रामकीर्तिका शिष्य बताया गया है । लिखा है-- रामकित्ति गुरु विणउ करेविणु, विमलकित्ति महियलि पडेविण । पच्छइ पुण तवयरण करेविणु, सइ अणुकमेण सो मोक्स्व लहेसइ ।' जगत्सुन्दरीप्रयोगमालाकी प्रशस्तिमें भी विमलकीर्तिका उल्लेख आया है इस उल्लेखसे वह वायउसंघके आचार्य सिद्ध होते हैं। आसि पुरा वित्थिणे वायउसंधे ससंघ-संकासो। मणि राम इत्ति धीरो गिरिव णइसव्व गंभीरो ॥१८॥ संजाउ तस्स सीसो विवुहो सिरि "विमल इत्ति' विक्खाओ। विमलयइकित्ति खडिया धवलिया धरणियल-गयणयलो ॥१९॥ जैन-साहित्य में रामकीति नामक दो विद्वान् हुए हैं। एक जयकोतिके शिष्य हैं, जिनकी लिखी प्रशस्ति चित्तौड़में वि० सं० १२०७ को प्राप्त हुई है। यही रामकीर्ति संभव हैं विमलकीतिके गुरु हों। जगत्सुन्दरीप्रयोगमालाके रचयित्ता यशःकीति विमलकीर्तिके शिष्य थे। उस ग्रन्थके प्रारंभमें धनेश्वर सूरिका उल्लेख किया है। ये धनेश्वरसूरि अभयदेवसूरिके शिष्य थे और इनका समय वि० सं० ११७१ है । इससे भी प्रस्तुत रामकीर्ति १३ वीं शतीके अन्तिम चरण और १३वीके प्रारंभिक विद्वान् ज्ञात होते हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीने भी विमलकीर्तिका समय १३वीं शती माना है। विमलकीतिको एक ही रचना 'सोखवइविहाणकहा' उपलब्ध है। इसमें अत-विधि और उसके फलका निरूपण किया है। कविने इस कथाके अन्तमें आशीर्वाद देते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति इस कथाको पढ़े-पढ़ायेगा, सुने-सुनायेगा, वह संसारके समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर मुक्तिरमाको प्राप्त करेगा । बताया है जो पढइ सुणइ मणि भावइ, जिणु आरहह सुह संपइ सो णरु लहइ । णाणु वि पज्जइ भव-दुह-खिज्जइ सिद्धि-विलासणि सो रमइ !! १. राजस्थान शास्त्रभंडारकी ग्रन्थ सूची, चतुर्थ जिल्द, पु. ६३२ । २०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मणदेव कवि लक्ष्मणदेवने 'णेमिणाहवरिउ' की रचना की है। इस ग्रन्थकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें कविने अपने आपको रत्नदेवका पुत्र कहा है। आरम्भकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि कवि मालवादेशके समृद्ध नगर गोणंदमें रहता था। मह कर उस ननधा और निधारमोन्द्र था | कवि पुरबाडवंशमें उत्पन्न हुआ था। यह अत्यन्त रूपवान, धार्मिक और धनधान्य-सम्पन्न था । कविकी रचनासे यह भी ज्ञात होता है कि उसने पहले व्याकरणग्रन्थकी रचना की थी, जो विद्वानोंका कण्ठहार' थी। कविने प्रशस्तिमें लिखा है मालवय-विसय अंतरि पहाणु, सुरहरि-भूसिउ णं तिसय-ठाणु। णिवसइ पट्टाणु णामई महंतु, गाणंदु पसिद्ध बहुरिद्धिवतु । आराम-गाम-परिमिउ घणेहि, णं भू-मंडणु किउ णियय-देहि । जहिं सरि-सरवर चउदिसि रु वण्ण, आणदिय-पहियण तंडि विसण्ण । ४२१ पउरबाल-कुल-कमल-दिवायरु, विणयवसु संघहु मय सायरु । धण-कण पुत्त-अत्य-संपुण्ण उ, आइस रावउ रूच रखण्णउ । तेण वि काय गंथ अकसायइ, बंधव अंबएव सुसहायइ । ४।२२ इस प्रशस्तिके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि कवि गोणन्दका निवासी था। यह स्थान संभवतः उज्जैन और भेलगाके मध्य होना चाहिए । श्री डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालने पाणिनिकालीन भारत' में लिखा है कि महाजनपथ, दक्षिणमें प्रतिष्ठानसे उत्तरमें श्रावस्ती तक जाता था। यह लम्बा पथ भारतका दक्षिण-उत्तर महाजनपथ कहा जाता था। इसपर माहिष्मती, उज्जयिनी,गोनद्द, बिदिशा और कौशाम्बी स्थित थे। हमारा अनुमान है कि यह गोनद्द ही कवि द्वारा उल्लिखत गोणन्द है। कविके अम्बदेव नामका भाई था, जो स्वयं कवि था, जिसने कविको काव्य लिखनेको प्रेरणा दी होगी। स्थितिकाल ___ कविके स्थितिकालके सम्बन्धमें निचिश्त रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कविने स्वयं ग्रन्थरचना-कालका निर्देश नहीं किया है। और न अपनी गर्वावली और पूर्व आचार्योंका उल्लेख ही किया है । अतएव रचनाकालके निर्णयके लिए केवल अनुमान ही शेष रह जाता है । १. जहि पढमु जाउ वायरण मारु, जो बुहिह्मण-कठाहरण चारु ।' आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २०७ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मिणाहचरिज' की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं। एक पाण्डुलिपि पंचायतीमंदिर, दिल्ली में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल वि० सं० १५९२ है । इस अन्धकी दूसरी पाण्डुलिपि वि० सं० १५१० की लिखी हुई प्राप्त होती है। यह प्रति पाटौदी शास्त्र-भण्डार जयपुर में है। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्रन्थकी रचना वि० सं० १५१० के पूर्व हई है। भाषा-शैली और वर्णनक्रमकी दृष्टिले मह अन्य थीं शताब्दीका होना चाहिए। प्रायः यह देखा जा सकता है कि प्राचीन अपभ्रश-काव्योंमें छन्दका वैविध्य नहीं है । इस प्रस्तुत ग्रन्थमें भी छन्द-वैविध्य नहीं पाया जाता है। हेला, दुबइ और वस्तुबन्ध आदि थोड़े ही छन्द प्रयुक्त हैं । रचना विकी एकमात्र 'णेमिणाहचरिउ' रचना ही उपलब्ध है। इस ग्रन्थमें चार सन्धियाँ या चार परिन्छद और ८३ नाड़वक हैं । ग्रन्थ-प्रमाण १३५० श्लोकके लगभग है। प्रथम सन्धिम मंगल-स्तवनके अनन्तर, सज्जन-दुर्जन स्मरण किया गया है । तदनन्तर कविने अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है । मगधदेश और राज्यगृह नगरके वर्णनके पश्चात् कवि राजा श्रेणिक, द्वारा गौतम गणधरसे नेमिनाथका वरित वर्णन करनेके लिए अनुरोध कराता है । बराडक देश में द्वारावती नगरीमें जनार्दन नामका राजा राज्य करता था | वहीं शौरीपुरनरेश समुद्रविजय अपनी शिवदेवीके माथ निवास करते थे। जरासन्धके भयसे यादवगण शौरीपर छोड़ कर द्वारकामें रहने लगे। यहीं तीर्थंकर नेमिनाथका जन्म हुआ और इन्द्रने उनका जन्माभिषेक सम्पन किया । दूगरी संधिमें नेमिनाथकी युवावस्था, वसन्तवर्णन, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा आदिके प्रसंग बाये हैं। नेमिनाथके पराक्रमको देखकर कृष्णको ईर्ष्या हुई और वे उन्हें किसी प्रकार विरक्त करने के लिए प्रयास करने लगे | जुनागढ़के राजाको पुत्री राजीमतिके साथ नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ। बारात सजधज कर जूनागढ़के निकट पहुँचती है। और नेमिनाथकी दृष्टि पार्श्ववर्ती बाड़ोंमें बन्द चीत्कार करते हुए पशुओपर पड़ती है। उनके दयालु हृदयको वेदना होती है और वे कहते हैं यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओंका जीवन संकट में है सो ऐसा विवाह करना मैंने छोड़ा। ___ पशुओंको छुड़वाकर रथसे उतर कंकण और मुकुट फंककर वे वनको ओर चल देते हैं। इस समाचारसे बारात में कोहराम मच जाता है। राजमती मूळ खाकर गिर पड़ती है। लोगोंने नेमिनाथको लौटानेका प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ हुआ। वे पासमें स्थित ऊर्जयन्तगिरिपर चले जाते हैं। और सहस्नाम्र २०८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनमें वस्त्रालंकारका त्यागकर दिगम्बरमुद्रा धारण कर लेते हैं । I तीसरी सन्धिमें राजमतिकी वियोगावस्थाका चित्रण है । कविने बड़ी सहृदयता और सहानुभूतिके साथ राजमत्तिकी करुण भावनाओंका चित्रण किया है। राजमति भी विरक्त हो जाती है और वह भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में प्रवृत्त हो जाती है । चतुर्थ संधिमें तपश्चयक द्वारा नेमिनाथको केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेका कथन आया है। उनकी समरण आयोजित होती है। वे प्राणिकल्याणायं धर्मोपदेश देते हैं और अन्तमें निर्वाण प्राप्त करते हैं । कविने संसारकी विवशताका सुन्दर चित्रण किया है । कवि कहता है I जहि अण्णु त अरुइ होद, जसु भोजसत्ति तसु ससु ण होइ । जसु दा छाहु तसु दविणु पत्थि, जसु दविणु तासु अइ-लो अस्थि । जसु मयण राज तसि णत्थि भाम, जसु भाम तसु छवण काम ॥३१२ अर्थात् जिस मनुष्यके घरमं अन्न भरा हुआ है उसे भोजनके प्रति अरुचि है । जिसमें भोजन पचाने की शक्ति है उसे शस्य अन्न नहीं । जिसमें दानका उत्साह है उसके पास धन नहीं। जिसके पास धन है उसमें अतिलोभ है । जिसमें कामका प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं। जिसके पास भार्या है उसका काम शान्त है । कविने सुभाषितों का भी प्रयोग यथास्थान किया है। इनके द्वारा उसने काव्यको सरस बनाने को पूरी चेष्टा की है । कि जीयइ धम्म-विवज्जिगुण-धर्मरहित जीनेसे क्या प्रयोजन ? किं सुउई संगरि कायरेण - युद्ध में कायर सुभटोंसे क्या ? किं वयण असच्चा भासणेण - झूठ वचन बोलनेसे क्या प्रयोजन है ? कि पुत्तइ गो-विणासणेण - कुलका नाश करनेवाले पुत्रसे क्या ? कि फुल्लई गंध-विवज्जिएणरहित फूलसे क्या ? इस ग्रन्थ में श्रावकाचार और मुनि आचारका भी वर्णन आया है। तेजपाल तेजपाल के तोन काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध हैं । कवि मूलसंघके भट्टारक रत्नकौत्ति, भुवन कीत्ति, धर्मकोत्ति और विशालकोत्तिकी आम्नायका है। वारावपुर नामक गाँव में बरसावद वंशमें जाल्हु नामके एक साहू थे । उनके पुत्रका नाम सुजज साहू था। वे दयावन्त और जिनधर्म में अनुरक्त थे। उनके चार पुत्र थे— रणमल, बल्लाल, ईसरु और पोल्हणु । ये चारों ही भाई खण्डेलवाल १४ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २०९ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलके भूषण थे। रणमल माहूके पुत्र ताल्हडय साहू हुए। इनका पुत्र कवि तेजपाल था। कवि सून्दर, सुभग और मेधाबी होनेके साथ भक्त भी था। उसने ग्रंथनिर्माणके साथ संस्कृतिक उत्थापक प्रतिष्ठा आदि कार्यों में भी अनुराग प्रदर्शित किया था। कविसे ग्रन्थ-रचनाओं के लिये विभिन्न लोगोंने प्रार्थना की और इसी प्रार्थनाके आधारपर कविने रचनाएँ लिखी हैं। तिकाल कविकी रचनाओंमें स्थितिकालका उल्लेख है। अतएव समयके सम्बन्धमें विवाद नहीं है। कविने रत्नकोत्ति, भुवनकोति, धर्मकीनि आदि भट्टारकोंका निर्देश किया है, जिससे कविका काल विक्रमकी १६वीं शती सिद्ध होता है | कविने वि० सं० १५०७ वैशाख शुक्ला सप्तमीके दिन 'वरंगचरिउ' को समाप्त किया है। __गंभवणाहचरिउ' की रचना थोल्हाके अनुरोधमे वि० सं० १५०० के लगभग मम्पन्न को गई है। 'पासपुराण' को मुनि पद्मनन्दिके शिष्य शिवनन्दिभट्टावक संकेतगे रत्ता है । कविने इस ग्रंथको वि० सं० १५१५ में कात्तिककृष्णा पंचमी के दिन समाप्त किया है। अतएव कविका स्पितिकाल विक्रमकी १६वों :ती निश्चित है। कविको 'संभवणाहचरित' के रचने को प्रेरणा भादानक देश श्रीपभनगरमें दाऊदशाहले राज्यकालमें थोल्हासे प्राप्त हुई है। श्रीप्रभनगरको अग्रवालयंगीय मित्तल गोत्रीय साह लक्ष्मणदेवके चतुर्थ पुत्रका नाम थील्हा था, जिसकी माताका नाम महादेवी और प्रथम धर्मपत्नीका नाम कोल्हाही था। और दूसरी पत्नीका नाम आसाही था, जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नामत पुत्र उत्पन्न हुए । साहू श्रील्हाके पाँच भाई थे, जिनके नाम खिउसो, होल, दिवसी, मल्लिदास और कथदास हैं। ये सभी व्यक्ति धर्मनिष्ठ, नीतिवान और न्यायपालक थे। लक्ष्मणदेवके पितामह साह होदने जिन बिम्ब-प्रतिष्ठा करायी थी। उन्होंके वंशज थोल्हाके अनुरोधसे कवि तेजपालने संभवणाचरिउकी रचना की है। इस चरितग्रंश्रम ६ सन्धियाँ और १७० कड़वक है। इसमें तृतीय तीर्थंकर संभवनाथवा जीवन गुम्फित है। कथावस्तु पौगणिक है; पर कविने अवसर मिलने पर .. वर्णनोंको अधिक जीवन्त बनाया है। सन्धिवाक्यमें बताया है 'इस संभवजिणगिए साबणयारविहाणफलाणुसरित कइतेजपालगिणदे मज्जासंदोहमणि-अणुमण्णिवे सिरिमहाभब्व-थोल्हासवणभूमणो संभाजण? : पर और उ.को आवाय परम्परा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्वाणगमणो णाम छट्टो परिच्छेओ समत्तो ॥ संधि ६ ॥ कविने नगरवर्णनमें भी पढ़ता दिखलाई है । वह देश, नगरका सजीव चित्रण करता है | लिखा है इह् इत्थु दीबि भारहि प्रसिद्ध, पामेण सिरिपहु सिरि-समिद्ध | दुग्गु वि सुरम्मु जण जणिय-राउ, परिहा परियरियउ दीहकाउ । गोउर सिर कलसाइय पयंगु णाणा लच्छिए आलिगि पंगु । जहि जणणयणाणंदिराई, मुणि- यण-गुण-मंडियमंदिराई । सोहति गउरखरक इ-मणहराई, मणि जडियकिना सुंदराई । जहि सहि महायण चुयन्पमाय, पररमणि-परम्मुह मुक्क-माय । जहि समय कडि घड ड डति, पडिसद्द दिसि विदिया फुडंति । जहि पवण-गमण धाषिय तुरंग, णं वारि-रासि भंगुरतरंग | जो भूमिउ णेत्त-सुहावणेहि सरयन्व धवल-गोहणगणेहि । सुरण त्रिसमीहि जहि सजम्मू, मेल्लेविणु सग्गाल सुरम्मु । कविकी दूसरी रचना 'बरंगचरिउ' है। इसमें चार मन्त्रियाँ हैं । २वं नीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथ ज्ञासनकाल में उत्पन्न हुए पुण्यपुरुष वरांगका जीवनवृत्त प्रस्तुत किया गया है। कविने इस रचनाको बिपुलकीतिक प्रसादसे सम्पन्न किया है। पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी आदिको नमस्कार करनेके पश्चात् ग्रन्थको रचना आरंभ की है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय कड़वकमें कृत्रिने अपना परिचय अंकित किया है । अन्तिम प्रशस्तिम भी कविका परिचय पाया जाता है। fast तीसरी रचना 'पासपुराण' है। यह भी खण्डकाव्य है, जो पर्द्धाड़िया छन्दमें लिखा गया है। यह रचना भट्टारक हर्षकीर्ति भण्डार अजमेर में सुरक्षित है । कविने यदुवंगी साहू शिवदास के पुत्र भूषलि साहुकी प्रेरणा से रचा है । ये मृनि पद्मनन्दिके शिष्य शिवनन्दि भट्टारककी आम्नायके थे तथा जिनधर्मरत श्रावकर्मप्रतिपालक दयावन्त और चतुबिध संघके संपोषक थे। मुनि पद्मनन्दिने शिवनन्दिको दीक्षा दी थी। दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजन साहु था। सुरजन साहु संसारसे विरक्त और निरन्तर द्वादश भावनाओंके चिन्तनमें संलग्न रहते थे । प्रशस्ति में साहु सुरजनके परिवारका भी परिचय आया है । इस प्रकार कवि तेजगालने चरितकाव्योंकी रचना द्वारा अपभ्रंशसाहित्यकी समृद्धिको है , - धनपाल द्वितीय धनपाल कविने 'बाहुबलिचरिउ की रचना की है। इस ग्रन्थकी प्रति आमेरआचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक २११ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र-भाण्डार जयपुरमें सुरक्षित है। कविने ग्रन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है। राज्जर देश मज्झि णयवट्टणु, वसइ विउलु पल्हणपुरु पट्टणु । वीसलाएउ राउ पयपालउ, कुवलय-मंडणु सउलु व मालउ । तहिं पुरवाडवंस नायामल, अगणिय-पुब्वपुरिस-णिम्मल कुल । पुणु हुउ राय सेट्टि जिणभत्तउ, भोवई गामें दयगुण जुत्तउ । सुहउपज तहो पंदणु जायउ, गुरु सज्जणहं भुअणि विक्खायउ। तहो सुउ हुउ धणवाल धरायले, परमप्पय-पय-पंकय-रज अलि । एतहि तहिं जिणतित्थण मंतउ, महि भमंतु पल्हणपुरे पत्तउ । अर्थात् धनपाल गुर्जर देशके रहने वाले थे। पल्हणपुर इनका वास-स्थान था। इनके पिताका नाम सुहडदेव और माताका नाम सूहडादेवी था। ये पुरवाड जातिमें उत्पन्न हुए थे। कविके समय राजा वीसलदेव गज्य कर रहा था। योगिनीपुर ( दिल्ली) में उस समय महम्मदशाहवा शासन था । कविने यह ग्रन्य-रचना चन्द्रबाडनगरके राजा सारंगके मंत्री जायसवंशोत्पन्न साह वासद्धर । वासधर की प्रेरणासे की है। कृति समर्पिन भी सन्टीको की गई है। बासाधरके गिताका नाम सोमदेव था, जो संभरी नरेन्द्र कर्णदबके मंत्री थे। कविने साहु वासाधरको सम्यग्दृष्टि , जिनचरणोंका भवत, दयालु, लोकप्रिय, मिथ्यात्वहित और विशुद्धचित्त कहा है। इनको गृहस्थके दैनिक पट्कर्मोम प्रवीण राजनीतिमें चतुर और अष्टमूल गुणोंके पालनमें तत्पर बताया है । इनकी पलीका नाम उभयश्री था, जो पत्तिव्रता और शीलयत पालन करनेवाली थी। यह चतुर्विध संघको दान देती थी। इसके आठ पुत्र हुए-जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, बिहराज, पुण्यपाल, वाइड और पदव । य आठौं पुत्र अपने पिताके समान ही धर्मात्मा थे। कविने इस ग्रन्थके आदिमें प्राचीन कवियों, आचार्यों और ग्रन्थावा स्मरण किया है। उसने कविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्रव्याकरणरचयिता देवनन्दि, श्रीवज्रमूरि और उनके द्वाय त्रित पट्दर्शनप्रमाणग्रन्थ, महारान-सुलोचनाचरित, रविषेण-पद्मचरित, जिनरोन-हरिवंशपुराण, जटिलमनि-वगंगग्ति , दिनकरसेन-कन्दपंचग्ति, पद्मसेन-पार्श्वनाथचरित, अमतागधना, गर्माणअम्बसेन-चन्द्रप्रभचरित, धनदत्तचरित, कविविष्णसेन, मानमिनन्दि अम्प्रेक्षा, णवकारमंत्र, नग्देव, कविअसग-वीरचरित, सिद्धसन, कविगोविन्द, जय. धवल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त और मेदु कविका स्मरण किया है। इससे कविको अध्ययनशीलता, पांडिल्य और कवित्वशक्तिपर २१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 4, प्रकाश पड़ता है । कवि सन्तोषी था और स्वाभिमानी भी । यही कारण है कि उसने बाहुबलि - चरितकी रचना कर अपनेको मनस्वी घोषित किया है । कविके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अनेक शिष्यों सहित विहार करते हुए पल्हूणपुरमें पधारे। धनपालने उन्हें प्रणाम किया और मुनिने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण होगे । कविके मस्तक पर हाथ रखकर प्रभाचन्द्र कहने लगे कि मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ। तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो । धनपालने प्रसन्नतापूर्वक गुरु द्वारा दिये गये मंत्र को ग्रहण किया और शास्त्राभ्यासद्वारा सुकवित्व प्राप्त किया। इसके पश्चात् प्रभाचन्द्र खंभात, धारानगर और देवगिरि होते हुए योगिनीपुर आये। दिल्ली - निवासियोंने यहाँ एक महोत्सव सम्पन्न किया और भट्टारक रत्नकीर्तिके पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया ! कवि धनपाल गुरुकी आज्ञासे सौरिपुर तीर्थ के प्रसिद्ध भगवान् नेमिनाथकी वन्दना करनेके लिये गये। मार्ग में वे चन्द्रवाडनगरको देखकर प्रभावित हुए और साहु वासाधर द्वारा निर्मित जिनालयको देखकर वहीं पर काव्य-रचना करने में प्रवृत्त हुए । स्थितिकाल afaa स्थितिकालका निर्णय पूर्ववर्ती कवियों और राजाओंके निर्देशसे संभव है । इस ग्रन्थकी समाप्ति वि० सं० १४५४ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी, स्वाति नक्षत्र, सिद्धियोग और सोमवारके दिन हुई है । कविने अपनी प्रशस्तिमें मुहम्मदशाह तुगलकका निर्देश किया है। मुहम्मदशाहने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोर्त्तिके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे, इस कथनका समर्थन भगवती आराधनाकी पंजिकाटीकाकी लेखक - प्रशस्ति से भी होता है । इस प्रशस्तिमें बताया गया है कि वि०सं० १४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्रके शिष्य ब्रह्म नाथूरामने अपने पढ़नेके लिए दिल्लीके बादशाह फिरोजशाह तुगलकके शासन कालमें लिखवाया था। फिरोजशाह तुगलकने वि० सं० १४०८ १. संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुदिपञ्चम्यां सोमवासरे सकलराजशिरो- मुकुटमाणिक्यमरोचिपिजीकृत चरण कमलपादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य समये श्रीदिल्या श्रीक्रुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकश्रीरत्नकी सिदेवपट्टीयाद्वि-लक्ष्णतरणित्वमुर्वीकुर्वाणरण: ( णः ) भट्टारकश्री प्रभाचन्द्रदेवशिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधनापंजिका ग्रंथ आत्मपठनार्थ लिखापितम् । - बारा जैन सिद्धान्तभवन प्रति आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २१३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४५ तक राज्य किया है । अतएव स्पष्ट है कि भद्रारक प्रभाचन्द्र वि० सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारकपदपर प्रतिष्ठित हुए होंगे। इस आलोकमें घनपालका समय विक्रमकी पन्द्रहवीं शती माना जा सकता है । रचना कवि धनपालद्वितीयने 'बाहुबलिचरिउ' की रचना की है, जिसका दूसरा नाम 'कामचरिउ' भी है। ग्रन्थ १८ संधियों में विभक्त है। इसमें प्रथम कामदेव बाहुबलिको कथा गुम्फित है। बाहुबली ऋषभदेवके पुत्र थे और सम्राट् भग्तके कनिष्ठ भ्राता | बाहुबली सुन्दर, उन्नत एवं बल-पौरुषसे सम्पन्न थे। वे इन्द्रि यजयी और उग्र तपस्वी भी थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरतको जल, मल्ल और दृष्टि युद्धमें पराजित किया था। भरत इस पराजयसे बिक्षुब्ध हो गये और प्रतिशोध लेनेकी भावनासे उन्होंने अपने भाई पर सुदर्शनचक्र चलाया । किन्तु देवोपनीत अस्त्र वंशघातक नहीं होते, अतएव वह चक्र बहुबलिकी प्रदक्षिणा देकर लौट आया। इससे बाहर्बालके मनमें पश्चात्ता उत्पन्न हुआ | वे परिग्रह, पावभाव, अहंकार, राज्यसत्ता, न्याय-अन्याय, भाई-भाईका सम्बन्ध आदिके सम्बन्धमं विचार करने लगे। उन्होंने राज-त्यागका निश्चय कर लिया और वे दिगम्बरदीक्षा लेकर आत्म-साधना में प्रवृत्त हए। उन्होंने कठार तपश्चरण किया और स्वात्मोपलब्धि प्राप्त की । यह ग्रंथ काव्य और मानवीय भावनाओंसे आतिप्रोत है। कविने यथास्थान वस्तु-चित्र प्रस्तुतकर काव्यको सरस बनानेका प्रयास किया है । हम यहाँ विवाहके अनन्तर वर-वधूके मिलनका एक उदाहरण प्रस्तुतकर वाविवा काव्यत्वपर प्रकाश दालेंगे। सोहइ कोइल-झुणि महुरसमए, सोहइ मणि पहु लद्ध जाए। सोइ मणिकणयालंकारिया, सोहइ सासय-सिरि सिद्ध जुया । सोहइ संपइ सम्माण जणं, साहइ जयलछो सहडु र । सोहइ साहा जलइरस वर्ण, सोहइ वाया सुपुरिस वयणं । जह सोहाइ एयहि वह कलिया, तह सोहइ कण्णा पर मिलिया । कि बहुणा वाया उन्भसए, कोरइ विवाहु सोमंजसए । ७५ । बाहुब लिंचरित वास्तवमें महाकाव्यक गणसि युबत्त है । कबिने इसे सभी प्रकारसे सरस और कवित्वपूर्ण बनाया है। कवि हरिचन्द या जयमित्रहल फाथि हरिचन्द्र। अपनी गुरु-परम्पराका उल्लेख किया है। बताया है कि २१४ : तीर्थयार महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके गुरु पद्मनन्दि भट्टारक थे। ये मूलसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके विद्वान थे। भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर थे। परनन्दि अपने समयके यशस्वी लेखक और संस्कृति-प्रचारक हैं। गर्वावलोमें पद्मनन्दिको प्रशंसा करते हुए। लिखा है श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनींद्रपट्टे शश्वत्प्रतिष्ठः प्रतिभा-गरिष्ठः । विशुद्ध-सिद्धान्तरहस्य-रत्न-रत्नाकरो नंदतु पानंदी ॥२८॥ जैन सिद्धन्तभास्कर भाग १, किरण ४, पृ० ५३ दिल्लोमें वि० सं० १२९६ भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशीको रलकीत्ति पट्टारूढ़ हुए। ये १४ वर्षों तक पट्टपर रहे। रत्नकीत्तिके पट्टपर वि० सं० १३१० पौष शुक्ला पूर्णिमाको भट्टारक प्रभाचन्द्रका अभिषेक हुआ । पश्चात् वि० सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमाको प्रभाचन्द्रके पट्ट पर पद्मभन्दि आसीन हुए। इन्हीं पानन्दिके शिष्योंमें जयमित्रहल भी सम्मिलित थे। ___श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अपने प्रशस्ति-संग्रहको भूमिकामें एक घटना उद्धृत की है। बताया है कि पार्श्वनाथचरितके कर्ता कवि अग्रवाल ( सं० १४५९) ने अपने ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिमें सं० १४७१की एक घटनाका उल्लेख करते हुए लिखा है कि करहलके चौहानवंशी राजा भोजराज थे। इनकी पत्नीका नाम माइक्कदेवी था। उससे संसारचन्द या पृथ्वीराज नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके राज्यमें सं० १४७१ माघ कृष्णा चतुर्दशी शनिवारके दिन रत्नमयी जिन-बिम्बकी स्थापना की गयी। उस समय यदुवंगी अमरसिंह भोजराजके मंत्री थे। उनके पिताका नाम ब्रह्मदेव और माताका नाम पद्मलक्षणा था । इनके चार भाई और भी थे, जिनके नाम करमसिंह, समर्रासिंह, नक्षत्रासिंह, और लक्ष्मणसिंह थे। अमरसिंहकी पत्नी कमलश्री पातिव्रत्य और शीलादि गुणोंसे विभूषित थी। उसके तीन पुत्र हुए--नन्दन, सोना साहु. लोणा साहु । इनमें लोणा साहू धार्मिक कार्यों में विपुल धन खर्च करते थे । इन्होंने कवि जयमित्रहलको प्रशंसा की है। अतः जमित्रहलका समय भट्टारक प्रभाचन्द्र पट्टकाल है। कवि हरिचन्द या जमिश्रहलका समय विक्रमको १५वों शती है। यतः जयमित्रहलने अपना मल्लिनाथकाव्य विक्रम सं० १४७१ से कुछ समय पूर्व १. जैन-ग्रंथ-प्रशस्तिसंग्रह, द्वितीय भाग, बोरसेवामंदिर. २१ दरियागंज, दिल्ली प्रस्तावना, पृष्ठ ८६ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २१५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है। दूसरे ग्रंथ वढमाणचरिउ' भी मल्लिनाथकाव्यसे एकाध वर्ष: आगे-पीछे लिखा गया है। रचनाएँ जयमित्रलको दो रचनाएं उपलब्ध हैं—'वढमाणचार उ' और 'मल्लिणाहकन्व' । 'वडढमाणचरिउ' का दूसरा नाम 'सेणियचरिउ' भी मिलता है। इस काव्यमें ११ सन्धि या परिच्छेद बताये गये हैं । पर प्रारंभकी 'सन्धियाँ उपलब्ध सभी पाण्डुलिपियों में नहीं मिलती हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रंथको छठी सन्धि ही प्रथम सन्धि है। इस ग्रंथमें अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीरका जीवनचरित अंकित है। साथ ही उनके ममयमें होने वाले मगधक शिशुनागवंशी सम्राट् बिम्बसार या णिकको जीवनगाथा भी अंकित है । यह राजा बड़ा प्रतापी और राजनीतिबाशाल था । इसः सनापति जम्बू कुमारने केरल के राजा मृगांकपर विजय प्राप्त कर उसकी पुत्री चिलावतोसे श्रेणिकका विवाह-सम्बन्ध करवाया था। इसकी पट्ट-पहिषी चेटककी पुत्री नेलना श्री। चेलना अत्यन्त धमात्मा और पतिव्रता थी। वैगिकका जनधमंकी और लानका श्रेय चेतनाको है । श्रेणिक तीर्थकर महाबीरके प्रमुख श्रोता थे। यह ग्रंथ देव रायके पुत्र संघाधिप हालिबम्मक अनुराधसे रचा गया है । दूसरी रचना 'मल्लिणाहकच्च' है। इसम १९व तीर्थकर माल्लनाथका जानवचारत अंकित है। इसकी प्रति आमेर-शास्त्र-भण्डारम भी अपूर्ण है। ग्रंथको रचना कविने पृथ्वी नामक गजाके गज्य में स्थित साह आल्हाके अनुगबस को है । आल्हा साहुके चार पुत्र थे, जिनका नाम बाह्य साहु, तुम्बर, २सणऊ और गल्हग थे । इन्होंने ही इस काव्य-ग्रंथको लिखवाया है। गुणभद्र काष्ठासंघ माथुगन्वयके भट्टारक मुगभद्र मायकीतिक शिष्य थे। और भदायक यशःकत्तिके शिष्य थे। घ कथा-साहित्यके विपक्ष माने गये हैं। गणभद्रका स्मरण महाकवि रइधूने भी किया है। साथ ही नजपाल' और महिन्दुने २ भी किया है। इधूने इन्हें चरित्रवे आचरणम धोर, संयमी, गणिजनोंके गरु, मधुरभाषी, प्रवचन सबको सन्तुष्ट करनेवाला, जितन्द्रिय, मान१. गुणभद्रु-महामइमहमृगोरा । जिणसंगहोमंडणु पंचमीसु । -रांभवणाहारउ, ११२१५-७ २. गुणभहरिगुणभठाणु । ----मंतिणाहार उ—१।५। २१६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T । रूपी महागजको तर्जनाको सहन करनेवाला एवं भव्यजनोंको उद्बोधित करने वाला कहा है । तहो चरपट्टु बइरिउ अज्जमु । घरिय चरितायरणु संसंजमु ॥ गुरु गुणगनवणि पापभूषण ! वयण-पउत्ति-जणिय जणतूस || कयकामाइय- दोस - विसज्जरपु । दंसिय-माण महागय तज्जणु ॥ भविषण-मण- उपाय - बोहणु । सिरिगुणभद्दमहारिस सोहण || - सम्मइ० - १०|३०|२१-२४ गुणभद्र प्रतिष्ठाचार्य भी थे। मैनपुरी (उत्तरप्रदेश) के जैन मन्दिरों में कुछ मूर्तियों एवं यंत्रों पर लेख उत्कीर्णित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे प्रतिष्ठाचार्य थे।' गुणभद्रका स्थितिकाल उनकी गुरुपरम्परा और समकालीन राजवंशोंके आधारपर निर्णीत किया जा सकता है । इन्होंने ग्वालियरके तोमरवंशी राजा डूंगरसिंहके पुत्र की त्तिसिंह या कर्णसिंहके राज्यकालमें अपनी रचनाएँ लिखी हैं । महाकवि रद्दधूने गुणभद्रका उल्लेख किया है। अतः गुणभद्रका समय रधूके समकालीन या उनसे कुछ पूर्वं होना चाहिए । कारञ्जाके सेनगण-भण्डारकी लिपि प्रशस्ति वि० सं० १५१० वैशाख शुक्ला तृतीयाकी लिखी हुई है, जो गोपाचल में डूंगरसिंहके राज्यकाल में भट्टारक गुणभद्रकी आम्नायके अग्रवालवशी गगंगोत्रीय साहु जिनदासने लिखाई थी । अतएव कवि गुणभद्रका समय १५वीं शतीका अंतिम पाद या १६वीं शतीका प्रथम पाद होना चाहिए । रचनाएं भट्टारक गुणभद्रने १५ कथा - ग्रंथोंको रचना की है, जो निम्न प्रकार हैं१. सवणवा र सिविहाण कहा ( श्रावणद्वादशी - विधान-कथा) २. पक्वइकहा ( पाक्षिकव्रत कथा ) ३. आयासपंचमीकहा - आकाशपंचमी कथा ४. चंदायणवयकहा- चन्द्रायण व्रतकथा ५. चंदणछट्ठीकहा- चन्दनषष्ठी कथा १. सं० १५२९ सास सुदी ७ बुधे श्रीकाष्ठासंचे भ० श्रीमलयकोत्ति भ० श्री गुणभद्रा. प्रतिमालेखसंग्रह (जैनसिद्धान्तभवन, आरा, मनाये अग्रोकान्वये मित्तलगोत्र वि० सं० १९९४) ५० ८, १४ । २. अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १० पृ० २९६ 1 आषार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक २१७ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. नरफउतारादूग्धा रसकथा ७. णिदुखसत्तमीकहा-निदुःखसप्तमोकथा ८. मउडसत्तमीकहा-मुकुटसप्तमोकथा ९. पुप्र्फजलीकहा-पृष्पांजलिकथा १०. रयणत्तयवयकहा-रत्नत्रयव्रतकथा ११. दहलक्खणवयकहा-दशलक्षणव्रतकथा १२. अणंतत्रयकहा- अनंतव्रतकथा १३. लाद्धविहाणकहा--लब्धिविधानकथा १४. सालहकारणवयकहा---पोडशकारणव्रत कथा १५. सुगंधदमीकहा-सुगंधदशमीकथा इन व्रत-कथाओम ब्रसका स्वरूप, आचरण-विधि और उनका फल प्राप्ति प्रतिपादित की गया है | आत्मशोधनान लिय प्रतोंका नितान्त आवश्यकता है, क्योंकि आत्मशद्धि के बिना लाल्याण सभव नहीं है। पाक्षिकश्रावक-कथा और अनन्तव्रत-कथा ये दा काथा-ग्रन्थ तो ग्वालियरनिवासी संघपति साहू उद्धरणके जिनमंदिरम निवास करत हा साहसारंगदेवके पत्र देवदासको प्रेरणासे रचे गये हैं। और अनन्तव्रतकथा, पुष्पांजलिव्रतकथा और दशलक्षणवतकथा ये तीन कथाकृतियां ग्वालियरनिवासी जयसबालबंशा चौधरी लक्ष्मणसिंहके पुत्र पं० भीमसेनके अनुरोधसे लिखी गई हैं। निदुःख सप्तमीकथा गोपाचलवासी साह बीधाके पुत्र सहजपालके अनुरोधसे लिखी गई है। शेष कथा-ग्रन्थ धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर लिखे हैं । नामानुसार कथाओंमें व्रतोंका स्वरूपादि वणित है। हरिदेव 'मयणपराजयचरिउ' के रचयिता हरिदेवने नन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है जिससे यह ज्ञात होता है, कि इनके पिता का नाम चंगदेव और माताका नाम चित्रा था । इनके दो बड़े भाई थे-किकर और कृष्ण । किकर महागुग्गवान् तथा कृष्ण स्वभावतः निपुण थे । इनके दो छोटे भाई थे, जिनके नाम द्विजवर और राघव थे । कविने लिखा है चंगरवहु णविर्याजणपयहु तह चित्तमहासहिं पढमु पुत्तु किंकर महागण । पुण बोयउ कण्हु हुउ जेण लङ्घ ससहाउ णियपुण ।। हरि तिज्जउ कइ जाणि यइ दियवरु राघउ वेइ । ते लहया जिणपय धुर्णाहं पावह माणु मलेइ ।।२।। २१८ : तोर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कुटुम्ब का परिचय नागदेवके संस्कृत-मदनपराजयसे भो प्राप्त होता है। नागदेवने अपना मदनपराजय हरिदेवके इस अपभ्रश-मदनपराजयके आधार पर हो लिखा है। वे चंगदेवके वंशमें सातवीं पीढ़ोमें हुए हैं। परिचय नम्न प्रकार है... यः शुद्धसोमकुलपविकासनाळ जातोऽथिनां मुग्तरु(वि चंगदेवः । तन्नन्दनो टिरसत्कवि-नागसिंहः तस्माद्भिषग्जनपति वि नागदेवः ।।सा तज्जावु भी सुभिषजाविह हेमरामौ रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः श्रीमल्लुगिज्जिनपदाम्बुजमत्तभृङ्गः॥३॥ तज्जोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयतः । लन्दोऽलंकारकाव्यानि नाभिधानानि वेम्यहम् ॥ ४॥ कथाप्राकृतबन्धेन हरिदेबेन या कृता। वक्ष्ये संस्कृतबन्धेनं भव्यानां धर्मवृद्धये ।।५।। अर्थात पृथ्वोपर पवित्र सोमकूलरूपी कमलको विकसित करनेके लिये सूर्यरूप और याचकोंके लिए कल्पवृक्षस्वरूप त्रंगदेव हुए । इनके पुत्र हरि हुए, जो असत्कविरूपी हस्तियोंके लिए सिंह ये | उनके पुन वैद्यराज नागदेव हुए । नागदेवके हेम और राम नामके दो पुत्र हुए और ये दोनों ही अच्छे वैद्य थे । रामके पुत्र प्रियंकर हुए, जो याचकोंके लिा प्रिय दानी थे। प्रियंकरके पुत्र मल्ल मित्त हए, जो चिकित्सामहोदधिके पारगामी बिद्वान तथा जिनेन्द्र के चरणकमलोंके मत्त भ्रमर थे। उनका पुत्र में भागदेव हआ, जो अल्पज्ञानी है और छन्द, अलंकार, काब्य तथा शब्दकोशका जानकार नहीं हैं। हरिदेवन जिस कथाको प्राकृत-बन्धमें रचा था, उसे ही में भव्योंको धर्मवृद्धिके हेतु संस्कृतमें लिख रहा हूँ। चंगदेवकी वंशावलो निम्नप्रकार प्राप्त होतो है चंगदेव किंकर कृष्ण हरिदेव द्विजपति राघव नागदेव (वद्यराज} (वैद्यराज) राम (बंद्यराज) प्रियंकर (दानी) मल्लुगित (बैद्यराज) नागदेव आचार्यतुल्य वाव्यकार एवं लेखक : २१. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस वंशावलोसे कविके जीवन-परिचयका बोध हो जाता है । पर उसके स्थितिकालके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। स्थितिकाल 'मयणपराजय चरिज' की कथावस्तुका आधार शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव है और परम्परानुसार सुभचन्द्रका समय भोजदेवके समकालीन माना जाता है । ज्ञानार्णवको एक प्राचीन प्रत्ति पाटणके शास्त्रमण्डारमें वि० सं० १२४८की लिखी हुई प्राप्त हुई है । अतः ज्ञानार्णवका रचनाकाल ९वीं शतीसे १२वीं शतीके बीच सिद्ध होता है। अतएब 'मयणपराजयरिज'की रचनाकी पूर्वावधि यही माननी चाहिए। इससवा तिनी हस्तलिखित दिगो आधारपर किया जा सकता है। 'सस्कृतमदनपराजयको एक प्रतिका लेखनकाल वि० सं० १५७३ हैं और अपभ्रंश 'मयणपराजय रउको एक प्रति वि० सं० १६०८ और दूसरी वि. स. १६५४ को है । अत्तएव कवि हरिदेवका समय नागदेवसे छठी पोढ़ी पूर्ण होनेके कारण कम-से-कम १५० वर्ष पहल हाना चाहिए । इस प्रकार नागदेवका समय १३वी-१४वीं शताब्दी सिद्ध हाता है। पं० परमानन्दजीने जयपुरके तरापंथी बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें वि. सं० १५५१ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी गुरुवारको लिखी हुई प्रतिका निर्दश किया है तथा आमेरभंडारको प्रति वि० सं० १५७६ की लिखी हुई बताई है। और उन्होंने भाषा-शैली आदिके आधारपर हरिदेवका समय १४वी शताब्दोका अन्तिम चरण बताया है ।' डॉ. हीरालालजी जेनने हरिदेवका समय १२वीं शतीसे १५वीं शतीके बीच माना है। रचना कविको एक ही रचना 'मयणपराजयारउ' उपलब्ध है। इस ग्रंथमें दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें ३७ और दूसरेमें ८१ इस प्रकार कुल ११८ कड़वक है । यह छोटा-सा रूपक खण्डकाव्य है । कविने इसमें मदनको जीतनेका सरस वर्णन किया है। कामदेव राजा, भोह मंत्री, अहंकार, अज्ञान आदि सेनापतियोंके साथ भावनगरमें निवास करता था । चारित्रपुरके राजा जिन राज उसके शत्रु थे, क्योंकि वे मुक्ति रूपी लक्ष्मीसे अपना विवाह करना चाहते थे। कामदेवने १. जैनग्रंथप्रशस्सिसंग्रह, द्वितीय भाग, दिल्ली, प्रस्तावना, पृ० ११४ 1 २. मयणपराजयचरिउ, भारतीयज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पृ० ६१ । २२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-द्वेष नामके दुत द्वारा जिनराजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति-कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सौंप दें; अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाएँ । जिनराजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें उसे पराजित कर शिवरमणीको प्राप्त किया । इस प्रकार इस रूपक-काव्य में कविने सरस रूपमें इन्द्रियनिग्रह और विकारोंको जीतनेकी ओर संकेत किया है। यहां हम उदाहरणार्थ इस रूपक काव्य में राग-द्वेषादिके युद्धका वर्णन प्रस्तुत करते हैं राय-रोस खम-दमहं महाभह । आसव-बंध गुणहं दह-लंपडे ।। चारित्तहं सइ भिडिय असं जम । णिज्जर-गुणहं कम्म कय-घण-तम || गारव तिण्णि भिडिय सिवपंथहं । अणय पधाइय णयह पयत्थहं ।। अण्ण वि जे जसु समुह पइट्टा । ते तमु सपल वि रणि आभिठ्ठा ।। तहि अवसरि पुच्छिउ आणंदें । सिद्धिरूउ सरवदउ जिणिदे॥ अम्हहं बल कारणे कि ण । मयरद्धय-सेण्ण हो संतद्राउ ।। उपमम-सेढिय-भूमिहि लगउ । तें कज्जेण जिणेसर भग्गउ॥ एवहिं खाइय-भूमि चावहि । परबल उच्छरंतु बिहडावहि ॥ तो परणइ-सहाव संगूढ । म्खवग-सेढ़ि जिबल आम्दन || महाभट राग और द्वेष, क्षमा और दमनसे भिड़ गये | दस लंपट आसव और बन्ध गणोंस युद्ध करने लगे। असंयम चारित्रसे भिड़ा। सधन अंधकार उत्पन्न करनेवाले कर्म निर्जरागणसे युद्ध करने लगे । तीन गारव शिवपंथसे भिड़ गये और अनय प्रशस्त नयों पर दौड़ पड़े। अन्य सुभट भा जिनके सम्मुख पड़े वे सब उनसे रणमें आकर युद्ध करने लगे । इस अवसर पर जिनेन्द्रने आनन्दपूर्वक सिद्धिरूप स्वरोदय ज्ञानीसे पूछा कि हमारा चल किस कारणसे नष्ट हुआ और मकरध्वजके शंन्यसे संत्रस्त हुआ ? तब उस ज्ञानीने बतलाया कि हे जिनेश्वर तुम्हारा बल उपशम-श्रेणोकी भूमि पर जा लगा था । इस कारण वह भग्न हुआ | अब उसे क्षायिक भूमि पर चढ़ाइये, जिससे वह आगे बढ़ता हुआ शत्रुबलको नष्ट कर सके । तब स्वभाव परिणतिसे संगूढ़ वह जिनबल क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुआ। फिर श्रेष्ठ रथोंके संघटनोंने, उत्तम घोड़ोंके समूहोंने, गुलगुलाते हए हाथियोंके ब्यूहोंने एवं महाभटोंने ध्वजार्ग उड़ाते हुए सम्मुख बढ़कर अपनेअपने घात दिखलाये। ___ इस वर्णनसे स्पष्ट है कि कविने सैद्धान्तिक विषयोंको काव्यके रूपमें प्रस्तुत किया है। पौराणिक तथ्योंकी अभिव्यंजना भी यथास्थान की गई है। द्वितीय संधिके ६१, ६२, ६३ और ६४वें पद्योंमें कामदेवने अपनी व्यापकताका परिचय आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २२१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है और बताया है कि मेरे प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव प्रस्त हैं, में त्रिलोकविजयी हूँ। प्रसंगवश गणस्थान, बत्त, समिति, गुप्ति, षडावश्यक, ध्यान आदिका भी चित्रण होता गया है। हरिचन्द द्वितीय इन हरिचन्दका वंश अग्रवाल था। इनके पिताका नाम जंडू और माताका नाम बील्हा देवी था। कविने 'अणथमियकहा' की रचना की है। इस कृतिमें रचनाकाल निर्दिष्ट नहीं किया गया है; पर पाण्डुलिपिपरसे यह रचना १५वीं शताब्दीको प्रतीत होती है। कविने ग्रथको अन्तिम प्रशस्ति में अपने वंशका परिचय दिया है-- पाविज वोल्हा जंड तणा जाएं, गरुभत्तिए सरसइहि पसाएं । अयग्वालबसे पणइं, मई हरियंदेण भत्तिय जिण पणदेवि पडिउ पद्धडिया-छंदेण ॥११॥ यह प्रति लगभग ३०० वर्ष पुरानी है। अतएव शेली, भाषा, विषय आदिको दृष्टिसे कविका समय १५वीं शताब्दी प्राय: निश्चित है । कविकी एक ही रचना 'अणयमिय कहा' उपलब्ध है। ग्रंथमें १६ कड़वक हैं, जिनमें रात्रि भोजनसे हानेवाली हानियोंका वर्णन किया गया है। सूर्यास्तके पश्चात् रात्रिमें भोजन करनेवार सूक्ष्म-जीवोंके संचारसे रक्षा नहीं कर सकते । बहुत विषेले कीटाणु भोजनके साथ प्रविष्ट हो नानाप्रकारके रोग उत्पन्न करते हैं। ___ कविने तीर्थकर वर्धमानको बहत हो सुन्दर रूप में स्तुति की है और अनन्तर रात्रि-भोजनके दोषोंका निरूपण किया है । यहो स्तुति-सम्बन्धी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं जय चड्ढमाण सिवउरि पहाण, तइलोय-पयासण विमल-जाण । जय सयल-सुरासुर-णमिय-पाय, जय धम्म-पयासण वीयराय । जय सोल-भार-धुर-धरण-धवल, जय काम-कलंक-विमुक्कः अमल । जय इंदिय-मय-गल-बहण-वाह, जय सयल-जीव-असरण सणाह। जय मोह-लोह-मच्छर-विणास, जय दु-विट्ठ-कम्मटठ-णास । जय च उदह-मल-वज्जिय-सरीर, जय पंचमहष्वय-धरण-धीर । जय जिणवर केवलणाण-किरण, जय दंसण-णाण-चरित्त-चरण । कवि हरिचन्दकी अन्य रचनाएं भी होनी चाहिए । २२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी यानार्थ-TTETTE Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ नरसेन या नरदेव कवि नरसेनका अन्य नाम नरदेव भी मिलता है । कविने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में नामके अतिरिक्त किसी प्रकारका परिचय नहीं दिया है। 'सिद्ध चक्ककहा के अन्तमें लिखा हुआ मिलता है सिद्धचक्कविहि रथ पई, पर येणा भणड णिय-सनिय । भवियण-जण-आणंदयरे, करिवि जिणेसर-मत्तिए ।।२-३६।। द्वितीय सन्धिके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका-वाक्य प्राप्त होता है "इय सिद्धचक्ककहाए पडिण-धम्मत्थ-काम-मोक्वाए महाराय-चंपाहिबसिरिपालदेव-मयणासुन्दरिदेवि-चरिए पंडिय-सिरिण रसेण-विरइए इहलोय-परलोय-सुह-फल-कराए रोर-दुह-धोर-कोट्ठ-बाहि-भवणासणाए सिरिपाल-णिव्वाण-गमणो णाम वीओ संधिपरिच्छेओ समत्तो॥" कवि नरसेन दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। उसने श्रीपालकथा दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार लिखी है | कविकी गुरुपरम्परा या वंशावली के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता है । स्थितिकाल कविने अपनी रचनाओं में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है। "सिद्धचक्ककहा की सबसे प्राचीन प्रति जयपुरके आमेर-शास्त्र-भण्डारमें वि० सं० १५१२की उपलब्ध होतो है। यदि इस प्रतिलिपिकालसे सौ-सवासौ वर्ष पूर्व भी कविका समय माना जाय, तो वि० सं०की १४वीं शती सिद्ध हो जाता है | कवि धनपाल द्वितीयने 'बाहुबली चरिउ में नरदेवका उल्लेख किया है ___णवयारणेहु गरदेव वुत्तु, कइ असग विहिउ करहो चरित्तु । __ 'बाहुबलीचरिउ'का रचनाकाल वि० सं० १४५४ है । अतएब नरदेव या भरसेनका समय १४वीं शती माना जा सकता है । दूसरी बात यह है कि रइधू और नरसेनकी श्रीपालकथाके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात हो जाता है कि नरसेनने अपने इस ग्रन्थको रइधके पहले लिखा है। अत: रइधुके पूर्ववती होनेसे भी नरसेनका समय १४वीं शती अनुमानित किया जा सकता है। रचनाएँ नरसेनको 'सिद्धचक्ककहा' और 'वड्ढमागकहा' अथवा 'जिपत्तिविहाण आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २२३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा ये दो रचनाएं प्राप्त है । डॉदेवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भ्रमवश 'बढमाणकहा' और 'जिण रत्तिविहाणकाहा को पृथक्-पृथक् मान लिया है । वस्तुतः ये दोनों एक ही रचना हैं । आमेर-भण्डारकी प्रतिमें लिखा है इय जिणतविहाणु पयासिउ, जइ जिण-सासण गणहर भासिउ | घत्ता--सिरिजरसेणहो सामिउ सिवपुर, गामिज वड्ढमाण-तित्थंकर । जा मग्गिउ देइ करुण करेइ, रेज सुबोहिउ गरु ।। उपर्युक्त पक्तियोंसे यह स्पष्ट है कि वर्धमानकथा और जिनरात्रिविधानकथा दोनों एक ही ग्रन्थ हैं। जिस रात्रि में भगवान महावीरने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रतको कथा शिवरात्रिक समान लिखी गई है। इसमें तीर्थंकर महावीरका वर्तमान जीवनवृत्त भो अंकित है। कविको दूसरी रचना 'सिद्धचक्ककहा' है । सिद्धचनकथामें उज्जयिनी नगरके प्रजापाल राजाकी छोटी कन्या मैनासुन्दरी और चम्पा नगरीक राजा श्रीपालका कथा अंकित है। इस कथाको पूर्व में भी लिग्वा जा चुका है। नरसेनने दो सन्धियोंमें ही इस कथाको निबद्ध किया है । इस कथाग्रन्थमें पौराणिक तथ्योंकी सम्यक योजना की गई है । घटनाएँ सक्षिप्त हैं; पर उनमें स्वाभाविकता अधिक पाई जाती है। आधिकारिक कथामें पूर्ण प्रवाह और गतिशीलता है। प्रासंगिक कथाओंका प्रायः अभाव है; किन्तु घटनाओं और वृत्तोंकी योजनाने मुख्य कथाको गतिशील बनाया है। वस्तु-विषय और संघटनाको दृष्टि से अल्पकाय होनेपर भी यह सफल कथाकाव्य है । वर्णनोंकी मरसताने इस कथाकाव्यको अधिक रोचक बनाया है। विवाहवर्णन (१।१४), यात्रावर्णम (१।२४), समुद्रयात्रावर्णन (१।२५), युद्धवर्णन (२६) और युद्धयात्रावर्णन (२।२२) आदिके द्वारा कविने भावोंको सशक्त बनाया है । संवाद और भावोंकी रमणीयता आद्यन्त व्याप्त है। माताका उपदेश, सहस्रकूट चैत्यालयकी वन्दना, सिद्धचक्रवतका पालन, वीरदमनका साधु होना, मुनियोंसे पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनना तथा मुनिदीक्षा ग्रहण कर तपस्या करना आदि संदर्भोसे निर्वेदका संचार होता है। कविने इस कथाकाव्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, अनुमान आदि अलंकारोंकी योजना भी की है। इस प्रकार यह काव्य कवित्वको दृष्टिसे भी सुन्दर है। २२४ : तीर्थंकर महावीर और न नको आचार्य-परम्परा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¡ महीन्दु कवि महोन्दु या महीचन्द्र इल्लराजके पुत्र हैं । इससे अधिक इनके परिचय के सम्बन्ध में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। कविने 'संतिणाहचरिउ' की रचना के अन्तमें अपने पिताका नामांकन किया है मो 'सुणु बुद्धीसर वरमहि दुहुहर, इल्लराजसुअ गाखिञ्जइ । सण्णाणसुअ साहारण दोसीणिवारण वरणेरहि धारिज्जइ ॥ पुष्पिका वाक्यसे भी इहलराजका पुत्र प्रकट होता है। ग्रन्थ- प्रशस्ति में कविने योगिनीपुर (दिल्ली) का सामान्य परिचय कराते हुए काष्ठासंघके माथुरगच्छ और पुष्करगणके तीन भट्टारकों का नामोल्लेख किया है - यशः कीर्ति, मलयकांति और गुणभद्रसूरि इसके पश्चात् प्रयंका निर्माण कराने वाले साधारण नामक अग्रवालश्रावकके वंशादिका विस्तृत परिचय दिया है । ग्रन्थके प्रत्येक परिच्छेद के प्रारंभ में एक-एक संस्कृत-पद्य द्वारा भगवान शान्तिनाथका जयघोष करते हुए साधारण के लिये श्री और कीति मादिकी प्रार्थना को गई है । भट्टारकोंकी उपर्युक्त परम्परा अंकनसे यह ध्वनित होता है कि hfa महीन्दुके गुरु काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके आचार्य ही रहे हैं तथा कविका सम्बन्ध भो उक्त भट्टारक- परम्पराके साथ है । स्थितिकाल I कविने इस ग्रंथका रचनाकाल स्वयं ही बतलाया है । लिखा है-विक्कमराय वराय-कालइ । रिसि वसु-सर-भुवि-अकालइ । कति पढम पक्खि पंचमि- दिणि। हुड परिपुष्ण वि उग्गतद्द इणि । अर्थात् इस ग्रंथ की रचना वि० सं० १५८७ कात्तिक कृष्ण पंचमी मुगलबादशाह बाबरके राज्यकाल में समाप्त हुई । इतिहास बतलाता है कि बाबरने ई० सन् १५२६की पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहिम लोदीको पराजित और दिवंगतकर दिल्लीका राज्य शासन प्राप्त किया था। इसके पश्चात् उसने आगरापर भी अधिकार कर लिया | सन् १५३० ई० (वि० सं० १५८७) में आगरा में ही उसकी मृत्यु हो गई । इससे यह विदित होता है कि बाबरके जीवनकाल में ही 'सन्तिणाहचरिउ' की रचना समाप्त हुई है। अतएव कविका स्थितिकाल १६वीं शती सिद्ध होता है । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २२५ १५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविने इस ग्रन्थमें अपनेसे पूर्ववर्ती अकलंक, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, यश कीत्ति, रइधू, गुणभद्रसूरि और सहणपालका स्मरण किया है। रइधका समय वि०की १५वीं शतीका अन्तिम भाग अथवा १६वीं शतीका प्रारंभिक भाग है । अतएव कविका समय पूर्व आचार्योंके स्मरणसे भी सिद्ध हो जाता है । लिखा है-- अकलंकसामि सिरिपायपूय, इंदाइ महाकइ अटुहूय । सिरिणेमिचंद सितियाई, सिद्धससार मुणि ण विवि ताई। चउमुहु-सुर्य भु-सिरिपुप्फयंतु, सरसइ-णिवासु गुण-गण-महंतु । जसकित्तिमुणीसर जस-णिहाणु, पंडिय रइघूकइ गुण अमाणु । गुणभद्दसूरि गुणभद्द ठाणु, सिरिसहणपाल बहुबुद्धि जाणु । रचना कवि द्वारा लिखित 'संतिणाहचरिज'की प्रति वि० सं० १५८८ फाल्गुण कृष्णा पंचमीको लिखी हुई उपलब्ध है। प्रस्तुत ग्रंथकी रचना योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवालकुलभूषण गर्गगोत्रीय साह भोजराजके पांच पुत्रोंमेंसे ज्ञानचन्दके पुत्र साधारण थावककी प्रेरणासे की गई है। भोजराम पुत्र नान खमचन्द, शालपन्द, श्रीचन्द, राजमल्ल और रणमल बताये गये हैं। संथकी प्रशस्तिमें कविने साधारण श्रावकके बंशका परिचय कराया है। बताया है कि उसने हस्तिनागपुरके यात्रार्थ संघ चलाया था और जिनमंदिरका निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। भोजराजके पुत्र ज्ञानचंदकी पत्नी का नाम 'सौराजही', था जो अनेक गुणोंसे विभूषित भी | इसके तीन पुत्र हुए, जिनमें मारंगसाह और साधारण प्रसिद्ध हैं। सारंगसाहूने सम्मेदशिखरकी यात्रा की थी। इसको पत्नीका नाम तिलोकाही' था । दूसरा पुत्र साधारण बड़ा विद्वान् और गणी था । उसने शत्र जयको यात्राकी थी। इसकी पत्नीका नाम 'सीचाही' था। इसके चार पुत्र हुए-अभयचन्द, मल्लिदास, जितमल्ल और सोहिल्ल | इनकी पत्नियों के नाम चदणही, भदासही, समदो और भीखणहा। ये चागे हो पतिव्रता और धमौनष्ठा श्री । इस प्रकार कविने अथ-रचनाके प्रकका परिचय प्रस्तुत किया है। 'संतिणहिचरिउ' में १६वें तीर्थकर शान्तिनाथ चक्रवर्तीका जीवनवृत्त गुम्फित है । कथा-वस्तु १३ परिच्छेदों में विभक्त है । पद्य-प्रमाण ५०००के लगभग है । शान्तिनाथ चक्रवर्ती, कामदेव और धर्मचक्रो थे। कविने इनकी पूर्वभवावलीके साथ वर्तमान जीवनका अंकन किया है । चक्रवर्तन सभी प्रकारक वैभवोंका २२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपभोग किया और षट्खण्डभूमिको अपने अधीन किया । अन्तमें इन्द्रियविषयोंको दुःखद अवगत कर देह-भोगोंसे विरक्त हो दिगम्बर-दीक्षा धारण कर तपश्चरण किया। समाधिरूपी चक्रसे कर्मशत्रुओंको विनष्टकर धर्मचक्रो बने । विविध देशोंमें विहार कर जगत्को कल्याणका मार्ग बताया और अघातिया क्रमौको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया। विजयसिंह कवि विजयसिंहने अजितपुराणकी प्रशस्तिमें अपना परिचय दिया है। बताया है कि मेरुपुरमें मेरुकीतिका जन्म करमसिंह राजाके यहां हुआ था, जो पचायतीपुरवालवंशके थे। कविके पिताका नाम दिल्हण और माताका नाम राजमती था | कविने अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश नहीं किया है। सन्धिके पुष्पिका-वाक्यसे यह प्रकट है कि यह ग्रंथ देवपालने लिखवाया था । ___"इय सिरिअजियणाहतित्ययरदेवमहापुराणे धम्मत्थ-काम-मोक्ख-चउपयत्य पहाणे सुकइणसिरिविजयसिंहबहविरइए महाभब्व-कामरायसुय-सिरिदेवपालविवहसिरसेहरोबमिए दायार-गुणाण-कित्तणं पुणो मगह-देसाहिबवण्णणं णाम पढमों संधीपरिछेओ समत्तो n" । कवि विजयसिंहकी कविता उच्चकोटिकी नहीं है । यद्यपि उनका व्यक्तित्व महत्त्वाकांक्षीका है, तो भी वे जीवन के लिए आस्था, चरित्र और विवेकको आवश्यक मानते हैं। स्थितिकाल ___कविने अजितपुराणको समाप्ति वि० सं० १५०५ कात्तिकी पूर्णिमाके दिन की है। इसी संवत्की लिखी हुई एक प्रति भोगांवके शास्त्रभण्डारमें पाई जाती है । इस प्रतिकी लेखन-प्रशस्तिमें बताया है____ "संवत् १५०५ वर्षे कातिक सुदि पूर्णमासो दिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकश्रीपश्यनंदिदेवस्तत्पट्ट भट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवः तस्य पट्टे भटटारकश्रीजिनचन्द्रदेवः तस्याम्नाये श्रीखंडेलवालान्वये सकलग्रंथार्थप्रवीण पंडितकउडि: तस्य पुत्र: सकलकलाकुशल: पण्डितछीत (र) तत्पुत्रः निरवद्यश्रावकाचारधरः पंडितजिनदासः, पंडितखेता तत्पुत्रपंचाणुव्रतपालकः पण्डितकामराजस्तद्भार्या कमलथी तत्पुत्रास्त्रयः पण्डितजिनदासः, पंडितरतनः देवपाल: एतेषां मध्ये पंडितदेवपालेन इदं अजितनाथदेवचरितं लिखापितं निजज्ञानावरणीयकर्मक्षया), शुभमस्तु लेखकपाठकयोः ।' -जैन सि० भा. भा० २२, कि० २। आचार्मतुल्य काष्यकार एवं लेखक : २२७ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव कविका समय विक्रमको १६वीं शती है। कविने इस ग्रन्थको रचना महाभव्य कामराजके पुत्र पंडिस देवपालको प्रेरणासे की है। बताया है कि वणिपुर या वणिकपुर नामके नगरमें खण्डेलवाल वंशमें कडि (कौड़ी) नामके पंडित थे। उनके पुत्रका नाम छोतु था, जो बड़े धर्मनिष्ठ और आचारवान थे । वे श्रावकको ११ प्रतिमाओंका पालन करते थे। यहीपर लोकमित्र पंडित खेता था । इन्हींके प्रसिद्ध पुत्र कामराज हुए। कामराजकी पत्नीका नाम कमलश्री था। इनके तीन पुत्र हुए-जिनदास, रयणु और देवपाल । देवपालने वर्धमानका एक चैत्यालय बनवाया था, जो उत्तुंग ध्वजाओंसे अलंकृत था। इसी देवपालकी प्रेरणासे अजितपुरण लिखा गया है। इस ग्रन्थको प्रथम सन्धि नयम कड़वकम जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गृद्धपिच्छ, प्रोष्ठिल, लक्ष्मण, श्रीधर और चतुर्मुखके नाम भी आये हैं। ___ इस ग्रन्थमें कविने द्वितीय तीर्थकर अजिसनाथका जीवनप्स गुम्फित किया है। इसमें १० सन्धियाँ हैं। पूर्वभवावलोके पश्चात अजितनाथ तीर्थकरके गर्भ जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोंका विवेचन किया है। प्रसंगवश लोक, गुणस्थान, श्रावकाचार, श्रमणाचार, द्रव्य और गुणोंका भी निर्देश किया गया है। कवि असवाल कवि असवालका बंश गोलाराड था। इनके पिताका नाम लक्ष्मण था । इन्होंने अपनी रचनामें मूल संघ बलात्कारगण के बाचार्य प्रभाचन्द्र, पचनन्दि, शुभचन्द्र और धर्मचन्द्रका उल्लेख किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि कवि इन्हींको आम्नायका था। कविने कूशात देश में स्थित करहल नगर निवासी साहु सोणिगके अनुरोधसे लिया है। ये सोणिग यदुवंशमें उत्पन्न हुए थे। ___ ग्रन्थ-रचनाके समय करहलमें चौहानवंशी राजा भोजरायके पुत्र संसारचन्द (पृथ्वीसिंह) का राज्य था। उनकी माताका नाम नाइक्कदेवी था। यदुवंशो अमरसिंह भोज राजके मंत्री थे, जो जैनधर्म के अनुयायी थे । इनके चार भाई और भी थे, जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह और लक्ष्मणसिंह थे। अमरसिंहकी पत्नीका नाम कमलश्री था। इसके तोन पुत्र हुए-नन्दन, सोणिग और लोणा साहू । लोणा साहू जिनयात्रा, प्रतिष्ठा आदिमें उदारतापूर्वक धन व्यय करते थे। मल्लिनाथचरितके कर्ता कवि हल्लकी प्रशंसा भी असवाल कविने की है। लोणा साहूके अनुरोधसे ही कवि असवालने ‘पासणाहरिउ'को रचना अपने २२८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्येष्ठ भ्राता सोणिगके लिये कराई थी। सन्धि-वाक्यमें भी उक्त कथनको पुष्टि होतो है। ___ "इय पासणाहरिए आयमसारे सुवग्गचहुरिए बुहअसवालविरइए संघाहिपसोणिगस्स कपणाहरणसिरिपासणाहणिव्वाणगमणो णाम तेरहमो परिच्छेओ सम्मतो।" स्थितिकाल कविने 'पासणाहवार को प्रशस्तिमें इस प्रन्यका रचनाफाल कित किया है इगवीरहो णिवुई कुच्छराई, सत्तरिस? चउसयवत्थराई । पच्छई सिरिणियविक्कमगयाई, एउणसीदीसहुँ चउदहसयाई । भादव-तम-एयारसि मुणेहु, परिसिक्के पूरिउ गंथु एह। पंचाहियवीससयाई सुत्तु, सहसई चयारि मडाहिं जुत्तु । अर्थात् वि० सं० १४७९ भाद्रपद कृष्णा एकादशीको यह ग्रन्थ समाप्त हुआ। ग्रन्थ लिखने में कविको एक वर्ष लगा था । प्रशस्तिमें वि० सं० १४७१ भोजराजके राज्यमें सम्पन्न होनेवाले प्रतिठोत्सवका भी वर्णन आया है। इस उत्सव में रत्नमयी जिनबिम्बोंको प्रतिष्ठा की गई थी। प्रशस्तिमें जिस राजवंशका उल्लेख किया है उसका अस्तित्व भी वि० सं० की १५वीं शताब्दीमें उपलब्ध होता है। अतएव कविका समय विक्रमकी १५ वीं शताब्दी है। कविको एक ही रचना 'पासणाहचरित' उपलब्ध है। इसमें २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथका जीवन-चरित अकित है । कथावस्तु १३ सन्धियोंमें विभक्त है। कविने इस काव्यमें मरुभति और कमठके जीवन का सुन्दर अकन किया है। सदाचार और अत्याचारकी कहानी प्रस्तुत की है। प्रत्येक जन्म में मरुभूतिका जोव कमठके जीवके विद्वेषका शिकार होता है । व.मठका जीव मरुभसिके जीवके समान ही इस लोक में उत्पन्न होता है, किन्तु अपने दुष्कृत्यक कारण तिर्यञ्चम जन्म ग्रहणकर नरकवास भोगता है। उसे छठवें भव में पूनः मनुष्य-योनिकी प्राप्ति होतो है । इस प्रकार मरुभूति और कमठका बर-विरोध १० जन्मों तक चलता है। १० वें भवमें मरुभूतिका जोच पार्श्वनाथक रूपमें जन्म ग्रहण करता है। पार्व जन्मके पश्चात् अपने बल, पौरुष एवं बुद्धिका परिचय देते हैं। और ३० वर्षको आयु पूर्ण होनेपर माघ शुक्ला एकादशाका दीक्षा ग्रहण करते हैं। थे तपश्चरण कर केवलज्ञान लाभ करते हैं और सम्मेद आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २२९ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरपर निर्वाण-लाभ करते हैं । कविने प्रसंगवश सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, मुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त और लोकके स्वरूपका विवेचन भी किया है । कविता साधारण है और भाषा लोक भाषाके निकट है। ___ इस परिस-ग्रन्थमें कविने धाम, मगर नीर प्रकृतिको विवरणाला चित्रण किया है। नर-नारियोंके चित्रणमें परम्परायुक्त उपमानोंका व्यवहार किया गया है। बल्ह या बूचिराज कवि बल्ह या बूचिराज मूलसंघके भट्टारक पपनन्दिको परम्परामें हुए है। ये राजस्थानके निवासी थे। सम्यक्त्वकौमुदीनामक ग्रंथ उन्हें चम्पावती (चाटसु)में भेंट किया गया था। बूचिराज अच्छे कवि थे और पठन-पाठन आदिमें इनका समय व्यतीत होता था। कवित्वकी शक्ति प्राप्त है। कवि अपभ्रंश और लोक-भाषाओंका अच्छा जानकार है। स्थितिकाल कविने अपनी कतिपय रचनाओं में रचनाकालका निर्देश किया है । उन्हान 'मयणजुज्झ'को समाप्ति वि० १५८९म की है। 'सन्तोषतिलक जयमाल' नामक ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५९१में की गई है। अतएव रचनाओंपरसे कांवका समय विक्रम सं० की १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध आता है । भाषा, शैली एवं वर्ण्य विषयको दृष्टिसे भी इस कविका समय विक्रमको १६वीं शती प्रतीत होता है। रचनाएँ कवि आचार-नीति और अध्यात्मका प्रेमी है । अतएव उसने इन विषयोंसे सम्बद्ध निम्नलिखित रचनाएँ लिखी हैं-- १. मयणजुज्झ (मदनयुद्ध), २. सन्तोषतिलकजयमाल, ३. चेतनपुद्गलधमाल, ४. दंडाणागीत, ५. भुवनकोत्तिगीत, ६. नेमिनाथवसन्त और ७. नेमिनाथबारहमासा । 'मयगजुझ' रूपक-काव्य है। इसकी रचनाका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। इस काव्यमें १५९ पद्य हैं, जिनमें आदिनाथ तीर्थकरका मदनके साथ युद्ध दिखलाकर उनकी विजय बसलाई गई है। २३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आवायं-परम्परा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I वसन्तऋतु कामोत्पादक है। उसके आगमन के साथ प्रकृतिमें चारों ओर सुरभित मलयानिल प्रवाहित होने और प्रकृति नई वधूके समान इठ आह्लादक वातावरण व्याप्त हो जाता है। लगता है, कोयलकी क्रूज सुनाई पड़ती है लाती हुई दृष्टिगोचर होती है । इसी सुहावने समयमें तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यानस्य थे । कामदेवने जब उन्हें शान्त मुद्रामें निमग्न देखा, तो वह कुपित होकर अपने सहायकों के साथ ऋषभदेवपर आक्रमण करने लगा । कामके साथ क्रोध, मद, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष और अविवेक आदि सेनानियोंने भी अपने-अपने पराक्रमको दिखलाया । पर ऋषभदेवपर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उनके संयम, त्याग, शील और ध्यानके समक्ष मदनको परास्त होना पड़ा। कविने युद्धका सजीव वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है चदिउ कोपि कंद अप्पु बलि अदर न मन्नइ । कुंदै कुरले तसे हंसे सन्वह अवगन्नई | ताणि कुसुम कोवंडु भविय संघह दलु मिल्लिउ । मोहु वहिड तहगवि तासु ब्लु खिणमदि पिल्लि । कवि वल्लह जैनु जंगम अटलु सासु सरि अवरु न करें कुछ । असि झाणि णिउ श्री आदिजिण, गयो मयणु दहवजहोइ ॥ कविको दूसरी रचना संतोष तिलकजयमाल है । यह भी रूपक काव्य है । इसमें सन्तोषद्वारा लोभपर विजय प्राप्त करनेका वर्णन आया है । काव्यका नायक सन्तोष है और प्रतिनायक लाभ लोभ प्रवृत्तिमागका पथिक है और सन्तोष निवृत्तिमार्गका । लोभके सेनानी असत्य, मान, माया, क्रोध, मोह, कलह, व्यसन, कुशील, कुमति और मिथ्याचरित आदि हैं। सन्तोषके सहायक शील, सदाचार, सुधर्म, सम्यक्त्व, विवेक, सम्यक् चारित्र, वंशग्य, तप, करुणा, क्षमा और संयम आदि हैं। कविने यह काव्य १३१ पद्योंमें रचा है। लोभ और सन्तोषके परिकर का प्रस्तुत करते हुए लिखा है परिचय लोभ आपउ झूठु परधानु मंत-तंत खिणि कीयउ । मानु मोह अरु दोहु मोहु इकु युद्धउ कीयउ । माया कलह कलेषु थापु, संताप छद्म दुख कम्म मिथ्या आचरउ आइ अद्धम्म किउ पखु कुविसन कुसील कुमतु जुडिउ राग दोष आइरु लहिउ । अप्पणउ सयनु बल देखिकरि, लोहुराउ तब गह् गहिउ ॥ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३१ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तोष बाइयो सोलु सुषम्पु समकितु ग्यान चारित संचरो, वैरागु तप करुणा महाव्रत खिया चिति संजय थिरो । अज्जउ सुमइउ मुत्ति उपसमु धम्मु सो आकिचिणो, इन मेलि दलु सन्तोषराजा लोभ सिव मंडक रणो ॥ चेतमपुद्गल बसाल इसका दूसरा नाम अध्यात्म घमाल भी है । यह भी एक रूपक काव्य है । कुल १३६ पद्म हैं। इसमें पुद्गलको संगतिसे होने वाली चेतन-विकृत परिणतिका अच्छा वर्णन किया है। चेतन और पुद्गल का बहुत ही रोचक संवाद आया है । कवि की कविताका नमूना निम्न प्रकार हैजिउ ससि मंडणू रयणिका दिनका मंउणु तिम चेतनका मंडणा, यहू पुद्गल तू X सुहु, जतनु करं तंबडी, तिव तिव X कोइ कलेवरु वसि जिउ जिउ वाचे X भाणु । जांणु ॥ X तिहि जाइ । अति करवाइ ॥ x X कायाकी निन्दा करइ, आपु न देखइ जोइ | जिउ जिउ भीजह कांवली, तिउ तिउ भारी होइ ।। " टंडाणागीत - यह उपदेशात्मक रचना है। इसका मुख्य उद्देश्य संसार के स्वरूपका चित्रण कर उसके दुःखोंसे उन्मुक्त करना है। यह मोही प्राणी अनादिकाल से स्वरूपको भूलकर परमें अपनी कल्पना करता आ रहा है । इसी कारण उसका परवस्तुओंसे अधिक राग हो गया है । कविने अन्तिम पदमें आत्माको सम्बोधन कर आत्मसिद्धि करनेका संकेत किया है। कविकी यह रचना बड़ी ही सरल और मनोहर है । भुवनको तिगीत - इसमें पाँच पद्य हैं, जिनमें भट्टारक भुवनकीतिके गुणोंकी प्रशंसा की गई है। भुवनकीति अट्ठाइस मूलगुण और १३ प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए मोहरूपी महाभटको लाइन करनेवाले थे । कविने इस कृति में इन्हीं गुणोंका वर्णन किया है। नेमिनाथ वसन्त - इसमें २३ पद्य हैं । वसन्त ऋतुका रोचक वर्णन करनेके १. अनेकान्द्र वर्ष १६, किरण ६, १९६४ फरवरी १० २५४ - २५६ । J २३२ : तीर्थंकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F i ! अनन्तर नेमिनाथका अकारण पशुओंको घिरा हुआ देखकर और सारथी से अतिथियोंके लिए वर्षकी बात सुनकर विरक्त हो रैवन्तगिरि पर जाना वर्णित है । राजमतीका विरह और उसका तपस्विनीके रूपमें आत्म-साधना करन्दा भी है वल्ह वियक्खणु सखीय बंषण | मूल संघ मुख मंडिया पद्मनंदि सुपसाइ, बहि बसंतु जु गावहि सो सखि रलिय कराइ ॥ नेमिनाथवारहमासा - १२ महीनोंमें राजोमतिने अपने उद्गारोंको व्यक्त किया है । चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आषाढ़ आदि मास अपनी विभिन्न प्रकारको विशेषताओं और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण राजीमतिको उद्वेलित करते हैं और वह नेमिनाथको सम्बोधित कर अपने भावोंको व्यक्त करती है। कृति सरस और मार्मिक है । कवि शाह ठाकुर कवि शाह ठाकुरने 'संतिणाहचरित' की प्रशस्ति में अपना परिचय दिया है । अपनी गुरुपरम्परामें बताया है कि भट्टारक पचनन्दिकी आम्नायमें होने वाले भट्टारक विशालकीर्तिके वे शिष्य थे। मूलसंघ नन्द्याम्नाय, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके विद्वान थे। कविने भट्टारक पद्मनन्दि, शुभचन्द्रदेव, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकीति, रत्नकीर्ति, भुवनकीति, विशालकीत्ति, लक्ष्मीचन्द्र, सहस्रकीर्ति, नेमिचन्द्र, आर्यिका अनन्तश्री और दामाडालोबाईका नामोल्लेख किया है । कविने यहाँ दो परम्पराके भट्टारकों का उल्लेख किया है-अजमेरपट्ट और आमेरपट | भट्टारक विशालकीर्ति अजमेर-शाखाके विद्वान थे और वे भट्टारक चन्द्रकीर्त्तिके पट्टधर थे । विशालकीति नामके अनेक विद्वान् हुए हैं। "सिरि पद्मनन्दि भट्टारकेण पढछु सुतासु सुभचन्ददेव । जिणचंद भट्टारक सुभगसेय । सिरि पहाचंद पापाटि सुमति । परिभणहु भट्टारक चंदकित्ति । तहू वारह किय सुकहा-बंधु । सुसहावकरण जणि जेम बंधु । आचारि रि हुउ रयणकिति । तहु सोसु भलो जग भुवणकिति । X X X X दिक्खा - सिक्खा-गुण-गद्दणसार । सिरिविशाल कत्ति विद्या- अपार | तहु सिखि हूवउ लक्ष्मी सुचंद भवि बोहण सोहण भुवर्णमधु । आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : २३३ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता सिस्नु सुभग जगि सहसकित्ति । नेमिचंद हुबो सासनि सुयत्ति । अज्जिका अन्नतिसिरि ले पदेसि । दाभाडालीवाई बिसेसि ।" कविके पितामहका नाम साह सोल्हा और पिताका नाम खेता था। जाति खंडेलवाल और गोत्र लोडिया था। यह लोवाइणिपुरके निवासी थे। इस नगरमें चन्द्रप्रभ नामका विशाल जिनालय था । इनके दो पुत्र थे-धर्मदास और गोविन्ददास । इनमें धर्मदास बहुत ही सुयोग्य और गृहभार वहन करने वाला था । उसको बुद्धि जैनधर्म में विशेष रस लेती थी। कवि देव-शास्त्र-गुरुका भक्त और विद्या-विनोदी था। विद्वानोंके प्रति उसका विशेष प्रेम था। कविने लिखा है "खंडेलवाल साल्हा पसंसि । लोहाडिउ खेत्तात्तणि सुसंसि । ठाकुरसी सुकवि णामेण साह, पंडितजन प्रीति वहई उछाह । तह पुत्त पयड जगि जसु मईय, मानिसालोय महि मंडलीय। गुरुयण सुभट गोविंददास, जिगम जुद्धिी धगदः । गंदहु लुवाणिपुर लोणविंद, गंदहु जिण सासण जगि जिणिदु। चंदप्पहु जिनमंदिर विशाल, गंदह पाति मंडल सामिसाल।" प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविका वंश राजमान्य रहा है। कविने विशालकीतिको अपना गुरु बताया है। पर विशालकीति नामके कई भट्टारक हए हैं । अतः यह निश्चय कर सकना कठिन है कि कौन विशालकोत्ति इनके गुरु थे। एक विशालकोत्ति वे हैं, जिनका उल्लेख भट्टारक शुभचन्द्रकी गुरुविलीमें ८०वें नम्बरपर आया है और जो वसन्तकोत्तिके शिष्य और शुभकात्तिके गरु थे। दसरे विशालकत्ति वे हैं, जो भटारक पद्मनन्दिके पट्टधर थे, जिनके द्वारा वि० सं० १४७०में मूर्तियों को प्रतिष्ठा हुई थी। तीसरे विशालकीत्ति वे हैं, जिनका उल्लेख नागौरफे भट्टारकोंकी नामावलीमें आया है, जो धर्मकीत्तिके पट्टधर थे, जिनका पट्टाभिषेक वि० सं० १६०१में हुआ था। 'महापुराणकलिका में भी कविने अपनेको विशालकीत्तिका शिष्य कहा है और नेमिचन्द्रका भी आदरपूर्वक स्मरण किया है। अतएव उपलब्ध सामग्रोके आधारपर इतना ही कहा जा सकता है कि कवि शाह ठाकूर खंडेलवाल वंशमें उत्पन्न हुए थे और इनके दादाका नाम सोहा और पिताका नाम खेत्ता था। इनके गुरुका नाम विशालकोत्ति था । स्थितिकाल कविको दो रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. संतिणावरित और २. महापुराणकलिका | संतिकारिउकी रचना वि० सं० १६५२ भाद्रपद शुक्ला पंचमोके २३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. . दिन चकत्ताशके जलालुद्दीन अकबर बादशाहके शासनकालमें पूर्ण हुई थी । उस समय ढूंढाहाल देशके कच्छपवंशी राजा मानसिंहका राज्य वर्तमान था। मानसिंहको राजधानी उस समय अम्बावती या आमेर थो।। __ कविकी दूसरी रचना वि० सं० १६५० में मानसिंहके शासनमें ही समाप्त हुई थी । अतएव कविका समय वि० सं० को १७वीं शताब्दी निर्णीत है | रचनाएँ कविको दो रचनाएं उपलब्ध हैं-संतिणाहरिउ और महापुराणकलिका। संतिणाहचरिउमें ५ सन्धियाँ हैं और १६वे तीर्थकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त वर्णित है। शान्तिनाथ कामदेव, चक्रवर्ती और तीर्थकर इन तीनों पदोंको अलंकृत करते थे। यह चरित ग्रन्थ वर्णनात्मक शेलोमं लिखा गया है । भाषा सरस और सरल है। महापुराणकालकामें २७ सन्धियों हैं, जिनमें ६३ शलाकापुरुषोंको गौरवगाथा गुम्फिस है। इसमें तीर्थंकर ऋषभदेवका चरित तो विस्तारके साथ अंकित किया गया है । भरत, बाहुबली, जयकुमार आदिके इतिवृत्त भी विस्तारपूर्वक दिये गये हैं 1 शेष महापुरुषोंके जीवनवृत्त संक्षेपमें ही आये हैं । २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और ९ प्रतिनारायणोंके नाम, जन्मग्राम, माता-पिता, राज्यकाल, तपश्चरण आदिका संक्षेपमें वर्णन आया है। इसप्रकार कविने अपने इस पुराणमें शलाकापुरुषोंका जीवनवृत्त निरूपित किया है। माणिक्यराज १६ वीं शताब्दीके अपभ्रंशकाव्य-निर्माताओंमें माणिक्य राजका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये बुहसूरा--(बुधसूरा) के पुत्र थे । जायस अथवा जयसवालकुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्य थे । इनकी माताका नाम दोवादेवी था। 'णायकुमारचरिउ'को प्रशस्तिमें कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है तहि णिवसइ पंडिउ सत्यखणि, सिरिजयसवालकुलकमलसरणि । इक्खाकुवंस-महियवलि-वरिट्ठ, बहसुरा-गंदणु सुयरिट्छु । उप्पण्णाउ दीया-उयरिखाणु, बुह माणिकुराये बुइहिमाणु | कवि माणिक्यराजने अमरसेन-चरितमें अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश करते हुए लिखा है आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तव-तेय-णियत्तण कियउ खीण, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीण । सिरिहेमकित्ति जि य उ वामु, तहुं पट्टवि कुमर वि सेण णाम् ।। जिग्गथु दयाल उ जइ वरिट , जि कहिउ जिगागमभेउ सुटु । तह पट्टि विठिउ बुहपहाणु, सिगिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु । तं पट्टि धुरंधर वयपाणु, वर पोमणंदि जो तवह खीणु । तं पणविवि णियगुरुसोलखाणि, णिग्गंथु दयालउ अभियवाणि ।' अर्थात् क्षेमकीत्ति, हेमकीत्ति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दि आचार्य हुए। प्रस्तुत पद्मनन्दि तपस्वी, शीलको खान, निथ, दयालु और अमृतवाणी थे। ये पचनन्दि ही माणिक्य राजके गुरु थे। ___ अमरसेनप्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें पसनन्दिके एक और शिष्यका उल्लेख आया है, जिसका नाम देवनन्दि है। ये देवनन्दि श्रावकको एकादश प्रतिमाओंके पालन करनेवाले राग-द्वेष-मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और उपशमभावी थे । इस ग्रन्थका प्रणयन रोहतकके पाश्वनाथ मन्दिर में हुआ है। कवि माणिक्यराज अपभ्रंशके लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं और इनका व्यक्तित्व सभी दृष्टियोंसे महनीय है। स्थितिकाल कविने अमरसेनचरितकी रचना वि० सं० १५७६ चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार और कृत्तिका नक्षत्र में पूर्ण की है। ग्रन्थको प्रशस्तिमें उबत रचनाकालका विवरण अंकित मिलता है "विक्कमरायहु ववगई कालई, लसु मुणीस विसर अंकालई । धरणि अंक सहु चइत विमाणे, सणिवारें सुय पंचमि-दिवसें । कित्तिय पक्खत्तै सुहाएँ, हुउ उप्पण्णउ सुत्तु सुहजोएँ ।" अमरसेनचरितके लिखनेके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १५७७ को लिखी हुई प्रति उपलब्ध है। यह प्रति कात्तिक कृष्णा चतुर्थी रविवारके दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ (सुनपत) नगरमें काष्ठासंघ माथु गन्वय पुष्करगणके भट्टारक गुणभद्रको आम्भायमं उक्त नगरके निवासी अग्रवालवशोय भोयल गोत्री साहू छल्हूके पुत्र साहू घाटूके द्वारा लिखी गई। दूसरी रचना नागकुमारचरितका प्रणयन विक्रम संवत् १५७९ में फाल्गुण शुक्ला नवमीके दिन हुआ है। इस ग्रन्थम साहू जगसीके पुत्र साहूटोडरमलकी बहुत प्रशंसा की गई है। उसे कर्ण के समान दानी, विद्वज्जनोंका २३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पोषक, रूप-लावप्यसे युक्त और विवेकी बताया है। नागकुमारचरितको रचनेको प्रेरणा कविको इन्हीं टोडरमलसे प्राप्त हुई थी। अत: इस रचनाको पूर्णकर जब साह टोडरमलके हाथमें इसे दिया गया, तो उसने इसे अपने सिरपर चढ़ापा और कवि माणिकराजका खूब सरकार किया ] और उसे वस्त्राभूषण भेंट किये। उपर्युक्त ग्रन्थरचना-कालोंसे यह स्पष्ट है कि कविका समय वि० को १६ वीं शती है। रचनाएं ___ अमरसेन चरित-इस चरित-ग्रन्थ में मुनि अमरसेनका जोवनवृत्त अंकित है। कथावस्तु ७ सन्धियोंमें विभक्त है। ग्रन्थको पाण्डुलिपि आमेर-शास्त्र. भण्डार जयपुरमें उपलब्ध है। दूसरी कृति नागकुमारचरित है । इसमें पुण्यपुरुष नागकुमारकी कथा वर्णित है। कथावस्तु ९ सन्धियों में विभक्त है तथा ग्रंथप्रमाण ३३०० श्लोक है । माणिक्यराजने अमरसेनचार नामक काव्यमें ग्वालियर नगरका वर्णन किया है। इस वर्णनका अनुसरण महाकवि रइधूके ग्वालियरनगर-वर्णनसे किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ रध विरचित पासणाहचरिउ और अमर. सेनचरिउकी पंक्तियाँ तुलनाहेतु प्रस्तुत की जा रही हैं महिनीढि पहाण णं गिरिरणउँ, सुरह वि मणि विभउ जणिउँ । कड़सीसहि मंडिज णं इहु पंडिउ, गोपायलु णामें मणिउँ । -रइधूकृत पासणाहचरिउ शरा१५-१६ महोबीढि पहाणउँ गुण-बरिढु, सुरहँ वि मणि विमर जणइ सुठु । वरतिण्णिसालमंडिउ पवितु, गंदह पंडिउ सुरपारपत्तु ।। -अमरसेनरिउ १।३१-१८ कवि माणिकराजकी भाषा-शैली पुष्ट है तथा चरित-काव्योचित सभी गण पाये जाते हैं। कवि माणिकचन्द डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भरसपुरके जैनशास्त्र भण्डारसे कवि माणिकचन्दको 'सत्तवसणकहा' को प्रति प्राप्त की हैं। इस कथाग्रन्यके रचयिता १. भविसयत्तकहा तथा अपभ्र धाकधाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पु० ३२६ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३७ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसवालकुलोत्पन्न कवि माणिकचन्द हैं। इस कथाकी रचना टोडरसाहूके पुत्र ऋषभदासके हेतु हुई है। कवि मलयकोत्ति भट्टारकके वंशमें उत्पन्न हुया था । ये मलयकीति यश कीत्तिके पट्टघर थे । ___ ग्रंथका रचनाकाल वि० सं० १६३४ है।' अतः कविका समय १७वीं शती निश्चित है। 'सत्तवसणकहा-इसमें सप्तव्यसनोंको सात कथाएं निबद्ध हैं । कथा ग्रंथ सात सन्धियोंमें विभक्त है | यह प्रबन्ध शैलीमें लिखा गया है। कथामें वस्तुवर्णनोंका आधिक्य नहीं है । कथा सीधे और सरल रूपमें चलती है। संवादयोजना बड़ी मधुर है। भाषा सरल और स्पष्ट है । युद्ध-वर्णन विस्तृत रूपमै मिलता है । यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं सा उहय वालहि संगामु जाउ, भड भडहि रहहु भिडिउ ताउ । गउ गहि पुणु हल हयहि वग, खण खण करत करिवार अग्गु । वरहि समरंगण वाणपति, णावइ धाराहर धणहु जुत्ति । रणभूमें भउहिम भडु णिरुद्ध, गउ गयहि तुरिउ तुरएहि कुद्ध । (७.२४) इस कथाकाव्यमें कृष्ण और जरासंघका युद्ध, नेमीश्वरका विवाह द्यूतक्रीड़ा आदिका वर्णन आया है। इन वर्णनोंसे यह स्पष्ट है कि यह एक कथा काव्यात्मक संग्रह है, जिसमें ७ व्यसनोंफी कथाएं अलग-अलग काव्यात्मक रूपमें लिखी गई हैं। इसमें लोकोक्तियों और देशी शब्दोंकी भी प्रचुरता है। भगवतीदास भगवतीदास भट्टारक गणचन्द्र के पट्टधर भट्टारक सकलचन्द्रके प्रशिष्य और महीन्द्रसेनके शिष्य थे। महीन्द्रसेन दिल्लीकी भट्टारकीय गद्दोके पट्टधर थे। पंडित भगवतीदासने अपने गरु महीन्द्रसेनका बड़े आदरके साथ स्मरण किया है । यह बढ़िया, जिला अम्बालाके निवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र बंसल था। कहा जाता है कि चतुर्थ वयमें इन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया था। कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाके अच्छे कवि और विद्वान थे। ये बढ़ियासे योगिनीपुर (दिल्ली। आकर बस गये थे। उस समय दिल्लीमें अकबर बादशाहके पुत्र जहाँगीरका राज्य था। दिल्लोके मोतीबाजार१, अह सोलह सह चउतीस एण, चइतहु उज्जल-पपखें सुहेण । आइववार तिहि पंचमीहि, इहु गंधू समरण हउ विहीहि । ७-३२। २३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 1 में भगवान् पार्श्वनाथका मन्दिर था । इसी मंदिर में आकर भगवसीदास निवास करते थे । स्थितिकाल afar अपनी अधिकांश रचनाएं जगीरके राज्यकाल में लिखी है। जहांगीरका राज्य ई० सन् १६०५ - १६२८ ई० तक रहा है । अवशिष्ट रचनाएँ शाहजहांके राज्य में ई० सन् १६२८ - १६५८ में लिखी गई हैं। कतिपय रचनाओं में कचिने उनके लेखनकालका उल्लेख किया है । 'चूनड़ी' रचना वि० सं० १६८० में समाप्त हुई है । अन्य १९ रचनाएँ भी संभवतः सं० १६८० या इसके पूर्व लिखी जा चुकी थीं। 'बृहत् सीता सतु' की रचना वि० सं० १६८४ और 'लघु सीतासतु' को रचना वि० सं० १६८७में की है । कविने अपभ्रंश भाषाका 'मृगांकलेखाचरित' वि० सं० १७०० मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी सोमवारके दिन पूरा किया है। लिखा है सगदह संवदतीह तहा, विक्कमराय महप्पए । अगण - सिय पंचमि सोम-दिणे, पुण्ण ठियउ अवियप्पए । अतएव कवि भगवतीदासका समय १७वीं शतीका उत्तरार्द्ध और अठारहवीं शतीका पूर्वा सुनिश्चित है। कविको सभी रचनाएं १७वीं शतीमें सम्पन्न हुई हैं । Re कवि पं० भगवतीदासने अप्रभ्रंश और हिंदी में प्रचुर परिमाणमें रचनाए लिखी है । उनकी उपलब्ध रचनाओंका उल्लेख निम्न प्रकार है १. ढंडणारास — यह रूपक काव्य है। इसमें बसाया गया है कि एक चतुर प्राणी अपने-अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी बन गया और मोह - मिथ्यात्वमें पड़कर निरन्तर परवश हुआ चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता है । अतः कवि सम्बोधन करता हुआ कहता है धर्म- सुकल घरि ध्यानु अनूपम, लहि निजु केवलनाणा वे । जंम्पति दास भगवती पावहू, सासउ सुहू निव्वाणा दे ।। २. आदित्यरास — इसमें बीस पद्य हैं । ३. पखवाडारास — २२ पद्य हैं । पन्द्रह तिथियोंमें विधेय कर्त्तव्यपर प्रकाश डाला गया है । ४. दशलक्षणरास – ३४ पद्य हैं और उत्तमक्षमादि दश धर्मोका स्वरूप बतलाया गया है । दश धर्मीको अवगत करने के लिए यह रचना उपादेय है । ५. खिण्डी रास - ४० पद्य हैं। इसमें भावनाओंको उदात्त बनाने पर जोर दिया है। आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३९ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. समाधिरास- इसमें साधु-समाधिका चित्रण आया है। ७. जोगाराम-३८ पद्य हैं । भ्रमवश सांसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको भ्रम त्याग अतान्द्रिय सुख-प्राप्तिके हेतु प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत किया है। पेरबहु हो तुम पेरवह भाई, जोगी जगमहि सोई । घट-घट-अन्तरि वसई चिदानंदु, अलखु न लखिए कोई ।। भववन भूल रह्यो भ्रमिरावल, सिवपुर-सुघ विसराई । परम अतीन्द्रिय शिव-सुख तजिकर, विषयनि रहिउ भुलाई ॥ ८. मनकरहाराम-२५ पद्य हैं। इस रूपक काव्यमें मनकरहाके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने और जन्म-मरणके असह्य दू:ख उठानेका वर्णन किया है और बताया है कि रत्नत्रय द्वारा ही जीव जन्म-मरणके दुःखोंसे मुक्त हो शिवपुरी प्राप्त करता है । रूपकको पूर्णतया स्पष्ट किया गया है। ९. रोहित -४ पर हैं : १०. चतुर बनजारा---३५ पद्य हैं । यह भी रूपक काव्य है। ११. द्वादशानुप्रक्षा...१२ पद्योंमें द्वादश भावनाओंका निरूपण किया है। १२. सुगन्धदशमीकथा-५१ पद्योंमें सुगन्धदशमोग्रतके पालन करनेका फल निरूपित किया गया है। १३. आदित्यवारकथा-रविवारके व्रतानुष्ठानकी रचना की गयो है। १४. अनथमोकथा--२६ पद्योंमें रात्रिभोजनके दोषोंपर प्रकाश डाला गया है और उसके त्यागकी महत्ता बतलाई है । १५. 'चनड़ी' अथवा 'मतिरमणीको चुनड़ी' यह रूपक काव्य है। १६. वीरजिनिन्दगीत-तीर्थंकर महावीरको स्तुति वणित है। १७. राजमती-नेमिसुर-ढमाल-इसमें राजमति और नेमकुमारके जीवनको अंकित किया गया है। १८. लघुसोतासतु-इसमें सीताके सतीत्वका चित्रण किया गया है । बारह महीनोंके मन्दोदरी-सोताके प्रश्नोत्तरके रूपमें भावोंकी अभिव्यक्ति हुई है। भाषाढ़ मासके प्रश्नोत्तरको उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है मंदोदरी तब बोलइ मंदोदरी रानी, सखि अषाढ़ घनघट घहरानी। पोय गए तो फिर घर आवा, पामर नर नित मन्दिर छावा । लवहिं पपोहे दादुर मोरा, हियरा उमग परत नहिं धीरा। बादर उमहि रहे चौपासा, तिय पिय विनु लिहिं उसन उसासा । सीता २४० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरफि जाइ तिउ हइ संतापू । जिउ मघुविंदु तनूसुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये। १९. अनेकार्य नाममाला-यह कोषग्रन्थ है। इसमें एक शकरके अनेकानेक अोंका दोहोंमें संग्रह किया है। इसमें तीन अध्याय है और प्रथम अध्यायमें ६३, द्वितीयमें १२२ और तृतीयमें ७१ दोहे लिखित हैं। यह वनारसीदासको नाममालासे १७ वर्ष बादकी रचना है। २०. मृगांकलेखाचरित-इस ग्रन्थमें चन्द्रलेखा और सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके शोलवतका महत्त्व प्रदर्शित किया गया है । चन्द्रलेखा नाना प्रकारको विपत्तियोंको सहन करते हुए भी अपने शीलवतसे च्युत नहीं होती। इस ग्रन्थकी कथावस्तु चार सन्धियोंमें विभक्त है । इस अपभ्रंश-काव्यमें काव्यतत्त्वोंका पूर्णतया समावेश हुआ है । कवि चन्द्रलेखाका वर्णन करता हुआ कहता है सुहलाग जोइ वर सुह परवत्ति, सुउवण कण्ण णं काम त्ति । कम पाणि कवल सुसुवग्ण देह, तिहं गांउ धरिउ सुमइंक लेह । कमि कमि सुपवढइ सांगुणाल, दिग मिग ससियत्तु मराल बाल | रूव रइ दासि व णियडि तासु, किं वपणाम अमरी खरि जासु । लछी सुविलछो सोह दित्ति, तिहं तुल्लि ण छज्जह बुद्धि कित्ति । -मृगांक ११३ चन्द्रलेखाकी आंखें मृगकी आँखोंके समान, वक्त्र चंद्रके समान और चाल हंसके समान थो । उसके निकट रति दासोके समान प्रतीत होती थी, अतः इस स्थितिमें अमरांगना या विद्याधारी उसकी समता कैसे कर सकती थी ? ___ग्रन्थको भाषा खिचड़ो है। पद्धड़ोबन्धमें अपभ्रंश, दोहा-मोरठा आदिमें हिन्दी और गाथाओंमें प्राकृतभाषाका प्रयोग किया है। इस प्रकार भगवतीदासने अपभ्रंश और हिन्दीमें काव्य-रचनाएं लिखकर जिनवाणीको समृद्धि को है। अपभ्रंशके अन्य चर्चित कवि अपभ्रंश-साहित्यकी समृद्धिमें अनेक कवि और लेखकोंने योगदान दिया है। इन कवियों द्वारा विरचित अधिकांश रचनाएँ अप्रकाशित हैं। अतः उनका यथार्थ मूल्यांकन तब तक संभव नहीं है, जबतक रचनाएं मुद्रित होकर सामने न आ जायें। अपभ्रशमें ऐसे और कई कवि और लेखक हैं जिन्होंने आचार्यतुल्य काष्यकार एवं लेखक : २४१ --- Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाधिक रचनाएँ लिखी हैं। हम यहाँ कतिपय ऐसे कवियोंका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे, जिन्होंने कई दृष्टियोंसे अपभ्रंश-साहित्यके विकासमें अपनी शक्ति और समयका व्यय किया है। कवि ब्रमसाधारण इन्होंने कई कथानन्थोंकी रचना की है। इनने अपनी रचनाओंमें न तो अपना परिचय ही अंकित किया है और न रचनाकाल ही । कुन्दकुन्द-आम्नायमें रत्नकोत्ति, प्रभाचन्द्र, पधनन्दि, हरिभूषण, नरेन्द्रकोत्ति, विधानन्दि और ब्रह्मसाधारणके नाम प्राप्त होते हैं। ब्रह्मसाधारण भट्टारक नरेन्द्रकोत्तिके शिष्य थे | ब्रह्मसाधारणने प्रत्येक ग्रंथके पुष्पिकावाक्यमें अपने को नरेन्द्रकीतिका शिष्य कहा है। इनके कयाग्रंथोंको प्रतिलिपि वि० सं० १५०८ को लिखी हुई प्राप्त है । अतएव इनका समय वि० सं० १५०८के पूर्व निश्चित है। गुरुपरम्परासे भी इनका समय वि० को १५वीं शती सिद्ध होता है । इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त हैं १. कोइलपंचमीकहा, २. मउडसत्तमीकहा, ३. रविवयकहा, ४, तियालचक्रवीसीकहा, ५. कुसुमंजलिकता. ६. निसिसत्तमीनयकहा, ७. णिज्झरपंचमीकहा और ८. अणुपेहा । कवि देवनन्दि इनने भी कथा-ग्रन्थोंको रचना कर अपभ्रश-साहित्यको श्रीवृद्धिमें योगदान दिया है। ये देवनन्दि पूज्यपाद-देवनन्दिसे भिन्न हैं और उनके पश्चात्वर्ती हैं। इनका 'रोहिणीविहाणकहा' नामक ग्रन्थ उपलब्ध है। रचनाकी शैलीके आधारपर कविका समय १५वीं शती माना जा सकता है । कवि अल्हू इन्होंने 'अणुवेक्खा' नामक ग्रंथ की रचना कर संसारको असारत्ता, अशुचिता, अनित्यता आदिका स्वरूप प्रस्तुत किया है । आत्मोत्थानके लिए अणुवेक्खाका अध्ययन उपयोगी है। रचनाकी भाषा और शैलीसे कविका समय १६वीं शती प्रतीत होता है। जन्हिगले इन्होंने 'अनुपेहारास' नामक उपदेशप्रद अन्ध लिखा है। इसमें अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अनेकत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, बोधदुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओंका स्वरूपाङ्कन किया है। कविके सम्बन्धमें कुछ २४२ : भार महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। अनुमानतः कविका समय वि• की १५वों शताब्दी प्रतीत होता है। पं० योगदेव पं० योगदेवने कुम्भनगरके मुनिसुव्रतनाथचैत्यालयमें बैठकर 'बारस अणुवेक्खारास' नामक ग्रंयकी रचना की है । यह ग्रंथ भी १५वीं-१६वीं शताब्दीका प्रतीत होता है। कवि लक्ष्मीचन्द लक्ष्मीचन्दने 'अणुवेक्खा-दोहा'की रचना की है । इसमें ४७ दोहे हैं। सभी दोहे शिक्षाप्रद और आत्मोद्बोधक है। कवि नेमिचन्द नेमिचन्द भी १५वीं शतीके प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने 'रविव्रतकथा', 'अनन्तव्रत कथा' आदि ग्रंथोंकी रचना की है। कवि देवदत वि० सं० १०५०के लगभग हुए कवि देववत्तका नाम भी अपभ्रंशके रायताओंमें मिलता है। देवदत्तने वरांगचरिउ, शान्तिनाथपुराण और अम्बादेवी रासकी रचना की है। तारणस्वामी तारणस्वामी बालब्रह्मचारी थे । आरम्भसे ही उन्हें घरसे उदासीनता और आत्मकल्याणकी रुचि रही। कुन्दकुन्दके समयसार, पूज्यपादके इष्टयोपदेश और समाधिशतक तथा योगीन्दुके परमात्मप्रकाश और योगसारका उनपर प्रभाव लक्षित होता है। संवेगी-श्रावक रहते हुए भी अध्यात्म-शानकी भूख और उसके प्रसारकी लगन उनमें दृष्टिगोचर होती है। तारणस्वामीका जन्म अगहन सुदी ७, विक्रम संवत् १५०५ में पुष्पावती (कटनी, मध्यप्रदेश) में हुआ था। पिताका नाम गढ़ासाहू और मासाका नाम वीरश्री था । ज्येष्ठ वदो ६, विक्रम संवत् १५७२ में शरीरत्याग हुआ था। ६७ वर्षके यशस्वी दीर्घ जीवन में इन्होने ज्ञान-प्रचारके साथ १४ ग्रन्थोंकी रचना भी को है। ये सभी ग्रन्थ आध्यात्मिक हैं, जिन्हें तारण-अध्यात्मवाणोके नामसे जाना जाता है। वे १४ ग्रन्थ निम्न प्रकार है-- १. मालारोहण-इसमें 'ओम' के स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो इस 'ओम्' का ध्यान करते हैं उन्हें परमात्मपदको प्राप्ति तथा अक्षयानन्दकी प्राप्ति होती है । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २४३ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पण्डितपूजा-आत्माके अस्तित्व आदिका कथन करते हुए इसमें आत्मदेवदर्शन, निय-गुरु-सेवा, जिनवाणीका स्वाध्याय. इन्द्रिय-दमन आदि क्रियाओंको आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका साधन बताया है। सम्यग्दृष्टि ही आस्तिक होता है और आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी एवं परमपदका स्वामी होता है। नास्तिकको संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, इत्यादिका सुन्दर विवेचन इसमें है। ३. कमलयसीसी-इसमें जीवनको केचा उठाने के लिए आठ बातोंका निर्देश है-१. चिन्तारहित जीवन-यापन, २.सुखी और प्रसन्न रहना, ३. संसारको रंगमंच समझना, ४, मनको स्वच्छ रखना, ५. अच्छे कार्यों में प्रमाद न करना, सहनशील बनना और परोपकारमें निरत रहना, ६. आडम्बर और विलासतासे दूर रहना, ७. कर्त्तव्यका पालन तथा ८. निर्भय रहना । ४. श्रावकाचार-इसमें श्रायकके पांच अणुव्रत, तीन गुणप्रप्त और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतोंके पालनपर बल देते हए बारह अव्रत (५. मिथ्याभाव, ३. मूढ़ता और ४. कषायभाव)के त्यागका उपदेश दिया गया है। ५. शानसमुच्चयसार- इसमें जानके महत्त्वका कथन किया है। ६. उपदेशशुद्धसार-आत्माको परमात्मा स्वरूप समझकर उसे शुद्ध-बुद्ध बनाने के लिए सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्रको अपनानेका उपदेश है। ७. त्रिभंगीसार-इसमें कर्मास्रवके कारण तीन मिथ्याभावों और उनके निरोधक कारणोंको बताते हुए आयुबन्धकी विभागीका कथन किया है । ८. चौबोसठाना-- इसमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १८ विधियोंसे जीवोंके भावों द्वारा उनकी उन्नति-अवनत्तिको दिखाया गया है । ९. ममलपाहई-इसमें १६४ भजनों के माध्यमसे ३२०० गाथाओंमें निश्चयनयको अपेक्षासे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिका विवेचन है । १०. खातिकाविशेष-किन-किन अशुभ भावनाओंसे जीव निम्न गतियोंको प्राप्त होता है, इसका इसमें कथन है। ११. सिद्धिस्वभाव-इसमें किन शुभ भावोंसे आत्मा उन्नति करता और सम्यक्त्वके उन्मुख होता है, इसका निरूपण है। १२. सुग्नस्वभाव--ध्यानयोगके द्वारा राग-द्वेषके विकल्पोंकी शून्यता हो आत्मस्वरूपको उपलब्धिका परम साधन है, इसका प्रतिपादन है । १३. छब्रस्थवाणी-इसमें अनन्तचतुष्टय और रत्नत्रययुक्त आत्मा ही उपादेय और गेय है तथा मिथ्याभावादिसे युक्त आत्मा हेय है । उपादेय २४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा महावीरके समान वीतराग-सर्वत्र है और हेय आत्मा छद्भस्थके समान रागो-अज्ञानी है, इसका विशद वर्णन है। १४. नाममाला-तारणस्वामीका यह अन्तिम ग्रन्थ है । इसमें उनके उपदेशके पात्र सभी भव्यात्माओंको नामावली है और बताया गया है कि उनके उपदेशके लिए जाति, पद, भाषा, देश या धर्म की रेखाएं बाधक नहीं थी-सब उनके उपदेशसे लाभ उठाते थे । ___ स्वामोजीके मुख्य तीन केन्द्र हैं-~१. ज्ञान-साधना, २. ज्ञान-प्रचार और समाधिस्थल । श्री सेमरखेड़ो (सिरोंज से ६ मील दूर) जिला विदिशामें आपने ज्ञानर्जन किया था। वहाँ एक चेस्यालय, धर्मशाला और शास्त्रमण्डार है। बसन्त पंचमीपर बार्षिक मेला भरता है। श्रोनिसईजी (रेलवे स्टेशन परिया, जिला दमोहसे ११ मौलपर स्थित)में अपने प्राप्त ज्ञानका प्रचार-प्रसार किया था ! यहाँ भी विशाल चैत्यालय, धर्मशाला और शास्त्रभण्डार है। अगहन सुदी ७ को प्रतिवर्ष सामाजिक मेला लगता है। श्री मल्हारगढ़ (रेलवे स्टेशन मुंगवली, जिला गुनासे ९ मोलकी दूरीपर स्थित)में वेतवा नदीके सटपर स्वामीजीने उक्त ग्रन्थोंका प्रणयन किया और यहीं समाधिपूर्वक देहत्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि तारणस्वामी १६वीं शतीके लोकोपकारी और अध्यात्म-प्रचारक सन्त हैं । इनके ग्रन्थोंको भाषा उस समयको बोलवालको भाषा जान पड़ती है, जो अपशकी कोटिमें रखी जा सकती है। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत और तत्कालीन बोलोके शब्दोंसे ही उनके ये ग्रन्थ सृजित हैं। इसप्रकार अपभ्रंश-साहित्यको विकासोन्मुख साहित्य-धारा ६वीं शतीके आरंभ होकर १७वीं शती तक अनवरत रूपसे चलतो रही । इन कवियोंने मध्यकालीन लोक-संस्कृति, साहित्य, उपासनापद्धति एवं उस समय में प्रचलित आचार-शास्त्रपर प्रकाश डाला है। अपभ्रंश कवियोंने तीर्थकर महाबीरकी उत्तरकालीन परम्पराका सम्यक निर्वाह किया है। पुराण, आचार-शास्त्र, प्रतविधान आदिपर सैकड़ों ग्रन्थोंको उन्होंने रचना की है । आचार्यतुल्य काध्यकार एवं लेखक : २४५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद हिन्दी कवि और लेखक संस्कृत, प्राकृत और और अपभ्रंशके समान ही जैन कवि और लेखकोंने हिन्दी भाषा में भी अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन किया । अपभ्रंश और पुरानी हिन्दीके जैन कवियोंने लोकप्रचलित कथाओं को लेकर उनमें स्वेच्छानुसार परिवर्तन कर सुन्दर काव्य लिखे । मध्यकालके प्रारम्भमें समाज और धर्म संकीर्ण हो रहे थे । अतः जैन लेखकोंने अपने पुरातन कथानकों और लोकप्रिय परिचित कथानकोंमें जैन धर्मका पुट देकर अपने सिद्धान्तोंके अनुकूल हिन्दी भाषा में काव्य लिखे । बाहरी बेशभूषा, पाखण्ड आदिका, जिनसे समाज विकृत होता जा रहा था, बड़ी ही ओजस्वी वाणी में हिन्दीके जैन कवियोंने निराकरण किया । अपभ्रंशसाहित्यकी विभिन विधाओंने सामान्यतः हिन्दी साहित्यको प्रभावित किया था । अत: जैन कवि व्रज और राजस्थानी में प्रबन्ध-काव्य और मुक्तक-काव्योंकी रचना करनेमें संलग्न रहे । इतना ही नहीं, जैन कवि मानव जीवनकी विभिन्न समस्याओं २४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समाधान करते हुए काव्य-रचनामें प्रवृत्त रहे। धर्मविशेषके कवियों द्वारा लिखा जानेपर भी जनसामान्यके लिए भी यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है। इसमें सुन्दर आत्म-पीयूष रस छलछलाता है और मानवको उन भावना और अनुभूतियोंको अभिव्यक्ति प्रदान की गई है, जो समाजके लिए संबल हैं और जिनके आधारपर ही समाजका संगठन, संशोधन और संस्करण होता है । स्वातन्त्र्य या स्वावलम्बनका पाठ पढ़ानेके लिए आत्माको उन शक्तियोंका विवेचन किया गया है, जिनके आधारपर समाजवादी मनोवृतिका विकास किया जाता है । आध्यात्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टियोंसे समाजवादी विचारधाराको स्थान दिया गया है। स्याद्वाद-सिवान्त द्वारा उदारता और सहिष्णुताको शिक्षा दी गई है। आरंभमें जैन कलाकारोंने लोकभाषा हिन्दोको ग्रहनकर जीवनका चिरन्तन सत्य, मानव-कल्याणकी प्रेरणा एवं सौन्दर्यको अनुभूतिको अनुपम रूपमें अभिव्यक्ति प्रदान की है। आत्मशुद्धिके लिए पुरुषार्थ अत्यावश्यक है । इसोके द्वारा राग-द्वेषको हटाया जा सकता है। यह पुरुषार्थ प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है ! प्रवृत्तिमार्ग कर्मबन्धका कारण है और निवृत्तिमार्ग अबन्धका । यदि प्रवृत्ति. मार्गको घूमघूमावदार गोलघर माना जाये, जिसमें कुछ समयके पश्चात् गमन स्थानपर इधर-उधर दौड़ लगाने के अनन्तर पुन: आ जाना पड़ता है, तो निवृत्ति. मार्गको पक्की, सीधी, कंकड़ीली सीमेण्टकी सड़क कहा जा सकता है, जिसमें गन्तव्य स्थानपर पहुंचना सुनिश्चित है। पर गमन करना कष्टसाध्य है । हिन्दी के जैन कवियोंने दोनों ही मार्गोका निरूपण अपने काव्योंमें किया, पर उपादेय निवृत्तिको ही माना है। अहिंसा, अपरिग्रह और स्याद्वादके सिद्धान्तने आध्यात्मिक समानताके साथ आर्थिक समानताको भी प्रस्तुत किया है। १७वीं शतीसे अद्यावधि जैन कवि और लेखक हिन्दी-भाषामें विभिन्न प्रकारके काव्य ग्रन्थोंका निर्माण करते चले आ रहे हैं । इन लेखकोंकी रचनाएँ मानवको जड़तासे चैतन्यकी ओर, शरीरसे आत्माको ओर, रूपसे भावकी ओर, संग्रहसे त्यागको ओर एवं स्वार्थसे सेवाको ओर ले जाने में समर्थ हैं। जब तक जोवनमें राग-द्वेषकी स्थिति बनी रहती है, तब तक त्याग और संयमको प्रवृत्ति आ नहीं सकती। राग और द्वेष हो विभिन्न आश्रय और अवलम्बन पाकर अगणित भावनाओंके रूपमें परियत्तित हो जाते हैं। जीवनके व्यवहारक्षेत्रमें व्यक्तिको विशिष्टता, समानता एवं होनताके आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २४४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार उक्त दोनों भावों में मौलिक परिवर्तन होता है । साधु और गुणवानके प्रति राग सम्मान हो जाता है। यही सम्मानके प्रति प्रेम एवं हीनके प्रति करुणा बन जाता है। मानव रागभावके कारण हो अपनी अभोष्ट इच्छाओंकी प्रत्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और बड़ा समझ कर दूसरोंका तिरस्कार करता है । दूसरोंकी धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य देखकर हृदयमें ईर्ष्याभाव उत्पन्न करता है तथा सुन्दर रमणियोंके अवलोकनसे काम-तुष्णा उसके हृदयमें जागृत हो जाती है। अतएव यह स्पष्ट है कि संसारके दुःखोंका मूल कारण राग-द्वेष हैं। इन्हींकी अधीनताके कारण सभी प्रकारकी विषमताएं समाज में उत्पन्न होती हैं। अतएव हिन्दीके जैन कवियोंने मानवके अन्तर्जगतके रहस्य के साथ बाह्यरूपमें होनेवाले संघर्षों, उलट-फेरों एवं पारस्परिक कलह या अन्य झगड़ोंका काव्योंके द्वारा उद्घाटन किया है । __हिन्दीके शताधिक अनकवि हुए है । पर उन सबको इतिवृत्त प्रस्तुत कर सकना संभव नहीं है । अतः प्रतिनिधिकवि और लेखकोंके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालना समोचीन होगा। यह सत्य है कि जैन लेखकोंने जैनदर्शनके सिद्धान्तोंको अपने काव्योंमें स्थान दिया है; पर रस-परिपाक, मानवीय प्रवृत्ति, आर्थिक संघर्ष, जातिवादके अहंकार आदिकी सूक्ष्म व्यंजना की है। महाकवि बनारसीदास बीहोलिया वंशको परम्परामें श्रीमाल-जातिके अन्तर्गत बनारसीदासका एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में जन्म हुआ। इनके प्रपितामह जिनदासका 'साका' चलता था। पितामह मलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे। और ये नरवर (मालवा)में वहाँके मुसलमान-नबाबके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह पिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जोहरी थे। पिता खड़गसेन कुछ दिनों तक बंगालके सुल्तान मोदीखोके पोतदार थे। और कुछ दिनोंक उपरान्त जोनपुरमें जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वंश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी धनी थे। खड्गसेनको बहुत दिनों तक सन्तानको प्राप्ति नहीं हुई थी और जो सन्तानलाभ हुआ भी, वह असमयमें ही स्वर्गस्थ हो गया। अतएव पुत्र-कामनासे प्रेरित हो खड्गसेनने रोहतकपुरकी सतीकी यात्रा की । बनारसीदासका जन्म वि० सं० १६४३ माघ, शुक्ला एकादशी रविवारको २४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणी नक्षत्र में हुआ और बालकका नाम विक्रमाजीत रखा गया । खड्गसेन बालकके जन्मके छः-सात महीने के पश्चात् पार्श्वनाथ की यात्रा करने काशी गये । बड़े भक्तिभावसे पूजन किया और बालकको भगवत् - चरणोंमें रख दिया तथा उसके दीर्घायुष्मकी प्रार्थना की । मन्दिर के पुजारीने मायाचार कर खड्गसेन से कहा कि तुम्हारी प्रार्थना पार्श्वनाथके यक्षने स्वीकार कर ली है । तुम्हारा पुत्र दीर्घायुष्क होगा। अब तुम उसका नाम बनारसीदास रख दो। उसी दिनसे विक्रमाजीतनाम परिवर्तित हो बनारसोदास हो गया । पाँच वर्षकी अवस्थामें बनारसीदासको संग्रहणी रोग हो गया और यह डेढ़-दो वर्षों तक चलता रहा । बीमारीसे मुक्त होकर बनारसीदासने विद्याध्ययन के लिए गुरु चरणोंका आश्रय ग्रहण किया । नव वर्षको अवस्था में इनकी सगाई हो गई और इसके दो वर्ष पश्चात् सं० १६५४ में विवाह हो गया । बनारसीदासका अध्ययनक्रम टूटने लगा। फिर भी उन्होंने विद्याप्राप्ति के योगको विसी तरह बनाये रखनेका प्रयास किया । १४ वर्षको अवस्था में उन्होंने पं० देवीदाससे विद्याध्ययनका संयोग प्राप्त किया । पंडितजीसे अनेकार्थनाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार तथा कोकशास्त्र आदिका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने अध्यात्म के प्रखर पडित मुनि भानुचन्द्रसे भो विविध शास्त्रोंका अध्ययन आरंभ किया। पंचसंधि, कोप, छन्द, स्तवन, सामायिकपाठ आदिका अच्छा अभ्यास किया । बनारसीदासकी उक्त शिक्षा से यह स्पष्ट है कि वे बहुत उच्चकोटिको शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके थे । पर उनकी प्रतिभा इतनी प्रखर थी, जिससे वे संस्कृतके बड़े-बड़े ग्रंथों को समझ लेते थे । १४ वर्षको अवस्था में प्रवेश करते हो कविको कामुकता जाग उठी और वह ऐयाशी करने लगा | अपने अर्द्धकथानकमें स्वयं कविने लिखा है " तजि कुल-आन लोककी लाज भयो बनारस आसिखबाज || १७० || करे आसिखी धरत न घोर, दरदबंद ज्यों सेख फकीर । इक-टक देख ध्यान सो धरे, पिता आपनेको धन हरे ||१७१ ॥ चोर चूनी मानिक मनी, आने पान मिठाई धनी । मेजं पेसकसी हितपास, आप गरीब कहावे दास ॥ १७२॥ माता-पिता की दृष्टि बचाकर मांग, रत्न तथा रुपये चुराकर स्वयं उड़ानाखाना और अधिकांश प्रेम-पात्रों में वितरित करनेका एक लम्बा क्रम बंध गया । मुनि भानुचन्द्र ने भी इन्हें समझानेका बहुत प्रयास किया, पर सब व्यर्थ हुआ afat इसी अवस्था में एक हजार दोहा चौपाईप्रमाण नवरसको कविता लिखी आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २४९ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, जिसे पीछे बोध आनेपर गोमतीमें प्रवाहित कर दिया। १५ वर्ष १० महोना की अवस्थामें कवि सजधज अपनी ससुराल खैरावातसे पत्नीका द्विरागमग कराने गया । ससुराल में एक माह रहने के उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशुभोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया। विवाहिता भार्या और सासुके अतिरिक्त सबने साथ छोड़ दिया । वहाँके एक नाईको चिकित्सासे कविको कुष्ठ रोगसे मुक्ति मिली। कविके पिता खड्गसेन सं० १६६१में हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा-संघमें यात्रार्थ चले गये। बनारसीदास बनारस आदि स्थानोंमें घूमकर अपना समय-यापन करते रहे । वि० सं० १६६६में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा-"वत्स ! अब तुम सयाने हो गये हो, अतः घरका सब कामकाज संभालो और हमें धर्मध्यान करने दो।" पिताकी इच्छानुसार कवि घरका काम-काज करने लगा। कुछ दिन उपरान्त वह दो होरेकी अंगूठी, २४ माणिक्य, ३४ मणियाँ, ९ नीलम, २० पन्ना, ४ गाँठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात, २० मन घी, २ कुप्पे तेल, २०० रुपयेका कपड़ा और कुछ नगद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाबसे चलकर गाड़ियां इटावाके निकट आई। वहाँ मंजिल पूरी हो जानेसे एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला। थोड़े समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार बारिस होने लगी। तुफान और पानी इतनी तेजीसे बह रहे थे कि खुले मैदानमें रहना अत्यन्त कठिन था। गाड़ियों जहाँ-की-तहाँ छोड़ साथी इधर-उधर भागने लगे। शहरमें भी कहीं शरण न मिली । किसी प्रकार चौकीदारोंकी झोपड़ीमें शरण मिली और कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत हई । प्रातःकाल गाडियां लेकर आगरेको चला और मोतीकटरामें एक मकान लेकर सारा सामान रख दिया। व्यापारसे अनभिज्ञ होने के कारण कविको घी, तेल और कपडे में घाटा ही रहा । बिक्रीके रुपयोंको हुण्डी द्वारा जौनपुर भेज दिया । जवाहरात घाटे में बेंचे और दुर्भाग्यसे कुछ जवाहरात उससे कहीं गिर गये। माल बहुत था । इससे अत्यधिक हानि हुई । एक जड़ाऊ मुद्रिका सड़कपर गिर गई और दो जड़ाऊ पहुंची किसी सेठको बेंची थी, जिसका दूसरे दिन दिवाला निकल गया। इस प्रकार धनके नष्ट होनेसे बनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा । इससे संध्या-समय उन्हें ज्वर चढ़ आया और दस लंघनोंके पश्चात् ठीक हुआ । इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लज्जावश उत्तर नहीं दिया। सत्य छिपाये नहीं छिपता । अत: इनके बड़े बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने समस्त घटनाएँ इनके पिताके पास जौनपुर लिख दी । खड्गसेन पश्चाताप करने लगे। जब बनारसोदासके पास कुछ न बचा, तब गृहस्थीकी चीजें बेंच-बेंच कर __२५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाने लगे। समय काटनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको बैठे पढ़ा करते थे। दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे । एक कचौड़ी वाला भी इन श्रोताओं में था, जिसके यहाँसे कई महीनों सक दोनों शाम उधार लेकर कचौड़ियाँ खाते रहे। फिर एक दिन एकान्तमें इन्होंने उससे कहा तुम उधार कीनो बहुत, अब आगे जनि देउ । मेरे पास कछू नहीं, दाम कहाँ सौं लेहु । कचौड़ी वाला सज्जन था । उसने उत्तर दिया कहे कचौड़ीवाला नर, बीस सर्वया खाह । तुमसों कोउ न कछु कहै, जहं भावे सह जाहु ।। कवि निश्चिन्त होकर छ: सात महीने तक भरपेट कचौड़ियां खाता रहा । और जब परसमें पैसे हए, तो १४ रुपयेका हिसाब साफ कर दिया। कुछ समय पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा । उनकी पत्नीने वास्तविक स्थिति जानकर इनको स्वयंके अजित बीस रुपये तथा अपनी मातासे २०० रुपये व्यापार करनेके लिये दिलाए । कवि आगरा आकर पुनः व्यापार करने लगा, पर यहां भी दुर्भाग्यवश घाटा हो रहा । फलत: वह अपने मित्र नरोत्तमदासके यहां रहने लगा ! दुर्भाग्य जीवन-पर्यन्त साथमें लगा रहा । अतः आगरा लौटते समय कुरीनामक प्राममें झूठे सिक्के चलानेका भयंकर अपराध लगाया गया । और इन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया। किसी प्रकार बनारसीदास वहाँसे छूटे । इनकी दो पत्नियों और नौ बच्चोंका भी स्वर्गवास हुआ। सं० १६९८में अपनी तीसरी पत्लीके साथ बैठा हुआ कवि कहता है नो बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोह। ज्यों तरुवर पतझार हूं, रहें ढूंठसे होइ ।। कवि जन्मना श्वेताम्बर-सम्प्रदायका अनुयायी था । उसने खरतरगच्छी श्वेताम्बराचार्य भानुचन्द्रसे शिक्षा प्राप्त की थी। उसके सभी मित्र भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे। पर सं० १६८०के पश्चात् कविका झुकाव दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताओंकी ओर हुआ। इन्हें खैराबाद निवासी अर्थमलजीने समयसारको हिन्दी अर्थ सहित राजमलकी टोका सौंप दी । इस ग्रंथका अध्ययन करनेसे उन्हें दिगम्बर सम्प्रदायकी श्रद्धा हो गयो । सं० १६९.२में अध्यात्मके प्रकाण्ड पंडित रूपचन्द पाण्डेय आगरा आये । रूपचन्दने गोम्मटसार प्रन्यका प्रवचन आरंभ किया, जिसे सुनकर बनारसीदास दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी बन गये। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओंमें दिगम्बरवकी मलक मिलती है। प्राचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति काल बनारसीदासका समय वि० की १७वीं शती निश्चित है, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपने अर्द्धकथानकमें अपनी जीवन-तिथियोंके सम्बन्धमें प्रकाश डाला है । रचनाएं बनारसीदासके नामसे निम्न लिखित रचनाएं प्रचलित हैं--१. नाममाला, २. समयसारनाटक, ३. बनारसीविलास, ४. अर्द्धकथानक, ५. मोहविवेकयुद्ध एवं ६. नवरसपद्यावली। नाममाला-प्रा रचनाओंमें नाममाला सबसे पूर्व की है। इसका समाप्तिकाल वि० सं० १६७० आश्विन शुक्ला दशमी है। परममिन नरोत्तमदास सोवरा और थानमाल सोवराकी प्रेरणासे कविने यह रचना लिखी है । यह पद्यबद्ध शब्दकोष १७५ दोहोंमें लिखा गया है। प्रसिद्ध कवि धनञ्जयको सस्कृत नाममाला और अनेकार्थकोशके आधारपर इस ग्रंथको रचना हुई है । कविको इसको साज-सज्जा, व्यवस्था, शब्द-योजना और लोकप्रचलित शब्दोंकी योजनाके कारण इसे मौलिक माना जा सकता है। नाटक समयसार अध्यात्म-संत कविवर बनारसीदासकी समस्त कृतियों में नाटक-समयसार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्दके समय पाहुडपर आचार्य अमृतचन्द्रको आत्मस्याति नामक विशद टीका है। ग्रंथके मूल भावोंको विस्तुत करनेके लिए कुछ संस्कृत-पद्य भो लिखे गये हैं, जो कलश नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें २७७ पद्य हैं। इन कलशोंपर भट्टारक शुभचन्द्रको परमाध्यात्मतरंगिणीनामक संस्कृत-टीका भी है। पाण्डेय राजमलने कलशोंपर बाल-बोधिनी नामक हिन्दी-टोका भी लिखी है। इसी टीकाको प्राप्त कर बनारसीदासने कवित्तबद्ध नाटक-समयसारकी रचना की है। इस ग्रंथमें ३१० दोहा-सोरठा, २४५ इकत्तीसा कवित्त, ८६ चौपाई, ३७ तेइसा सवेया, २० छप्पय, १८ घनाक्षरी, ७ अडिल्ल और ४ कुंडलियां इस प्रकार सब मिलाकर ७२७ पध हैं। बनारसीदासने इस रचनाको वि० सं० १६९३ आश्विन शुक्ला, त्रयोदशी रविवारको समाप्त किया है। नाटक-समयसारमें जीवद्वार अजीवद्वार, कर्ता-कर्म-क्रियाद्वार, पुण्यपापएकत्व-द्वार, आस्रव-द्वार, संवरद्वार, निर्जराद्वार, बन्धद्वार, मोक्षद्वार सर्वविशुद्धिद्वार, स्याद्वादद्वार, साध्यसाधकद्वार और चतुर्दश गुणस्थानाधिकार प्रकरण हैं। नामानुसार इन प्रकरमों में विषयोंका निरूपण किया गया है। कविने इस नाटकको यथार्थताका विश्लेषण करते हुए लिखा है२५२ : सीकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया चित्रसारोमें करम-परजंक भारी, मायाकी संचारी सेज चादर कलपना। शेन करे चेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यह लोचनको ढपना ।। उदे बल जोर यई श्वासको सबद घोर, विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सपना । ऐसी मूढ-दशामें मगन रहे तिहुंकाल, धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना । अज्ञानी व्यक्ति भ्रमके कारण अपने स्वरूपको विस्मत कर संसारमें जन्ममरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाको चित्रशालामें कर्मका पलग बिछाया गया है । उसपर मायाकी सेज सजाकर मिथ्या-कल्पनाको चादर डाल रखी है। इस शय्यापर अचेतनको नोंदमें चेतन सोता है । मोहको मरोड़ नेत्रोंका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही स्वासका घोर शब्द है । विषय-सुखको दौर ही स्वप्न है । इस प्रकार तीनों कालोंमें अज्ञानको निद्रामें मग्न यह आत्मा भ्रमजालमें दौड़ती है। अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती। अज्ञानी जीवको यह निद्रा ही संसार-परिभ्रमणका कारण है । मिथ्यातत्त्वों की श्रद्धा होनेसे ही इस जीव को इस प्रकारको निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर हो इस व्यापक असत्यको सत्य-रूपमें समझती है। इस प्रकार कविने रूपक द्वारा अज्ञानी-जीवको स्थितिका मार्मिक चित्र उपस्थित किया है । आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है। इसमें शान, सुख, वीर्य आदि गुण पूर्णरूपेण विद्यमान हैं । अतएव प्रत्येक व्यक्तिको इसी शुद्धात्माकी उपलब्धि करनेके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। कविने बताया है कि झानी व्यक्ति संसारको समस्त-क्रियाओंका करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निमल समझता है। जैसे निशि-बासर कमल रहें पक ही में, पंकज कहावे पे न बाके बिंग पंक है। जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहावें गास, मन्त्रकी शकति वाके बिना विष डंक है। जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे अग, पानीमें कनक जैसे काईसे अटक है । तैसे ज्ञानवान नाना भौति करतूत जनै, किरियातें भिन्न माने मोते निष्कलंक है ।। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५३ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मामें अशुद्धि पर-द्रव्यके संयोगसे आई है । यद्यपि मूलद्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नहीं करता, तो भी परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। जब सम्यक्त्व के साथ ज्ञानमें भी सच्चाई उत्पन्न होती है तो शान-रूप आत्मा परद्रव्योंसे अपनेको भिन्न समझकर शुद्धात्म अवस्थाको प्राप्त होती है। कवि कहता है कि कमल रात-दिन कमें रहता है तथा पंकज कहा जाता है फिर भी कीचड़से ना मदा अलग रहना है। मन्त्रवादी सर्पको अपना गात्रपकड़ाता है परन्तु मन्त्र-शक्तिसे विषके रहते हुए भी सर्पका दंश निविष रहता है। पानी में पड़ा रहनेपर भी जैसे स्वर्ण में काई नहीं लगसी उसी प्रकार ज्ञानोव्यक्ति संसारको समस्त क्रियाओंको करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निर्मल समझता है। इस नाटक-समयसारमें अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएं, ज्ञानीकी अवस्थाए', ज्ञानीका हृदय, संसार और शरीरका स्वरूप-दर्शन, आत्म-जागृति, यात्माको अनेकता, मनको विचित्र दौड़ एवं सप्तव्यसनोंका सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करनेके साथ जीव, अजीय, वासव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका काव्य-रूपमें चित्रण किया है। बनारसो-विलास-इस ग्रन्थमें महाकवि बनारसीदासको ४८ रचनाओंका संकलन है । यह संग्रह आगरानिवासी दीवान जगजीवनजीने बनारसीदासके स्वर्गवासके कुछ समयके पश्चात् वि० सं० १७०१ चैत्र शुक्ला द्वितीयाको किया है। बनारसीदासने वि० सं० १७०० फाल्गुन शुक्ला सप्तमोको कर्म-प्रकृतिविषानकी रचना की थी। यह रचना भी इस संग्रहमें समाविष्ट है । संगृहीत रचनाओंके नाम निम्न प्रकार हैं १. जिनसहस्रनाम, २. सूक्तिमुक्तावली, ३. शानबावनी, ४. वेदनिर्णयपंचाशिका, ५. शलाकापुरुषोंकी नामावली, ६. मार्गणाविधार, ७. कर्मप्रकृतिविधान, ८. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ९. साधुबन्दना, १०. मोसपैडो, ११. करमछत्तीसी, १२. ध्यानबत्तीसी, १३. अध्यारमबत्तीसी, १४. सानपच्चीसी, १५. शिवपच्चोसी १६. भवसिन्धुचतुर्दशी १७. अध्यारमफाग १८. सोलतिथि १९. तेरहकाठिया, २०. अध्यात्मगीत, २१. पंचपदविधान, २२. सुमतिदेवीके अष्टोत्तरशत नाम, २३. शारदाष्टक, २४. नवदुर्गाविधान, २५. नामनिर्णयविधान, २६. नवरत्नकवित्त, २७. अष्टप्रकारी जिनपूजा, २८. दशदानविधान, २९. दशबोल, ३०. पहेली, ३१. प्रश्नोत्तरदोहा, ३२. प्रश्नोत्तरमाला, ३३. अवस्थाष्टक, ३४. षट्दर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६. अजितनाथके छन्द, ३७: शान्तिनाथस्तुति ३८, नवसेनाविधान, ३९. नाटकसमयसारके कवित्त, ४०. फुटकर कविता, २५४ : तोर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. गोरखनाथके वचन, ४२. वैद्य आदिके भेद, ४३. परमार्थवचनिका, ४४. उपादान - निमित्तकी चिट्ठी ४५ निदि, २६४७ पर मायें हिंडोलना, ४८ अष्टपदी मल्हार । इन समस्त रचनाओंमें हमें महाकविकी बहुमुखी प्रतिभा, काव्य कुशलता एवं अगाध विद्वत्ताके दर्शन होते हैं । धार्मिक मुक्तकों में कविने उपमा, रूपक, दृष्टान्त, अनुप्रास आदि अलंकारोंकी योजना की है। सैद्धान्तिक - रचनाओंमें विषय-प्रधान वर्णन-शैली है । इन रचनाओं में कवि, कवि न रहकर, तार्किक हो गया है । अतः कविता तर्कों, गणनाओं, उक्तियों और दृष्टान्तोंस बहुधा बोझिल हो गई हैं । कविने सभी सिद्धान्तों का समावेश सरल-शैली में किया है । I मोह-विवेक युद्ध - इस रचनाको कुछ लोग बनारसीदासकृत मानते है और कुछ लोग उसके विरोधी भो हैं । कृतिके आरंभ में कहा है कि मेरे पूर्ववर्ती कविमल्ल, लालदास और गोपाल द्वारा पृथक-पृथक रखे गये मोहविवेकयुद्धके आधारपर उनका सार लेकर इस ग्रंथको संक्षेपमें रचना को जा रही है । इससे स्पष्ट है कि कविने उक्त तीनों कवियोंके ग्रंथोंका सार ग्रहणकर ही अपने इस ग्रन्थको रचना की है । इसमें ११० दोहा चौपाई है। यह लघु खण्ड-काव्य है। इसका नायक मोह हैं और प्रतिनायक विवेक । दोनोंमें विवाद होता है और दोनों ओरकी सेनाएँ सजकर युद्ध करती हैं। महाकवि बनारसीदासकी शैली प्रसन्न और गम्भीर है । उन्होंने अध्यात्मकी बड़ी से बड़ी बातों को संक्षेपमें सरलतापूर्वक गुम्फित कर दिया है । अर्द्धकथानक में कविने अपनी आत्म-कथा लिखी है । इसमें सं० १६९८ तक की सभी घटनाएँ आ गई हैं। कविने ५५ वर्षोंका यथार्थ जोवनवृत्त अंकित किया है। पं० रूपचन्द या रूपचन्द पाण्डेय पं० रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र दोनों अभिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं । महाकवि बनारसीदासने इन दोनों का उल्लेख किया है । नाटकसमयसार की प्रशस्ति में रूपचन्दपडित कहा है और अर्द्धकथानक में पाण्डेय रूपचन्द कहा गया है । बनारसीदासने अपने गुरुरूपमें पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख करते हुए लिखा है तब बनारसी और भयो । स्यादवाद परिनति परिनयौ । पांडे रूपचन्द गुरु पास सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक २५५ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर तिस समै बरम नै बीच । रूपचन्दको आई मीच । सुनि-सुनि रूपचन्दके बैन । बानारसी भयो दिढ़ जैन ॥ उक्त उद्धरणो भी ऐसा सवाल होता है कि पंडित रूपचन्द और पाण्डेय रूपचन्द अभिन्न व्यक्ति हैं । ये महाकवि बनारसोदागके गुरु हैं । बनारसीदास रूपचन्दका परिचय प्रस्तुत करते हए बताया है कि इनका जन्म-स्थान कोइदेशमें स्थित सलेमपुर था । ये गर्गगोत्री अग्रवाल कुलके भूषण थे। इनके पितामह्का माम भामह और पिताका नाम भगवानदास था । भगवानदासको दो पत्नियाँ थीं, जिनमे प्रथमसे ब्रह्मदास नामक पुत्रका जन्म हुआ और दूसरी पत्नोसे पाँच पुत्र हुए- १. हरिगज, २. भपति, ३. अभयराज, ४. कोर्तिचन्द, ५. रूपचन्द | रह रूपचन्द्र ही रूपचन्द पाण्डेय हैं। भारतीय पंडित होनेके कारण इनकी उपाधि पाण्डेय थी। ये जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। और शिक्षा अर्जनहेतु बनारसकी यात्रा की थी। महाकवि बनारसोदासने इन्हों रूपचन्दको अपना गुरु बताया है और पाण्डेयशब्दसे उनका उल्लेख किया है।' जब महाकवि बनारसीदासको व्यवसायके हेतु आगराको यात्रा करनी पड़ी थी और व्यापार में असफल होनेके कारण आगरामें उनका समय काव्यरचना लिखने और विद्वानोंको गोष्ठीमें सम्मिलित होने में व्यतीत होता था, तभी सं० १६९२में इनके गुरु पाण्डेयरूपचन्दका आगरा में आगमन हुआ। सोलहसै बानबे लौं, कियो नियत रसपान । पै कवीसुरी सब सब भई, स्यावाद परवान । अगायास इस ही समय, नगर आगरे थान । रूपचन्द पंडित गुनी, आयो आगम जान । -अर्द्धकथानक पु० ५७, पद्य ६२९-६३० इन्होंने आगरा में तिहुना नामक मन्दिरमें डेरा डाला । उनके आगमनसे बनारसीदासको पर्याप्त प्रोत्साहन मिला | यहाँ इन्हीं पाण्डेयरूपचन्दसे कविने १. अनेकान्त, वर्ष १०, किरण २ (अगस्त १९४७), पाण्डेयरूपचन्द और उनका साहित्य, पृ० ७७ । आय-बरस को हुऔ बाल 1 विद्या पढ़न गयो चरसाल ।। गुरु पांडेसो विद्या सिख । अक्खर पांच लेखा लिख ।। -अर्घकथानक, पृ० १०। २. आ २५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-गरम्परा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसार-प्रन्यकी व्याख्या सुनी थी। सं० १६९४में पाण्डेयरूपचन्दको मृत्यु हो गई । श्री पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमीने रूपचम्बको पाण्डेयरूपचन्दसे भिन्न माना है। उन्होंने बताया है कि कवि बनारसीदासने अपने नाटकसमयसारमें अपने जिन पांच साथियोंका उल्लेख किया है। उनमें एक रूपचन्द भी हैं, जो पाण्डेय रूपचन्दसे भिन्न हैं । बनारसीदास इन रूपचन्दके साथ भी परमार्थको चर्चा किया करते थे। पर हमारी दृष्टिमें पंडित रूपचन्द और पाण्डेयरूपचन्द भिन्न नहीं हैं-एक ही व्यक्ति हैं। यही रूपचन्द बनारसीदासके गुरु हैं और बनारसीदास इनसे अध्यात्मचर्चा करते थे। स्थितिकाल पाण्डेयरूपचन्दका समय बनारसीदासके समयके आसपास है । महाकवि बनारसोवासका जन्म सं० १६४३ में हुआ और पाण्डेय रूपचन्द इनसे अवस्थामें कुछ बड़े ही होंगे। बहुत संभव है कि इनका जन्म सं० १६४०के आसपास हुआ होगा। अर्धकथानकमें बनारसीदासने पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय वि०की १७वीं शती सुनिश्चित है। रूपचन्दने संस्कृत और हिन्दी इन दोनों भाषामि रचनाएं लिखी हैं । इन द्वारा संस्कृतमें लिखित समवशरणपूजा अथवा केवलज्ञान-चर्चा ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें पाण्डेय रूपचन्दने अपना परिचय प्रस्तुत किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित रचनाएँ अध्यात्म, भक्ति और रूपक काव्य-सम्बन्धी हैं । इन रचनाओंसे इनके शास्त्रीय और काव्यात्मक ज्ञानका अनुमान किया जा सकता है । पाण्डेयरूपचन्द सहज कवि हैं। इनकी रचनाओंमें सहज स्वाभाविकता पाई जाती है । १. परमार्थवोहाशतक या बोहापरमार्थ-इसमें १०१ दोहोंका संग्रह है। ये सभी दोहे अध्यात्म-विषयक हैं। कविने विषय-वासनाको अनित्यता, क्षणभंगुरता और असारताका सजीव चित्रण किया है । प्रत्येक दोहेके प्रथम चरण में विषयजनित दुःस्त्र तथा उसके उपभोगसे उत्पन्न असन्तोष और दोहेके दूसरे चरणमें उपमान या दृष्टान्त द्वारा पूर्व कथनकी पुष्टि की गई है । प्रायः समस्त दोहोंमें अर्थान्तरन्यास पाया जाता है। विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाय । जिमि जल खारा पीव तइ, बाढ़इ तिस अधिकाय ॥४॥ विषयन सेवत दुःख बढ़इ, देखहु किन जिन जोइ । खाज खुजावत ही भला, पुनि दुःख इनउ होय ॥९॥ आचार्यतुल्य काम्यकार एवं लेखक : २५७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवल ही जु मधुर विषय, करुए होंहि निदान । विषफल मोठे खातके, अंतहि हरहि परान ||११|| विषय-सुखोंकी निस्सारता दिखलानेके पश्चात् कवि सहज सुखका वर्णन करता है, जिसके प्राप्त होते आत्मा निहाल हो जाती है। यह सहज सुख स्वात्मानुभूतिरूप है । जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण, पुष्प में गन्ध, तिल में तैल व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा प्रत्येक घटमें विद्यमान है। जो व्यक्ति जड़-चेतनका परिज्ञानी है, जिसने दोनों द्रव्योंके स्वभावको भली प्रकार अवगत कर लिया है, वही व्यक्ति ज्ञानदर्शन- चैतन्यात्मक स्वपरिणतिका अनुभचकर सहज सुखको प्राप्त कर सकता है। कविने सहज सुखको विवेचित करते हुए लिखा हैचेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ । उसासा ॥३०॥ २. गीत परमार्थी अथवा परमार्थगीत - यह एक छोटी-सी कृति है । इसमें १६ पद्य हैं और सभी पद्य आध्यात्मिक हैं । जीवनको सम्बोधन कर उसे रागद्वेष- मोहसे पृथक रहनेकी चेतावनी दी गई है । आत्माका वास्तविक स्वरूप सत्, चित् आनन्दमय है। इस स्वरूपको जीव अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण भूल जाता है और रागद्वेषरूपी विकृतिको ही अपना निजरूप मान लेता है । इस विकारसे दूर रहनेके लिए कवि बार-बार चेतावनी देता है । पहला पद निम्न प्रकार है- चेतन हो चेत न चेतक गाफिल होइ न कहा रहे काहिन हो । विधिवस हो || "चेतन हो ॥१॥ , ३. अध्यात्म सवैया - १०१ कवित्त और सवेया छन्दोंका यह संग्रह है । जैन सिद्धान्त भवन आराकी हस्तलिखित प्रतिमें इसे रूपचन्द- शतक कहा गया है । समस्त छन्द अध्यात्मपूर्ण है । जीवन जगत् और जीवको वर्त्तमान विकृत अवस्थाका चित्रण इन सर्वेयोंमें पाया जाता है । कविने लिखा है कि यह जीव महासुखकी शय्याका त्यागकर क्षणिक सुखके प्रलोभन में आकर संसार में भटकता है और अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करता है। मिथ्यात्व - आत्मानुभवसे बहिर्मुख प्रवृत्ति - का निरोध समतारसके उत्पन्न होनेपर ही प्राप्त होता है । यह समता आत्माका निजी पुरुषार्थ है । जब समस्त परद्रव्यों के संयोगको छोड़ आत्मा अपने स्वरूप में विचरण करने लगता है, तो समतारसकी प्राप्ति होतो है 1 कविने इस समतारसका विवेचन निम्न प्रकार किया है २५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्पर Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल गयो निज सेज महासुख, मान रह्यो सुख सेज पराई। आस-हुतासन तेज महा जिहि, सेज अनेक अनन्त जराई। . कित पूरी भई जु मिथ्यामतिकी इति, भेदविज्ञान घटा जु भराई । उमग्यो समितारस मेघ महा. जिह वेग हि आस-तास सिराई ॥८२॥ यदि आत्मा मिथ्या स्थितिको दूर कर समतारसका पान करने लगे, तो उसे अपनेमें परमारमाका दर्शन हो सकता है, क्योंकि कर्म आदि परसंयोगी हैं । जिस प्रकार दूध और पानी मिल जानेपर एक प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें उनका गुण-धर्म पृथक-पृथक है । जो व्यक्ति द्रव्य और तत्वोंके स्वभावको यथार्थ रूपमें अवगत कर निको रूपका अनुभव करता है उसका उत्थान स्वयमेव हो जाता है। यह सत्य है कि उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक उस आत्मतत्त्वकी प्राप्ति निजानुभूतिसे ही होती है और उसीसे मिथ्यात्वका क्षय भी होता है। कविने उक्त तथ्यपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है :काहू न मिलायो जाने करम-संजोगी सदा, छोर नीर पाइयो अनादि हीका धरा है। अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे, न्यारे पर भाव परि आप हीमें धरा है । काइ भरमायो नाहिं भम्यो भूल आपन ही, ___ आपने प्रकास के विभाव भिन्न घरा है। साचे अविनासी परमातम प्रगट भयो, नास्यो है मिथ्यात वस्यो वहाँ ग्यान धरा है ।।९५।। ४. खटोलनागीत-खटोलनागोस छोटी-सी कृति है। इसमें कुल १३ पट हैं। यह रूपक काव्य है। कविने बताया है कि संसाररूपी मन्दिरमें एक खटोला है, जिसमें कोचादि चार पग हैं। काम और कपटका सिरा है और चिन्ता और रतिकी पाटी है । यह अविरतिके बानोंसे बुना है और उसमें आशाकी आइवाइन लगायी गयी है। मनरूपी बढ़ईने विविध कर्माको सहायतासे उसका निर्माण किया है। जीवरूपी पथिक इस खटोलेपर अनादिकालसे लेटा हा मोहकी गहरी निद्रामें सो रहा है। पांच पापरूपी चोरोंने उसकी संयमरूपी संपत्तिको चुरा लिया है। मोहनिद्राके भंग न होनेके कारण ही यह आत्मा निर्वाण-सुखसे वंचित है। वीतरागी गुरु या तीर्थकरके उपदेशसे यह कालरात्रि समाप्त हो सकती है और सम्यक्त्वरूपी सूर्य का उदय हो सकता है । कविने इस प्रकार शरीरको खटोलाका रूपक देकर आध्यात्मिक सत्त्वोंका विवेचन किया है । पद्य बहुत ही सुन्दर और काव्यचमत्कारपूर्ण है। उदाहरणार्य कुछ पंक्तियाँ उद्धृत को जाती हैं आचार्यतुष्य काव्यकार एवं लेखक : २५९ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव रतिमंदिर पौठियो, खटोला मेरो, कोपादिक पग चारि । काम कपट सीरा दोऊ, चिन्ता रति दोष पाटि ॥१॥ अविरति दिन बार्नानि बुनो, मिथ्या माई विसाल । आशा - अडवाइनि दई, शंकादिक वसु साल ॥ ॥ X x X X राग-द्वेष दोउ गडवा, कुमति सुकोमल सौरि । नीच - पथिक तह पोलियो, परपरिणति संग गौरि ॥४॥ की ५. स्फुट पर – रूपचन्द उपल हो चुके हैं। ये भी पद भक्तिरससे पूर्ण हैं । कविने अपने आराध्य की भक्ति करते हुए उसके रूप-लावण्यका विवेचन किया है । कवि एक पदमें अपने आराध्य के मुखको अपूर्वं चन्द्रमा बसलाता है और इस अपूर्वं चन्द्रमा की तर्क द्वारा पुष्टि करता है— संतत प्रभु मुख चन्द अपूरब तेरौ । सकल-कला-परिपूरन, पारे तुम सिहुँ जगत उरो || प्रभु || १|| निरूप-राग निरदोष निरंजन, निरावरनु जड जाड्य निवेरी ॥ कुमुद विरोषि कृसी कृतसागरु, अहि निसि अमृत श्रवे जु घनेरो || प्रभु ||२|| उदे अस्त बन रहितु निरन्तरु, सुर नर मुनि आनन्द जनेरी ॥ रूपचन्द इमि नेतन देखति, हरषित मन चकोर भयो मेरो || प्रभु० ||३|| ६. पचमङ्गल या मङ्गलगीतप्रबन्ध - इस रचनासे प्रायः सभी लोग सुपरिचित हैं । कविने तीर्थंकरके पञ्चकल्याणकों की गाथा काव्यरूपमें निबद्ध की है। जगजीवन आगरा निवासी जगजीवन अग्रवाल जैन थे। इनका गोत्र गगं था । इनके पिताका नाम अभयराज और माताका नाम मोहनदे था। ये अभयराज जाफरखाँके दीवान थे, जो बादशाह शाहजहाँका पाँच हजारी उमराव था । जगजीवन अध्यात्मशैली के कवि थे । पण्डित हीरानन्दने वि० सं० १७०१ में समवशरण २६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधानको रचना की है । इस रचनामें जगजीवनका परिचय निम्न प्रकार दिया है अब सुनि नगरराज आगरा, सकल सोभा अनुपम सागरा । साहजहाँ भूपति है जहाँ, राज करे नयमारग तहाँ ।। ताको जाफरखौ उमराब, पंच हजारी प्रकट कराउ । ताको अगरवाल दोवान, गरग गोत सब विधि परवान ।। संघही अभेराज जानिए, सुखी अधिक सब करि मानिए। वनितागण नाना परकार, तिनमें लघु मोहनदे सार । ताको प्रत पृत-सिरमौर, जगजीवन जीवनकी ठौर । सुन्दर सुभग रूप अभिराम, परम पुनीत धरम-धन-धान ॥ जगजीवनने सं० १७०१में बनारसीविलासका संपादन किया था। इनके अब तक ४५ पद भी उपलब्ध हो चुके हैं। इनके पदोंको तीन धर्मों में विभक्त किया जा सकता है १. प्रार्थना एवं स्तुतिपरक २. आध्यात्मिक ३. सांसारिक प्रपञ्चके विश्लेषण-मूलक यहाँ उदाहरणके लिए एक पदकी कुछ पंक्तियां उद्धृत की जाती हैं । कविने सांसारिक प्रपञ्चको बादलकी छाया माना है और छायाका रूपक देकर पुरजन, परिजन, इन्द्रिय-विषय, राग-द्वेष-मोह, सुमति-कुमति सभोको व्याख्या स्तुित की है । यथा जगत सब दीसता घनको छाया ॥ पुत्र कलत्र मित्र तन संपत्ति उदय पुद्गल जुरि आया। भव परनति वरषागम सोहे आश्रव पवन बहाया जगत १॥ इन्द्रियविषय लहरि तड़ता है देखत जाय विलाया। राग दोष वगु पंकति दोरघ ___मोह गहल घरराया ।।जगत०|२।। सुमति विरहनो दुखदायक है, कुमति संजोगति भाया। आचार्यतुल्म कान्यकार एवं लेखक : २६१ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज संपति रतनत्रय गहिकर मुनि जन नर मन सहज अनन्त चतुष्ट मंदिर जगजीवन सुख कुँचरपाल कुंवरपाल बनारसीदासके अभिन्न मित्र थे। इन्होंने सूक्तिमुक्तावलीका पद्यानुवाद बनारसीदासके साथ मिलकर किया है। इस पद्यानुवादसे उनकी काव्यप्रतिभाका परिचय प्राप्त होता है । सोमप्रभने संस्कृत भाषामें सूक्तिमुक्तावली की रचना की थी। इसोका पद्यबद्ध हिन्दी अनुवाद इन्होंने किया है। यह समस्त काव्य मानवजीवनको परिष्कृत करने वाला है । कविने संस्कृतग्रन्थका आधार ग्रहणकर भी अपनी मौलिकताको अक्षुण्ण रखा है। वह समस्त दोषोंकी खानि अहंकारको मानता है। मनुष्य 'अहं' प्रवृत्तिके अधीन होकर दूसरोंकी अवहेलना करता है । अपनेको बड़ा और दूसरेको तुच्छ या लघु समलता है । समस्त दोष इस एक ही जनिमें विवास करते हैं। ऋषि कहता है कि इस अभिमानसे ही विपत्तिकी सरिता कल कल ध्वनि करती हुई चारों ओर प्रवाहित होती है । इस नदीकी धारा इतनी प्रखर है कि जिससे यह एक भी गुणग्रामको अपने पूरमें बहाये बिना नहीं छोड़ती । 'अहं' भाव विशाल पर्वतक तुल्य है । कुबुद्धि और माया उसकी गुफाएँ हैं। हिंसक बुद्धि धूम्ररेखाके समान है और कोष दावानलके तुल्य है । कवि कहता है भाया || पाया || जगत०॥३॥ जातें निकस विपत्ति-सरिता सब, जगमें फेल रही चहुँ ओर । जाके ठिग गुण- ग्राम नाम नहि, माया कुमति गुफा अति घोर ॥ जहुँ बध-बुद्धि धूमरेखा सम, उदित कोप दावानल जोर । सो अभिमान-पहार पठतर, राजत ताहि सर्वज्ञ किशोर ॥ कवि सालिवाहन कवि सालिवाहन भदावर प्रान्तके कञ्चनपुर नगरके निवासो थे । कविके पिताका नाम रावत खरगसेन और गुरुका नाम भट्टारक नगभूषण था | इन्होंने वि० सं० १६९५ में आगरा में रहकर जिनसेनाचारिकृत संस्कृत के हरिवंशपुराणका हिन्दी में पद्यानुवाद उपस्थित किया है। हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिसे अव २६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत होता है कि कविने उक्त दोहा-चौपाईबद्ध रचना आगराको साहित्य भूमिमें ही सम्पन्न की है। संवत् सोरहिसे तहाँ भये तापरि अधिक पचानबै गये। माघ मास किसन पक्ष जानि सोमवार सुभवार बखानि । ....''भट्टारक जगभूषण देव गनपर सावस वाकि जुएइ । .....""नगर आगिरौ उत्तम थानु साहिजहाँ तपे दूजो भान ।। ....""बाहन करी चौपईबन्धु, हीनबुधि मेरी मति अंधु । कवि बुलाकीदास बुलाकीदासका जन्म आगरेमें हुआ था । ये गोयलगोत्री अग्रवाल दिगम्बर जैन श्रावक थे । इनके पूर्वज बयाना (भरतपुर)में रहते थे । इनके पितामह भवणदास बयाना छोड़कर आगरेमें बस गये थे। उनके पुत्र नन्दलालको सुयोग्य देखकर पंडित हेमराजने उनके साथ अपनी कन्याका विवाह कर दिया था, जिसका नाम जैनी था । हेमराजने अपनी इस कन्याको बहुत ही पुशिक्षित किया था । बुलाकीदासका जन्म इसी जैनो उदरसे हुआ था। उन्होंने अपनी माताकी प्रशंसामें लिखा है हेमराज पंडित बसै, तिसी आगरे ठाइ । गरग गोत गुन आगरी, सब पूजे जिस पाइ ।। उपगीता के देहजा, जेनी नाम विख्याति । सील रूप गुन आगरी, प्रीति-नीतिको पाँति ॥ दोना विद्या जनकने कीनी अति व्युत्पन्न । पंडित जापै सीख लें घरनीतल में धन्न ।। कविकी 'पाण्डवपुराण' नामक एक ही रचना उपलब्ध है । यह रचना उसने अपनी माताके आग्रहसे लिखी है। भैया भगवतीदास भैया भगवतीदास आगरा निवासी कटारियागोत्रीय ओसवाल जैन थे। इनके दादाका नाम दशरथ साह और पिताका नाम लाल जो था । इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि जिस समय ये काव्यरचना कर रहे थे उस समय आगरा दिल्ली-शासनके अन्तर्गत था और औरंगजेब वहाँका शासक था। १. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन प्रथम भाग, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृ. १६३ १६९ तथा २४६। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २६३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल होने के कारण कविको जन्मना श्वेताम्बरसम्प्रदायानुयायी होना चाहिए; पर उनकी रचनाओंके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायानुयायी होना सिद्ध होता है। कविकी रचनाओंके अवलोकनसे ज्ञात होता है कि भैया भगवतीदासने समयसार, आत्मानुशासन, गोम्मटसार और द्रव्यसंग्रह आदि दिगम्बर ग्रन्थोंका पूरा अध्ययन किया है । उनकी आध्यात्मिक रचनाओं पर समयसारका पूरा प्रभाव है। ___इन्होंने स्तुतिपरक या भक्तिपरक जितने पद लिखे हैं उनमें तीर्थंकरोंके गुण और इतिवृत्त दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार अंकित हैं। संवत सत्रह से इकतीस, माघसुदी दशमी शुभदोस । मंगलकरण परमसुखधाम, द्रवसंग्रह प्रति करहुं प्रणाम । द्रव्यसंग्रहको रचनाके साथ भैया भगवतीदासकी स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानुप्रेक्षा, प्रभाती और स्तवनोंसे भी उनका दिगम्बर सम्प्रदायी होना सिद्ध होता है। वि० सं० १७११में हीरानन्दजीने पंचास्तिकायका अनुवाद किया था। उसमें उन्होंने आगरामें एक भगवतीदास नामक व्यक्तिके होनेका उल्लेख किया है । संभवतः भैया भगवतीदास ही उक्त व्यक्ति हों । इन्होंने कवितामें अपना उल्लेख भैया, भविक और दासकियोमानामोदरे निया ने दमनी ममस्त रचनाओंका संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है। भैया भगवत्तीदासका समय वि० सं० को १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अपनी रचनाओंमें औरंगजेबका उल्लेख किया है । औरंगजेबका शासनकाल वि० सं० १७१५-१७६४ रहा है । भैया भगवतीदासके समकालीन महाकवि केशवदास हैं, जिन्होंने रसिकप्रिया नामक शृंगाररसपूर्ण रचना लिखी है। कवि भगवतीदासने इस रसिकप्रियाको प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है बड़ी नीत लघु नीत करत है, बाय सरत बदबोय भरी। फोड़ो बहुत फुनगणी मंडित सकल देह मनु रोगदरी ॥ शोणित हाड़ मांसमय मुरत तापर रीझत घरी-घरी। ऐसी नारी निरखि करि केशव रसिकप्रिया तुम कहा करी॥ अतएव भैया भगवतीदास १८वीं शताब्दीके कवि हैं। रचनाएं भैया भगवतीदासकी रचनाओंका संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है। इसमें ६७ रचनाएं सगृहीत हैं। इन रचनाओंको काव्यविधाकी दृष्टिसे निम्नलिखित वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है:२६४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पदसाहित्य २. आध्यात्मिक रूपककाव्य ३. एकार्थ काव्य ४. प्रकीर्णककाव्य ४. १. पसाहित्य इनके पदसाहित्यको १. प्रभाती, २. स्तवन, ३. अध्यात्म, वस्तुस्थितिनिरूपण, ५. आत्मालोचन एवं ६. आराध्य के प्रति दृढतर विश्वास, विषयों में विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवन के रहस्योंसे सदा आँखें बन्द किये रहता है । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास नहीं किया । पार्थिव सौन्दर्यके प्रति मानव नैसर्गिक आस्था रखता है । राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है, विविधनामरूपात्मक इस जगत्से पृथक् होकर प्रकृत भावनाओं का संयमन, दमन और परिष्करण करना ही व्यक्तिका जीवन-लक्ष्य होना चाहिए। इसी कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतना में सामूहिक चेतनाका अध्यारोप कर कवि कहता है T अरे में तु यह जन्म गमायो रे, बरे तें ॥ पूरब पुण्य किये कहुँ अति हो, तातै नरभव पायो रे । देव धरम गुरु ग्रन्थ न परसे, भटक भटकि भरमायो रे || अरे०||१| फिरि सोको मिलिबो यह दुरलभ दश दृष्टान्त बतायो रे । जो चेते तो चेत रे भैया, तोको करि समुझायो रे || अरे ०|| २ || आत्मालोचन सम्बन्धी पदोंमें कविने राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, मद, मात्सर्य आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गूढ़ अध्यात्मकी अभिव्यञ्जना की है । कवि कहता है छोड़ि दे अभिमान जियरे, छाँड़ि दे अभि० ॥टेक॥ काको तु भय कौन तेरे, सब ही हैं महिमान । देखा राजा रंक कोळ, थिर नहीं यह यान ! | जियरे०|| १ || जगत देखत तेरि चलवो, तू भी देखत आन । घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान || जय || २ || त्याग कोष रु लोभ माया मोह मदिरा पान । राग-दोषह टार अन्तर, दूर भयो सुरपुर-देव कबड़े, कबहुँ धम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया कर अज्ञान || जय || ३ || नरक निदान । आप पिछान | जियरे०||४|| आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २६५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. आध्यात्मिक रूपकाव्य-के अन्तर्गत कविकी चेतनकर्मचरित, षट्अष्टोत्तरी, पंचइन्द्रियसंवाद, मधुबिन्दुकचौपाई, स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानुप्रेक्षा आदि रचनाएं प्रमुख हैं । चेतनकर्मचरितमें कुल २९६ पद्य हैं । कल्पना, भावना, नगर, रस, गत शौचाई और रमणीया गादिका समवाय पाया जाता है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुष वर्णोका प्रयोग इस कृति में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है । बेकारोंको पात्रकल्पना कर कविने इस चरितकाव्य में आत्माकी श्रेयता और प्राप्तिका मार्ग प्रदर्शित किया है । कुबुद्धि एवं सुद्धि ये दो चेतनकी भार्या हैं। कविने इस काव्यमें प्रमुखरूपसे घेतन और उनकी पत्नियोंके वार्तालाप प्रस्तुत किये हैं । सुबुद्धि चेतन-आत्माको कर्मसंयुक्त अवस्थाको देखकर कहती है-"चेतन, तुम्हारे साथ यह दुष्टोंका संग कहाँसे या गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व खोकर भी सजग होने में विलम्ब करोगे? जो व्यक्ति जीवन में प्रमाद करता है, संयमसे दूर रहता है वह अपनी उन्नति नहीं कर नकता।" __ चेतन--"हे महाभागे ! मैं तो इस प्रकार फंस गया हूँ, जिससे इस गहन पंकसे निकलना मुश्किल-सा लग रहा है । मेरा उद्धार किस प्रकार हो, इसकी मुझे जानकारी नहीं।" सुबुद्धि-"नाथ ! आप अपना उद्धार स्वयं करने में समर्थ हैं। भेदविज्ञानक प्राप्त होते हो आपके समस्त पर-सम्बन्ध विगलित हो जायंगे और आप स्वतंत्र दिखलाई पड़ेंगे।" कुबुद्धि-"अरी दुष्टा ! क्या बक रही है ? मेरे सामने तेरा इतना बोलनेका साहस ? तू नहीं जानती कि मैं प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ ?" __ कविने इस संदर्भ में सुबुद्धि और कुबुद्धिके कलहका सजीव चित्रण किया है। और चेतन द्वारा सुबुद्धिका पक्ष लेनेपर कुबुद्धि रूठ कर अपने पित्ता मोहके यहाँ चली जाती है और मोहको चेतनके प्रति उभारती है। मोह युद्धकी तैयारी कर अपने राग-द्वैधरूपी मंत्रियोंसे साहाय्य प्राप्त करता है और अष्ट कोंको सेना सजाकर सैन्य संचालनका भार मोहनीय कर्मको देता है। दोनों ओरकी सेनाएं रणभूमिमें एकत्र हो जाती हैं। एक ओर मोहके सेनापतित्वमें काम, क्रोध आदि विकार और अष्ट कर्मोंका सैन्य-दल है। दूसरी ओर ज्ञानके सेनापतित्वमें दर्शन, चरित्र, सुख, वीर्य आदिको सेनाएं उपस्थित है । मोहराज चेतनपर आक्रमण करता है; पर ज्ञानदेव स्वानुभूतिकी सहायतासे विपक्षी दलको परास्त देता है । कविने युद्धका बड़ा ही सजीव वर्णन किया है । निम्न पंक्तियाँ हैं: २६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी बाचाय-परम्परा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर बलवंत मदमत्त महामोहके, निकसि सब सैन आगे जु आये । मारि घमासान महाजुद्ध बहुक्रुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाए | वीर- सुविवेकने धनुष ले ध्यानका मारि के सुभट सातों गिराए । कुमुक जो ज्ञानकी सेन सब संग घसी मोहके सुभट मूर्छा सवाए | रणसिंगे बज्जहि कोऊ न भज्जह, करहिं महा दोऊ जुद्ध । इत जीव हंकारहि, निजपर दारहि, करहै अरिनको रुद्ध || शतमष्टोत्तरी- इसमें १०८ पद्य है । कविने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश अंकित किया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदयग्राह्य है । अत्यल्प कथानकके सहारे आत्मतत्त्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैली में करा देने में इस रचनाको अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है । कवि कहता है कि चेतनराजाको दो रानियाँ है, एक सुबुद्धि और दूसरी माया माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बुद्धिमती होनेपर भी सुन्दरी नहीं है। चेतनराजा मायारानीपर बहुत आसक्त है। दिन-रात भोग-विलास में संलग्न रहता है । राजकाज देखनेका उसे बिल्कुल अवसर नहीं मिलता। अतः राज्यकर्मचारी मनमानी करते हैं । यद्यपि चेतन राजाने अपने शरीर - देशको सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोतवाल, लोभको मंत्री, कर्मोदयको काजी, कामदेवको वैयक्तिक सचिव और ईर्ष्या-घृणाको प्रबन्धक नियुक्त किया है। फिर भी शरीर देशका शासन चेसनराजाकी असावधानी के कारण विशृंखलित होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधानमंत्री बननेके लिए संघर्ष आरंभ कर दिया है। इधर लोभ और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखने के लिये नाना प्रकारसे देशको त्रस्त कर रहे हैं । नये-नये प्रकारके कर लगाये जाते हैं, जिससे बारीर-राज्य की दुरवस्था हो रही है। ज्ञान, दर्शन सुख वीर्य, जो कि चेतन राजाके विश्वासपात्र अमात्य है, उनको कोतवाल सेनापति, वैयक्तिक सचिव आदिने खदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर - देशको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न हो कर सेनापति मोहने अपना शासन स्थापित कर लिया है। चेतनकी आशाको सभी अवहेलना करते हैं । P माधा-रानी भी मोह और लोभको चुपचाप राज्य शरीर-संचालन में सहायता देती है । उसने इस प्रकार षड्यन्त्र किया है जिससे वेतन राजाका राज्य उलट दिया जाय और वह स्वयं उसकी शासिका बन जाये । जब सुबुद्धिको चेतनराजा के विरुद्ध किये गये षड्यन्त्रका पता लगा तो उसने अपना कर्तव्य और धर्म समझकर चेतन राजाको समझाया तथा उससे प्रार्थना की- "प्रिय चेतन, तुम अपने भीतर रहनेवाले ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंकी सम्हाल नहीं करते । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २६७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय और शरीरके गुणोंको अपना समझ माया-रानीमें इतना आसक्त होना तुम्हें शोभा नहीं देता। जिन क्रोध, मोह और काम-कर्मचारियोंपर तुमने विश्वास कर लिया है वे निश्चय ही तुमको ठग रहे हैं। तुम्हारे चेतन्य-नगरपर उनका अधिकार होनेवाला है, क्योंकि तुमने शरीरके हारनेपर अपनी हार और उसके जीतनेपर जीत समझ ली, दिन-रात मायाके द्वारा निरूपित सांसारिक धन्धोंमें मस्त रहनेसे तुम्हें अपने विश्वासप्राप्त अमात्योंको भी खो देना पड़ेगा। तुमने जो मार्ग अभी ग्रहण किया है वह बिल्कुल अनुचित है । क्या कभी तुमने विचार किया है कि तुम कौन हो? कहाँसे आये हो ? तुम्हें कौन-कौन धोखा दे रहे हैं ? और तुम अपने स्वभावसे किस प्रकार च्युत हो रहे हो? ये द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि तथा भावकमं राग-द्वेष आदि, जिनपर तुम्हारा अटूट विश्वास हो गया है, तुमसे बिल्कुल भिन्न है । इनका तुमसे कुछ भी तादात्म्यभाव नहीं है। प्रिय चेतन ! क्या तुम राजा होकर दास बनना चाहते हो? इतने चतुर और कलाप्रवीण होकर तुमने यह मूर्खता क्यों को ? सीन लोकके स्वामी होकर मायाको मीठी बातोंमें उलझकर भिखारी बन रहे हो? तुम्हारेत्रासको देखकर में वेदनासे झुलस रही हूँ। तुम्हारी अन्धता मेरे लिये लज्जाकी बात है, अब भी समय है, अवसर हैं, सुयोग है और है विश्वासपात्र अमात्योंका सहारा ! हृदयेश ! अब सावधान होकर अपनी नगरीका शासन करें, जिससे शीघ्न ही मोक्ष-महलपर अधिकार किया जा सके | प्राणनाथ ! राज्य सम्हालते समय तुमने मोक्षमहलको प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा भी को थी । मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मोक्ष-महलमें रहनेवाली मुक्ति-रानी इस ठगिनी मायासे करोड़ों-गुणी सुन्दरी और हाव-भावप्रवीण है । उसे देखते ही मुग्ध हो जाओगे। प्रमाद और अहंकार दोनों ही तुमको मुक्ति-रमाके साथ विहार करने में बाधा दे रहे हैं। इस प्रकार सुबुद्धिने नानाप्रकारसे चेतनराजाको समझाया। सुबुद्धिको बात मान लेनेपर चेतनराजा अपने विश्वासपात्र अमात्य ज्ञान, दर्शन आदिको सहायतासे मोक्ष महलपर अधिकार करने चल दिया । काव्यको दृष्टिसे इस रचनामें सभी गुण वर्तमान हैं । मानवके विकार और उसको विभिन्न चित्तवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन किया है। यह रचना रसमय होनेके साथ मंगलप्रद है। भावात्मक शैलीमें कविने अपने हृदयकी अनुभूतिको सरलरूपसे अभिव्यक्त किया है। दार्शनिकताके साथ काव्यात्मक शैलीमें सम्बद्ध और प्रवाहपूर्ण भावोंकी अभिव्यञ्जना रोचक हुई है। कवि चेतनराजाको सुव्यवस्थाका विश्लेषण करता हुआ कहता है काया-सो जु नगरीमें चिदानन्द राज करे; माया-सी जु रानी पै मगन बहु भयो है । २६८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह-सो हे फौजदार क्रोध सो है कोतवार; लोभ-सो वजीर जहाँ लूटिबेको रह्यो है । उदेको जु काजी माने, मानको अदल जाने, कामसेनाका नवीस आई बाको को है ! ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो; सुधि जब आई तबे ज्ञान आय गह्यो है | सुबुद्धि चेतन राजाको समझाती है कौन तुम कहाँ आए, कौन बौराये तुमह; काके रस राचे कछु सुधहू घरतु हो । कौन है वे कमं, जिन्हें एकमेक मानि रहे; अजहू न लागे हाथ भावरि भरतु हो || वे दिन चितारो, जहाँ बीते हैं अनादि काल; कैसे-कैसे संकट सहे हू विसरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो; तीन लोक नाथ के दीनसे फिरतु हो । पश्चेन्द्रियसंवाद - में बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज धर्मोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्र हुए । सभामें नानाप्रकारकी शंकाएं की जाने लगीं । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा- 'पंचेन्द्रियोंके विषय सुखकर हैं या दुखकर ?' मुनिराज बोले"ये पंचेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं। इनका जितना ही पोषण किया जाता है, दुःख ही देती हैं।" एक विद्याधर बीच में ही इन्द्रियोंका पक्ष लेकर बोला- "महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हीं के मुख से सुनिये। ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं ?" मुनिराजका संकेत पाते हो सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने को बड़ा सिद्ध करने लगीं । पश्चात् मुनिराजने उन सभी इन्द्रियों और मनको समझाकर बताया कि तुम सबसे बड़ी आत्मा हो । राग-द्वेषके दूर होनेपर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है ! इस पंचेन्द्रिय-संवाद में इन्द्रियोंके उत्तर- प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभाविक हैं। प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रामाणिक ढंगसे उपस्थित किया है, जिससे पाठक मुग्ध हो जाता है । सर्वप्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : २६९ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाक कहे प्रभु में बड़ी, और न बड़ो कहाय । नाक रहै पत लोक में, नाक गये पत जाय ॥ प्रथम वदनपर देखिए, नाक नवल आकार | सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलसै संसारका, सो सब मुझ परसाद । नाना वृक्ष सुगन्धिको, नाक करें आस्वाद ॥ कानका उत्तर का कहै, न कि न, मन करे गमान ! जो आकर आगे चलै, तो नहिं भूप समान ।। नाक सुरनि पानी झरे, बहे श्लेषम अपार । गंधान करि परित रहै, लाजे नहीं गंवार ।। तेरी छींक सुनै जिते, करे न उत्तम काज । मूदै तुह दुर्गन्ध में, तक न आवे लाज ।। वृषभ नारी निरख, और जीव जग माँहि । जित तित तोको छेदिये, तोऊ लजानो नाहि ॥ कानन कुण्डल झलकता, मणि मुक्ताफल सार । जगमग जगमग ह्र रहै, देखे सब संसार । सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद । इन कानन कर परखिये, मोठे-मीठे नाद ॥ कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार 1 छहों द्रव्य के गुण सुने, जाने सबद-विचार ।। मधुबिन्दुकचौपाई-भी कविका एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इस काव्य में बताया है कि एक पुरुष वनमें जाते हुए रास्ता भूलकर इधरउधर भटकने लगा। जिस अरण्यमें वह पहुँच गया था वह अरण्य अत्यन्त भयंकर था। उसमें सिंह और मवान्मत्त गजोंकी गर्जनाएं सुनाई पड़ रही थीं। वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा। इतने में एक पागल हाथी उसे पकड़नेके लिए दौड़ा। हाथीको अपनी ओर आते हए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी, तो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया। उस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधममखीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी २७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी दौड़ता हुआ उसके पास आया। पर शाखासे लटक जानेके कारण वह उस पेड़के तनेको सँड़से पकड़कर हिलाने लगा। वृक्षके हिलनेसे मषुछत्तेसे एकएक बूंद मधु गिरने लगा और वह पुरुष उस मधुका आस्वादन कर अपनेको सुखी समझने लगा। नीचेके अन्धकूपमें चारों किनारेपर चार अजगर मुंह फेलाये बैठे थे तथा जिस शाखाको वह पकड़े हुए था, उसे काले और सफेद रंगके दो चहे काट रहे थे । उस व्यक्तिकी बुरी अवस्था थी। पास हाथी वृक्षाको लापकर उसे भार डालना चाहता था तथा हाथीसे बच जानेपर चहे उसकी डालको काट रहे थे, जिससे वह अन्धकूप में गिरकर अजगरोंका भक्ष्य बनने जा रहा था । उसको इस दयनीय अवस्थाको आकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधर-दम्पतिने देखा । स्त्री अपने पतिसे कहने लगी-"स्वामिन् इस पुरुषका जल्द उद्धार कीजिए । यह जल्दी ही अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका शिकार होना चाहता है। प्राप दयालु हैं। अतः अब विलम्ब करना अनुचित है। इसे विमानमें बैठाकर इस दुःखसे छुटकारा दिला देना हमारा परम कर्तव्य है।" ___ स्त्रोके अनुरोधसे वह विद्याधर वहां आया और उससे कहने लगा-"आओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लेता हूं। विश्वास करो, मैं तुम्हें विमान द्वारा सुरक्षित स्थानपर पहचा दंगा।" वह पूरुष बोला-"मित्र आप बड़े उपकारी हैं। कृपया थोड़ी देर रुके रहें। अबकी बार गिरने वाली मधुबूंदको खाकर में आता हूँ।" विद्याधरने बहुत देर तक प्रतीक्षा करनेके बाद पुनः कहा-"भाई, निकलना है, तो निकलो, विलम्ब करनेसे तुम्हारे प्राण नहीं बच सकेंगे। जल्दी करो।" पुरुष-"महाभाग ! इस मधुबॅदमें अपूर्व स्वाद है । मैं निकलता है, अबकी बूंद और चाट लेने दोजिये। बेचारे विद्याधरने कुछ समय तक प्रतीक्षा करनेके उपरान्त पुनः कहा-"क्या भाई ! तुम्हें इससे छुटकारा पाना नहीं है ? जल्दी आओ, अब मुझे देरी हो रही है । वह लोभी पुरुष बार-बार उसी प्रकार बूंद और चाट लेने दो, उत्तर देता रहा । अब निराश होकर विद्याधर चला गया और कुछ समय पश्चात् शाखाके कट जानेपर वह उस अन्धकूपमें गिर पड़ा तथा एक किनारेके अजगरका शिकार हुआ। इस रूपकको स्पष्ट करते हुए कविने लिखा हैयह संसार महा वन जान । तामहिं भयभ्रम कूप समान || गज जिम काल फिरत निशदीस । तिहं पकरन कहुँ विस्वावीस ॥ बटकी जटा लटकि जो रही । सो आयुर्दा जिनवर कही ।। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहं जर कादत मसा दोय । दिन अरु रेन लखहु तुम सोय ।। . मांची चूंटित ताहि शरीर । सो बहु रोगादिकको पीर ॥ अजगर पर्यो कूपके बोच । सो निगोद सबतें गति बीच ।। इस प्रकार इस रूपक द्वारा कविने विषय-सुखकी सारहीनताका उदाहरण प्रस्तुत किया है। भैया भगवतीदासकी पुण्यपच्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षावली, गुणमंजरी, अनादिबत्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वग्नबत्तीसी, वैराग्यपंचाशिका और आश्चर्यचतुर्दशी आदि रचनाएँ काव्यको दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । महाकवि भूधरदास हिन्दी भाषाके जैन-कवियोंमें महाकवि भूधरदासका नाम उल्लेखनीय है। कवि आगरानिवासी था और इसकी जाति खण्डेलवाल थी। इससे अधिक इनका परिचय प्राप्त नहीं होता है | इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि कवि श्रद्धाल और धर्मात्मा था | कविता करनेका अच्छा अभ्यास था। कविके कुछ मित्र थे, जो कविसे ऐसे सार्वजनीन साहित्यका निर्माण कराना चाहते थे, जिसका अध्ययन कर साधारण जन भी आत्मसाधना और आचार-तत्त्वको प्राप्त कर सके। उन्हीं दिनों आगरामें जयसिंहसवाई सूबा और हाकीम गुलाबचन्द वहाँ आये | शाह हरिसिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनको बार-बार प्रेरणासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने विक्रम सं० १७८१में पौष कृष्णा त्रयोदशीके दिन अपना 'शतक' नामक ग्रन्थ रचकर समाप्त किया । कविके हृदयमें आत्मकल्याणकी तरंग उठती थी और विलीन हो जाती थी, पर वह कुछ नहीं कर पाता था। अध्यात्मगोष्ठी में जाना और चर्चा करना नित्यका काम था । एक-दिन कवि अपने मित्रोंके साथ बैठा हुआ था कि वहाँसे एक वृद्ध पुरुष निकला, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि कमजोर हो गई थी, लाठोके सहारे चला जा रहा था। उसका सारा शरीर काँप रहा था। मुंहसे कभी-कभी लार भी टपकती थी। वह लाठीके सहारे स्थिर होकर चलना चाहता था, पर वहाँसे दस-पांच कदम ही आगे चल पाया था कि संयोगसे उसकी लाठी टूट गई । पासमें स्थित लोगोंने उसे खड़ा किया और दूसरो लाठीका सहारा देकर उसे घर पहुंचाया। वृद्धको इस अवस्थासे कवि भूधरदासका मन विचलित हो गया और उनके मुखसे निम्नलिखित पद्य निकल पड़ा१. आगरे मैं वालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालकके ख्याल सौं कवित्त कर जाने है । ऐसे ही करत भयो जैसिंह सवाई मूबा, हाकिम गुलाबचन्द आये तिहि थाने है । २७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया रे बुढ़ापा मानी, सुधि-बुधि बिसरानी ॥ श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी, देह लटी भूख घटी, लोचन झरत पानो ॥१॥ दाँतनकी पंक्ति टूटी, हाड़नकी सन्धि छूटी, कायाकी नगरी लूटी, जात नहि पहिचानी ||२|| बालांने वरन फेरा, रोगने शरीर घेरा, पुत्रहून आवे नेरा, औरोंको कहा कहानी ||३|| 'भूधर' समुझि अब स्वहित करोगे कब ? वह गरि है अब सब छह प्राचीन } पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और अनुभव किया कि वृद्धावस्थामें हम सबकी ऐसी ही हालत होती है | अतः आत्मोत्यानकी ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कवि भूधरदासका व्यक्तित्व सांसारिकता से परे आत्मोन्मुखी है । इनकी रचनाओंसे इनका समय वि० सं० की १८वीं शती ( १७८१) सिद्ध होता है । रचनाएं महाकवि भूधरदासने पार्श्वपुराण, जिनशतक और पद-साहित्यकी रचना कर हिन्दी साहित्यको समृद्ध बनाया है। इनकी कविता उच्च कोटिकी होती है। १. पाइर्वपुराण – यह एक महाकाव्य है। इसकी कथा बड़ी ही रोचक और आत्मपोषक है । किस प्रकार वैरकी परम्परा प्राणियोंके अनेक जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है, यह इसमें बड़ी हो खूबीके साथ बतलाया गया है । पार्श्व - नाथ तीर्थंकर होने के नौ भव पूर्व पोदनपुर नगरके राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वमूर्ति के पुत्र थे । उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था । विश्वभूतिके दीक्षा लेने के अनन्तर दोनों भाई राजाके मन्त्री हुए और जब राजा अरविन्दने वज्रकीतिपर चढ़ाई की, तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्धक्षेत्र में आया । कमठने राजधानी में अनेक उपद्रव मचाये और अपने हरीसिंह शाहके सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहे सौं जोरि कौनी एक ठाने हैं । फिर-फिर मेरे मेरे आलसको अन्त भयो, उनकी सहाय यह मेरो मन माने हैं । सतरह से इक्यासिया, पोह पाख तमलीन । तिथि तेरस रविवारको सतक समाप्त कीन ॥ - जिनशतकप्रशस्ति आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७३ १८ 1 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } छोटे भाईकी पत्नी के साथ दुराचार किया। जब राजा शत्रुको परास्त कर राजधानी में आया तो कमठके कुकृत्यको बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ । कमठका काला मुंह कर गदहे पर चढ़ा सारे नगर में घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया। आत्म-प्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर जाकर तपस्वियोंके साथ रहने लगा । मरुभूति कमठ के इस समाचारको प्राप्त कर भूताचलपर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है। नवें जन्म में काशी विश्वसेन राजाके यहाँ पार्श्वनाथका जन्म होता है। पार्श्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं। वे तीर्थंकर बन जाते हैं। मठका प्रीय उनकी स्थाऐं विघ्न करता है; पर पार्श्वनाथ अपनी साधनासे विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होनेपर वे प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचलसे निर्वाण प्राप्त करते हैं । - नायक पार्श्वनाथका जीवन अपने समय के समाजका प्रतिनिधित्व करता हुआ लोक-मंगलकी रक्षा के लिए बद्धपरिकर है। कविने कथामें क्रमबद्धताका पूरा निर्वाह किया है । मानवता और युगभावनाका प्राधान्य सर्वत्र है; पर स्थिति-निर्माण में पूर्वके नौ भवोंकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है । जीवनका इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में हो मिलेगा । इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियोंके बीच अंकित हुआ है । अत इसमें मानव के रागद्वेषों की क्रीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्यका ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पार्श्वनाथके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है । वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना- विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है । कवि जीवनके सत्यको काव्य के माध्यम से व्यक्त करता हुआ कहता है - I बालक - काया कूपल लोग | पत्ररूप जीवनमें होय ॥ पाको पात जरा तन करें। काल-बयारि चलत पर झरे ॥ मरन - दिवसको नेम न कोय । याते कछु सुधि परे न लोय ।। एक नेम यह तो परमान | जन्म धरे सो मरे निदान ||४|६५-६७ अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है । इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है। पत्तोंका पक जाना जरा है। मृत्युरूपी बायु इस पके पत्तेको अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है। जब जीवनमें मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्रा के लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए । २७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा ▾ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनका अर्न्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर.इस शानदीपमें तपरूपो तेल और स्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है। ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोघे भ्रम छोर । या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।८१ कविने इस काव्यकी समाप्ति वि० सं० १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमीको की है।' २. जैन शसक-इस रचनामें १०७ कवित्त, दोहे, सवैये बोर छप्पय हैं। कविने वैराग्य-जीवनके विकासके लिए इस रचनाका प्रणयन किया है। पद्धावस्था, संसारकी असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तृष्णाकी नग्नता आदि विषयोंका निरूपण बड़े ही अद्भुत ढंगसे किया है। कवि जिस तय्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नोरस और गूढ विषयोंका निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शेलीमें किया गया है। कल्पना, मावना और विचारोंका समन्वय सन्तुलित हमें या है । यात्म-मौन्दर्यका दर्शन कर कवि कहता है कि संसारके भोगोंमें लिप्त प्राणी अनिश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार मो संभव हो उस प्रकार में धन एकत्र कर आमन्द भोगू । मानव नाना प्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होनेपर संसारके समस्त अभ्युदयजन्य कार्यों को सम्पन्न करूंगा, पर उसकी धनार्जनकी यह अभिलाषा मृत्युके कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजो । गेह चिनाय करूं गहना फछु, ब्याहि सुता सुत बाटिय भाजी ।। चिन्तत यो दिन जाहि चले, जम आनि अचानक देत दगाजी। खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी॥ इस संसारमें मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी सेवा करता है। शरीरको स्वच्छ करने में अनेक साबुनको बट्टियाँ रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियो खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थों का उपयोग शारीरिक सौन्दर्य, प्रसाधनमें करता है, प्रतिदिन रगड़-रगड़कर शरीरको साफ करता है। इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है। प्रत्येक इन्द्रियको तृप्तिके लिए अनेक पदार्थोका संचय करता है। इस प्रकारसे मानवको दृष्टि अनात्मिक १. संवत् सतरह शतक मैं, और नवासी लीय । सुदी अषाढ़ तिथि पंचमी, अन्य समापत कोय ।। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७५ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो रही है। वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्में उसी सत्यका अनुभव कर जगत्के मानवोंको सजग करते हुए. कहा है मात-पिता-रज-बीरज सौं, उपजी सब सात कुधात भरी है । माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़ घरी है ।। नाहि तो आय लगें अबहीं, बक वायस जीव बचे न धरी है । देह दशा यह दोखत भ्रात, घिनात नहीं किन बुद्धि हगे है ।। इस प्रकार कविने इस शतकमें अनात्मिक दृष्टिको दूर कर आत्मिक दृष्टि स्थापित करनेका प्रयास किया है। ३. पा साहित्य–महाकवि भूधरदासकी तीसरी रचना पद-संग्रह है । इनके पदोंको-१. स्तुतिपरक, २. जीवके अज्ञानावस्थाके कारण परिणाम और विस्तार सूचक, ३. आराध्यकी शरणके दृढ़ विश्वास सूचक, ४. अध्यात्मोपदेशी, ५, ससार और शरीरसे.विरक्ति उत्पादक, ६, नाम स्मरणके महत्त्व द्योतक और ७. मनुष्यत्वके पूर्ण अभिव्यहजन इन सात वर्ग में विश्वन निगा गा : काला है : इन सभी प्रकारके पदोंमें शाब्दिक कोमलता, भावोंकी मादकता और कल्पनाओंक। इन्द्रजाल समन्वित रूपमें विद्यमान है | इनके पदोंमें राग-विगगका गंगा-यमुनी संगम होनेपर भी शृंगारिकता नहीं है । कई पद सूरदासके पदोंके समान दृष्टिकूट भी हैं। "जगत्-जन जुआ हार चले" पदमें भाषाकी लाक्षणिकता और काव्याक्तियोंकी विदग्धता पूर्णतया समाविष्ट है । "सुनि ठगनी माया । तें सब जग ठग खाया' पद कवी रके "माया महा ठगनो हम जानी" पदसे समकक्षता रखता है। इसी प्रकार "भगवन्त भजन क्यों भूला रे | यह ससार रेनका सुपना,तन धन वारि बबूला रे" पद "भज मन जोवन नाम सबेरा' कबीरके पदके समकक्ष है । "चरखा चलता नाही, वरखा हुआ पुराना" आदि आध्यात्मिक पद कबारके "चरखा चलै सूरत विरहिनका" पदके तुल्य है। इस प्रकार भूधरदासके पद जीवनमें आस्था, विश्वासको भावना जागृत करते हैं । कवि धानतराय द्यानतराय आगरानिवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जाति के गोयल गोत्रमें हुआ था। इनके पूर्वज लालपुरसे आकर यहाँ बस गये थे । इनके पितामहका नाम वीरदास और पिताका नाम श्यामदास था । इनका जन्म वि. सं. १७३३में हुआ और विवाह वि० सं० ५७४८में । उस समय आगरामें मानसिंहजोको धर्मशैली थी । कवि द्यानतरायने उनसे लाभ उठाया | २७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afant पंडित बिहारीदास और पण्डित मानसिंह के धर्मोपदेशसे जैनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने सं० १७७७ में श्री सम्मेदशिखरकी यात्राकी थी । इनका महान ग्रन्थ 'धर्मविलासके' नामसे प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में ३३३ पद, अनेक पूजाएँ एवं ४५ विषयोंपर फुटकर कविताएं संग्रहीत हैं । कविने इनका संकलन स्वयं वि० स० १७८० में किया है। काव्य-विषाकी दृष्टिसे खानस - विलासकी रचनाओंको निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है १. पद २. पूजापाठ - भक्ति स्तोत्र और पूजाएं । ३. रूपक काव्य ४. प्रकीर्णक काव्य पद - इनके पद साहिब १ बधाई १ वन ३ आय-प ४. आश्वासन, ५. परत्वबोधक, ६. सहज समाधिकी आकांक्षा इन षट् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता हैं । बधाई सूचक पदों में तोर्थंकर ऋषभनाथ के जन्मसमयका आनन्द व्यक्त किया है। प्रसंगवश प्रभुके नख-शिखका वर्णन भी किया गया है । अपने इष्टदेव के जन्म समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोंका स्मरण कर कवि आनन्दविभोर हो जाता है और हर्षोन्मत्त हो गा उठता है माई आज आनन्द या नगरी ॥ टेक ॥ गजगमनी, शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति हैं सगरी ॥ माई० || नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचक रो || माई०|| 'द्यानत' घन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पग री || माई० || कविके पदोंकी प्रमुख विशेषता यह है कि तथ्यों का विवेचन दार्शनिक शैलीमें न कर काव्यशैलीमें किया गया है । "रे मन भजभज दीन दयाल, जाके नाम लेत इक खिनमें, कटै कोटि अघजाल" जैसे पदों द्वारा नामस्मरणके महत्त्वको प्रतिपादित किया है। प्रकीर्णक काव्य - प्रकीर्णक-काव्य में उपदेशशतक, दानबावनी, व्ययहारपच्चीसी, पूर्ण पंचाशिका आदि प्रधान हैं । उपदेशशतकमें १२१ पच हैं । कविने आत्मसौन्दर्यका अनुभव कर उसे संसारके समक्ष इस रूपमें उपस्थित किया है, जिससे वास्तविक आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान सहज में हो जाता है। आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २७७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कृति मानव-हृदयको स्वार्थ-सम्बन्धोंकी संकीर्णतासे ऊपर उठाकर लोक कल्याणकी भावभूमिपर ले जाती है, जिससे मनीविकारोंका परिष्कर हो जाता है। कविने आरंभमें इष्टदेवको नमस्कार करनेके उपरान्त भक्ति एवं स्तुसिको आवश्यकता, मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको महिमा, गृहवासका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःख, पुण्यपापकी महत्ता, धर्मको उपादेयता, शानीअज्ञानीका चिन्सन, आत्मानुभूतिको विशेषता, शुद्ध आस्मस्वरूप एवं नवतस्वस्वरूप आदिका सुन्दर विवेचन किया है। भवसागरसे पार होनेका कविने कितना सुन्दर उपाय बताया है सोचत जात सबै दिन-रात, कछु न बसात कहा करिये जी । सोच निवार निजातम धारहु, राग-विरोध सबै हरिये जी । यौं कहिये जु कहा लहिये, सु बहे कहिये करुना धरिये जो। पावत मोख मिटावत दोष, सु यौं भवसागर को तरिये जी ॥ कविने इसी प्रन्यमें समताका महत्त्व बतलाते हुए कितने सुन्दर रूपमें कहा है-समदष्टि आत्मरूपका अनुभव करता है। उसे अपने अन्तसकी छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। अतः वह आध्यात्मिक समरसताका आस्वादन कर निश्चिन्त हो मासा है । कविने कहा है - काहेको सोच कर मन भूरख, सोच करें कछ हाथ न ऐहै। पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निहचय अपनो रस देहै ।। ताहि निवारनको बलवन्त, तिहूँ जगमाहिं न कोउ लसे हैं। ताते हि सोच तजो समता गहि, ज्यौं सुख होइ जिनंद कहे हैं । धर्मविलास' या धानतविलासके अतिरिक्त कविके अन्य दो ग्रन्थ और पाये जाते हैं । आममविलास तथा भेद-विज्ञान या आत्मानुभव । आगमविलासमें कविकी ४६ रचनाएं संकलित हैं। उनका संकलन उनकी मृत्युके पश्चात् पं० जगतराय द्वारा किया गया है। कहा जाता है कि द्यानतरायकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओंको उनके पुत्र लालजोने आलमगंजवासी किसी शाझ नामक व्यक्तिको दे दिया। पंडित जगतरायने वे रचनाएं नष्ट न हो जायें, इस आशयसे उन्हें एक गुटकेमें' संगृहीत कर दिया है १. यह अन्य जैन रत्नाकर कार्यालय बम्बई द्वारा फरवरी १९१४ में प्रकाशित । २७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमविलासके प्रारम्भ में १५२ सवैथा-छन्दों में सैद्धान्तिक विषयोंको चर्चा है । अतः सैद्धान्तिक विषयोंकी प्रधानताके कारण ही इस रचनाका नाम आगमविलास रखा गया है । भेदविज्ञान या आत्मानुभव यह कविकी एक अन्य रचना है । कविने इसमें जीवद्रव्य और पुद्गलादि द्रव्योंका विवेचन किया है। कविका विश्वास है कि आत्मतत्त्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। आत्मतस्वके उपलब्ध होते ही विषयरस नीरस प्रतीत होने लगते हैं । मैं एक शुद्ध शानी, निर्मल सुभाव ज्ञाता, दुग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी । X X x X अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा || कवि धार्मिक प्रवृत्तिका लेखक है; पर व्यवहार और काव्यतत्वोंकी कमी नहीं आने पाई है । संसारकी सजीवताका चित्रण करते हुए लिखा हैरूजगार बने नाहि धनतौं न घर माहि खानेकी फिकर बहु नारि चाहे गहना | देनेवाले फिरि जाँहि मिले तो उधार नाहि कोळ साझी मिले चोर धन आवें नाहि लहना । पूत ज्वारी भयो, घर माहि सुत थयो, एक पूत मरि गयो ताको दुःख पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई, सहना । एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना || १. धानतका सुत लालजी, चिट्ठे ल्याओ पास | सो ले शालूको दिए, आलमगंज सुवास ।१३।। तासे पुनसे सकल ही, चिट्ठे लिये मँगाय । मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय || १४ || तब मन माँहि विचार, पोथी किन्ही एक ठी । जोरि पढ़े नर नारि, धर्म ध्यानमें थिर रहें ||१५|| संवत सतरह से चौरासी, माघ सुदी चतुर्दशी मासी । तब यह लिखत समाप्त कीन्हों, मैनपुरीके माहि नवमी ॥ १६ ॥ आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : २७९ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किशनसिंह यह रामपुरके निवासी संगही कल्याणके पौत्र तथा आनन्दसिंह के पुत्र थे । इनकी खण्डेलवाल जैन जाति थी और पाटनी गोत्र था। यह रामपुर छोड़कर सांगानेर आकर रहने लगे थे । इन्होंने संवत् १७८४ में क्रियाकोश नामक छन्दोबद्ध ग्रन्थ रचा था, जिसकी श्लोकसंख्या २९०० है । इसके अलावा भद्रबाहुचरित संवत् १७८५ और रात्रिभोजन त्यागव्रतकथा सं० १७७३ में छन्दोबद्ध लिखे हैं । इनको कविता साधारण कोटिकी है। नमूना निम्न प्रकार है-परधान, माथुर वसंतराय बोहराको पाटणी बखानिये ! संगहो कल्याणदास रामपुर वास जाकी सुत सुखदेव सुधी ताकी सुत किस्नसिंह कविनाम जानिये ॥ तिहि निसि भोजन त्यजन व्रत कथा सुनी, लांको कोनी चोपई सुआगम प्रमाणिये । भूलि चूकि अक्षर घर जो वार्को बुधजन, सोधि पढ़ि वीनती हमारी मनि आनिये ॥ कवि खड्गसेन यह लाहौर निवासी थे । इनके पिताका नाम लूगराज था । कविके पूर्वज पहले नारनोलमें रहा करते थे । यहीं से आकर लाहौर में रहने लगे थे । इन्होंने नारनोलमें भी चतुर्भुज वैरागीके पास अनेक ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । इन्होंने संवत् १७१३ में त्रिलोकदर्पणकी रचना सम्पूर्ण की थी । कविता साधारण हो है । उदाहरणार्थ - बागड देश महा विसतार, नारनौल तहाँ नगर निवास । तहाँ कौम छत्तीसौं बसें, अपनें करमतणां रस से || श्रावक व परम गुणवन्त, नाम पापडीवाल वसन्त । सब भाई में परमित लिये, मानू साह परमगण किये। ठाकुरदास । जिसके दो पुत्र गुणश्वास, कृणराज ठाकुरसीकै सुत हैं तीन, तिनको जाणों परम प्रवीन । ast पुत्र धनपाल प्रमाण, सोहिलदास महासुख जाण । मनोहरलाल या मनोहरदास यह कवि धामपुरके निवासी थे। आसू साहके यहाँ इनका आश्रय था । २८० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ के सम्बन्धमें इन्होंने मनोरंजक घटना लिखी है। सेठकी दरिद्रताके कारण वह बनारस से अयोध्या चले गये, किन्तु वहाँ के मेठने सम्मान और तर सम्पत्ति के साथ वापस लौटा दिया। कविने होरामणिके उपदेश एवं आगरा निवासी सालिवाहण, हिसारके जगदत्त मिश्र तथा उसी नगरके रहनेवाले गंगराजके अनुरोध से 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रन्थकी रचना संवत् १७७५ में की है । यह रचना कहीं-कहीं बहुत सुन्दर है। इस ग्रन्थका परिमाण ३००० पद्य है । कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है : कविता मनोहर खंडेलवाल सोनी जाति, मूलसंघी मूल जाकी सांगानेर वास है । कर्मके उदय तें धामपुर में वसन भयो, सबसौं मिलाप पुनि सज्जनको दास है । व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यौ नाहि, भाषा में निपुन तुच्छ बुद्धिका प्रकास है । बाई दाहिनी कछू समझे संतोष लीयै, जिनकी दुहाई जाऊँ जिन हो की आस है । नथमल विलाला नथमल बिलाला आगराके रहनेवाले थे। इन्होंने वि० सं० १८२७ में 'वरांगचरित भाषा' की रचना करनेवाले अटेर निवासी पाण्डेय लालचन्द्रको सहायता प्रदान की थी।" नथमलके पिताका नाम शोभाचन्द्र था और गोत्र विलाला, ये प्रतिभाशाली कवि थे । इनकी रचनाएं निम्न लिखित हैं : १. सिद्धान्तसार दीपक (वि० सं० १८२४) २. जिनगुणविलास ३. नागकुमारचरित (वि० सं० १९८३४) ४. जीवंधरचरित (वि० सं० १८३५) ५. जम्बूस्वामी चरित पंडित दौलतराम कासलीवाल पं० दौलतरामजी कासलीवालका जन्म वि० सं० १७४५ में बसवा ग्राममें १. नन्दन सोभाचन्दको नथमल अति गुनवान। गोत बिलाला गगनमें उद्यो चंद समान || नगर आगरो तज रहे, हीरापुर में आय करत देखि इस ग्रंथ को कीनी अधिक सहाय || काचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २८१ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था । इनके पिताका नाम आनन्दराम था । जाति खण्डेलवाल और गोत्र ये उदयपुर कासलीवाल था । जयपुरके महाराजसे इनका विशेष परिचय था । राज्यभं जयपुरके वकील और हाँ वर्षो तक रहे। संस्कृतके अच्छे ज्ञाता थे। हिन्दी गद्य साहित्य के क्षेत्रमें सबसे पहली रचना इन्हीं दौलतरामकी उपलब्ध है । ये दौलतराम पं० टोडरमल रायमल आदिके समकालीन थे । संस्कृत, हिन्दी और अपभ्रंश इन तीनों ही भाषाओंके विद्वान् थे । इनका समय विक्रम को १८वीं शतीका अंतिम भाग और १९वीं शतोका पूर्वाद्धं है । इन्होंने निम्नलिखित रचनाएँ लिखते हैं १. पुण्यास्रववचनिका (वि० सं० १७७७), २. क्रियाकोषभाषा । वि० १७९५) ३. आदिपुराणवचनिका (सं० १८२४), ४. हरिवंशपुराण (सं० १८२९), ५. परमात्मप्रकाशवचनिका, ६. श्रीपाल चरित (सं० १८२२ ), ७. अध्यात्मबाराखड़ी ( वि० सं० १७९८), ८ वसुनन्दीश्रावकाचार टब्बा (वि० सं० १८१८), ९. पदमपुराणवचनिका (सं० १८२३), १०. विवेकविलास (वि० सं० १८२७), ११. तत्त्वार्थ सूत्रभाषा, १२. चौबीसदण्डक, १३. सिद्धपूजा १४ आत्मबत्तीसी, १५. सारसमुच्चय, १६. जीवंधरचरित (वि० सं० १८०५), १७. पुरुषार्थं सिद्धयुपाय जो पं० टोडरमल पूर्ण नहीं कर पाये थे । कविने पदमपुराणवचनिका में अपना परिचय देते हुए लिखा है कि रायमल्ल साधर्मी भाईकी प्रेरणा से इस ग्रन्थको वचनिका लिखी जा रही है । लिखा है ' विशेष || जम्बूद्वीप सदा शुभ पान | भरत क्षेत्र ता माहि प्रमाण ॥ उसमें आरजखंड पुनीत । वसें ताहि में लोक विनीत ॥ १ ॥ तिनके मध्य ढुंढार जु देश । निवसे जेनी लोक नगर सवाई जयपुर महा । तासकी उपमा जाय राज्य करें माधव नृप जहां । कामदार जैनी जन ठौर-ठोर जिनमंदिर बने । पूजें तिनकूं भविजन बसें महाजन नाना जाति । सेवं निजमारग रायमल्ल साधर्मी एक जाके घट में दयावन्त गुणवन्त सुजान। पर उपकारी परम दौलतराम सु ताको मित्र । तासों भाष्यों वचन पद्मपुराण महाशुभ ग्रन्थ । तामें लोकशिखरको भाषारूप होय जो येह । बहुजन बांच करें अति बहु न्याति ॥ स्वपर - विवेक ॥४॥ निधान ॥ पवित्र ॥५॥ २८२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा न कहा ||२|| तहां ॥ घने ॥३॥ पन्थ ॥ नेह ॥६॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साके वचन हिये में धार । भाषा कीनी मति अनुसार ॥ रविषेणाचारज- कृत सार । जाहि पढ़ें बुधजन गुणधार ||७|| जिनर्धामिनकी आज्ञा लेय। जिनशासन माहों चित दय ॥ आनन्दसुतने भाषा करी । नंदो विरदो अति रस भरी ॥८॥ X X X सम्वत् अष्टादश शत जान । ता ऊपर तेईस बस्तान (१८२३ ) || शुक्ल पक्ष नवमी शनिवार । माघ मास रोहिणी ऋख सार ||१०|| आचार्यकल्प पं० टोडरमल महाकवि आशाधरके अनुपम व्यक्तित्वकी तुलना करनेवाला व्यक्तित्व आचार्यकल्प पं० टोडरमलजीका है। इन्हें प्रकृतिप्रदत्त स्मरणशक्ति और मेवा प्राप्त थी । एक प्रकारसे ये स्वयं बुद्ध थे । इनका जन्म जयपुर में हुआ था । पिताका नाम जोगीदास और माताका नाम रमा या लक्ष्मी था। इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र गोदीका था । ये शैशवसे ही होनहार थे। गूढ़-से-गूढ़ शंकाओंका समाधान इनके पास मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभाका ज्ञान तत्कालीन सघर्मी भाई रायमल्लने इन्द्रध्वज पूजाके निमन्त्रणपत्र जो उद्गार प्रकट किये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्गारोंको ज्यों-का-त्यो दिया जा रहा है "यहाँ घणां भायां और घण बायां व्याकरण व गोम्मटसारजोकी चर्चा का ज्ञान पाइए हैं । सारा ही विषे भाईजी टोडरमलजीके ज्ञानका क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसारादि ग्रन्थों की सम्पूर्ण लाल श्लोक टीका बणाई, और पाँच-सात ग्रन्थोंकी टीका बणायवे का उपाय है । न्याय, व्याकरण, गणित, छन्द, अलंकारका यदि ज्ञान पाइये है। ऐसे पुरुष महन्त बुद्धिका धारक ईकाल विष होना दुर्लभ है । ताते यासू मिलें सर्वं सन्देह दूरि होय है । घणी लिखवा करि कहा आपणां हेतका वांछीक पुरुष शीघ्र आप यांसू मिलाप करो ।" इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि टोडरमलजी महान् विद्वान् थे । वे स्वभावसे बड़े नम्र थे । अहंकार उन्हें छू तक न गया था । इन्हें एक दार्शनिकका मस्तिष्क, श्रद्धालुका हृदय, साधुका जीवन और सैनिककी दृढ़ता मिली थी । इनकी वाणीमें इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्रप्रवचन सुननेके लिए एकत्र होते थे। गृहस्थ होकर भी गृहस्थी में अनुरक्त नहीं थे | अपनी साधारण आजीविका कर लेनेके बाद ये शास्त्रचिन्तनमें रत रहते आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २८३ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे । इनकी प्रतिभा विलक्षण थी । इसका एक प्रमाण यही है कि इन्होंने किसी . से बिना पढ़े हो कन्नड़ लिपिका अभ्यास कर लिया था। अब तकके उपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इनका जन्म वि० सं० १७९९७ है और मत्य सं० १८२४ है। टोडरमल जी आरंभसे ही क्रान्तिकारी और धर्मके स्वच्छ स्वरूपको हृदयंगत करनेवाले थे। इनको शिक्षा-दीक्षाके सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं है, पर इनके गुरुका नाम वंशोधरजी मैनपुरी बतलाया जाता है । वह आगरासे आकर जयपुर में रहने लगे थे और बालकोंको शिक्षा देते थे । टोडरमल बाल्यकालसे ही प्रतिभाशाली थे । अतएव मुरुको भी उन्हें स्वयंबद्ध कहना पड़ा था । वि० स० १८११ फाल्गुन शुक्ला पंचमीको १४-१५ वर्षको अवस्थामें अध्यात्मरसिक मुलतानके भाइयोंके नाम चिट्ठी लिखी थी, जो शामहिटी है। गानस्तानके त्याची विद्वान् पंडित देवीदास मोघाने अपने सिद्धान्तसारसंग्रहवत्रनिका ग्रन्थमें इनका परिचय देते हुए लिखा है___ "सो दिल्ली पढ़िकर बसुवा आय पाछे जयपुर में थोड़ा दिन टाडरमल्लजी महा बुदिमानके पासि शास्त्र सुननेको मिल्या........"सो टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान रतनचन्दजी, अजबरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महारामजी, विशेष चरचावान ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोकचन्द सौगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धिमान तिनके आगे शास्त्रका तो व्याख्यान किया।" इस उद्धरणसे टोडरमलजीको शास्त्र-प्रवचन शक्ति एवं विद्वता प्रकट होती है। आरा सिद्धान्त भवन में संगृहीत शान्तिनाथपुराणको प्रशस्तिमें टोडरमलजीके सम्बन्धमें जो उल्लेख मिलता है उससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है।। वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल किपाल | ता प्रसंग को पाय के, गह्यो सुपंथ विशाल । गोमठसागदिक तने, सिद्धान्तन में सार । प्रवर बोध जिनके उद, महाकवि निरधार । फुनि ताके तट दूसरो, राजमल्ल बुधराज । जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज । देश ढूंठाहड आदि दे, सम्बोधे बहु देस । रचि रचि ग्रन्थ कठिन किये, 'दोडरमल्ल' महेश । माता-पिताको एकमात्र सन्तान होनेके नाते टोडरमल्लजीका बचपन बड़े लाड़-प्यारमें बीता । बालकको व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिताने शिक्षाकी २८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष व्यवस्था की और वाराणसीसे एक विद्वानको व्याकरण, दर्शन आदि विषयोंको पढ़ानेके लिए बुलाया । अपने विद्यार्थीको व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गरुजी भी चकित थे। टोडरमल व्याकरणसत्रोंको गुरुसे भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छ: मासमें ही इन्होंने जैनेन्द्र व्याकरणको पूर्ण कर लिया। अध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् इन्हें धनोपार्जनके लिए सिंहाणा जाना पड़ा । इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पिताका स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमलजी अपने कार्य के अतिरिक्त पूरा समय शास्त्रस्वाध्यायमें लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्लजो भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुँचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें गोम्मटसार'का भाषानुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्षको अवस्थामें ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार एवं त्रिलोकसारक ६५००० श्लोकप्रमाणको टीका कर इन्होंने जनसमूहमें विस्मय भर दिया। सिंघाणासे जयपुर लौटनेपर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़ेका नाम हरिश्चन्द्र और छोटेका नाम गुमानीराम था । इस समय तक टोडरमलजीके व्यक्तित्वका प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और चारों ओर उनकी विद्वत्ताको चर्चा होने लगी थी। यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचारके विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया | शास्त्रप्रवचन एवं ग्रन्थनिर्माणके माध्यमसे उन्होंने समाजमें नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की | इनका प्रवचन तेरहपन्थी बड़े मन्दिरमें प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे । सारे देशमें उनके शास्त्रप्रवचनकी धूम थी। टोडरमलका जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियोंके लिए असह्य हो गया । वे उनकी कीत्तिसे अलने लगे और इस प्रकार उनके विनाशके लिए नित्य प्रति षड्यन्त्र किया जाने लगा। अन्तमें वह षड्यन्त्र सफल हुआ और युवावस्थामें गौचनको कीति अन्तिम चरणमें पहुंचने वाली थी कि उन्हें मृत्युका सामना करना पड़ा। सं० १८२४में इन्हें आततायियोंका शिकार होना पड़ा और हंसतेहंसते इन्होंने मत्युका आलिंगन किया। रचनाएँ टोडरमलजीकी कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीका ग्रन्थ और चार मौलिक ग्रन्थ हैं । मौलिक ग्रन्थोंमें १, मोक्षमार्गप्रकाशक २. आध्यारिमक पत्र, ३. आचार्यसुख्य काव्यकार एवं लेखक : २८५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं। टीकाग्रन्थ निम्न लिखित हैं:१. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) - सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका | यह सं० १८१५ में पूर्ण हुई। २. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) - ३. लब्धिसार ا "" "P टीका सं० १८१८में पूर्ण हुई । ४. क्षपणासार - वचनिका सरस है । ५ त्रिलोकसार - इस टीकामें गणितको अनेक उपयोगी और विद्वत्तापूर्ण चर्चाएं की गई हैं। ६. आत्मानुशासन - यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत ग्रन्थ है। इसको बच निका संस्कृत टीकाके आधारपर है । ७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय — इस ग्रन्थको टीका अधूरी हो रह गई है । मौलिक रचनाएं १. अर्थसंदृष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक । इन समस्त रचनाओंमें मोक्षमार्ग प्रकाशक सबसे महत्त्वपूर्ण है । यह ९ अध्यायोंमें विभक्त है और इसमें जैनागमका सार निबद्ध है। इस ग्रन्थके स्वाध्यायसे आगमका सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रन्थके प्रथम अधिकार में उत्तम सुख प्राप्तिके लिए परम इष्टअर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधुका स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठीका स्वरूप समझनेके लिए यह अधिकार उपादेय है । द्वितीय अधिकारमें संसारावस्थाका स्वरूप वर्णित है । कर्मबन्धनका निदान, कर्मोंके अनादिपनकी सिद्धि, जीव- कर्मोकी भिन्नता एवं कथंचित् अभिनता, योगसे होनेवाले प्रकृति- प्रदेशबन्ध कषायसे होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कर्मोंके फलदानमें निमित्त नैमित्तिकसम्बन्ध, द्रव्यकर्म और भावकर्मका स्वरूप, जीवको अवस्था आदिका वर्णन है । तृतीय अधिकारमें संसार - दुःख तथा मोक्षसुखका निरूपण किया गया है । दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्व और मोहजनित विषयाभिलाषा है । इसीसे चारों गतियोंमें दुःखकी प्राप्ति होती है। चौथे अधिकारमें मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्याचारित्रका निरूपण किया गया है। इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना राग-द्वेषको प्रवृत्तिके कारण होती है; जो इस प्रवृत्तिका त्याग करता है उसे सुख की प्राप्ति होती है । पंचम अधिकार में विविधमत समीक्षा है । इस अध्यायसे पं० टोडरमलके २८६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोशका परिचय प्राप्त होता है । इस अध्यायसे यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतोंका अध्ययन कर अनेकान्तबुद्धिके द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है। षष्ठ अधिकारमें सस्थतत्त्वविरोधी असत्यायतनोंके स्वरूपका विस्तार बतलाया गया है । इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्तिके पिपासुको मुक्तिविरोधी तत्त्वोंका कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए। मिथ्यात्वभावके सेवनसे सत्यका दर्शन नहीं होता। सप्तम अधिकारमें जेन मिथ्या दृष्टिका विवेचन किया है । जो एकान्त मार्गका अवलम्बन करता है वह ग्रन्थकारको दृष्टिमें मिथ्यादष्टि है। रागादिकका घटना निर्जराका कारण है और रागादिकका होना बन्धका । जेनाभास, व्यवहारामासके कथनके पश्चात्, तत्त्व और ज्ञानका स्वरूप बतलाया गया है । अष्टम अधिकारमें आगमक स्वरूपका विश्लेषण किया है। प्रथभानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगके स्वरूप और विषयका विवेचन किया गया है। नवम अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्वके भेद और उसके आठ अंग आदिका कथन आया है। इस प्रकार पं० टोडरमलने मोक्षमार्गप्रकाशकमें जैनतत्त्वज्ञानके समस्त विषयोंका समावेश किया है। यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमागका प्रकाशन है; किन्तु प्रकारान्तरसे उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्यावाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थपर तात्त्विक विवेचना निबद्ध की गयी है। रहस्यपूर्ण चिट्टीमें पं० टोडरमलने अध्यात्मवादको ऊँची बातें कही है। सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होनेका विधान करते हुए लिखा है "वही सम्यक्ची कदाचित् स्वरूप ध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहां प्रथम भेदविज्ञान स्वपरका करे, नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्य. चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहां अनेक प्रकार निजस्वरूपमें अहंबुद्धि धरता है। चिदानन्द है, सुख हूँ, सिद्ध हूँ, इत्याधिक विचार होनेपर सहज ही आनन्दतरंग उठती है, रोमांच हो आता है, सत्पश्चात् ऐसा विचार तो छुट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिकका + नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।" आचार्यसुल्प काव्यकार एवं लेखक : २८७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य स्वरूपका जो सविकल्पसे निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापकरूप होकर इस प्रकार प्रर्वत्तता है जहां ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया। सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव है । बड़े नवचक्र पम्प ऐसा ही नहीं है...... तचाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमम्गेण 1 णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहको जम्हा ।।२६६।।" शुद्ध आत्माको नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्पसे निर्विकल्पक स्थितिको प्राप्त होता है। जिस प्रकार रनको खरीदने में अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहननेका सुख ही है । इस प्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पका अनुभव होता है । इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणोंके भेदके पश्चात् परिणामोंके अनुभवकी चर्चा की गई है । कयनकी पुष्टि के लिए आगमके ग्रन्थोंके प्रमाण भी दिये गये हैं। ५० टोडरमल गद्यलेखकके साथ कवि भी हैं। उनके कविहृदयका पता टीकाओंमें रचित पद्योंसे प्राप्त होता है। लब्धिसारको टीकाके अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा हैमैं हों जीव द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो; लग्यो है अनादि ते कलंक कर्म-मलको । वाहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भए, भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको । रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि, होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको । ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग, बने तो बने यहाँ उपाय निज थलको ।। दौलतराम द्वितीय कवि दौलतराम द्वितीय लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं। ये हाथरसके निवासी और पल्लीवाल जातिके थे 1 इनका गोत्र गंगटीवाल था, पर प्राय: लोग इन्हें फतेहपूरी कहा करते थे । इनके पिताका नाम टोडरमल था । इनका जन्म वि० सं० १८५५ या १८५६के मध्य हुआ था। कविके पिता दो भाई थे। छोटे भाईका नाम चुन्नीलाल था। हाथरसमें हो दानों भाई कपड़ेका व्यापार करते थे। अलीगढ़ निवासी चिन्तार्माण कविके २८८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वसर थे। जिस समय छोटका थान छापने बैठते थे, उस समय चौकीपर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और आत्मानुशासन ग्रंथोंको विराजमान कर लेते थे और छापनेके कामके साथ-साथ ७०-८० श्लोक या गाथाएं भी कण्ठान कर लेते थे। वि० सं० १८८२में मथुरा निवासी सेठ मनीरामजी पं० चम्पालाजीके साथ हाथरस आये और उक्त पण्डितजीको गोम्मटसारका स्वाध्याय करते हुए देखकर बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने साथ मथुरा लिवा ले गये। वहां कुछ दिन तक रहने के पश्चात् आप सासनी या लश्करमें आकर रहने लगे। कविके दो पुत्र हुए। बड़े पुत्रका नाम टीकाराम था । इनके वंशज आजकल भी लश्करमें निवास करते हैं। कहा जाता है कि कविको अपनी मृत्युका परिज्ञान अपने स्वर्गवाससे छ: दिन पहले ही हो गया था । अतः उन्होंने अपने समस्त कुटुम्बियोंको एकत्र कर कहा-"आजसे छठवें दिन मध्याह्नके पश्चात् मैं इस शरीरसे निकलकर अन्य शरीर धारण करूगा । अत: आप सबसे क्षमायाचना कर समाधिमरण ग्रहण करता हूँ।" सबसे क्षमायाचना कर संवत् १९२३ मार्गशीर्ष कृष्ण-अमावस्याको मध्याह्नमें दिल्ली में अपने प्राणोंका त्याग किया था। कविवरके समकालीन विद्वानोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचारके वचनिकाकर्ता पं० सदासुख, बुधजन विलासके कर्ता बुधजन, तीस-चौबीसी आदि कई ग्रंथोंके रचयिता वृन्दावन, चन्द्रप्रभकाव्यकी वनिकाके का तनसुखदास, प्रसिद्ध भजनरचयिता भागचन्द्र और पं० बख्तावरमल आदि प्रमुख हैं। रचनाएँ ___ इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-१. छहढाला और २. पदसंग्रह । छहढालाने तो कविको अमर बना दिया है। भाव, भाषा और अनुभूतिको दृष्टिसे रचना बेजोड़ है । जैनागमका सार इसमें अंकित कर 'गागरमें सागर' भर देनेको कहावतको चरितार्थ किया है । इस अकेले ग्रंथके अध्ययनसे जैनागमके साथ परिचय प्राप्त किया जा सकता है। पदसंग्रहमें विविध प्रवृत्तियोंका विश्लेषण किया गया है। कवि कहता है कि मनको बुरी आदत पड़ गयी है, जिससे अनादिकालसे विषयों की ओर दौड़ता रहता है। कवि कहता है-- हे मन, तेरी कुटेव यह, करन-विषयमें घावै है । टेक ॥ इन्हींके वश तू अनादि तै, निज स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छिन समाकुल, दुरगति-विपति चखा है ॥ हे० मन० ॥१॥ आचार्यसुल्य काध्यकार एवं लेखक : २८९ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरस-विषयके कारण वारन, गरत परत दु:ख पाये है। रसना इन्द्रीवश झख जलमें, कंटक कंठ छिदाचे है । हे मन ॥२।। इनके पद विषयको दृष्टिसे १. रक्षाकी भावना, २. आत्म भर्त्सना, ३. भयदर्शन, ४. आश्वासन, ५. चेतावनी, ६. प्रभस्मरणके प्रति आग्रह, ७. आत्मदर्शन होनेपर अस्फुट वचन, ८. सहज समाधिको आकांक्षा ९ स्वपदकी अकांक्षा, १०. संसार विश्लेषण, ११. परसत्त्वबोधक और १२. आत्मानन्द श्रेणीमें विभक्त किये जा सकते हैं। __ भर्त्सना विषयक पदोंमें कविने विषय-वासनाके कारण मलिन हुए मनको फटकारा है तथा कवि अपने विकार और कषायोंका वाच्चा चिदा प्रकट कर अपनी आत्माका परिकार नग्मा चाहता है । भयदर्शन सम्बन्धी पदोंमें मनको भय दिखलाकर आत्मोन्मुख किया गया है । कवि आत्मानुभूतिकी ओर झुकता हुआ कहता है मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी ।। भोग भुजंग भोग सम जानो, जिन इनसे रति जोरी। ते अनन्त भव-भीम भरे दुख, परे अधोगति खोरी, बँधे दृढ़ पातक डोरी । मान ले०॥ इस प्रकार कवि दौलतरामके पदोंमें भावावेश, उन्मुक्त प्रवाह, आन्तरिक संगीत, कल्पनाको तूलिका द्वारा भावचित्रोंको कमनीयता, आनन्द विह्वलता, रसानुभूतिको गम्भीरता एवं रमणीयताका पूरा समन्वय विद्यमान है । पण्डित जयचन्द छाबड़ा हिन्दी जैन साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानोंमें पण्डित जयचन्दजी छाबड़ाका नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिकी हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिचय अंकित किया है-- काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव में सुखकार | जन्म फागई लयो सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि । पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तण मकरंद। द्रव्य दृष्टि में देखें जबे, मेरा नाम आतमा कबै ।। गोत छाबड़ा धावक धर्म, जामें भलो क्रिया शुभकर्म । ग्यारह वर्ष अवस्था मई, तब जिन मारगकी सुधि लही ।। २०.० : तीर्थंकर महात्री र उनकी आचार्य-परम्परा Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित पाय जयपुरमें आय, बड़ी जु शैली देखी भाय ।। गुणी लोक साधर्मी मलं, ज्ञानी पंडित बहुत मिले | पहले थे बंशीधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।। टोडरमल पंडित मत्ति खरी, गोमटसार वनिका करी । ताको महिमा सब जन करें, वाचें पढ़ें बुद्धि विस्तरें ।। दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय । ताको बुद्धि लस सब खरी, तीन प्रमाण वनिका करी॥ रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम व्रत शोल निवास । मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ।। अर्थात्-कविका जागी लाव ग्राममें मा। यह प्रा जयपुरसे डिग्गीमालपुरा रोडपर ३० मालकी दूरीपर बसा हुआ है। यहाँ आपके पिता मोतीरामजी पटवारीका काम करते थे। इसीसे आपका वंश पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है। ११ वर्षको अवस्था व्यतीत हो जानेपर कदिका ध्यान जैनधर्मकी ओर गया और उसी में अपने हितको निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सुदृढ़ बनानेका प्रयत्न किया। फलत: जयचन्दजोने जैनदर्शन और तत्त्वज्ञानके अध्ययनका प्रयास किया । वि० सं० १८२१में जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजा महोत्सवका विशाल आयोजन किया गया था। इस उत्सव में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजीके आध्यात्मिक प्रवचन होते थे। इन प्रवचनोंका लाभ उठाने के लिए दूर-दूरके व्यक्ति वहाँ आये थे। पण्डित जयचन्द भो यहाँ पधारे और जैनधर्मकी ओर इनका पूर्ण झुकाव हुआ । फलत: ३-४ वर्षके पश्चात् ये जयपुरमें ही आकर रहने लगे । जयचन्दजोने जयपुर में सैद्धान्तिक ग्रन्थोंका गम्भीर अध्ययन किया। जयचन्दजीका स्वभाव सरल और उदार था। उनका रहन-सहन और देश-भूषा सीधी-सादी थी। ये श्रावकोचित क्रियाओंका पालन करते थे और बड़े अच्छे विद्याव्यसनी थे। अध्ययनार्थियोंको भीड़ इनके पास सदा लगी रहती थी। इनके पुत्रका नाम नन्दलाल था, जो बहुत ही सुयोग्य विद्वान् था और पण्डितजोके पठन-पाठनादि कार्यो में सहयोग देता था। मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द इनके प्रमुख शिष्य थे। एक दिन जयपुरमें एक विदेशी विद्वान शास्त्रार्थ करनेके लिए आया । नगरके अधिकांश विद्वान उससे पराजित हो चुके थे । अतः राज्य कर्मचारियों और विद्वान पंचोंने पण्डित जयचन्दजीसे, उक्त विद्वान्से शास्त्रार्थ करनेकी आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थमा की । पर उन्होंने कहा कि आप मेरे स्पानपर मेरे पुत्र नम्वलालको ले जाइये। यही उस विद्वानको शास्त्रार्य में परास्त कर देगा। हुआ भी यही । नन्दलालने अपनी युक्तियोंसे उस विद्वान्को परास्त कर दिया। इससे नन्दलालका बड़ा यश व्याप्त हया और उसे नगरको ओरसे उपाधि दी गयो। नन्दलालने जयचन्दजीको सभी टोकाग्रन्थों में सहायता दी है। सवार्थसिद्धिकी प्रशस्तिमें लिखा है लिखी यहे जयचन्दन सोधी सुत नन्दलाल | बुधलखि भूलि जु शुद्ध करी बांबो सिखे वो बाल ।। नन्दलाल मेरा सुत गुनी बालपने ते विद्यासुनी। पण्डित भयो बड़ो परवीन ताहूने यह प्रेरणकीन ।। पण्डित जयचन्दजीका समय वि० सं०को १९वीं शती है । इन्होंने निम्नलिखित ग्रंथोंकी भाषा वनिकाए लिखी है १. सर्वार्थसिद्धि वचनिका (वि० सं० १८६१ चैत्र शुक्ला पञ्चमो। २. तत्त्वार्थसूत्र भाषा ३. प्रमेयरत्नमाला टीका (वि० सं० १८६३ आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी बुधवार) ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा वि० सं० १८६३ श्रावण कृष्णा ततीया) ५. द्रव्यसंग्रह टीका (वि० सं० १८६३ श्रावण कृष्णा चतुर्दशी और दोहा___मय पद्यानुवाद) ६. समयसार टोका (वि० सं० १८६४ कार्तिक कृष्णा दशमो) ७. देवागमस्तोत्र टीका (वि० सं० १८६६) ८. अष्टपाहुड भाषा (वि० सं० १८६७ भाद्र शुक्ला त्रयोदशी) ९. ज्ञानार्णव भाषा (वि० सं० १८६९) १०. भक्तामर स्तोत्र (वि० सं० १८७०) ११. पद संग्रह १२. चन्द्रप्रभचरित्र (न्यायविषयिक) भाषा | वि० सं० १८७४ १३. धन्यकुमारचरित्र पण्डित जयचन्दको बचनिकाओंकी भाषा ढूढारी है । क्रियापदोंके परिवर्तित करनेपर उनको भाषा आधुनिक खड़ी बोलीका रूप ले सकती है । उदाहरणार्थ यहाँ दो एक उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं___"बहुरि वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्यवचन, भाववचन | तहाँ वीर्यान्तराय मतिश्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें आत्माके बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तो भाववचन है । सो पुद्गलकर्मके निमित्त२९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलने का सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिकरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुद्गल ही है । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रियका विषय गंधद्रव्य है, तिस प्राण के रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें ।" सर्वार्थसिद्धि ५-१९। "जैसे इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिंडका व्यवहार होता है, तैसें आत्माके अर शरीरके परस्पर एक क्षेत्रावगाहको अवस्था होते, एक पणाका व्यवहार है, ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा अर शरीरका । एकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जात पोला अर पांडुर है स्वभाव जिनका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है, तिनकै जैसें निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्नपंणा करि एक-एक पदार्थपणाकी अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । तेसै ही आत्मा अर शरोर उपयोग स्वभाव है । तिनिकै अत्यन्त भिन्नपणात एक पदार्यपेणाकी प्राप्ति नाहीं तातै नानापणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।"-समयसार २८ दीपचन्दशाह दीपचन्दशाह विश्के १८वीं शताब्दीके प्रतिभावान विद्वान् और कवि हैं। ये सांगानेरके रहनेवाले थे और बादमें आकर आमेरमें रहने लगे। इन्होंने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तिमें अपना जीवन परिचय, माता-पिता या गुरुपरम्परा आदिके सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है । कविकी वेश-भषा अत्यन्त सादी थी। ये आत्मानुभूतिके पुजारी थे । तेरह पंथी सम्प्रदायके अनुयायी भी इन्हें बताया गया है। कवि दीपचन्दका गोत्र काशलीवाल था । इनको रचनाझोके अध्ययनसे यह स्पष्ट मालम होता है कि इनके पावन हृदयमें संसारी जीवोंकी विपरीताभिनवेशमय परिणतिको देखकर, इन्हें अत्यन्त दुःख होता था। ये चाहते थे कि संसारके सभी प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्यादि बाह्य पदार्थोंमें आत्मद्धि न करे, उन्हें भ्रमवश अपने न माने । उन्हें कर्मोदयसे प्राप्त समझे तथा उनमें कर्तृत्व बुद्धिसे सम्पन्न अहंकार, ममकार रूप परिणतिको न होने दे । कवि दीपचन्द मेघावी कवि हैं, इन्होंने "चिद्विलास' नामक ग्रन्थ वि० सं० १७७९में समाप्त किया है। इनका गद्य अपरिमार्जित और आरम्भिक अवस्थामें है । इनकी भाषा ढहारी और व्रजमिश्रित है । रचनाएँ निम्नलिखित हैं आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चिविलास २. अनुभवप्रकाश ३. गुणस्थानभेद ४. आत्मावलोकन ५. भावदीपिका ६. परमार्थपुराण ये रचनाएं गद्यमें लिखी गयी हैं । ७. अध्यात्म पच्चीसी ८. द्वादशानुप्रेक्षा ९. ज्ञानदर्पण १०. स्वरूपानन्द ११. उपदेशसिद्धान्त कविने गद्य रचनाओं में अपने भावोंको पूर्णतया स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। पद्यमें भी इन्होंने सहजरूपमें अपने भावोंको अभिव्यक्त किया है । यहाँ उदाहरणार्थ ज्ञानार्णव और उपदेशरत्नमालासे दो एक पद्य उद्धत किये जाते हैंअलख अरूपी अजआतम अमित तेज, एक अविकार सारपद त्रिभुवनमें । चिरलौ सुभाव जाको समहू सम्हारो नाहि, परपद आपो मानि भम्यो भववनमें।। करम कलोलनिमें मिल्यो है निशङ्कमहा, पद-पद प्रतिरागी भयो तन-तनमें । ऐसी चिरकालकी बहु विपति विलाय जाय कहू निहार देखो आप निजधन में ।। -ज्ञानदपंण, पद्य ४६ मानि पर आपो प्रेम करत शरीरसेती, कामिनी कनकमांहि करै मोह भावना। लोकलाज लागि मूढ आपनौं अकाज करें, जाने नहीं जे जे दुख परगति पावना ।। परिवार प्यार करि बाँध भव-भार महा, बिनु हो विवेक करै फालका गमावना। कहै गुरुजान नाव बैठ भव सिन्धुतरि, शिवथान पाय सदा अचल रहावना ।। उपदेशरत्नमाला, पद्य ६ कविकी प्रतिभाका प्रवेश आध्यात्मिक रचनाओंके लिखने में विशेषरूपसे हुआ है। सदासुख काशलीवाल विष्की १९ वीं शतीके विद्वानोंमें पण्डित सदासुख काशलीवालका महत्व२९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण स्थान है । इनका जन्म वि० सं० १८५२ में जयपुरनगरमें हुआ था। इनके पिताका नाम दुलीचन्द और गोत्र काशलीवाल था । इनका जन्म डेडराजवंशमें हुआ था । अर्थप्रकाशिकाकी वचनिकामें अपना परिचय देते हुए लिखा है 'डेडराजके वंश माहि इक किचित् ज्ञासा । दुलीचन्दका पुत्र काशलीवाल विख्याता ।। नाम सदासुख कहें यात्मसुत्रका बहु इच्छुक । सो जिनवाणी प्रसाद विषयतें भये निरिच्छुक ।। पण्डित शाशजी बहे शील । सदाचारी, आत्मनिर्भय, अध्यात्मरसिक और धार्मिक लगनके व्यक्ति थे । ये परम संतोषी थे। आजीविकाके लिए थोड़ा-सा कार्य कर लेने के पश्चात अध्ययन और चिन्तनमें रत रहते थे । इनके गुरु पण्डित पन्नालालजी और प्रगुरु पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा थे। इनका ज्ञान भो अनुभवके साथ-साथ द्धिगत होता गया था । बीसपंथी आम्नायके अनुयायी होनेपर भी तेरहपंथी आम्नायके प्रति किसी भी प्रकारका विद्वेष नहीं था। इनके शिष्योंमें पण्डित पन्नालाल संगी, नाथूराम दोषी और पण्डित पारसदास निगोत्या प्रधान हैं। पारसदासने 'ज्ञानसूर्योदय'नाटककी टोकामें इनका परिचय देते हुए इनके स्वभाव और गुणोंपर प्रकाश डाला है लौकिक प्रवीना तेरापंथ माहि लीना, मिथ्याबुद्धि करि छीना जिन आत्तमगुण चीना है । पढ़े औ पढ़ावें मिथ्या अलटकूँ कढ़, ज्ञानदान देय जिन मारग बढ़ावें हैं। दीसें घरवासी रहें घरहूर्ते उदासी, जिनमारग प्रकाशी जग कीरत जगमासी है। कहाँ लो कहीजे गुणसागर सुखदास जूके, ज्ञानामृत पीय बहु मिथ्याबुद्धि मासी है। पण्डित सदासुखजीके गार्हस्थ्यजीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि पण्डितजीको एक पुत्र था, जिसका नाम गणेशीलाल था। यह पुत्र भी पिताके अनुरूप होनहार और विद्वान् था, पर दुर्भाग्यवश २० वर्षकी अवस्थामें हो इकलौते पुत्रका वियोग हो जानेसे पण्डिजीपर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा । संसारी होने के कारण पण्डितजी भी इस आघातसे विचलितसे हो गये । फलतः अजमेर निवासी स्वनामधन्य सेठ मूलचन्दजी सोनीने इन्हें जयपुरसे अजमेर बुला लिया । यहाँ आनेपर इनके दुःखका उफान कुछ शान्त हुआ। इनका समाधिमरण वि० सं० १९२३में हुआ । इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९५ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भगवती आराधना वचनिका २. सूत्रजकी लघुचचनिका ३. अर्थं प्रकाशिकाका स्वतन्त्र ग्रन्थ ४. अकलंकाष्टक वचनिका ५. रत्नकरंड श्रावकाचार वचनिका ६. मृत्युमहोत्सव वचनिका ७. नित्यनियम पूजा ८. समयसार नाटकपर भाषा वचनिका ९. न्यायदीपिका चचनिका १०. ऋषिमंडलपूजा वचनका पण्डित सदा सुखजी की भाषा ढूँढारी होनेपर भी, पण्डित टोडरमलजी और पण्डित जयचन्दजीको अपेक्षा अधिक परिष्कृत और खड़ी बोलीके अधिक निकट है । भगवती आराधनाकी प्रशस्तिकी निम्नति हैं--- मेरा हित होनेको ओर, दोखे नाहि जगतमें ठौर । यातें भगवत शरण जु गही, मरण आराधन पार्क सही ॥ हे भगवति तेरे परसाद, मरणसमै मति होहु विषाद । पंच परमगुरु पदकरि ढोक, संयम सहित लहू परलोक ! पण्डित भागचन्द १९वीं शताब्दीके अन्तिम पाद और २०वीं शताब्दी के प्रथम पादके प्रमुख विद्वानों में पण्डित भागचन्दजीको गणना है। ये संस्कृत और प्राकृत भाषा के ग्वालियर के अन्तर्गत ईसागढ़ के साथ हिन्दी भाषा भी मर्मज्ञ विद्वान थे निवासी थे। इनकी जाति ओसवाल और धर्म दिगम्बर जैन था | दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अभ्यासी थे । संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में कविता करनेकी अपूर्व क्षमता थी । शास्त्रप्रवचन और तत्वचर्चा में इनको विशेष रस आता था । ये सोनागिरि क्षेत्रपर वार्षिक मेलेमें प्रतिवर्ष सम्मिलित होते थे और शास्त्रप्रवचन द्वारा जनताको लाभान्वित करते थे । कविका अन्तिम समय आधिक कठिनाईमें व्यतीत हुआ हैं। इनकी 'प्रमाणपरीक्षा' की टीकाका रचनाकाल सं० १९१३ है | अतः कविका समय २० वीं शताब्दीका प्रारम्भिक भाग है । afa द्वारा रचित पदोंसे उनके जीवन और व्यक्तित्वके सम्बन्धमें अनेक जानकारीकी बातें प्राप्त होती हैं। जिनभक्त होनेके साथ कवि आत्मसाधक भी २९६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, प्रतिदिन सामायिक करना तथा सांसारिक भोगोंको निस्सार समझना और साहित्यसेवा तथा सरस्वती अरावनको जीवनका प्रमुख तत्त्व मानना कविको विशेषताओं के अन्तर्गत है । कविको निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध होती है १. महावीराष्टक (संस्कृत) २. अमितगतिश्रावकाचार वचनिका ३. उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला वचनिका ४. प्रमाणपरीक्षा वचनिका ५. नेमिनाथपुराण ६. ज्ञानसूर्योदय नाटक वचनका ७. पद संग्रह कवि भागचन्दकी प्रतिभाका परिचय उनके पदसाहित्यसे प्राप्त होता है । इनके पदों में तर्कविचार और चिन्तनको प्रधानता है। निम्नलिखित पदमें दार्शनिक तत्त्वोंका सुन्दर विश्लेषण हुआ है t जे दिन तुम विवेक बिन खोये ॥ टेक ॥ मोह वारुणी पी अनादि तें परपदमें चिर सोये । सुख करंड चिपिड आपपद, गुन अनन्त नहि जोये || जे दिन || होहि बहिर्मुख हानि राग रुख, कर्मबीज बहू बोये । तसु फल सुख-दुःख सामग्री लखि, चितमें हरषे रोये || जे दिन० ॥ धवल ध्यान शुचि सलिल पूरतें, आसव मल नहि धोये | परद्रव्यनिकी चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये || जे दिन० ॥ अब निजमें निज जान नियत तहां, निज परिनाम समोये | यह शिव मारग समरस सागर, 'भागचंद' हित तो ये | जे दिन● ॥ विशुद्ध दार्शनिकके समान कविने तत्त्वार्थं श्रद्धानी और ज्ञानीकी प्रशंसा की है । यद्यपि वर्णनमें कविने रूपक, उत्प्रेक्षा अलंकारोंका आलम्बन लिया है, किन्तु शुष्क सैद्धान्तिकता रहनेसे भाव और रसकी कमी रह गयी है। ज्ञानी जीव किस प्रकार संसार में निर्भय होकर विचरण करता है तथा उन्हें अपना आचारव्यवहार किस प्रकार रखना चाहिये, इत्यादि विषयका विश्लेषण करनेवाले पदोंमें कविका चिन्तन विद्यमान है, पर भावुकता नहीं है। हां प्रार्थनापरक पदों में मूर्त-अमूर्तको आलम्बन लेकर कविने अपने अन्तर्जगतको अभिव्यक्ति अनूठे ढंगसे की है । कविके पदों में विराट कल्पना, अगाध दार्शनिकता और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ हैं । "निज कारज काहे न सारे रे भूले प्रानी"; "जीव तू भ्रमत सदैव अकेला आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगसाथी कोई नहीं तेर", एवं "मोसम कौन कुटिल खल कामी । तुम सम . कलिमल दलन न नामी" पदोंमें कविने अपनी भावनाओंका निविद्ध रूप प्रदर्शित किया है । इस प्रकार कवि भागचन्द अपने क्षेत्रके प्रसिद्ध कवि हैं। बुधजन इनका पूरा नाम वृद्धि चन्द था। ये जयपुरके निवासी और खण्डेलवाल जैन थे । इनका समय अनुमानतः १९वीं शताब्दीका मध्यभाग है । बधजन नीतिसाहित्य निर्माताके रूपमें प्रतिष्ठाप्राप्त हैं । इनकी रचनाओं में कई रचनाए नीतिसे सम्बन्धित हैं। ग्रन्थोंको रचना सं० १८७१ से १८९२ तक पायी जाती है। अभी तक इनको निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है १. तत्त्वार्थबोध (वि० सं० १८७१) २. योगसार भाषा ३. पञ्चास्तिकाय (वि० सं० १८९१) ४, बुधजनसतसई (वि० सं०१८७९) ५. बुधजनविलास (वि० सं० १८९२) ६. पद संग्रह बुधजनसतसईमें देवानुरागशतक, सुभाषित नीति, उपदेशान्धकार ओर विराग भावना ये चार विभाग हैं और ६९५ दोहे हैं। बुधजनने दया, मित्र, विद्या, संतोष, धैर्य, कर्मफल, मद, समता, लोभ, धन, धनव्यय, बचन, धूत, मांस, मद्य, परनारीगमन, वेश्यागमन, शोक आदि विषयोंपर नीतिपरक उक्तियां लिखो हैं । इन उक्तियोंपर वसुनन्दि, हारीत, शुक्र, गुरु, पुत्रक आदि प्राचीन नीतिकारोंका पूर्णप्रभाव है। कविताको दृष्सेि बुधजनसतसईके दोहे उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितने नीतिको दृष्टिसे । कविने एक-एक दोहेमें जीवनको गतिशील बनानेवाले अमूल्य सन्देश भरे हैं । कवि कहता है एक चरन हूँ नित पढे, तो काटे अज्ञान | पनिहारीकी लेज सो, सहज करे पाषान ॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल भासे न तो, छाया तो रह जाय ॥ पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखै अनेक । करे समिक बोले समिक, ते हजारमें एक 11 विपताको धन राखिये, धन दीजे रखि दार । आलम हितको छाड़िए, धन, दारा, परिवार । २९८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय दोहे तो तुलसी, कबीर और रहोमके दोहोंसे अनुप्राणित दिखलायी पड़ते हैं । विरागभावना खण्ड में कविने संसारको असारताका बहुत ही सुन्दर और सजीव चित्रण किया है। इस खण्डके सभी दोहे रोचक और मनोहर हैं । दृष्टान्तों द्वारा संसारकी वास्तविकताका चित्रण करने में कविको अपूर्व सफलता मिली है। वस्तुका चित्र नेत्रोंके सामने मूर्तिमान होकर उपस्थित होता हैको है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमें, बिछुरेंगे निरधार ॥ आया सो नाहीं रह्या, दशरथ लछमन राम | तु कैसें रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥ बुधजनका पदसंग्रह भी विभिन्न राग-रागनियोंसे युक्त है । इस संग्रहमें २४३ ।नीता, लयात्मक संवेदनशीलता और समाहित भावनाका पूरा अस्तित्व विद्यमान है। आत्मशोधन के प्रति जो जागरूकता इनमें है, वह बहुत कम कवियोंमें उपलब्ध है। इनकी विचारोंकी कल्पना और आत्मानुभूतिको प्रेरणा पाठकोंके समक्ष ऐसा सुन्दर चित्र उपस्थित करती है, जिससे पाठक आत्मानुभूति में लीन हुए बिना नहीं रह सकता मैं देखा आतम रामा ॥ टेक ॥ - रूप, फरस, रस, गंध तें न्यारा, दरस-ज्ञान-गुन धामा । नित्य निरंजन जाके नाहीं, क्रोध, लोभ-पद कामा । में देखा० ॥ X X X X भजन बिन यो ही जनम गमायो । पानी पै ल्या पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो || भजन | रामा-मोह भये दिन खोबत, आशापाश बंधायो । जप-तप संजम दान न दीन, मानुष जनम हरायो ॥ भजन० ॥ स्पष्ट है कि बुधजनकी भाषापर राजस्थानीका प्रभाव है । पदोंमें राजस्थानी प्रवाह और प्रभाव दोनों ही विद्यमान है । वृन्दावनदास कवि वृन्दावनका जन्म शाहाबाद जिलेके वारा नामक गाँव में सं० १८४२ में 'हुआ था। ये गोयल गोत्रीय अग्रवाल थे । कविके वंशधर द्वारा छोड़कर काशी में आकर रहने लगे । कविके पिताका नाम धर्मचन्द्र था। बारह वर्षको अवस्था में वृन्दावन अपने पिताके साथ काशी आये थे। काशी में लोग बाबर शहीदकी गली में रहते थे । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९९ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनकी माताका नाम सिताबी और स्त्रीका नाम रुक्मिणि था । इनकी पत्नी बड़ी धर्मात्मा और पतिव्रता थी। इनकी ससुराल भी काशीके ठठेरी बाजारमें थी। इनके श्वसुर एक बड़े भारी धनिक थे। इनके यहाँ उस समय टकसालाका काम होता था। एक दिन एक किरानी अंग्रेज इनके श्वसुरकी टकसाला देखने आया । वृन्दावन भी सव वहीं स्पस्थित थे। उस my किरानी अंग्रेजने इनके श्वसुरसे कहा-"हम तुम्हारा कारखाना देखना चाहते हैं कि उसमें कैसे सिक्के तैयार होते हैं ।" वृन्दावनने उस अंग्रेज किरानीको फटकार दिया और उसे टकसाला नहीं दिखलायो । वह अंग्रेज नाराज होता हुआ वहाँसे चला गया। ___संयोगसे कुछ दिनोंके उपरान्त वही अंग्रेज किरानी काशीका कलक्टर होकर आया। उस समय वृन्दावन सरकारी खजांचोके पदपर आसीन थे । साहब बहादुरने प्रथम साक्षात्कारके अनन्तर ही इन्हें पहचान लिया और मनमें बदला लेनेकी बलवती भावना जागत हई। यद्यपि कविवर अपना काम ईमानदारी, सच्चाई और कुशलतासे सम्पन्न करते थे, पर जब अफसर ही विरोधी बन जाये तब कितने दिनों तक कोई बच सकता है। आखिरकार एक जाल बनाकर साहबने इन्हें तीन वर्षको जेलको सजा दे दी और इन्होंने शान्ति पूर्वक उस अंग्रेजके अत्याचारोंको सहा । कुछ दिनके उपरान्त एक दिन प्रातःकाल ही कलक्टर साहब जेलका निरीक्षण करने गये । वहां उन्होंने कविको जेलकी एक कोठरीमें पप्रासन लगाये निम्न स्तुति पढ़ते हुए देखा हे दीनबन्धु श्रीपति करुणानिधानजी, अब मेरी व्यथा क्यों न हरो बार क्या लगी। इस स्तुतिको बनाते जाते थे और भैरवीमें गाते जाते थे । कविता करनेको इनमें अपूर्व शक्ति थी। जिनेन्द्रदेवके ध्यानमें मग्न होकर धारा प्रवाह कविता कर सकते थे । इनके साथ दो लेखक रहते थे, जो इनकी कविताएं लिपिबद्ध किया करते थे, परन्तु जेलकी कोठरीमें अकेले ही ध्यान मग्न होकर भगवानका चिन्तन करते हुए गाने में लोन थे। इनकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा प्रवाहित हो रही थी। साहब बहुत देर तक इनकी इस दशाको देखता रहा । उसने 'खजांची बाबू' 'खजांची बाब' कहकर कई बार पुकारा, पर कविका ध्यान नहीं टूटा । निदान कलक्टर साहब अपने आफिसको लौट गये और थोड़ी देर में एक सिपाहीके द्वारा उनको बुलवाया और पूछा-"तुम क्या गाटा और रोटा था" ? वृन्दावनने उत्तर दिया-"अपने भगवान्से तुम्हारे अत्या३०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारकी प्रार्थना करता था । साहबके अनुरोध से वृन्दावनने पुनः " हे दीनबन्धु करुणानिधानजी" विनती उन्हें सुनायी और उसका अर्थ भी समझाया । साहब बहुत प्रसन्न हुआ मोर इस घटनाके तीन दिन बाद ही कारागृह से उन्हें मुक्त कर दिया गया । तभीसे उक्त विनती संकटमोचन स्तोत्रके नामसे प्रसिद्ध हो गयी है। इनके कारागृहकी घटनाका समर्थन इनकी निम्नलिखित कवितासे भी होता है "श्रीपति मोहि जान जन अपनो, हरो विघन दुख दारिद जेल ।" कहा जाता है कि राजघाटपर फुटही कोठी में एक गार्डन साहब सौदागर रहते थे । इनकी बड़ी भारी दुकान थी। कविने कुछ दिनों तक इस दुकानकी मैनेजरीका कार्य भी किया था। यह अनवरत कविता रचनेमें लोन रहते थे । जब ये जिन मन्दिर में दर्शन करने जाते, तो प्रतिदिन एक विनती या स्तुति रचकर भगवान के दर्शन करते । इनके साथ देवीदास नामक व्यक्ति रहते थे । इन्हें पद्मावती देवीका इष्ट था । यह शरीरसे बड़े बली थे ! बड़े-बड़े पहलवान भी इनसे भयभीत रहते थे । इनके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाएं घटी हैं । इनके दो पुत्र थे - अजितदास और शिखरचन्द अजितदासका विवाह आरामें बाबू मुन्नीलालजी की सुपुत्री से हुआ था । अतः अजितदास आरामें हो आकर बस गये थे । यह भी पिता के समान कवि थे । afa वृन्दावनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त है — १. प्रवचनसार २. तीस चौबीसी पाठ ३. चौबीसी पाठ ४. छन्द शतक ५. अर्हत्याशा केली ६. वृन्दावनविलास कवि वृन्दावन की रचनाओं में भक्तिकी ऊंची भावना, धार्मिक सजगता और आत्मनिवेदन विद्यमान है | आत्मपरितोषके साथ लोकहित सम्पन्न करना ही इनके काव्यका उद्देश्य है । भक्ति विह्वलता और विनम्र आत्म समर्पणके कारण अभिव्यञ्जना शक्ति सबल है । सुकुमार भावनायें, लयात्मक संगीतके साथ प्रस्फुटित हो पाठकके हृदय में अपूर्व आशाका संचार करती है ! कवि जिनेन्द्रकी आराधना करता हुआ कहता है आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३०१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशदिन श्रीजिन मोहि अधार ॥ टेक ॥ जिनके चरन-कमलके सेवत, संकट कटत अपार ॥ निशदिन० || जिनको वचन सुधारस-गर्भित, मेटल कुमति बिकार ॥ निशदिन० ॥ भव आताप बुझावत को है, महामेघ जलधार || निशदिन० || जिनको भगति सहित नित सुरपत, पूजत अष्ट प्रकार || निशदिन० || जिनको विरद वेद विद सदा दुःख हतार | निरादि॥ भविक वृन्दकी विधा निवारो, अपनी ओर निहार ॥ निशदिन० ॥ C X X X X धन धन श्री दीनदयाल || टेक० ॥ परम दिगम्बर सेवाधारी, जगजीवन प्रतिपाल । मूल अठाइस चौरासी लख, उत्तर गुण मनिभाल | धन० ॥ महाकवि वृन्दावनदासके चौबीसी पाठसे हर व्यक्ति परिचित है । आज उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारतमें भी इस पाठका पूरा प्रचार है । निश्चयतः कवि वृन्दावनदास जन सामान्य के कवि हैं | हिन्दीके अन्य चर्चित कवि हिन्दी में शताधिक छोटे-बड़े कवि हुए है। हमने पूर्व में प्रसिद्ध कवियोंका ही इतिवृत्त उपस्थित किया है। इनके अतिरिक्त लब्धप्रतिष्ठ अनेक कवि और लेखक भी विद्यमान हैं, पर उनके सम्बन्ध में विस्तृत परिचय देनेका अवसर नहीं है । अतएव संक्षेप में हिन्दी के कुछ कवि और लेखकों के सम्बन्ध में इतिवृत्त उपस्थित किया जाता है | जयसागर जयसागर नामके दिगम्बर सम्प्रदाय में दो कवि हुए हैं । एक काष्ठा संघके नन्दी तटके गच्छसे सम्बन्धित हैं । इनकी गुरुपरम्परा में सोमकीत्ति, विजयसेन यशः कोति, उदयसेन, त्रिभुवनकीति और रत्नभूषण के नाम आये हैं। रत्नभूषण ही जयसागर के गुरु हैं। इनका समय वि० सं० १६७४ है । जयसागर हिन्दी और संस्कृत दोनोंही भाषाओंमें काव्यरचना करते थे । संस्कृतमें इनकी पापञ्चकल्याणक और हिन्दीमें ज्येष्ठजिनवरपूजा, विमलपुराण, रत्नभूषणस्तुति और तीर्थं जयमाला नामकी रचनाएँ हैं । दूसरे जयसागर ब्रह्म जयसागर हैं। इनका समय वि० सं० की १८वीं शतीका प्रथम पाद है । ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगणकी सूरत शाखामें ३०२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए हैं। इनकी गुरु परम्परामें देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र, वादिचन्द्र और महोचन्द्र के नाम आये हैं। महीचन्द्र के पश्चात् मेरुचन्द्र भट्टारक पदपर आसीन हुए हैं। ये ब्रह्म जयसागर के गुरुभाई थे । मेरुचन्द्रका समय वि० सं० १७२२-१७३२ सिद्ध है । ब्रह्म जयसागर की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं १. सीताहरण २. अनिरुद्धहरण ३. सगरचरित खुशालचंद काला यह कवि देहली निवासी थे। कभी-कभी ये सांगानेर भी आकर रहा करते थे। इनके पिताका नाम सुन्दर और माताका नाम अभिवा था । इन्होंने भट्टारक लक्ष्मीका के पास विद्याध्ययन किया था। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं- १. हरिवंशपुराण (सं० १७८० ) २. पद्मपुराण (सं० १७८५) ३. धन्यकुमारचरित ४. जम्बूचरित ५. व्रतकथाकोश शिरोमणिदास यह कवि पण्डित गंगादासके शिष्य थे । भट्टारक सकलकोर्तिके उपदेश से सं० १६३२ में धर्मसार नामक दोहा चौपाईबद्ध ग्रन्थ सिड्रोन नगरमें रचा है । इस नगर के शासक उस समय राजा देवीसिंह थे। इस ग्रन्थ में कुल ७५५ दोहा चोपाई है। रचना स्वस्थ है, किसीका अनुवाद नहीं । जोधराज गोदीका ये सांगानेर के निवासी हैं। इनके पिताका नाम अमरराज था। हरिनाम मिश्र के पास रहकर इन्होंने प्रीतिकरचरित कथाकोश, घर्मसरोवर, सम्यक्त्वकौमुदी, प्रवचनसार, भावदीपिका आदि रचनाएँ लिखी है। 1 लोहट कवि लोहटके पिताका नाम धर्म था । ये बघेरवाल जाति के थे। हींग और आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३०३ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दर इनके बड़े भाई थे । पहले ये साँभरमें रहते थे, फिर बूंदीमें आकर रहने लगे । कविके समय में रावभावसिंहका राज्य था । इन्होंने बूंदीनगर एवं वहाँके राजवंशका वर्णन किया है । इन्होंने यशोधरचरितका पद्यानुवाद वि० सं० १७२१ में समाप्त किया है । लक्ष्मीदास पण्डित लक्ष्मीदास भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे । सांगानेरके रहनेवाले थे। इन दिनों महाराज जयसिंहका राज्य था । इन्होंने यशोधरचरितकी रचना भट्टारक सकलकीर्ति और पद्मनामकी रचना के आधारपर की है । यशोघरचरित वि० सं० १७८१ में पूर्ण हुआ है । गरकर कमल हिन्दी जैन गद्यलेखकों में सबसे प्राचीन गद्यलेखक राजमल्ल हैं । इन्होंने वि० सं० १६०० के आस-पास समयसारकी हिन्दी टोका लिखी है | महाकवि बनारसीदासने इन्हींको टीकाके आधारपर 'नाटक समयसार की रचना की है। पाण्डे जिनदास ब्रह्म शान्तिदासके पास इन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी । ये मथुराके रहनेवाले थे । यहीं रहते हुए वि० सं० १६४२ में 'जम्बूस्वामीचरित' की रचना की है । इनकी अन्य रचना 'जोगीरासो' भी बतायी जाती है । ब्रह्म गुलाल ये पद्मावती पुरवाल जाति के थे और चन्दवार के पास टापू नामक ग्रामके निवासी ये । इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कूपणजगावनचरित' है । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविवर ब्रह्म गुलालजी भट्टारक जगभूषण के शिष्य थे । उस समय टापू गाँव के राजा कीरतसिंह थे । यहींपर घरमदासजीके कुलमें मथुरा मल्ल हुए थे। इन्हीं मथुरामल्लके उपदेशसे सगुणमार्गका निरूपण करनेके लिए सं० १६७१ में इस ग्रन्थको रचना की है । कविकी एक अन्य कृतिके 'अपनकिया' भी उपलब्ध है, जो वि० सं० १६५५ में लिखी गयी है । भारामल कवि भारामल फर्रुखाबादके निवासी सिंघई परशुरामके पुत्र ३०४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा थे और Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी जाति खरीचा थी । इन्होंने भिण्डनगरमें रहकर सं० १८१३ में 'चारचरित' की रचना की थी। सप्तव्यसनचरित, दानकथा, शीलकथा और रात्रिभोजनकथा भी इनके छन्दोबद्ध ग्रन्थ हैं । नखतराम कवि बखतराम जयपुर लश्करके निवासी थे । इनके चार पुत्र थे - जीवनराम, सेवाराम, खुशालचन्द और गुमानीराम । इनका समय १९वीं शताब्दीका द्वितीय पाद है । इन्होंने मिथ्यात्वखण्डन और बुद्धिविलास नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं । बुद्धिविलासके आरम्भमें कविने जयपुर के राजवंशका इतिहास लिखा है । सं० १९९१ में मुसलमानोंने जयपुर में राज्य किया । इसके पूर्वके कई हिन्दू राजवंशोंको नामावली दी है। इस ग्रन्थका वर्ण्यविषय विविध धार्मिक विषय, संघ, दिगम्बर पट्टावली, भट्टारकों तथा खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति आदि है । इस ग्रन्थकी समाप्ति कविवरने मार्गशीर्षशुक्ला द्वादशी सं० १८२७ में की है । टेकचंद हिन्दी वचनिकाकारों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। टीकाकार होनेके साथ ये कवि भी हैं । कथाकोशछन्दोबद्ध, बुधप्रकाशछन्दोबद्ध तथा कई पूजाएँ पद्यबद्ध हैं। वचनिकाओं में तस्वार्थकी श्रुतसागरी टीकाकी वचनिका, सं० १८३७ में और सुदृष्टि तरंगिणीकी वचनिका सं० १८३८ में लिखी है। 'पटपाहुड' की वचनिका भी इनकी उपलब्ध है । पण्डित जगमोहनदास और पण्डित परमेष्ठी सहाय आरानिवासी पण्डित परमेष्ठी सहाय और पण्डित जगमोहनदासको हिन्दी जैनसाहित्य के इतिहास से पृथक नहीं किया जा सकता है। श्री पण्डित परमेष्ठी सहायने 'अर्थप्रकाशिका' नामक एक टीका जगमोहनदासकी तत्त्वार्थविषयक जिज्ञासाकी शान्ति के लिए लिखी है । इस ग्रन्थको प्रशस्ति में बताया है पूरन इक गंगातट धाम, अति सुन्दर आरा तिस नाम । तामें जिन चैत्यालय लसें अग्रवाल जैनी बहु बसे || बहु ज्ञाता जिनके जु राय, नाम तासु परमेष्ठी सहाय 1 जैनग्रन्थ रुचि बहु केरे, मिध्या घरम न चित्तमें घेरे || प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि पण्डित परमेष्ठी सहायके पिताका नाम कीर्तिचन्द्र था। उन्हीं के पास इन्होंने आगमशास्त्रका अध्ययन किया था तथा अपनी कृति आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३०५ २० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ प्रकाशिकाको जयपुर निवासी प्रसिद्ध वचनकार पण्डित सदासुखजीके पास संशोधनाथं भेजी थी । पण्डित जगमोहनदास भी अच्छे कवि हैं। इनकी कविताओंका एक संग्रह 'धर्मरत्नोद्योत' नाम से स्व० पण्डित पन्नालालजी वकिलीचालके सम्पादकत्वमें प्रकाशित हो चुका है । पण्डित सदासुखजी के समकालीन होनेसे कविका जन्म सं० १८६५ के लगभग है । मनरंगलाल मनरंगलाल कन्नौज के निवासी थे, जातिके पल्लीवाल थे। इनके पिताका नाम कनोजीलाल और माताका नाम देवको था। कन्नोज में गोपालदासजी नामक एक धर्मात्मा सज्जन निवास करते थे। इनके अनुरोधसे ही कविने चौसी पाठकी रचना की है । इस प्रसिद्ध पाठका रचनाकाल वि० सं० १८५७ है । इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ भी उपलब्ध हैं— नेमिचन्दिका, सप्तव्यसन चरित, सप्तऋषिपूजा एवं शिखिर सम्मेदाचल माहात्म्य | शिखिर सम्मेदाचल माहात्म्यका रचनाकाल वि० सं० १८८९ है । माधवपुर राज निवासी पण्डित डालूराम, आगरा निवासी पण्डित भूघर मिश्र भी अच्छे कवि हैं । डालूरामने गुरुपदेश श्रावकाचार और सम्यक्त्व प्रकाश तथा भूधर मिश्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपायपर विशद टोका लिखी है । उपर्युक्त कवियोंके अतिरिक्त आदिकालमें भी कुछ जैन कवियोंने काव्य ग्रन्थोंकी रचना की है । कवि सधारूका प्रद्युम्नचरित और कवि राजसिंहका जिनदत्तचरित प्रसिद्ध रचनाएँ हैं । राजसिंहका अपरनाम ल्ह भी बताया गया है । जिनदत्तचरितको प्रशस्ति में लिखा है कि रल्ह कविने इस काव्यको वि० सं० १३५४ भाद्रपद शुक्ला पंचमो गुरुवार के दिन समाप्त किया। उन दिनों भारतपर अल्लाउद्दीन खिलजी शासन कर रहा था। इस प्रकार वि० सं० की १४वीं १५वीं शती में भी जैन कवियों द्वारा अनेक रचनाएं प्रस्तुत की गयी हैं । कनड़ जैन कवि दक्षिण भारत में कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम एवं तुलु ये पाँच भाषाएँ प्रचलित हैं। इनमें से कन्नड़ और तमिल भाषा में पर्याप्त जैन साहित्य लिखा गया है । कन्नड़ साहित्य में गम्भीर चिन्तन, समुन्नत हार्दिक विचार एवं हृदय ३०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को गहनतम भावनाओंको अभिव्यक्ति विद्यमान है । इस साहित्यको व्यापकताकी परिधिकी रेखाएकावेरीसे गोदावरोके सुरम्य अंचलको समेटतो हैं। इस साहित्यमें कन्नड़ प्रदेशकी धरतीको धड़कान समाहित है। कन्द साहित्यको अभिवृद्धिमें जैन कवियोंका योगदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आदिपम्प कन्नड़ साहित्यका सर्वश्रेष्ठ कवि पम्प है | इसका समय ई० सन ९४१ है। इन्होंने 'आदिपुराण' और 'भारत' ग्रंथोंको रचना की है । ये दोनों ग्रन्थ चम्मू काव्य हैं। पम्पने स्वयं अपने सम्बन्ध में लिखा है--"मेरे विख्यात चिर नूतन समुद्रवत गम्भोर काध्य मेरे परवर्ती कवियोंके लिए प्रमोदप्रद है।" पम्पके वंशज वैदिक धर्मानुयायी थे। इसके पिता अविराम देवरायने जैनधर्म स्वीकार किया था। पम्पने आदिपुराणमें काव्यके अमृतानन्दके साथ धार्मिक सिद्धान्तोंका भी निरूपण किया है । कवि पम्पमें कल्पना शक्तिका भी प्राचुर्य है। उनका दूसरा ग्रन्थ 'विक्रमाजन विजय' अर्थात् 'भारत' है । कविने इस ग्रन्थमें काव्य तत्त्वोंका निर्वाह सम्यक प्रकार किया है। नारीके नख-शिख चित्रणमें तो कवि संस्कृतके कवियोंसे भो बढ़ा-चढ़ा है। चरित्र-चित्रणमें भी कविको अपूर्व सफलता मिली है। कवि पोन्न 'शान्तिपुराण जिनाक्षरमाले' के रचयिता पोन्न कविका समय ई. सन् ९५०के लगभग है। पोन्न प्रतिभाशालो कवि हैं। इसने शास्तिनाथपुराणमें विलक्षण उपमाओं और उत्प्रेक्षाओंका प्रयोग किया है। कवि रन्न रन्न कविने 'अजितनाथपुराण'को रचना कर कन्नड़ साहित्यको समृड बनाया है । कविके इस पुराणका रचनाकाल ई० सन् १९३ है। कविने अपनी इस रचनामें काव्यकला, कोमल कल्पना और निविड भावोंकी अभिव्यक्तिके साय पौराणिक तथ्योंका भी समावेश किया है। कन्नड़के पोन्न कवि यदि संस्कृतके वाणभट्ट हैं, ता रन्न वसुवन्धु । शृङ्गार और शान्तरसका सम्मिश्रण सुन्दर रूपमें पाया जाता है । चरित्र-चित्रणको दृष्टि से भी रन्नका यह काव्य महत्त्व आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३०७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण है । कविका दूसरा ग्रन्थ 'साहसभीम विजय' या 'गदायुद्ध' है । इस ग्रन्थमें दश आश्वास हैं | चम्पू काव्य है । कविने महाभारतको कथाका सिंहावलोकन कर चालुक्य नरेश आवमल्लका चरित्र अंकित किया है। कविका जन्म ई० सन् ९४९ में हुआ है । नागचन्द्र या अभिनव पम्प इका समय ई० सन् ११०० है । नागचन्द्रकी उपाधि अभिनव पम्प थी । ये अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं। अभिनव पम्पने 'मल्लिनाथपुराण' की रचना की । यह उपासनाप्रिय कवि हैं । इसने संस्कृत भाषा से बहुमूल्य अलंकार और पद ग्रहणकर अपनी कविताको भूषित करनेका प्रयास किया है। अभिनव पम्पको काव्य प्रतिभा कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है । कवि अभिनव पम्प के समय में कन्ति देवी नामको उत्कृष्ट कवयित्री भी हुई हैं । कविने इस कवयित्रीके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण उद्गार व्यक्त किये हैं। अभिनव पम्पको 'साहित्य भारतीय' 'कर्णपूर' 'साहित्य विद्याघर' और 'साहित्य सर्वज्ञ' आदि उपाधियाँ थीं । ओड्डय्य इनका समय ई० सन् १९७० के लगभग है । इन्होंने कव्वगर काव्यकी रचना की है। भाषा और विषयके क्षेत्र में क्रान्तिकारी कवि है । इन्होंने अपने काव्य ग्रन्थोंको केवल धर्म विशेषके प्रचारके लिए ही नहीं लिखा, प्रत्युत् काव्य रसका आस्वादन लेने के लिए ही काव्यका सृजन किया है । इतिवृत्त, वस्तुव्यापार वर्णन, संवाद और भावाभिव्यञ्जनकी दृष्टिसे इनके काव्यका परीक्षण किया जाये, तो निश्चय ही इनका काव्य खरा उतरेगा । नयसेन नयसेनका समय ई० सन् १९२५ है । इन्होंने धर्मामृत, समयपरीक्षा और धर्मपरीक्षा ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने धारवाड़ जिलेके मूलगुन्दा नामक स्थानको अपने जन्मसे सुशोभित किया था। उत्तरवर्ती कवियोंने इन्हें 'सुकविनिकर पिकमाकन्द', 'सुकविजनमनसरोजराजहंस' और 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है। इनके गुरु नरेन्द्रसेन थे। इनके द्वारा रचित धर्मामृत श्रावकधर्मका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कविने इसमें धर्मोद्बोधन हेतु कथाएं भी लिखी हैं । इनकी भाषा संस्कृत मिश्रित कन्नड़ है । इनका परिचय विस्तारपूर्वक पहले लिखा जा चुका है। ३०८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जब कन्नड़ साहित्यमें जन्न, रन्न, पोनको रत्नत्रय कहा जाता है । जन्मने ई० सन् ११७०से १२२५के बीच अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। यह होयसल राजाओंका आस्थान कवि था। इसे कवि चक्रवत्तोंकी उपाधि प्राप्त यो । पम्पको तरह जन्न भी शूर-बीर और लेखनीके धनी हैं। उत्तरवर्ती कवियों ने इसकी मुक्त कण्ठसे प्रशंसा की है। इसके 'यशोधरचरित' और 'अनन्तनाथपुराण' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। कर्णपार्य ई० सन् ११४०के लगभग इन्होंने 'नेमिनाथपुराण'की रचना की है । इसमें समुद्र, पहाड़, नगर, सूर्योदय, चन्द्रोदय, वनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, रति, चिन्ता, विवाह, पुत्रोत्पत्ति, युद्ध, जयप्राप्ति इत्यादिका सविस्तार वर्णन आया है । विप्रलाभ श्रृङ्गारके वर्णनमें तो कविने अपूर्व क्षमता प्रकट की है। नेमिचन्द्र 'अर्धनेमिपुराण'के रचयिता कवि नेमिचन्द्र भी १३वीं शताब्दीके कवियोंमें प्रमुख स्थान रखते हैं। इन्होंने संस्कृत मिश्रित कन्नडमें संस्कृत छन्द लेकर अपने काव्यकी रचना की है। 'चम्पकशालवृत्त में प्रायः समस्त ग्रन्थ लिखा गया है । अनुप्रासकी छटा तो इतनी अधिक दिखलाई पड़ती है, जिससे इसके समक्ष कन्नड़का अन्य कोई कवि नहीं ठहर सकता है। गुणवर्म गुणवर्मका समय ई० सन् १२२५के लगभग है । इस कविने 'पुष्पदन्तपुराण'की रचना की है। यह ग्रन्थ इतिवृत्तात्मक होते हुए भी मर्मस्पर्शी सन्दसि युक्त, है । कविने अपना भाषा विषयक पाण्डित्य तो दिखलाया ही है, साथ ही वर्णनात्मक शैलीका अद्भुत रूप भी प्रदर्शित किया है । रत्नाकर वर्णी आध्यात्मिक साहित्यके निर्माताओंमें कवि रत्नाकर वर्णीका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने भरतेशबैभव, रत्नाकर शतक, अपराजितशतक, आदि ग्रन्योंकी रचना की है। भरतेशवंभवका माधुर्य, तो संस्कृतके गीत गोविन्दसे भो माचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३०९ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़कर है। यह ग्रन्थ आज भी कन्नइ प्रान्तमें लोगोंका कण्ठहार बना हुआ है । तुलसीदासके 'रामचरितमानस के समान इसके भी दो चार पद निरक्षर भट्टाचार्योको याद हैं। संगीतको दृष्ट्रिसे इस ग्रन्थका अत्यधिक महत्त्व है । इस ग्रन्थका रचनाकाल ई० सन् १९५१ है । महाकाव्य और गीतिकाव्यका आनन्द इस एक हो ग्रन्थसे लिया जा सकता है। मंगरस मंगरसका गोतिकाव्य और प्रबन्धकाव्य निर्माताओंमें महत्वपूर्ण स्थान है । इनका समय ई० सन् १५०८ है । कविने 'नेमिजिनेश्वर संगोत' और 'सम्यक्त्वकौमुदी' ग्रन्थोंकी रचना की है। नेमिजिनेश्वर संगीतमें संगीतकी अपूर्व छटा उपलब्ध होती है । सभी राग रागनियां उनके चरणोंपर लोटती हैं । नागवर्म इनका समय ९९० ई० है । इन्होंने छन्दोम्बुधि नामक छन्दशास्त्रको रचना को है। यह ग्रन्थ संस्कृत के पिंगलछन्दशास्त्रके आधारपर लिखा गया है। आनुपूर्वी और वृत्तके नामोंमें पिंगलकी अपेक्षा इसमें पर्याप्त अन्तर है । इसमें छह सन्धियाँ हैं। कन्नड़के मात्रिक छन्द और संस्कृतके छन्दोंका सुन्दर विवेचन किया है। द्वितीय नामवर्माने ११४५ ई० के लगभग 'वस्तूकोश' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। इसमें संस्कृत पदोंका अर्थ कन्नड़ पदोंमें बताया गया है। रीतिपर भो नागवाने प्रकाश डाला है और इसे काव्यके लिए आवश्यक धर्म माना है। अलंकारके अभावमें भी रीतिके रहने से माधुर्य और सौन्दर्य संघटित होते हैं। इन नागवर्माका 'काव्यालोचन' नामक लक्षण ग्रन्थ भी है । नागवर्मने कर्नाटक भाषाभूषण लिखकर कन्नड़के व्याकरणका भी परिचय दिया है। इस ग्रन्थमें संज्ञा, सन्धि, विभक्ति, कारक, शब्दरीति, समास, तद्धित, आख्यात नियम, अन्वय निरूपण और निपात निरूपण ये दश परिच्छेद हैं । कुल मिलाकर २८० सूत्र हैं। केशवराज व्याकरण ग्रन्थ के निर्माताओंमें केशवराजका भी महत्वपूर्ण स्थान है । इनका समय ११५० ई० है। इन्होंने 'शब्द मणिदर्पण' नामक ब्याकरण ग्रन्थ लिखा है । इसमें कन्धरूपसे सुत्र लिखे गये हैं। व्याकरण नियमोंके स्पष्टीकरणके लिए उदाहरण प्राचीन कवियोंके गद्य-पद्य ग्रन्थोंसे लिये गये हैं । ३१० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगल (ई. सन् १९८९)का 'चन्द्रप्रभपुराण', आञ्चष्ण (ई० सन् १९९५) का वद्धमानपुराण, बन्धुवर्मा (ई० सन् १२००) का हरिवंशपुराण, पाश्र्वपशित (ई० सन् १२०५)का पार्श्वनाथपुराण, कमलभव (ई० सन् १२३५)का शान्तिस्वरपुराण, मधुर (ई. सन् १३८५)का धर्मनाथपुराण, शान्तिकोति (ई० सन् १५१९)का शान्तिनाथपुराण, दोड्डेय्य (ई० सन् १५५०)का चन्द्रप्रभपुराण, कुमुवेन्दु (ई० सन् १२७५)का रामायण, भास्कर (ई. सन् १४२४ का जीवन्धरचरित, कल्याणकीति (ई० सन् १४२९)का ज्ञानचन्द्राभ्युदय, घोम्मरस (ई० सन् १४८५) का सनत्कुमारचरित, कोटेश्वर (ई० सन् १५००) का जीवन्धरषटपादि पद्यनाम (ई. सन् १५८०)का रामपुराण, चन्द्रम (ई० सन् १६०५)का गोमटेश्वरचरित और बाहुवली (ई० सन् १५६०)का नागकुमारचरित, भट्टाकलंक (ई० सन् १६०४)का शब्दानुशासन, नृपतुंग (ई० सन् ८१४)का कविराजमार्ग, उदयाक्त्यि (ई. सन् ११५०)का उदयादित्यालंकार, और साल्व (ई० सन् १५५०)के रसरत्नाकर आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। जैनवैद्यक ग्रन्थोंमें सोमनाथ (ई० सन् १९५०)का कल्याणकारक, मंगराज (ई० सन् १५५०)का खगेन्द्रमणिदर्पण, श्रीधरदेव (ई० सन् १५००)का वैद्यामत, साल्ब । ई० सन् १५५०)का वैद्यसांगत्य, देवेन्द्रमुनि (ई० सन् १२००)का बालग्रहचिकित्सा, कीर्तिवर्मा (ई० सन् ११२५)का गोवेद्यग्रन्थ उपलब्ध है। ज्योतिष में श्रीधराचार्य (ई. सन् १०४६)का जातकतिलक, शुभचन्द्र (ई० सन् १२००)का नरपिंगल और राजादित्य (ई० सन् ११२०)के व्यवहारगणित, क्षेत्रणित, व्यवहाररत्न लीलावतो, चित्रहंसुर्वे और जैनगणितटीकोदाहरण आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ' हैं। ___ कर्नाटककविचरितेके सम्पादक नरसिंहाचार्य ने कन्नड़ जैन वाङमयका मल्यांकन करते हए लिखा-"जैन ही कन्नड़ भाषाके कवि हैं। आज तककी उपलब्ध सभी प्राचीन एवं श्रेष्ठ कृतियाँ जंन कवियोंकी ही हैं । अन्यरचनामें जैनोंके प्राबल्यका काल ही कन्नड़ साहित्यकी उन्नत स्थितिका काल मानना होगा। प्राचीन जैन कवि ही कन्नड़ भाषाके सौन्दर्य एवं कान्तिके विशेषतः कारणभूत हैं। उन्होंने शुद्ध और गम्भीर शैलीमें अन्य रचकर ग्रन्थरचना कौशलको उन्नत स्तरपर पहुँचाया है । प्रारम्भिक कन्नड़ साहित्य उन्हींकी लेखनी द्वारा लिखा गया है। कन्नड़ साहित्यके अध्ययनकै सहायभूत छन्द, - -- -. १. कनड़ जनसाहित्य, आचार्य भिक्ष स्मति ग्रन्थ, जैन श्वेताम्बर तेरहपंथी महासभा, तीन पोर्चुगीज, पर्चस्ट्रीट, कलकत्ता १, द्वितीय खण्ड, पु. १२९-१३० । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३११ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकार, व्याकरण और कोश आदि ग्रन्थ विशेषतः जैनोंके द्वारा ही रचे गये है। उपर्युक्त उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि जेनसाहित्यकारोंने कन्नड़ साहित्यकी महत्ती सेवा की है। काव्य, अलंकार, व्याकरण, छन्द, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित आदि विभिन्न क्षेत्रोंमें जैनकवियोंने अमूल्य ग्रन्यरत्न प्रदान कर कन्नड़ वाङ्मय को समृद्ध किया है। तमिलके जैन कवि और लेखक तमिल साहित्यके महाकाव्य और लघुकाव्योंके लेखक प्रमुख रूपसे जैन कवि हैं। तमिल साहित्य संस्कृत साहित्यके समान ही प्राचीन है । व्याकरण, अलंकार, छन्द आदि विषयक ग्रन्थोंके निर्माता जैन विद्वान हैं। हम यहाँ विस्तारसे विचार न कर संक्षेपमें ही तमिलभाषामें लिखित जैन साहित्यपर प्रकाश डालनेका पस्न करेंगे। तमिलभाषाका सबसे पुराना काव्य 'कुरल' है । इसको गणना तमिल भाषाके आचार और नीति सम्बन्धी धर्मग्रंथोंमें की जाती है। इसे पश्चम वेद कहा गया है । इसके रचयिता एलाचार्य माने जाते हैं । इस अन्धकी रचना ई० सन्की प्रथम शताब्दीमें पादिरीपुलीयूर अथवा दक्षिण पाटलीपुत्र नामक स्थानमें सम्पन्न हुई है। इसमें धर्म, अथं और कामका विवे. चन किया गया है । प्रथम अध्याय में गृहस्थ और साधुओंके आचरण करने योग्य नियमोंका विस्तृत वर्णन आया है। द्वितीय अध्यायमें ओवनको आवश्यकताओं, राज्य संचालन एवं राजनीतिका वर्णन है । तृतीय अध्यायमें वास्तविक और अवास्तविक प्रेमका बड़ा ही सजीव चित्रण है। इन तीन मुख्य विषय निरूपक अध्यायोंके अतिरिक्त इस ग्रन्थमें १३३ प्रकरण और १३३० कुरल हैं । कुरलका अर्थ छोटा पद्य है । इस प्रन्यपर दश प्राचीन दोकाएं पायो जाती हैं, जिनमें सर्वाधिक प्राचीन टोका घरूम अथवा धर्मसेन द्वारा लिखी गयो है । ये धर्मसेन जैन विद्वान थे। कुरल काम्यके अन्तर्गत ऐसे अनेक सिद्धान्त वणित हैं, जिनके आधारगर इस ग्रन्थको जैन कहा जा सकता है। नालडियार ग्रन्थ पाण्डिराज निवासी भिन्न-भिन्न सन्तों द्वारा निर्मित हुआ है । इस ही नामके छन्दोंमें यह ग्रन्थ लिखा होनेके कारण इस ग्रन्थका नाम 'नालाडियर' रक्खा गया है | इस ग्रन्थ में ४०० पद्य हैं और इनका संग्रह कुरल १. कर्नाटककविपरिते, भाग १ और रकी प्रस्तावना । ३१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भांति एक निश्चित नीतिके अनुसार किया गया है। इस ग्रन्थमें भी धर्म, अर्थ और कामका वर्णन आया है । इस प्रन्थपर भी पदुमनार द्वारा लिखित एक बड़ी ही सुन्दर जैन टीका है 1 'कुरल' और 'नालडियार' ये दोनों ही अन्य तमिल जनताके धर्मशास्त्र हैं। तिरुतक्कतेवर इन्होंने 'जीवकचिन्तामणि' नामक महाकाव्यको रचना ई० सन्की ७वीं शतीमें की है। यह कवि जैनधर्मावलम्बी था। कहा जाता है कि यह घोल राजाको वंश परम्परामें हुआ है । कुछ विद्वान् इस काव्यको तमिल काव्योंका पिता मानते हैं । डॉ० जी० यू० पोपके शब्दों में-- "This is on the whole the greatest existing Tamil literary mommcnt. The great romantic cpic which is at once the iliad and the Odyssey of the Tamil language, is one of the great cpics of the world." __ अर्थात् यह काव्य वर्तमान तमिल साहित्यका एक महान स्मारक है । यह अद्भुत महाकाव्य तमिलभाषाका एलियर और ओडेसी कहा जा सकता है। यह संसारके महान् काव्यों में से एक है। इसकी रचनाके सम्बन्धमें एक आख्यान प्रचलित है । एक दिन किसीने तिरुतक्कतेवरको लक्ष्यकर कहा-"महाराज ! श्रमणोंको इस संसारके देखनेसे घृणा हो गयी । वे केवल वैराग्यपूर्ण संन्यासी जीवनकी ही प्रशंसा गाते हैं । सांसारिक सुखोंको रुचिकर ढंगसे वर्णन करनेका सामथ्यं श्रमणोंमें दिखलायी नहीं देता।" तिस्तक्कतेवरने उत्तर दिया"तुम्हारा कथन सारहीन है । सांसारिक आनन्दोंको वर्णन करनेके सामथ्यंका अभाव श्रमणोंमें नहीं है। किन्तु कुछ दिन रहनेवाले अनेक रोगोंसे प्रस्त तथा अल्पज्ञानसे युक्त इस जीवनको व्यर्थ किये बिना लोग मुनिमार्ग द्वारा हित सम्पन्न करें, इसी उद्देश्यसे श्रमणोंने मुनिधर्मकी प्रशंसा की है। सांसारिक आनन्दोंका वर्णन भी काव्यमें सहज सम्भाव्य है। में इसके लिए प्रयास करूंगा।" तदनन्तर तिरुक्कतेवर अपने आचार्यके पास पहुंचकर जीवन भोगोंका वर्णन करनेवाले काव्यका सृजन करनेके लिये प्रार्थना करने लगा 1 गुरुने 'नरीविस्त्सम' एक प्राचीन कथा देकर काव्यरचना करनेका आदेश दिया । तिरुतक्कतेवरने इस नीरस कथाको मनोरंजक काव्यका रूप देकर प्रस्तुत किया, जिससे आचार्य बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने आशीर्वाद देकर 'जीवक. चिन्तामणि' काव्य लिखनेका आदेश दिया। वाचार्यसुल्य काम्यकार एवं लेखक : ३१३ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकाध्यका नायक जांचक है। इसका पिताका नाम सत्यसन्ध है । सत्यसन्धने अपना राज्य कट्रियगारन नामक मंत्रीको सौंप कुछ दिनों के लिए विश्राम ले लिया । अवसर प्रासकर कट्टीयगरिनने सेनाको अपने अधीन कर राज्य हड़प लिया । सत्यसन्धकी पत्नी विजयाने एक मयूर उड़नखटोलेपर चढ़कर अपनी रक्षाकी और श्मशान भूमिमें पुत्रको जन्म दिया । कन्दूकड़न नामक व्यक्ति ने उस पुत्रको ले जाकर उसका नाम जोवकन् रक्खा और उसका पालन-पोषण करने लगा। जीवकन्ने विद्याध्ययन और युद्धकलामें शोघ्न हो निष्णात होकर राजा होने के योग्य अर्हताओंको प्राप्त किया । जीवकन्ने अपनी योग्यता प्रदर्शित कर पथक-पथक समयमें ८ कन्याओंसे विवाह किया। उसने वंचक कट्रियमारनको जीतकर अपने पिताके खोये हुए राज्यको पुनः हस्तगत किया। उसने बहुत दिनों तक सांसारिक सुख भोगते हुए राज्य शासन चलाया और अन्तमें संन्यास ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया। इस काव्यमें विचारोंकी महत्ता साहित्यिक मुहावरोंके सुन्दर प्रयोग और प्रकृतिके सजीव चित्रण विद्यमान हैं। उत्तरवर्ती कवियोंने इस ग्रन्थका पूरा अनुसरण किया है। इस काव्यम १३ अध्याय और ३१४५ पद्य हैं। निस्सन्देह वर्णन शैलाके गाम्भीर्य और सशक्त अभिव्यञ्जनाके कारण यह काव्य महाकाव्यको श्रेणो में परिगणित है । इलंगोवडिगल 'शिल्प्पट्टिकार' काव्यको रचना प्रथम शताब्दीमें होनेवाले चेर राजा सिंगुटुबनके भाई इलंगोद्धिगलने की है । शिल्प्पड्डिकार शब्द का अर्थ 'नुपूरका महाकाव्य' है । इस ग्रन्थका यह नामकरण इस महाकाव्यकी नायिका कण्णको के नुपूरके कारण हुआ है । काव्यका कथावस्तु निम्नप्रकार है___ नायक कोवलन चोल साम्राज्यकी राजधानी कावेरी पूमपट्टिन के एक जैन वणिकका पुत्र है। उसका विवाह कण्णकी नामकी एक अन्य धनाढप सेठकी कन्यासे हुआ है । कुछ दिन तक दम्पति प्रसन्नतापूर्वक एक विशाल अट्टालिकामें सुख भोगते हैं। कालान्तरमें कोवलन माधवी नामक एक नर्तकोके सौन्दर्यपर मुग्ध हो जाता है और उसके साथ रहने लगता है। नर्तकीकी प्रसन्नताके लिये वह अपनी अतुल धनराशि व्यय करता जाता है और अन्समें इतना निर्धन हो जाता है कि माधवोको देनेके लिये उसके पास कुछ भी शेष नहीं रह जाता। जब माधवीको यह ज्ञात हुआ कि अब कोवलनके पास पन नहीं है, तो वह उसका तिरस्कार करने लगी। उसके इस व्यवहार परिवर्तनने कोवलनको ३१४ : तीर्थकर महाबीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँखें खोल दों और उसे अपनी मूर्खताका आभास होने लगा। उसे अपनो सतो-साध्वी पत्नीका ध्यान आया और घर लौट आया। कण्णकोने अपने निर्धन पसिको बहुत सांत्वना दी और कहा-'ये मेरे सोनेके नुपूर हैं, तुम इन्हें बेच सकते हो और इनसे जो धन प्राप्त हो, उससे व्यवसाय कर अपनी आर्थिक स्थितिको सुदृढ़ बना सकते हो । कोवलन और उसकी पत्नी कण्णकी प्रच्छन्न रूपसे नगर त्यागकर आर्यिका कम्बुदोके मार्गदर्शनमें मदुरा पहुंच गये । आर्यिका कम्बुदोने कोवलन और उसकी स्त्रो कण्णकीको एक ग्वालिनके संरक्षण में छोड़ दिया ।" प्रातःकाल हानेपर कोवलन अपनी स्त्रीका नुपूर लेकर नगरीकी ओर रवाना हुआ। मार्गमें उसे एक सुनार मिला, जो राजमहलोंमें नौकर था। उसने वह नुपूर उसे दिखलाया और पूछा क्या आप इसे उचित मूल्यमें बिकवा सकते हैं ? सुनार धूर्त था, उसने पहले ही रानीका एक नुपूर चुरा लिया था। उसे यह आशंका थी कि कहीं राज्याधिकारी मुझे बन्दी न बना लें। अतः वह कोवलनको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बोला--"आप कृपया यहाँ प्रतीक्षा कीजिये। मैं एक अच्छा ग्राहक लेकर आता हूँ।" सुनार सीधा महलोंमें गया और राजाका सूचित किया-"मैंने रानोके नुपुरको चुराकर ले जानेवालेका पता लगा लिया है और नुपूर उसके पास है । राजाने सैनिकोंको आदेश दिया कि चोरको मार डालो और रानोका नुपूर ले आओ । सैनिक धूर्त सुनारके साथ कोलनके पास पहुंचे और उसे प्रहार कर मार डाला । इधर कण्णकी व्यग्रतापूर्वक अपने पतिके आगमनकी बाट जोह रही थी। उसके हृदयमें विचित्र अनुभूति हो रही थी। दिन ढलता जा रहा था और कोवलन लोटा नहीं। वह उद्विग्न होने लगी। उसने लोगोंसे सुना-"कावरीपूमपट्टिनमसे जो आदमी आया था वह बाजारमें मार डाला गया ।" वह सुनते ही बाजारकी तरफ झपटी । वहाँ उसने अपने प्रिय पतिको मृत पाया । उसने लोगोंको यह कहते हुए सुना कि यह परदेशी राजाज्ञासे मारा गया है। वह राजभवनकी ओर दौड़ी गयी और उसने राजाके दर्शन करनेकी अनुमति मांगी, जो तत्काल स्वीकृत हो गयी। उसने राजासे कहा कि आपने मेरे पत्तिको मार कर बड़ा अन्याय किया है। राजाके सामने ही उसने प्रमाणित कर दिया कि उसका पति चार नहीं था और उसके पास जा नुपूर था, वह रानीका नहीं बल्कि उसका था। राजाने दोनों नुपूरोंको तुड़वाया और देखा कि रानीके नुपूरमें मोती भरे हुए हैं, जबकि कपणकीके नुपूरमें रत्न । इस घटनासे राजाको बड़ा धक्का लगा और वह सिंहासनसे गिरकर मर गया । कण्णको उत्तेजित होकर आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३१५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजभवन से बाहर हुई और अग्निदेवका आह्वान कर बोली - "यदि में यथार्थ में शोलवती हूं, तो मेरी प्रार्थना पूर्ण हो- स्त्रियों, बच्चों, धर्मात्माओं और ण पुरुषोंको छोड़कर यह शैतान नगर भस्म हो जाये और सम्पूर्ण दुष्ट समाप्त हो जायें ।" इस प्रकार कहकर उसने अपना वाम स्तन झटका मारकर उखाड़ डाला और नगरकी ओर फेंक दिया। आश्चर्य ! नगर जल उठा और शीघ्र हो भस्म हो गया । मदुराकी देवी कण्णकी के सम्मुख प्रकट होकर बोली---तुम्हारे पतिकी मृत्यु और तुम्हारी ये यातनाएं पूर्वोपार्जित कमका फल हैं । तुम शीघ्र ही साधना द्वारा स्वर्ग में अपने पति से मिलोगी । नगरको जलता हुआ छोड़कर वह पश्चिम की ओर चेरदेशमें चली गयी और वहाँ एक पहाड़ीपर १५ दिनकी तपश्चर्या द्वारा उसने स्वर्गलाभ किया । काव्यसिद्धान्तोंकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ महनीय है । कविने रुचिर कथानकके साथ प्रौढ़ शैलीका प्रयोग किया है। रस, अलंकार, गुण आदि सभी दृष्टियों से यह काव्य समृद्ध है । पात्रोंका चरित्र बहुत ही सुन्दररूपमें उपस्थित किया है । तोलामुलितेवर तोलामुलितेवरने 'चूलामणि' लघुकाव्य लिखा है । ग्रन्थकार विजयनगर साम्राज्य में कारवेट एके राजा विजय दरजा राजकवि था । विका समय जोधक चिन्तामणिके रचयिता तिरुक्कतेवर से भी पूर्व है । इस काव्य में १२ सर्ग हैं २१३१ पद्म हैं । इस ग्रन्थ में भगवान् महावीरके पूर्वभवके जीव त्रिपिष्ठ वासुदेव के जीवन और उसके साहसपूर्ण कार्योंका निर्देश है। इसके वर्णन प्रसंग जीवक चिन्तामणिके समान हैं । काव्य अत्यन्त ही सरस और जीवन मूल्योंसे सम्पृक्त है । वामनमुनि वामनमुनि समयके सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है । रचनाशैली और भाषा की दृष्टिसे इनका समय ई० सन् १२ वीं १३ वीं शती अनुमानित होता है । इन्होंने मेमन्दरपुराण नामक ग्रन्थकी रचना की है। इस काव्य में विमलनाथ तीर्थंकरके दो गणधर मेरु और मन्दरके पूर्वभवोंका वर्णन है । इस ग्रन्थ में जैनदर्शन, आचार और लोकानुयोगका सुन्दर विवेचन आया है । पूर्वजन्मोंकी वर्णन पद्धति प्रभावक और शिक्षाप्रद है । इसमें संस्कृत और प्राकृतकी शब्दावली भी प्रचुर परिमाणमें प्राप्त हैं । ३१६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंगवेल कुंगवेल मौलिक साहित्य सर्जक होने के साथ अनुवादक भी हैं। इन्होंने गुणाढयको बृहद्कथा में वर्णित कौशाम्बी नरेश उदयनकी जीवनी और उसके पराक्रमपूर्ण कार्योंका तमिलमें अनुवाद किया है । यह ग्रन्थ साहित्यिक सौन्दर्य और काव्यप्रतिभाका खजाना है। तमिल टीकाकारोंने व्याकरण सम्बन्धी एवं मुहावरेदार भाषाका उदाहरण इसी काव्यसे प्रस्तुत किया है । तमिल साहित्य में जीवक चिन्तामणि, शिल्प्पडिकारं, मणिमेखले, वलेयापति और कुण्डलकेशी ये पांच महाकाव्य माने जाते हैं। इनमें जीवकचिन्तामणि, शिल्प्पडिकार और वलेयापति ये तोन जैनकवियां द्वारा संवत महाकाव्य है और शेष दो बौद्ध कवियों द्वारा रचित हैं । इन पाँच महाकाव्योंमेंसे इस समय तोन ही महाकाव्य उपलब्ध हैं । वलैयापति और कुण्डलकेशी दोनों अप्राप्त हैं । तमिल साहित्य में चूड़ामणि, नीलकेशी, यशोधरकाव्य, उदयनकुमार काव्य और नागकुमार काव्य ये पाँच लघुकाव्य हैं। ये पाँचों ही लघुकाव्य जैनाचार्यों द्वारा निर्मित हैं । नीलकेशी के रचयिता दार्शनिक जैन कवि हैं । इसमें १० सर्ग और ८९४ पद्य हैं । कथाकी नायिका नीलकेशी एक देवी है, जो एक स्थान से दूसरे स्थानमें भ्रमण करती रहती है और धार्मिक उपदेशकोंसे मिलकर उन्हें दार्शनिक चर्चाओंमें संलग्न रखती है और अन्त में उन्हें शास्त्रार्थ में परास्त करती है । प्रथमसर्ग में मुनिचन्द्र नामक जैनसाधु द्वारा नीलकेशीको दी गयी जैनधर्मको शिक्षाओंका वर्णन है । द्वित्तीय सर्गसे पञ्चम सर्गतक बौद्धदर्शनके विभिन्न व्याख्याताओंके साथ नीलकेशीके वाद-विवादका वर्णन आया है । शेष पांच सर्गो में नीलकेशीका आजीवकों, सांख्यों, वैशेषिकों, वैदिक धर्मानुयायियों और प्रकृतवादियोंके साथ शास्त्रार्थका कथन आया है। यह एक तार्किक ग्रन्थ है । इसमें भौतिकवादके विरुद्ध आध्यात्मवादकी प्रतिष्ठा की गयी है। इस ग्रन्थपर वामनमुनि द्वारा विरचित समयदिवाकर नामकी एक सुन्दर टोका है । यशोधरकाव्य के रचयिताका नाम अज्ञात है । इसमें अहिंसा धर्मका विशदनिरूपण तो है ही साथ ही वैदिक क्रियाकाण्डका समालोचन भी किया गया है । उदयनकुमार काव्य के रचयिता भी अज्ञात हैं। नागकुमारकाव्य अभीतक अप्रकाशित है । जेनकवियोंने कुछ कविता संग्रह भी लिखे हैं । इनमें पत्तुपाट्ट, पुरनानूरु, अहनानूरु, नट्रीणाई, कुरूंतो गई आदि प्रमुख हैं । इनके अतिरिक्त जिनेन्द्रमालाई आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३१७ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष ग्रन्थ और तिरुनु अन्धादि स्तोत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध है। तिरूपकलम्बकम् जिनेन्द्र भगवानकी भक्ति और प्रशंसामें लिया गया है। इन प्रधान रचनाओंके अतिरिक्त संस्कृत और तमिल मिश्रित पद्योंमें मणिप्रवाल शैलीमें निर्मित श्रो पुराण, पदार्थसार, अष्टपदार्थ जीवसम्बोधन आदि प्रधान है। पच्चइयप्पाकॉलेज कांचीपुरम्के प्रोफेसर श्री सी० एस० श्री निवासाचारी एम० ए० ने लिखा है "प्राचीन तमिल और कर्नाटक प्रांतोंमें तमिल और कन्नड़ साहित्यको अभिवृद्धिमें जैनविद्वानोंका महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। उनके द्वारा लिखित एवं संग्रहीतकोष, व्याकरण एवं अन्य विषयोंपर अपरिमित सर्वाधिक मूल्यवान एवं उच्चकोटिके ग्रन्य हैं। वर्तमान में केवल उनका कुछ अंश ही शेष हैं, किन्तु जितना भी शेष है वह अपनी श्रेणीका अद्भुत, अत्यधिक संतोषप्रद है और वह शताब्दियों तक तमिल भाषाके क्रमिक विकासका आधारभूत तत्व रहा है । इस प्रकार जैन कवियोंने तमिल साहित्यकी श्रीवृद्धिमें अमूल्य सहयोग प्रदान किया है। मराठी जैन कवि मराठी भाषामें भी जैनकवियोंने प्रभूत साहित्यकी रचना की है। मराठी भाषामें श्रवणबेलगोलाके गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके नीचे शक संवत् ८८३ का छोटासा अभिलेख खुदा है, पर शक संवत् १४०० तक मराठी ग्रन्थकर्ताओंका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है । जैनकवियों की रचनाएँ ई० सन्की १७ वीं शतीसे प्रचुररूपमें मिलने लगती हैं | मराठी भाषामें लिखित जेनसाहित्यका अल्पांश ही उपलब्ध हो सका है। अभीतक बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित पड़ा है। हम यहाँ मराठीके प्रमुख कवि और लेखकोंका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे। जिनदास मराठी साहित्यका सबसे पहला शात कवि जिनदास है । इनके गुरुका नाम भट्टारक भुवनकोति था। भुवनकोतिका समय शक संवत् १६४३ से १६६२ तक है । अतएव जिनदासका समय शक संवत्की १७ बीं शती है। इन्होंने हरिवंशपुराण नामक ग्रन्थको रचना देवगिरि (मराठवाड़ा) नामक स्थानमें की है। १. श्री सी. एस. मलनायन, तमिल भाषाका जनसाहित्म, प्रकाशक श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, महावीर पार्क रोड, जयपुर, पृ० २१ । ३१८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थका पूर्वार्द्र लिखकर ही कवि परलोकगामी हो गया। इसके पूर्वाद्ध में ४० अधणय हैं और महाभारतकी कथा संक्षेपमें वर्णित है। __ गुणदास या गुणकीति गुणदासका अपरनाम गुणकीति भी उपलब्ध होता है। गृहस्थ अवस्थामें इनका नाम गुणदास था और त्यागी होनेपर यही गुणकीसिके नामसे प्रसिद्ध हए। इन्होंने थेणिकपुराण, धर्मामृत, रुक्मिणीहरण, पापुराण (अपूर्ण) और एक स्फुट रचना रामचन्द्रहलदुलि लिखी है। श्रेणिकपुराण भाषाकी दृष्टिसे अपूर्व रचना है । इसमें मराठीका स्वच्छ बोर प्रवाहमय रूप विद्यमान है। भगवान महावीरके समकालीन सम्राट् श्रेणिककी अद्भुत कथा वर्णित है। धर्मामृत गद्य ग्रन्थ है, जो उपलब्ध गद्य ग्रन्थों में प्राचीनतम है। इसमें गृहस्थोंके आचारका सांगोपांग वर्णन है । लेखकने ९६ पाखण्डोंकी गणनाकर सरागी, देव-देवियोंका निरसन किया है। विभिन्न सम्प्रदायोंके आचार-विचारों का अध्ययन करनेके लिए यह ग्रन्थ उपादेय है। अणुव्रत, गुणवत, शिक्षावत और संल्लेखनाका अतिचार सहित निरूपण किया है। ___ 'रुमिमणीहरण' काव्यमें श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणीके हरणको कथा वणित है। वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण, नेमिनाथ, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये यदुवंशके प्रसिद्ध महापुरुष थे । रुक्मिणीहरण काव्यमें कविने कृष्णके बलपौरुषके साथ उनको राजनीतिका भी चित्रण किया है। 'पपुराण में रामको कथा रविषेणके 'पद्मपुराण के आधारपर गुम्फित की गयी है। इस ग्रन्थको कवि २८ अध्याय तक ही लिख सका । इस ग्रन्थमें कविने द्वादश अनुप्रेक्षाओंका वर्णन सुन्दर रूपमें किया है। 'रामचन्द्रहलदुलि में रामके विवाहका वर्णन आया है। यह रचना गतीबद्ध है। मेषराज ये ब्रह्मजिनदासके प्रशिष्य और ब्रह्म शान्तिदासके शिष्य थे। मेघराज गुजः प्रदेशसे आये थे । इनको उभयभाषा कवि चक्रवर्ती भी कहा गया है। ये गजराती और मराठो दोनों भाषाओंमें रचना करनेकी शामता रखते थे। इनकी . १. मराठी जैनसाहित्य, आचार्य भिक्षु स्मृप्ति ग्रन्थ, जैनश्वेताम्बर तेरहपन्थी महासभा, ३, पोर्चगीजचर्च स्ट्रीट, कलकत्ता १, द्वितीय खण्ड, पृ. १३७-१४० । आषार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३१९ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन रचनाएं उपलब्ध हैं - १. यशोधरचरित २. गिरिनारयात्रा ३. और पारिश्वनाथभवान्तर । यशोधरकी कथा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती हिन्दी और कन्नड़ आदि भाषाओं में लिखित उपलब्ध है । मेघराजने मराठीमें इस काव्यकी रचना कर एक नयी परम्पराका सूत्रपात किया है । गिरिनार यात्रा में यात्रायणन है । इस कृतिका प्रथम चरण मराठीमें और द्वितीय चरण गुजराती में लिखा गया उपलब्ध होता है । पार्श्वनाथ भवान्तर कृति में पारवनाथके पूर्वभवके सम्बन्धमें कथा वर्णितकी गयी है। इसमें उनके ९ भवोंकी कथा काव्य शैलीमें गुम्फित है । वीरदास या पासकांति इनका गृहस्थ नाम वीरदास है और ये त्यागी होनेके पश्चात् पातकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध हुए हैं। ये कारंजाके बलात्कारगण के भट्टारक धर्मचन्द द्वितीयके शिष्य हैं। इनका जन्म सोहित वाल जाति में हुआ था । इन्होंने शक संवत् १५४९ में 'सुदर्शनचरित' की रचना की है और शक संवत् १६४५ में आवियाँकी । 'सुदर्शनचरित' में सेठ सुदर्शनकी कथा अंकित है। इसमें शीलव्रत और पंचनमस्कार मन्त्रका माहात्म्य बतलाया गया है। इसमें २५ प्रसंग हैं। ओदियों में ७५ ओवियोंका संग्रह है। इसे बहत्तरी भी कहा गया है। इस ग्रन्थमें अकारादि कमसे धर्म विषयक स्फुट विचारोंका संकलन किया गया है। महितसागर महितसागर का जन्म शक संवत् १६९४में और मृत्यु शक संवत् १७५४में हुई है। इन्होंने शक संवत १७२३ में रविवार कथा लिखी तथा शक संवत १७३२में बालापुरमें आदिनाथ पञ्चकल्याणिक कथा लिखी है । इनको अबतक निम्नलिखित कृतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं १. दशलक्षण २. शोषकारण ३. रत्नत्रय ४. पञ्चपरमेष्ठीगुणवर्णन ५. सम्बोध सहस्रपदो ६. देवेन्द्रकीतिकोनावणी ७. तीर्थंकरोंके भजन ८. भारती संग्रह ३२० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रकीर्ति देवेन्द्रकीतिने कालिकापुराणकी रचना की है । देवेन्द्रकीति मराठी साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने धर्म, दर्शन और काव्यको त्रिवेणीको एकसाथ प्रवाहित किया है। इनकी रचनाका मूलाधार प्राचीन वाङमय है । कवि देवेन्द्रकीर्ति संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओंके विद्वान होनेके साथ गुजराती भाषाके भी विद्वान् थे। मराठीके अन्य कवि और लेखक मराठी-भाषामें लगभग २० अच्छे कवि और लेखक हुए हैं तथा दश ऐसे कवि हैं, जिन्होंने स्फुट रचनाएं लिखकर वाङ्मयको समृद्धिमें योगदान दिया है। __ मेघराजके गुरुबन्धु कामराजने 'सुदर्शनपुराण' और 'चैतन्यफाग'की रचना की है । 'चैतन्यफाग' गीतात्मक रचना है और इसमें देहकी ममता त्यागनेसे आत्माको मुक्ति होने का सन्देश णित हैं। कामराज और भवराषक गुईबन्धु सूरिजनने परमहंस' नामक रूपककाव्य लिखा है। इनकी दूसरी कृति 'दानशीलतपभावनारास' भी उल्लेखनीय है । नागोआया कारज्ञा-गद्दीके सेनगणके भट्टारक माणिक्यसेनके शिष्य थे । इन्होंने यशोधरचरित लिखा है। अभयकीर्ति लातूरको प्रथमशाखाके भट्टारक बजितकोतिके शिष्य थे । इन्होंने शक संवत् १५३८ में अनन्तवतकथा लिखी है । इनको एक दूसरी कृति आदित्यव्रतकथा भी उपलब्ध है। भट्टारक अजयकीतिके शिष्योंमें चिमणाका नाम भी उल्लेख्य है । इन्होंने पैठनके चन्द्रप्रभ चैत्यालयमें अनन्तव्रतकथाकी रचना को है । एक आरतीसंग्रह प्रन्थ भी इनके द्वारा लिखित उपलब्ध है। जिनदासकी अपूर्ण कृति 'हरिवंशपुराण'को पुण्यसागरने १८ अध्याय और लिखकर पूर्ण किया है। जिनदास ४० अध्याय ही लिख सके थे। पुण्यसागर द्वारा यह ग्रन्थ पूर्ण होकर जैन महाभारतकी संज्ञाको प्राप्त हआ है। पुण्यसागरकी एक अन्य कृति आदित्यबारकथा भी है। शक संवत् १५८७में सावाजीने 'सुगन्धदशमी' नामक कथा लिखी है। महीचन्द्रने शक संवत् १६१८में आशापुरमें आदिपुराणकी रचना की है। अन्य कृतियोंमें अठाईवसकथा, गरुड़पञ्चमीकथा, बारहमासी गीत, अर्हन्तकी आरतो, नेमिनाथभवान्तर और कतिपय स्तोत्र परिगणित हैं। महाकोतिने शीलपताका नामक ग्रन्थ रचा है। इसमें ५५२ ओवियाँ हैं । सीताको अग्निपरीक्षा गुम्फित है 1 शक संवत् १६५०में लक्ष्मीचन्द्रने माननगर के चन्द्रप्रभचैत्यालयमें मेघमालाकी कथा लिखी है। यह आचार्यसुख्य काव्यकार एवं लेखक : ३२१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति ८६ श्लोक प्रमाण है। इस कृतिमें संगीततस्वकी प्रधानता है और सार्वजनिक सभाओं में इसका गायन किया जाता है । जनार्दनने शक संवत् १६९०में 'श्रेणिकचरित' नामक काव्यग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थमें ४० अध्याय हैं । नगेन्द्रकीत्तिने पद्यसंग्रह, दयासागरने जम्बूस्वामी चरित, सम्यक्त्वकौमुदी और भविष्यदत्तबन्धुकथा एवं विशालकोतिने शक सं. १७२९ में धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थको रचना की है । गंगादासने पारिखनाथभवान्तर और आदित्यवारकथा ग्रन्थ लिखे हैं । चिन्तामणिने गुणकीति द्वारा रचित अपूर्ण पद्मपुराणको पूर्ण करनेका प्रयास किया है, पर वे इसके केवल सात ही अध्याय लिख पाये हैं। जिनसागरने जोवन्धरपुराण, प्रतकथासंग्रह, भक्तामरका मराठी अनुवाद आदि रचनाएँ लिखी हैं। रत्नकीर्तिने शक सं. १७३४में ४० अध्यायोंमें उपदेशसिद्धान्तरत्नमालाकी रचना की है । दयासागरने शक संवत् १७३५में हनुमानपुराण, जिनसेनने शक सं० १७४३में जम्बूस्वामीपुराण, ठकाप्पाने शक सं० १७७२में पाण्डवपुराण, सहवाने शक संवत् १६३९ में नेमिनाथभवान्तर और रधुने शक सं० १७१०में सठिमाहात्म्य नामक ऐतिहासिक कविता लिखी है। ३२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार अंग और पूर्व-साहित्यको आचार्योंकी देन तीर्थंकर महावीरकी आचार्यपरम्परा गौतम गणघरसे आरम्भ होती है, और यह परम्परा अंगसाहित्य और पूर्वसाहित्यका निर्माण, संवद्धन एवं पोषण करती चली आ रही है। यों तो अंग और पूर्व-साहित्यको परम्परा आदितीर्थकर भगवान ऋषभदेवके समयसे लेकर अन्तिम तीर्थकर महावीरके काल तक अनवच्छिन्नरूपसे चली आयी है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि अंगसाहित्यका विषय-प्रथन प्रत्येक तीर्थकरके समयमें सिद्धान्तोंके समान रहनेपर भी अपने युगानुसार होता है। स्पष्टीकरणके लिए यों कहा जा सकता है कि उपासकाध्ययनमें प्रत्येक तीर्थकरके समयमें उपासकोंकी ऋद्धिविशेष, बोधिलाभ, सम्यक्त्वशुद्धि, संल्लेखना, स्वर्गगमन, मनुष्यजन्म, संयम-धारण, मोक्षप्राप्ति आदिका निरूपण किया जाता है। पर प्रत्येक तीर्थंकरके काल में उपासकोंको ऋद्धि, स्वर्गगमन आदि विषयों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यतः उपासकोंकी जेसी ऋद्धि, व्रतोवास एवं शोधिलाभकी स्थिति ऋषभदेवके समयमें थी, बेसी महावीरके समयमें नहीं रही होगी। इसी प्रकार अन्तःकृतदशांगमें प्रत्येक तीर्थकरके समयमें होनेवाले अन्तःकृतकेवलियोंका जीवन आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३२३ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्त, तपश्चरण, केवलझान आदिका वर्णन रहता है । निश्चयतः तीर्थकर ऋषभदेवके समयके अन्तःकृतदशकेवली महावीरके अन्तःकृतदशकेवलियोंसे भिन्न हैं। अतः स्पष्ट है कि अंगसाहित्यका विषय प्रत्येक तीर्थकरके समयमें युगानुसार कुछ परिवर्तित होता है । पूर्वसाहित्यका विषय परम्परानुसार एक-सा ही चलता रहता है । ज्ञान, सत्य, आत्मा, कर्म और अस्तिनास्तिवादरूप विचार-धारणाएं प्रत्येक तीर्थकर. के तीर्थकालमें समान ही रहती हैं। अतः पूर्वसाहित्य समस्त तीर्थकरोंके समयमें एकरूपमें वर्तमान रहता है। उसमें विषयका परिवर्तन नहीं होता है । जो शाश्वतिक सत्य हैं और जिन ल्याने प्रकालिक स्थायित्व है, उन मूल्यों में कभी परिवर्तन नहीं होता । वे अनादि हैं। उनमें किसी भी तीर्थकरके तीर्धकालमें किञ्चित् परिवर्तन दिखलाई नहीं पड़ता। श्रुतधराचार्योंने अंग और पूर्व साहित्यकी परम्पराको जीवन्त बनाये रखनेमें अपूर्व योगदान दिया है । गणघर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, आयमंक्षु, नागहस्ति, वजयश, चिरन्तनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, वापदेव, कुन्दकुन्द, बट्टकर, शिवार्य, स्वामीकुमार एवं गृद्धपिच्छाचार्य आदिने कर्मप्राभूतसाहित्यका सम्बर्द्धन एवं प्रणयन किया है। ___ इन आचार्योंने कर्म और आत्माके सम्बन्धसे जन्य विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओंके विवेचनके लिए 'पेज्जदोसपाहुड', 'षट्खण्डागम', 'चूणिसूत्र', 'व्याख्यानसूत्र', 'उच्चारणवृत्ति' आदिका प्रणयन कर सिद्धान्त-साहित्यको समृद्ध किया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्मसाहित्यका मूल उद्गमस्थान कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्व है और इस पूर्वका कथन वर्तमान कल्पमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक समानरूपसे होता आया है। कमका स्वरूप, कर्मद्रव्य, कर्म और आत्माका सम्बन्ध, सम्जन्य अशुद्धि एवं आत्माको विभिन्न अवस्थाओंका विवेचन कर्मसिद्धान्तका प्रधान वर्ण्य विषय है। बाचार्योंने कर्म एवं आत्माके सम्बन्धको अनादि स्वीकार कर भी कमकी विभिन्न अवस्थाओं एवं स्वरूपोंका प्रतिपादन किया है। गुणधर और धरसेनने कर्म-सिद्धान्तका विवेचन सूत्ररूपमें किया है। पुष्पदन्त और भूतबलिने 'षट्खण्डागम'के रूपमें सूत्रोंका अवतारकर-जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बंधसामितविषय, वेदना, वग्गणा और महाबन्ध, इन छह खण्डरूपोंमें सूत्रोंका प्रणयन कर कमसिद्धान्तका विस्तारपूर्वक निरूपण किया । अनन्तर वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्यने 'धवला' एवं 'जयधवला' टीकाओं द्वारा उसकी विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं । ३२४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्गमस्थान में जिस प्रकार नदीका स्रोत बहुत हो छोटा होता है और उसकी पतली धाराको गति भी मन्द ही रहती है। पर जैसे-जैसे नदीका यह स्त्रोत उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसकी धारा बृहद और तीव्र होती जाती है । समतल भूमिपर पहुंचकर इस बाराका आयाम स्वतः विस्तृत हो जाता है। इसी प्रकार कर्म - साहित्यको यह धारा तीर्थंकर महावीरके मुखसे निःतो गणपरपूर्वभागको पारकर विकसित एवं समृद्ध हुई है। यह सार्वजनीन सत्य है कि युगके अनुकूल जीवन और जगत् सम्बन्धी आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं । विषारक आचार्य इन आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए नये चिन्तन और नये आयाम उपस्थित करते हैं । अतः किसी भी प्रकारके साहित्य में विषय विस्तृत होना ध्रुव नियम है। जब किसी भी विचारको साहित्यकी तकनीक में ग्रथित किया जाता है, तो वह छोटा-सा विचार भी एक सिद्धान्त या ग्रन्थका रूप धारण कर लेता है । 'कर्मप्रवाद' में कर्मके बन्ध, उदय, उपशम, निर्जरा आदि अवस्थाओंका अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्धके आधारों तथा कर्मोंको जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट स्थितियोंका कथन किया गया है। 'कर्मप्रवाद' का यह विषय आगमसाहित्य में गुणस्थान और मार्गणाओंके भेदक क्रमानुसार विस्तृत और स्पष्ट रूपमें अंकित है । प्राचार्यपरम्परा और कर्मसाहित्य पौगलिक कर्मके कारण जीवमें उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषादि भाव एवं कषाय आदि विकारोंका विवेचन भी आगमसाहित्यके अन्तर्गत है । कर्मबन्धके कारण ही आत्मामें अनेक प्रकारके विभाव उत्पन्न होते हैं और इन विभावोंसे जीवका संसार चलता है। कर्म और आत्माका बन्ध दो स्वतन्त्र द्रव्योंका बन्ध है, अतः यह टूट सकता है और आत्मा इस कर्मबन्धसे निःसंग या निलिम हो सकती है । कर्मबन्धके कारण ही इस अशुद्ध आत्माकी दशा अद्ध भौतिक जैसी है । यदि इन्द्रियोंका समुचित विकास न हो तो देखने और सुननेको शक्ति के रहनेपर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना-सुनना नहीं हो पाता । इसी प्रकार विचारशक्तिके रहनेपर भी यदि मस्तिष्क यथार्थ रूपसे कार्य नहीं करता, तो विचार एवं चिन्तनका कार्य नहीं हो पाता । अतएव इस कथन के आलोक में यह स्पष्ट है कि अशुद्ध आत्माकी दशा और उसका समस्त उत्कर्ष - अपकर्षं पौद्गलिक कर्मो के अधीन है। इन कर्मोंके उपशम एवं क्षयोपशम के निमित्तसे ही जीवमें ज्ञानशक्ति उद्बुद्ध होती है। कर्मके क्षयोपशमकी तारतम्यता हो ज्ञानशक्तिकी तारतम्यताका कारण बनती है । इस आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३२५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार श्रुतधराचार्योने कर्मसिद्धान्तके आलोकमें आत्माको कथञ्चित् मूत्तिक एवं अत्तिक रूपमें स्वीकार किया है। अपने स्वाभाविक गुणोंके कारण यह आत्मा चैतन्य-ज्ञान-दर्शन-सुखमय है और है अमूर्तिक । पर व्यवहारनयको दृष्टिसे कर्मबद्ध यात्मा मुत्तिफ है। अनादिसे यह शरीर आत्माके साथ सम्बद्ध मिलता है। स्थूल शरीरको छोड़नेपर भी सूक्ष्म कर्म शरीर इसके साथ रहता है। इसी सूक्ष्म कर्मशरीरके नाशका नाम मुक्ति है। आत्माको स्वतन्त्र-सत्ता होनेपर भी इसका विकास अशुद्ध दशामें अर्थात् कर्मबन्धकी दशामें देहनिमि यह कर्मबद्ध आत्मा रागद्वेषादिसे जब उत्तप्त होती है, तब शरीरमें एक अद्भत हलनचलन हो जाता है। देखा जाता है कि क्रोषावेगके आते ही नेत्र लाल हो जाते हैं, रक्तकी गति तीव्र हो जाती है, मुख सूखने लगता है और नथुने फड़कने लगते हैं। जब कामवासना जागृत होती है तो शरीरमें एक विशेष प्रकारका मन्थन बारम्भ हो जाता है। जब तक ये विकार या कषाय शान्त नहीं होते, तब तक उद्वेग बना रहता है । आत्माके विचारों, चिन्तनों, आवेगों और क्रियाओंके अनुसार पुद्गलद्रव्यों में भी परिणमन होता है और उन विचारों एवं आवेगोंसे उत्तेजित हो पुद्गल परमाणु आत्माके वासनामय सूक्ष्म कर्मशारी में सम्मिलित हो जाते हैं ! उनाहा मह समझा जा सकता है कि अग्निसे तप्त लोहेके गोलेको पानी में छोड़ा जाय, तो वह तप्त गोला जलके बहुत-से परमाणुओंको अपने भीतर सोख लेता है । जब तक वह गरम रहता है, सब तक पानी में उथलपुथल होती रहती है। कुछ परमाणुओंको खींचता है एवं कुछको निकालता है और कुछको भाप बनाकर बाहर फेंक देता है। आशय यह है कि लोपिण्ड अपने पाश्ववर्ती वातावरणमें एक अजीब स्थिति उत्पन्न करता है । इसी प्रकार रागद्वेषाविष्ट मात्मामें भी स्पन्दन होता है और इस स्पन्दनसे पुद्गलपरमाणु आत्माके साथ सम्बद्ध होते हैं। ___ संचित कर्मोके कारण रागद्वेषादि भाव उत्पन्न होते हैं और इन रागादि भावोंसे कर्म पुदगलोंका आगमन होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि श्रद्धा, विवेक और चारित्रसे रागादि भावोंको नष्ट नहीं किया जाता । तात्पर्य यह कि जीवकी रागद्वेषादिवासनायें और पुद्गलकर्मबन्धको धाराएं बीज-वृक्षकी संततिके समान अनादिकालसे प्रचलित है। पूर्वसंचित कर्मके उदयसे वत्तमान समयमें रागद्वेषादि उत्पन्न होते है और तत्कालमें जीवको जा लगन एवं आसक्ति होती है, वही नूतन बन्धका कारण बनती है । अतएव रागादिकी उत्पत्ति और कर्मबन्धको यह प्रक्रिया अनादि है । ___ सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मोके उदयसे होनेवाले रागादि भावोंको अपने ३२६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकसे शान्त करता है । वह कर्मफलों में आसत्ति नहीं रखता इस प्रकार पुरातन संचित कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और किसी नये कमका स्थिति - अनुभागबन्ध नहीं होता है । आत्म-सत्ताको श्रद्धा करनेवाला निष्ठावान् व्यक्ति संयम, विवेक, तपश्ररणके कारण कर्मबन्धकी प्रक्रिया से छुटकारा प्राप्त करता है । पर मिध्यादृष्टि देहात्मवादी नित्य नई वासना और आसक्तिके कारण तीव्र स्थिति और अनुभागबन्ध करता है। जो जोव पुरुषार्थी, विवेकी और आत्मनिष्ठावान् है, यह निर्जरा, उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण आदि कर्मकरणको प्राप्त करता है, जिससे प्रतिक्षण बन्धनेवाले बच्छे या बुरे कर्मोंमें शुभभावोंसे शुभकमोंमें रसप्रकर्षं स्थित होकर अशुभकमोंमें रसहीनता एवं स्थितिच्छेद उत्पन्न होता है। श्रुतवराचायने कर्मसिद्धान्तके अन्तर्गत प्रतिसमय होनेवाले अच्छे-बुरे भावोंके अनुसार तीव्रतम तीव्रसर, तीव्र, मन्द मन्दन्तर और मन्दतम रूपों में कर्मकी विपाक स्थितिका वर्णन किया है । संसारी आत्मा कर्मोके इस विपाकके कारण ही सुख-दुखका अनुभव करती है। यह भौतिक जगत पुद्गल एवं आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है । जब कर्मका एक भौतिक पिण्ड अपनी विशिष्ट शक्ति के कारण आत्मासे सम्बद्ध होता है तो उसकी सूक्ष्म एवं तीव्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्त सामग्री के अनुसार उस संचित कर्म का तीव्र, मन्द और मध्यम फल मिलता है । कर्म और आत्माके बन्धनका यह चक्र अनादि कालसे चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक बन्धहेतु रागादिवासनाओंका विनाश नहीं होता । श्रुतघर आचार्य कुन्दकुन्दने बत्ताया है जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं मावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिषणो सणिघणो वा ॥ " श्रुतघराचार्योंने स्पष्टरूपसे बताया है कि आत्मा अनादिकाल से अशुद्ध है, पर प्रयोग द्वारा इसे शुद्ध किया जा सकता है। एकबार शुद्ध होनेपर फिर इसका अशुद्ध होना संभव नहीं, यतः बाधक कारणोंके नष्ट होनेस पुनः अशुद्धि आत्मामें · १. पञ्चास्तिकाय कुन्दकुन्द भारती श्रुतमण्डल ग्रंथ प्रकाशन समिति, फल्टन सन् १९७०, गाथा - १२८ से १३० तक | आचार्य तुल्म काव्यकार एवं लेखक : ३२७ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न नहीं हो सकती । आत्माके प्रदेशों में संकोच और विस्तार भी कर्मके निमित्तसे होता है । कर्म निमित्तके हटते ही आत्मा अपने अन्तिम खाकारमें रह जाती है और उर्ध्वलोकके अग्रभाग में स्थित हो अपने अनन्त चेतन्य में प्रतिष्ठित हो जाती है । श्रुतवराचार्योंने कर्मसिद्धान्तके इस प्रसंग में मध्यात्मवाद, तत्त्वज्ञान, अनेकान्तवाद, आचार आदिका भी विवेचन किया है । गुणस्थान, जीवसमास, मागंणा आदिकी अपेक्षासे कर्मबन्ध, जोवके भाव, उनकी शुद्धि - अशुद्धि, योगध्यान आदिका विवेचन किया है । नय-वादकी अपेक्षासे आत्माका निरूपण करते हुए निश्चयनयको अपेक्षा आत्माको शुद्ध चैतन्यभावोंका कर्त्ता और भोक्ता माना है । पर व्यवहारनयको अपेक्षासे यह आत्मा कर्मबन्धके कारण अशुद्ध है और राग-द्व ेष-मोहादि की कर्त्ता और तज्जन्य कर्मफलोंकी भोक्ता है । अतएव संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि श्रुतधराचार्यांने सिद्धान्त - साहित्यका प्रणयन कर तीर्थंकर महावीरकी ज्ञानज्योतिको अखण्ड और अक्षुण्ण बनाये रखनेका प्रयास किया है । द्वितीय परिच्छेद में सारस्वताचार्यों द्वारा की गयी श्रुतसेवाका प्रतिपादन किया गया है । सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख आचार्य समन्तभद्र है । इनके पश्चात् सिद्धसेन, पूज्यपाद, पात्रकेसरी, जोइन्दु, विमलसूरि, ऋषिपुत्र मानतुंग, रविषेण, जटासिह्नन्दि, एलाचार्य, वीरसेन, अकलंक, जिनसेन द्वितीय, विद्यानन्द, देवसेन, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचन्द्र, नेमिचन्द्र आदि आचार्योंने प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगकी रचना कर बाङ्मयको पल्लवित किया है। इन सारस्वताचार्योंने उत्पादादि- त्रिलक्षणपरिमाणवाद, अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद भाषा और आत्मद्रव्यकी स्वतन्त्र सत्ता इन चार मूल विषयोंपर विचार किया है। दार्शनिक युग और स्याद्वाव दार्शनिक युगके सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रने सैद्धान्तिक एवं आगमिक परिभाषाओं और शब्दोंको दार्शनिक रूप प्रदान किया है । इन्होंने एकान्तवादोंकी आलोचनाके साथ-साथ अनेकान्तका स्थापन, स्याद्वादका लक्षण, सुनयदुर्नयकी व्याख्या और अनेकान्त में अनेकान्त लगाने की प्रक्रिया बतलायी है । प्रमाणका लक्षण 'स्वपरावभासक बुद्धि को बतलाया है। समन्तभद्रने बतलाया है कि तत्त्व अनेकान्तरूप हैं और अनेकान्त विरोधी दो धर्मोके युगलके आश्रयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धर्मोका समुच्चय हैं और ऐसे-ऐसे ३२८ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त धर्मसमुच्चय विराट अनेकतारमात्म-सानसमें अनन्त लहरोंके समान तरंगित हो रहे हैं और उसमें अनन्त सप्तभंगियाँसमाहित हैं। वक्ता किसी धर्मविशेषको विवक्षावश मुख्य या गौणरूपमें ग्रहण करता है । इस प्रकार समन्तभद्रने सप्तभंगीका परिष्कृत प्रयोग कर अनेकान्तकी व्यवस्था प्रदर्शित की है। यथा १. स्यात् सद्रूप ही तत्त्व है। २. स्यात् असद्रूप ही तत्त्व है। ३. स्यात् उभयरूप ही तत्व है। ४. स्यात् अनुभय ( अवक्तव्य) रूप ही तत्त्व है। ५. स्यात् सद् और अवक्तव्य रूप ही तत्त्व है। ६. स्यात् असद् और अक्क्तव्य रूप ही तत्त्व है। ७ स्यात् सद् और असद् तथा अवक्तरूप ही तत्त्व है ।' इन सप्तभङ्गोंमें प्रथम भंग स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, द्वितीय परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, तृतीय दोनोंकी सम्मिलित अपेक्षाओंसे, चतुर्थ दोनों सत्त्व-असत्त्वको एक साथ कह न सकनेसे, पंचम प्रथम-चतुर्थके संयोगसे, षष्ठ द्वितीय-चतुर्थके मेलसे, सप्तम तृतीय-चतुर्थक सम्मिलित रूपसे विवक्षित हैं। प्रत्येक भंगका प्रयोजन पृथक्-पृथक् रूपमें अभीष्ट है । ___ समन्तभद्रने सदसके स्याद्वादके समान अद्वैत-द्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यवाद, अन्यता-अनन्यतावाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, विशान-बहिरर्थवाद, देवपुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादपर भी विचार किया है। तथा सप्तभंगीकी योजना कर स्याद्वादको स्थापना को है। इस प्रकार समन्तभद्रने तत्त्वविचारको स्यादवाददृष्टि प्रदान कर विचारसंघर्षको समाप्त किया है। समन्तभद्रका अभिमत है कि तात्विक विचारणा अथवा आचार-व्यवहार, जो कुछ भी हो, सब अनेकान्तदष्टिके आधारपर किया जाना चाहिए। अतः समस्त आचार और विचारको नींव अनेकान्तदृष्टि ही है । यही दृष्टि वैयक्तिक और सामष्टिक समस्याओंके समाधानके लिए कुञ्जी है। समन्तभद्रको सप्तभंगीका स्वरूप आचार्य कुन्द-कुन्दसे विरासतके रूपमें प्राप्त हुआ था । उन्होंने इस रूपको पर्याप्त विकसित और सुव्यवस्थित किया है। विचारसहिष्णुता और समता लानेका उनका यह प्रयत्न श्लाघनीय है। १. देवागम, वीर-सेवा-मन्दिरट्रस्ट प्रकाशन, डॉ० दरवारीलाल कोठिया द्वारा लिखित प्रस्तावना पु० ४४ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३२९ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके पश्चात् सिद्धसेनने नए और अनेकान्तका गंभीर विशद एवं मौलिक विवेचन किया है । समन्तभद्रके प्रमाणके 'स्वपरावभासक लक्षण' में 'बाधविवर्जित" विशेषण देकर उसे विशेष समृद्ध किया । ज्ञानकी प्रमाणता और अप्रमाणताका आधार 'मेयनिश्चय' को माना । पात्रकेसरी और श्रीदत्तने क्रमश: 'त्रिलक्षणकदर्थन' एवं 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थोंकी रचना कर 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतुलक्षण प्रतिष्ठित किया तथा वादका सांगोपांग निरूपण कर पर समयमीमांसा प्रस्तुत की । आचार्य अकलंकदेवने जैन न्यायशास्त्रको सुदृढ़ प्रतिष्ठा कर प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाये तथा प्रत्यक्षके मुख्यप्रत्यक्ष; सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं । परोक्षप्रमाणके मेदोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमको बतलाया है। उत्तरकालिन आचार्योंने अकलंकद्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धतिको पल्लवित और पुष्पित किया है। अकलंकदेवने लवीयस्त्रयसवृत्ति, न्यायविनिश्चयसवृत्ति, सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति और प्रमाणसंग्रहसवृत्ति इन मौलिक ग्रन्थोंकी रचना की है । तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती इनके टीकाग्रन्थ हैं । अकलंकने इन ग्रन्थोंमें प्रमाण और प्रमेयकी व्यवस्थामें पूर्ण सहयोग प्रदान किया है । द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त आदिका निरसन किया है। सुनय, दुर्नय, द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदिका स्वरूपविवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है | अकलंकके पश्चात् आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा जैसे जैन न्याय के मूर्धन्य ग्रन्थोंका प्रणयन कर जैनदर्शनको सुव्यवस्थित बनाया है । ज्ञेयको जानने-देखने, समझने और समझाने की दृष्टियोंका नय और सप्तभंगी द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है । विद्यानन्दने विभिन्न दार्शनकारों द्वारा स्वीकृत आप्तोंकी समीक्षा कर आप्तत्व एवं सर्वज्ञत्व की प्रतिष्ठा की है । इन्होंने सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञानकी प्रामाणिकताका भी विचार किया है । अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिसे निविकल्पको प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्वलक्षणरूप परमाणुपदार्थं ज्ञानका विषय तभी बन सकता है जब स्थूल बाह्य पदार्थोंका अस्तित्व स्वीकार किया जाय । विद्यानन्दने १. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं, बाधविवर्जितम् 1 प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥ - न्यामावतार, सम्पादक डॉ० पी० एल० वैद्य, प्रकाशक जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई, सन् १९२८ कारिका 1 ३३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत चित्राद्वैत चार्वाक, बौद्ध, सेश्वरसांख्य, निरीश्वरसांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट आदिके मंतव्योंकी समीक्षा की हैं। प्रमेयोंका स्पष्टीकरण बहुत ही सुन्दर रूपमें किया गया है । द्रव्यगुण-पर्यायविषयक बेन द्रव्यविवेचनके क्षेत्रमें श्रुतधराचार्य कुन्दकुन्दने जो मान्यताएँ प्रतिष्ठित की थों, उनका विस्तार एलाचार्य, अमृतचन्द्र, अमितगति, वीरसेन, जोइन्दु आदि आचार्यों ने किया है । जीब, पुद्गल, धर्म, अधर्मं, आकाश और काल इन छह द्रव्यों और उनके गुण- पर्यायोंका निरूपण किया गया है । जीवका चैतन्य आसा - धारण गुण है । बाह्य और अभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूपसे दो प्रकारके परिणमन होते हैं। जिस समय चैतन्य 'स्व' से भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है । और जब चैतन्यमात्र चैतन्याकार रहता है तब वह दर्शन कहलाता है। जीवमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं । पुद्गलद्रव्य में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण रहते है । जो द्रव्य स्कन्ध अवस्था में पूरण अर्थात् अन्य अन्य परमाणुओं से मिलन और गलन अर्थात् कुछ परमाणुओंका बिछुड़ना, इस तरह उपचय और अपचयको प्राप्त होता है वह पुगल कहलाता है । समस्त दृश्य जगत इस पुद्गलका ही विस्तार है । मूल दृष्टिसे पुद्गलद्रव्य परमाणुरूप ही है । अनेक परमाणुओंसे मिलकर जो स्कन्ध बनता है वह संयुक्तद्रव्य है । स्कन्धों का बनाव और मिटाव परमाणुओंकी बन्धशक्ति और भेदशक्तिके करण होता है । I प्रत्येक परमाणुमें स्वभावसे एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं । परमाणु अवस्था ही पुद्गलकी स्वाभाविक पर्याय और स्कन्ध अवस्था विभाव पर्याय है । परमाणु परमातिसूक्ष्म है, अविभागी है, शब्दका कारण होकर भी स्वयं अशब्द है । शाश्वत होकर भी उत्पाद और व्यय युक्त है । स्कन्ध अपने परिणमनकी अपेक्षासे छह प्रकारका है - १. बादर-बादरजो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं न मिल सकें, वे लकड़ी, पत्थर, पर्वत, पृथ्वी आदि बादर - बादर स्कन्ध कहलाते हैं । २. बादर - जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपस में मिल जायें, वे बादर स्कन्ध हैं, जैसे—दूध, घी, तेल, पानी आदि । ३. बादर-सूक्ष्म --जो स्कन्ध दिखने में तो स्थूल हों, लेकिन छेदने भेदने और ग्रहण करने में न आवें, वे छाया, प्रकाश, अन्धकार, चांदनी आदि बादरसूक्ष्म स्कन्ध हैं । ४. सूक्ष्म बादर -- जो सूक्ष्म होकरके भी स्थूलरूप में दिखें, वे पाँचों इन्द्रियोंके विषय - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णं और शब्द सूक्ष्म- बादर स्कन्ध हैं । आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३३१ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. सूक्ष्म-जो सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण न किये जा सकते हों, वे कर्मवर्गणा आदि सूक्ष्म स्कन्ध हैं। ६. अतिसूक्ष्म-कर्मवर्गणासे भी छोटे . व्यणुक स्कन्ध तक अतिसूक्ष्म है। समान्यतः पुद्गलके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु ये चार विभाग हैं। अनन्तान्त परमाणुओंसे स्कन्ध बनता है। उससे आधा स्कन्धदेश और स्कन्धदेशका आधा स्कन्धप्रदेश कहलाता है। परमाणु सर्वतः अविभागी होता है। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, प्रकाश, उद्योत और गर्मी आदि पुद्गलद्रव्यके ही पर्याय हैं । अनन्त आकाशमें जीव और पुद्गलोंका गमन जिस द्रव्यके कारण होता है गह धर्मद्रव्य है। यहाँ मद्रिन्स एणयका पर्यायवाची नहीं । यह असंख्यातप्रदेशी द्रव्य है । जीव और पुद्गल स्वयं गतिस्वभाववाले हैं। अतः इनके गमन करनेमें जो साधारण कारण होता है वह धर्मद्रव्य है। यह किसी जीव या पुद्गलको प्रेरणा करके नहीं चलाता, किन्तु जो स्वयं गति कर रहा है उसे माध्यम बनकर सहारा देता है । इसका अस्तित्व लोकके भीतर तो है ही, पर लोकसीमाओंपर नियंत्रकके रूपमें है। धर्मद्रब्यके कारण ही समस्त जीव और पुद्गल अपनी यात्रा उसी सीमा तक समाप्त करनेको विवश हैं। उससे आगे नहीं जा सकते। ___ जिस प्रकार गतिके लिए एक साधारण कारण धर्मद्रव्य अपेक्षित है, उसो तरह जीव एवं पुद्गलोंकी स्थितिके लिए एक साधारण कारण अधर्मद्रव्य अपेक्षित है । यह लोकाकाशके बराबर है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दसे रहित, अमूर्तिक, निष्क्रिय और उत्पाद-व्ययके परिणमनसे युक्त नित्य है। अपने स्वाभाविक संतुलन रखनेवाले अनन्त अगुरुलघुगुणोंसे उत्पाद-व्यय करता हुमा यह स्थितशील जीव-पुद्गलोंको स्थितिमें साधारण कारण होता है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य लोफ और अलोक विभागके सद्भावसूचक प्रमाण हैं। समस्त जीव, अजीव आदि द्रव्योंको जो अवगाह देता है अर्थात् जिसमें ये समस्त द्रव्य युगपत् अवकाश पाते हैं, वह आकाशद्रव्य है । आकाश अनन्तप्रदेशी है। इसके मध्य भागमें चौदह राजू ऊंचा पुरुषाकार लोक स्थित है, जिसके कारण आकाश लोकाकाश और अलोकाकाशके रूपमें विभाजित हो जाता है। लोकाकाश असंख्यातप्रदेशोंमें है। शेष अनन्त प्रदेशोंमें अलोक है, जहाँ केवल आकाश ही आकाना है। यह निष्क्रिय है और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द आदिसे रहित होने के कारण अमूर्तिक है। ३३२ : तीर्घकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त द्रव्योंके उत्पादादिरूप परिणमनमें सहकारी कालद्रव्य होता है। इसका स्वरूप 'वर्तना' लक्षण है। यह स्वयं परिणमन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिणमनमें सहकारी होता है । यह भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय,प्रौव्य युक्त है। प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालाणद्रव्य अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यके समान यह कालद्रव्य एक नहीं है, यत: प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर समय-भेद स्थित रहनेसे यह अनेक रत्नोंकी राशिके समान पिण्डद्रव्य है । द्रव्योंमें परत्व, अपरत्व, पुरातनत्व, नृतनत्व, अतीत, वर्तमान और अनागतत्त्वका व्यवहार कालद्रव्यके कारण ही होता है। प्रत्येक द्रव्यमें सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। प्रत्येक गुणका भी प्रतिसमय परिणमन होता है। गुण और द्रव्यका कथञ्चित् तदात्म्यसम्बन्ध है । द्रव्यसे गुणको पृथक नहीं किया जा सकता। इसलिए वह अभिन्न है और संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उसका विभिन्न रूपसे निरूपण किया जाता है, अतः वह भिन्न है । इस दृष्टिसे द्रव्यमें जितने गुण हैं उतने उत्पाद और व्यय प्रतिसमय होते हैं। प्रत्येक गुण अपने पूर्व पर्यायको त्यागकर उत्तरपर्यायको धारण करता है। पर उन सबको द्रव्यसे भिन्न सत्ता नहीं रहती है। सूक्ष्मतया देखनेपर पर्याय और गुणको छोड़कर द्रव्यका कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, गुण और पर्याय ही द्रव्य है। पर्यायोंमें परिवर्तन होनेपर भी जो एक अनच्छिन्नताका नियामक अंश है, वही तो गुण है । गुणोंको सहभावी एवं अन्वयी तथा पर्यायोंको व्यतिरेकी और क्रमभावी माना जाता है। पर्याय, गुणोंका परिणाम या विकार होती हैं। द्रव्य, गुण और पर्यायके विवेचनके साथ जीव, अजीक, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका निरूपण भी किया गया है । आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व दो-दो प्रकारके होते हैं-द्रव्य और भावरूप । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आत्मपरिणामोंसे कर्मपुद्गलोंका आगमन, जिन भावोसे होता है वे भावास्रव कहलाते हैं । और पुद्गलोंका बाना द्रव्यास्रव है। भावानव जीवगत पर्याय है और द्रव्यास्रव पुद्गलगत । जिन कषायोंसे कर्म बन्धते हैं, वे जीवगत कषायादि भावभावबन्ध हैं और पुद्गलकर्मका आत्मसे सम्बन्ध हो जाना द्रव्यबन्ध है। भावबन्ध जीवरूप है और द्रव्यबन्ध पुद्गलरूप 1 व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहज़यरूप भावोंसे कर्मोके आनेको रोकना भावसंबर है। और कोका रुक जाना द्रव्यसंवर है | इसी प्रकार पूर्व संचित कोका निर्जरण जिन लपादिभावोंसे होता है वे भावनिर्जरा हैं और कमोंका झड़ना द्रव्य आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३३३ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा है। जिन ध्यान आदि साधनोंसे मुक्ति प्राप्ति होती है वे भाव भावमोक्ष हैं और कर्मपुद्गलोंका आत्मासे छूट जाना द्रव्यमोक्ष है। इस प्रकार : आस्रव, बन्ध, संवर. निर्जरा और मोक्ष थे पांच तत्त्व भावरूपमें जीवके पर्याय हैं और द्रव्यरूपमें पुद्गलके। जिनके भेदविज्ञानसे कैवल्यकी प्राप्ति होती है, उन आत्मा और में से सातों न समाहित हो जाते हैं ! वस्तुतः जिस 'पर' की परतन्त्रताको दूर करना है और जिस 'स्व'को स्वतन्त्र होना है, उस 'स्व' और 'पर'के ज्ञानमें तत्त्वज्ञानको पूर्णता हो जाती है। अध्यात्मविषयक देन ___ जोइन्दुने आत्मद्रव्यके विशेष विवेचनक्रममें आत्माके तीन प्रकार बतलाये हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर आदि परद्रव्योंको अपना रूप मानकर उनकी हो प्रिय भोग-सामग्रीमें आसक्त रहता है वह बहिर्मुख जीव बहिरात्मा है । जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिनकी शरीर आदि बाह्य पदार्थोंसे आत्मदृष्टि हट गयी है वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं। जो समस्त कर्ममलकलंकोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्रस्वरूपमें मग्न हैं वे परमात्मा हैं। यह संसारी आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है। ___ आचार्योने चारित्र-साधनाका मुख्याधार जीवतत्वके स्वरूप और उसके समान अधिकारकी मर्यादाका तत्त्वज्ञान ही माना है। जब हम यह अनुभव करते हैं कि जगतमें वर्तमान सभी आत्माएँ अखण्ड और मूलतः एक-एक स्वतत्र समान शक्तिवाले दव्य हैं। जिस प्रकार हमें अपनी हिंसा रुचिकर नहीं है, उसी प्रकार अन्य आत्माओंको भी नहीं है। अतएव सर्वात्मसमत्वकी भावना ही अहिंसाकी साधनाका मुख्य आधार है। आत्मसमानाधिकरणका ज्ञान और उसको जीवनमें उतारनेकी दृढ़ निष्ठा ही सर्वोदयकी भूमिका है और इसी भूमिकासे चारित्रका विकास होता है। ___ अहिंसा, संयम, तपकी साधनाएं आत्मशोधनका कारण बनती हैं । सम्यक श्रद्धा, सम्यक्सान और सम्यक्चारित्र ही आत्मस्वातंत्र्यकी प्राप्तिमें कारण है। प्रबुद्धाचार्योने तत्त्वज्ञान, प्रमाणवाद, पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विषयोंका संवर्द्धन किया है। यह सत्य है कि जैसी मौलिक प्रतिमा श्रुत्तधर और सारस्वताचार्यों में प्राप्त होती है। वैसी प्रबुद्धाचार्यों में नहीं। तो भी जिनसेन प्रथम, गुणभद्र, पाल्यकीर्ति, वीरनन्दि, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, महासेन, हरिषेण, सोमदेव, वसुनन्दि, रामसेन, नयसेन, माधनन्दि, आदि आचार्योंने श्रुतकी अपूर्व साधना की है। इन्होंने चारों अनुयोगोंके विषयोंका ३३४ : सीकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये रूप में प्रथन, सम्पादन एवं नयी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर तीर्थकरवाणीको समृद्ध बनाया है। ___ अध्यात्मके क्षेत्रमें आचार्य कुन्दकुन्दने जिस सरिताको प्रवाहित किया, उसे स्थिर बनाये रखनेका प्रयास सारस्वत और प्रबुद्धाचार्योने किया है। इन्होंने व्यक्तित्व के विकासके लिए आध्यात्मिक और नैतिक जीवनके यापनपर जोर दिया है | जब तक मनुष्य भौतिकवादमें भटकता रहेगा, तब तक उसे सुख, शान्ति और संतोषको प्राप्ति नहीं हो सकती। जैन संस्कृतिका लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है; संघर्ष नहीं, शान्ति है; विषाद नहीं, आनन्द है। जीवनके शोधनका कार्य आध्यात्मिकता द्वारा ही संभव होता है। भोगवादी दृष्टिकोण मानव-जीवनमें निराशा, अतृप्ति और कुण्ठाओंको उत्पन्न करता है। जिससे शक्ति. अधिकार और स्वत्वकी लालसा अहर्निश बढ़ती जाती है। प्रतिशोध एवं विद्वेषके दावानलसे झुलसती मानवताका वाण अध्यात्मवाद ही कर सकता है । यह अध्यात्मवाद कहीं बाहरसे आनेवाला नहीं; हमारी आत्माका धर्म है। हमारी चेतनाका धर्म है और है हमारी संस्कृतिका प्राणभूत तत्त्व । मनुष्यजीवन में दो प्रधान तत्त्व हैं-दृष्टि और सृष्टि । दृष्टिका अर्थ है बोध, विवेक, विश्वास और विचार । सुप्टिका अर्थ है-क्रिया, कृति, संयम और आचार। मनुष्यके आचारको परखनेकी कसौटी उसका विचार और विश्वास होता है। वास्तवमें मनुष्य अपने विश्वास, विचार और आचारका प्रतिफल है। दृष्टिकी विमलतासे जीवन अमल और धवल बन सकता है। यही कारण है कि आचार्योने विचार और आचारके पहले दृष्टिकी विशुद्धिपर विशेष जोर दिया; क्योंकि विश्वास और विचारको समझनेका प्रयत्न ही अपने स्वरूपको समझनेका प्रयत्न है। __ अपने विशुद्ध स्वरूपको समझनेके लिए निश्च यदष्टिको आवश्यकता है। यह सत्य है कि व्यवहारको छोड़ना एक बड़ी भल हो सकती है। पर निश्चयको छोड़ना उससे भी अधिक भयंकर भल है । अनन्त जन्मों में अनन्त बार इस जीवने व्यवहारको ग्रहण करनेका प्रयत्न किया है, किन्तु निश्चयदृष्टिको पकड़ने और समझनेका प्रयल एक बार भी नहीं किया है। यही कारण है कि शुद्ध आत्माको उपलब्धि इस जीवको नहीं हो सकी और यह तब तक प्राप्त नहीं हो सकेगी, जब तक आत्माके विभावके द्वारको पारकर उसके स्वभावके भव्यद्वारमें प्रवेश नहीं किया जायेगा। दुःख एवं क्लेशप्रद परिणाम होनेसे पाप त्याज्य है । प्राणियोंको दुःखरूप होनेसे ही पाप रुचिकर नहीं है । पुण्य आत्माको अच्छा लगता है, क्योंकि आचार्यतुल्य कान्यकार एवं लेखक : ३३५ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका परिणाम सुख एवं समृद्धि है । इस प्रकार सुख एवं दुःस्त्र प्राप्तिको दृष्टिसे संसारी आत्मा पापको छोड़ता है और पुण्यको ग्रहण करता है, किन्तु विवेकशील ज्ञानी आत्मा विचार करता है कि जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी एक प्रकारका बन्धन है। यह सत्य है कि पुण्य हमारे जीवन-विकासमें उपयोगी है, सहायक है। यह सब होते हए भी पूण्य उपादेय नहीं है, अन्ततः वह हेय ही है । जो हेय है, वह अपनी वस्तु कैसे हो सकती है ? आस्रव होनेके कारण पुण्य भी आत्माका विकार है, वह विभाव है, आत्माका स्वभाव नहीं । निश्चयदृष्टिसम्पन्न आत्मा विचार करता है कि संसारमें जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका कर्ता कोई पदार्थ नहीं । जैसे कुम्भकार घट बनानेरूप अपनी क्रियाका कर्ता व्यवहार या उपचार मात्रसे है। वास्तवमें घट बननेरूप क्रियाका कर्ता घट है। घट बननेरूप क्रियामें कुम्मकार सहायक निमित्त है, इस सहायक निमित्तको ही उपचारसे कर्त्ता कहते हैं । तथ्य यह है कि कर्ताके दो भेद हैं-परमार्थ कर्ता और उपचरित कर्ता क्रियाका उपादान कारण ही परमार्थ कर्ता है, अतः कोई भी क्रिया परमार्थ कर्ताके बिना नहीं होती है। भारत माता अपने ज्ञान, दर्शन आदि चेतनभावोंका ही कर्ता है, राग-द्वेष-मोहादिका नहीं। आचार्य नेमिचन्द्रने बताया है पुग्गलकम्मादीणं कत्ता चबहारदो दुणिच्छयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।' व्यवहारनयसे आत्मा पुद्गलकर्म आदिका कर्ता है, निश्चयसे चेतनकर्मका, और शुद्धनयकी अपेक्षा शुद्ध भावोंका कर्ता है । तथ्य यह है कि जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके साथ बन्धको प्राप्त होता है, उस समय उसका अशुद्ध परिणमन होता है। उस अशद्ध परिणमनमें दोनों द्रव्योंके गुण अपने स्वरूपसे च्युत होकर विकृत भावको प्राप्त होते हैं। जीवद्रव्यके गुण भी अशुद्ध अवस्थामें इसी प्रकार विकारको प्राप्त होते रहते हैं। जीवद्रव्यके अशुद्ध परिणमनका मुख्य कारण वैभाविकी शक्ति है और सहायकनिमित्त जीवके गुणोंका विकृत परिणमन है। अतएव जीवका पुद्गलके साथ अशुद्ध अवस्थामें ही बन्ध होता है, शुद्ध अवस्था होनेपर विकृत परिणमन नहीं होता । विकृत परिणमन ही बन्धका सहायकनिमित्त है । प्रमाण और अप्रमाण विषयक वेन __ प्रमाणके क्षेत्रमें सारस्वताचार्य और प्रबुद्धाचार्योने विशेष कार्य किया है। १. द्रव्यसंग्रह, गाथा ८। ३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान, प्रमाण और प्रमाणाभासको व्यवस्था बाह्य अर्थके प्रतिभास होने और प्रतिभासके अनुसार उसके प्राप्त होने और न होनेपर निर्भर है । इन आचार्योंने आगमिक क्षेत्रमें तत्वज्ञानसम्बन्धी प्रमाणकी परिभाषाको दार्शनिक चिन्तनक्षेत्रमें उपस्थित कर प्रमाणसम्बन्धी सूक्ष्म चर्चाएँ निबद्ध की हैं। प्रमाणता और अप्रमाणताका निर्धारण बाह्य अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बन्ध रखता है। आचार्य अकलंकदेवने अविसंवादको प्रमाणप्ताका आधार मानकर एक विशेष बात यह बतलाई है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अनमाणसापी को स्थिति है। कोई भी शान एकान्तसे प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । इन्द्रियदोषसे होनेवाला द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांशमें अविसंवादी होने के कारण प्रमाण है, पर द्वित्व अंशमें विसंवादी होनेके कारण अप्रमाण । इस प्रकार अकलंकने ज्ञानकी एकांतिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं किया है, यतः इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति पूर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती | स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियोंके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भी होता है। यही कारण है कि आगमिक परम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्र तज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष ही कहा गया है। प्रामाण्य और अप्रामाण्यकी उत्पत्ति परसे ही होती है, ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः और अनभ्यासदशामें परतः हुआ करती है । जिन स्थानोंका हमें परिचय है उन जलाशयादिमें होनेवाला ज्ञान या मरीचि-ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता बता देता है, किन्तु अनिश्चित स्थानमें होनेवाले जलज्ञानकी प्रमाणताका ज्ञान अन्य अविनाभावी स्वत: प्रमाणभूत ज्ञानोंसे होता है। इस प्रकार प्रमाण और प्रामाण्यका विचार कर तदुपत्ति, तदाकारता, इन्द्रियसन्निकर्ष, कारकमाकल्य आदिको विस्तारपूर्वक समीक्षा की है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोके भेदोंका प्रतिपादन कर अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण-भेदोंकी समीक्षा की गयी है। अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रहमें श्रुतके प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक और आगमनिमित्तक ये तीन भेद किये हैं। परोपदेशसे सहायता लेकर उत्पन्न होनेवाला श्रुतै प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेश सहित हेतुसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगमनिमित्तक श्रुत है । प्रमाणचिन्तनके पश्चात् प्रमाणाभासोंका विचार किया .- -.... -.. १. श्रुतमविप्लवं प्रत्यक्षानमानागमनिमित्तम्-प्रमाणसंग्रह, पृ. १ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३३७ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है । द्वैत-अद्वेतसमीक्षा के अनन्तर सर्वज्ञ - सिद्धि, स्याद्वादसिद्धि, सप्तभगी आदिका विचार किया गया है । निश्चयतः जैन लेखकोंकी प्रमाणमीमांसा भारतीय प्रमाणमीमांसा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है । व्याकरणविषयक देन जैनाचार्योंने भाषाको सुव्यवस्थित रूप देनेके लिए व्याकरणग्रन्थोंकी रचना की है। आचार्य देवनन्दिने अपने शब्दानुशासन में श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्र इन छः वैयाकरणोंके नाम निर्दिष्ट किये हैं । देवनन्दिने जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना कर कुछ ऐसी मौलिक बाते बतलायी हैं, जो अन्यत्र प्राप्त नहीं होतीं । उन्होंने लिखा है - "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः (१|११९९ ) शब्द स्वभावसे ही एकशेषकी अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व और बहुत्वमें प्रवृत्त होता है। अतः एकशेष मानना निरथंक है । यही कारण है कि इनका व्याकरण 'अकोष' कहलाता है । इन्होंने शब्दोंकी सिद्धि अनेकान्त द्वारा प्रदर्शित की है - "सिद्धिरनेकान्तात्" Ir (१११११) अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्न प्रभृति नाना धर्मोसे विशिष्ट धर्मी रूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही संभव है । इस प्रकार देवनन्दिने अपने मौलिक विचार प्रस्तुत कर अनेक धर्मविशिष्ट शब्दों का साधुत्व बतलाया है । जैनेन्द्र व्याकरणपर अभयनन्दिकृत महावृत्ति, प्रभाचन्द्र कृत शब्दांभोजभास्करन्यास, श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तु क्रिया और पण्डित महाचन्द्रकृत वृत्ति, ये चार टीकाएँ प्रसिद्ध हैं । यापनीय संघ के आचार्य पाल्यकीर्तिने शाकटायनव्याकरणकी रचना की । इस व्याकरणपर सात टीकाएँ उपलब्ध है । अमोधवृत्ति, शाकटायनन्यास, चिन्तामणि, मणिप्रकाशिका, प्रक्रिया संग्रह, शाकटायनटीका और रूपसद्धि । ये सभी टीकाएँ महत्त्वपूर्ण हैं । चिन्तामणिके रचयिता यक्षत्रम हैं और शाकटायनन्यास के प्रभाचन्द्र। प्रक्रिया-संग्रहको अभयचन्द्रने सिद्धान्तकौमुदीको पद्धतिपर लिखा है । दयापाल मुनिने लघुसिद्धान्तकौमुदीकी शैलीपर रूपसिद्धिकी रचना की है । कालरूपमालाके रचयिता भावसेन अविद्य हैं | शुभचन्द्रने चिन्तामणिनामक प्राकृतव्याकरण लिखा है | श्रुतसागरसूरिका भी एक प्राकृतव्याकरण उपलब्ध है। कोषforan da विषयक साहित्य में धनञ्जयकी नाममाला ही सबसे प्राचीन है । इसके अतिरिक्त अनेकार्थनाममाला और अनेकार्थनिघंटु भी इन्होंके द्वारा रचित ३३ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । श्रीधरसेनने विश्वलोचन कोषको रचना की है, इसका दूसरा नाम मुक्तावलीकोष है । धनमित्रने एम. शिरचना मिली है. पद नपा कर्मा देवने अनेकार्थनामक एक कोष लिखा है। आशाधरद्वारा विरचित अमरकोषकी क्रिया-कलापटीका भी ज्ञात होती है। इस प्रकार दिगम्बर परम्पराके आचार्योने कोष-साहित्यको अभिवृद्धि की है । पुराण और काव्यविषयक देन दिगम्बराचार्योंने कर्मके फलभोक्ताओंका उदाहरण उपस्थित करनेके लिए काव्य, नाटक, कथा और पुराणोंका सृजन किया है । जिस प्रकार आजका वैज्ञानिक अपने किसी सिद्धान्तको प्रमाणित करनेके लिए प्रयोगका आश्रय ग्रहण करता है और प्रयोगविधि द्वारा उसकी सत्यता प्रमाणित कर देता है, उसी प्रकार कर्मसिद्धान्तके व्यावहारिक पक्षको प्रयोगरूपमें ज्ञात करनेके लिए आख्यानात्मक साहित्यका सृजन किया जाता है। पुराण, कथा और काव्योंमें कर्मके शुभाशुभ फलकी व्यञ्जना करनेके लिए श्रेसठ शालाकापुरुषों, अन्य पुण्य पुरुषों एवं ब्रताराधक पुरुषोंके जीवनवृत्त अंकित किये गये हैं । जिन व्यक्तियोंने धर्मकी आराधनाद्वारा अपने जीवन में पुण्यका अर्जन कर स्वर्गादि सुखोंको प्राप्त किया है, उनके जीवन-वृत्त साधारणव्यक्तियोंको भी प्रभावित करते हैं। इनका विषय स्मृत्यनुमोदित वर्णाश्रम धर्मका पोषक नहीं है । इसमें जातिवादके प्रति क्रान्ति प्रदर्शित की गयी है । आश्रम-व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाज सागार और अनागार इन दो वर्गों में विभक्त है । तप, त्याग, संयम अहिंसाको साधना द्वारा मानव-मात्र समानरूपसे आत्मोत्थान करनेका अधिकारी है। आत्मोत्थानके लिए किसी परोक्ष शक्तिकी सहायता अपेक्षित नहीं है। अपने पुरुषार्थ द्वारा कोई भी व्यक्ति सर्वांगीण विकास कर सकता है। जैन वाङ्मयमें वेसठ शलाकापुरुष उपाधि या पदविशेष हैं | तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदिके 'जीवनमान' निर्धारित हैं। जो भी तीर्थकर या चक्रवर्ती होगा, उसमें निर्धारित जीवनमूल्योंका रहना परमावश्यक है। तीर्थंकरोंके पञ्चकल्याणक और चक्रवर्तियोंकी विशिष्ट सम्पत्ति परम्परा द्वारा पठित है। अत: वेसठ गलाकापुरुषोंके जीवनवृत्त अंकनमें परम्परानुमोदित जीवनमूल्योंका समावेश परमावश्यक है। ___ जैन पुराण और काव्योंमें आत्माका अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारोंकी अपरिहार्यता दिखलाने के लिए पूर्व जन्मके आख्यानोंका संयोजन किया जाता है । प्रसंगवश चार्वाक, तत्त्वोपप्लववाद प्रभूति नास्तिकवादोंका निरसन कर आत्माका अमरत्व और कर्मसंस्कारका वैशिष्ट्य निरूपित किया है। पूर्वजन्म अचायतुल्य याव्यकार एवं लेखक : ३३१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सभी आख्यान नायकोंके जीवनमें कलात्मक शैलीमें गुम्फित्त किये गये हैं। पुनर्जन्म, आत्माका अमरत्व, कर्मसंस्कारोंका प्रभाव, आत्म-साधना आदिका भी चित्रण किया गया है। इस प्रकार तृतीय खण्डमें आचार्यों द्वारा पुराण और काव्योंका गुम्फन भी हुआ है । वास्तबमें प्रबुद्धाचार्योंने प्राचीन आगमोंसे आख्यानतत्व ग्रहण कर प्रथमानुयोगसम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी हैं । परम्परापोषक आचार्यों में भट्टारकोंकी गणना की गयी है । इन्होंने मन्दिरमूर्ति-प्रतिष्ठा, साहित्य-संरक्षण और साहित्यप्रणयन द्वारा जैन संस्कृतिका प्रचारप्रसार करने में अद्वितीय प्रयास किया है । बृहत् प्रभाचन्द्र, भास्करनन्दि, ब्रह्मदेव, रविचन्द्र, अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, पपनन्दि, सकलकीर्ति, भुवनकोति, ब्रह्म जिनदास, सोमकोति, ज्ञानभूषण, अभिनव धर्मभूषण, विजयकीति, शुभचन्द्र, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, सुमत्तिकीर्ति, श्रुतसागर, ब्रह्मनेमिदत्त, श्रुतकीर्ति, मलयकीर्ति प्रभृति भट्टारकोंने मन्त्र-तन्त्र, आचारशास्त्र, काव्य, पुराण विषयक रचनाएँ लिखा ालीन र गागों और हलोको प्रभाटिन किया है । इसमें सन्देह नहीं कि परम्परापोषक आचार्याने वाङ्मयके प्रणयनमें अभूतपूर्व कार्य किया है । ह्रासोन्मुखी प्रतिभाके होनेपर भी सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, श्रुतसागरसूरि, रत्नकीर्ति आदि ऐसे भट्टारक हैं, जिन्होंने विपुल ग्रंधराशिका निर्माण कर वाङ्मयको अभिवृद्धिमें अपूर्व योगदान किया है । इस तृतीय खण्डमें भट्टारकीय परम्परा द्वारा प्राप्त सामग्रीका सर्वांगीण विवेचन करनेका प्रयास किया गया । चतुर्थ खण्डमें संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल और मराठी भाषाके जैन कवियों द्वारा लिखित साहित्यका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है । इन भाषाओंके शताधिक कवियोंने रस, गुण समन्वित काव्योंकी रचना की है। यह खण्ड कवियोंके इतिवृत्तको अवगत करनेकी दृष्टि से उपादेय है। इस प्रकार प्रस्तुत 'तीर्थकर महावीरकी आचार्यपरम्परा' ग्रन्थमें ऐसे आचार्यों और लेखकोंके इतिवृत्तोपर प्रकाश डाला गया है, जिन्होंने वाङ्मयकी सेवा की है। आचार्यो द्वारा प्रभावित राजवंश और सामन्त दिगम्बर जैनाचार्योने विभिन्न राजवंशों और राजाओंको प्रभाषित कर जैन शासनका उद्योत किया है। राजाओंके अतिरिक्त अमात्य, सामन्त एवं सेनापतिओंने भी शासनके प्रचार एवं प्रसारमें योगदान किया है। आचार्य भद्रबाहुके शिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तने उज्जयिनीमें श्रमण३४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ग्रहण कर दक्षिणकी ओर विहार किया। भद्रबाहुस्वामीने अपना अन्तिम समय जानकर श्रमणबेलगोलाके कटवन पर्वतपर समाधिमरण ग्रहण किया। चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुस्वामीके साथ रहकर उनकी अन्तिम अवस्था तक सेवा को और वर्षों तक मुनिसंघका संचालन किया। मौर्यवंशके अहिंसक होनेका एक कारण चन्द्रगुप्तका जैन दीक्षा ग्रहण करना भी है। अशोक अपने जीवनके पूर्वार्द्ध में जैन था और उत्तरार्द्ध में वह बौद्धधर्म में दीक्षित हुआ। सम्राट सम्पत्ति ने तो जैन शासनके अभ्युत्थानक हेतु अनेक समस एवं गदालोमा निर्माण कराया । चेदिवशके सम्राट एल खारवेलने जैन शासनकी उन्नतिके लिए अनेक कार्य किये। उसने मगधपर आक्रमण कर बहुमूल्य रत्नादिकके साथ कलिंग जिनकी वह प्रसिद्ध मूर्ति भी उपलब्ध की, जिसे नन्दराज कलिंगसे ले आये थे। खारवेलने कुमारीपर्वतपर जैन मुनि और पण्डितगणोंका सम्मेलन बुलाया तथा जेनागमको संशोधित कर नये रूपमें निबद्ध करनेका प्रयास किया । जैनसंघने उसे भिक्षुराज, धर्मराज और खेमराजको उपाधियोंसे विभूषित किया । उसने अपना अन्तिम जीवन कुमारीपर्वतपर स्थित्त अर्हत् मन्दिरमें भक्ति और धर्म ध्यानमें संलग्न किया 1 उसने जैन मुनियोंके लिए गुफाएँ एवं चत्य बनवाये। खारवेल द्वारा उत्कीणित एक अभिलेख उदयगिरि पर्वतकी गुफामें ई० पू० १७० का मिलता है ! खारवेलका स्वर्गवास ई० पू० १५२में हुआ है। ई० सन्की द्वितीय शतोसे पंचमी शती तक गंगवंशके राजाओंने जैन शासनकी उन्नतिमें योगदान दिया है। ई. सन्की दूसरी शताब्दीके लगभग इस वंशके दो राजकुमार दक्षिण आये। उनके नाम दडिग और माधव थे। पेरूर नामक स्थान में इनकी भेंट आचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उनदोनोंको शासन-कार्यकी शिक्षा दी । एक पाषाण-स्तम्भ साम्राज्यदेवीके प्रवेशको रोक रहा था । अतः सिंहनन्दिको आज्ञासे माधवने उसे काट डाला । आचार्य सिंहनन्दिने उन्हें राज्यका शासक बनाते हुए उपदेश दिया-"यदि तुम अपने बचनको पूरा न करोगे, या जिन शासनको साहाय्य दोगे, दूसरोंकी स्त्रियांका अपहरण करोगे, मद्य-मांसका सेवन करोगे, या नीचोंकी संगतिमें रहोगे, आवश्यक होनेपर भी दूसरोंको अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्धके मैदानमें पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा बंश नष्ट हो जायेगा"।' १. अन्तु ममस्त-राज्यमं..."किडुगु कुलक्रमम् ।-जैन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, ___ अभिलेखसं० २७७, कल्लूगुड्डका लेख, पृ० ४१३ । आचायतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३४१ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लुगुड्डके इस अभिलेखमें सिंहनन्दि द्वारा दिये गये राज्यका विस्तार भी अकित है। दलिगने राज्य प्राप्त कर जैनधर्म और जैनसंस्कृति के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। इसने मण्डलिनामक प्रमुख स्थानपर एक भव्य जिनालयका निर्माण कराया, जो काष्ठ द्वारा निर्मित था। दडिनका पुत्र लघुमाधव और लघुमाधवका पुत्र हरिवर्मा हुआ । हरिवर्माने जेनशासनकी उन्नसिके लिए अनेक कार्य किये । इसी वंशमें राजा सङ्गाल बायका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अविनीत हुआ। 'नोड़ मंगल-दानपत्र'से, जो उसने अपने राज्यके प्रथम वर्षमें अंकित कराया था, ज्ञात होता है कि उसने अपने परमगुरु अर्हत् विजयकीतिके उपदेशसे मूलसंघके चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उyर जिनालयको वेन्नेलकरणि गाँव और पेरूर एवानि अडिगल जिनालयको बाहरी चुगीका चौथाई कार्षापण दिया। श्री लुईस राइसने इस ताम्रपत्रका समय ४२५ ई० निश्चित किया है। ___ मर्कराके ताम्रपत्रसे अवगत होता है कि अविनीत जैनधर्मका अनुयायी था। अविनीतके पुत्र दुविनीतने भी जैन शासनके विकासमें सहयोग प्रदान किया । इसने कांगलि नामक स्थानपर चेन्नपार्श्वबस्ति नामक जिनालयका निर्माण कराया था। दुविनीतके पुत्र मुक्कर या मोक्करने मोक्करवसित्त नामक जिनालयका निर्माण कराया था । मोक्करके पश्चात् श्रीविक्रम राजा हुआ और उसके भूविक्रम और शिवमार ये दो पुत्र हुए। शिवमारने श्रीचन्द्रसेनाचार्यको जिनमन्दिरके लिये एक गाँव प्रदान किया था। श्रीपुरुषके पुत्र शिवमार द्वितीयने श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ीपर चन्द्रनाथवसतिका निर्माण कराया था। मैसूर जिलेके हेगड़े देवन ताल्लुकेके हेब्बल गुप्पेके आजनेय मन्दिरके निकटसे प्राप्त अभिलेखमें लिखा है कि श्री नरसिंगेरे अपर दुग्गमारने कोयलवसत्तिको भूमि प्रदान की । गंगवंशमें मरूलका सौतेला भाई मारसिंह भी शासनप्रभावनाकी दृष्टिसे उल्लेखनीय है। इसका राज्यकाल ई० सन् ९६१-९७४ है। श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ३८से विदित होता है कि मारसिंहने जैनधर्मका अनुपम उद्योत किया और भक्तिके अनेक कार्य करते हुए मृत्युसे एक वर्ष पूर्व उसने राज्यका परित्याग किया और उदासीन श्रावकके रूपमें जीवन व्यतीत किया । अन्तमें तीन दिनके संल्लेखनाव्रत द्वारा वंकापुरके अपने गुरु अजितसेन भट्टारकके चरणोंमें समाधिमरण ग्रहण किया । मारसिंहने अनेक जैन विद्वानोंका संरक्षण किया। १. संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग ३, स्वण्ट २, पृ. ४७ । ३४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगवंशके राजाओंके अतिरिक्त कदम्बवंशके राजाओंमें काकुस्थवर्मा के पौत्र मृगेश वर्माने ५वीं शताब्दीमें राज्य किया । राज्यके तीसरे वर्ष में अंकित किये गये ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इसने अभिषेक, उपलेपन, कूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत) और प्रभावनाके लिये भूमि दान दी । एक अन्य ताम्रपत्रसे विदित है कि मृगेशवर्माने अपने राज्यके वें वर्ष में अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृतिमें पलाशिका नगरमें एक जिनालय बनवाया था और उसकी व्यवस्थाके लिये भूमि दान में दी थी । यह दान उसने श्रापनियों तथा कूर्वक सम्प्रदायके नग्न साधुओंके निमित्त दिया था । इस दानके मुख्य ग्रहीता जैनगुरु दानकीति और सेनापति जयन्त' थे । मृगेशवर्मा के उत्तराधिकारी रविवर्मा और उसके भाई भानुवर्माने भी जैन शासनकी उन्नति की है । राजा रविवर्मा के पुत्र हरिवर्माने अपने राज्यकालके चतुर्थ वर्ष में एक दानपत्र प्रचलित किया था, जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे कूक सम्प्रदायके वारिषेणाचार्यको वसन्तबाटक ग्राम दानमें दिया था । इस दानका उद्देश्य पलाशिकामें भारद्वाजवंशी सेनापतिसिंहके पुत्र मृगेशवर्मा द्वारा निर्मित जिनालय में वार्षिक अष्टाहूनिक पूजाके अवसरपर कृताभिषेकके हेतु धन दिये जानेका उल्लेख है । इसी राजाने अपने राज्यके ५ वें वर्ष में सेन्द्रकवंशके राजा भानुशक्तिकी प्रार्थनासे धर्मात्मा पुरुषोंके उपयोग के लिए तथा मन्दिरकी पूजाके लिए 'मरदे' नामक गाँव दानमें दिया था। इस दानके संरक्षक धर्मनन्दि नामके आचार्य थे ! जैनाचार्योंने राष्ट्रकूट वंशको भी प्रभावित किया है । इस वंशका गोविन्द तृतीयका पुत्र अमोघवर्ष जैनधर्मका महान् उन्नायक, संरक्षक और आश्रयदाता था । इसका समय ई० सन् ८१४-८७८ है । अमोघवर्षने अपनी राजधानी मान्यखेटको सुन्दर प्रासाद, भवन और सरोवरोंसे अलंकृत किया । वीरसेनस्वामीके पट्टशिष्य आचार्य जिनसेनस्वामी इसके धर्मगुरु थे। महावीराचार्यने अपने गणितसारसंग्रहमें अमोघवर्षकी प्रशंसा की है । आर्यनन्दिने तमिल देशमें जैनधनंके प्रचारके लिये अनेक कार्य किये। मूर्तिनिर्माण, गुफा निर्माण, मन्दिरनिर्माणका कार्य ई० सन् की ८वीं, रवीं शती में जोर-शोर के साथ चलता रहा । चितराल नामक स्थानके निकट तिरुचानट्टु नामकी पहाड़ीपर उकेरी गयी मूर्तियाँ कलाकी दृष्टिसे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । होय्सल राजवंश के कई राजाओंने जैनकला और जैनधर्मकी उन्नति के लिए १. जैन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, अभि० सं० ९५, पृ०७३ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३४३ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक कार्य किये हैं । अंगडीसे प्राप्त अभिलेखमें बिनयादित्य होयसलके कार्योंका ज्ञान प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोलाके गंधवारण वसतिके अभिलेखसे अवगत होता है कि विनयादित्यने सरोवरों और मन्दिरोंका निर्माण कराया था। यह विनयादित्य चालुक्यवंशके विक्रमादित्य षष्ठका सामन्त था। इसकी उपाधि 'सम्यक्त्वचूड़ामणि' थी। इसने जीर्णोद्धारके साथ अनेक मन्दिरोंका निर्माण कराया था। होयसल नरेशोंमें विष्णुवर्धन भी जैन शासनका प्रभावक हुआ है । शासनकी उन्नति करनेवाले सामन्तोंमें राष्ट्रकूट सामन्त लोकादित्यका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसका सासर राम संवत्की सी शतान्या है। यह दीया पुत्र था और राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण द्वितीय अकालवर्षके शासनके अन्तर्गत बनवास देशके बंकापुरका शासक था। दक्षिण भारतमें जैनधर्मको सुदृढ़ बनाने में जिनदत्तरायका भी हाथ है। इसने जिनदेवके अभिषेकके लिए कुम्भसिकेपुर गाँव प्रदान किया था। तोलापुरुष विक्रम शान्तरने सन् ८५७ ई में कुन्दकुन्दान्वयके मौनीसिद्धान्त भट्टारकके लिए वसतिका निर्माण कराया था। यह वही विक्रम शान्तर है, जिसने हम्मचमें गुड्डद वसतिका निर्माण कराया था और उसे बाहुबलिको भेंट कर दिया था । भुजबल शान्तरने अपनो राजधानी पोम्बुच्चमें भुजबल शान्तर जिनालयका निर्माण कराया था और अपने गुरु कनकनन्दिदेवको हरबरि ग्राम प्रदान किया था। उसका भाई नन्नि शान्तर भी जिनचरणोंका पूजक था । वीर शान्तरके मन्त्री नगुलरसने भी अजितसेन पण्डितदेवके नामपर एक वसतिका शिलान्यास कराया था। यह नयी वसति राजधानी पोम्बुच्चमें पंचवसत्तिके सामने बनवायी गयी थी । भुजबल गंग पेरम्माडि बर्मदेव ( सन् १११५ ई०) मुभिचन्द्रका शिष्य था और उसका पुत्र नन्नियगंग ( सन् ११२२ ई०) प्रभाचन्द्र सिद्धान्तका शिष्य था। ११वीं शती में कोंगालवोंने जैनधर्मकी सुरक्षा और अभिवृद्धिके लिए अनेक कार्य किये हैं। सन् १०५८ ई में राजेन्द्र कोंगालवने अपने पिताके द्वारा निर्मापित वसत्तिको भमि प्रदान की थी। राजेन्द्र कोंगालवका गुरु मलसंघ काणरगण और तरिगणगच्छका गण्डविमुक्त सिद्धान्तदेव था। राजेन्द्र ने अपने गुरुको भूमि प्रदान की थी। इस वंशके राजाओंने सत्यवाक्य जिनालयका निर्माण कराया था और उसके लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तको गाँव प्रदान किया था। कालनने नेमिस्वर वसतिका निर्माण कराकर उसके निमित्त अपने गुरु कुमारकीति विद्यके शिष्य पुन्नागवृक्ष मूलगणके महामण्डलाचार्य विजयकोतिको ३४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि प्रदान की थी। इस भूमिको आयसे साधुओं तथा धार्मिकोंको भोजन एवं आवास दिया जाता था। ___ नगरखण्डके सामन्त लोकगाबुण्डने सन् १९७१ ई०में एक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था और उसकी अष्टप्रकारी पूजाके लिए मूलसंघ काणू रमण, तिन्तिणीगच्छके मुनिचन्द्रदेवके शिष्य भानुकोति सिद्धान्तदेवको भूमि प्रदान की थी। १३वीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें होनेवाला कुचीराजाका नाम भी उल्लेखनीय है । यह पानसेन भट्टारकका शिष्य था। जैनधर्मके संरक्षक और उन्नतिकारकोंमें वीरमार्तण्ड चामुण्डरायका नाम भी उल्लेखनीय है। विष्णुवर्धनके सेनापति बोप्पने भी जैन शासनके उत्थानमें योगदान दिया है। ई० सन् की १२वीं शताब्दीमें सेनापति हल्लने भी मन्दिर और मूर्तियोंका निर्माण कराया है। राजा नरसिंहके सेनापति शान्तियण और इनके पुत्र वल्लाल द्वितीयके सेनापति रेचमय्यकी गणना भी जैनसंस्कृतिके आश्रयदाताओंमें की जाती है । रेचमय्यने आरसीयकेरेमें सहस्रकूट चैत्यालयका निर्माण कराया था। बल्लाल द्वित्तीयके मन्त्री नागदेवने श्रवणबेलगोलाके पार्श्वदेवके सामने एक रंगशाला तथा पाषाणका चबूतरा बनवाया था। ___इस प्रकार दिगम्बराचार्योंने दक्षिण भारतमें सभी राजवंशोंको प्रभावित किया और अनेक राजवंशोंको जैनधर्मका अनुयायी बनाया। उत्तरमें मौर्य, लिच्छवि, ज्ञातृवंश, चेदिवंश आदिके साथ गुर्जरेश्वर कुमारपाल आदि भी उल्लेख्य हैं। आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३४५ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद पट्टावलियाँ नन्दीस - बलात्कारगण - सरस्वतीगच्छकी प्राकृत-पट्टाचली श्रीत्रैलोक्याधिपं नत्वा स्मृत्वा सद्गुरु-भारतीम् । वक्ष्ये पट्टावली रम्यां मूलसंघगणाधिपाम् ॥ १॥ श्रीमूलसंघप्रवरे नन्द्याम्नाये मनोहरे । बलात्कारगणोत्तंसे गच्छे सारस्वतीयके ||२|| कुन्दकुन्दान्वये श्रेष्ठं उत्पन्नं श्रीगणाधिपम् । तमेवात्र प्रवक्ष्यामि श्रूयतां सज्जना जनाः ||३|| मैं तीनों लोकके स्वामी श्रीजिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर तथा सद्गुरुकी वाणीका स्मरण कर मूलसंघगणकी पट्टावलीको कहता हूँ। श्रीमूलसके नन्दीनामक सुन्दर आम्नायमें बलात्कारगणके सरस्वतीगच्छके कुन्दकुन्दनामक वंश में जो गणोंके अधिपत्ति उत्पन्न हुए, उनका वर्णन करता हूँ, सज्जन लोग सुनें । - ३४६ - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम-जिण-णिव्वाणे केवलणाणी य गोयम-मुणिदो बारह-वासे य गये सुधम्मसामी य संजादो ॥१॥ तह बारह-वासे पुण संजादो जम्बुसामि मुणिणाहो । ठीस नाम हिगो केवलानी न उक्किट्ठी ।।२।। बासाठि केवल-बासे तिम्हि मुणी गोयम-सुधम्म-जम्बू य । बारह बारह दो जण तिय दुगहीणं च चालीसं ॥३॥ अन्तिम श्रीमहावीरस्वामीके निर्वाणके बाद गौतमस्वामी केवलज्ञानी हुए, जो बारह वर्ष तक रहे। इसके बाद बारह वर्ष तक सुधर्माचार्य केवलज्ञानी हुए। इसके बाद जम्बूस्वामी ३८ वर्षों तक केवली रहे। इस प्रकार ६२ वर्षों तक तीन केवली गौतम, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी हुए। सुयकेलि पंच जणा बासठि-वासे गये सुसंजादा । पढम चउदह वासं विष्णुकुमार मुणयन्वं ॥४॥ नन्दिमित्त वास सोलह तिय अपराजिय वास वावीसं । इग-हीण-चीस वासं.गोवद्धन भद्दबाह गुणतीसं ||५|| सद सुयकेवलणाणी पंच जणा विण्ह नन्दिमित्तो य । अपराजिय गोवक्षण तह भद्दबाहु य संजादा ॥६॥ श्रीमहावीर स्वामीके ६२ वर्ष बाद पाँच श्रुत्तकेवली हुए | प्रथम विष्णुकुमार चौदह वर्ष तक श्रुतकेवली रहे, इसके बाद सोलह वर्ष नन्दिमित्र, बाईस वर्ष अपराजित, उन्नीस वर्ष गोवर्द्धन और उनतीस वर्ष तक महात्मा भद्रबाहु श्रुतकेवली हुए। इस प्रकार सौ वर्षों में पांच श्रुतकेवली हुए-विष्णुकुमार, नन्दिमित्र, अपराजित, गोबर्द्धन और भद्रबाहु । । सद-बासछि सुवासे गएसु उप्पण दह सुपुव्वधरा । सद-तिरासि वासाणि य एगादह मुणिवरा जादा ||७|| आयरिय विशाख पोठ्ठल खत्तिय जयसेण नागसेण मुणी। सिद्धत्य वित्ति विजयं बुहिलिङ्ग देव धमसेणं ।।८।। दह उगणीस य सत्तर इकवीस अट्ठारह सत्तर । अट्ठारह तेरह बीस चउदह चोदय कमेणेयं ।।९।। श्रीमहावीर स्वामीके १६२ वर्ष बाद १८३ वर्ष तक दस पूर्वके धारी ग्यारह मुनिवर हुए-१० वर्षों तक बिगाखाचार्य, १९ वर्षों तक प्रोष्ठिलाचार्य, १७ वर्षों तक क्षत्रियाचार्य, २१ वर्षों तक जयसेनाचार्य, १८ वर्षों तक नागसेनाचार्य, १७ वर्षों तक सिद्धार्थाचार्य, १८ वर्षों तक धृतसेनाचार्य, १३ वर्षों तक विजया पावली; ३४७ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य, २० वर्षों तक बुद्धिलिंगाचार्य, १४ वर्षों तक देवाचार्य और चौदह वर्षों तक धर्मसेनाचार्य हुए। अन्तिम-जिण-णिब्वाणं तिय-सय-पण चाल-बास जादेसु । एगादहंगधारिय पंच जणा मुणिवरा जादा ॥१०॥ नक्खत्तो जयपालग पंसार मा कस परिया। अठारह वीस-वासं गुणचाल चोद बत्तीसं ॥११॥ सद तेवीस वासे एगादह अङ्गधरा जादा ॥ श्रीवीरस्वामीके निर्वाणके ३४५ वर्ष बाद १२३ वर्षों तक ग्यारह अंगके धारी पाँच मुनिवर हुए-१८ वर्षों तक नक्षत्राचार्य, बीस वर्षों तक जयपालचार्य, ३९ वर्षों तक पाण्डवाचायं, १४ वर्षों तक ध्र बसेनाचार्य और ३२ वर्षों तक कंसाचार्य । इस प्रकार १२३ वर्षों में पाँच ग्यारह अंगके धारी हुए । वासं सत्तावण दिय दसंग नव-अंग अठ्ठ-धरा ॥१२॥ सुभद्धं च जसोभई भद्दबाहु कमेण च । लोहाचय्य मुणीसं च कहियं च जिणागमे ॥१३॥ छह अट्ठारहवासे तेवीस वावण (पणास) वास मुणिणाहं । दस-नव-अलैंग-धरा वास दुसदवीस सधेसु ॥१४॥ इसके बाद ९७ वर्षों तक दस अंग, नव अंग तथा आठ अंगोंके धारी क्रमशः ६ वर्षों तक सुभद्राचार्य, १८ वर्षों तक यशोभद्राचार्य, २३ वर्षों तक भद्रबाहु और ५० वर्षों तक लोहाचार्य मुनि हुए। इसके बाद ११८ वर्षों तक एकानधारी रहे। पंचसये पणसठे अन्तिम-जिण-समय-जादेसु । उप्पण्णा पंच जणा इयंगधारी मुणयन्वा ।।१५।। अहिबल्लि माघनन्दि य धरसेणं पुप्फयंत भूदबली । अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥१६॥ श्रीवीरनिर्वाणसे ५६५ वर्ष बाद एक अंगके धारी पाँच मुनि हुए। २८ वर्षों तक अहिबल्याचार्य, २१ वर्षों तक माधनन्द्याचार्य, उन्नोस वर्ष तक घरसेनाचार्य तीस वर्ष तक पुष्पदन्ताचार्य और २० वर्षों तक भूतबली आचार्य हुए। इग-सय-अठारवासे इयंग-धारी य मुणिवरा जादा । छ सय-तिरासिय वासे णिव्वणा अंगद्दित्ति कहिय जिणे ॥१७॥ एक सौ अठारह वर्षों तक एक अंगके धारी मुनि हुए । इस प्रकार ६८३ वर्षों तक अंगके धारी मुनि हुए। ३४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब मूलसंघका पाठ वर्णित होता है। श्रीमहावीरके निर्वाणके ४७० वर्ष बाद विक्रमादित्यका जन्म हुआ । विक्रमजन्मके दो वर्ष पूर्व सुभद्राचार्य और विक्रम राज्यके ४ वर्ष बाद भद्रबाहुस्वामी पट्टपर बैठे | भद्रबाहु स्वामीके शिष्य गुप्तिगुप्त हुए। इनके तीन नाम हैंगुप्तिगुप्त, अहंबली और विशाखाचार्य। इनके द्वारा निम्नलिखित चार संघ स्थापित हुए। ___नन्दीवृक्षके मूलसे वर्षायोग धारण करनेसे नन्दिसच हुए। इनके नेता माघनन्दी हुए अर्थात् इन्होंने ही नन्दीसंघ स्थापित किया । जिनसेननामक तृणतलमें वर्षायोग करनेसे एक ऋषिका नाम वृषभ पड़ा । इन्होंने ही वृषभसंघ स्थापित किया । जिन्होंने सिंहको गुफामें वर्षायोगको धारण किया, उनने सिंहसंघ स्थापित किया और जिसने देवदत्तानामको वेश्याके नगरमें वर्षायोग धारण किया, उसने देवसंघ स्थापित किया। इसी प्रकार नन्दीसंघ पारिजातगच्छ बलात्कारगणमें नन्दी, चन्द्रकीति और भूषण नामके मुनि हुए। उनमें श्रीवीरसे ४९२ वर्ष बाद, सुभद्राचार्यसे २४ वर्ष बाद, विक्रम-जन्मसे बाईस वर्ष बाद और विक्रम-राज्यसे ४ वर्ष बाद द्वितीय भद्रबाहु हुए। सत्तरि-चउ-सद-युतो तिणकाला विक्कमो हबई जम्मो । अठ-वरस बाललीला मोडस-चासेहि भम्मिए देसे ॥१८॥ गणरस-वासे रज्जे कुणन्ति मिच्छोबदेससंयुत्तो। चालीस-वरस जिणवर-धम्म पालीय सुरपयं लहियं ॥१९|| अर्थात् श्री वीरनिर्वाणके ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म हुआ। आठ वर्षों तक इन्होंने बाललीला की, सोलह वर्षों तक देश भ्रमण किया और ५६ वर्षों तक अन्यान्य धर्मों से निवृत्त होकर जिनधर्मका पालन किया । श्रुतघर-पट्टावली शक सं० ५२२ __ अथ खलु सकलजगदुदय-करणोदित-निरतिशय-गुणास्पदीभूत-परमजिनशासन-सरस्समभिद्धित-भव्यजन-कमलविकसन-वितिमिर-गुण-किरण सहस्रमहोति महावीर-सवितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि-गौतम-गणधर साक्षाच्छिष्य लोहार्य-जम्बु- विष्णुदेवापराजित- गोवर्द्धन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल-कृत्तिकार्य जयनागसिद्धार्थतिषेणबुद्धिलादि - गुरुपरम्परीणक्कमाभ्यागत- महापुरुषसन्ततिसमवद्योतितान्वय-भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्यामष्टाङ्गमहानिमित्त-तत्त्वज्ञेन पट्टाबली : ३४९ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाल्य-दशिना निमित्तेन द्वादश-संवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते मर्चस्सङ्घ उत्तरापथाद्दक्षिणापथम्प्रस्थित: क्रमेणैव जनपदमनेक-ग्राम-शत-सङ्ख्यं मुदितजनधन-कनक-सस्य-गो-महिषा-जावि कुल-समाकोणम्प्राप्तवान्'[३] अत: आचार्यः प्रभाचन्द्रो नामानितल-ललामभूतेऽथास्मिन्कटवप्र - नामकोपलक्षिते विविधतरुवर-कुसुः... बलि- विरका अपललिपुल- गल. जलद निवह-नीलोपलतलेबराह द्वीपि-व्याघ्रान्तरक्षु-व्याल- मृगकुलोपचितोपत्यक- कन्दरदरी-महागुहागहनाभोगवत्ति समुत्तुङ्ग-शृङ्गे सिखरिणि जीवितशेषमल्पतर-कालमत्रबुध्यात्मनः सुचरित-तपस्समाधिमारापयितुमापृच्छय निरवसेषेण सधं विसृज्य शिष्येणेकेन पृथुलतरास्तीण-तलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं संन्यस्याराधितवान् क्रमेण सप्त-शतमृषीणामाराधितमिति जयतु जिन-शासनमिति । ___इस अभिलेखमें तीर्थङ्कर महावीरके निर्वाणके बाद गौतम गणधर, लोहाचार्य, जम्बुस्वामि ये तीन केवली और विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु ये श्रुतकेवली तथा विशाख, प्रोष्ठिल, कृत्तिकार्य, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिपेण, बुद्धिल ये आठ आचार्य दश पूर्वके धारी हुए हैं। ध्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामिने अपने अष्टाङ्गनिमित्तज्ञानसे उज्जयिनीमें यह अवगत कर लिया कि बारह वर्षका उत्तरापथमें दुष्काल होने वाला है । अतएव वे धन-धान्यसे सम्पन्न अपने संघके साथ दक्षिणापथको चले गये । इस परम्परामें प्रभाचन्द्र नामक एक बहुज्ञ आचार्य हुए। __ इस अभिलेखमें इन्द्रभूति, गौतम गणधर, सुधर्म या लोहाचार्य और जम्बुस्वामि इन तीन केलियोंका उल्लेख है। इन केवलियोंके पश्चात् विष्णु, अपराजित, नन्दिमित्र, गोवर्द्धन और भद्रबाहु धुत केवली हुए हैं। पर प्रस्तुत अभिलेखमें विष्णुदेव, अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाहु इन चार ही श्रुतकेवलियोंके नाम आए हैं। अन्य अभिलेखों तथा हरिवंशपुराणादि ग्रन्थोंमें दशपूर्वी ग्यारह बतलाए हैं । पर इस अभिलेखमें आठ ही दशपुर्वियोंका उल्लेख आया है। हरिवंशपुराण में तृतीय दशपूर्वी का नाम क्षत्रिय लिखा हुआ है जबकि इस अभिलेखमें कृत्तिकार्य बताया है। विजय, गंगदेव और धर्मसेन इन तीन दशपूर्तियों के नाम छुटे हुए हैं। अतः स्पष्ट है कि इस अभिलेखको आचार्यपरम्परा अपूर्ण है । इसमें ख्यातिप्राप्त आचार्योंका ही उल्लेख किया गया है । गणधरादिपट्टावली इन्द्र भूतिरग्निभूतिर्वायुभूतिः सुधर्मक: मौर्यमोड्यौ पुत्रमित्रावकम्पनसुनामधृक् ।।१।। १, जनशिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेखसंख्या १ । ३५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धवेल: प्रभासश्च रुद्रसंख्यान मुनीन यजे । गौत्तमं च सुधर्मञ्च जम्बूस्वामिनमूर्ध्वगम् ॥२॥ श्रुगनिदान निमन्परविक्षा। गोवर्धन भद्रबाहुं दशपूर्णवरं यजे ॥शा विशाखप्रौष्ठिलनक्षत्रजयनरगपुरस्सरान् । सिद्धार्थतिषणाही विजयं बुद्धिबलं तथा गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु सुश्रुतान् । नक्षत्र जयपालाय पाण्डुच ध्रुवसेनकम् ।।५।। कंसाचार्यपुरोऽगीयज्ञातार प्रयजेऽन्वहम् । सुभद्रं च यशोभद्रं भद्रबाहु मुनीश्वरम् ।।६।। लोहाचार्य पुरापूर्वज्ञान चक्रधरं नमः । आईबलि भूतबलिं माघनन्दिनमुत्तमम् ।।७।। धरसेनं मुनीन्द्रञ्च पुष्पदन्त-समाह्वयम् । जिनचन्द्र कुन्दकुन्दमुमास्वामिनमर्चये टा समन्तभद्रस्वाम्यायं शिवकोर्टि शिवायनम् । पूज्यपादं चेलाचार्य वीरसेनं श्रुतेक्षणम् ।।९।। जिनसेनं नेमिचन्द्रं रामसेनं सुतार्किकान् । अकलंकानन्त-विद्यानन्द-मणिक्यनन्दिनः ।। प्रभाचन्द्रं रामचन्द्रं वासुवेन्दुमवासिनम् । गणभद्रादिकानन्यानपि श्रुततपःपारगान् ।। वीरांगदां तानर्येण सर्वान् सम्भावयाम्यहम् ॥ इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, सुधर्मक, मौर्य, मोडय, पुत्र, मित्र, अकंपन नामवाले तथा अन्धबेल, प्रभास इन ग्यारह गणधरोंकी में पूजा करता हूँ। मोक्षमार्गी गौतम, सुधर्म, जम्बूस्वामीकी पूजा करता हूं । विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु श्रुतकेवलियोंकी पूजा करता हूँ । दशपूर्वधर श्रीविशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धूतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव, धर्मसेनाचार्यको मैं पूजा करता हैं । नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य, सुभद्र, पशोभद्र, भद्रबाहु, लोहाचार्यमें ये पूर्वधर आचार्य हुए हैं । अर्हबलि, भूतबलि, माघनन्दि, घरसेन, पुष्पदन्त, जिनचन्द्र- कुन्दकुन्द, उमास्वामी इन आचार्योंकी पूजा करता हूँ। समन्तभद्, शिवकोट्याचार्य, शिवायन, पूज्यपाद,ऐलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचंद्र, १. जयसेन-प्रतिष्ठापाठ । पट्टावली : ३५१ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेन, अकलंक, अनन्त, विद्यानन्द, मणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, वासबेन्दु, गुणभद्र', वीरांगद आदि आचार्योंकी पूजा करता हूँ। तिलोयपण्णत्तीके आधारपर आचार्य-परम्परा जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तस्सिं सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६|| तम्मि कद-कम्म-णासे जंबूसामि त्ति केवली जादो। तत्थ वि सिद्धि-पवणे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा 1॥१४७७।। बासदी बासाणि गोदमपहदीण गाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाण पिंडरूवेणं ।।१४७८।। हुगनिरिम परिम: केस का सिरिधर सिंह। चारणरिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणा य ॥१४७९।। पपणसमणेसु चरिमो बइरजसो णाम ओहिणाणीसु। चरिमो सिरिणामो सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो ।।१४८०|| भउघरेसु चरिमो जिणदिक्क धरदि चंदगुत्तो ब ||१४८१॥ तत्तो मउडघरा दु पन्वज्ज व गेहंति ॥१४८१।। गंदी य मंदिमित्तो विदियो अवराजिदो तइज्जो य । गोबद्धणो चउत्यो पंचमओ भद्दबाहु त्ति ।।१४८२।। पंच इमे पुरिसवर चउदसपुत्वी जगम्मि विक्खादा । ते बारसअंगधरा तित्थे सिरिवड्माणस्स ||१४८३|| पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससद । वीदम्मि य पंचमए भरहे सुदकेवली णस्थि ॥१४८४।। पढमो विसाहणामो पुटिल्लो खत्तिओ जओ पणागो। सिद्धत्थो विदिसेणो विजओ बुद्धिल्लगंगदेवा य ॥१४८५।। एक्करसो य सुधम्मो दस पुचधरा इमें सूविक्खदा । पारंपरिओवगदा तेसीदि सदं च ताण वासाणि ||१४८६।। सव्वेसु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरह-खेत्तम्मि । वियसंतभव्यकमला ण संति दसपुििदवसयरा ॥१४८७|| णक्वत्तो जयपालो पंडुय-धुवसेण-कसआइरिया । एक्कारसंगधारी पंच इमे वीरतिम्मि ॥१४८८|| दोण्णि सया बीसजुदा वासाणं ताण पिंडपरिमाणं । तेसु अतीदे णत्थि हु भरहे एक्कारसङ्गधरा ॥१४८९२।। पढमो सुभद्दणामो जसभद्दो तह य होदि जसबाहू । तुरिमो य लोहणामो एदे आयार-अंगधरा ।।१४९०॥ ३५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेसेक्करसंगाणं चोद्दसपुव्वाण मेक्कदेसवरा । एक्कसर्व अट्ठारसवासजुद ताण परिमाणं ||१४९१ ॥ तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होंति भरहम्मि । गोदमणि पहुदीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी' ॥१४९२॥ जिस दिन भगवान् महावीर सिद्ध हुए, उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञानको प्राप्त हुए । पुनः गौतमके सिद्ध होनेपर उनके पश्चात् सुधर्मस्वामी केवली हुए ।।१४७६ ॥ सुधर्मस्वामी के कर्म नाश करके अर्थात् मुक्त होनेपरं जम्बूस्वामी केवली हुए । पश्चात् जम्बूस्वामीके भी सिद्धिको प्राप्त होनेपर फिर कोई अनुबद्धकेवली नहीं रहे || १४७७ ॥ गौतमादिक केवलियोंके कालका प्राण पिण्डरूपसे बासठ वर्ष है || १४७८ ।। केवलज्ञानियों में अन्तिम श्रीवर कुण्डलगिरिसे सिद्ध हुए और चारणऋषियोंमें अन्तिम सुपार्श्वचन्द्र नामक ऋषि हुए || १४७९ । प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम चायश और अवधिज्ञानियोंमें अन्तिम श्रुत, विनय एवं सुशीलादिसे सम्पन्न श्रीनामक ऋषि हुए || १४८०॥ मुकुटधरोंमें अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा धारण की। इसके पश्चात् मुकुटधारी प्रव्रज्याको ग्रहण नहीं करते || १४८१ ॥ प्रथम नन्दी, द्वितीय नन्दिमित्र, तृतीय अपराजित, चतुर्थं गोवर्द्धन और पंचम भद्रबाहु इस प्रकार ये पाँच पुरुषोत्तम जगमें 'चौदहपूर्वी' इस नामसे वीस्यात हुए | थे बारह अंगोंके धारक पाँचों श्रुतकेवली श्रीवर्धमान स्वामीके तीर्थ में हुए ॥१४८२, १४८३|| इन पाँचों श्रुतकेवलियोंका काल मिलाकर सौ वर्ष होता है। पांचवें श्रुतकेवलोके पश्चात् फिर भरतक्षेत्र में कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ || १४८४ ॥ विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य दश पूर्वके धारी विख्यात हुए हैं। परम्परासे प्राप्त इन सबका काल एकसौ तेरासी १८३ वर्ष है ॥ १४८५, १४८६ कालके वश इन सब श्रुतकेयलयोकि अतीत होनेपर भरतक्षेत्रमें भव्यरूपी कमलोको विकसित करनेवाले दशपूर्वधररूप सूर्य फिर नहीं हुए ।। १४८७ ॥ नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य वीर भगवान् के तीर्थ में ग्यारह अंगके धारी हुए ॥१४८८।। १. तिलो पण्णत्ती - शोलापर - संस्करण, गाथा ४-१४७६ - १४९२ । २३ पट्टावली : ३५३ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके कालका प्रमाण पिण्डरूपसे दोसौ बीस वर्ष है। इनके स्वर्गस्थ होनेपर फिर भरतक्षेत्रमें कोई ग्यारह अंगोंके घारक नहीं रहे ॥१४८९॥ सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचारांगके धारक हुए ॥१४९०॥ उक्त चारों भाचार्य आचारांगके सिवाय शेष ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोक एकदेशके धारक थे। इनके कालका प्रमाण एकसो अठारह ११८ वर्ष है ।।१४९११॥ ___इनके स्वर्गस्थ होनेपर भरतक्षेत्रमें फिर कोई आचारांगके धारक नहीं हुए । गौतममुनि प्रभृतिके कालका प्रमाण छड्सो तेरासी वर्ष होता है ॥१४९२॥ धवलामें निषा श्रुपिहास __ को होदि ति सोहम्मिदचालणादो जादसदेहेण पंच-पंचसयंतेवासि-सहियभादुत्तिदयपरिवुदेण माणत्यंभदसणेणेव पणट्ठमाणेण वड्ढमाणविसोहिणा बढ़माणजिणिददसणे पणट्ठासंखेज्जभवन्जियगरुवकम्मेण जिणिदस्स तिपदाहिणं करिय पंचमुट्ठीय वैदिय हियएन जिणं झाइय पडिवण्णसंन्त्रमेण विसोहिबलेण अंतोमुहत्तस्स उप्पण्णासेसणिदलक्खणेण उचलद्धजिणवयणविणिग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तेण बह्मणेण इंदभूदिणा आयार-सूदयदट्ठाण-समवाय-वियाहपपणत्तिणाहधम्म कहोवासयज्झयणतयहदस-अणुत्तरोक्वादियदस - मण्णवायरण-विवायसुत्त-दिद्विवादाणं सामाइय-चवीसत्यय-वंदणा-पडिक्कमण-वइणइय-किदियम्मदसवेयालि-उत्तरज्झयण कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प- पुंडरीय- महापुंडरीयणिसिहियाणं चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमास-बहुल-पक्स-जुगादिपडिचयपुवदिवसे जेण रयणा कदा तेणिदभूदिभडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उत्तं च वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पाडिवदपुवदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि ॥४०।। एवं उत्तरतंतकत्तारपरूवणा कदा। संपहि उत्तरोत्तरतंतकत्तारपरूवर्ण कस्सामो। तं जहा—कत्तियमासकिण्णपक्खचोदस-रत्तीए पच्छिमभाए महदि महावीरे णिब्बुदे संते केवलणाणसंताण हरो गोदमसामी जादो। बारहवरसाणि केवलविहारेण विरिय मोदमसामिम्हि णिब्बुदे संते लोहज्जाइरिओ केवलमाणसंताणहरो जादो । बारहवासाणि केवलविहारेण विरिय लोहज्जभडारए णिन्दुदे संते जंबूभडारओ केवलणाणसंताणहो जादो। अट्टत्तीसवस्साणि केवलविहारेण विहरिय जंबूभडारए परिणिब्बुदे संते केवलणाणसंताणस्स वोच्छेदो जादो भरहस्खेतम्मि अत्यमिदि । एवं महावीरे ३५४ : तीर्थकर महावीर बोर सनकी प्राचार्यपरम्परा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिब्वाणं गदे बासद्विवरसेहि केवलणाणदिवायरो भरहम्मि।६२२३३णवरि तक्कालेसयलसुदणाणसंताणहरो विष्णुभाइरियो जादो। अतुट्टसंताणस्वेण दियाइरियो अवराइदो गोवद्धषो मद्दबाहु त्ति एदे सकलसुदधारया जादा। एदेखि पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालसमासो वस्ससदं ११००५ । तदो भद्दबाहुमहारए सग्गं गदे संते भरखत्तैम्मि अत्यमिओ सुदणाणसंपुण्णमियंको, भरहखेत्तमारियमण्णाणंघयारेण | णवरि एक्कारसण्णमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिढ़िवादस्स य धारओ विसाहाइरिओ जादो। गरि उवरिमचत्तारि वि पुवाणि वोच्छिणाणि तदेगदेसधारणादो। पुणो तं विगलसुदणाणं पोढिल्ल-सत्तिय-जय-णाग-सिद्धत्य-चिदिसेण-विजय बुद्धिल्ल-गंगदेव-धम्मसेणाइरियपरंपराए तेयासीदिवरिससयाइमार्गतूण वोच्छिण्णं ।१८३।११। तदो धम्मसेणभडारए सम्गं गदे गठे दिट्टिवादुज्जोए एक्कारसण्णमंगाणं दिद्विवादेगदेसस्स य धारयो जक्सत्ताइरियो जादो। तदो तमेक्कारसंग सुदणाणं जयपाल-पांडु-ध्रुवसेण कसो ति आइरियपरंपराए वीसुतरवेसदवासाइमागंतूण वोच्छिण्णे । २२०१५ । तदो कंसारिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोए सुभद्दाईरियो आयारंगस्स सेसंग-पुब्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो । तदो तमायारंग पि जसमद्द-जसबाहु-लोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तरवरिससयमागंतूण वोच्छिण्णं ।११८-४।। सव्वकालसमासो तेयासीदीए अहिह्य छस्सदमेतो १६८३।। पुणो एत्य सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु । । अवणिदेसु पंचमासायिपंचुत्तरछस्सदवासाणि वति । एसो वीरजिणिदणिव्वाणगदिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो । धव० ४. १. ४४, पृ० १२९-१३२ 'उक्त पांच अस्तिकायादिक क्या है ?' ऐसे सौधर्मेन्द्रकै प्रश्नसे संदेहको प्राप्त हुए, पाँचसो, पांच सौ शिष्योंसे सहित तीन भ्राताबोंसे वेष्टित, मानस्तम्भके देखनेसे ही मानसे रहित हुए, वृद्धिको प्राप्त होनेवाली विशुद्धिसे संयुक्त, वर्धमान भगवान्के दर्शन करनेपर असंख्यात भवोंमें अजिंत महान् कर्मोको नष्ट करने वाले, जिनेन्द्रदेवकी तीन प्रदक्षिणा करके, पंचमृष्टियोंसे अर्थात् पांच अंगोंद्वास भृमिस्पर्शपूर्वक चंदना करके एवं हृदयसे जिनभगवानका घ्यानकर संयमको प्राप्त हुए, विशुद्धिके बलसे अन्तर्मुहुर्तके भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधरके लक्षणोसे संयुक्त तथा जिनमुखसे निकले हुए बीजपदोंके ज्ञानसे सहित ऐसे गौतमगोत्रवाले इन्द्रभूति ब्राह्मणद्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिक दशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, बैनयिक, कृतिकर्म, दशकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, पट्टावली : ३५५ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धका इन चौदह अंगबाह्य प्रकीर्ण कोंकी श्रावण मासके कृष्णपक्षमें युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमें रचना की गयी थी, अत्तएव इन्द्रभूति भट्टारकवर्धमानजिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है वर्षके प्रथम मास व प्रथम पक्ष श्रावणकृष्णको प्रतिपदाके पूर्व दिनमें अभिजित् नक्षत्रमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥ ४० ॥ इस प्रकार उत्तरतंत्रकर्त्ताकी प्ररूपणा की 1 अब उत्तरोत्तर तंत्रकर्त्ताओंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-कार्तिक मास के कृष्णपक्षको चतुर्दशीकी रात्रिके पिछले भाग में अतिशय महान् महावीर भगवान् मुक्त होनेपर केवलज्ञानकी सन्तानको वारण करने वाले गौतम स्वामी हुए । बारह वर्ष तक केवलविहारसे विहार करके गौतमस्वामीके मुक्त हो जानेपर लोहार्य आचार्य केवलज्ञानपरम्पराके धारक हुए। बारह वर्ष केवलविहारसे बिहार करके लोहार्यं भट्टारकके मुक्त हो जानेपर जम्बूभट्टारक केवलज्ञानकी परम्पराके धारक हुए । अड़तीस वर्ष केवलविहारसे विहार करके जम्बूभट्टारकके मुक्त हो जानेपर भरतक्षेत्रमें केवलज्ञानपरम्पराका विच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान् महावीरके निर्वाणको प्राप्त होने पर बासठ वर्षो से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरतर्क्षेत्र में अस्त हुआ [ ६२ वर्षमें ३ के० ] । विशेष यह है कि उस कालमें संकलश्रुतज्ञानकी परम्पराको धारण करने वाले विष्णु आचार्य हुए | पश्चात् अविछिन्न सन्तानस्वरूपसे नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये सकलश्रुतज्ञानके धारक हुए। इन पाँच श्रुतकेवलियों के कालका योग सौ वर्ष है [ १०० वर्ष में ५ श्रु० के० ] पश्चात् भद्रबाहु भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर भरतक्ष में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया । अब भरतक्षत्र अज्ञान अन्धकारसे परिपूर्ण हुआ । विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवादपर्यन्त दृष्टिवाद अंगके भी धारक विशाखाचार्य हुए। विशेषता यह है कि इसके आगेके चार पूर्व उनका एक देश धारण करनेसे व्युच्छिन्न हो गये । पुनः वह विकल श्रुतज्ञान प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, घृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन इन आचार्योंकी परम्परासे एकसो तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ १८३ वर्षमें ११ एकादशांग -दशपूर्वघर ] | पश्चात् धर्मसेन भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर दृष्टिवाद - प्रकाशके नष्ट हो जानेसे ग्यारह अंगों और दृष्टिवादके एकदेश धारक नक्षत्राचार्य हुए । तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन ओर कंस इन आचार्योंकी परम्परासे दोसौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ २२० वर्षमें ५ एकादशांगघर ] | तत्पश्चात् कंसाचार्य के स्वर्गको प्राप्त होने ३५६ : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर ग्यारह अंगरूप प्रकाशके व्युच्छिन्न हो जानेपर सुभद्राचार्य आचारांगके और शेष अंगों एवं पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्यकी परम्परासे एकसो अठारह वर्ष आकार ब्युच्छिन्न हो गया [११८ वर्षमें ४ आचारांगघर] | इस सब कालका योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है 1 [६२+ १०० + १८३ + २२० + ११८ = ६८३] । पुनः इसमें सात मास अधिक सतत्तर वर्षोंको [७७ वर्ष ७ मास ] कम करनेपर पांच मास अधिक छहसी पांच वर्ष होते हैं। यह, वीर जिनेन्द्रके निर्वाण प्राप्त होनेके दिनसे लेकर जबतक शककालका प्रारम्भ होता है, उतना काल है। तित्थयरादो सुद-पज्जाएण गोदमो परिणदो ति दव्य-सुदस्स गोदमो कत्ता। तत्तो गंथ-रया जादेत्ति । जगदिम बिहाव सुदणाय लोहज्जस्स संचारिदं । तेण वि जंबूसामिस्स संचारिदं । परिवाडिमस्सिदण एदे तिष्णि वि सयलसुद-धारया भणिया। अपरिवाडीए पुण सयल-सुद-पारगा संखेज्ज-सहस्सा । गोदमदेवो लोहज्जाइरियो जंबूसामी य एदे तिण्णि वि सत्त-विह-लद्धिसंपण्णा सयल-सुय-सायर-पारया होऊण केवलणाणमुप्पाइय णिव्वुई पत्ता । तदो विण्हू णदिभित्तो अवराइदो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पुरिसोली-कमेण पंच वि चोद्दसपुच्च-हरा । तदो विसाहइरियो पोठिलो खत्तियो जयाइरियो गागाइरियो सिद्धत्थदेवो धिदिसेणो विजयाइरियो बुद्धिलो गंगदेवो घण्मसे णो त्ति एदे पुरिसोली कमेण एक्कारस वि आइरिया एक्कारसण्हमंगाणं उप्पायपुवादि-दसण्हं पुयाणं च पारया जादा, सेसुवरिम-चदुम्ह पुव्वाणमेग-देश-धरा य । तदो पक्षत्ताइरियो जयपालो पांडुसामी धुवसेणो कंसारियो त्ति एदे पुरिसोलीकमेण पंच वि आइरिया एक्कारसंग-घारया जादा, चोदसण्हं पुन्वाणमेग-देस-धारया । तदो सुभद्दो जसभद्दो जसबाहू लोहज्जो त्ति एदे चत्तारि वि आइरिया आयारंग-धरा सेसंग-पुष्वाणमेग-देश-धारया । तदो सव्वेसिमंग-पुराणमेग-देसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। -धव० १. १. १, पृ० ६५-६७ वर्षमान तीर्थङ्करके निमित्तसे गौतम गणधर श्रुतपर्यायसे परिणत हुए, इसलिए द्रव्यश्रुतके कती गौतम गणधर हैं । इस तरह गौतम गणधरसे ग्रन्थरचना हुई। उन गौतम गणधरने दोनों प्रकारका श्रुतज्ञान लोहाचार्यको दिया । लोहाचार्यने जम्बूस्वामीको दिया। परिपाटीक्रमसे ये तीनों ही सकलश्रुतके धारण करने वाले कहे गये हैं। और यदि परिपाटीक्रमकी अपेक्षा न की जाय, तो संख्यात हजार सकलश्रुतके धारी हुए। गौतमस्वामी, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों ही सात प्रकारको ऋद्धियोंसे युक्त और सकलश्रुतरूपी सागरके पारगामी होकर अन्तमें केवलज्ञान पट्टावली : ३५७ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त हुए । इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पांचों ही आचार्यपरिपाटीक्रमसे चौदह पूर्वके पाठी तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्यदेव, तिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह ही महापुरुष परिपाटी-क्रमसे ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दश पूर्वोके धारक हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्र वसेन, कंसाचार्य ये पांचों हो आचार्य परिपाटीक्रमसे सम्पूर्ण ग्यारह बंगोंके और चौदह पूर्वोक एकदेशके घारक हुए । तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चारों ही याचार्य सम्पूर्ण आचारांगके धारक और शेष बंग तथा पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । इसके बाद सभी अंग और पूर्वोका एकदेश आचार्य परम्परासे आता हुआ घरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ। साशासकी जन्मति जेनाम्नायमें देश कालानुसार कई संघ प्रचलित हुए। किन्तु भिन्न-भिन्न पट्टावलियां, धर्मग्रन्थ सैद्धान्तिग्रन्थ, और पुराणोंका मंगलाचरण तथा प्रशस्ति देखनेसे यह निश्चित होता है कि सब संघोंका आदि संघ "मूल संघ" ही है। शायद इसी संकेतसे इस संघके आदिमें "मूल" शब्द जोड़ दिया गया है। हमारे इस कपनकी पुष्टि इन्द्रनन्दि सिद्धान्तीकृत "नीतिसार" अन्यके निम्नलिखित श्लोकोंसे भी होती है। "पूर्व श्रीमूलसंघस्तदनु सितपट: काष्ठसंघस्ततो हि तावाभूद्भाविगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एक: । तस्मिन् श्रीमूलसंधे मुनिजनविमले सेन-नन्दी च संघी स्यातां सिंहास्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः ।। अर्थात् पहले मूलसंघमें श्वेतपट गच्छ हुआ, पीछे कष्ठासंघ हुआ। इसके कुछ ही समयके बाद यापनीय गच्छ हुआ। तत्पश्चात् क्रमशः सेनसंघ, नन्दीसंघ, सिहसंघ और देवसंघ हुआ । अर्थात् मूलसंघसे ही काष्ठासंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ और देवसंघ हुए। "अहंबलीगुरुश्चक्र संघसंघटनं परम् । सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघस्तयापरः ।। देवसंध इति स्पष्ट स्थान-स्थितिविशेषतः । ३५८ : तोयंकर महावीर और उनकी बाचार्यपरम्परा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् अहंबल्याचार्यने देशकालानुसार सिंह, नन्दी, सेन और देवसंघको स्थापना की। इससे यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि मूलसंघ पूर्वोक्त संघोंका स्थापक है। पीछे लोहाचार्यजीने काष्ठासंघकी स्थापना की। यह काष्ठासंघ खास करके 'अग्रोहे' नगरके अग्रवालोंके ही सम्बोधार्थ स्थापित किया गया। इसके कई लेख दिल्लीकी भट्टारक-गद्दियों में अब तक मौजूद हैं। उन्हींके आधारपर यह संक्षिप्त परिचय लिखा जाता है। दिगम्बराचार्य लोहाचार्यजी पक्षिय देश भद्दपुर विमा . बिहार करते-करते अग्रोहेके निकटवर्ती हिसारमें पहुंचे। वहां उन्हें कोई असाध्य रोग हुआ था, जिससे वे मूच्छित हो गये। वहकि श्रावकोंने उन्हें संन्यास-मरणस्वीकार कराया। इसके बाद कर्मसे स्वतः लंघन होनेके कारण त्रिदोष पाक होनेसे अपने आप निरोगी हो गये। निरोगी होनेपर जब इन्हें होश हुआ, तो इन्होंने भ्रामरी वृत्ति ( भिक्षावृत्ति से आहार करना विचारा । पीछे "श्रीसंघ"ने उनसे कहा कि महाराज! हम लोगोंने आपको स्णावस्था तथा मूच्छितावस्थामें यावजीवन आपसे संन्यास-मरणकी प्रतिज्ञा करवाई है और आहारका भी परित्याग करवाया है। अतः यह संघ आपको आहार नहीं दे सकता है । यदि आप नवीन संघ स्थापित कर कुछ जेनी बनावें, तो आप वहाँ आहार कर सकते हैं तथा वे दान दे सकते हैं। तत्पश्चात् प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंके प्रमाणसे उक्त वृत्तान्त सत्य जान लोहाचार्यजी वहाँसे बिहार कर अग्रोहे नगरके बाह्य स्थानमें पहुंचे। वहा एक बड़ा पुराना ऊंचा इंटका पयाजा था। उसीके ऊपर बैठकर ध्यान-निमग्न हुए | अनभिज्ञ लोग अद्वितीय साधुको वहाँ आये हुए देखकर दूरसे ही बड़े आदरके साथ प्रणाम करने लगे ! मुनि महाराजके आनेकी धूम सारे नगरमें फैल गयी । हजारों स्त्री पुरुष इकट्ठी हो गये । कारण-विशेषसे एक वृद्धा श्राविका भी किसी दूसरे नगरसे आई थी । यह भी नगरमें महात्मा आये हुए सुन उनके दर्शनोंके लिए वहाँ आई । यह बुढ़िया दिगम्बराचार्यके वृत्तान्तको जानती थी, इसलिए ज्यों ही इसने महात्माको देखा, त्यों ही समझ गई कि ये तो हमारे श्री दिगम्बर गुरु हैं । बस, अब देर क्या थी। धीरे-धीरे वह पयाजेपर चढ़ गई और मुनि महाराजके निकट जाकर बड़ी विनयके साथ "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर यथास्थान बैठ गई। मुनिराज लोहाचार्यजीने भी 'धर्मदृद्धि' कहकर धर्मोपदेश दिया । यह घटना देख सबोंको बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि अहोभाग्य इस बुढ़ियाका कि ऐसे महात्मा इससे बोले । अब सब मुनि महाराजके निकट उपस्थित हुए। मुनि महाराजने सबोंको श्रावकधर्म पट्टावली : ३५९ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उपदेश दिया। व्याख्यान सुननेके साथ ही सबका चित्त व्रत ग्रहण करनेके लिए उत्तारू हो गया। पहले अग्नवंशीय राजा दिवाकरने अपने कुटुम्बियोंके साथ श्रावकधर्मको स्वीकार किया और पीछे इनकी देखा-देखी सवालाख अग्रवालोंके घर जैनी हो गये। पहले छानकर पानी पीना, रात्रिमें भोजन नहीं करना और दवदर्शन कर भोजन करना, ये तीन मुख्य व्रत जैनियों के बतलाये गये। उसी समय सवालाख अग्रवालोंके घरोंमें छन्ने रखे गये, रात्रिभोजनका त्याग कराया गया और दर्शनके लिए एक काष्ठकी प्रतिमा बनाकर स्थापित की गई। उसी समयसे अग्रोहेके अग्नवालश्रावकोंकी संज्ञा काष्ठासङ्घी पड़ी। इनका काण्ठासङ्घ, माथुरगच्छ, पुष्करगण, हिसारपट्ट और लोहाचार्याम्नाय प्रचलित हुई । यह नवीन काष्ठासङ्घ जन्म स्थापित किया गया, तो इस सङ्घसे लोहाचायंजीके आहारका लाभ हुआ और जैनधर्मकी वृद्धि हुई । इस संघकी पट्टावली अन्यत्र प्रकाशित है । इस सङ्घके पट्टपर उस समयसे लेकर आज तक बराबर अग्रवाल जातिके ही भट्टारक अभिषिक्त होते आते हैं। काष्ठासंघम्य गुर्वावली संप्राप्तसंसारसमुद्रतीरं जिनेन्द्रचन्द्रं प्रणिपत्य वीरम् । समीहिताप्त्यै सुमनस्तरूणां नामावली बच्मितमा गुरूणाम् ॥१॥ थीवर्द्धमानस्य जिनेश्वरस्य शिष्यास्त्रयः केवलिनो बभूवुः ।। जम्बूस्वकम्बूज्ज्वलकीर्तिपूरः श्रीगौतमः साधुवरः सुधर्मा ॥२॥ विष्णुस्ततोऽभूदगणभृत्सहिष्णुः श्रीनन्दिमित्रोऽजनि नन्दिमित्र ! गणिश्च तस्मादपराजिताख्यो गोवर्द्धनः साधुसुभद्रबाहुः ॥३॥ पञ्चापि वाचं यमौलिरलान्येतेन केषां मुनयो नमस्याः । यत्कण्ठपीठेषु चतुर्दशापि पूर्वाणि सर्वेः सुखमाभजन्ति ॥४॥ ततो विशाखोऽन्धतगच्छशाखं वन्दे मुनि प्रोष्ठिलनामकञ्च। गणेश्वरी क्षत्रियनागसेनो जयाभिधानं मुनिपुंगवञ्च ।।५।। सिद्धार्थसंज्ञो व्यजनिष्ट शिष्टस्तत्स्मात्प्रकृष्टो धृतषेणनामा । अभून्मुनीशो विजयः सुधीमान् श्रीगंगदेवोऽपि च धर्मसेनः ॥६॥ अभूवन्मुनयस्सर्वे दशपूर्वधरा इमे । भन्याम्भोजवनोबोधानन्यमार्तण्डमण्डलाः ॥७॥ ततः सनक्षत्रमुनिस्तपस्वी जयोदितोभूज्जयपालसंज्ञः । अमी समीहां परिपुरयन्तु ममोऽपि पाण्ड-ध्रुवसेन-कसा ॥८॥ ३६० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत एकादशाङ्गानां पारं गमयति प्रथा । काष्ठसंघे थियाटारा मारे पृष्करे गणे ||२!! सुभद्रो थयशोभद्रो भद्रबाहुर्गणाग्रणीः । लोहाचार्येति विख्याता: प्रथमाङ्गाब्धिपारगाः ॥१०॥ जगत्प्रियोऽभूज्जयसेनसाधुः श्रीवीरसेनो हतकर्मवीरः । स ब्रह्मसेनोऽपि च रुद्रसेनस्ततोऽप्यूभूतां मुनिकुञ्जरौ तौ ॥११॥ श्रीभद्रसेनो मुनिकोत्तिसेनस्तपोभिधानं जयकीतिसाधुः । सद्विश्वकीत्तिभृतविश्वकीतिः यस्य त्रिसन्ध्यं स भवेन्नमस्यः ॥१२॥ तातोप्यभयकोयाख्यो भूतिसेनो महामुनिः । भावकीति: लसद्भावो विश्वचन्द्राभिधः सुधीः ।।१३।। अभूत्ततोऽसावभयादिचन्द्रः श्रीमाघचन्द्रो मुनिवृन्दवन्द्यः । तं नेमिचन्द्रं विनयादिचन्द्रं श्रीबालचन्द्र प्रणतः प्रणौमि ॥१४॥ यज्ञे त्रिभुवनचन्द्र त्रिभुवनभवनोपगूढविमलयशा । गणिरामचन्द्रनामा गणत्तिगणः पण्डितैरेव ॥१५॥ त्रिविधविद्याविशदाशयो यः सिद्धान्ततत्त्वामृतपानलीनः । धन्यो मुनिः श्रीविजयेन्दुनामा ततोऽभवद्भावितपुण्यमार्गः ॥१६॥ मुनिः यशःकीतिरभू यशस्वी विश्वाभयाद्योभयकोतिरासीत् । ततो महासेनमुनिः मकुन्दकीर्तिश्च कुन्दोपमर्कात्तिभारः ॥१७॥ त्रिभुवनचन्द्रमुनिन्द्रमुदारं रामसेनमपि दलितविकारं ! हर्षषेण नवकल्पविहारं वन्दे संयमलक्ष्मीधारम् ॥१८॥ तस्मादजायत सदायत्तचित्तवृत्तिस्त्पन्नमुन्नतमनोरथवल्लरीकः । संसारबारिनिधिपारगबुद्धिभारो गच्छाधिपो गुणखनिगुणसेमनामा ||१९|| ततस्तप:श्रीभरभाबिताङ्गः कन्दर्पदापचि-तचारः । कुमारखच्छीलकलाविशाल: कुमारसेनो मुनिरस्तदुष्टः ॥२०॥ प्रतापसेनः स्वत्तपःप्रतापी सन्तापित: शिष्टतमान्तराशिः। तत्पशृङ्गारस्ववर्णभूषा बभूव भूयः प्रसरत्प्रभावः ॥२१॥ श्रीमन्माहबसेनसाधममहं ज्ञानप्रकाशोल्लसत् । स्वात्मालोकनिलोयमात्मपरमानन्दोम्मिः संम्मिनम् ॥२२॥ घ्यायामि स्फुरदुमकर्मनिगणोच्छेदाय विश्वग्भवा । वर्ते गुप्तिगृहे वसन्नरहरहमुक्त्यै स्पृहावानिव ॥२२॥ मम जनिजनताशः क्षिप्तदुष्कर्मपाशः । कृतशुभगतिवासः प्रोद्गतात्मप्रकाशः ! पट्टावलो : ११ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयति विजयसेन: प्रास्तकन्दर्पसेनः तदनु मनुजवन्द्यः सर्वभावेरनिन्द्यः ||२३|| अधिगताखिलशास्त्र रहस्यहरू यमतजान मनागपि सेवितः । बहुतपश्चरणो मलधारिणो विजयसेनमुनिः परिवण्यते ॥२४॥ तत्पदृपूर्वाचलचण्डरश्मिमुं नीश्वरोऽभून्नयसेननामा । तपो यदीयं जगतां त्रयेऽपि जेगीयते साधुजनेरजस्रम् ||२५|| यद्यस्ति शक्तिर्गुणवर्णनायां मुनीशतुः श्रीनयसेनसूरेः । तदा विहायान्यकथां समस्तां मासोपवासं परिवर्णयन्तु ॥ २६ ॥ शिष्यस्तदोऽस्ति निरस्तदोषः श्रेयांससेनो मुनिपुण्डरीकः । अध्यात्ममार्गे खलु येन चित्तं निवेशितं सर्वमपास्य कृत्यं ||२७|| श्रेयांससेनस्य मुनेर्महीयस्तपः प्रभावाः परितः स्फुरन्ति 1 यद्दर्शनाद्दखिलं (?) प्रयाति दारिद्र्यमाशु प्रणतस्य (?) गेहात् ॥ २८ ॥ तत्पट्टवारी सुकृतानुसारी सन्मार्गचारी निजकृत्यकारी ! अनन्तकीतिम निपुंगवोऽत्र जीयाज्जगल्लोकहितप्रदाता ||२९|| अनन्तकोत्तिः स्फुरितोरुकीतिः शिष्यस्तदीयो जयतीह लोके । यस्याशये मानसवारितुल्ये श्रीजेनधम्मऽम्बुजवत्प्रफुल्लः ||३०|| प्रसमरवरकीर्तेः सर्वतोऽनन्तकीर्तः गगनवसनपट्ट राजते तस्य पट्ट े । सकलजनहितोक्तिः जैनतत्वार्थवेदी जगति कमलकीत्तिः विश्वविख्यात कीतिः ॥ ३१ ॥ जयति कमलकीत्तिः विश्वविख्यातकीत्तिः । प्रकटितयतिमूत्तिः सर्वसंघस्य पूर्तिः । यदुदयमहिमानं प्राप्य सर्वेऽप्यमानं दधति भविकलोकाः प्रीतिमुत्तानयोगाः ॥३२॥ अध्यात्मनिष्ठः प्रसरत्प्रतिष्ठः कृपावरिष्ठः प्रतिभावरिष्ठः । पट्टे स्थितस्य त्रिजगत्प्रशस्यः श्रीक्षेमकीर्तिः कुमुदेन्दुकीतिः ॥ ३३॥ तत्पट्टोदय भूघरेऽतिमत्ति प्राप्तोदयादुज्जय । रागद्वेषमदान्धकारपटलं सञ्चित्करैर्दारूपान् । श्रीमान् राजितहेमकीर्तितरणिः स्फीतां विकासश्रियं भव्याम्भोजचये दिगम्बरपथालङ्कारभूतां दधत् ||३४|| कुमुदविशदकीत्तिर्हेमकीत्ति (1) सुपट्टे विजितमदनमाय: शीलसम्परसहायः । ६२ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिवरगणवन्द्यो विश्वलोकैरनिन्द्यो जयति कमलकोत्तिः जेनसिद्धान्तवादी ॥३५॥ महामुनिपुरन्दरः शमितरागद्वेषाङ्कुरः स्फुरत्परमविन्सनः स्थितिषशास्त्रार्थवित्। यशः प्रसरभासुरो जयति हेमकीर्तीश्वरः समस्तगुणमण्डितः कमलकीर्त्तिसू रिर्महात् ॥ ३६ ॥ एवं पूज्यगुरुक्रमोत्तमलसन्नामावली पद्धतौ । जिह्वाषितां दधाति परमानन्दामृतोत्कण्टुलाम् । सोऽवश्यं भवसंभवं परिभवं त्यक्त्वा विवादाशयम् । प्राप्नोत्याशु पदं परं विलभते चानन्तकीत्तिश्रियम् ||३७|| श्रीमत्काष्ठोदयगिरिहरिर्वादिमाभंगसिन्धुः । मिथ्यात्वागाशनिरिव गतोशेषजीवादितत्वः । कामक्रोधावुदयमस्त श्रीकुमारादिसेनः स्यात् श्रीमान् जयति सुपदो हेमचन्द्रो मुनीन्द्रः ॥३८॥ शास्त्रप्रवीणो मुनिहेमचन्द्रः तत्त्वार्थवेत्ता यतिमण्डनोऽभूत् । तत्पट्टचन्द्रो मुनिपधनन्दिः जीयात्तनी सेवितपादपद्मः ||३९|| ब्राह्मी- सिन्धु कुमुद्वतिपतिरमी जेनाम्बुजाम्हस्करः स्याद्वादामृतवर्द्धकः शशधरः रत्नत्रयालिङ्गितः जीयाकीमुनिपद्यनन्दसगुरोः पट्टोदयाद्री हरिः शान्तिकीर्तिमृतां बरो गुणनिधिः सूरिशः कीर्त्तियट् ॥४०॥ यशःकीतिमुनीन्द्रपट्टाब्जभानुः शुभे काष्ठसंघान्वये शोभमानः । शरच्चन्द्रकुन्दस्फुरत्कान्तकीत्तिः जयी स्फीतसूरीश्वरः क्षेमकीर्तिः || ४१ ॥ विद्वान् साधुशिरोमणिगुणनिधिः सौजन्य रत्नाकरो मिथ्यात्वाचलछेदने ककुलिशो विख्यातकीर्तिभूवि । श्रीमच्छ्रीयशकीर्तिसूरसुगुरोः पट्टाम्बुजाहस्करः श्रीसंघस्य सदाकरोनुकुशलः श्रीक्षेमकीतिः गुरुः ॥४२॥ श्रीमीक्षेमकान्तिः सकलगुणनिधिविष्टपे भूरिपूज्यः । तेषां पट्ट समोदः समजनमुनिभिः स्थापितो शास्त्रविद्भिः । पट्टावली : ३६३ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरे हिसारे सुयतितत्तिवराः सकियोद्योतपुज सोऽनन्दं तासु सेव्यस्त्रिभुवनपुरतः कीर्तिपः सूरिराजः ।।४३।। श्रीमन्माथुरगच्छभालतिलकः स्फुर्यत्सतामग्रणी: सबोधादिगुण रतुच्छसुखदैः युक्तः श्रियालङ्कृतः । पाताले दिवि भूतले च भबिकैस्ससव्यमानोऽनिशम् जीयाच्छीत्रिभुवनकोत्तिसुरगुरुवन्द्यो वुधैस्सर्वदा ॥४४॥ धात्रीमण्डलमंडनस्तु जयतात् श्रीसहस्रकोत्तिगुरुः । राजद्राजकयातिसाहिविदितो भट्टारकाभूषणः । वर्षे वह्नि नगांकचन्द्रमिते शुच्चार्यनग्ने दिने । पट्ट भूत्संचयस्य वै त्रिभुवनाद्याकोत्तिपट्टे स्थिते ।।४।। सहस्रवत्कातुलपक्षभावा सहस्ररश्मिस्तु चकास्ति नित्यं । सहस्रकीत्तिस्सगतैकमूतिर्गरूपमाभः खलुरत्नपूत्तिः ॥४६॥ यत्पाण्डित्पमवेत्य मण्डितमहीखण्डप्रचण्डोद्भटम् । सद्वन्ध्यव्यवहारनिर्गदिदं ज्ञानकगम्याशयम् । सर्वेः सौगतिक समेत्य विधिवत् भट्टारकास्ये वरे गट्टे पण्डितमण्डलीनुतमयः पूज्यः प्रपूज्यैरपि ||४७॥ महीचन्द्रश्चन्द्र सुहृदयहृदान्ते हि सुधिया स्वकान्तेवासिभ्योऽविरतमन, दानविहितम् । निजे दीप्यनज्ञानैः सुगतिविदुषां पुण्यपरिधिः यशोराशि लोकेष्ववहितमनाः पूर्णमकरोत् ||४८|| पदृस्यास्थ महीचन्द्रशिष्यो देवेन्द्रकीतिराट् । ख्यातिमुद्वोषयामास जगत्यद्भुतसद्गुणः ॥४९॥ विदितसुकृतकोतदिव्यदेवेन्द्रकीर्तः मुनिवरशुभपट्ट धर्मसरकान्तिखण्डम् । तदनु भविकपूज्यः श्रीजगत्कीतिपूज्यः शुभसदनमकार्षीदिव्यसदाशिरासीत् ।।५।। अनन्तस्याद्वादारविषु कलकण्ठः पिकवरः प्रसाद: पुण्यानां गुणसरसिजानां मधुकरः । जगत्कीर्तेरिशष्यो ललितसत्कोत्तिबुधवरः समापत्तत्पट्ट सुकृत्तनिजघट्ट सुतिवरः ।।५१॥ जिनमतशुभहदवीचिष्वनिशं मजनप्रमाणनयवेदी । तदनु च पट्टेऽध्यासच्छीमान् राजेन्द्रकीतिसुधिरेषः ।।५२॥ ३६४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषो निजगुरुपट्ट प्राप्याध्यासीन्मुनीन्द्रशुभकीतिः । युगयुगश्वेद्विकवर्षे बीरस्याहो गतो हि सुरलोक ॥५३॥ काष्ठासङ्घकी पट्टावलीका भाषानुबाद संसाररूपी समुद्रका पार जिन्होंने पाया है, ऐसे जिनेन्द्र श्रीवीरनाथ स्वामोको नमस्कारकर मैं अपने अर्थकी सिद्धिके लिये अपने गुरुओंका नाम कहता हूँ॥१|| ___ श्री वर्द्धमान भगवानके तीन शिष्य केवली हुए। जम्बूस्वामी, गौतमस्दामो और सुधर्माचार्य ॥२॥ इनके बाद नमस्कार करने योरस मीदिमुनि, दिनित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्र बाहु ये पाँच समस्त चौदह पूर्वके वेत्ता हुए अर्थात् श्रुतकेवली हुए ॥३॥४ा . इनके विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रियाचार्य, नागसेन, जयसेन, धृतिषेण, विजय, गङ्गदेव, धर्मषेण ये सब मुनि दश पूर्वके धारी और भव्य-कमल प्रकाशन सूर्य हुए ।।५।।६।।७। नक्षत्राचार्य, जयपालाचार्य, मुनीन्द्र पाण्डुनामाचार्य, ध्रुवसेनाचार्य, कंसाचार्य ये मुनि एकादशांग अर्थात् ग्यारह अङ्गके धारी हुए ८॥९॥ सुभद्राचार्य, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य ये एक अङ्गके धारी हुए॥१०॥ __इन लोहाचार्य स्वामीके (१) जयसेन, (२) श्रीवीरसेन, (३) ब्रह्मसेन, (४) रुद्रसेन, (५} भद्रसेन, (६) कीत्तिसेन, (७) जयकीति, (८) विश्वकीति, (९) अभयसेन, (१०) भूतसेन, (११) भावकीत्ति, (१२) विश्वचन्द्र, (१३) अभयचन्द्र, (१४) माघचन्द्र, (१५) नेमिचन्द्र, (१६) विनयचन्द्र, (१७) बालचन्द्र, (१८) त्रिभुवनचन्द्र, (१५) रामचन्द्र, (२०) विजयचन्द्र ॥१शा१२॥१३॥॥१४॥१५॥१६॥ इनके (२१) यशःकीति, (२२)अभयकीति, (२३)महासेन, (२४) कुन्दकीति, (२५) त्रिभुवनचन्द्र, (२६) रामसेन, (२७) हर्षषेण, (२८) गुणसेन हुए ॥१७||१८||१९॥ इनके कामदर्पदलन (२९)श्रीकुमारसेन, (३०) प्रतापसेन, हुए । ॥२०॥२॥ इनके पट्टपर महातपस्वी, परमोत्कृष्ट आत्मध्यानके ध्याता (३१) श्री माहवसेन हुए ॥२२॥ इनके पट्टपर(३२)विजयसेन, (३३) नयसेन, (३४)श्रेयांससेन, (३५) अनन्तकीति इन दिगम्बर मुनियोंके पट्ट पर सर्वलोकहितकारी जैन सिद्धान्तके अपूर्व ज्ञाता पट्टावली : ३६५ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तारित है कीति जिनकी, ऐसे (३६) श्रीकमलकीर्ति हुए |||२३|| २४मा२५॥२६ ||२७||२८||२९||३०||३१|| यह कमलकीत्ति सर्वं सङ्घकी रक्षा करनेवाले और इनकी महिमा पाकर बड़े-बड़े मानियोंने भी मान छोड़ दिया और भव्योंको प्रीति उत्पन्न करने वाले हुए । इनकी जय हो ॥३२॥ इनके पट्टपर (३७) क्षेमकीत्ति, इनके अति महान पट्टरूपी पर्वतपर उदय होकर दुर्जय मोहान्धकारका नाश करनेवाले (३८) श्रीहेमकीत्ति हुए ॥३३॥ ॥३४॥ इनके (३९) कमलकीति, (४०) कुमारसेन, (४१) हेमचन्द्र, (४२) पनन्दि, (४३) यशःकीति, (४४) क्षेमकीर्ति, (४५) त्रिभुवनकीत्ति, (४६) सहस्रकीति, (४७) महीचन्द्र, (४८) देवेन्द्रकीति, (४९) जगत्कीत्ति, (५०) ललितकीति, (५१) राजेन्द्रकीत्ति, (५२) मुनीन्द्रशुभकोति हुए १२५ से ५३ ।। इस पट्टावलीके भावानुवादमें जिन आचार्योंके विशेषणोंसे कुछ ऐतिहासिक महत्व है, उनका वर्णन किया है। शेष आचायोकी केवल नामावली ही अत की गयी है । श्रुतघर - पट्टावली णमिण वड्ढमाणं ससुरासुरवंदिदं विगयमोहं ।" वरसुदरपरिवादि वोच्छामि जहाणुपुब्दीए ॥ १ ॥ विजलगिरितु गसिहरे जिणिदइदेण वमाणेय | गोदमभुणिस्स कहिदं पमाणणयसंजु अत्यं ॥२॥ तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुषम्मणामेण । गणधरसुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिहिदु ॥३॥ चदुरमलढद्धिसहिदे तिष्णदे गणधरे गुणसभग्गे । केवलणाणपईवे सिद्धि पत्ते णमंसामि ॥४॥ गंदी य दिमित्तो अवराजिदमुणिवरो महातेओ । गोवड्ढणो महप्पा महागुणो मद्दवाह य ॥५॥ पंचेदे पुरिसबरा चउदसपुवी हवंति णायग्वा । बारसअंगघरा खलु वीरजिणिदस्स गायब्वा ॥ ६ ॥ १. जंबूदीवपण्णत्ती १२८-१७१ ३६६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह य विसाखारिओ पोद्विल्ली खत्तिको यजामी। जागो सिद्धत्यो वि य धिदिसेणो विजियणामो य ॥७॥ बुद्धिल्ल गंगदेवो धम्मस्सेणो य होइ पच्छिमओ । पारंपरेण एदे दसपुठ्यधरा समक्खादा 110 णवत्तो जसपालो पंडू धुवसेण कंसआयरिओ। एयारसंगधारी पंच जणा होति णिद्दिट्ठा ॥९॥ णामेण सुभद्द जसभद्दो तह य होइ जसबाहू । आयारधरा या अपच्छिमो लोहणामो य ॥१०॥ आइरियपरंपरया सायर दीवाण तह य पण्णत्ती । संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणुपुल्चीए ॥११।। सुर एवं असुरोंसे बंदित और मोहसे रहित वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके उत्तम श्रुतके धारक गुरुओंकी परंपराको अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१| विपुलाचल पर्वतके उन्नत शिखरपर जिनेन्द्र भगवान् वर्धमान स्वामीने प्रमाण और नयसे संयुक्त अर्थका गौतममुनिको उपदेश दिया । उन्होंने ( गौतमगणधरने ) लोहार्यको, और लोहार्य अपरनाम सुधर्मगणधरने जम्बूस्वामीको उपदेश दिया ॥२-३॥ चार निर्मल बुद्धियों ( कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नश्रोत्रबुद्धि, और पदानुसारिणी बुद्धि ) से सहित, गुणोंसे परिपूर्ण, केवलज्ञानरूप उत्कृष्ट द्वीपकसे संयुक्त और सिद्धिको प्राप्त इन तीनों गणघरोंको नमस्कार करता हूँ ॥४|| नन्दि, नन्दिनित्र, महातेजस्वी अपराजित मुनीन्द्र, महात्मा गोवर्धन और महागुणोंसे युक्त भद्रबाहु, ये पाँच श्रेष्ठ पुरुष चौदह पूर्वोके धारक अर्थात् श्रुत केवली थे, ऐसा जानना चाहिये। धीर जिनेन्द्रके ( तीर्थ में ) इन्हें बारह अंगोंके धारक जानना चाहिये ।।५-६|| ___ तथा विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धुतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, रांगदेव और अन्तिग धर्मसेन ये परम्परासे दस पूर्वोके धारक कहे गये हैं 11७-८|| नक्षत्र, प्रशपाल, पाण्डु, ध्रुवषेण और कंसाचार्य ये पांच जन ग्यारह अंगोंके धारक निर्दिष्ट किये गये हैं ||९|| सुभद्र मुनी, यशोभद्र, यशोबाहु और अन्तिम लोहाचार्य ये चार आचार्य आचारांगके धारी जानना चाहिये ॥१०॥ आनुपूर्वीके अनुसार आचार्यपरम्परासे प्राप्त सागर-द्वीपोंकी समस्त प्रज्ञप्तिको संक्षेपमें कहता हूँ ॥११॥ पट्टावली : ३६७ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेषचन्द्र-अशस्तिर (शक सं० १०३७) ( दक्षिणमुख ) भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने । कुतीय-ध्वान्तसङ्घातप्रभिन्नघनभानवे ॥१।। श्रीमन्नाभेयनाथाद्यमलजिनवरानीकसौधोरुवाद्धि. प्रध्वस्ताघ-प्रमेय-प्रचय-विषय-कैवल्यबोधोरु-वेदिः । शस्तस्यात्कारमुद्राशबलितजनतानन्दनादोरुघोषः स्थेयादाचन्द्रतारं परमसुखमहावीर्य्यवीचीनिकायः ।।२।। श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गाः श्रीगौतमाद्याः प्रभविष्णवस्ते तत्राम्बुधौ सप्तमहद्धियुक्तास्तत्सन्ततौ नन्दिगणे बभूव ||३|| धीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारद्धिः ॥४॥ अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिञ्छ: 1 सदस्य रसशो रिना यस्तारकाविशेषापारपिदी ||५|| श्रीगृद्धपिञ्छमुनिपस्य बलाकपिञ्छ: शिष्योजनिष्ट भुवनत्रयत्तिकीत्तिः । चारित्रचुन्नुरखिलावनिपालमौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥६॥ तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डित-यतिश्चारित्रचक्रेश्वरस्तक्कच्याकरणादिशास्त्रनिपुणस्साहित्यविद्यापतिः । मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुरघटासचट्टकण्ठीरखो भव्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्पदप्पापहः ॥७॥ तच्छिष्यास्त्रिशता विवेकनिधयश्शास्त्रान्धिपारङ्गतास्तेषत्कृष्टतमा द्विसप्ततिमितास्सिद्धान्तशास्त्रार्थकव्याख्याने पटवो विचित्रचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः नानानूननमप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिक: ॥८॥ अनि महिपचूडारत्नराराजितानिविजितमकरकेतूदण्डदोर्दण्डगब्दः। कुनयनिकरभूघ्रानीकदम्भोलिदण्डस्स जयतु विबुधेन्द्रो भारतीभालपट्टः ।।९।। १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, मा० दि० प्र०, अभिलेख संख्या-४७ । २६८ : वीयफर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्छिष्यः कलधौतनन्दिमुनिपस्सैद्धान्तचक्र श्वरः पारावारपरीतधारिणिकुलव्याप्तोरुकीर्तीश्वरः । पञ्चाक्षोन्मदकुम्भिकुम्भदलनप्रोन्मुक्त्तमुक्ताफलप्रांशुप्राञ्चितकेसरी बुधनुतो वाक्कामिनीवल्लभः ॥१०॥ तत्पुत्रको महेन्द्रादिकोतिर्मदनशङ्करः ।। यस्य वाग्देवता शक्ता श्रौती मालामयूयुजत् ।।११।। तच्छिष्यो वीरनन्दी कवि-गमक-महावादि वाग्मित्वयुक्तो यस्य श्रीनाकसिन्धुत्रिदशपत्तिगजाकाशसङ्काशकीर्तिं ! गायन्त्युच्चैदिग्दिगन्ते त्रिदशयुवतयः प्रीति रागानुबन्धात् सोऽयं जीयात्प्रमादप्रकरमहिधराभीलदम्भोलिदण्डः ॥१२॥ श्रीगोल्लाचार्य्यनामा समजनि मुनिपश्शुद्धरत्नत्रयात्मा सिद्धात्मायस्थ-सात्थ- प्रदनपटु-सिद्धान्त-शास्त्राब्धि-वीची सङ्घातक्षालितांहः प्रमदमदकलालीढबुद्धिप्रभावः जीयाद् भूपाल-मौलि-धुमणि-विदलिताड्रिपजलक्ष्मीविलासः ॥ पेगड़े चावराजे बरेदमङ्गल ॥ ( पश्चिममुख) वीरणन्दिविबुधेन्द्रसन्तती नूनन्दिलनरेन्द्रवंशचूडामणिः प्रथितगोल्लदेशभूपालक: किमपि कारणेन सः ॥१४|| श्रीमत्त्रकाल्योगी समजनि महिकाकायलग्नातनुवं यस्याभूदृष्टिधारा निशित-शर-गणा ग्रीष्ममार्तण्डबिम्ब । चक्र सद्वृत्तचापाकलिततिवरस्याघशत्रून्विजेतु गोल्लाचार्य्यस्य शिष्यस्सा जयतु भुवने भब्यसकैरवन्दुः ।।१५।। तपस्सामर्थ्यतो यस्य छात्रोऽभूद्ब्रह्मराक्षसः । यस्य स्मरणमात्रेण मुञ्चन्ति च महाग्रहाः ॥१६॥ प्राज्याज्यतां गतं लोके करञ्जस्य हि तैलक तपस्सामथ्यंतस्तस्य तपः किं वर्णित क्षमं ॥१७॥ वैकाल्य-योगि-यतिपान-विनेयरलस्सिद्धान्तवाद्धिपरिवद्धनपूर्णचन्द्रः । दिग्नागकुम्भलिखितोज्जवलकोतिकान्तो जीयादसाबभयनन्दिमुनिज्जगत्यां ॥१८|| येनाशेपपरीपहादिरिपवस्सम्यग्जिता: प्रोद्धताः येनाप्ता दशलक्षणोत्तममहाधख्यिकल्पद्रुमाः पट्टावली : ३६९ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येनाशेष-भवोपताप-हननस्वाध्यात्मसंवेदनं प्राप्त स्यादभयादिनन्दिमुनिपस्मोऽयं कृतार्थो भुवि ॥१९॥ तच्छिष्यस्सकलागमानिपुणो लोकज्ञतासंयुतस्सच्चारित्रविचित्रचारुचरितस्सौजन्यकन्दाकुरः मिथ्यात्वाज्जवमप्रतापहननश्रीसोमदेवप्रभु र्जीयात्सत्सकलेन्दुनाममुनिपः कर्माटवीपावकः ॥२०॥ अपि च सकलचन्द्रो विश्वविश्वम्भरेशप्रणुदपदपयोजः कुन्दहारेन्दुरोचिः । त्रिदशगजसुवज्रव्योमसिन्धुप्रकाशप्रतिभविशदकोत्तिग्विधूकर्णपूरः ॥२१॥ शिष्यस्तस्य दृढवतश्शमनिधिस्सत्संयमाम्भोनिधि शीलानां विपुलालयस्समितिभिव्यु क्तिस्त्रिगुप्तिश्चितः । नानासद्गुणरत्नरोगिः प्रोद्यत्तपोजन्मभूः प्रतो मुवि मेधचन्द्रमनिरामनियचक्राधिपः ॥२२|| वैविद्ययोमीश्वर-मेघचन्द्रस्याभूत्प्रभाचन्द्रमुनिस्सुशिष्यः । शुम्भद्रताम्भोनिधिपूर्णचन्द्रो नि तदण्डत्रितयो विशल्यः ।।२३॥ पुष्पास्थानून-दानोत्कट-कट-कटिच्छेदछेद-दृप्यन्मगेन्द्रः नानाभच्याब्जपण्डप्रतति-विकसन-धीविधानकभानुः । संसाराम्भोधिमध्योतरणकरणतीयानरत्नत्रयेश; सम्यग्जैनागमाान्वितविमलमतिः थीप्रभाचन्द्रयोगी ॥२४॥ (उत्तरमुख ) श्रीभपालकमौलिलालित्तपदस्संज्ञानलक्ष्मीपतिश्चारित्रोत्करवाहनश्शितयनश्शुभ्रातपत्राञ्चितः ।। त्रैलोक्याद्भुतमन्मथारिविशयस्सद्धर्मचक्राधिपः पृथ्वीसंस्तवतूय्यंगोषनिनदविद्यचक्र श्वरः ॥२५॥ सद्धान्तेद्धशिरोमणिः प्रशमवातस्य चूडामणिः । शब्दोघस्य शिरोमणिः प्रविलसत्तज्ञचूडामणि: प्रोन्यत्संयमिता गिरोमणिरुदञ्चद्भव्यरक्षार्माणजर्जीयात्सन्नुतमेषचन्द्रमुनिपस्त्रविद्यचूड़ामणिः ॥२६॥ विद्योत्तमपचन्द्रमिनः प्रत्यर्मभासि प्रिया वाग्देवी दिसहावाहित्यहृदया तद्वाक्ष्यकात्विनी । कीतिरिचिदिक कुलाबलकुले स्वादात्मा प्रष्टुम प्यन्वष्ट भणिमन्त्रनवनिचयं ना गम्भ्रमा भ्राम्यति ।।२।। ३७० : तीकर महावीर और उनको आनायपरका ग Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रर्कन्यायसुवज्रवेदिरमलाई सूक्तितन्मौक्तिकः शब्दग्रन्थ विशुद्धशंखकलितस्स्याद्वादसद्विद्रुमः व्याख्यानोज्र्जितघोषणर् प्रविपुलप्रज्ञोद्धवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेघ चन्द्रमुनिपस्त्रेविद्य रत्नाकरः ॥२८॥ श्रीमूलसंध-कृत-पुस्तक-गच्छ-देशी प्रोद्यद्गणाधिपस्ताक्किकचक्रवर्ती। सैद्धान्तिकेश्वर शिखामणिमेघचन्द्रस्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधा ( : ) स्तुवन्ति ॥ २९ ॥ सिद्धान्ते जिन - वीरसेन सदृशः शास्याब्ज - भा भास्करः षट्तक्कष्वकलदेव विबुधः साक्षादयं भूतले । सर्व्वे व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादस्स्वयं श्रविद्योत्तममेधचन्द्रमुनिपो वादीभपञ्चाननः ||३०|| रुद्राणीशस्य कण्ठं धवलयति हिमज्योतिषो जातमङ्कं पीतं सौवर्णशैलं शिशुदिनपतनुं राहुदेहं नितान्तं । श्रीकान्तावल्लभाङ्गकमलपुष्पप्रतीन्द्र विद्यस्याखिलाशा वलय निलयसत्कीत्तिचन्द्रासपोऽसौ ॥३१॥ मुनिनाथं दशधर्म्मधरिदृढषद् - त्रिंशद्गुणं दिव्य-वाणनिधानं निनगिक्षुचापमलिनीज्यासूत्रमोरेन्दे पूविन बाणङ्गलमयदे हीननधिकङ्गाक्षेपम माप्पु दाव मयं दप्पंक मेघचन्द्रमुनियोल मानिन्नदोर्दमं ||३२|| मदुरेखाविलासं चावराज- बलदल वरेदुद बिरुदख्वारिमुखतिलकगङ्गाचारि कण्डरिसिद शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवरगुड्ड । ( पूर्वमुख ) श्रवणीय शब्दविद्यापरिणति महनीयं महातवविद्याप्रवणत्वं श्लाघनीयं जिननिगदित संशुद्धसिद्धान्तविद्याप्रवणप्रागल्भ्यमेन्देन्दुपचितपुलकं कीर्त्तिस कूत्तु विद्वनिवहं विद्यनाम - प्रविदितनेसेदं मेघचन्द्रवतीन्द्र ||३३|| क्षमेगीगल जोवनंतीविदुदतुलतप श्रीगे लावण्यमीगल् समसन्दित्तु तन्नि श्रुतवधुराधिक प्रौढियायुतीगलेन्दन्दे महाविख्यातियं ताल्दिदनमलचरित्रोत्तमं भव्यचेतोरमणं त्रैविद्यद्यिोदितविशदयशं मेघचन्द्रव्रतीन्द्र ||३४|| इदे हंसीबृन्दमीष्टल् बगेदपुदु चकोरीचयं चञ्चुविन्दं पट्टावली : २७१ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुकल् सार्दप्पुदीशं जडेयोलिरिसलेन्दिपं सेज्जेगरलू पदेदप्पं कृष्णनेम्वन्तेसेदु बिस-नसत्कन्दलीकन्दकान्तं पुदिदत्ती मेघचन्द्रवत्तितिलकजगत्तिकोतिप्रकाश ॥३५॥ पूजितविदग्धविबुधसमाज विद्य-मेधचन्द्र-अत्ति-राराजिसिदं विनमितमुनि राज वृषभगणभगणताराराजं ॥३६|| सक वर्ष १०३७ नेय मन्मथसंवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहदारं धनुलग्नद पूर्वालदारुघलिगेयप्पागलु श्रीमूलसङ्घद देसिगगणद पुस्तकगच्छद श्रीमेघचन्द्रविद्यदेवतम्मवशानकालमनरिदु पल्यवाशनदोलिदु आत्मभावनेर्य भाविसुत्तु देवलोकक्के सन्दराभावनेयेन्तप्पुदेन्दोडे । अनन्त-बोधात्मकमात्मवार निधाय चेतस्पहाय हेयं । विद्यनामा मुनिमेषचन्द्रो दिवं गतो बोधनिधिविशिष्टाम् ॥३७॥ अवरग्रशिष्यरोष-पद-पदार्थ-तत्त्व-विदरु सकलशास्त्रपारावारपारगरुं गुरुकुलसमुद्धरणरुमप्प श्रीप्रभाचन्द्र-सिद्धान्त देवतम्म गुरुगलो परोक्षविनेयं कारणमागि-श्रीकदवप्पु-तीर्थदल तम्म गुडु ।। समधिगत्तपञ्चमहाशब्द महासामन्ताधिपति महाप्रचण्डदण्डनायक वैरिभयदायक गोत्रपवित्र बुधजनमित्र स्वाभिद्रोहगोधमघरट्टसंग्नामजत्तलट्ट विष्णुवर्द्धनभूपालहोयसलमहाराज राज्यसमुद्धरण कलिगलाभरण श्रीजैनधर्मामृताम्बुधिप्रवर्द्धन-सुधाकर सम्यक्तरत्नाकर श्रीमन्महाप्रधान दण्डनायकगङ्गराजनुमातन मनस्सरोवरराजहंसे भव्यजनप्रसंसे गोत्र-निधाने रुक्मिणीसमाने लक्ष्मीमतिदण्डनायकितियुमन्तवरिन्दमतिमय महाविभूतियि सुभलग्नदोलु प्रतिष्ठेय माडिसिंदर् आमुनीन्द्रोत्तमर् ईनिसिधिगेयन् अबर तपः प्रभावमेन्तपुद्देन्दोडे । समदोद्यन्मार-गन्ध-द्विरद-दलन १-कण्ठीरवं क्रोध-लोभ द्रुम-मूलच्छेदनं दुर्द्धरविषय शिलाभेद-बन-प्रपातं । कामनीयं श्रीजिनेन्द्रागमजलनिधिपार प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तमुनीन्द्र मोहविध्वंसनकरनेसेदं धात्रियोल योगिनाथ ॥३८| चावराज बरेद ॥ मत्तिन मातबन्तिरलि जीर्णजिनाश्रयकोटिय क्रम वेत्तिरे मुन्निनन्तिरत्तितर्गलोल नेरे माडिसुत्तम-- त्युत्तमपात्रदानदोदवं मेरेवुत्तिरे गंगवाडितो म्बत्तरु सासिरं कोपणमादुद गंगणदण्डनानि ।।३९।। ३७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमयनें कैकोण्डुदो सौभाग्यद् - कणियेनिप्पलम न्दीभुवनतलदोला हा रामय सज्यशास्त्र - दान - विधान || ४०|| इस प्रशस्ति में कुन्दकुन्दाचार्य, गुद्धपिच्छ बलापिच्छ, गुणनन्दि, देवेन्द्र सैद्धान्तिक और कलधौतनन्दिका उल्लेख आया है । कलद्योतनन्दिके पुत्र महेन्द्रकीत्ति हुए, जिनकी आचार्य परम्परामें क्रमसे वीरनन्दि, गोल्लाचार्य, त्रैकाल्ययोगि, अभयनन्दि और सकलचन्द्र मुनि हुए । इस अभिलेखमें आचार्यकि तप एवं प्रभावका भी सुन्दर चित्रण हुआ है । काल्ययोगीके विषयमें कहा जाता है कि इनके तपके प्रभाव से एक ब्रह्मराक्षस इनका शिष्य बन गया था । इनके स्मरणमात्र से बड़े-बड़े भूत भागते थे, और इनके प्रतापसे करञ्जका तेल घृतमें परिवर्तित हो गया था । सकलचन्द्रमुनिके शिष्य मेघचन्द्र विद्य हुए, जो सिद्धान्त में वीरसेन, तर्कमें अकलंक और व्याकरण में पूज्यपादके तुल्य विद्वान थे । शक सं० १०३७ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी, गुरुवार, मन्यत्तसम्वत्सरको धनुलगन पूर्वाह्न समय में इन्होंने सध्यानपूर्वक शरीरका त्याग किया। मेघचन्द्र देशीगण, पुस्तकगच्छके आचार्य थे। इनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव थे, जो विभिन्न विषयोंके ज्ञाता, वादियोंके मदको चूर करनेवाले प्रतापी और मोह - अन्धकारको ध्वंस करनेवाले थे । इन्होंने महाप्रधान दण्डनायक गंगराज द्वारा माघचन्द्र वैद्यकी निषधा तैयार करायी । इस अभिलेखमें नन्दिगणका उल्लेख आया है और इसी गणके अन्तर्गत पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द आदिका निर्देश किया है । मल्लिषेण प्रशस्ति (शक संo १०५० ई०, सन् ११२८ ) इस पट्टावलिमें मूलरूपसे मल्लिषेण मलधारिदेवके समाधिमरणका निर्देश आया है । चन्द्रगिरि पर्वत (कटवत्र) के पार्श्वनाथमन्दिर ( वसति) के नवरंगमें यह प्रशस्ति अकित की गई है। आचार्य के इतिहासकी दृष्टिसे इस प्रशस्तिका मूल्य अधिक है । ७२ पद्योंमें दिगम्बर परम्पराके समस्त प्रसिद्ध आचार्योंका नाम आया है । प्रशस्ति निम्न प्रकार है (उत्तरमुख) श्रीमन्नाथकुलेन्दुरिन्द्र-परिषद्वन्द्यश्रुत -श्री-सुधाधारा-धौत-जगत्तमोऽपह पह-महः पिण्ड - प्रकाण्डं महत् । पट्टावली : ३७३ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्मान्निम्मल-धर्म-वाद्धि-विपुलश्नीचर्द्धमाना सतां भत्तु भव्य-चकोर-चक्रमवतु श्रीवर्धमानो जिनः ॥१।। जीयादर्थयुतेन्द्रभूतिविदिताभिख्यो गणी गोतमस्वामी सप्तमद्धिभिस्त्रिजगतीमापादयन्यादयोः । यद्वोधाम्बुधिमेत्य वीर-हिमवत्कुत्कीलकण्ठाबुधाम्भोदात्ता भुवनं पुनाति वचन-स्वच्छन्दमन्दाकिनी ॥२॥ तीर्थेश-दर्शनभवन्नय-दृक्सहस्र-बिलब्ध-बोध-वपुषश्च तकवेलीन्द्राः। निम्मिन्दतां विबुध-वृन्द-शिरोभिवन्द्यास्फूर्जद्वचः कुलिशतः कुमताद्रि मुद्राः ॥३॥ वर्त्यः कथन्नु महिमा भण भद्रबाहो म्र्मोहोरु-मल्ल-मद-मईन-वृत्तबाहोः । यच्छिष्यताप्तसुकृतेन स चन्द्रगुप्त श्शुश्रूष्यतेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ।।४॥ वन्द्योविभुम्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीति-विभूषिताशः । यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्र श्रुत्तस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ।।५।। वन्द्यो भस्मक-भस्म-सास्कृति-पदः पद्यावती-नेतनादत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः । आचार्य्यस्सः समन्तभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ।।६।। चुणि ।। यस्येवंविधा वादारम्भसरम्भविम्भिताभिव्यक्तयस्सूक्तयः ।। वृत्त । पूर्व पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहु-भटं-विद्योत्कटं सङ्कट वादायी विचराम्पहननरपते शार्दूल-विक्रीडितं ॥७॥ अवटु-तटमटति झटति स्फुट-पटु-वाचाटधूर्जटेरपि जिह्वा बादिनि समन्तभद्रे स्थित्तवति तब सदसि भूप कथान्येषां ||८|| योऽसौ घाति-मल-द्विषबल-शिला-स्तम्भावली-खण्डनध्यानासिः पटुरहतो भगवतस्सोऽस्य प्रसादीकृतः । १. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४ । ३७४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्रस्यापि स सिंहनन्दि-मुनिना नोचेत्कथं वा शिलास्तम्भोराज्यरमागमाध्व-परिघस्तेनासिखण्डो घनः ||९|| बक्रग्रीव-महामुनेदंश-शतग्रीवोऽप्यहीन्द्रो यथाजातं स्तोतुमलं वचोबलमसो कि भग्न-वाग्मि-व्रजं । योऽसौ शासन-देवता-बहुमतो ह्री-बक्त्र-वादि-ग्रहग्रीवोऽस्मिन्नध-शब्द-वाच्यमवदद् मासान्समासेन षट् ॥१०॥ मवस्त्रोत्र तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रणाम वज्रादी रचयत परन्नन्दिनि मनी । नवस्तोत्र येन व्यरचि सकलाईत्प्रवचनप्रपञ्चान्तब्भवि-प्रवण-चर-सन्दर्भसुभगं ||११|| महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्तयासीत् पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदर्थन कत्तु ॥१२॥ सुमति-देवममुस्तुतयेन वस्सुमति-सप्तकमाप्ततया कृतं । परिहतापथ-तत्त्व-पथात्थिना सुमति-कोटि-बित्तिभवात्तिहत् ।।१३।। उदेत्य सम्पग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मुनिरस्तमापत् । सीव चित्र जगदेवा-भानोस्तिष्ठत्यसो तस्य तथा प्रकाशः ॥१४॥ धमार्थकामपरिनिर्वृनिचारुविन्तश्चिन्तामणिः प्रतिनिकेतमकारि येन । म स्तूयते सरससौख्यभुजा-सुजातश्चिन्तामणिमुनिवृषा न कथं जनेन ||१५|| चूडामणिः कवीनां चूडामणि-नाम-शेव्य-काव्य-कविः । श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्य: कीतिमाहतु ।।१६|| चूष्णि || य एवमुपश्लोकित्तो दण्डिना ॥ जह्नोः कन्या जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीवर्द्धदेव सन्धत्से जिह्वाग्रेण सरस्वती ।।१७।। पुष्पास्त्रस्य जयो गणस्य चरणम्भमृच्छिखा-पट्टन पद्भ्यामस्तु महेश्वरस्तदपि न प्राप्तु तुलामीश्वरः । यस्याखण्ड-कलावतोऽष्ट-विलसद्दिकपाल-मालि-स्खलत्कीर्तिस्वस्सरितो महेश्वर इह स्तुत्यमा कस्स्यान्मुनिः ॥१८|| यस्सरतति-महा-वादान जिगायान्यानथामितान् । ब्रह्मरक्षोऽचितस्सोऽच्या महेश्वर-मुनीश्वर: ||१९|| तारा येन विनिजिता घट-कुटी-गूढावतारा सम बोद्धर्यो धृत-पीठ-पीडित-कुदग्देवात्त-संवाञ्जलिः । पट्टावलो : २७५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तमिवाङ्घ्रि-वारिज-रज-स्नानं च यस्याचरत् दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलङ्कः कृत्ती ॥२०॥ चूण || यस्येदमात्मनोऽनन्य - सामान्य निरवद्य - विद्या- विभवोपवर्णनमाकण्यते ॥ राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सदृशा रणं विजयिनस्त्या गोन्नता दुल्लभाः । त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नाना -शास्त्र- विचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ||२१|| नमो मल्लिषेण - मलधारि देवाय || (पूर्वमुख) राजन्सर्व्वारि-द-प्रबिदलन- पटुस्त्वं यथा प्रसिद्धस्तद्वख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिल मदोत्पाटनः पण्डितानां । नो वेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तु ं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेष-शास्त्रो यदि स्यात् ॥ २२॥ नाहङ्कार- वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवल नैरात्म्य प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य-बुद्धचा मया । राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो बौद्धोघान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः ||२३|| श्रीपुष्पसेन मुनिरेव पदम्महिम्नो देवस्य यस्य समभूत्स भवान्सधर्म्मा । श्रीविभ्रमस्य भवन्ननु देव पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा ||२४|| विमलचन्द्र मुनीन्द्र गुरोग्गुरुप्रशमिताखिलवादिमदं पदं । यदि यथावदवैष्यत पण्डितेन्तु तदान्ववदिष्यत वाग्विभोः ||२५|| चूणि । तथाहि । यस्यायमापादित- वरवादि-हृदय-शोकः पत्रालम्बन - इलोकः || पत्रं शत्रु- भयङ्करो भवन द्वारे सदा सञ्चरन् नाना-राज- करीन्द्र-वृन्द-तुरंग - वाताकुले स्थापितम् । शैवान्पाशुपतांस्तथागत सुतान्कापालिकाकापिलानुद्दिश्योद्धत - चेतसा- विमलचन्द्रांशाम्बरेणादरात् ॥२६॥ दुरित-ग्रह- निग्रहाद्भयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र- वन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजतश्श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ||२७|| घट बाद घटा-कोटि-कोविदः कोविदां प्रवाक् । परवादिमल्ल- देवो देव एव न संशयः ||२८|| ३७६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा F Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणि || येनेयमात्म-नामधेय-निक्तिरुक्ता नाम पृष्टवन्तं कृष्णराज प्रति ।। गृहीत-पक्षादितरः परस्मात्तद्वादिनस्ते परवादिनस्स्युः । तेषां हि मल्लः परवादिमल्लस्तन्नाममन्नाम वदन्ति सन्तः ॥२९॥ आचार्यवर्यो यतिरायंदेवो राधान्त-कर्ता घ्रियतां स मूनि । यस्स्वर्ग-यानोत्सव-सीम्नि कायोत्सर्गास्थितः कायमदुत्ससर्ज ॥३०॥ श्रवण-कृत-तृणोऽसौ संयम ज्ञातु-कामै: शयन-विहित-वेला-सुप्तलुप्तावधानः । श्रुतिमरभसवृत्योन्मृज्य पिच्छेन शिश्ये किल मृदु-परिवृत्या दत्त-सत्कीटवा ॥३१11 विश्वं यश्श्रुत-बिन्दुनावरुरुधे भावं कुशाग्रीयया बुध्येवाति-महीयसा प्रवचसा बद्धं गणाधीश्वरैः । शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनान्सुगीस्तं वाचार्चत चन्द्रकीति-गणिनं चन्द्राभ-कीति बुधाः ।।३१।। सद्धर्म-कर्म-प्रकृतिप्रणामाद्यस्योग्र- वर्मप्रकृतिप्रमोक्षः । तन्मानिकर्म-प्रकृतिन्नमामो भट्टारकं दृष्ट-कृतान्त-पारम् ॥३३|| अपि स्व-वाग्व्यस्त-समस्त-विद्यस्त्रविद्यशब्देऽप्यनुमन्यमानः । श्रीपालदेवः प्रतिपालमीयस्सतां यतस्तत्व-विवेचनी धीः ॥३४॥ तीर्थ श्रीमत्तिसागरो गुरुरिला-चक्र चकार स्फुरज्योतिः पीत-तमर्पयः-प्रवित्ततिः पूतं प्रभूताशयः यस्माद्भरि परार्द्धय-पावन-गुण-श्रीवर्द्धमानोल्लसद्रत्नोत्पत्तिरिला-तलाधिप-शिरश्श्रृंगारकारिण्यभूत् ||३५॥ यत्राभियोक्सरि लघुल्लघु-धाम-सोम-सौम्यांगभृत्स च भवत्यपि भूति-भूमिः । विद्या-धनञ्जय-पदं विशदं दधानो जिष्णुः स एव हि महा-मुनि हेमसेनः ॥३६।। चूणि ॥ यस्यायमवनिपति-परिषद्-निग्रह मही-निपात-भौतिदुस्थ-दुर्ग-पर्वतारुढ-प्रतिवादिलोकः प्रतिज्ञाश्लोकः ॥ तर्के व्याकरणे कृत- श्रमतया धीमत्तयाप्युद्धतो मध्यस्थेषु मनीषिषु क्षितिभृतामग्रे मया स्पर्खया । यः कश्चित्प्रतिवक्ति तस्य विदुषो वाग्मेय-भंगं परं कुर्वेऽवश्यमिति प्रतीहि नृपते हे हेमसेनं मतं ॥३७॥ हितैषिणां यस्य नृणामुदात्त-वाचा निबद्धा हित-रूप-सिद्धिः । वन्यो दयापाल-मुनिः स वाचा सिद्धस्सताम्मूर्द्धनि यः प्रभावः ॥३८॥ पट्टावली : ३७७ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य श्रीमतिसागरी गुरुरसी चञ्चचशश्चन्द्रसूः श्रीमान्यस्य स वादिराज गणभृत्य ब्रह्मचारीविभोः । एकisria कृती स एव हि दयापालनती यन्मनस्यास्तामन्य-परिग्रह-ग्रहु-कथा स्वं विग्रहे विग्रहः ||३९|| त्रैलोक्य-दीपिका वाणी द्वाभ्यामेवांदगादिह | जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ||४०|| आरुद्धाम्बरमिन्दु-विम्ब-रचितौरसुक्यं सदा यवछत्रं वाक्चमरोज- राजि-रुत्तयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । सेव्यः सिंहसमयं पीठ-विभवः सर्व प्रयादि-प्रजादत्तोच्च प्रकार-सार-महिमा श्रीवादिजो विदा ॥१४१|| चूर्णि || यदीय-गुण-गोचरोऽयं वचन-विलास-प्रसरः कवीनां । नमोऽहंते ॥ ( दक्षिणमुख ) श्रीमच्चालुक्य चक्रे श्वर-जयकट के वाग्वधू जन्मभूमी निष्काण्डण्डिण्डिमः पर्यटति पटु-स्टो वादिराजस्य जिष्ण | | जा द्वाद-दर्पो जहिहि गमकता गर्व भूमा- जहाहि व्याहारेण्यां जहाहि स्फुट-मृदु-मधुर-श्रव्य काव्यावलेपः || ४२|| पातालं व्यालराजो वसति सुविदितं यस्य जिह्वा सहस्र निर्गन्ता स्वर्गतोऽसौ न भवति पिणो वज्रभृद्यस्य शिष्यः । जीवेत्तान्तावदेत निलय-बल-वशावादिनः केन नान्ये गर्व निर्मुच्य सर्व जयिनमिन समे वादिराजं नमन्ति ||४३|| वाग्देवी सुचिरप्रयोग सुदृढ प्रेमाणमप्यादरादादत्ते मम पायमधुना श्रीवादिराजो मुनिः भो भो पश्यत पश्यते यमिनां कि धर्म इत्युच्चकब्रह्मण्य-पराः पुरातनमुने बांग्वृत्तयः पान्तु वः ||४४ गंगावश्विर-शिरोमणि-यद्ध सन्ध्या- रागोल्लसच्चरण-चारुनखेन्दुलक्ष्मीः । श्रीशब्दपूर्व - विजयान्त-विनूत-नामा धीमानमानुष गुणांस्ततमः प्रभांशु ॥४५॥ चूर्णि ॥ स्तुतो हि स भवानेच श्रीवादिराज देवेन ॥ यद्वा-तोः प्रशस्तमुभयं श्रीमसेनमुनी प्राणीमित्सुचिराभियोग- बलतो नीतं परामुन्नति । ३७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायः श्रीविजये तदेतदखिलं तत्पीठिकायां स्थिते संक्रान्तं कथमन्यथानतिचिराद्विद्येदृगीदृक् तपः ॥४६।। विद्योदयोऽस्ति न मदोऽस्ति तपोऽस्ति भास्वनोग्रत्वमस्ति विभतास्ति न चास्ति मानः । यस्य श्रये कमलभद्र-मुनीश्वरन्तं । यः ख्यातिमापदिह-शाम्यदर्धगुणोघः ।।४७|| स्मरणमत्र पवित्रतमं मनो भवति यस्य सतामिह तीथिनां समत्तिनिर्मलमात्म-विशुद्धये कमलभद्रसरोवरमाश्रये ||४८| सर्वांगैर्यमिहालिलिङ्ग-सुमहाभागं कलौ भारति भास्वन्तं गुण-रत्न-भूषण-गणरप्यग्रिम योगिनां । तं सन्तस्तुवतामलकृत-दयापालाभिधानं महासूरि भूरिधियोऽत्र पण्डित-पदं यत्र व युक्तं स्मृताः ॥४२॥ विजित-मदन-दर्पः श्रीदयापालदेवो विदित-सकल-शास्त्रो निजिताशेषवादी । विमलतर-यशोभियाप्त-दिक्-चक्रबालो जयति नत-महीभृन्मौलिरत्नारुणाघ्रिः ॥५०॥ यस्योपास्य पवित्र-पाद-कमल-द्वन्द्वन्नृपः पोय-सलो लक्ष्मी सनिधिमानयत्स विनयादित्यः कृताज्ञाभुवः । कस्तस्याहंति शान्तिदेव-यमिनस्सामर्थ्य मित्थं तथेत्याख्यातु बिरला खलु स्फुरदुरु-ज्योतिर्दशास्तादृशाः ॥५१॥ स्वामीति पाण्ड्य-पृथिवी-पतिना निसृष्टनामाप्त-दृष्टि-विभवेन निज-प्रसादात् । धन्यस्स एव मुनिराहवमल्लभूमगास्थायिका-प्रथित-शब्द-चतुमुखाख्यः ॥५२|| श्रीमुल्लूर-विडूर-सारवसुधा-रत्नं स नाथो गुणेनाथूणेन महीक्षितामुरु-महःपिण्डशिरो-मण्डनः । आराध्यो गुणसेन-पण्डित-पतिस्स स्वास्थ्यकामैजना यत्सूक्तागद-गन्धत्तोऽपि गलित-ग्लानि गति लम्भिताः ॥५३।। बन्दे वन्दितमादरादह रहस्स्याद्वाद-विद्या-विदां स्वान्त-ध्वान्त-वितानं-धूनन-विधी भास्वन्तमन्य भुवि । भक्त्या त्वाजितसेन-मानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मन:पद्म सद्म भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ।।५।। पट्टावली : ३५१ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्मुञ्चत मिथ्या भाषण- भूषणं परिहरेतोद्छत्य स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादोभ कण्ठीरवं । नो चेत्तद्गु गज्जत - श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूर्णं निग्रह - जीर्णकूपः कुहरे वादि- द्विपाः पातिनः ॥५५॥ गुणाः कुन्द-स्पन्दोड्डमर-समरा दागमृतवा:लव- प्राय प्रेयः प्रसर- सरसा कीर्त्तिरिव सा । नखेन्दु-ज्योत्स्नान्मृ'प-चय-चकोर प्रणयिनी न कासां श्लाघानां पदमजितसेननतिपतिः ||५६ ॥ सकल-भुवनपालानम्रमूर्द्धावबद्धस्फुरित मुकुट-वडालीढ-पादारविन्दः । मदवखिल-बादीभेन्द्र कुम्भ-प्रभेदी गणभृदजित्तसेनो भाति वादीभसिंहः ॥५७॥ चूणि 11 यस्य संसार - वेराग्य- वैभवमेवंविधास्स्ववाचस्सूचयन्ति । प्राप्तं श्रीजिनशासनं त्रिभुवने यदुल्लेभं प्राणिनां यत्संसार-समुद्र-मग्न-जनता - हस्तावलम्बायितं । यत्प्राप्ताः परनिर्व्यपेक्ष सकल-ज्ञान- श्रियालङ्कृतास्तस्मात्किं गहनं कुतो भयकशः कावात्र देहे रतिः ॥ ५८|| आत्मैश्वर्यं विदितमधुना नन्त- बोधादि-रूपं तत्सम्प्राप्त्यै तदनु समयं वर्त्ततेऽत्रैव चेतः । व्यक्तान्यस्मिन्सुरपति-सुखे चक्रि- सौख्ये च तृष्णा तत्तुच्छात्थै रलमलमधी-लोभनल्र्लोकवृत्तेः ॥५९॥ भजानन्नात्मानं सकल-विषय-ज्ञानवपुषं सदा शान्तं स्वान्तःकरणमपि तत्साधनतया ! वही - रागद्वेषः कलुषितमनाः कोऽपि यत्तत्तां कथं जानन्नेनं क्षणमपि ततोऽन्यत्र यतते ||६०|| ( पश्चिममुख ) सूणि ॥ यस्य च शिष्ययोः कविताकान्त-वादिकोलाहलापरनामधेययोः शान्तिनाथपद्मनाम - पण्डितयोरखण्डपाण्डित्यगुणोपवर्णनमिदमसम्पूर्णं ।। त्वामासाद्य महाधियं परिगता या विश्व विद्वज्जनज्येष्ठाराध्य - गुणा चिरेण सरसा वेदग्ध्य-सम्पद्गिरां । कृत्स्नाशान्त-निरन्तरोदित-यशश्श्रीकान्तशान्तेन तां वक्तु सापि सरस्वती प्रभवति ब्रूमः कथन्तद्वयं ॥ ६१॥ ३८० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यावृत्त-भूरि-मद-सन्तति विस्मृतापारुष्यमात-करुणारुति-कान्दिशीक । धावन्ति हन्ति परवादिगजास्त्रसन्त: श्रीपधनाभ-बुध-गन्ध-गजस्य गन्धात् ॥६२॥ दीक्षा च शिक्षा च यतो यतीनां जैनं तपस्तापहरन्दघानात् कुमारसेनोऽवतु यच्चरित्र श्रेयः पथोदाहरण पवित्रम् ||६३॥ जरिम-धस्मर-स्मर मदान-पर-द्विगद्विधाकरण-केसरी-चरण-भूष्य-भूभूच्छिख: । द्वि-षड्गुण-वपुस्तपश्चरण-चण्ड-धामोदयो दयेत मम मल्लिषेण-मलधारिदेवो गुरुः ॥६४|| वन्दे तं मलधारिणं मुनिपति मोह-द्विषद्-व्याहृतिव्यापार-व्यवसाय-सार-हृदयं सत्संयमोरु-श्रियं । यत्कायोपचयीभवन्मलमपि प्रव्यक्त-भक्ति-क्रमानम्राकम्न-मनो-मिलन्मलमषि-प्रक्षालनकक्षम ||६५।। अतुच्छ-तिमिर-च्छटा-जटिल-जन्म-जीर्णाटवी दवानल-तुला-जुषां पृथु-तपः-प्रभाव-त्विषां । पदं पद-पयोरुह-भ्रमित-भव्य-भृङ्गावलिममोल्लसतु मल्लिषेण-मुनिराण्मनो-मन्दिरे ।।६६।। नेमल्याय मला दिलाङ्गमखिल-त्र लोक्य-राज्याधिये नैष्किञ्चन्यमतुच्छ-तापहृदयेन्यञ्चद्भुताशन्तपः | यस्यासी गुण-रत्न-रोहण-गिरिः श्रीमल्लिषेणो गुरुवन्द्यो येन विचित्र-चार-चरितैर्द्धात्री पवित्री-कृता ॥६॥ यस्मिन्नप्रतिमा क्षमाभिरते यस्मिन्दया नियाश्लेषो यत्र-समत्वधीः प्रणयिनी यत्रास्पहा सस्पृहा । कामं निर्वृति-कामुकस्वयमथाप्यग्रेसरो योगिनामाश्चर्याय कथन नाम चरितैश्धीमल्लिषेणो मुनिः ॥६॥ य: पूज्यः पृथिवीतले यमनिशं सन्तस्स्तुवन्त्यादरात् येनानङ्ग-धनुर्जितं मुनिजना यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मादागम-निर्णयो यमभृतां यस्यास्ति जीवे दया यस्मिन्धीमलधारिणि अतिपती धर्मोऽस्ति तस्मै नमः ॥६९|| धवल-सरस-तीर्थ सेष सन्यास-धन्यां परिणतिमनुतिष्ठं नन्दिमा निष्ठितात्मा । पट्टावली : ३८१ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यसृजदनिजमङ्ग भंगमंगोद्भवस्थ प्रथितुमिव समूल भावयन्भावनाभिः ॥७०॥ चूर्णि ॥ तेन श्रीमदजित सेन- पण्डिव-देव- दिव्य- श्रीपाद कमल-मधुकरीभूतभावेन महानुभावेन जैनागमप्रसिद्धसल्लेखना - विधि-विसृज्यमान- देहेन समाधि-विधि-विलोकनोचित-करणकुतूहल- मिलित-सकल-संघ -सन्तोष-निमित्तमात्मान्तःकरणपरिणति प्रकाशनाय निरवद्यं पद्यमिदमाशु विरचितं ॥ आराध्य रत्नत्रयभाग भोक्तं विधाय निश्शल्यमशेषजन्तो: क्षमां च कृत्वा जिनपादमूले देहं परित्यज्य दिवं विशामः ॥ ७१ ॥ शाके शून्य-शराम्बरावनिमिते संवत्सरे कीलके माते फाल्गुनके तृतीयदिवसे वारे सिते भास्करे । स्वाती श्वेत-सरोवरे सुरपुरं यातो यतीनां पतिमध्याह्ने दिवसत्रयानशनतः श्रीमल्लिषेणो मुनिः ॥७२॥ श्रीमन्मलधारि-देवरगुड्डविरुद-लेखक-मदनमहेश्वरं मल्लिनाथ बरेदं विरुद्र - रूवारि-मुख तिलकं गंगाचारि कण्डरसिद प्रशस्तिके प्रथम पद्यमें वर्धमानजिनका स्मरण किया है। अनन्तर सप्तऋद्धिधारी गौतम गणधर मोहरूपी विशाल मल्लके विजेता भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, कुन्दपुष्पकी कान्तिके समान स्वच्छ कीत्तिरश्मियोंसे विभूषित कुन्दकुन्दाचार्य, बादमें 'धूर्जट' की जिल्लाको स्थगित करनेवाले समन्तभद्र, सिंहनन्दी, वादियों के समूहको परास्त करनेवाले एवं छह मास तक 'अथ' शब्दका अर्थ करनेवाले बक्रग्रीव, नवीन स्तोत्रकी रचना करनेवाले वचनन्दी 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रन्थके कर्ता पात्रकेसरी, 'सुमतिसप्तक के कर्ता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कुमारसेनमुनि, पुरुषार्थचतुष्टयके निरूपक - 'चिन्तामणि' ग्रन्थके कर्ता चिन्तामणि कविचूडामणि श्रीवद्ध देव चूडामणि, सत्तर-वादिविजेता तथा ब्रह्मराक्षसके द्वारा पूजित महेश्वरमुनि साहसतुरंग नरेशके सम्मुख हिमशीतल नरेशकी सभा में बौद्धों के विजेता अकलंकदेव, अकलंकके सर्मा -- गुरुभाई पुष्पंसेन, समस्त वादियोंको प्रशमित करनेवाले विमलचन्द्रमुनि, अनेक राजाओं द्वारा वन्दित इन्द्रनन्द, अन्वर्थ नामवाले परवादिमल्लदेव, कायोत्सर्गमुद्रामें तपस्या करनेवाले आर्यदेव श्रुतबिन्दुके कर्ता चन्द्रकीति, कर्म प्रकृतिभट्टारक, पार्श्वनाथचरितके रचयिता वादिराज, उनके गुरु मतिसागर और प्रगुरु श्रीपालदेव, विद्याधनंजय महामुनि हेमसेन, 'रूपसिद्धि' व्याकरणग्रन्थके ३८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा " Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता दयापालमुनि वादिराज द्वारा स्तुत्य श्रीविजय, कमलभद्रमुनि, महासूरि दयापालदेव, विनयादित्य होयसल नरेश द्वारा पूज्य शान्तिदेव, गुणसेन पण्डितपति, स्याद्वादविद्याविद् अजितसेन, स्याद्वादके प्रतिपादक (स्याद्वादसिद्धिकार ) वादी सिंह तथा इनके शिष्य शान्तिनाथ अपरनाम कविताकान्त और पद्मनाम अपरनाम वादि- कोलाहल, यतियोंके दीक्षा- शिक्षादाता कुमारसेन और अजितसेन पण्डितदेवके शिष्य महाप्रभावशाली मल्लिषेण मलवारिका उल्लेख है । प्रशस्ति में आचार्योकी नामावली गुरु-शिष्यपरम्पराके अनुसार नहीं है | अतः पूर्वापर सम्बन्ध और समय-निर्णय में यथेष्ट सहायता इनसे नहीं मिल पाती है । इतना तो अवश्य सिद्ध है कि इस प्रशस्तिसे अनेक आचार्यो और लेखकोंके सम्बन्ध में मौलिक तथ्य इस प्रकारके उपलब्ध होते हैं, जिनसे उनका प्रामाणिक इतिवृत्त तैयार किया जाता है। देवकीर्ति - पट्टावलिः ( शक संवत् १०८५ ) श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तम रत्नवर्गः श्री गौतमाद्याः प्रभविष्णवस्ते तत्राम्बुधौ सप्तमद्धियुक्तास्तत्सन्ततौ बोधनिधिर्बभूव ||१|| [ श्री ] भद्रस्ससर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतकेच लिनायेषु चरमपरमो मुनिः ॥ २ ॥ चन्द्र-प्रकाशोज्वल-सान्द्र-कोत्तिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः । यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनोनां ॥३॥ तस्यान्वये भू-विदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत चारणद्विः ||४|| अभुदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्य शब्दोतरपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिक शेष पदार्थ - वेदी ||५|| श्री पच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽनिष्ट भुवनत्रयवर्तिकीतिः । चारित्रचञ्चूर खिलावनिपाल- मोलिमाला-शिलीमुख-विराजितपादपद्मः ॥६॥ एवं महाचार्य - परम्परायां स्यात्कारमुद्राङ्कित तत्त्वदीपः । भद्रस्समन्ताद् गुणतो गणोशस्समन्तभद्रोऽजनि वादिसिंहः ॥७॥ ततः || १. जैन शिलालेखसंग्रह, अभिलेख संख्या ४० । पट्टावली २८३ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्पा स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभियंत्पूजितं पाद-युगं यदीयं ॥८॥ जैनेन्द्र निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदामारव्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गण: ॥९॥ ततश्च ।। (पश्चिममुख) अजनिष्टाकलङ्घ यज्जिनशासनमादितः । अकलङ्क बभौ येन सोऽकलको महामतिः ॥१०॥ इत्याधुद्धमुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलसंधे ततो जाते नन्दिगण-प्रभेदविलसद्दे शीगणे विश्रुते । गोल्लाचार्य इति प्रसिद्ध-मुनिपोऽभूद्गोल्लदेशाधिपः पूर्व केन च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्सुधीः ॥११॥ श्रीमत्त्रकाल्ययोगी समजनि महिका काय-लग्ना तनुत्र यस्याभूदृष्टि-धारा निशित-शर-गणा ग्रीष्ममार्तण्डबिम्बं । चक्र सद्वृत्तचापाकलित-यति-वरस्याघशत्र विजेतु गोल्लाचार्यस्य शिष्यस्स जयतु भुवने भव्यसत्कैरवेन्दुः ॥१४॥ तच्छिध्यस्य ॥ अविद्धकर्नादिकपअनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेव-वृतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तु सो ज्ञान-निधिस्सुधीरः ॥१५॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्यपतिपश्चारित्रवारानिधिस्सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतबिनेयस्तत्सधम्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्कर: प्रथिततक्र्कग्रन्थकार: प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराज-पण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः ॥१६॥ तस्य श्रीकुलभूषणाख्यसुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुतस्सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेवमुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः । तच्छिष्योऽजनि माघनन्दिमुनिपः कोल्लापुरे तीर्थ कृद्राद्धान्तारानवपारगोऽचलधृतिश्चारित्रचक्र श्वरः ॥१७॥ एले मावि बनवजदि तिलिगोल माणियदि मण्डनावलिताराधिपनि नभं शुभदमा गिप्पन्तिरितुनि मलबीगल कुलचन्द्रदेवचरणाम्भोजातसेवाबिनि३८४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आघायपरम्परा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमवत्कुत्कील-मुक्ताफल-तरलतरत्तार-हारेन्दुकुन्दोपमकोत्ति-व्याप्तदिग्मण्डलनवनत-भू-मण्डल भव्य-पद्योग्र-मरीचीमण्डलं पण्डित-तति-विनतं माघनन्द्याख्यवाचं यमिराज वाग्वधूटीनिटिलतटहटन्ननसद्रलप...||१९॥ ....."त मद-रदनिकुलम भदि निम् दिसल्के "सरिसेनि वरसंयमाधिचन्द्रं घरेयोल् माघनन्दि-सैद्धान्तेश ॥२०॥ सच्छिष्यस्य ____ अवर गुड्डुगलु सामान्तकेदारनाकरस दानश्रेयांस सामन्त निम्बदेव जगदोबंगण्ड सामन्तकामदेव ।। (उत्तरमुख) गुरुसैद्धान्तिकमाघनन्दिमुनिपं श्रीमच्चमूवल्लभ मरस छपिन रसास्मानगिल श्रीमानकोतिप्रभास्फुरितालङ्कृत-देवकीति-मुनिपश्शिष्यजगन्मण्डनहरिय' गण्डविमुक्तदेवनिनगिन्नीनामसैद्धान्तिकर् ॥२१॥ क्षीरोदादिच चन्द्रमा मणिरिव प्रख्यात रत्नाकरात् सिद्धान्तेश्वरमाधनन्दियमिनो जातो अगन्मण्डनः । चारित्रं कनिधानधामसुविनम्रो दीपचत्तीं स्वयं श्रीमद्गण्डविमुक्तदेवयतिपस्सैद्धान्तचक्राधिपः पा२२। अवर सधर्मर । आवो बादिकथात्रयप्रवणदोल् विद्वज्जन मेच्चे विद्यावष्टम्भनप्पुकेय्दु परवादिक्षोणिमृत्पक्षमं । देवेन्द्रं कडिवन्ददि कडिदेले स्याद्वादविद्यादि विद्यश्रुतकीत्तिदिव्यमुनिवोल् विख्यातियं ताल्दिदों ॥२३॥ श्रुतकीति-त्र विद्य प्रति राघवपाण्डवीय विभु (बु) धचमस्कृसियेनिसि गत प्रत्यागत्तदि पेल्दमलकीत्तियं प्रकटि सिदं ॥२४॥ अवरग्रजर।। यो बौद्धक्षितिभृत्करालकुलिशश्चा कमेघान (नि) ली मीमांसा-मत-त्ति वादि-मदवन्मातङ्ग-कण्ठीरवः ।। स्यावादाब्धि-शरत्समुद्गतसुधा-शोचिस्समस्तैस्स्तुस्स श्रीमान्भुवि भासते कनकनन्दि-ख्यात-योगीश्वरः ।।२५॥ पट्टाक्ली : ३८५ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेताली मुकूलीकृताञ्जलिपूटा संसेवते यस्पदे झोट्टिङ्गः प्रतिहारको निवसति द्वारे च यस्यान्तिके ! येन क्रीडति सन्ततं भूततपोलक्ष्मीर्यश (6) श्रीप्रियस्सोऽयं शुम्भति देवचन्द्रमुनिपो भट्टारकोघाग्रणीः ॥२६॥ अवर सधर्माधिनन्दि विद्य-देवरु-विद्याचक्रवत्ति-श्रीमदेवकीति-पण्डितदेवर शिष्यरु श्रीशुभचन्द्र विद्यदेवरु गण्डविमुक्तवादि चतुम्मुख-रामचन्द्र विद्यदेवरं वादिवज्राकुश-श्रीमदकलत्र विद्यदेवरुमापरमेश्वरन-गुड्डुगलु माणिक्यभण्डारि भरियाने दण्डनायकरु श्रीमन्महाप्रधानं सर्वाधिकारिपिरियदण्डनायकंभरतिमयङ्गलु' श्रीकरणद हेगडे बूचिमयालु जगदेकदानि हेग्गडे कोरय्यनु ।। अकल-पितृ-वाजि-वंश-तिलक-श्री-यक्षराजं निजाम्बिके लोकाम्बिके लोक-वन्दिते सुशीलाचारे दैवं दिवीश-कदम्ब-स्तुतु-पाद-पानरुहं नाथं यदुक्षोणिपालक-चूडामणि नारसिङ्गनेनलेन्नोम्पुल्लनोहुल्लपं ॥२७॥ श्रीमन्महाप्रघानं सर्वाधिकारे हिरियभण्डारि अभिनवगङ्गदण्डनायक-श्री. हुल्लराजं तम्म गुरुगलम्पनीकोण्डकुन्दान्वयद श्रीमूलसंङ्घद देशियगणद पुस्तकगच्छद श्रीकोलापुरद औल्पनारायणः जसस्यि प्रतिमा श्रीमत्केल्लङ्गेरेय प्रतापपुरवं पुनमरणवं माडिसि जिननाथपुरदलु कल्ल दानशालेयं माडिसिद श्रीमन्महामण्डलाचार्यदेवकोतिपण्डितदेवगर्गे परोक्षविनयवागि निशिदियं माहिसिद अबर शिष्यर्लक्खणन्दि-माधवत्रिभुवनदेवमहादान पूजाभिषेक-माडि प्रतिष्ठेयं माडिदरु मङ्गलमहा श्री श्री श्री इस अभिलेखमें गौतम गणधरसे लगाकर मुनिदेवकीत्ति पण्डितदेवतक आचार्य-परम्परा दी गई है । इस पट्टावलिमें गौतम स्वामी, भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त, कोण्डुकुन्द-पद्मनन्दि प्रथम, गृपिच्छाचार्य, बलापिच्छ, वादिसिंह समन्तभद्र, पूज्यपाद-देवनन्दि प्रथम, अकलङ्क, गोल्लाचार्य, काल्ययोगी, अविद्धकर्ण-पद्मनन्दि ( कौमारदेव )। उनके दो शिष्य कुलभूषण और प्रभाचन्द्र, कुलभूषणकी परम्परामें कुलचन्द्रदेव, माघनन्दि मुनि (कोल्लापुरीय), गण्डविमुक्तदेव । गण्ड. विमुक्तदेवके दो शिष्य भानुकोत्ति और देवकीत्तिके नाम आये हैं । देवकीसिका समाधिमरण शक सं० १०८५में हुआ है। इस अभिलेखमें कनकनन्दि और देवचन्द्रके भ्राता श्रुतकीत्ति त्रैवेद्य मुनिकी प्रशंसा की गई है। इन्होंने देवेन्द्र सदृश विपक्ष-वादियोंको पराजित किया और एक चमत्कारी काव्य 'राघवपाण्डवीय' की रचना की। यह कृति आदिसे अन्त और अन्तसे आदिको ओर पढ़ी जा ३.८६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती है। श्रुतकीत्तिकी प्रशंसा नागचन्द्रकृत रामचन्द्रचरितपुराण ( पम्प रामायणके प्रथम आश्वासमें चौबीस-पच्चीसवें पद्योंमें ) भी अङ्कित है। इस काव्यको रचना शक सं० २०२२के लगभग हुई है। प्रतापपुरकी रूपनारायण वस्तिका जीर्णोद्धार और जिननाथपुरमें एक दानशालका निर्माण करोतले महागलामा पनि पण्डितदेवके स्वर्गवास होने पर यादववंशी नारसिंह नरेशके मंत्री हुल्लप्पने निषद्याका निर्माण कराया, जिसकी प्रतिष्ठा देवकीत्ति आचार्यके शिष्य लक्लनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने दानसहित की। __ इस अभिलेखमें तीन बातें बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। पहली बात तो यह है कि इसमें गौतम गणधरकी परम्परामें भद्रबाहु और भद्रबाहके अन्वयमें चन्द्रगुप्तका उल्लेख आया है। तथा चन्द्रगुप्तके अन्वयमें कोण्डुकुन्द (कुन्दकुन्द) का कथन है ! नन्दिसंघकी पट्टापलिमें भद्रबाहु, गुप्तिगुप्त, माघनन्दि, जिनचन्द्र और इसके पश्चात् कोण्डुकुन्दका नाम आया है। इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके अनुसार कोण्डुकुन्द आचार्योंमें हुए हैं, जिन्होंने अङ्गज्ञानके लोप होनेके पश्चात् आगमज्ञानको ग्रन्धबद्ध किया । ___ मूलसङ्घके अन्तर्गत नन्दिगणमें जो देशोगणप्रभेद हुआ, उसमें गोल्लदेशाधिपके आचार्य गोल्लाचार्य हुए हैं और इन्हींको परम्परामें देवकीत्तिका जन्म हुआ है। नयकीर्ति-पट्टावलि ( शक सं० १०८९) श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गाः श्रीगौतमाद्याः प्रभविष्णवस्ते । तत्राम्बुधौ सप्तमहद्धि-युक्तास्तत्सन्ततौ नन्दिगणे बभूव ||३|| श्रीपचनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारणद्धिः ||४|| अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्य-शब्दोत्तरगृपिच्छः । तदन्वये तत्सहसो (शो)ऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थ-वेदी ।।५।। श्रीगृपिञ्च्छ-मुनिपस्य बलाकपिच्छ: शिष्योऽप्यनिष्ट भुवनत्रय-ति-कीतिः । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलि . माला-शिलीमुख-विराजित-पाद-पपः ।।६।। १. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ४२ । पट्टावली : ३८७ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्छिष्यो गुणनन्दि-पण्डित्तयतिश्चारित्रचक्र श्वर. स्तर्क व्याकरणादि-शास्त्र-निपुणस्साहित्य-विद्यापतिः । मिथ्यावादिमदान्ध-सिन्धुर-घटासङ्घट्टकण्ठीरवो भव्याम्भोज-दिवाकरो विजयतां कन्दर्प-दापिहः ॥७॥ तच्छिष्यामिशता विशेषानिए रामगिरहनास्तेषत्कृष्टतमाः द्विसप्ततिमितास्सिद्धान्त-शास्त्रार्थकव्याख्याने पटवो विचित्र-चरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनि नानून-नय-प्रमाणनिपुणो देवेन्द्र-सैद्धान्तिकः ।।८।। अनि महिपचूडा-रत्नराराजिसाध्रि विजित-मकरकेतुद्दण्ड-दोईण्ड-गर्वः । कुनय-निकर-भूद्घानीक दम्भोलि दण्ड स्स जयतु विबुधेन्द्रो भारती-भाल-पट्टः ।।९।। तच्छिष्यः कलधौतनन्दिमुनिपस्सिद्धान्तचक्रेश्वरः पारावार-परीत-धारिणि कुलव्याप्तोरुकीर्तीश्वरः । पञ्चाक्षोन्मद-कुम्भि-कुम्भ-दलन-प्रोन्मुक्त-मुक्ताफलप्रांशु-प्राञ्चितकेसरी बुधनुतो वाक्कामिनी-दल्लभः ॥१०॥ अवर्गे रविचन्द्र-सिद्धान्तविदर्सम्पूर्णचन्द्रसिद्धान्तमुनिप्रवरखरवगर्गे शिष्यप्रवर श्रीदामनन्दि-सन्मुनि-पसिगल् ॥११॥ बोधित-भव्यरस्त-मदनर्माद-वजित-शुद्ध-मानसर् श्रीधरदेवरेम्बररर्गन-तनुभवरादरा यशश्रीधरर्वाद शिष्यरवरोल नेगल्दर्मलधारिदेवरु श्रीधरदेवरु नत-नरेन्द्र-ति (कि) रीट-तटाच्चितक्रमर् ||१२|| आनम्नावनिपाल-जालकशिरो-रल-प्रभा-मासुरश्रीपादाम्बुरुह-यो वर-तपोलक्ष्मीमनोरञ्जन: । मोह-व्यूह महीध-दुर्वर-पविः सच्छोलशालिजगख्यातश्रीधरदेव एष मुनिपो भामाति भूमण्डले ॥१३॥ तच्छिष्य || भव्याम्भोरुह-पण्ड-चण्ड-किरणः कपूर-हार-स्फुर कोतिश्रीषवलीकृताखिलदिशाचक्रश्चरित्रोन्नतः । (दक्षिणमुख) भाति श्रीजिन-पुङ्गव-प्रवचनाम्भोराशि-राका-शशी भूमौ विश्रुत-माधनन्दिमुनिपस्सिद्धान्तचक्र श्वरः ॥१४॥ 1८८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्छिष्यर् ॥ सच्छीलश् शरदिन्दु-कुन्द-विशदं-प्रोचद्यश-श्रीपतिदर्यदर्पक-दर्प-दाव-दहन-ज्वालालि-कालाम्बुदः । श्रीजेनेन्द्र-वचः पयोनिधि-शरत्सम्पूर्ण-चन्द्रः क्षिती भाति श्रीगणचन्द्र-देव-मुनियो राद्धान्त-चक्राधिपः ॥१५॥ तत्सधर्मर ॥ उद्भूते नुत-मेघचन्द्र-शशिनि प्रोद्यद्यशश्चन्द्रिके संवत तदस्तु नाम नितरां सद्धान्त-रत्नाकरः । चित्रं तावदिद' पयोधि-परिधि-क्षोणी समुद्रीक्ष्यते नागात्र विजम्मते मरत-शास्त्राम्मोजिमी सन्तत ॥१६॥ तत्सवमर् ॥ चन्द्र इव धवल-कीतिर्द्धवलीकुरुते समस्त-भुक्नं यस्य तच्चन्द्रकोत्तिसश-भट्टारक-चक्रवत्तिनोऽस्य विभाति ।।१७।। तत्सधर्मर ॥ नैयायिकेभ-सिंहो मीमांसकतिमिर-निकरनिरसन-तपनः । बौद्ध-वन-दाव-दहनोजयति महानुदयचन्द्रपण्डितदेवः ।।१८॥ सिद्धान्त-चक्रवर्ती श्रीगुणचन्द्रव्रतीश्वरस्य बभूव श्रीनयकीत्तिमुनीन्द्रों जिनपति-गदिताखिलार्थवेदी शिष्यः ॥१९|| स्वस्त्यनवरत-विनत-महिप-मुकुट-मौक्तिक-मयूख-माला-सरोमण्डनीभूत-चारचरणार-विन्दरु। भव्यजन-हृदयानन्दरूं। कोण्डकुन्दान्वय-गगन-मार्तण्डरु। लीला-मात्र-विधितोच्चण्ड-कुसुमकाण्डरूं । देशीय-गण-गजेन्द्र-सान्द्र-मद-धारावभासरूं । वितरणविलासरूं । श्रीमद्गुणचन्द्र-सिद्धान्त-चक्रवत्ति-चारुतर-चरण सरसीरुह-षट्चरणरूं । अशेष-दोषदुरीकरणपरिणतान्तःकरणरुमप्प श्रीमन्नयकोत्ति-सिद्धान्त-चक्रवत्ति गले-न्तप्परेन्दडे ॥ साहित्य-प्रमदा-मुखाब्जमुकुरश्चारित्र-चूडामणिश्रीजैनागम-वाद्धि-वर्चन-सुधाशोचिस्समुद्भासते। यश्शल्य-त्रय-गारव-त्रय-लसण्ड-त्रय-ध्वंसकस्स श्रीमान्नयकोत्ति देवमुनिपस्सैद्धान्तिकासरः ॥२०॥ माणिक्यनन्दिमुनिपः श्रीनयकात्तिवतीश्वरस्य सधर्मः। गुणचन्द्रदेवतनयो राक्षान्त-पयोधि-पारगो मुवि भाति ॥२॥ हार-क्षीर-हराहास-हलभृत्कुन्देन्दु-मन्दाकिनी कर्पूर-स्फटिक-स्फुरद्वरयशो-धौतत्रिलोकोदरः । पट्टाक्ली : ३८९ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चण्ड-स्मर-भूरि-भूधरपविः ख्यातो बभूव क्षिती स श्रीमान्नयकोत्ति देवमुनिपस्सिद्धान्तचक्रेश्वरः ॥२२॥ शाके रन्ध्रनवर्धचन्द्र-शिष्टुभ्याच संवत्सरे वैशाखे धवले चतुर्दशदिने वारे च सूर्यात्मजे । पूर्जा प्रहरे गतेऽसहिते स्वर्ग जगामात्मवान् विख्यातो नयकीत्ति-देव-मुनिपो राद्धान्तचक्राधिपः ।।२३।। श्रीमज्जैन-वचोब्धि-वर्द्धन-विधुस्साहित्यविद्यानिधिस् ( पश्चिम मुख) सर्पद्दपक-हस्ति-मस्तक-लुठत्प्रोत्कण्ठ-कण्ठीरवः । स श्रीमान् गुणचन्द्रदेवत्तनयस्सोजन्यजन्यावनि स्थेयात् श्रीनयकोत्ति देवमुनिपस्सिद्धान्तचक्र श्वरः ॥२४॥ गुरुवादं वचराधिपंगे बलिगं दानक्के बिपिंगे तां गुरुवाद सुर-भूधरपके नेगल्दा कैलास-शैलक्के तां । गुरुवाद विनुतंगे राजिसुविरुङ्गोलभे लोकक्के सद् गुरुवादं नयकीत्ति देवमुनिपं राद्धान्त-चक्राधिपं ॥५॥ तच्छिष्यर् ।। हिमकर-शरदम्र-क्षीर-कल्लोल-बाल-स्फटिक-सित-यश-श्रीशुभ-दिक् चकवाल: । मदन-भद-तिमिस्र-ग्रणितीनांशुमाली जयति निखिल-वन्द्यो मेघचन्द्रः व्रतीन्द्रः ॥२६॥ तत्सधर्मर् । कन्दपहिबकर्षातोद्धरतनुत्राणोपमोरस्थली चञ्चद्भरमला विनेय-जनता-नीरेजिनी-मानवः । स्यक्ताशेष-बहिब्दिकल्प-निचयाश्चारित्र-चक्र श्वरः शुम्भन्त्यण्णितटाक-वासि-मलधारि-स्वामिनो भूतले ॥२७॥ तत्सघर्मर्॥ षट्-कर्म-विषय-मन्त्र नानाविध-रोग-हारि-वेद्ये च । जगदेकसूरिरेष श्रीधरदेवो बभूव जगति प्रवणः ॥२८॥ सत्सघर्मर् ॥ तपर्क-व्याकरणागम-साहित्य-प्रभृति-सकल शास्त्रात्य॑ज्ञः । विख्यात-दामनन्दि-विद्य-मुनीश्वरो-घराग्ने जयति ॥२९॥ १९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी भाचार्यपरम्परा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमज्जैनमताजिनीदिनकरो नैय्यायिकाम्रानिलश्चार्वाकाबनिभृत्करालकुलिशो बोद्धाब्धिकुम्भोद्भवः । यो मीमांसकगन्धसिन्धुरशिरोनिर्भेदकण्ठीरवसंविद्योत्तमदामनन्दिमुनिपस्सोऽयं भुवि भ्राजते ॥३०॥ तत्सधर्मर ॥ दुग्धाब्धि-स्फटिकेन्दु-कुन्द-कुमुद-व्याभासि-कोतिप्रियस्सिद्धान्तोदधि-वर्द्धनामृतकर: पारात्थर्य-रत्नाकरः। ख्यात-श्री-नयकीत्तिदेवमुनिपश्रीपाद-पम-प्रियो भात्यस्मा 'भुति भानुकोत्ति-मुनिएपिसज्ञानाननाभिपः ॥२१!! उरगेन्द्र-क्षीर-नीराकर-रजत-गिरि-श्रीसितच्छत्र-गङ्गाहरहासैरावतेम-स्फटिक-वृषभ-शुभ्राम्रनीहार-हारामर-राज-श्वेत-पकेरुह-हलधर-वाक्-शव-हंसेन्दु कुन्दो करचञ्चत्कीतिकान्तं धेरयोलेसेदनी भानुकोत्ति-प्रतीन्द्रं ॥३२॥ तत्सधमर् ।। सद्वृत्ताकृति-शोभिताखिलकला-पूर्ण-स्मर-ध्वंसकः शश्वद्विश्व-वियोगि-हृत्सुखकर-श्रीबालचन्द्रो मुनिः । वक्र णोन-कलेन-काम-सुहृदा चञ्चद्वियोगिद्विषा लोकेस्मिन्नुवमीयते कथमसौ तेनाथ बालेन्दुना ॥३३॥ उच्चण्ड-मदन-मद-गज-निर्भेद-पटुतर-प्रताप-मृगेन्द्रः भव्य कुमुदौध-विकसन-चन्द्रो भुवि भाति बालचन्द्रः मुनीन्द्रः ॥३४॥ ताराद्रि-क्षीरपूर-स्फटिक-सुर-सरितारहारेन्दु-कुम्दश्वेत्तोद्यत्कीति-लक्ष्मी-प्रसर-धवलित्ताशेषदिक्-चक्रवालः | श्रीमत्सिद्धान्त-चक्रेश्वर-नुत-नयकीति-न्नतीशाद्मिभक्तः (उत्तरमुख) श्रीमान्भट्टारकेशो जगति विजयते मेधचन्द्र-वतीन्द्रः ॥३५|| गाम्भीर्ये मकराकरो वितरणे कल्पद्रुमस्तेजसि प्रोच्चण्ड-धुमणि: कलास्वपि शशी घेचे पुनर्मन्दरः । सोवा-परिपूर्ण-निर्मल-यशो-लक्ष्मी-मनो-रजनो भात्यस्यां भुवि माघनन्दिमुनिपो भट्टारकाग्रेसरः ॥३६॥ वसुपूर्णसमस्ताशः क्षितिचक्र विराजते । चञ्चत्कुवलयानन्द-प्रभाचन्द्रो मुनीश्वरः ॥३७॥ पट्टायली : ३९१ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्सधभर ॥ उच्चण्डग्रहकोटयो नियमितास्तिष्ठन्ति येन क्षिती यद्वाग्जातसुधारसोऽखिलबिषव्युच्छेदकश्शोभते । यत्तन्त्रोद्धविधिः समस्तजनतारोग्याय संवत्तते सोऽयं शुम्भति पमनन्दिमुनिनाथो मन्त्रवादीश्वरः ।। ३८॥ तस्सधमर् ॥ चञ्चच्चन्द्र-मरीचि-शारद-धन-क्षीराब्धि-ताराचलप्रोद्यत्कीति-विकास-पाण्डुर-तर-ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरः । वाक्कान्ता-कठिन-स्तन-द्वय-तटी-हारो गभीरस्थिरं सोऽयं सन्नुत-नेमिचन्द्र-मुनिपो विभ्राजते भूतले ॥३९॥ भण्डाराधिकृतः समस्त-सचिवाधीशो जगद्विश्रुतश्रीहुल्लो नयीत्तिदेव-मुनि-पादाम्भोज-युग्मप्रियः । कीत्ति-श्री-निलयः परात्थं चरितो नित्यं विभाति क्षिती सोऽयं श्रीजिनधर्म-रक्षणकरः सम्यक्त्व-रत्नाकरः ॥४०॥ श्रीमच्छ्रीकरणाधिपस्सचिवनाथो विश्व-विविधिश्चातुर्वर्ण-महानदान-करणोत्साही शिनी शोभते। श्रीनीलो जिन-धर्म-निर्मल-मनास्साहित्य-विद्याप्रियसौजन्यंक-निधिश्शशाङ्कविशद-प्रोद्यधश-श्रीपतिः ।।४।। आराध्यो जिनपो गुरुश्च नयकीत्ति-ख्यात-योगीश्वरो जोगाम्बा जननी तु यस्य जनक (6) श्रीबम्बदेवो विभुः । श्रीमत्कामलता-सुता-पुरपतिश्रीमल्लिनाथस्सुतो भात्यस्यां भुवि नागदेव-सचिवश्चण्डाम्बिकावल्लभः ।।४।। सुरसाज-शरदिन्दु-प्रस्फुरत्कीर्तिशुभ्री भवदखिल-दिगन्तो-वाग्वधू-चित्तकान्तः । बुध-निधि-नयकीत्ति-स्यात-योगीन्द्र-पादाम्बुज-युगकृत्त-सेवः शोभते नागदेव: ॥४३|| ख्यातश्रीनयकीर्तिदेवमुनिनाथानां पयः प्रोल्लसकीर्तीनां परमं परोक्ष-विनयं कर्तुं निषध्यालये । भक्त्याकारयदाशशङ्क-दिनकृत्तारं स्थिरं स्थायिनं श्रीनागस्सचिवोत्तमो निजयशधीशुभ्रदिग्मण्डल: ॥४४॥ इस अभिलेखमें नागदेव मंत्री द्वारा अपने गुरु श्रीनयकीति श्रीयोगीन्द्रदेव की निषद्या-निर्माण कराये जानेका उल्लेख है। नयकोत्ति मुनिका स्वर्गवास शः ३९२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A सं० १०९९ वैशाख शुक्ला चतुर्दशीको हुआ था । इन नयकीति योगीन्द्रदेवकी विस्तृत गुरुपरम्परा इस अभिलेखमें आयी है । बताया है— T पद्मनन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामि-गृघ्रपिच्छाचार्य, बलाकपिच्छ, गुणमन्दि, देवेन्द्र सैद्धान्तिक, कलधौतनन्दि, रविचन्द्र अपरनाम सम्पूर्णचन्द्र दामनन्दि मुनि, श्रीधरदेव, मलवारिदेव, श्रीधरदेव, माघनन्दिमुनि, गुणचन्द्रमुनि, मेषचन्द्र, चन्द्रकीर्ति भट्टारक और उदयचन्द्र पण्डितदेव हुए। नयकीर्ति गुणचन्द्र मुनिके शिष्य थे और उनके सधर्मा गुणचन्द्रमुनिके पुत्र माणिक्यनन्दि थे । उनकी शिष्यमण्डलीमें मेषचन्द्र व्रतीन्द्र, भलधारिस्वामि, श्रीधरदेव, दामनन्दित्र विद्य, भानुकीति मुनि, बालचन्द्रमुनि, माधनन्दिमुनि, प्रभाचन्द्र मुनि, पद्मनन्दि मुनि और नेमिचन्द्र मुनि थे । इस अभिलेखमें नन्दिगण कुन्दकुन्दान्वयकी परम्परा अङ्कित की गई है । प्रथम शुभचन्द्रकी गुर्वावली श्रीमान शेषन रनायक - वन्दिता-धीः श्रीगुप्तिगुप्त ( १ ) इति विश्रुत-नामधेयः । यो भद्रबाहु (२) मुनिपुंगव पट्टपद्मः सूर्य्यः स वो दिशतु निम्मलसंघवृद्धिम् ॥ १॥ श्रीमूल संघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः । तत्राऽभवत्पूर्व पदांशवेदी श्रीमाघनन्दी (३) नर-देव- चन्द्यः ॥२॥ पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादिचन्द्र (४) स्समभूदतन्त्रःततोऽभवत्पञ्चसुनामधाम श्रीपद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती ॥३॥ आचारः कुन्दकुन्दाख्यो (५) वकनीवो महामुनिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छः पद्मनन्दीति तन्तुतिः ॥ ४॥ तत्वार्थ सूत्रकतत्व-प्रकटीकृतसन्मनाः । उमास्वाति (६) पदाचार्यो मिथ्यात्वतिमिरांशुमान् ||५|| लोहाचार्य (७) स्ततो जातो जातरूपधरोऽमरेः । सेवनीयः समस्ताऽर्थंविबोधनविशारदः ||६|| ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात् । तेषां यतीश्वराणां स्युर्नामानीमानि तत्त्वतः ||७|| यशःकीर्ति (८) शोनन्दी ( ९ ) देवनन्दी (१०) महामतिः । पूज्यपादः पराख्येयो गुणनन्दी (११) गुणाकरः ||८|| वचनन्दी (१२) वज्रवृत्तिस्तार्किकाणां महेश्वरः । कुमारनन्दी (१३) लोकेन्दुः (१४) प्रभाचन्द्रो (१५) वचोनिधिः ||९|| पट्टावली : ३९३ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिचन्द्रो (१६) भानुनन्दी (१७) सिंहनन्दी १८) जटाधरः । वसुनन्दी (१९) वीरनन्दी (२०) रत्लनन्दी (२१) रतीमित् ॥१०॥ माणिक्यनन्दी (२२) मेघेन्दुः (२३) शान्तिकीत्ति (२४) महायशाः। मेरुकीत्ति (२५) महाकोति (२६) विश्वनन्दी (२७) विदाम्बरः ॥११॥ श्रीभषणः ।२८) शीलचन्द्रः (२९) श्रीनन्दी (३०) देशभूषण: (३१) । अनन्तकीर्ति (३२) मि दिनमी (३१) ममी क सा विद्यानन्दी (३४) रामचन्द्रो (३५) रामकीर्ति (३६) रनिन्धावाक् । अभयेन्दु (३७) रचन्द्रो (३८) नागचन्द्रः (३९) स्थिरततः ॥१३|| नयनन्दी (४०) हरिश्चन्द्रो (४१) महीचन्द्रो (४२) मलोज्झितः । माधवेन्दु (४३) लक्ष्मीचन्द्रो (४४) गुणकीर्ति (४५) गुणाश्रयः ।।१४|| गुणचन्द्रो (४६) वासवेन्दु (४७) लोकचन्द्र: (४८) स्वतत्त्ववित् । विद्यः श्रुतकीख्यिो (४९) वैयाकरण: भास्करः ॥१५॥ भानुचन्द्रो (५०) महाचन्द्रो (५१) माघचन्द्रः (५२) क्रियागुणीः । ब्रह्मनन्दी (५३) शिवनन्दी (५४) विश्वचन्द्रः (५५) स्तपोधनः ॥१६।। सैद्धान्तिको हरिनन्दी (५६) भावनन्दी (५७) मुनीश्वरः । सुरकोत्ति (५८) विद्याचन्द्रः (५९) सुरचन्द्रः (६०) श्रियांनिधिः ।।१७॥ माघनन्दी (६१) ज्ञाननन्दी (६२) गङ्गनन्दी (६३) महत्तमः । सिंहकीत्ति (६४) हेमकीत्ति (६५) श्चारुनन्दी (६६) मनोज्ञधी: ॥१८॥ नेमिनन्दी (६७) नाभिकीत्ति (६८) नरेन्द्रादि (६९) यशःपरम् । श्रीचन्द्र: (७०) पद्मकीतिश्च (७१) वर्द्धमानो (७२) मुनीश्वरः ॥११॥ अकलङ्क (७३) श्चन्द्रगुरुर्ललितकीति (७४) रुत्तमः । विद्यः केशवश्चन्द्र (७५) श्चारुकीत्तिः (७६) सुधार्मिकः ॥२०॥ सैद्धान्तिकोऽभयकीति (७७) वनवासी महातपाः | बसन्तकीत्ति (७८) व्याघ्राहिसेवितः शीलसागर: ।।२१॥ तस्य श्रीवनवासिनस्त्रिभुवन प्रख्यात(७९) कीर्तेरभूत् । शिष्योऽनेकगणालयः सम-यम-ध्यानापगासागरः । बादीन्द्रः परवादि-वारणमण-प्रागल्भविद्रावणः । सिंहः श्रीमति मण्डयेति विदितस्र विद्यविद्यास्पदम् ॥२२॥ विशालकीत्ति (८०) बरवृत्तमूत्तिस्तपोमहात्मा शुभकीत्ति (८१) देवः । एकान्तराधुन सपोविधाना खातेव सन्मार्गविधैविधाने ।।२३।। धीधर्म (८२) चन्द्रोनि तस्य पट्टे हमीरभूपालसमचनीयः । सैद्धान्तिकः संग्रमसिन्धुचन्द्र: प्रख्यातमाहात्म्यकृतावतारः ॥२४॥ ३९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पट्टेऽजनि रत्नकीर्ति (७३) रनघः स्याद्वादविद्यांबुधिः । नानादेश- विवृत्तशिष्य निवहः प्राच्यांघ्रियुग्मो गुरुः ।। धर्माधर्मकथासुरक्त धिषणः पापप्रभाबाधको बालब्रह्म तपःप्रभावमहितः कारुण्यपूर्णाशयः ॥ २५॥ अस्ति स्वस्तिसमस्त सङ्घतिलकः श्रीनन्दिसंघोऽतुलो गच्छस्तत्र विशालकीर्तिकलितः सारस्वतीयः परः || तत्र श्रीशुभकीर्तिमहिमा व्याप्ताम्बरः सन्मतिः । जीयादिन्दुसमीरितः श्रीरतकी ||२६|| पट्टे श्रीरत्नकीत्तिरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रः 1 व्याख्याविख्यात कीर्तिगणगणनिधिपः सत्क्रियाचारुचचुः ॥ श्रीमानानन्दवामप्रतिबुधनुतमामान संदायिवाद ! जीयादा चन्द्रतारं नरपतिविदितः श्रीप्रभाचन्द्र (८४) देवः ||२७|| श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रपट्ट शश्वत् प्रतिष्ठाप्रतिभागरिष्टः । विशुद्धसिद्धान्त रहस्य रत्नरत्नाकरो नन्दतु पद्मनन्दी (८५) ॥२८॥ हंसो ज्ञानमरालिका समसमाश्लेषप्रभूताद्भूता नन्दक्रीड़ति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्वतः ॥ स्याद्वादामृतसिन्धुवर्द्धनविधौ श्रीमत्प्रमेन्दुप्रभाः पट्टसूरिमतमल्लिका स जयतात् श्रीपद्मनन्दी मुनिः ||२९|| महाव्रतपुरन्दरः प्रशमदग्धरागाङ्कुरः स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिरशेषशास्त्रार्थवित् ॥ यशोभरमनोहरीकृतसमस्तविश्वम्भरः परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ||३०|| पद्मनन्दिमुनीन्द्रेण वंश-वाणी - वसुन्धरा सन्नयासपदवीन्यास पादन्यासेः पवित्रिता ॥३१॥ श्रीपद्मनन्दिपदपज भानुरुद्धो जम्यो जिताद्भुतमदो विदितार्थबोध: ।। ध्वस्तान्धकारनिकटो जयतान्महात्मा भट्टारकः सकलकीत्तिरतिप्रसिद्धः (८६ ) ||३२|| सुयति भुवनकोति (८७) स्तत्पदाब्जाकंमूत्तिः परमतपसि निष्ठः प्राप्तसर्वप्रतिष्ठ: 1 मुनिगणनुतपादो निर्जितानेकवादः स्ववतु सकलसङ्खान् नाशिताऽनेकविध्नान् ॥३३॥ पट्टावली ३९५ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रो पुष्पज्ञानकररतपोभवर नानान्यावरी यतीश्वतरो वादीन्द्रभूभृत्वसरुः । तत्पट्टोन्नतिकृन्निरस्तनिः कृतिः श्रीज्ञानभूषो (८८) यतिः पायाद्वो निहताहितः परमसज्जेनावनीशेः स्तुतः ||३४|| विजयकीर्ति (८९) यतिजितमत्सरो विदितगीमट्टसारपरागमः । जयति तत्पदभासितशासनो निखिलतार्किकतर्फ विचारकः ||३५|| यः पूज्यो नृपमल्लिसेरवमहादेवेन्द्रमुख्यैनृपैः षट्सर्कागमशास्त्रकोविदमति श्रीप्रद्यशश्चन्द्रमाः । भव्याम्भोरुहभास्करः शुभकरः संसारविच्छेदकः सोऽव्याच्छ्रीविजयादिकीर्तिमुनियो भट्टारकाधीश्वरः || ३६ || तत्पट्टकेरवविकाशनपूर्णचन्द्रः स्याद्वादभाषितविबोधितभूमिपेन्द्रः । अव्याद्गुणात् सुशुमचन्द्र (९०) इति प्रसिद्धो रम्यान बहून् गुणवतो हि सुतत्वबोधः ||३७|| जायीत् षट्तर्कचंचुप्रवणगुणनिधिस्तत्पदाम्भोजभृङ्गः शुम्भद्वादीनकुम्भोद्भटविकटसटाकुण्ठकण्ठीरवेन्दुः । श्रीमत्सु सोभचन्द्रः स्फुटपटुविकटाटोपर्वकुण्ठसुनुः हन्ता चिद्रूपवेत्ता विदितसकल सच्छास्त्रसारः कृपालुः ||३८|| तत्पट्टचारूशतपत्रविकाशनेन पुण्यग्रवालघनवर्द्धनमेघतुल्य: १ व्याख्यामितावलिसुतोषित - भव्यलोको भट्टारक: सुमतिकीत्तिं (९१) रतिप्रबुद्धः ||३९|| ज्ञात्वा संसारभावं विहितवरतपो मोक्षलक्ष्मी सुकांक्षी स्याद्वादी शान्तिमूर्त्तिमंदनमदहरो विश्वतत्वं कवेत्ता । सुज्ञानं दानमे सद्वित्तरति गुणनिधिर्मोहमातङ्गसिंहो जीयाद्भट्टारकोऽसौ सकलयतिपतिः श्रीसुमत्यादिकीप्तिः ॥४०॥ तत्पट्टतामरसरंजन भानुमूत्तिः स्याद्वादवादकरणेन विशालकीतिः । भाषासुघारससुपुष्टितभव्यवर्णो भट्टारक: सुगुणकीर्त्ति (९२) गुरुगंणाः ॥ ४१ ॥ ३९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राज्ञो वादीर्भासहः सकलगुणनिधिर्ध्वस्तदोषः कृपालुः । शान्तो मोक्षाभिकाङ्क्षी नरमतिः कान्ति क्षिप्ताशत्तकवेत्ता शुभतरवचनः सर्वलोकस्थित्तिशः । श्रीमानीषः कृतज्ञो जयति जगति सः श्रीगुणाद्यन्तकीर्तिः || ४२ ॥ तत्पट्टपङ्कजविकाशनपद्मबन्धुःजयात्कुवादिमुखकैरवपद्मबन्धुः । कान्त्या क्षमा तिमिरनाशन पद्मबन्धुः श्रीवादिभूषण (९३) गुरुजितपद्मबन्धुः ||४३|| यो नानागमशब्दतर्कनिपुणो जैनेन पैः पूजितः कर्णाट कलिकालगीतमसमो भट्टारकाधीश्वरः ॥ हेयाय विचार बुद्धिकलितो रत्नत्रयालंकृत्तः सः श्रीमान् शुभचन्द्रवद्धि श्रयते श्रीवादिभूष्यो गुरुः ||४४ || तत्पट्टपुष्पंकरभासनमित्रमूत्तिः कुज्ञानपङ्कपरितोषणमित्रमूत्तिः । निःशेषभव्यहृदयाम्बुजमित्रमूर्तिः भट्टारको जगति भाति सुरामकीत्तिः (९४ ) ||४५॥ स्याद्वादन्यायवेदी हृतकुमत्तिमदस्त्यस्तदोषो गुणाब्धिः । श्रीमच्चिनुपवेत्ता विमलत रसुवाक् दिव्यमूर्त्तिः सुकीर्त्तिः ॥ साक्षाच्छ्रीशारदश्याः गच्छपतिगरिमा भूपवन्द्यो गुणज्ञः पायाद्भट्टारकोऽसौ सकलसुखकरो रामकीत्तिर्गणेन्द्रः ॥४६॥ शास्त्राभ्यासनिबन्धनादिषु पटुः रामादिकीत्तिस्ततस्तत्तपट्टे यशकीर्त्तिनाम सततं विभ्राजते धर्म्मभाक् । ध्यानाभ्यासकरः सुनिर्मलमनास्तर्कादिकाव्यामृतः भव्यानां प्रतिबोधनार्थनिपुणः सर्वकलायां रतः ॥४७॥ तत्पट्टपजविकाशनभानुमूर्तिविद्याविभूषित- समन्वित - बोधचन्द्रः । स्याद्वाद-शास्त्र-परितोषित - सर्वभूपो भट्टारकः समभवद्यशपूर्वकीर्त्तिः (९५) ॥४८॥ तत्पट्टवारिजविकाशनतिग्मरश्मिः पापानबोधतिमिर-क्षय- तिग्मरश्मिः पायात्सुभव्य-भर-पश्चसुतिग्मरश्मिः श्रीपद्मनन्दिमुनिपो जिततिम्मरश्मिः ॥१४९॥ पट्टावली ३९७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाऽनेकान्तनीत्या जितकुमतशठो विश्वतत्वेकवेत्ता शुद्धात्मध्यानलीनो विगतकलिमलो राजसेव्यक्रमाब्जः । शास्त्राब्धिपोतप्रख्यो विमलगुणनिधी रामकीर्तेः सुपट्टे पाया: श्रीप्रसिद्ध जगति यतिपत्तिः पद्मनन्दी (९६) गणीशः ॥५०॥ तत्पट्टपद्मविकचीकरणेकमित्रः सद्बोधबोधितनृपो विलसच्चरित्रः । भट्टारको भवि विभात्यवबोधनेत्रः देवेन्द्रकीर्त्ति (९७) रतिशुद्धमतिः पवित्रः ॥५१॥ श्रीसर्वज्ञोक्तशास्त्राऽध्ययनपटुमतिः सर्वर्थकान्तभिन्नः चिद्रूपो भाति वेत्ता क्षितिपतिमहितो मोक्षमार्गस्य नेता । भव्याब्जोदोषभानुः परहितनियतः पद्मनन्दीन्द्र पट्टे जीयाद्भट्टारकेन्द्रः क्षितितलविदितां देवेन्द्रकी ॥५२॥ तत्पट्टनीरजविकाशन कर्मसाक्षी पापान्धकारविनिवारणकर्मसाक्षी दुर्वादिदुर्वनकेरवकर्मसाक्षी श्री क्षेमकीर्त्ति (९८ ) मुनियो जितकर्मसाक्षी ||५३॥ हेयायविचारणातिमतिर्वादीन्द्रचूड़ामणिः स्फुय्र्यद्विश्वजनीनवृत्तिरनिशं सम्यक्त्वतालंकृतः । सद्भाक्यामृत रज्जिता खिलनृपो देवेन्द्रकीर्तेः पदे जीव्याद्धर्षपरः शतं क्षितितले श्रीक्षेमकीत्तिर्गरुः ॥५४॥ सत्पट्ट कोकनद-मोदन - चित्रभानुः दुःकर्म दुस्तर सुनाशन- चित्रभानुः । भव्यालि-तामरस-रंजन-चित्रभानुः जीयान्नेरन्द्रवरकीत्ति (९९) सुचित्रभानुः ॥ ५५ ॥ श्रीमत्स्याद्वादशास्त्रावगमवरमतिः शान्तमूत्तिर्मनोशः दिव्यत्स्वत्मोपलब्धिः प्रहृतकलिमलो मोक्षमार्गस्य नेता । सर्वज्ञाभासवेदालिमकलमदरुत् क्षेमकीर्तेः सुपट्ट सूरिः श्रीमन्नेरन्द्रो जयति पटुगुणः कीर्तिशब्दाभियुक्तः ॥ ५६॥ तत्पट्टवारिविविवर्द्धनपूर्णचन्द्रः पुष्पायुधं भहरिणाधिपत्तिवितेन्द्रः । सद्बोधवारिजविकाशनवासरेन्द्रः भट्टारको विजयकीर्ति (१००) रसौ मुनीन्द्रः ॥५७॥ ३९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्याद्वादामृतवर्षणेकजलदो मिथ्यान्धकारांशुमान् भास्वन्मूर्तिनरेन्द्रकीर्तिसुसरो पट्टावलीक्ष्माधिपः। नानाशास्त्रविचारचारूचतुरः सन्मार्गसंवर्तको जीयात् श्रीविजयादिकीर्तिरमलो दद्याच्च सन्मंगलं ॥५८।। तत्पट्टपंकजविकाशनपंकजेन्द्रः स्याद्वादसिन्धुकरवर्द्धनपूर्णचन्द्रः ।। वादीन्द्रकुम्भमदवारणसन्मृगेन्द्र: भट्टारको जयति निर्मलनेमिचन्द्रः (१०१) ॥५९|| नानान्यायविचारचारूचतुरो वादीन्द्र-चूडामणिः षट्तकांगमशब्दशास्त्रनिपुणो स्फुर्जद्यशश्चन्द्रमाः । मा मनानाविकाशनशनमः श्रीनेमिचन्द्रो गुरुः सद्भट्टारकमौलिमण्डनमणिर्जीव्यात्सहस्र समाः ॥६०।। तत्पट्टपंकजविकाशन-सूर्यरूपः शास्त्रामृतेन परितोषित-सर्वभूपः । सच्छास्त्रकैरदविकाशन-चन्द्रमत्तिः भट्टारकः समभवत् वरचन्द्रकीतिः (१०२) ॥६|| श्रीमान्नाभिनरेन्द्रसुनुचरणाम्भोजद्वये भक्तिमान् नानाशास्त्रकलाकलापकुशलो मान्यः सदा भूमृतां । नित्यं ध्यानपरो महाव्रतधरो दाता दयासागरः ब्रह्मज्ञान-परायणस्समभवत् श्रीचन्द्रकीत्तिः प्रमुः ।।६।। पद्मनन्दी गुरुजातो बलात्कारगणाग्रणीः पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती। उज्जयन्तगिरौ तेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत् अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपयनन्दिने ॥३॥ समस्त राजाओंसे पूजित पादपयवाले, मुनिवर भद्रबाहु स्वामीके पट्टकमलको उद्योत करने में सूर्यके समान श्रीगुप्तिगुप्त मुनि आप लोगोंको शुभसङ्गति दें॥शा श्रीमूलसमें नन्दिसङ्घ हुआ, नन्दिसङ्घमें अतिरमणीय बलात्कार-गण हुआ, और उस गणमें पूर्वके जाननेवाले मनुष्य और देवोके वन्दनीय श्रीमाघनन्दि स्वामी हुए ॥२॥ उनके पट्टपर मुनिश्रेष्ठ जिनचन्द्र हुए और इनके पट्टपर पांच नामधारक मुनिचक्रवर्ती श्रीपशनन्दि स्वामी हुए ।।३।। पट्टावली: ३११ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द, वकग्रीव, एलाचार्य, गद्धपिच्छ और पमानन्दी उनके ये पांच नाम हुए ॥४॥ उनके पट्टपर दशाध्यायी-तस्वार्थसूत्रके प्रसिद्ध कर्ता मिथ्यात्व-तिमिरके लिए सूर्य समान उमास्वाति (उमास्वामी) आचार्य हुए ||५|| उनके पट्टपर देवोंसे पूजित समस्त अर्थके जानने वाले श्रीलोहाचार्य हुए ||६|| __यहाँसे इस नन्दिसङ्घमें दो पट्ट हो गये, पूर्व और उत्तरभेदसे ( अर्थात् यहाँसे लोहाचार्यकी पट्टवलीका क्रम काष्ठासङ्घमें चला गया और यह अनुक्रम नन्दिसंघका रहा । जिनके नाम क्रमसे यह हैं ॥७॥ यशःकोति, यशोनन्दी, देवनन्दी-पूज्यपाद, अपरनाम गुणनन्दी हुए ॥८॥ तार्किकशिरोमणि वज्रवृत्तिके धारक वचनन्दी, कुमारनन्दी, लोकचन्द्र और प्रमाचन्द्र हए ।।। नेमिचन्द्र, भानुनन्दी, सिंहनन्दी, बसुनन्दो, वीरनन्दी और रत्ननन्दी हुए।।१०॥ माणिक्यनन्दी, मेघचन्द्र, शान्तिकोत्ति, मेरुकीत्ति, महाकीति, विश्वनन्दी हुए॥११॥ श्रीभूषण, शीलचन्द्र, श्रीनन्दी, देशभूषण, अनन्तकीति, धर्मनन्दी, हुए ॥१२॥ विद्यानन्दी, रामचन्द्र, रामर्कात्ति, अभयचन्द्र, नरचन्द्र, नागचन्द्र, हुए ||१३|| - नयनन्दी, हरिश्चन्द्र (हरिनन्दी), महीचन्द्र, माघवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, गुणकीति हुए ॥१४॥ गुणचन्द्र, वासवेन्दु (वासवचन्द्र), लोकचन्द्र और बिध्यविद्याधीश्वर वैयाकरणभास्कर श्रुतकीत्ति हुए ।।१५।। भानुचन्द्र, महाचन्द्र, माघचन्द्र, ब्रह्मनन्दी, शिवनन्दी, विश्वचन्द्र हुए ॥१६॥ सैद्धान्तिक हरनन्दी, भावनन्दी, सूरकीत्ति, विद्यानन्द, सूरचन्द्र हए ॥१७॥ माधनन्दी, शाननन्दी, गंगनन्दी, सिंहकीति, हेमकीत्ति और चारुकीत्ति हूए ।॥१८॥ नेमिनन्दी, नामकोत्ति, नरेन्द्रकीत्ति, श्रीचन्द्र, परकीति, वर्द्धमानकीत्ति हुए ।।१९।। अकलंकचन्द्र, ललितकीति, विद्यविद्याधीश्वर केशवचन्द्र, चारुकीर्ति हुए ॥२०॥ ४.० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैद्धान्तिक महातपस्वी अभयकीति और वनवासी महापूज्य वसन्तकीत्ति हुए ||२१|| जगत्प्रख्यातकीत्ति जन श्रीवनवासी वसन्तकीत्ति आचार्यके शिष्य अनेक गुणोंके स्थान, यम, नियम, तपश्चरण, महाव्रतादि नदियोंके सागर, परवादिगजविदारण- सिंह और वादीन्द्र भवनविख्यात विद्याधीश्वर श्रीविशालकीर्ति हुए और उनके पट्टधर श्रेष्ठ चरित्रमूर्ति एकान्तरादि-उग्रतपोविधानमें ब्रह्माके समान सम्मार्गप्रवर्तक श्रीशुभकीत्ति हुए ||२२|| इनके पट्टपर हमीरमहाराजसे पूजनीय संयमसमुद्र को बढ़ाने में चन्द्रमासमान प्रसिद्ध सैद्धान्तिक श्री धर्मचन्द्र हुए ||२४|| उनके पट्टपर यतिपत्ति स्याद्वादविद्यासागर रत्नकीर्ति हुए, जिनके शिष्य अनेक देशों में विस्तारित हैं, वे धर्म्मकथाओंके कर्ता बालब्रह्मचारी श्रीरत्नकीति गुरु जयवन्त रहें ||२५| समस्त संघों में तिलक श्रीनन्दिसंव में शुभकीतिसे प्रसिद्ध निम्मल सारस्वतीय गच्छमें चन्द्रमासमान दिगन्तविश्रामकीत्ति श्रीरत्नकीत्तिंगुरु जयवन्त रहें ||२६|| इनके पट्टपर, श्री पूज्यपादस्वामीके ग्रन्थोंकी टीका करनेसे पायी है प्रसिद्धि जिन्होंने, नानागुण विभूषित, वादविजेता, अनेक राजाओंसे पूजित श्रीप्रभाचन्द्रचन्द्रदेवतारास्थिति- पर्यन्त जयवन्त रहें ||२७| श्रीप्रभाचन्द्रदेवके पट्टपर विशुद्ध सिद्धान्तरत्नाकर और अनेक जिनप्रतिमाओकी प्रतिष्ठा करानेवाले श्रीपद्मनन्दी हुए ||२८|| जिनके शुद्ध हृदयमें अमेदभावसे आलिङ्गन करती हुई ज्ञानरूपी हंसी आनन्दपूर्वक कीड़ा करती है । जिन्होंने जिनदीक्षा धारण कर जिनवाणी और पृथ्वीको पवित्र किया है, बहु परमहंस निर्ग्रन्थ पुरुषार्थशाली अशेषशास्त्रज्ञ सर्वहितपरायण मुनिश्रेष्ठ श्रीपद्मनन्दी मुनि जयवन्त रहें ||२९||३०||३१|| श्रीपद्मनन्दीके शिष्य अनेक वादियोंमें प्राप्तविजय, उपदेशले अज्ञानतम-दलन करनेवाले जगत्प्रसिद्ध श्रीसकलकीर्त्ति भट्टारककी जय रहे ||३२|| श्रीमान् सकलकोत्तिं आचाय्यंके पट्टधर श्रीभुवनकीर्त्तिमुनि, परमतपस्वी अनेक मुनिगणोंसे सेवित, अनेक वादोंमें जिनधर्म्मकी प्रभावना करनेवाले समस्तसंघोंकी रक्षा करें ||३३|| उनके शिष्य ज्ञानशाली, तपोभूमि, नीतिज्ञ, अनेक जैन राजाओंसे स्तुत, ज्ञानभूषणयति सबकी रक्षा करें ||३४|| श्री २६ पट्टावली ४०१ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पदसेवी, निखिल - तार्किकचूडामणि, श्रीगोमट्टसार आदि महाशास्त्रज्ञ विजयकीर्त्ति हुए ||३५|| T मल्लिसेरव, महादेवेन्द्र प्रभृति मुख्य राजाओं द्वारा पूजित तर्कादिषट् शास्त्र के ज्ञाता, यशः शाली, भवदुःखभन्जन वह बिजयकीर्त्ति मुनि हम सबकी रक्षा करें ||३६|| 1 भव्योंको आनन्द देने में पूर्णचन्द्र, स्याद्वादन्यायसे अनेक राजाओंको जैन बनाने वाले, श्री विजयकीर्त्तिके शिष्य, जगत्प्रसिद्ध भारतेन्दु षट्तर्कवागीश, वादिरूप ही सिंह, द र कर्ममुन्नतिको नाशकरने वाले, आत्मानुभवी, समस्तशास्त्रपारङ्गत, दयालु, श्रीशुभचन्द्राचार्य्यं, समस्त मुनिगणोंकी रक्षा करें ||३७||३८|| श्री शुभचन्द्राचाय्यंके पट्टधर, भद्र लोगों को उपदेशामृतवर्षी, श्रीसुमतिकीर्त्ति भट्टारक हुए ||३९|| संसारको क्षणभंगुर जानकर मोक्षाभिलाषी हो तपस्वी हुए वे यतिर्पात श्रीसुमतिकीर्तिदेव, मोह- कामादिशत्रु-विजयी, जयवन्त रहें ॥४०॥ उनके पट्टधर सूर्य्यसमान, स्याद्वादविद्यामें निपुण, विशाल कीर्त्तिवाले, अपनी अमृतवाणीसे भव्यगणोंकी पुष्टि करनेवाले मुनिगणसे पूजित, श्रीगुणकीर्ति आचार्य हुए ॥४१॥ विद्वद्भट, विशुद्धमति मुमुक्षु, मधुरवचन, व्यवहारवेत्ता, तर्कशास्त्रज्ञ वह श्रीमान् गुणकीर्त्ति इस जगत् में जयवन्त रहें ||४२॥ उनके पट्टकमलको विकसित करनेमें पद्मबन्धु कुवादियोंके मुखकुमुदोंको मुद्रित करने में सूर्य, अन्वकार नष्ट करनेमें तपन, सूर्य्यसे भी अधिक तेजस्वी श्रीमान् वादिभूषण यतिवर चिरंजीवी रहे ||४३|| P अनेकन्यायशास्त्रवेत्ता, अनेक जैन नृपोंसे पूजित, कर्णाटक देशको सुशोभित करनेवाले, कलिकालमें गौतमगणधर के समान, रत्नत्रयविभूषित, श्रीशुभचन्द्राचायं समानप्रभाशाली, श्रीवादिभूषणगुरु वर्तमान रहें ॥४४॥ उनके पट्टकमलको बिकसित करनेवाले, अज्ञानको शोषणकरनेवाले, भव्यकमलोके सूर्य्यं श्रीरामकीर्तिभट्टारक हुए ||४५|| वह व्याकरणादि सर्वशास्त्रनिपुण, श्रीस्याद्वादन्यायायवेदी, राजमान्य, सरस्वतीयगच्छपति रामकीर्ति भट्टारक इस जगत्में अलङ्कृत रहें ||४६|| सर्वशास्त्र के जाननेवाले सर्वकलासम्पन्न, श्रीयशः कीर्त्ति उनके हुए ४७४ ४०२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्प पट्ट्टपर Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान-तिमिरनाशक, भव्यजीवप्रतिबोधक, श्रीयशःकीर्तिके पट्टको प्रसारनेवाले, सूर्योतिशायी तेजस्वी, श्रीपद्मनन्दी हुए ॥४९॥ वह श्रीमान् पद्मनन्दी मुनि कुवादिवादविजयी, शुतात्मलीन, निर्मलचरित्र, शास्त्रसमुद्रपारगामी, राजमान्य, श्रीरामकीसिके पट्टको अलंकृत करें ॥५०॥ उनके पट्टधर, अनेक राजाओंको सम्बोधनेवाले, बुद्धिशाली, श्रीदेवेन्द्रकीर्ति हुए। वह श्रादेन्द्र मोतिर गगलतिले राजाओंसे मानित सदा कल्याण करें ॥५१॥५२॥ उनके पट्टपर पापतिमिरविनाशक, श्रीक्षेमकीर्ति मुनि हए। वह क्षेमकीर्ति मुनि वस्तुके हेयोपादेयतामें प्रवरबुद्धि, प्राणिमात्र-हिताकांक्षी, वचन माधुरीसे समस्त राजाओंको अनुरञ्जित करनेवाले इस पृथ्वीतल पर अनेक शतवर्ष जीव्यमान रहें ॥५३॥५४॥ उनके पट्टपर दुष्कर्महत्ता, भव्य-कमलोंके अपूर्व सूर्य, श्रीनरेन्द्रकीर्ति जयवन्त रहें, जो श्रीस्याद्वादशास्त्रज्ञ, स्फूर्यमाण, अध्यात्म-रसास्वादी, मोक्षमार्गको दिखानेवाले, सर्वज्ञमन्य-कुवादि-वादियोंके मदहर्ता हुए ॥५६॥ इनके पट्टरूपी समुद्रको बढ़ानेमें पूर्णचन्द्रके समान, कामहस्तिविदारणगजेन्द्र, सम्यक्ज्ञानपनबिकाशी-सूर्य, उपदेशवृष्टि करने में मेघतुल्य, मिथ्यान्धकार नष्ट करने में अतिशायी भानु, अनेकशास्त्रपारगामी श्रीविजयकोत्ति हमारा मंगल करें ।।५७॥५८॥ उनके पट्टपर वादीन्द्रचूडामणि श्रीनेमिचन्द्राचार्य हुए। वह षट्शास्त्रपारंगत, दिप्रसरितयशोभागी, आत्मज्ञान-रस-निर्भर, यतिशिरोमणि, हजारों वर्ष जीवित रहें ॥९॥६०॥ ___ उनके शिष्य, अनेक राजसभामें सम्मानित, श्रीचन्द्रकीत्ति भट्टारक हुए, जो श्रीऋषभदेव-चरणभक्तिपरायण, नित्यध्यानाध्ययनमें लीन, दयाके समुद्र, महाव्रती, आत्मानुभवी और गुणशाली थे तथा जिन्होंने इस भारतभूमिको सुशोभित किया ।।६।।६२।। श्रीपानन्दी गुरुने बलात्कारगणमें अग्रसर होकर पट्टारोहण किया है और जिन्होंने पाषाणघटित सरस्वतीको उज्जयन्तगिरि पर बादिके साथ वादित कराया (बुलवाया) है, तबसे ही सारस्वत गच्छ चला ।इसी उपकृतिके स्मरणार्थ उन श्रीपानन्दी मुनिको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६३॥ पट्टाक्ली : ४०३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शुभचन्द्रको मावली स्वस्ति श्रीजिननाथाय स्वस्ति श्रीसिद्धसूरयः । स्वस्ति पाठक-सूरिभ्यां स्वस्ति श्रीगुरवे नमः ॥१॥ मङ्गलं भगवानहन मंगलं सिखसूरयः । उपाध्यायस्तथा साधुजैनधम्मोऽस्तु मंगलम् ॥२॥ स्वस्ति श्रीमूलसंधेऽवनितिलकनिभे मोक्षमार्गेकदीपे स्तुत्ये भू-खेचराद्येविशदतरगणे श्रीबलात्कारनाम्नि ।। गच्छे श्रीशारदायाः पदमवगमचरित्राद्यलक्षारवन्तो । विख्याता गौतमाद्या मुनिगणवृषभा भूतलेऽस्मिजयन्तु ।।३।। स्वस्ति श्रीमन्महावीरतीर्थंकर-मुखकमल-विनिर्गत-दिव्यध्वनि-धरण-प्रकाशप्रवीण-गौतमगणधरान्वय-श्रुतकेवलि-समालिङ्गित-श्रीभद्रबाहुयोगीन्द्राणाम् ॥४॥ तद्वंशाकाश-दिनमणि-सोमन्धरवचनामृतपान-सन्तुष्टचित्त-श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणाम् ।।५।। तदाम्नायवरणधुरीण-कवि-मक-वादि-वाग्मि-चतुर्विध-पाण्डित्यकला-निपुणबौद्ध-नैयायिक-सांख्य-वैशेषिक-भट्ट-चार्वाक-मताङ्गीकार - मदोद्यत - परवादि-गजगण्ड-भैरव (भेदक) श्रीपयनन्दिभट्टारकाणाम् ।।६।। । तच्छिष्याग्रेसरानेकशास्त्रपयोधिपारप्राप्तानां, एकालि-द्विकालि-कनकावलिरत्नावलि-मुक्तावलि-सर्वतोभद्र-सिंहविक्रमादि-महातपो-बज्र-बिनाशित-कर्मपर्वतानाम्, सिद्धान्तसार-तत्त्वसार-पत्याचाराद्यने कराद्धान्तबिधातृणाम्, मिथ्यात्वतमो-विनाशंकमार्तण्डानाम् अभ्युदयपूर्व-निर्वाणसुखावश्यविधायि-जिनधर्माम्बुधिविवद्धन-पूर्णचन्द्राणाम्, यथोक्तचरित्राचरणसमर्थन-निग्रन्थाचायंवर्याणाम्, श्री-श्री-श्रीसकलेकीत्तिभट्टारकाणाम् ||७|| तत्पट्टाभरणानेकदक्षमौख्य(ढ्य)-निष्पादन-सकल-कलाकलाप-कुशल-रत्नसुवर्णरौप्यपित्तलाश्मप्रतिमा-यन्त्रप्रासादप्रतिष्ठायात्रार्चन-विधानोपदेशान्तिकोत्तिक पूरपूरित-त्रैलोक्यविवराणाम्, महातपोधनानां श्रीमद्भुवनक्रीतिदेवानाम् ।।८।। तत्पद्रोदयाचलभास्कराणां, गुर्जरदेशप्रथमसागारधर्मवरिष्ठ-सद्धर्मनिष्ठानाम्, अहोरदेशाङ्गीकतैकादशप्रतिमापवित्रीकृतगात्राणां, वाग्वरदेश-स्वीकृतदुद्धरमहावतभारधुरन्धराणां, कर्णाटदेशोत्तुङ्गचंत्यचैत्यालयावलोकनाजितमहापुण्यानाम्, तौलवदेशमहावादीस्वरराजवादिपितामहसकलविद्वज्जनवकवाद्यनेकविरुदावलिविराजमान-यतिसमूहमध्यसंप्राप्तप्रतिष्ठानाम, तैलङ्गदेशोत्तमनरवृन्द-वन्दितचरणकमलानाम्, द्राविडदेशाप्तविदग्धबदनारविन्दविनिर्गतस्तवानाम्, महाराष्ट्रदेशाज्जितेन्दु-कुन्द-कुवलयोज्ज्वलयशोराशीनाम्, सौराष्ट्रदेशो४०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 1 रायदेशनिवासिसम्यग्दर्शनोपेत कुरुजाङ्गलदेश तमोपासक वर्ग-विहितापूर्वमहोत्सवानाम्, प्राणिसङ्घातकप्रमाणीकृतवाक्यानाम् मेदपाटदेशानेकमुग्धाङ्गीवर्गप्रतिबोधकानाम्, मालवदेशभव्यचित्तपुण्डरीक दोघन - दिनकरावताराणाम् मेवातदेशागमाघ्यात्मरहस्यव्याख्यान रञ्जित विविधविबुधोपासकानां प्राप्यज्ञान रोगापहरण- वेद्यानाम्, तुरवदेशषट्दर्शनतर्काध्यययनोद्भूताऽखर्वगर्वाकुमित हृदयप्रज्ञावदन्तर्लब्ध-विजयानां विराटदेशोभयमार्गदर्शकानां नमिमाढदेशाधिकृत जिनधर्मप्रभावानां नवसहस्राद्यनेकधर्मोपदेशकानां टगराटहडीवटीनाग रखलप्रमुखाऽनेकजनपद- प्रतिबोधन निमित्त विहित-विहाराणां श्रीमूलसङ्गे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे डिल्ली (दिल्ली) सिंहासनाधीश्वराणां प्रतापाकान्तदिङ्मण्डलाऽऽखण्डनसमानभं रखनरेन्द्र विहितातिभक्तिभा राणा, अष्टाङ्गसम्यक्त्वाद्यनेकगुणगणालङ्कृत श्रीमदिन्द्रभूपालमस्त कन्यस्तच रणसरोरुहाणां, लक्ष्मीध्वजान्तपुण्य नाट्यान्तभोग समुद्रान्त भूमिभाग रक्षक सामन्तमस्तकघुष्टक्रमाग्रमेदिनीपुष्ठराजाधिराज श्रीदेव रायसमाराधितचरणवारिजानां जिनधर्मधारकमुदिपालय-रामनाथराय बोमरसराय- कलप राय- पाण्डुरायप्रभूतिअनेकमहीपालाच्चितकमलयुगलानाम्, विहितानेक तीर्थयात्राणां, मोक्षलक्ष्मीवशीकरणानयं रत्नत्रयालंकृतगात्राणां, व्याकरण- छन्दोलङ्कार-साहित्य- तर्कागमाध्यात्मप्रमुखशास्त्रसरोजराल-हंसानां शुरुभ्यानामृतपानलालसानां वसुन्धराचार्याणाम्, श्रीमद्भट्टारकवर्य्यश्री ज्ञानभूषणभट्टारक देवानाम् ||९|| गजान्त - " 1 1 1 - , तत्पट्टाम्भोजभास्कराणां कारितानेकसविवेकजीर्णनूतन - जिनप्रासादोद्धरणवीराणां समुपदिष्ट- विशिष्टाक्लिष्टप्रतिष्ठ जिनबिम्बप्रकाराणां अङ्गवङ्गकलिङ्ग-तौलब-मालव- मरहठ सौराष्ट्र- गुर्जर वाग्वर-रायदेश- मेदपाट-प्रमुख-जनपदजनजेगीयमानयशो राशीनां जेनराजान्यराजपूजित-पादपयोजाना, अभिनवबालब्रह्मचारीश्रीभट्टारक विजयकीत्तिदेवानाम् ॥१०॥ + तत्पट्टप्रकटचतुर्विधसंघ-समुद्रोल्लासन- चन्द्राणां प्रमाणपरीक्षा पत्रपरीक्षापुष्पपरीक्षापरीक्षा मुख- प्रमाणनिर्णय-न्यायमकरन्द-न्यायकुमुदचन्द्रोदय-न्यायविनिश्चयालङ्कार-श्लोकवार्त्तिक- राजवार्त्तिकालङ्कारप्रमेयकमलमार्त्तण्ड-आप्तमीमांसाअष्टसहस्त्री - चिन्तामणि मीमांसाविवरण - वाचस्पतितत्त्वकौमुदी प्रमुखकर्कशतर्क-जैनेन्द्र- शाकटायनेन्द्र- पाणिनि-कलाप काव्य- स्पष्ट विशिष्ट - सुप्रतिष्ठाष्टसुलक्षण-विचक्षणत्रं लोक्यसार - गोम्मटसार- लब्धिसार क्षपणासार- त्रिलोकप्रज्ञप्तिसुविज्ञप्त्याध्यात्मकष्टसहलीछन्दोलङ्कारादिशास्त्र सरित्पतिपारप्राप्तानां शुद्धचिद्रूप चिन्तन- विनाशि-निद्राणां सर्व देशविहरावाप्तानेकभद्राणां विवेकविचार-वातुय्यं गाम्भीय्यं धेय्यं वीर्य्यगुणगणसमुद्राणां उत्कृष्टपात्राणां पालि पट्टावली : ४०५ , P ' Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानेकश(स)च्छात्राणां, विहितानेकोत्तमपात्राणाम्, सकलविद्वज्जनसभाशोभितगात्राणां, गौड़वादितमासूर्य-कलिङ्गवादिजलदसदागति-कर्णाटवादिप्रथमवचनखण्डनसमर्थ - पूर्ववादिमत्तमातङ्गमृगेन्द्र-तौलवादिविडम्बनयीर- गुर्जरवादिसिन्धुकुम्भोद्भव-मालववादिभस्तकशूल-जितानकाखभपाटनवशायरामांसा सकलस्वसमयपरसमयशास्त्रार्थानां, अङ्गीकृतमहावसानाम, अभिनवसार्थकनाभधेयश्रीशुभचन्द्राचार्याणाम् ॥११॥ तत्पट्टप्रवीणोत्कृष्टमति - विराजमान - सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रामाणादिसाधन- निकरसंसाधितासाधारणविशेषणत्रयालिगितपरमात्मराजकुञ्जरबन्धुबदनाम्भोजप्रकटीभूतपरमागमवाढिवर्द्धनसुधाकराणाम्, परवादिवृन्दारकवृन्दवन्दित-विशद-पादपङ्केरुहागा बालब्रह्मचारिभट्टारकीसुमतिकीर्तिदेवानाम् ॥१२॥ तत्पट्टाम्बुज-विकाशन-मार्तण्डानां, पञ्चमहायत-पञ्चसमिति-त्रिगुप्त्यष्टाविशतिमूलगुणसंयुक्तानां, व्याख्यामृत-पोषित-जिनवर्गाणां, निजकर्मभूरुहदारुणघरणप्रवीणानाम् परमात्मगुणातिशयपरीक्षितविश्वज्ञ-स्वरूपाणाम्, विशदविज्ञान-विनिश्चित-सामान्यविशेषात्मककार्थसमर्थानां, परमपवित्रभट्टारकश्रीगुणकोत्तिदेवानाम् ॥१३॥ तत्पट्टकुमुद-प्रकाशन-शुद्धाकराणां, अंग-वंग-तिलंग-कलिंग-वेट-भोट-लाटकुकण-कर्णाट-मरहट्ट-चीन-चोल-हब्ब-खुरासाण-आरब-तौलक-तिलात-मेदपाटमालव-पूर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तर- गुर्जर-वाग्वर-रायदेस-नागर- चाल-मरुस्थल-स्फूरदंगि- कोशल- मगध- पल्लव-कुरुजांगल-कांची-लाश्रुस-पुट्रीट-काशी-कलिंग-सौराष्ट्र काश्मीर-द्राविड-गौड़-कामरू-मलत्ताण- मुंगी-पठाण- बुगलाण-हडावट्ट-सपादलक्षसिन्धु-सिग्धुल-कुन्तल केरल-मंगल-जालौरगंगल-सुंतल-कुरल-जांगल पंचालन नट्टघट्ट-खेट्ट-कोरट्ट-वेणुतट-कलिकोट-मरहट्ट-कोरट्ट-बैरदट-खैरट्ट-स्मैरतट्टमहाराष्ट्र-विराट-किराट-नमेद-सिन्धुतट-गंगेतट-पल्लव-मल्लवार-कपोठ-गौड़वाड़सिंगल-किंगल-मलयम-मरुमेखल-नेपाल-हैवतरुल-संखल-करल-चरल-मोरल-श्रीमालनेखलपिच्छल-नारल- डाहलताल-तमाल-सौमाल- गौमाल- रोमाल- तोमल-कमालहेमाल-देहल-सेहल-टमाल-कमाल-किरात मेवात-चित्रकूट- हेमकूट-चूरंड-मुरंड-उद्रयाणा-आद्रभ्राद्र - पुलिन्द्र - सुराष्ट्र - प्रमुखदेशाजितेन्दु-कुवलयोज्जल-यशोराशीनां, सकलशास्त्रसमुद्रपारप्राप्तानां, समविद्रज्जन-नमित-चरणपक्लेव्हाणां, व्यख्यामृतपेषित-सकलभव्यवर्गाणां, सकलकिकशिरोमणोना, दिल्लीसिंहासनाधीश्वराणाम्, सार्थकनामविराजमान-अभिनवभट्टारकश्रीवादिभूषणदेवानाम् ।।१४।। ४०६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडावलीका भाषानुवाद श्री जिननाथको स्वस्ति हो, सिद्धाचार्योको स्वस्ति हो, पाठक और आचार्योको स्वस्ति हो तथा श्रीगुरुको स्वस्ति हो ॥१॥ अर्हन्तदेव मङ्गलस्वरूप हैं। सिद्धाचार्यगण मंगलस्वरूप हैं और उपाध्याय, साधु तथा जैनधर्म मंगलमय हैं ||२|| ___ मोगा मार्ग दिखने लिये मागावीप, भूगरोंते स्तुत्य, भूतलमें तिलकस्वरूप, श्रीमूलसंधके अति उज्ज्वल बलात्कारनामक गणके सरस्वतीगच्छामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्रसे समलंकृत प्रसिद्ध गौतम आदि गणधर इस भूतलमें जयवन्त हों ॥३॥ श्रीमहावीर स्वामीके मुखकमलसे निकली हुई दिव्यध्वनिको धारण और प्रकाशन करनेमें प्रवीण गौतम गणघरके वंशधर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी हुए ॥४॥ इनके वंशाकाशके सूर्य श्रीसीमन्धरके वचनामृतके पानसे सन्तुष्ट चित्तवाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य हुए ।।५।। इनके आम्नायको धारण करनेमें अग्रगण्य, कविता, गमकता वादिता और वाग्मिता आदि चार प्रकारको पाण्डित्यकलामें निपुण, बौद्ध नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक और चार्वाक मतको माननेवाले वादिगजके लिये सिंहके समान श्री पअनन्दि भट्टारक हुए ॥६॥ इनके शिष्योंमें अग्रगण्य और अनेक शास्त्रसमुद्र में पारंगत, एकावली, द्विकाबली, कनकावलि, रत्नावलि, मुक्तावलि, सर्वतोभद्र और सिंहविक्रमादि बड़ी-बड़ी तपस्यारूपी वनसे कर्मरूपी पर्वतोंको नष्ट करनेवाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार और बनेक यत्याचारके सिद्धान्तग्रन्थोंको बनानेवाले, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्य, कुशलतापूर्वक मोक्षलक्ष्मीके सुखको प्रकटित करनेवाले, जिनधर्मरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिये पूर्णचन्द्रमाके सदृश, यथोक्त चरित्रका आचरण और समर्थन करनेवाले दिगम्बराचार्य श्री सकलकोति भट्टारक हुए ॥७॥ ___ इनके पट्टके भूषणतुल्य सभी कलाओंमें कुशल, रत्न, सुवर्ण, रौप्य, पित्तल, तथा पाषाणकी प्रतिमा, यन्त्र और प्रासादकी प्रतिष्ठा और अर्चन-विधान जन्य कीर्ति-कर्पूरसे त्रिभुवन-विवरको पूरित करनेवाले, महातपस्वी श्रीभुवनकीतिदेव हुए ॥८॥ पट्टायली : ४०७ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P इनके पट्टरूपी उदयाचलके लिये सूर्यके समान गुर्जर देशमें सर्वप्रथम सागारधर्मका प्रचार करनेवाले, अहीरदेशमें स्वीकृत एकादश प्रतिमा (क्षुल्लक पद) से पवित्र शरीरवाले, बाग्बरदेशमें अंगीकृत दुर्धर महाव्रत ( मुनिपद) के भारको धारण करनेवाले, कर्णाटक देशमें ऊँचे-ऊंचे चेत्यालयोंके दर्शनसे महापुण्यको उपार्जित करनेवाले, तौलव देशके महावादीश्वर विद्वज्जनचकवतियों में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले तिलंग देशके सज्जनोंसे पूजित चरणकमलबाले, द्रविड़ देशके सुविज्ञोंसे स्तुति किये जानेवाले, महाराष्ट्र देशमें उज्ज्वल यशका विस्तार करनेवाले, सौराष्ट्र देशके उत्तम उपासकोंसे महोत्सव मनाये जानेवाले, सम्यग्दर्शन से युक्त रायदेशके निवासी प्राणिसमूहसे प्रमाणीकृत वाक्यवाले, मेदपाट देशके अनेक मूढ़ोंको समझानेवाले, मालवदेशके भव्योंके हृदय - कमलको बिकसित करने के लिये सूर्यके समान, मेवातदेश के अन्यान्य विज्ञ उपासकोंको अपने आध्यात्मिक व्याख्यानोंसे रंजित करनेवाले, कुरुजांगल देशके प्राणियोंक अज्ञानरूपी रोगको हटाने के लिये सद्वैद्य के समान, तुरवदेशमें षड्दर्शनन्याय आदिके अध्ययन से उत्पन्न अखर्व गर्व करने वालोंको दबाकर विजय प्राप्त करनेवाले, विराट् देशमें उभय मार्गको प्रदर्शित करनेवाले, नमियाड़ देशमें जिनकी अत्यन्त प्रभावना और नव हजार उपदेशकों को नियत करनेवाले, टग, राट, हडीबटी, नागर और चाल आदि अनेक जनपदोंमें ज्ञानप्रचारके लिये विहार करनेवाले, श्रीभूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके दिल्लीसिंहासन के अधिपति, अपने प्रतापसे दिमण्डलको आक्रमण करनेवाले, अष्टअंगयुक्त सम्यक्त्व आदि अनेक गुणगणसे अलंकृत और श्रीमत् इन्द्र भूपालोंसे पूजित वरणकमलवाले, गजान्त लक्ष्मी, ध्वजान्त पुण्य, नायान्त भोग, समुद्रान्त भूमिभाग के रक्षक सामन्तोंके मस्तकसे घृष्ट चरणकमलवाले श्रीदेवराय राजसे पूजित पादपद्मवाले, जिनधर्मके आराधक मुदिपालराम, रामनाथराय, बोमरसराय, कलपराय, पाण्डुराय आदि अनेक राजाओंसे अर्चित चरणयुगलवालं, अनेक तीर्थयात्राओं को करनेवाले, मोक्षलक्ष्मीको वशीभूत करनेवाले, रत्नत्रयसे सुशोभित शरीरवाल, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, साहित्य, न्याय और अध्यात्मप्रमुख शास्त्ररूपों मानसरोवर के राजहंस, शुद्ध ध्यानरूपी अमृतपानकी लालसा करनेवाले और वसुन्धराके आचार्य श्रीमद्भट्टारकवय्यं श्री ज्ञानभूषण हुए || जो इनके पट्टरूपी पद्मके लिये सूर्यके समान हैं, विवेकपूर्वक अनेक जीर्ण अथवा नूतन जिन प्रासादोंका अद्धार करानेवाले हैं, अनेक प्रकारके जिनविकी प्रतिष्ठाका उपदेश देनेवाले हैं, जिनकी यशोराशिका मान अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, तौलव, भालव और मेदपाट आदि देशोंक निवासियोंने किया है, जिनके ४०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चरणकमल जैन राजाओं तथा अन्य राजाओंसे पूजे गये हैं, ऐसे अभिनव बालब्रह्मचारी श्री भट्टारक विजयकीसिंदेव हुए ||१०|| " जो इनके पट्टरूपी पयोनिधको उल्लसित करनेके लिये चन्द्रमाके समान हैं, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, पुष्पपरीक्षा, परीक्षामुख, प्रमाणनिर्णय, न्यायमकरन्द, न्यायकुमुदचन्द्रोदय, न्यायविनिश्चयालङ्कार, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिकालङ्कार, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तमीमांसा, अष्टसहस्त्री चिन्तामणि, मीमांसाविवरण, वाचस्पतिकी तत्त्वकौमुदी आदि कर्कश न्याय, जेनेन्द्र शाकटायन, इन्द्र, पाणिनि, कलाप, काव्यादिमें विचक्षण हैं, त्रैलोक्यसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, अध्यात्माष्टसहस्री और छन्द, अलङ्कारादि शास्त्रसमुद्रके पारगामी हैं, शुद्धात्माके स्वरूपके चिन्तनसे निद्राको विनष्ट करनेवाले हैं, सब देशोंमें विहार करनेसे अनेक कल्याणोंको पानेवाले है, विवेकविचार, चतुरता, गम्भीरता, धीरता, वीरता आदि गुणगणके समुद्र हैं, उत्कृष्टपात्र हैं, अनेक छात्रोंका पालन करनेवाले है, उत्तम उत्तम यात्राओंके करनेवाले हैं, विद्वन्मण्डलीमें सुशोभित शरीरवाले हैं, गोड़वादियोंके अन्धकारके लिए सूर्यके समान हैं, कलिंगके वादिरूपी मेघोंके लिये वायुके समान हैं, कर्नाटके वादियोंके प्रथम वचनका खण्डन करने पर समर्थ है, पूर्व वादी मातंगके लिये सिंहके समान हैं, तौलके वादियोंकी विडम्बनाके लिये वीर हैं, गुर्जरवादिरूपी समुद्र के लिये अगस्त्य के समान है, मालववादियोंके लिये मस्तकशूल हैं, अनेक अभिमानियोंके गर्वका नाश करनेवाले हैं, स्वसमय और परसमयके शास्त्रार्थको जाननेवाले हैं और महाव्रतको अंगीकार करनेवाले हैं, ऐसे अभिनव सार्थक नामवाले श्रीशुभचन्द्राचार्य हुए || ११|| इनके पट्टपर जो अलौकिक बुद्धिसे युक्त हैं, सुनिश्चित और असम्भव बाघकप्रमाणादि साधनसमूहसे संसाधित, तीनों असोधारण विशेषणोंसे परमात्माको सिद्ध करनेवाले हैं, परमागमरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान हैं, जिनके स्वच्छ चरणकमल परवादियोंके समूहले अचित हैं, ऐसे बालब्रह्मचारी श्री भट्टारक सुमतिकीर्तिदेव हुए ||११|| · इनके पट्टरूपी कमलके लिये सूर्य के समान, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति और अट्ठाईस मूलगुणोंसे युक्त, अपने उपदेशरूपी अमृतसे भव्योंको परिपुष्ट करनेवाले, कर्मरूपी भयङ्कर पर्वतको चूर्ण करनेमें समर्थ, परमात्मगुणोंकी अतिशय परीक्षासे सर्वज्ञका स्वरूप माननेवाले और समुज्ज्वल विज्ञानके बलसे सामान्य और विशेषरूप वस्तुको समझनेवाले परमपवित्र भट्टारक श्रीगुणकीत्तिदेव हुए ||१२|| पट्टावली : ४०९ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके पट्टरूपी कुमुदको प्रकाशित करनेके लिये चन्द्रमाके सामन, अञ्ज, वङ्ग, तेलङ्ग, लिङ्ग, , गाट, सार, कुल, कलनरहट, चीन, चोल्हं, हब्ब, खुरखाण, आरब, तौलात, मेदपाट, मालव, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, गुर्जर, वाग्बर, रायदेश, नागर, चाल, मरुस्थल, स्फुरदंगि, कोशल, मगध, पल्लव, कुरुजांगल, काञ्ची, लाबुम, पुद्रोट, काशी, कलिङ्ग, सौराष्ट्र, काश्मीर, द्राविड़, गौड़, कामरू, मलत्ताण, मुगी, पठाण, बुगलाण, हडावट्ट, सपादलक्ष, सिन्धु, सिन्धुल, कुन्तल,केरल, मंगल, जालोर, गंगल, सुन्तल, कुरल, जांगल, पंचालन, नट्ट, घट्ट खेट्ट, कोरट्ट, वेणुतट, कलिकोट, मरहट्ट, कोरट्ट, चैरट्ट, खेरट्ट, स्मैरतट्ट, महाराष्ट्र, विराट, किराट, नमेद, सिन्धुतट, गंगेतट, पल्लव, मल्लबार, कवोट, गौड़वाड़, सिंगल, किंगल, मलयम, मरुमेखल, नेपाल, हैवतरुल, संखल, करल, बरल, मोरल, श्रीमाल, नेखल, पिच्छल, नारल, डाइल, ताल, तमाल, सौमाल, गौमाल, रोमाल, तोमल, केमाल, हेमाल, देहल, सेहल, टमाल, कमाल, किरात, मेवात, चित्रकूट, हेमकृट, चुरंड, मुरंड, उद्याण, आट्रमाट्र, पुलिन्द्र और सुराट्र आदि देशोंमें इन्दु और कुवलयके समान स्वच्छ यशोराशिको उपाजित करनेवाले, सभी शास्त्ररूपी समुद्र में पारंगत, अपनी व्याख्या-सुधा-धारासे सभी भव्यजनोंको पुष्ट करने वाले और सभी तार्किकोके शिरोमणि दिल्ली-सिंहासनके अधीश्वर सार्थक नामवाले अभिनव भट्टारक श्रीवादिभूषणदेव हुए ॥१३!! श्रुतमुनि-पट्टावलि { शक सं० १३५५ ई० सन् १४३३ ) ( प्रथममुख) श्री जयत्यजय्यमाहात्म्यं विशासितकुशासनं । शासनं जैनमुद्धासि मुक्तिलक्ष्म्यैकशासनं ।।१।। अपरिमितसुखमनल्पावगममयं प्रबलबलहृतातङ्क(म)। निखिलावलोकविभवं प्रसरतु हृदये परं ज्योतिः ।।२।। उद्दीप्ताखिलरत्नमुद्धृतजडं नानानयान्तह स स्यात्कारसुधाभिलिप्तिजनिभृत्कारुण्यकूपोच्छितं । आरोप्य श्रुतयानपात्रममृतद्वोपं नयन्तः परा-- नेते तीत्थंकृतो मदीयहृदये मध्ये भवाब्ध्यासतां ||३|| १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख-संख्या १०८, पृष्ठसंख्या १९५-२०७ । ४१० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्राभवत् त्रिभुवनप्रभुरिद्धवृद्धिः श्रीवर्धमानमुनिरन्तिम-तीर्थनाथः । यद्दे हदीप्तिरपि सन्निहिताखिलानां पूर्वोत्तराश्रितभवान् विशदीचकार ॥१॥ तस्यामा मचिमनीस्वाय यो यौव्वराज्यपदसंश्रयतः प्रभूतः। श्रीगौतमो गणपतिर्भगवान्वरिष्ठः श्रेष्ठेरनुष्ठितमुतिम्र्मुनिभिस्स जीयात् ॥५॥ तदन्वये शुद्धिमति प्रतीते समग्रशीलामलरत्नजाले । अभूद्यतीन्द्रो भुवि भद्रबाहुः पयःपयोधाविव पूर्णचन्द्रः ॥६॥ भद्रबाहुरग्निमः समग्रबुद्धिसम्पदा शुद्धसिद्धशासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरं । इद्धवृत्तसिद्धिरत्र बद्धकर्मभित्तपो वृद्धितिप्रकीतिरुद्दघे महद्धिकः ॥७॥ यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीना मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्वश्रु तार्थप्रतिपादनेन ॥८॥ तदीय-शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः । विवेश यत्तोव्रतपःप्रभाव-प्रभृत-कोर्तिभुवनान्तराणि ॥९॥ यदीयवंशाकरत: प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला। बभौ यदन्तमणिवन्मुनीन्द्रस्स कुन्डकुन्दोदितचण्ड-दण्डः ॥१०॥ अभदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलात्थंवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्राय॑जातं मुनिपुङ्गवेन ॥११॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृवपक्षान् । सदाप्रभृत्येव बुधा यमाहुराचाय्यंशब्दोत्तरगृपिच्छं ॥१२॥ तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो बलाकपिच्छ: स तपोमहर्द्धिः । यदङ्गसंस्पर्शनमात्रतोऽपि वायुळिषादीनमृतोचकार ।।१३॥ समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीयवाग्वजकठोरपातश्चून चकार प्रतिवादिशेलान् ।।१४।। श्रीपूज्पादो धृतधर्मराज्यस्ततो सुराधीश्वर-पूज्यपादः । यदीयवैदुष्यगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि तदुधृतानि ॥१५|| धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः । कृतकृत्यभावमनुबिभ्रदुश्चकक्कैः । पट्टाबली : ४११ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनबभूव यदनङ्गचापहृत् सजिनेन्द्रबुद्धिरिति साधु वर्णिसः ॥ १६ ॥ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धिज्जयाद्विदेजिनदर्शनपूतगात्रः । यत्पादधीतजलसंस्पर्शप्रभावा कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥ १७॥ ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्र सरोऽभूदकलङ्करिः । मिथ्यान्धकार स्थगिताखिलार्त्याः प्रकाशिता यस्य वचोमयूखः || १८ || तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षी दिवः पतीन्नत्तमिव प्रकृष्टान् । तदन्वयोद्भूतमुनीश्वराणां बभूवुरित्यं भुवि समेदाः ||१९|| स योगिचतुरः प्रभेदानासाद्य भूयानविरुद्धवृत्तान् वभावयं श्रीभगवानूजिनेन्द्रश्चतुम्मु 'खानीव मिथस्समानि ॥२०॥ देव मन्दि-सिंह- सेन सङ्घभेदवत्तनां देशभेदतः प्रबोधभाजि देवयोगिनां । वृत्ततस्समस्ततोऽविरुद्धधम्मं सेविनां मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दिसङ्घ इत्यभूत् ||२१|| नन्दिसङ्घ सदेशीयगणं गच्छे च पुस्तके इंगु लेशबलिर्जीयान्मंगलीकृतभूतलः ||२२|| तत्र सर्व्वशरीरिरक्षाकृतमतिब्र्विजितेन्द्रिय ( द्वितीयमुख) सिद्धशासनवर्द्धन प्रतिलब्ध- कीर्त्तिकलापकः । विश्रुतश्रुतकीर्ति भट्टारकयतिस्समजायत प्रस्फुरद्वचनामृतांशु विनाशिताखिलहृत्तमाः ||२३|| कृत्वा विनेयाम्कृतकृत्यवृत्तीन्निधाय तेषु श्रुतभारमुच्चैः । स्वदेहभारं च भुवि प्रशान्तस्समाधिभेदेन दिवं स भेजे ॥ २४ ॥ गते गगनवार्सासि त्रिदिवमत्र यस्योच्छ्रिता न वृत्तगुण संहतिर्व्वसति केवलं तद्यशः । अमन्दमदमन्मथप्रणमदुग्रचापोच्चल स्प्रतापतिकृत्तपश्चरणभेदलब्धं भुवि ॥ २५ ॥ ४१२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचारुकीत्तिमुनिरप्रतिमप्रभाव स्तस्मादभूनिजयशोधवलीकृताशः । यस्याभवत्तपसि निष्ठुरतोपशान्ति श्चित्ते गुणे च गुरुता कृशता शरीरे ||२६|| यस्तपोवल्लिभिर्व्वेल्लिताघद्रुमो वर्त्तयामास सारत्रयं भूतले । युक्तिशास्त्रादिकं च प्रकृष्टाशय श्शब्दविद्याम्बुधेर्वृद्धिकृच्चन्द्रमा ॥२७॥ यस्य योगीशिनः पादयोस्सर्व्वदा संगिनीमिन्दिरां पश्यतश्शाङ्गिणः । चिन्तयेवाभवत्कृष्णता वर्ष्मणः सान्यथा नीलता किं भवेत्तत्तनोः ||२८|| येषां शरीराश्रयतोऽपि वातो रुजः - प्रशान्ति विततान तेषां । बल्लालराजोत्थित रोगशान्तिरासीत्किले तत्किमु भेषजेन ||२९|| मुनिमनीषा बलतो विचारितं समात्रिभेदं समवाप्य सत्तमः । विहाय देहं विविधापदां विवेश दिव्यं वपुरिद्धवैभव ||३०|| अस्तमायाति तस्मिन्कृतिनि य म्णि नाभविष्यत्तदा पण्डितर्यात सोमः वस्तु मिथ्यातमस्तोमपिहितं सर्व्वमुत्तमैरित्ययं वक्तृभिरुपाधोपि ॥ ३१॥ विबुधजनपालक कुबुध-मत-हारकं । विजितसकलेन्द्रियं भजत तमलं बुधाः ||३२|| घवल-सरोवर-नगरजिनास्पदमसदृश माकृत तदुरुतथोमहः ||३३|| यत्पादद्वयमेव भूपतिततिश्चक्र े शिरोभूषणं यद्वाक्यामृतमेव कोविदकुलं पीत्वा जिजीवानिशं । यत्कीर्त्या विमलं बभूव भुवनं रत्नाकरेणावृत्तं यद्विया विशदीचकार भुवने शास्त्रार्त्यजातं महात् ||३४|| कृत्वा तपस्तीव्रमनल्पमेघास्सम्पाद्य पुण्यान्यनुपप्लुतानि । तेषां फलस्यानुभवाय दत्तचेता इवाप त्रिदिवं स योगी ||३५|| तस्मिन्ात्तो भूम्नि सिद्धान्तयोगी प्रोद्यद्वाचा वर्द्धयन सिद्धशास्त्र । पट्टावली ४१३ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध व्योम्नि द्वादशात्मा करोध र्य्यद्वत्पद्मव्यूहमुन्निद्रयन्स्वैः ॥३६॥ दुर्वाधुक्तं शास्त्रजातं विवेकी वाचानेकान्तार्थसम्भूतया यः । इन्द्रोऽछान्या मेघजालोत्थया भूवृद्धा भूभृत्संहति वा विभेद ॥३७॥ यद्वत्पदाम्बुजनतालमिपालमौलि रत्नांशवोऽनिशममु विदधुः सरागं । तदन्न वस्तु न वधून च वस्त्रजातं मो यौन्वनं न च बलं न च भाग्यमिजं ॥३८॥ प्रविश्य शास्त्राम्बुधिमेष धीरो जग्राह पूर्व सकलार्थरलं । परेऽसमस्तिदनुप्रवेशादेककमेवात्र न सर्वमापुः ॥३९|| सम्पाद्य शिष्यान्स मुनिः प्रसिद्धा नध्यापयामास कुशाग्रबुद्धीन् । जगत्पवित्रीकरणाय धर्म प्रवत्तंनायाखिलसंविदे च ॥४०॥ कृत्वा भक्ति ते गुरोस्सर्वशास्त्र नीत्वा वत्सं कामधेनु पयो वा । स्वीकृत्योच्चस्तत्पिबन्तोऽतिपुष्टाः शक्ति स्वेषां ख्यापयामासुरिद्धां !॥४१॥ तदीयशिष्येषु विदावरेषु गुणैरनेकै: श्रुतमुन्यभिख्यः । रराज शेलेषु समुन्नतेषु स रत्नकूटैरिव मन्दराद्रिः ४२॥ कुलेन शोलेन गुणेन मत्या शास्त्रेण रूपेण च योग्य एषः । विचार्य तं सूरिपदं स नीत्वा कृतकियं स्वं गणयाञ्चकार ।।४३।। अर्थकदा चिन्तयदित्यनेनाः स्थिति समालोक्य निजायुषोऽल्प । समार्य चास्मिन् स्वगणं समर्थे तपश्चरिष्यामि समाधियोगं ॥४४॥ विचार्य चैवं हृदये गणाग्रणीन्निवेदयामास विनेयबान्धवः । मुनिः समाहूय गणाप्रवत्तिनं स्वपुत्रमित्थं श्रुतवृत्तशालिनं ॥४५|| ( तृतीयमुख) मदनत्वयादेष समागतोऽयं गणो गुणानां पदमस्य रक्षा। त्वयांग मत्क्रियतामितीष्टं समर्पयामास गणी गणं स्वं ॥४६॥ गुरुविरहसमुद्यद्द :खदूनं तदीयं मुखं गुरुवचोभिस्स प्रसन्नीचकार । ४१४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ↑ 44 सपदि विमलिताब्द- रिलष्ट-प्रांसु-प्रतानं किमधिवसति योषिन्मन्दफूत्कारवातैः ॥४७॥ कृतिततिहितवृत्तस्सत्त्वगुप्तिप्रवृत्तो जितकुमतविशेषण शोषिताशेषदोषः । जितरतिपत्ति- सत्वस्तत्त्व-विद्या-प्रभुत्व स्सुकृतफल-विधेयं सोऽगमद्दिव्यभूयं ॥४८॥ गतेऽत्र तत्सूरिपदाश्रयोऽयं मुनीश्वर सङ्घमवर्द्धयत्तराम् । गुणैश्च शास्त्रेश्चरितैरनिन्दितैः प्रचिन्तयन्तद्गुरुपादपङ्कजम् ॥१४९॥ प्रकृत्य कृत्यं कृतसङ्घरक्षो विहाय चाकृत्यमनल्पबुद्धिः । प्रवर्द्धयन् धर्म्ममनिन्दितं तद्गुरूपदेशान् सफलीचकार ||५०॥ अखण्sयदयं मुनिमिवाग्भिरत्युद्धान् अमन्द-मद-सञ्चरत्कुमत - वादिकोलाहलान् । भ्रमन्नगरमभूद् भ्रि तरंग-ततिविभ्रम-ग्रहण चातुरोभिर्भुवि ॥५१॥ का त्वं कामिनि कथ्यतां श्रुतमुनेः कीर्तिः किमागम्यते ब्रह्मन् मत्प्रियसन्निभो भुवि बुधस्सम्मृग्यते सर्व्वतः । नेन्द्रः किं स च गोत्रभिद धनपतिः किं नास्त्यसी किन्नरः शेषः कुत्र गतस्स च द्विरसनो रुद्रः पशूनां पतिः ॥५२॥ वाग्देवताहृदय रज्जन- मण्डनानि मन्दार-पुष्प-मकरन्द रसोपमानि । आनन्दिताखिलजनान्यमृतं वमन्ति कर्णषु यस्य वचनानि कवीश्वराणां ॥५३॥ समन्तभद्रोऽप्यसमन्तभद्रः श्री- पूज्यपादोऽपि न पूज्यपादः । मयूरपिचछोऽप्यमयूरपिच्छ श्चित्रं विरुद्धोऽप्यविरुद्ध एषः ॥ ५४ ॥ एवं जिनेन्द्रोदितधर्म्ममुचेः प्रभावयन्तं मुनि-वंश-दीपिनं । अदृश्यवृत्त्या कलिना प्रयुक्तो वधाय रोगस्तमवाप दृत्तवत् ||५५|| पट्टावली ४१५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा खलः प्राप्य महानुभावं तमेय पश्चात्कबलीकरोति । तथा शनैस्सोऽयमनुप्रविश्य वपुर्खबाधे प्रतिबद्धवीर्यः ।।५६।। अङ्गान्यभूबन सकृशानि यस्य न च व्रतान्यद्भुत-वृत्त-भाजः । प्रकम्पमापदपुरिद्धरोगान्न चित्तमावस्यकमत्यपूर्व ॥५७|| स मोक्ष-मार्गे रुचिमेष धीरो मुदं च धर्मे हृदये प्रशान्ति । समादधे तद्विपरीतकारिण्यस्मिन् प्रसप्पंत्यधिदेहमुच्चैः ।।५८॥ अङ्गेषु तस्मिन् प्रविज़म्भमाणे निश्चित्य योगी तदसाध्यरूपतां । ततस्समागत्य निजाग्रजस्य प्रणम्य पादाववदत् कृताञ्जलि: ॥५९।। देव पांडतेन्द्र योगिराज धम्मवत्सल त्वत्पद-प्रसादतस्समस्तमर्जितं मया । सद्यशः श्रुतं व्रतं तपश्च पुण्यमक्षयं कि ममात्र वर्तित-क्रियस्य कल्प-काङ्घिण: ।।६०॥ देहत्तो विनात्र कष्टमस्ति कि जगत्त्रये तस्य रोग-पीडितस्य वाच्यता न शब्दत: 1 देय एव योगतो वपु-सिजन-क्रम स्साधु-वर्ग-सर्व-कृत्य-वेदिनां विदांवर ॥६१।। विज्ञाप्य कायं मुनिरिथमर्थ्य मुहुर्मुहुरियतो गणीशात् । स्वीकृत्य सल्लेखनमात्मनीनं ___ समाहितो भावयाति स्म भाव्यं ॥६२१॥ उद्यद्-विपत-तिमि-तिमिशिल-नक्र चक्र प्रोतुग-मृत्यमृति-भीम-तरंग-भाजि ! तीवाजवजव-पयोनिधि-मध्य-भागे क्लिश्नात्यहन्निशमयं पतितस्स जन्तुः ॥६३|| इदं खलु यदाकं गगन-वाससां केवलं न हेयमसुखास्पदं निखिल-देह-भाजामपि । अतोऽस्य मुनयः परं विगमनाय बद्धाशया ___ यतन्त इह सन्ततं कठिन-काय-तापादिभिः ॥६४|| अयं विषयसञ्चयो विषमशेषदोषास्पद स्पृशजनिजुषामहो बहुमवेषुसम्मोहकृत् । ४१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः खलु विवेकिनस्तमपहाय सर्वसहा विशन्ति पदमक्षयं विविधकर्म-हान्युत्थितं ॥६५॥ (चतुर्थमुख) उद्दीप्त-दुःख-शिखि-संगतिमङ्गयष्टि तीवाजवजव-तपातप-ताप-तप्तां । नक-चन्दनादिविषयामिष-तैल-सिक्तां को वावलम्ब्य भुवि सञ्चरति प्रबुद्धः ॥६६॥ स्रष्टुः स्त्रीणामनेसां सृष्टितः किं ___गात्रस्याधोभूमिसृष्ट्या च किं स्यात् । पुत्रादीनां शत्रु-कायं किमयं सृष्टेरित्थं व्ययंता घातुरासीत् ।।६७।। इदं हि बाल्यं बहु-दुःख-बीज मियं वय:श्रीग्र्घन-राग-दाहा । स वृद्धभावोऽमर्षास्रशाला दशेयमङ्गस्य विपत्फला हि ॥८॥ लब्धं मया प्राक्तन-जन्मपुण्यात् सुजन्म सद्गात्रमपूर्चबुद्धिः । सदाश्रयः श्रीजिन-धर्मसेवा ततो विना मा च परः कृत्ती कः ॥६९।। इत्थं विभाव्य सकलं भुवन-स्वरूप योगी विनश्वरमिति प्रशमं दधानः । अविमीलितहगस्खलितान्तरंग: पश्यन् स्वरूपमिति सोऽवहितः समाधी ॥७०॥ हृदय-कमल-मध्ये सैद्धमाधाय रूपं प्रसरदमृतकल्पैम्र्मूलमन्त्रः प्रसिञ्चन् । मुनि-परिषदुदीन-स्तोत्र-घोषैस्सहैव श्रुतमुनिरयमङ्ग स्वं विहाय प्रशान्तः ॥७॥ अगमदमृतकल्पं कल्पमल्पीकृतैना बिगलितपरिमोहस्तत्र भोगागकेषु । विनमदमर-कान्तानन्द-वाष्पाम्बु-धारा पतन-हृत-रजोऽन्तर्दाम-सोपानरम्यं १७२|| पट्टावली : ४१५ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतो याले तस्मिन जगदनि शून्य जनिभृतां मनो-मोह-ध्वान्तं मत-बलमपूर्यप्रतिहत व्यदीप्युद्यच्छोको नयन-जल-मुष्णं विरचयन् वियोगः किं कुर्य्यादिह न महतां दुस्सहतरः |७३।। पादा यस्य महामुनेरपि न कै भृच्छिरोभिता वृत्तं सन्न विदांवरस्य हृदयं जग्राह कस्यामलं । सोऽयं श्रीमुनि-भानुमान विधिवशादस्त प्रयातो महान यूयं तद्विधिमेव हन्त तपसा हन्तुं यतध्वं बुधाः ॥७४।। यत्र प्रयान्ति परलोकमनिन्द्यवृत्ता स्स्थानस्य तस्य परिपूजनमेव तेषां । इज्या भवेदिति कृताकृतपुण्य राशेः स्थेयादित्यं श्रुतमुनेस्सुचिरं निषद्या ।।७५।। इशु-गर-शिखि-विधु-मित्त-शक परिधावि-शरद्वितीयगाषाढ़े सित-नवमि-विधु-दिनोदयजुषि सविशाखे प्रतिष्ठितेयमिह ।।७६|| विलीन-सकल-क्रियं विगत-रोधमत्यूजितं विलसित-तमस्तुला-विरहितं विमुक्ताशयं । अवाङ्-मनस-गोचरं विजित-लोक-शक्त्यग्रिम मदीय-हृदयेऽनिशं वसतु धाम दिव्यं महत् ॥७७|| प्रबन्ध-ध्वनि-सम्बन्धात्सद्भागोत्पादन-क्षमा । मंगराज-कवाणी वाणीवीणायतेतरां ।।७८|| भाषानुवाद १. कुशासनका विध्वंस करनेवाला मुक्तिलक्ष्मीका एक शासन और अजेय है माहात्म्य जिसका, ऐसा समुज्ज्वल जैन शासन जयशाली होवे । २. सब सुखोंका मूल और सब प्रकारके आतंकों (मनोवेदनाओं)को दुर करनेवाली प्रकाशमय ज्योति हमारे हृदयमें फैले। ३. रलत्रयके प्रकाश करनेवाले, मूर्खता हटानेवाले, विविध नयके विवेचक और स्याद्वाद-सुधासे वितृप्त ये तीर्थकर हमारे हृदयमें विराजमान होवें। ४. त्रिभुवनमें विख्यात अन्तिम तीर्थनाथ श्री वर्धमानस्वामी हुए। इनकी देहकी कान्तिने सभी सृष्टिको प्रकाशित कर दिया | ४१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. इनके रहते-रहते मुनियोंसे वंदित श्रेष्ठ संघाधिपति श्रीमान् गौतम मुनि हुए। ६.८, इन्हीके समुज्ज्वल बंशमें समुद्रसे चन्द्रमाके समान यतिराज श्री भद्रबाहुस्वामी हुए 1 इनकी कीर्ति तथा सिद्धशासन भूमण्डलमें व्याप्त थे। यद्यपि भद्रबाहुस्वामी श्रुतकेवली, मुनीश्वरों श्रुतकेलियों)के अन्तमें हुए, तो भी ये सभी पण्डितोंके नायक तथा श्रुत्यर्थ प्रतिपादन करनेसे सभी विद्वानोंके पूर्ववर्ती थे। ९-१०. इन्होंके शिष्य शीलवान् श्रीमान् चन्द्रगुप्त मुनि हुए। इनकी तीव्र तपस्या उस समय भूमण्डलमें व्याप्त हो रही थी। इन्हींके वंश बहुतसे यतिवर हुए, जिनमें प्रखर तपस्या करनेवाले, मुनीन्द्र कुन्दकुन्दस्वामी हुए। ११-१३. तत्पश्चात् सभी अर्थको जाननेवाले उमास्वातिनामके मुनि इस पवित्र आम्नायमें हुए, जिन्होंने श्री जिनेन्द्र-प्रणीत शास्त्रको सूत्ररूपमें रूपान्तर किया। सभी पियोंके का सहारा होगी उमास्वाति मुनिने गृध्रपक्षको धारण किया। तभीसे विद्वद्गण उन्हें गृध्रपिच्छाचार्य कहने लगे। इन योगी महाराजको परम्परामें प्रदीपरूप महर्द्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए। इनके शरीरके संसर्गसे विषमयो ह्वा भी उस समय अमृत (निर्विष) हो जाती थी। १४. इसके बाद जिनशासनके प्रणेता भद्मूर्ति श्रीमान् समन्तभद्रस्वामी हुए। इनके वाग्वनके कठोर पातने वादिरूपी पर्वतोंको चूर्ण-चूर्ण कर दिया था। १५-१७. इनकी परम्परामें श्री धर्मराज पूज्यपाद स्वामी हुए, जिनके बनाए हुए शास्त्रोंमें जैनधर्मका बहुत ही महत्त्व मालूम होता है। इन्होंने निरन्तर कृतकृत्य होकर संसार-हितैषिणी बुद्धिको धारण किया। अनंगके ताप हरने. वाले साक्षात् जिनभगवानके जैसे विदित होनेसे लोगोंने इनका नाम जिनेन्द्र' रखा । औषधशास्त्रमें परम प्रवीण, विदह-जिनेन्द्रदर्शनसे पवित्र होनेवाले श्रीमान् पूज्यपाद मुनि जयशाली रहें। इनके चरणकमलके धौत जलके संसर्गसे कृष्ण-लोहा भी सुवर्ण हो जाता था। १८-१९ इनके बाद शास्त्रवेत्ता मुनियोंमें अग्रेसर अकलंकसूरि हुए। इन्हीके वाङ्मयरूपी किरणोंसे मिथ्यांधकारसे आच्छादित अर्थ संसारमें प्रका. शित हुआ। इनके स्वर्ग जानेपर इनकी परम्पराके मुनिसंघोंमे कई भेद २०. इनके बाद श्रीमान् योगी जिनेन्द्र भगवान् अविरुद्ध वृत्तिवाले चार संघोंको पाकर परस्पर समान चार मुखके ऐसे उन्हें समझकर शोभने लगे। पट्टावली : ४१९ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. कामशः देव, मन्दि, सिंह और सन बार संब निर्मित हुए, जिनमें नन्दिसंघ बड़ा प्रसिद्ध था । २२. नन्दिसंघमें देशीयगण, पुस्तकगच्छके स्वामी इङ्गलेश्वर, जिन्होंने सारे भूतलको मंगलमय कर दिया है, विजयशाली हो । २३-२५. उसी नन्दिसंघमें सम्पूर्ण प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले, इन्द्रिय निग्रही, स्याद्वादमतके प्रचार करनेसे कीर्तिकलापको पानेवाले, प्रसिद्ध यतिवर श्रुतकीर्ति भट्टारक हुए, जिनको प्रभामयी वचनामृतकिरणोंसे सारा अजानाधकार विनष्ट हो गया। विनयी सज्जनोंको कृत्कृत्य बताकर तथा उनपर श्रुतशास्त्रका भार समर्पित कर और पृथ्वीपर अपनी देहका भार रखकर समाधिपूर्वक शान्त होकर उन्होंने स्वर्गधामको अलङ्कृत किया । २६. उन महात्मा दिगम्बरके स्वर्गचले जानेपर इस भूतलपर उनकी कीर्ति स्थिररूपसे रह गयीं। २७. इनके शिष्य अप्रतिम प्रतापशाली श्रीचारुकीर्ति मुनि हुए। इन्होंने अपने सुयशसे दिशाओंको भी समुज्ज्वल कर दिया । इनकी तपस्या निष्टुरता, चित्तमें शान्ति, गुणमें गुरुता तथा शरीरमें कृशताकी मात्रा दिन-दिन बढ़ने लगी। २८. जिनके तपरूपी बल्लीसे वलयित होकर वृक्षरूपी संसारमें रत्नत्रयका प्रचार होने लगा। इनकी युक्ति, शास्त्रादि तथा प्रकृष्टाशय विद्याम्बुधिके बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके तुल्य थे। २२. जिस योगिसिंह महात्माके चरणकमलोंकी सदा सेवा करनेवाली लक्ष्मीको देखकर ( अहो मुझे यह कैसे मिले } ईर्ष्यासे विष्णुका सारा शरीर काला हो गया, नहीं तो उनके काले होनेकी दुसरी वजह नहीं थी। ३०. जिनके शरीरके सम्पर्कमात्रसे ही सभी रोगोंकी शान्ति हो जाती थी। लोग कहा करते थे कि चल्लालराजकी कृपासे रोग छूटा है, दवासे क्या ? ३१. मुनिने समाधिपूर्वक अनेक आपद्का स्थान इस विनश्वर शरीरको छोड़कर दिव्य' शरीरको पाया। ३२. इनके स्वर्ग चले जानेपर उन जैसा कोई विद्वान नहीं हुआ । उस समय यह संसार अज्ञानांधकारसे आवृत्त था । ऐसा उत्तम वक्ताओंने कहा । ३३. इसलिए कुमतान्धकारके विनाशक अपनी सभी इन्द्रियोंको जीतनेवाले ४२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विद्वद्गणोंके रक्षक उन महात्माको हे विवृद्वयं ! भजो। ३४. जिनके चरणकमलको राजाओंने शिरोभूषण बनाया, जिनके वचनामृतफा पानकर पण्डितगण अहनिश जीते थे, जिनकी कीर्तिरूपी समुद्रसे परिवेष्टित होकर यह पृथ्वीतल धवलित हुआ और जिनकी विद्याने भूतलमें शास्त्रोंको विशद् बना दिया। ३५. वे महात्मा योगिराज एक चित्त होकर बड़ी कठिन तपस्याको करके तथा बहुत पुण्य इकट्ठा करके उन्हीं पुण्योंको उपभोग करनेके लिए स्वर्गको चले गये। ३६. उनके स्वर्ग चले जानेपर अपनी शास्त्रमयी वाणीसे सिद्धशास्त्रोंको वलित करते हुए, शुद्धाकाशमें वर्तमान, शास्त्ररूपी पोंको विकसित करते हुए सूर्यले समातीने सम्मानों को प्रफुल्लित किया। ३७. इन्द्रका व जिस प्रकार पर्वतोंका भेदन करता है उसी प्रकार इन्होंने एकान्त अर्थसे युक्त दुर्वादियोंकी उक्तिको खण्ड-खण्ड कर दिया। ३८. उनके चरणोंपर गिरे हुए राजाओंकी मुकुट-मणिकी धुलियोंने जिस प्रकारसे इनको रागवान् बनाया था, उस तरह सांसारिक वस्तु, स्त्री, वस्त्र तथा यौवनादि उनको रामी नहीं कर सके। ३९. ये महात्मा शास्त्ररूपी समुद्र में प्रविष्ट होकर अनेक अर्थरूप रल निकाल लाये और उन रत्नोंको अपने शिष्योंको वितरित कर दिया। __४०, इन्होंने संसारको पवित्र करनेके लिए तथा धर्मका प्रचार होनेके लिए अपने शिष्योंको कुशाग्रबुद्धि बनाकर पढ़ाया। ४१. जिस प्रकार बछड़ा गायसे दूध ग्रहण करता है, उसी प्रकार गुरुमें असीम भक्तिकर उन सबोंने उनसे सब शास्त्रोंको ग्रहण कर संसारमें अपनी खूष कोत्ति फैलायी। ४२. जिस प्रकार समुन्नत पर्वतोंमें रत्नकूटोंसे मन्दराचल पर्वत शोभता है, उसी प्रकार उनके सकलशास्त्रवेत्ता शिष्योंमें अनेक गुणों द्वारा श्रुसमुनि शोभाको प्राप्त हुए। ४३. कुल, शील, गुण, मति, शास्त्र और रूप इन सबोंमें इन्हें योग्य समझकर सूरिपद दिया। ४४. इसके बाद सांसारिक स्थितिको सोचते हुए इन्होंने अपनी आयु थोड़ी जानकर यह विचारा कि अगर मेरा गण समर्थ हो जाचे, सो में समाधियोग्य तपस्या करूँगा। पट्टावकी : ४२१ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. मनमें ऐसा सोचकर श्रुत-वृत्तशाली अपने गणावर्ती पुत्रको बुलाकर कहा कि : ४६. हमारी वंश-परम्परासे ये गण चले आते हैं, इसलिए तुम भी इनको रक्षा करो, ऐसा कहकर गणीने अपने गणको उनके सुपुर्द किया। ४७. असह्य बिरहजन्य दुःखसे ये बहुत दुःखी हुए, किन्तु इनके गुरुने कोमल वचनोंसे इनको प्रसन्न किया | ४८. अच्छे-अच्छे सुकृत्त कार्यको करनेवाले, कुमति तथा दोषको समूल नष्ट करनेवाले और कामदेवकी सवानियाको जीतने वाले ये मानधामको गये। ४९-५०. उनके स्वर्गधाम चले जानेपर सूरिपदको धारण करनेवाले ये अपने संघकी शनैः शनैः वृद्धि करने लगे। किन्तु गुणोंको, शास्त्रोंको तथा उनके अनिन्द्य चरित्रोंको बार-बार स्मरण कर सदा अपने गुरु के चरणकमलकी ही चिन्ता करते थे। __५१. कृत्यको करके, अपने संघकी रक्षा करके तथा अपने अनिन्दित धर्मको उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए इन्होंने अपने गुरुके उपदेशको सफल किया। ५२. इन्हीं मुनिने अपनी विमल वाधारासे उद्धत वादियोंको शमन करते हुए संसारमें अपने धर्माका प्रचार किया। ५३. हे कामिनी ! तु कौन है ? क्या श्रु तमुनिकी कीर्त तू इधर आ रही है ? क्या इन्द्र है, नहीं, यह तो गोत्रभिद् है। कुवेर तो नहीं है ? किन्तु यह किन्नर नहीं मालूम पड़ता है। ब्रह्मन् ! मैं अपने ऐसे किसी विद्वान् मुनिको चारों तरफ खोज रहा हूँ। ५४. सरस्वती देवीके हृदयको रञ्जित करनेवाली, मन्दार तथा मकरन्दके रसके सदृश और सभी संसारको आनन्दित करनेवाली कवोश्वरोंकी सुमधुर वाणी सबके कानोंमें अमृतधाराको भरती है। ५५. समन्तभद्र होते हुए भी असमन्तभद्र, श्रीपूज्यपाद होते हुए भी अपूज्यपाद और मयूरपिच्छ धारण करते हुए भी मयूपिच्छको नहीं धारण करनेवाले हुए। आश्चर्य है कि इनमें विरुद्ध अविरुद्ध दोनों प्रवृत्तियाँ थीं। ५६. इस प्रकार जिनेन्द्रद्वारा कहे गये धर्मकी बड़ी वृद्धि हुई, किन्तु पीछेसे गुप्त रीतिसे कलिकालसे प्रयुक्त जो रोग (पंचम कालका प्रभाव) है वह धम्म में बाधा पहुंचाने लगा। ५७. जैसे दुष्ट सज्जनको अपनी सेवासे मुग्धकर पीछे सर्वपास करनेको ४२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार पञ्चम कालका प्रभाव मुनियोंके प्रभावको रोककर उनके धर्म-कार्यमें बाधा पहुँचाने लगा। ५८-५९. जिनके अङ्गोंके खिन्न होने पर व्रतादिक नियम ज्यों-के-त्यों बने रहे, उस महात्माने मोक्षमें रुचि, धर्ममें हर्ष और हृदयमें शान्तिको अव. धारित किया। ६०. अनन्तर महात्माने अपने शरीरमें रोगको बढ़ते हुए देखकर और उसको असाध्य समझकर अपने ज्येष्ठ भ्राताके निकट आकर प्रणाम करके कहा। ६१-६२. हे पण्डितप्रवर योगिराज ! आपकी कृपासे मैंने सभी दोषोंको प्रक्षालित किया, यशको विस्तृत किया और बहु ससे व्रतोंको किया, परन्तु रोगग्रस्त शरीर रहनेकी अपेक्षा अब इस भूतल में नहीं रहना ही अच्छा है । ६३. मनिने संघको भी ऐसी सूचना देकर संघके बार बार रोकने पर भी अन्तिम क्रिया-सल्लेखनाको सम्पादित कर अन्तिम समाधि लगायी । ६४ भयङ्कर विपत्तिरूप ग्रहादि जीवोंसे तथा मृत्युरूपी लहरोंसे युक्त व्यग्रतारूपी समुद्रके बीच में गिरकर यह जीव रात-दिन क्लेशको पा रहा है। ६५. दिगम्बर जैन तथा सभी देहधारियों के लिए यह दुःखमय शरीर त्याज्य ही समझना चाहिये । इसीसे मनि-गण पुनर्जीवन रोकने के लिए काय-कष्टकर अनेक तपस्यायें करते हैं। __६६ यह विषय-सञ्चय भीषण दोषका स्थान समझना चाहिए । इसलिए सहिष्ण विवेकी सांसारिक विषयको छोड़कर विविध कर्मको नष्ट करनेके लिए अक्षयपदको प्राप्त होते हैं। ६७. बड़े उद्दीप्त दुःखाग्निसे तप्त, अनेक रोगोंसे युक्त और माला, पन्दन आदि विषम पदार्थोसे संबलित इस शरीरके धारण करनेसे ससारमें क्या लाभ है? ६८. पापमयी स्त्रीकी सृष्टिसे क्या ? शरीरके नीचे सृष्टि करनेसे क्या प्रयोजन ? और पुत्रादिकोंमें शत्रुता क्यों रख छोडी गयी ? इसलिए मैं समझता हूँ कि ब्रह्माकी सृष्टि व्यर्थ ही है। ____६९. पहले बाल्यावस्था ही दुःखका बीज है, तत्पश्चात् युनावस्थाको भी रोगका अड्डा ही समझना चाहिए और वृद्धावस्थाको भी ऐसा ही विषमय समझकर यह मानना पड़ता है कि इस शरीरकी दशा ही विपत्ति-परिणामको दिखानेवाली है। ७०. प्राक्तन जन्मके पुण्यसे मैंने सुन्दर शरीर, सुन्दर मनुष्य-जन्म तथा पट्टावली : ४२३ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी बुद्धि पायी हैं, इसलिये मुझे सज्जनोंकी संगति, और श्रीजिनधर्मकी सेवा करनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना आदमी कृती नहीं हो सकता। ७१, सारे संसारका स्वरूप जानकर, योगिराट -'सभी संसार विनश्वर है' ऐसा कहकर शान्तिको धारण करते हुए आधी आँखें मीचकर स्वरूपको देखते हुए समाधिको प्राप्त हुए। ७२. अपने हृदय-कमलमें स्वच्छ रूपको धारण कर तथा अमृतसदश उन मूलमन्त्रोंसे सींचते हुए श्रुतमुनिने स्तोत्र-पाठके साथ-साथ शान्तिपूर्वक अपने शरीरको छोड़ा । ७३. जिनके उत्पन्न होनेपर अज्ञानान्धकारावृत्त यह संसार ज्ञानवान होकर हर्षयुक्त हुआ, सो आज उन्हींके स्वर्ग जानेपर लोग उष्ण उच्छ्वास ले-लेकर आँखोंसे शोकाश्रुधारा बहा रहे हैं। ठीक है, बड़ोंका वियोग दुस्सह होता ७४. इन महामुनिके चरण-कमल प्राय: सभी राजाओंने शिरोधृत किए तथा इनकी सच्चरित्रता भी अपने हृदय में सभी ऋषिवर्योने गृहीत की 1 वही महात्मा आज भाग्यवश परलोकको चल बसे, इसलिये आप लोग भी उन्हींकेसे सद्धर्मकार्योंको पालन करनेके लिये अवतरित होनेकी कोशिश करें। ७५ जिन महात्माओंके चरित्र अनिन्द्य हैं, वे जिस स्थानमें परलोकको जाते हैं उस स्थानको भी पूजा करनी उन्हींकी पूजा करनी है, इसलिए जिनधर्म-प्रचारक श्रुतमुनिका यह स्थान (निषद्या) सदा बना रहे। ७६. शक १३६५ वैशाख शुक्ल नवमी बुधवारको इन्होंने स्वर्गको प्रस्थान किया। ७७ सभी क्रियाको शान्त करनेवाला, अज्ञानान्धकारको हटानेवाला, सभी आशयसे रहित और अवाङ्-मनस-गोचर संसारमें सभी शक्तिको जीतनेवाला जो कोई दिव्य तेज है, वह मेरे हृदयमें सदा रहे। ७८. इस प्रबन्धकी निसे सम्बन्ध रखनेवाली, तथा सच्चे प्रेमको उत्पन्न करनेवाली मङ्गराजकी वाणी वीणाकी-सी होवे । सेनगण-पट्टावली बद्धाष्टकमंनिर्घाटनपटुशुद्धेद्धराद्धान्तप्रभाबोधितनवखण्डमण्डनश्रोनेमिसेनसिद्धान्तीनाम् ॥२०॥ अतीवघोरतरतरांतपनसंतप्तत्रलोक्यप्राणिगणतापनिवारणकारणच्छत्रायभानश्रीमच्छीछत्रसेनाचार्याणाम् ॥२१॥ उनदीप्ततप्तमहातपोयुक्तार्यसेनानाम् ।।२२॥ ४२४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आधार्यपरम्परा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · संयम संपन्न श्रीलोहसेन मट्टारकाणाम् ॥२३॥ नवविधबालब्रह्मचर्यव्रतपूर्वकपरब्रह्मध्यानाधीन श्रीब्रह्मसेनतपोधनानाम् ॥२४॥ भव्यजनकमलसूरसेनभट्टारकाणाम् ||२५|| दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधरश्रीमलसंधोपदेशपितृवनस्वर्यातककमलभद्र भट्टारकाणाम् ||२६|| सारत्रयसंपन्न श्रीदेवेन्द्रसेनमुनिमुख्यानाम् ||२७| विहारनगरीप्रवेशसमयसारस्कन्धाष्टकथनाल्पाख्यान बाणबाधाह्रणगंगामध्य. पट्टाभिषेकनिरूपक त्रैविद्यकुमारसेनयोगीश्वराणाम् ||२८|| अंगवादिभङ्गशील-कडि (लि ) गवादिकालानल-काश्मीरवादिकल्पान्तग्रीष्मनेपालवादिस्वापानुग्रहसमर्थ गौड़वादिब्रह्मराक्षस - वालेवादिकोलाहल - द्राविड़वादित्राटनशील - तिलिङ्गवादिकलकारी दुस्तरवादिमस्तकशूल- उड्डीयदेशेऽश्वगजपतिसभासनिविष्टप्रचण्डय मदण्डसुण्डा लसुण्डादण्डखण्डनकालदण्डमण्डलदोर्दण्डमण्डित श्रीदुर्लभसेनाचार्याणाम् ||२९|| • तपः श्रीकर्णावतंस श्रीषेण भट्टारकाणाम् ॥३०॥ दुर्वार दुर्वादिगर्व खर्वपर्वतचूर्णीकृत कुलिशायमानदक्षपरराजलक्ष्मीसेनभट्टारकाणाम् ॥३१॥१ नवलक्षधनुराधीशदशसप्तलक्षदक्षिण कर्णाटक राजेन्द्र चूडामौक्तिकमालाप्रभामधूनी (?) जलप्रवाहप्रक्षालितचरणनखबिम्बश्रीसोमसेनभट्टारकाणाम् ||३२|| अलकेश्वरपुराद्भरवच्छनगरे राजाधिराजपरमेश्वरथवन राय शिरोमणिमहम्मदपातशाहसुरश्राणसमस्यापूर्णादखिलदृष्टिनिपातेनाष्टादशवर्षप्रायप्राप्तदेवलोक श्रीभुतवीरस्वामिनाम् ॥ ३३ ॥ भंभेरीपुर धनेश्वरभट्ट भ्रष्टीकृतानलनिहितयज्ञोपवीतादिविजितसिहब्रह्मदेवसधम्मंशर्म कर्म निर्मलान्तःकरणश्रीमच्छ्रीवरसेनाचार्याणाम् ||३४|| हावभावविकामविलासविलासाविभ्रमशृंगारभृङ्गीसमालिङ्गितबालमुग्धयोव नविदग्धाखिलाङ्गनामनोवाक्कायनवविधबाल ब्रह्मचर्यव्रतोपेत श्रीदेवसेनभट्टार काणाम् ||३५|| अनेकभव्यजनचातकनिकरजृषाधिकारकरणमधुरवाग्धारासारसयुतनूतनसन पितुसदृश श्रीदेवसेन भट्टारकाणाम् ॥३६॥ तत्पट्टोदयाचलप्रभाकरनित्याद्मेकान्तवादिप्रथमवचनखण्डनप्रचण्डवचनाम्बरषट्दर्शनस्थापनाचार्यषट्तर्कचक्र श्वरडिल्लि (दिल्ली) सिंहासनाधीश्वर सार्वभौम पट्टावली : ४२५ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साभिमानवादी सिंहाभिनवत्रैविद्यश्रीमच्छ्रोसोमसेनभट्टारकाणाम् ||३७| तत्पटटवाद्विवर्द्धनेक पूर्णचन्द्रायमानाभिनवबादिसंस्कृत सर्वज्ञप्राकृत संस्कृतपरमेश्वरवज्रपंजरसमानानाम्, अंगवंगकलिंगकाश्मीरकाम्भोजकर्णाटक मगधपालतुरलचेरल ( मलह ) केरभारंजित विद्वज्जन सेवितचरणारविन्दानां श्री मूलसंघवृषभसेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलि विराजमानश्रीमद्गुणभद्र भट्टारकाणाम् ||३८|| तत्पट, टोदयाद्विदिवाकरायमाणश्रीमत्कर्णाटक. देशस्थापितधर्मामृतवर्षण जलदायमानधीरतपश्चरणाचरणप्रवीण श्रीवीरसेनभट, टारकाणाम् ||३९|| विगताभिमानत्तपगतकषायांगादिविविधग्नन्थक र क कुशलताभिमानश्रीयुक्तवीरभट टारकाणाम् ||४०|| तत्पट् टे सर्वज्ञवचनामृतस्वादकृतात्मकायसद्धर्मोदधिवर्द्धनेकचन्द्रायमाणतर्ककर्कशपुष्करायमाणमन्मथमथनसमुद्भूतत्रिविधवेराग्यभावितभागधेयजनजनितसपर्या श्रीमाणिकसेनभटटारकाणाम् ||४१|| तत्पद टोदयाचलदिवाकरायमाणानेकशब्दार्थान्वयनिश्चयक रणविद्वज्जनस रोजविकाश कपटुतरायमान श्रीगुण सेनभट टारकाणाम् ||४२|| तदनु सकलविद्वज्जनपूजितचरण कमल भव्यजनचित्तसरोजनिवासलक्ष्मीसदृशलक्ष्मीसेनभट्टारकाणाम् ॥४३॥ विबुधविविधजनमनइन्दीवर विकाशनपूर्ण शशिसमानानां कविगमकवादवाग्मित्वचातुर्विधपाण्डित्यकलाविराजमानानां नयनियमतपोबलसाधितधर्म भारधुरंधराणां, अखिलसूखकरण सोमसेनभट टारकारणाम् ॥४४॥ } मिथ्या मतत मोनिवारणमाणिक्य रत्न समदिव्यरूपश्रीमाणिक्यसेनभट् टारकाणाम् ।। ४५ ।। आशीविषदुष्टकर्कशमहा रोगमदगजकेसरि सिंहसमानानां अनेकनरपतिसेवितपादपद्मश्रीगुणभद्रभट टारकाणाम् ॥४६॥ सत्पटटे कुमुदवनविकाश नेकपूर्णचन्द्रोदयायमा नललितविलासविनोदितत्रिभुवनोदरस्थविबुधकदम्बकचन्द्र करनिकरसन्निभयशोधरधवलितदिङ्मंडलानां, श्रीमदभिनवसोमसेनभट टारकाणाम् ||४७|| तत्पटटे महामोहान्धकारतमसोपगूढभुवनभव लग्न जनताभिदुस्तरकैवल्यमार्ग प्रकाशन दी पकानां, कर्कशतार्किककणादवैयाकरणबृहत्कुम्भीकुम्भपाटनलंपटवियां निजस्वस्याचरणकणखञ्जायितचरणयुगाद्रेकाणां, श्रीमद्भट टारकवर्यसूर्यश्री जिनसेनभट टारकाणाम् ॥४८॥ ४२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पट टोदयाचलप्रकाशकरदिवाकरायमाण-श्रीमज्जिनयरवदनविनिर्गतसप्तभड्गीनवनयोय(वचनोपमनयात्मकद्वादशांगाब्धिवर्धनकषोडशकलापरिपूर्णचन्द्रायमानाज्ञानजाड्यमुद्रितभव्यजनचित्तसरससरसीरुहप्रबोधकस्ववचनरचनाडम्बरचारचातुरीचमत्कृतत्सुरगुरुप्रख्यायमाणस्वगणाग्रावलिसिंचनधारायमाणकोटिमुकुटमहावादिराजराजेश्वरकाव्यचक्रवर्तिश्रीमच्छीसमन्तभद्रभट्टारकाणाम् ||४९॥ श्रोमाया गुरुवसु बराचार्यपाहावादवादापितामहविद्वज्जनचक्रवर्तिकतिकडिवाणपरिग्रविक्रमादित्यमध्याह्नकल्पवृक्षसेनगणाग्नगण्यपुष्पकरगच्छविरुदावलिविराजमान दिल्लि(दिल्ली)सिंहासनाधीश्वरछत्रसेनतपोऽभ्युदयसम्रद्धिसिध्यर्थ भव्यजनः क्रियमाणैः जिनेश्वराभिषेकमवधारयन्तु सर्वे जनाः ।। इति सेनपट्टावलो ।। भाषानुवाद बन्धकारक अष्टकर्मोंसे छुड़ानेमें चतुर शुद्ध और वर्द्धित सिद्धान्तकी शोभासे बोधित नवखण्डोंकी शोभा श्रीमान् नेमिसेन सिद्ध हुए ॥२०॥ भयंकर तापसे तप्त तीनों लोकोंके प्राणियोंके तापको दूर करनेवाले तथा उस तापको हटानेके लिए छत्रके समान श्री छत्रसेनाचार्य हुए ॥२१।। अत्यधिक प्रकाशमान तथा तीव्र महातपसे युक्त श्री आर्यसेन आचार्य हुए ॥२२॥ अत्यन्त संयमो श्री लोहाचार्य भट्टारक हुए ॥२३॥ नव प्रकारके ब्रह्मचर्यबतके साथ परमेश्वरके ध्यानमें लोन श्री ब्रह्मसेन महातपस्वी हुए ॥२४॥ कमलरूपी भव्यजनोंके लिये सूर्यके समान श्री सूरसेन भट्टारक हुए ॥२५॥ काष्ठासंघके संशयरूपी अन्धकारमें डूबे हुओंको आक्षा प्रदान करनेवाले श्री मूलसंघके उपदेशसे पितृलोकके वनरूपी स्वर्गसे उत्पन्न श्री कमलभद्र भट्टारक हुए ||२६॥ ___ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारिषरूप रत्नत्रयसे युक्त श्री मुनीश्वर देवेन्द्रजी हुए ॥२७॥ विहारनगरमें प्रवेशके समय सारस्कन्धाष्टकके कथनका आल्पाख्यान, वाणबाधाका हरण और गंगाके मध्य पट्टाभिषेक करनेवाले विद्य श्री योगीश्वर कुमारसेन हुए ॥२८॥ पट्टावली: ४२७ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगदादियोंके लिये भंगशील, कलिंगवादियोंके लिये कालाग्नि, काश्मीरवादियोंके लिये प्रलयकालको उष्णता, नैपालवादियोंके लिये शाप-क्षमा करनेमें समर्थ, द्राविड़वालोंके लिये प्रोटनशील, गौड़वादियोंके लिये ब्रह्मराक्षस, केवल वावियोंके लिये कोलाहल, तैलंगवादियोंके लिये शिरोव्यथा, उड्डोयदेशमें गज, अश्व आदिके स्वामी, सभामै प्रविष्ट उग्र यमदण्ड, गजराजके सुण्डादण्डको छिन्न-भिन्न करनेवाले तथा कालदण्डके समान शोभित बाहुवाले श्री दुर्लभसेनाचार्य हुए ।।२९॥ तपस्याको ही कर्णभूषण माननेवाले श्रीमान श्रीषेण भट्टारक हुए ॥३०॥ दुर्वार्य दुर्वादियोंके गर्वरूपी पर्वतको चूर्ण करनेके लिये बनके समान दक्ष परिग़ज श्रीलक्ष्मीसेन भट्टारक हुए ॥३१॥ नवलक्ष धनुर्धरोंके स्वामी, दक्षिणके फर्नाटकीय सत्रह लाख राजाओंके मस्तकोंकी मणिमालाकी प्रभासे उद्भासित, मधुजलकी धारामें धुल हुए चरणनखबिम्बवाले श्री सोमसेन भट्टारक हुए ॥३२॥ __ अलकेश्वरपुरके भरोच नगरमें राजेश्वरस्वामी यवनराजाओंमें श्रेष्ठ मोहम्मद बादशाहकी रक्षाका परिकाकी पूर्तिरो समट होनेसे अठारह बर्षकी अवस्थामें स्वर्गगामी श्री श्रुतवीर स्वामी हुए ॥३३॥ भंभेरीपुरमें धनेश्वर भट्टसे भ्रष्टकर्म हुए अग्निमें फेंके हुए यज्ञोपवीतादिके द्वारा जोते हुए ब्रह्मदेवके धर्मके सुखसे शुद्धान्तःकरण श्रीमान् धरसेनाचार्य हुए ॥३४॥ हाव, भाव, बिभ्रम और विलासकी शोभाके शृंगाररूपी भृङ्गीसे आलिंगित, बाल, मुग्ध और युवती नागरिक स्त्रियोंसे मन वचन कायसे मुक्त तथा नव प्रकारके ब्रह्मचर्यसे युक्त श्री देवसेन भट्टारक हुए ॥३५॥ अनेक शुभचिन्तक मनुष्यरूपी चातकके समूहको प्रसन्न करनेवाले मधुवातकी धारासे मुक्त नया शरीर बनानेवाले श्री देवसेन भट्टारक हुए ॥३६॥ __ उनके पट्टके उदयाचलके सूर्य, नित्यादि एकान्तवादियोंके प्रथम वचनके खण्डनकारक, उन विस्तारवाले छहों दर्शनके स्थापनके आचार्य, छतर्कशास्त्रके स्वामी, दिल्ली-सिंहासनके अधिपति, सार्वभौम, अभिमानयुक्त वादीरूप हाथीके लिये सिंहके समान त्रिकालज्ञ श्री सोमसेन आचार्य हुए ॥३७॥ उनके पट्टको वृद्धिसे पूर्ण चन्द्रमाके समान, अभिनववादी, संस्कृतके ज्ञाता प्राकृत और संस्कृत भाषाके स्वामी, वनपंजरके तुल्य अंग, बंग, कलिंग, काश्मीर, कम्भोज, कर्नाटक, मगध, पाल, तुरल, घेरल और केरलके जीते हुए ४२८ : तोर्यकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानोंसे सेवित चरणवाले श्री मूलसेन वृषभवश, पुष्करगच्छकी विरुदावली में विराजमान गुणभद्र भट्टारक हुए ||३८|| उनके पट्टरूपी उदयाचलके सूर्य कर्नाटक देशमें स्थापित किये गये धर्म की अमृतवर्षासे मेघ के समान कठोर तपस्या करनेमें निपुण श्री वीरसेन भट्टारक हुए ||३९|| अभिमानरहित तपस्यासे नष्ट रागवाले. अंगादि विविध ग्रन्थ रचने के पडत्य गर्वसे युक्त श्रीयुक्त वीर भट्टारक हुए ||४०|| उनके पट्टमें सर्वज्ञदेवके वचनामृतके स्वादसे सच्चे धर्मरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान अपने शरीरको कर्कश तसे कमलके समान बनानेवाले तथा मदनको मथन करनेसे त्रिविध वैराग्यको प्रकट करनेवाले, भावी भाग्यशाली जनोंसे पूजित श्री माणिकसेन भट्टारक हुए ॥४१॥ इनके पट्टरूपी उदयाचलपर सूर्यके समान, अनेक शब्द, अर्थ तथा अन्वयका निश्चय करनेवाले, विद्वज्जन- सरोजके प्रस्फुटित करनेमें अत्यन्त पटु श्री गुणसेन भट्टारक हुए ||४२॥ इसके बाद सभी विद्वज्जनोंसे पूजित पादपद्मवाले और भव्यजनोंके चित्तसरोजमें लक्ष्मी के समान निवास करनेवाले श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक हुए ॥४३॥ देवता तथा विविध जनोंके मनकुमुदको प्रकाशित करने में पूर्ण चन्द्रमाके समान, काव्य, न्याय, शास्त्रार्थ तथा वाग्मिता चतुविध पाण्डित्य कलासे विराजमान, यम, नियम और तपोबलसे साधित धर्मके भारको धारण करनेवाले और सभीको सुखसम्पन्न करनेवाले श्री सोमसेन भट्टारक हुए ||४४|| मिथ्यामतके तमका निवारण करनेवाले, माणिक्यरत्न तथा रत्नत्रयसे युक्त श्री माणिक्यसेन भट, टारक हुए ॥४५॥ आशीविष सर्पके लिये दुष्ट कर्कश महोरगके समान, मत्त हस्तीके लिये सिंहके समान तथा अनेक राजाओंसे पूजित चरणकमलवाले श्री गुणभद्र भट्टारक हुए । उन्हींके पट, टपर जनरूपी कुमुदवनको विकसित करनेके लिये पूर्ण चन्द्रोदयके समान, सुन्दर विलाससे विनोदित त्रिभुवन स्थित विबुध-समूह के लिये चन्द्रमाकी किरणोंके समान, यशोधरसे दिङ्मण्डलको भी उज्ज्वल करनेवाले श्रीमान् अभिनव सोमसेन भट्टारक हुए ॥४७॥ उनके पद टपर महामोहान्धकारसे ढके हुए, संसारके जनसमूहको दुस्तर कैवल्यमार्गको प्रकाशित करनेमें दीपकके समान, दुर्द्धर्ष नेयायिक कणाद और पट्टावली ४२९ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयाकरणोंके बृहत् कुम्भका उत्पाटन करनेमें उद्यत बुद्धिवाले भट द्वारकवर्यों में सूर्यके समान श्री जिनसेन भट द्वारक हुए। उनके पट्टरूपी उदयाचलको प्रकाशित करनेके लिये सूर्यके समान, श्री जिनेन्द्र भगवानके मुखसे विनिर्गत सप्तभङ्गी और नय आदिसे युक्त द्वादशांग रूपी समुद्रका वर्द्धन करनेके लिये पूर्ण चन्द्रमाके समान, अज्ञान और जड़तासे मुद्रित भव्यजनों के चित्तसरोजको विकसित करनेवाले, अपने वचन की रचनाचातुरीके आडम्बर से बृहस्पतिको भी चमत्कृत करनेवाले, अपने गणाग्रवल्लीकाव्यको सींचने के लिये धाराके समान, करोड़ों मुकुटवादियोंके राजराजेश्वर, चक्रवर्ती श्री समन्तभद्र भट्टारक हुए श्रीमान् राजेश्वर गुरु वसुन्धराचार्य महावादियोंके पितामह विद्वानोंमें कल्पवृक्षके चक्रवर्ती कड़ि-कड़ि (?) वाण परिग्रह विक्रमादित्य मध्याह्नके समय, समान, सेनगण के अग्रगण्य, पुष्करगच्छ - विरुदावलीसे विराजमान दिल्ली-सिंहासनके अधिपति छत्रसेनकी तपस्याका अभ्युदय करनेवाली समृद्धिकी सिद्धिके लिये भव्यजनोंके द्वारा किये गये जिनेश्वराभिषेकको सब लोग अवधारण करें ||५०|| विरुदावली "स्वस्ति श्रीजिननाथाय स्वस्ति श्रीसिद्धसूरिणे ( 2 ) 1 स्वस्ति पाठकसाधुभ्यां स्वस्ति श्रीगुरवे तथा ॥१॥ मंगलं भगवानर्हं मंगलं सिद्धसूरयः । उपाध्यायस्तथा साधुर्जेन धर्मोऽस्तु मंगलम् ||२|| सद्धर्मामृतवर्षहर्षित जगज्जन्तुर्यथाम्भोधरः । स्थैर्यान्मेरुरगाधतान्धिखनिसारो पारक्षमः ॥ दुर्वारस्मरवारिवापवनः शुम्भप्रभाभास्करः । चन्द्रः सौम्यतया सुरेन्द्रमहितो वीरः श्रियो वः क्रियात् ॥३॥ स्वस्ति श्रीमूलसंधे प्रवरबलगणं कुन्दकुन्दान्वये च । विद्यानन्दप्रबन्धं विमलगुणयुतं मल्लिभूषं मुनीन्द्रम् ॥ लक्ष्मीचन्द्रं यतीन्द्रं विबुधवरमुतं वोरचन्द्र स्तुवेऽहम् । श्रीमज्ज्ञानादिभूष सुमतिसुखकरं श्रीप्रभाचन्द्रदेवम् ॥४॥ · श्री जिननाथ मंगलमय हों, श्रीसिद्ध और सूरि मंगलमय हों, उपाध्याय और साधु मंगलमय हों और श्री गुरु मंगलमय हों ॥१॥ भगवान् अर्हत मंगलमय हो, सिद्ध और आचार्य मंगलमय हों, उपाध्याय, साधु तथा जैनधर्म मंगलमय हों ||२|| ४३०: तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धमं ( जैनधर्म ) रूपी अलकी वृष्टिो जान दीगोंको हर्षित करने वाले, अतएव मेघके समान, स्थिरतामें मेरु पर्वतके समान, अगाषतामें समुद्रके समान, संसारके सारका ऊहापोह करके पार जाने में समर्थ, दुर्दमनीय कामदेव रूपी मेघमण्डलके लिए पवनस्वरूप, शुभ्र-दीप्तिके कारण सूर्यके समान, सौम्यताके कारण चन्द्रमाके समान और देवताओंके अधिपति इन्द्र द्वारा पूजित ( वे भगवान ) वीर आप लोगोंका कल्याण करें.॥३॥ ___ मंगलमय श्री मूलसंघमें श्रेष्ठ बलात्कारगणमें और कुन्दकुन्दकी शिष्य परम्परामें विद्यानन्दीके श्रेष्ठ बन्धु, शुभ गुणोंसे युक्त मल्लिभूषण मुनीन्द्रकी, लक्ष्मीचन्द्र यतीन्द्रकी, देवताओंसे वन्दित वीरचन्द्रकी और ज्ञान आदि गुणोंसे भूषित, सुमति तथा सुख देनेवाले श्रीप्रभाचन्द्रदेवकी मैं स्तुति करता हूँ ॥४॥ ___ स्वस्ति श्रीवीरमहावीरातिबीरसन्मतिवर्द्धमानतीर्थकरपरमदेववदनारविन्दविनिर्गतदिव्यध्वनिप्रकाशनप्रवीणश्रीगोतमस्वामीगणधरान्वयश्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुयोगीन्द्राणां श्रीमूलसंघसंजनितनन्दिसंघप्रकाशबलात्कारगणाग्रणीपूर्वापरांशवेदिश्रीमाघनन्दिभद्दारकाणां तत्पट्टकुमुदचनविकाशनचन्द्रायमानसकलसिद्धान्तादिश्रुतमागरपारंगतश्रीजिनचन्द्रमुनीन्द्राणाम् ॥१॥ तत्पट्टोदयाद्रिदिवाकरश्रीएलाचार्यगृध्रपिच्छवक्रीवपयनन्दिकुन्दकुन्दाचार्ययाणाम् ॥२॥ दशाध्यायसमाक्षिप्तजैनागमतत्त्वार्थसूत्रसमूह-श्रीमदुमास्वातिदेवानाम् ॥३॥ सम्यकदर्शतज्ञानचारित्रतपश्चरणविचारचातुरीचमत्कारचमत्कृतचतुरवरनिकरचतुरशीतिसहस्रप्रमितिबृहदाराधनासारकत श्रीलोहाचार्याणाम् ॥४॥ अष्टादशवर्णविरचितप्रबोधसारादिग्रन्थश्रीयश:कीर्तिमुनीन्द्राणाम् ॥५॥ कुन्देन्दुहारतुषारकाशसंकाशयशोभरभूषितश्रीयशोनन्दीश्वराणाम् || मंगलमय श्रीवीर, महावीर, अतिवीर, सन्मति, वर्द्धमान, तीर्थकर परमदेवके मुखारविन्दसे निकली हुई दिव्य वाणीको प्रकाशित करने में निपुण श्री गौतमस्वामो गणधरके शिष्य श्रुतकेवलो श्री भद्रवाह योगीन्द्रके श्रीमूलसघसे उत्पन्न नन्दिसंघका प्रकाशस्वरूप बलात्कारगणमें अग्रेसर तथा पूर्व एवं अपर अंशको जाननेवाले श्रीमाधनन्दी भट टारकके और उनके पट टरूपी कुमुदवनको विकसित करनेवाले चन्द्रस्वरूप सम्पूर्ण सिद्धान्त आदि आगमरूपी समुद्रके पारंगत श्री जिनचन्द्र मुनीन्द्र के ॥१॥ उनके पद टरूपी उदयाचलपर उदित सूर्यके समान श्री एलाचार्य, गृध्रपिच्छ, वक्रग्रीव, पद्मनन्दी और कुन्दकुन्दाचार्यवरोंके ॥२॥ पट्टावली ४३१ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमके सारको दश अध्यायोंमें "तत्त्वार्थसूत्र" के रूप में प्रस्तुत करनेवाले श्रीमान् उमास्वातिदेवके ||३|| सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र, सम्यक् तपस्या और विचारचातुर्य के चमत्कारसे चतुर लोगों के समूहको चमत्कृत करनेवाले चौरासी हजार श्लोक परिमित 'बृहदाराधनासार' की रचना करनेवाले श्री लोहाचार्यके ||४|| अष्टादश वर्णों द्वारा 'प्रबोधसार' आदि ग्रन्थोंके रचयिता श्री यशः कीर्ति मुनिवरके ॥५॥ इन्दु कुमुदकी माला, तुषार (हिम) और काश नामक तृणके समान स्वच्छ यशःपुञ्जसे भूषित श्रीयशोनन्दीश्वरके ॥६॥ जैनेन्द्रमहाव्याकरणश्लोकवार्तिकालङ्कारादि (?) महाग्रन्थकर्ता मां श्रीपूज्य पाददेवानाम् ||७|| सम्यग्दर्शनगुणगणमण्डित श्रीगुणनन्दिगणीन्द्राणाम् ||८|| ||९|| परवादिपर्वतवज्जायमानश्रीवचनन्दियतीश्वराणाम् सकलगुणगणाभरणभूषितश्रीकुमारनन्दिभट टारकाणाम् ||१०|| निखिलविष्टपकमलवनमार्तण्डतपः श्रीसंजातप्रभादूरीकृतदिगन्धकारसिद्धान्तपयोधिशशधर मिथ्यात्वतमोविनाशन भास्करपरवादिमते भकुम्भस्थलविदारणसिंहानां श्रीलोकचन्द्रप्रभाचन्द्रनेमिचन्द्रभानुनन्दिसिंह्नन्दियोगीन्द्राणाम् ॥ ११॥ आचाराङ्गादिमहाशास्त्रप्रवीणताप्रतिबोधितभव्यजननिक रस्याद्वादसमुद्रसमुत्थसदुपन्यासकल्लोलाघः पातितसौगत- सांख्य- शेव- वैशेषिक भाट टचार्वाकादिगजेन्द्राणां श्रीमद्वसुनन्दिवीरनन्दि रत्ननन्दिमाणिक्यनन्दिमेघचन्द्रशान्तिकीर्तिमयकीर्तिमहाकीर्तिविष्णुनन्दिश्रीभूषणशील चन्द्रश्रीनन्दिदेशभूषणानन्तकीतिं धर्मनन्दिविद्यानन्दि रामचन्द्र रामकीर्तिनिर्भय चन्द्रनागचन्द्रनयनन्दिहरिचन्द्रमहीचन्द्रमाघवचन्द्रलक्ष्मीचन्द्रगुणचन्दवासवचन्द्रमणीन्द्राणाम् ||१२|| जैनेन्द्र महाव्याकरण और श्लोकवार्तिकालंकार (?) आदि महान् प्रत्योंके रचयिता श्रीपूज्यपाददेवके ||७|| सम्यदर्शनकी गुणराशिसे भूषित श्रीगुणनन्दो गणीन्द्रके ॥८॥ परवादीरूप पर्वतोंके लिए वज्रके समान श्रीवानन्दी यतीन्द्रके ||९|| सकलगुणसमूहरूपी आभरणोंसे अलंकृत श्रीकुमारनन्दी भट्टारकके ||१०|| सम्पूर्ण संसार रूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान, तपस्याकी छविसे उत्पन्न प्रभाद्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करनेवाले, सिद्धान्तसमुद्रकी पुष्टि करनेमें चन्द्रमास्वरूप मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके ४३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा P Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये सूर्य तुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी हाथीके मस्तकको विदीर्ण करने में सिंहके समान श्री लोकचन्द्र, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, भानुनन्दी और सिंहनन्दी योगीन्द्रोंके ॥११॥ आचारांग आदि महाशास्त्रोंकी प्रवीणता द्वारा भव्यजनोंको प्रतिबोधित करनेवाले, स्याद्वादरूपी समुद्रकी उत्ताल तरंगरूपी सद्युक्ति द्वारा सोगत सांख्य- शेव- वैशेषिक-भाट्ट ( मीमांसक ) और चार्वाक आदि गजेन्द्रोंको नीचे गिरानेवाले श्री वसुनन्दी, वीरनन्दी, रत्ननन्दी, माणिक्यनन्दी, मेघचन्द्र, शान्तिकीर्ति, मेरुकीर्ति, महाकीतिं विष्णुनन्दी श्रीभूषण, शीलचन्द्र, श्रीनन्दी, देशभूषण, अनन्तकोर्ति, धर्मनन्दी, विद्यानन्दी, रामचन्द्र, रामकीर्ति, निर्भयचन्द्र, नागचन्द्र, नयनन्दी, हरिचन्द्र, महीचन्द्र, माघवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र गुणचन्द्र, वासचचन्द्र और लोकचन्द्र मणीन्द्रोंके ॥ १२ ॥ 1 सुरासुरखेचरन रनिकरचचितचरणाम्भोरुहाणां श्रुतकीर्तिभावचन्द्रमहाचन्द्रमेघचन्द्रब्रह्मनन्दिशिवनन्दिविश्वचन्द्रस्वामिभट टारकरणाम् ॥१३॥ दुर्धरतपश्चरणवज्राग्निदग्धदुष्टकर्म्म काष्ठानां श्रीहरिनन्दिभावनन्दिस्वरकीर्तिविद्याचन्द्ररामचन्द्रमागमनन्दितही तिरुपि नेमिनन्दिनाभिकीर्तिनरेन्द्र कीर्ति श्रीचन्द्रपद्मकीर्तिपूज्यभट टारकाणाम् ||१४| सकलतार्किक चूडामणिसमस्तशाब्दिकस रोजराजितरणिनिखिलागमनिपुणश्रीमदकलङ्कचन्द्रदेवानाम् ||१५|| ललितलावप्यलीलालक्षितगात्र त्रैविद्याविलासविनोदितत्रिभुवनोदरस्थविबुध कदम्बचन्द्रकरनिकरसन्निभयशोभरसुधारसघवलितदिग्मण्डलानां श्रीललितकीर्तिकेशवचन्द्र चारुकीर्त्यभयकीर्तिसूरिवर्याणाम् ॥ १६॥ देवता, राक्षस, खेचर और मनुष्यों द्वारा पूजित चरणकमलवाले श्रुतिकीतिं, भावचन्द्र, महाचन्द्र, मेघचन्द्र, ब्रह्मनन्दी, शिवनन्दी और विश्वचन्द्र स्वामी भट्टारकोंके ||१३|| अत्यन्त कठिन तपस्यारूपी वज्राग्नि द्वारा बुरे कर्मरूपी काष्ठको जला चुकनेवाले हरिनन्दी, भावनन्दी, स्वरकीसिं, विद्याचन्द्र, रामचन्द्र, माघनन्दी, ज्ञाननन्दी, गङ्गकीर्त्ति, सिंहकीत्तिं चारुकीत्तिं नेमिनन्दी, नाभिकीत्तिं नरेन्द्रकीत्तिं श्रीचन्द्र और पद्मकीर्ति पूज्य भट टारकोंके ॥१४॥ · सभी तार्किकोंके शिरोभूषण, समस्त वैयाकरणरूपी कमलोंके लिए सूर्य और सम्पूर्ण आगममें निपुण श्रीअकल चन्द्रदेवके ||१५|| २८ पट्टावली ४३३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मञ्जुल लावण्यपूर्ण शरीरवाले, तीनों विद्याओंके विलाससे त्रिभुवनके विद्वानोंको आनन्दित करनेवाले और चन्द्रकिरणोंके समान स्वच्छ यशःपुञ्जरूपी सुधारत दिशाओ की समुज्ज्य करनेवाले थी कीप्तिं केशवचन्द्र, चारुकीर्त्ति और अभयकीर्त्ति आचार्यवरोंके ॥ १६ ॥ जाग्नज्जिनेन्द्रसिद्धान्तसमशत्रुमित्र प्रेयो रसाकुलित सिद्गजादिसेव्यानां श्रीवसन्तकीर्तिश्रीवादिचन्द्र विशालकीर्त्तिशुभकीर्तियतिराजानाम् ||१७|| राजाधिराज गुणगणविराजमानश्री हम्मीरभूपालपूजितपादपद्मसैद्धान्तिकसंयमसमुद्रचन्द्र श्रीधर्मचन्द्रभट टारकाणाम् ॥१८॥ तत्पदाम्बुजभानुस्याद्वादवादिवादीश्वर श्री रत्न कीर्तिपुण्यभूर्तीनाम् ||१९|| महावादवादीश्वरवादिपितामह् प्रमेयकमलमार्तण्डाद्यनेकग्रन्थविधायक - श्रीमहापुराणस्वयम्भू सप्त (?) भक्तिपरमात्मप्रकाश समय सारादिसूत्रव्याख्यान सज्जं न संजातकोविदस भाकीर्तिभट टारकाणां श्रीमत्प्रभाचन्द्रभट टारकाणाम् ||२गा अनेकाध्यात्मशास्त्रसरोजपण्डविकासन मार्तण्डमण्डलययाख्यात चारित्रसुविधानसन्तोषिताखण्डलानां श्रीपद्मनन्दिदेवभट टारकाणाम् ॥ २१ ॥ विद्यविद्वज्जन शिखण्डमण्डलीभवत्कायधर (?) कमलयुगलावन्तीदेशप्रतिष्ठोपदेशकसप्तशत-कुटुम्ब - रत्नाकरज्ञातिसुश्रावकस्थापक श्रीदेवेन्द्रकीर्तिशुभकीर्तिभट्टारकाणाम् ||२२|| श्री जिनेन्द्रके सिद्धान्तोंको जाग्रत करनेवाले, शत्रु मित्र और उदासीन सबको प्रीतिरससे वशीभूत करनेवाले एवं सिंह, हाथी आदिसे सेव्य श्रीवसन्तकीर्ति, श्रीवादिचन्द्र, विशालकीर्ति और शुभकीर्ति यतिवरोंके || १७ || राजाओं के राजा और गुणोंसे अलंकृत श्री हम्मीरराजा द्वारा पूजितचरणकमलवाले और सिद्धान्तसम्बन्धी संयमरूपी समुद्रको सम्वृद्ध करनेवाले चन्द्रमाके समान श्री धर्मचन्द्र भट्टारकके ||१८|| उनके पदाब्जोंको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्यस्वरूप, स्याद्वाद - वादियों के प्रमुख पुण्यमूर्ति रत्नकीर्त्तिके ||१९|| महावाद-वादीश्वर, बादि - पितामह, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि अनेक ग्रन्थोंके रचयिता, श्री महापुराण, स्वयम्भू, सप्त (?) भक्ति, परमात्मप्रकाश और समयसार आदि सिद्धान्त-ग्रन्थोंकी व्याख्या करनेवाले परम शास्त्रज्ञ सभाकीर्त्ति भट्टारक (?) और श्रोप्रभाचन्द्र भट् टारकके ॥१२०॥ ४३४ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक अध्यात्मशास्त्ररूपी कमलसमूहको विकसित करनेवाले सूर्यस्वरूप, यथाख्यातचारित्रके विधान द्वारा देने को प्रसन्न करनेवालो मीन्द्रिदेव भट्टारकके ॥२१॥ तीनों विद्याओंके ज्ञाताओंमें शिरोभूषण-स्वरूप, मण्डलाकार परिवेष्टित संसारियोंद्वारा सेवित युगल (चरण) कमलवाले (?), अवन्तीदेशकी (मूत्ति) प्रतिष्ठामें उपदेश देनेवाले सातसौ परिवार-रूपी समुद्रके अन्तर्गत ज्ञातिसुश्रावकोंके उद्धारक श्रीदेवेन्द्रकोत्ति और शुभकीर्ति भट्टारकोंके ॥२२॥ तत्पट्टोदयसूर्याचार्यवर्यनवविघब्रह्मचर्यपवित्रचर्यामन्दिरराजाधिराजमहामण्डलेश्वरनजांगगंगजयसिंहश्याघ्रनरेन्द्रादिपूजितपादपमानां, अष्टशाखाप्रागवाटवंशावतंसानां, षड्भाषाकविचक्रवत्तिभुवनतलव्याप्तविशदकीतिविश्वविद्याप्रासादसूत्रधारसद्ब्रह्मचारिशिष्यवरसूरिश्रीश्रुतसागरसेवितचरणसरोजानां, श्रीजिनयात्राप्रतिष्ठाप्रासादोद्धरणोपदेशनैकदेशभव्यजीवप्रतिबोधकानां, श्रीसम्मेदगिरिचम्पापुरीउज्जयन्तगिरिअक्षयवटआदीश्वरदीक्षासर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां, श्रीसहस्रकूटजिनबिम्बोपदेशकहरिराजकुलोद्योतकराणां, श्रीरविनन्दिपरमाराध्यस्वामिभट्टारकाणाम् ॥२३॥ तत्पट्टोदयाचलबालभास्करप्रवरपरवादिगजयूथकेसरिमण्डपगिरिमन्त्रवादसमस्याप्तचन्द्रपुर्विकटवादिगोपदुर्गमेधाकर्षणविकजनसस्यामृतवाणिवर्षणसुरेन्द्रनागेन्द्रादिसेवितचरणारविन्दानां, मालवमलतानमगधमहाराष्ट्रगौडगुज्जरांगवंगतिलंगादिबिबिधदेशोत्यभव्यजनप्रतिबोधनपटुबसुन्धराचार्यग्यासदीनसभामध्यप्राप्तसम्मानधीपद्मावत्युपासकानां श्रीमल्लिभूषणभट्टारकवाणाम् ॥२४॥ उनके पट्ट पर उदित सूर्यके समान, आचार्यप्रवर, नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य द्वारा चारित्ररूपी मन्दिरको पवित्र करनेवाले, राजाधिराज महामण्डलेश्वरवनांग, गंग और जयसिंह इन श्रेष्ठ राजाओं द्वारा पूजित चरणकमलवाले, अष्टशाख प्रागवाट वंशमें उत्पन्न, छ: भाषाओंमें कविसम्राट , पृथ्वीतलपर विस्तृत स्वच्छ कीर्तिवाले; अखिल विद्याओंके प्रासादके सूत्रधार, पूर्ण ब्रह्मचारी शिष्य-श्रेष्ठ सूरी श्री श्रुतसागरजी द्वारा सेवित चरणकमलवाले, श्री जिनयात्रा, प्रतिष्ठा और मन्दिरोद्धारके उपदेशों द्वारा मुख्य मुख्य देशोंके भव्य जीवोंको उद्बोधित करनेवाले, श्रीसम्मेदगिरि, चम्पापुरी, उज्जयंतगिरि, आदोश्वरदीक्षास्थान, अक्षयवट, और सभी सिद्धक्षेत्रोंकी यात्रा करनेवाले, श्री सहस्रकूट जिनबिबोपदेशक एवं हरिवंशको उद्भासित करनेवाले श्रीरविनन्दी नामक परम-आराध्य स्वामी भट्टारकके ॥२३॥ पट्टायली : ४३५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी पट्ट (गद्दी) रूपी उदयाचलपर उगनेवाले प्रातःकालिक सूर्यके समान, अत्यन्त श्रेष्ठ अन्यमसवादीरूपी हाथियोंके समूहके लिए सिंहस्वरूप, मण्डपगिरि (मांडलगढ़) के मन्त्रवाद समस्यामें चन्द्रमाको पवित्रता प्राप्त करनेवाले, विकट परवादीरूप गोपोंके (अजेय) दुर्गको अपनी प्रखर बुद्धिसे वशमें करनेवाले, भव्यजनरूपी फसलपर अमृत समान वाणीकी वर्षा करनेवाले, देवेन्द्र और नागेन्द्रसे सेवित चरणकमलवाले, मालव भुलतान-मगध-महाराष्ट्र सौराष्ट्रगोड-अंग-बंग-आन्ध्र आदि विविध देशोंके भव्यजनोंको उपदेश देने में निपुण, भूमण्डल भरके आचार्य, गयासुद्दीनकी सभामें सम्मान प्राप्त करनेवाले और श्रीपपावतोदेवीके उपासक श्रीमल्लिभूषण महाभट्टारकके ॥२४॥ तत्पट्टकुमुदवनविकासनशरत्सम्पूर्णचन्द्रानां, जैनेन्द्रकौमारपाणिन्यमरशाकटायनमुग्धबोधादिमहाय्याकरणपरिज्ञानजलप्रवाहप्रक्षालितानेकशिष्यप्रशिष्यशेमुखीसंस्थितशब्दाज्ञानजम्बालानामनेकतपश्चरणकरणसमुत्थकोत्तिकलापलितरूपला. वण्यसोभाग्यभाग्यमण्डितसकलशास्त्रपठनपाठनपण्डितविविधजीर्णनूतनस्फुटितप्रासादविधायक श्रीमञ्जिनेन्द्रचन्द्रबिम्बप्रतिष्ठादिमहामहोत्सवकारकाणां सिंगल(?) तोलवतिलंगकन्नड (?) कर्णाटभोटादिदेशोत्पन्ननरेन्द्रराजाधिराजमहाराजराजराजेश्वरमहामण्डलेश्वरभैरवरायल्लिरायदेवरायबंगरायप्रमुखाष्टादशनरपतिपूजितचरणकमलश्रुतसागरपारंगतवादवादीश्वरराजगुरुवसुन्धराचार्य भट्टारकपदप्राप्तक्षीबीरसेनक्षीविशालकीतिप्रमुखशिष्यवरसमाराधितपादपद्मानां, श्री. मल्लक्ष्मीचन्द्रपरमभट्टारकगुरूणाम् ॥२५।। उनके पट्टरूपी कुमुदबनको विकसित करनेके लिए शरदऋतुके पूर्ण चंद्रमाके समान जैनेन्द्र, कौमार, पाणिनि, अमर, शाकटायन, मुग्धबोध आदि महाव्याकरणके परिज्ञानरूपी जल-प्रवाहसे अनेक शिष्य-प्रशिष्योंकी बुद्धिमें स्थित शब्दसम्बन्धी अज्ञानरूपी पंकको धो देनेवाले, विविध तपस्याओंके द्वारा प्रसारित यशःसमूहवाले और रूपलावण्यसे भूषित तथा सौभाग्यसे मण्डित, सभी शास्त्रोंके पठन-पाठनमें पंडित, अनेक पुराने तथा नये टूटे-फूटे मन्दिरोंके उद्धारक श्रीजिनेन्द्रको प्रतिभा-प्रतिष्ठा आदि बड़े-बड़े उत्सवोंके करनेवाले, तौलवआन्ध्र-कर्णाट-लाट-भोट आदि देशोंके नरेन्द्र-राजाधिराज महाराज-राजराजेश्वरमहामण्डलेश्वर भैरवराय-मल्लिराय-देवराय-बंगराय इत्यादि अठारह राजाओंसे पूजित चरणकमलवाले, शास्त्ररूपी सागरके पारंगत, वादियोंके ईश्वर, राजाओंके गुरु, भूमण्डलके आचार्य, भट्टारकपदको प्राप्त श्रीवीरसेन, श्रीविशालकीर्ति प्रभृति शिष्यों द्वारा आराधित चरणकमलवाले श्रीलक्ष्मीचन्द परम भट्टारकके ॥२५॥ ४३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तद्वंशमण्डनकन्दर्पंसद दलन विश्व लोक हृदय रञ्जनमहाव्रतिपुरन्दराणां, नवसहस्रप्रमुख देशाधिराजाधिराजमहाराजथीअर्जुनजीयराजसभामध्यप्राप्तसम्मानानां षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वात्रशाल्यो दनादिषप्पः प्रभुतिसरसाहारपरिवर्जितानां दुश्चारादिसर्वगर्वपर्वतचरीकरणवज्ञायमानप्रथमवचनखण्डनपण्डितानां, व्याकरण प्रमेयकमलमार्तण्डछन् दोलंकृतिसारसाहित्य संगीतसकलतर्कसिद्धान्तागमशास्त्रसमुद्रपारंगतानां सकलमूलोत्तरगुणमणिमण्डित विबुधवर श्रीवीरचन्द्र भट्टारकाणाम् ||२६|| r तत्पट्टोदयाद्रिदिनमणिनिखिल विपश्चिन्चक्रचूडामणिसकलभव्यजनहृदयकुमुदवनविकासन रजनीपत्तिपरमजे नस्याद्वादनिष्णातशुद्धसम्यक्त्वजनजातगताभिमानिमिथ्यावादिमिथ्यावचनमहीधरशृङ्गशातन प्रचण्डविशुद्दण्डानां संस्कृताद्यष्टमहाभाषाजलथरकरणछटासन्तप्पित भव्यलोकसारंगाणां, चतुरशितिवादविराजमानप्रमेयकमलमार्तण्डन्यायकुमुद चंद्रोदय राजवार्त्तिकालंकारश्लोकवातिकालंकाराप्तपरीक्षापरीक्षामुखपत्र परीक्षाष्टासहस्री - प्रमेय रत्न मालादिस्वमतप्रमाणशशधरमणिकण्ठकिरणावलीवरदराजीचिन्तामणिप्रमु खपरमतप्रकरणेन्द्र चान्द्रमाहेन्द्रजैनेन्द्रकाशकृत्स्नकालापकमहाभाष्यादिशब्दागमगोम्मटसारखे लोक्यसारलब्धिसारक्षपणसारजम्बूद्वीपादिपंचप्रज्ञप्तिप्रभूतिपरमागमप्रवीणानामनेकदेशनरनाथ नरपति रंगपतिवापराणात 1 गिनातीर्थंकरकल्याण पवित्र श्रीदज्जयन्तशत्रुंजयतु गीगिरिचलगिर्थ्यादिसिद्धक्षेत्रयात्रापवित्रीकृत्तचरणानामंगवादिभंगशील-कलिंगवादिकर्पू रकालानलकाश्मीरवादिकदलीकृपाण नेपालवादिशापानुग्रहसमर्थं गुर्जरवादिदत्तदण्ड- गौडवादिगण्डमेरुदण्डदत्तदण्ड- हम्मीरवादिब्रह्मराक्षस-चोलवादिहल्लकल्लोलकोलाहल - द्राविडवादित्राटनशील-तिलंगवादिकलंककारि- दुस्तरवादिमस्तकशूल - कोंकणवादिवरोत्वात मूल-व्याकरणवादिमर्दित-मरट्टतार्किकवादिगोधूमव रट्ट - साहित्यवादिसमाजसिंहज्योतिष्कवादिभूर्णी (?) तलिहमन्त्रवादियन्त्रगोत्रतन्त्रवादिकलप्रकुचकुम्भनिवोल (?) रत्नवादियत्नका रसमस्तानवद्यविविधविद्याप्रासादसूत्रधाराणां सकलसिद्धान्तवेदिनिर्ग्रन्थाचार्यवर्यशिष्य श्री सुमति कीत्तिस्वपरदेशविख्यातशुभमूत्तिश्री रत्नभूषण प्रमुखसूरिपाठकसाघु संसेवितचरणसरोजानां, कलिकालगौत भगणधराणां, श्रीमूलसंघसरस्वतीगच्छश्रृंगारहाराणां गच्छाधिराजभट्टारकवरेण्यपरमाराध्यपरमपूज्य भट्टा र श्रीज्ञान भूषणगुरूणाम् ||२७|| उनके वंशके भूषण, कामदेवरूपी सर्पके गर्वको चूर करनेवाले, अखिल लोकके हृदयको आनन्दित करनेवाले, महाव्रतिश्रेष्ठ, नवसहस्र प्रधान देशोंक अधिपतियोंके अधिपति महाराज श्रीअजुनकी राजसभामें सम्मान पानेवाले, पट्टावली ४३७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह वर्ष तक शाक-पाक, पक्वान्न, शालोका भात और घी आदि रसयुक्त आहारको छोड़नेवाले, दुश्चारादि (?) के सम्पूर्ण गर्वरूपी पर्वतको चूर्ण करने में बचके सदृश, प्रथम-वचनका खंडन करने में पंडित, व्याकरण-प्रमेयकमलमार्तण्डछंद-अलङ्कार-सार-साहित्य-संगीत-सम्पूर्ण-सर्क-सिद्धान्त और आगमशास्त्ररूपी समुद्रके पारंगत, सम्पूर्ण मूलोत्तरगुणरूपी मणियोंसे भूषित, विद्वानोंमें श्रेष्ठ धीवीरचन्द्र भट्टारकके ॥२६॥ __उनके पट्ट (गद्दी) रूपी उदयाचलपर उदित सूर्यके समान, सम्पुर्ण विद्धन्मण्डलीके चूड़ामणि, सभी भव्यजनोंके हृदयरूपी कुमुद-बनको विकसित करनेके लिए रजनीपति, परम औ स्थाद्वादन निष्णात, सुख सम्यक्त्वको प्राय, जात और मृत (?) अभिमानी मिथ्यावादियोंके मिथ्यावचनरूपी महोघरों (पर्वतों) के शृंगको तोड़ने में प्रचंड विद्युत्दण्डके सदृश, संस्कृत आदि आठ महाभाषारूपी जलपरहेतुक छटाद्वारा भव्यजनरूपी मयूरादि पक्षियोंको तृप्त करनेवाले, चौरासी वादियोंमें विराजमान, प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्रोदय-राजवात्तिकालकारश्लोकवात्तिकालंकार-आप्तपरीक्षा परीक्षामुख-पत्रपरीक्षा-अष्टसहस्री- प्रमेयरत्नमाला आदि अपने मतके प्रमाणरूपी चन्द्रमणिको कण्ठमें धारण करनेवाले, किरणावली-वरदराज-चिंतामणि प्रभृति परमतमें, ऐन्द्र, चान्द्र, माहेन्द्र, जैनेन्द्र काश,कृत्स्न,कापालक और महाभाष्यादि शब्दशास्त्रमें, गोम्मटसार, प्रैलोक्यसार, लब्धिसार, क्षपणसार और जम्बूद्वीपादि पंचप्रज्ञप्ति-प्रभृति परम आगमशास्त्रोंमें प्रवीण, अनेक देशोंके नरनाथ, नरपति, अश्वपति, गजपत्ति और यवन अधिपतियोंकी सभाओंमें सम्मान प्राप्त करनेवाले, श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके कल्याणसे पवित्र किये हुए, श्री उज्जयन्त, शत्रुजय, तुगीगिरि, चूलगिरि आदि सिद्धक्षेत्रोंकी यात्रासे अपने चरणोंको पवित्र किये हुए, अंगदेशके वादियोंको भग्न करनेवाले, कलिंग देशके वादीरूपी कपुरके लिए भयंकर अग्निके समान, काश्मीरके वादीरूपी.कदलीके लिए तलवारके समान, नेपालके वादियोंको शाप और अनुग्रह करनेकी शक्ति रखनेवाले, गुजरातके वादिओंको दण्ड देनेवाले, गौड़ (बंगालका हिस्सा) के वादीरूपी गंडमेरुदण्ड पक्षीको दण्ड देनेवाले, हम्मीर (राजा) के वादियोंके लिए ब्रह्मराक्षसके सहश, चोलके वादियोंमें महान कोलाहल मचानेवाले, द्रविड़ वादियोंको पाटन देनेवाले, तिलंगवादियोंको लांछित करनेवाले, दुस्तर (कठिन) वादियोंके लिए मस्तकशूल रोगके समान, कोंकण देशके वादियोंके लिये उत्कट बातमूल रोगके समान, व्याकरण शास्त्रके वादियोंको चकनाचुर करनेवाले, तर्कशास्त्रके वादियोंको गेहूंका आटा बनानेवाले, साहित्यके वादि-समाजके लिए सिंहसदृश, ज्योतिषके बादियोंको भूमिसात् करनेवाले, मंत्रवादियोंको यन्त्र (कोल्हू) में डालनेवाले, ४३८ : तीर्थंकर महावीर मौर उनकी आचार्यपरम्परा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंत्रवादियोंकी छाती विदीर्ण करनेवाले, रत्नवादियोंका यत्न करनेवाले, सम्पूर्ण निर्दोष विविध विद्यारूपी प्रासाद (भवन) के सूत्रधार, सभी सिद्धान्तोंको जाननेवाले, जैनाचार्यप्रवर, शिष्य श्री सुमतिकीत्ति, अपने और दूसरे देशोंमें प्रसिद्ध शुभमूत्ति श्री रत्नभूषण प्रभूति सूरि, पाठक और साधुओसे सेवित चरण-कमलवाले तथा कलिकालके लिए गौतम गणधर स्वरूप, श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छके शृङ्गारहार- सदृश गच्छाधिराज भट्टारकोंमें श्रेष्ठ, परम आराध्य और परम पुज्य भट्टारक श्री ज्ञानभूषण गुरुवरके ||२७|| Į तत्पट्टकुमुदवनविकास नविशदसम्पूर्ण पूर्णिमासारशरच्चन्द्रायमानानां कविगमकवादिवाग्मिचतुर्विधविद्वज्जनसभासरोजिनीराजहंससन्निभानां, सारसामुद्रिकशास्त्रोक्तसकललक्षणलक्षितगात्राणां सकलमूलोत्तरगुणगणमणिमण्डितानां चतुविधश्रोसंघहृदयाह्लादक राणां सौजन्यादिगुणरत्नरत्नाकराणां संघाष्टकभारधूरंधराणां, श्रीभद्राय राजगुरुवसुन्धराचार्यमहावादिपितामहसकल विद्वज्जनचक्रवत्तिवकुडी कुडीयमाण (?) परगृहविक्रमादित्यमध्याह्नकल्पवृक्षबलात्कारगणविरुदावलीविराजमान डिल्लीगुर्जरादिदेगसिंहासनाधीश्वराणां श्रीसरस्वतीगच्छ श्रीबलात्कारगणाग्रगण्यपाषाणघटितसरस्वतीबादन श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वयभट्टारकश्रीविद्यानन्दिश्रीमल्लिभूषण श्रीमल्लक्ष्मीचन्द्रश्रीवीरचन्द्रसाम्प्रतिकविद्यमान विजय , राज्ये श्रीज्ञानभूषणसरोजचञ्चरीकश्रोप्रभाचन्द्रगुरूणाम् ॥२८॥ तत्पद्रुकमलनालभास्करपरवादिगजकुम्भस्थल विदारणसिंह- स्वदेशपरदेशप्रसिद्वानां, पंचमिथ्यात्वगिरिशृंगशातन प्रचण्डविद्युद्दण्डानां, जंगमकल्पद्रुमकलिकालगौतमावताररूप लावण्यसौभाग्य भाग्यमण्डित जिनत्र चनकलाकौशल्यविस्मापिताखण्डलमहावादवादीश्वर राजगुरुवसुन्धराचार्यहुं वडकुलश्रृंगारहारभट्टारकःश्रीमद्वादिचन्द्रभट्टारकाणाम् ||२९|| उनके पट्टरूपी कुमुदवनको विकसित करने लिए स्वच्छ शरद्कालीन पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान, कवि गमक-वादी - वाग्मिक इन चारों प्रकारके विद्वानोंकी सभारूपी सरोजिनीके राजहंसके सदृश, सामुद्रिक शास्त्रमें कथित सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त शरीरवाले, सम्पूर्ण मूलोत्तर गुण-मणियोंसे अलंकृत, चारों प्रकार के संघों हृदयाह्लादक, सौजन्य आदि गुणरत्नोंके सागर, संघाष्टकके भारकी घुरीको धारण करनेवाले, श्रीमान् राय ( ? ) के राजगुरु, भूमंडलके आचार्य, महावादियोंके पितामह अखिल विद्वज्जनोके चक्रवर्ती ( वकुडी कुडीयाण ? )........... शत्रुगृहके लिए विक्रमादित्य, मध्याह्नके लिए कल्पवृक्ष, बलात्कारगणकी विरुदावलीमें विराजमान, दिल्ली, गोर्जर ( गुर्जर ) आदि देशोंके सिंहासनाधीश्वर, श्रीमूलसंघ - श्रीसरस्वतीगच्छ श्रीबलात्कारगण में अग्र पट्टावली ४३९ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गण्य, पत्थर की बनी सरस्वतीको बुलवानेवाले श्री कुन्दकुन्दाचार्यके वंशमें भट्टारक श्रीविद्यानंदी, श्रीमल्लिभूषण, श्रीलक्ष्मीचन्द्र और श्रीवीरचन्द्रके, संप्रति विद्यमान बिजयराज्यमें श्रीज्ञानभूषणरूपी सरोजके लिए चंचरीक भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्र गुरुके ||२८|| उनके पट्टरूपी कमलके लिए बालसूर्य, परमतवादीरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करनेमें सिंहके समान, स्वदेश और परदेश में ख्यातिप्राप्त, पाँच मिथ्यात्वस्वरूप पर्वतके शिखरको नष्ट-भ्रष्ट करनेमें प्रचंड विजलीके समान, चलतेफिरते कल्पवृक्ष- स्वरूप, कलिकालमें गौत्तमावतार रूप लावण्य और सौभाग्यसे युक्त, अपने वचनकी चातुरीसे इन्द्रको विस्मयमें डालनेवाले, महाबाद-वादीश्वर, राजगुरु, भूमण्डलके आचार्य, हंबडकुलके शृंगारहार, भट्टारक श्रीवादिचन्द्रके ॥२९॥ तत्पट्टंकसम्पूर्णचन्द्रस्वराद्धान्तविद्योत्कटप रवादिगजेन्द्रगवं स्फोटनप्रबलेन्द्रमृगेकृतिर्कादिपठनपाठनसामथ्र्यंप्रोत्थकीत्तिवल्ल्याच्छादित बंगांग तिलंगगुर्जरन वसहस्रदक्षिणवाग्वरादिदेशमण्डपानां, महावादीश्वरश्रीमन्मूलसंघशृंगारहार श्रीमद्वादिचन्द्र पट्टो दयाद्विबालदिवाकराणां, त्रिजगज्जनाह्लादनप्रकृष्टप्रज्ञाप्रागल्भ्याभिनववादीन्द्रसकलमहत्तममहतीमहीमहतामहस्क (?) महन्महीपतिमतिश्रीमही चन्द्रभट्टारकाणाम् ||३०|| तत्पट्टोदयाद्रि बाल विभाकरविद्वज्जनसभामण्डनमिथ्या मत खण्डनपण्डितानाम्, परवादिप्रचण्डपर्वतपाटनपवीश्वराणां भव्यजनकुमुदवन विकाशन शशधरधर्म्मामृतवर्ष णमेघानां लघुशाखाहुबडकुलश्रृंगारहारडिल्लीगुज्जरसिंहासनाधीशबलात्कार गणविरुदावलीविराजमानभट्टारकश्रीमेरुचन्द्रगुरूणाम् ||३१|| प सकलसिद्धान्तप्रतिबोधितभव्यजनहृदयकमलविकाशनैकबालभास्कराणां, दशविधधर्मोपदेशनवचनामृतवर्षंणतपितानेकभञ्यसमूहानां श्रीमन्मेरुचन्द्रपट्टोद्धरणश्रीमच्छ्री मूलसंघ - सरस्वतीगच्छबलात्कारगणविरुदावलीविराजमानभट्टारकवरेण्यभट्टारक श्रीजिन- चन्द्रगुरूणां तपोराज्याभ्युदयार्थं भव्यजनैः क्रियमाणे श्रीजिननाथाभिषेके सर्वे जनाः सावधानाः भवन्तु ||३२|| धीराणां, उनके पट्टको (सुशोभित करनेके लिए एकमात्र पूर्णचन्द्र अपने सिद्धान्तकी विद्यामें उत्कट, परमतवादी रूपी गजेन्द्रके गर्वको फोड़नेवाले प्रबल मृगेन्द्र सदृश, अखिल अद्वय (अद्धत) शब्दको सुने हुए, छन्द - अलंकार - काव्या तर्क आदिके पठनपाठनकी सामर्थ्य रखनेके कारण फैली हुई कीर्तिलतासे बंग-अंग तैलंग- गुर्जर नवसहस्र दक्षिण, वाग्वर आदि देशरूपी मंडपको आच्छादित करनेवाले (?) महा४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 वादीश्वर श्रीमूलसंघके शृंगारहार, श्रीवादिचन्द्रके पट्टरूपी उदयाचलपर बालसूर्यके समान त्रिभुवन जनोंको आह्लादित करनेवाले, प्रखरबुद्धि और निपुणता के कारण एक नवीन वादिश्रेष्ठ, सम्पूर्ण पृथ्वीके बजे से नहे भूभागके महान महीपतियोंसे पूजित श्रीमहीचन्द्र भट्टारकके ||३०|| 2 उनके पट्टस्वरूप उदयगिरिपर ( उदित ) बालभास्कर, विद्वानों की सभाके भूषण, मिथ्यामतके खण्डनमें पण्डित, परमतके वादीरूपी, प्रचण्ड पर्वतको तोड़ने में श्रेष्ठ वज्र के समान, भव्यजनरूपी कुमुदवनको विकसित करनेके लिये चन्द्रमा, धर्मस्वरूप अमृतको बरसाने में मेघतुल्य', लघु शास्त्राके हुंबड कुलके श्रृंगारहार, दिल्ली और गुजरासके सिंहासनाधीश, बलात्करगणकी विरुदावली में विराजमान भट्टारक श्रीमेरुचन्द्र गुरुके ||३१|| सम्पूर्ण सिद्धान्तों द्वारा ज्ञानवान बनाये गये भव्यजनोंके हृदयकमलको विकसित करने में एकमात्र बालसूर्य, दशविष धर्मोके उपदेश-वचनामृतकी वृष्टिसे अनेक भव्यसमूहको तृप्त करनेवाले श्रीमेरुचन्द्र के पट्टका उद्धार करनेमें धीर, श्रीमूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगणकी विरुदावली में विराजमान, भट्टारकोंमें श्रेष्ठ, भट्टारक श्रीजिनचन्द्र गुरुके तपोराज्यके अभ्युदय के लिए भव्यजनों द्वारा किये जानेवाले श्रीजिननायके अभिषेकमें सभी लोग सावधान होवें ||३२|| नन्दिसंघकी पट्टावलिके आचार्योंकी नामावलि (इण्डियन एन्टीक्वेरी के आधारपर ) १. भद्रबाहु द्वितीय ( ४ ), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३ माघनन्दी ( ३६ ), ४. जिनचन्द (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९), ६. उमास्वामी (१०१) ७. लोहाचाम्यं ( १४२), ८. यश: कीर्ति (१५३), ९. यशोनन्दी (२११), १०. देवनन्दी (२५८) ११. जयनन्दी (३०८), १२. गुणनन्दी (३५८), १३. वञ्चनन्दी (३६४), १४. कुमारनन्दी (३८६), १५. लोकचन्द (४२७), १६. प्रभाचन्द्र (४५३), १७. नेमचन्द्र ( ४७८ ), १८ भानुनन्दी (४८७), १९, सिनन्दी (५०८), २०. श्रीवसुनन्दी (५२५), २१. वीरनन्दी (५३१), २२. रत्ननन्दी (५६१), २३. माणिक्यनन्दी (५८५), २४. मेघचन्द्र (६०१), २५ शान्तिकीर्ति (६२७), २६. मेरुकीर्ति (४४२) । ये उपयुक्त छब्बीस आचार्य दक्षिण देशस्थ भट्टिलपुरके पट्टाधीश हुए। २७ महाकीर्ति (६८६), २८. विष्णुनन्दी (७०४), २९. श्रीभूषण (७२६), ३०. शीलचन्द्र (७३५), ३१. श्रीनन्दी (७४९), ३२. देशभूषण (७६५), ३३. अनन्तकोति ( ७६५), ३४. धर्मनन्दी (७८५), ३५. विद्यानन्दी (८०८), ३६. रामचन्द्र (८४०), पट्टावली: ४४१ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. रामकीर्ति (८५७), ३८. अभयचन्द्र (८७८), ३९. नरचन्द्र (८९७), ४०. नागचन्द्र (९१६), ४१. नयनन्दी (९३९), ४२. हरिनन्दी (९४८), ४३, महीचन्द्र ( ९७४), ४४. माघचन्द्र ( २९० ) । उल्लिखित महाकीति से लेकर माधचन्द्र तकके अट्ठारह आचार्य उज्जयिनीके पट्टाधीश हुए । ४५ लक्ष्मीचन्द्र (१०२३), ४६. गुणनन्दी (१०३७); ४७. गुणचन्द्र (१०४८), ४८, लोकचन्द्र (१०६६) । ये उल्लिखित पार आाचाय्यं वन्दे (केशव) से पट्टाधीश हुए। ४९. श्रुतकीर्ति (१०७९), ५० भावचन्द्र ( १०९४), ५१. महाचन्द्र (१११५), उल्लिखित तीन आचाय्यं मेलसे [ भूपाल सी० पी० के पट्टाधीश हुए 1 ५२ माघचन्द्र ( ११४० ) | यह आचार्य कुण्डलपुर (दमोह) के पट्टाधीश हुए । ५३. ब्रह्मनन्दी (१९४४), ५४. शिवनन्दी (१९४८), ५५. विश्वचन्द्र ( १९५५), ५६. हृदिनन्दी (१९५६), ५७. भावनन्दी (१९६०), ५८. सूरकीर्ति (१९६७), ५९. विद्याचन्द्र ( ११७० ), ६०. सूरचन्द्र (१९७६), ६१. माघनन्दी (११८४), ६२. ज्ञाननन्दी (१९८८), ६३. गंगकीर्ति (११९९ ), ६४. सिंहकीति (१२०६) । उपर्युक्त बारह आचार्य वारांके पट्टाधीश हुए। ६५. हेमकीर्ति (१२०९), ६६. चारुनन्दी (१२१६), ६७. नेमिनन्दी (१२२३), ६८. नाभिकीर्ति (१२३०), ६९. नरेन्द्रकीर्ति (१२३२) ७०. श्रीचन्द्र ( १२४१), ७१. पद्म (१२४८), ७२. वर्द्धमानकीति ( १२५३), ७३. अकलंकचन्द्र ( १२५६ ), ७४. ललितकति (१२५७), ७५. केशवचन्द्र ( १२६१), ७६. चारुकीर्ति (१२६२), ७७. अभयकीर्ति (१२६४), ७८, बसन्तकीसिं (१२६४) | इण्डियन ऐण्टिक्वेरीकी जो पट्टावली मिली है उसमें उपयुक्त चौदह आचार्योंका पट्ट ग्वालियर में लिखा है, किन्तु वसुनन्दीश्रावकाचार में इनका चित्तौड़में होना लिखा है, पर चित्तौड़के भट्टारकोंकी अलग भी पट्टावली हैं। जिनमें ये नाम नहीं पाये जाते हैं। सम्भव है कि ये पट्ट स्वालियर में हों । इनको ग्वालियरकी पट्टावलीसे मिलानेपर निश्चय होगा । ७९. प्रख्यातकीर्ति (१२६६), ८०. शुभकीर्ति (१२६८), (१२७१), ८२. रत्नकीर्ति (१२९६), ८३. प्रभाचन्द्र ( १३१० ) । ये उल्लिखित ५ आचार्य अजमेर में हुए हैं । ४४२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा ८१. धर्म्मचन्द्र Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. पद्मनन्दी (१३८५), ८५. शुभचन्द्र ( १४५०) ८६. जिनचन्द्र ( १५०७), ये तीन आचार्य दिल्लीमें पट्टाधीश हुए हैं । इनके बाद पट्ट दो भागों में विभक्त हुआ । एक नागोरमें गद्दी स्थापित हुई और दूसरी चित्तौड़में निम्नलिखित आचार्योंके नाम चित्तोड़ पट्टके हैं। प्रभाचन्द्रजीसे चित्तौड़का पट्ट प्रारम्भ होता है । ८७. प्रभाचन्द्र ( १५७११, ८८. धम्मं - चन्द्र (१५८१), ८९. ललितकीर्ति (१६०३), ९०, चन्दकीर्ति (१६२२) ९१. देवेन्द्र कीर्ति (१६६२), ९२: नरेन्द्रकीर्ति (१६९१) ९३. सुरेन्द्र कीर्ति (१७२२), ९४. जगत्कीर्ति (१७३३), ९५. देवेन्द्रकीर्ति (१७७०), ९६. महेन्द्रकीर्ति (१७९२), ९७. क्षेमेन्द्रकीर्ति (१८१५), ९८. सुरेन्द्रकीर्ति (१८२२) ९९ सुखेन्द्रकीर्ति (१८५९), १००. नयन कीर्ति (१८७९), १०१. देवेन्द्रकीर्ति (१८८३), १०२. महेन्द्र कीर्ति (१९३८) aritra भट्टारकोंकी नामावली १. रत्न कीर्ति (१५८१), २. भुवनकीर्ति (१५८६), ३. धर्मकीर्ति (१५९०), ४. विशाल कीर्ति (१६०१), ५. लक्ष्मीचन्द्र, ६. सहस्रकीर्ति, ७ नेमिचन्द्र, ८ यशकीर्ति, ९ भुवनकीर्ति, १० श्रीभूषण, ११. धर्मचन्द्र, १२ देवेन्द्रकीर्ति, १३. अमरेन्द्रकीर्ति, १४. रत्नकीर्ति, १५. ज्ञानभूषण, १६. चन्द्रकीर्ति, १७. पद्मनन्दी, १८. सकलभूषण, १९.. सहस्रकीर्ति २० अनन्तकीर्ति २१ हर्षकीर्ति, २२. विद्याभूषण, २३. हेमकीर्ति । यह आचार्य १९१० माघ शुक्ल द्वितीया सोमवार को r पट्टपर बैठे | इनके बाद क्षेमेन्द्रकीर्ति हुए, इनके पट्ट पर मुनीन्द्रकीर्ति हुए और अब नागौरकी गद्दीपर श्रीकनककीर्ति महाराज विराजमान हैं । पट्टावली ४४३ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i कविवर नवलशाह कविवर नवलशाहकी हिन्दी में एक महत्वपूर्ण सचित्र रचना 'वर्धमान पुराण' उपलब्ध है। उन्होंने इस ग्रंथ के अन्तमें जो प्रशस्ति दी है, उस प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ये गोलापूर्व जातिमें उत्पन्न हुये थे । इनका बैंक चन्देरिया और गोत्र ! इनके पूर्वज भीष्ममा भेलसी ( बुन्देलखण्ड ) ग्राममें रहते थे । उनके चार पुत्र थे- बहोरन, सहोदर, अमन और रतनशाह् । एकदिन भीषण साहूने अपने पुत्रोंको बुलाकर उनसे परामर्श किया कि कुछ धार्मिक कार्य करना चाहिये। हमें जो राज-सम्मान और धन प्राप्त है उसका सदुपयोग करना चाहिये। सबके परामर्शपूर्वक दीपावलीके शुभ मुहूर्त में उन्होंने पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाका आयोजन किया, जिसमें दुर-दुर देशसे धार्मिकजन आकर सम्मिलित हुये ! उन्होंने जिनबिम्ब बिराजमान किया । तोरण - ध्वजा - छत्रादिले मन्दिरको सुशोभित किया । आगत साधर्मीजनोंका सत्कार किया। और चारसंघको दान दिया, फिर रथयात्राका उत्सव किया । चार संघने मिलकर इनका टीका किया । और एकमत होकर इन्हें 'सिघई' पदसे विभूषित किया । यह बिम्बप्रतिष्ठा वि० सम्वत् १६५१ के अगहन मासमें हुई थी । उस समय बुन्देलखण्ड में महाराज जुझारका राज्य था । इनके पूर्वजोंने भेलसीको छोड़कर खटोला गांवमें अपना निवास बनाया । इनके पिताका नाम सिंघई देवाराय और माताका नाम प्रानमती था। सिंघई देवारायके चार पुत्र थे — नवलशाह, तुलाराम, घासीराम और खुमानसिंह | नवलशाह ही प्रस्तुत कविवर हैं | कविवरने वर्धमानपुराणकी रचना महाराज छत्रसालके पौत्र और सभासिंहके पुत्र हिन्दुपतिके राज्यमें की थी। कविबरने लिखा है कि उन्होंने और उनके पुत्रने मिलकर आचार्य सकलकीर्तिके वर्धमानपुराणके आधारसे अपने 'वर्धमानपुराण' की रचना की है। ग्रंथके अध्ययनसे कविवरकी काव्य-प्रतिभा और सिद्धान्त - ज्ञानका अच्छा परिचय मिलता है । वे चारों अनुयोगोंके विद्वान थे, कवि तो थे हो । समय-निर्णय इनका समय निश्चित है । इन्होंने वर्धमानपुराणकी समाप्ति विक्रम सम्वत् ४४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा : Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२५ फागुन शुक्ला पूर्णमासी बुधवारको हुई है। इससे इनका समय विक्रमकी १८वीं शतीका अन्तिम पाद और १९वीं शताब्दीका प्रथम पाद निश्चित होता है अर्थात् इनका समय विक्रम संवत् १८२५ है । रचना-परिचय __ इनकी एकमात्र रचना वर्धमानपुराण प्राप्त है। इसमें भगवान महावीरके पूर्व भवों और वर्तमान जीवनका विवाद एवं विस्तृत परिचय दिया गया है। इसकी भाषासे अवगत होता है कि उस समय हिन्दीको खड़ी बोलीका आरम्भ हो गया था। कविने अपनी यह रचना प्रायः अपने समयकी हिन्दीकी खढ़ी बोलीमें की है । रचना सरस और सरल है। ___ ग्रंथमें १६ अधिकार दिये गये हैं। प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर वक्ता और श्रोताके लक्षण दिये गये है। दूसरे अधिकारमें भगवान महावीरके पूर्व मवोंमेंसे पुरुरवा भोलके भवमें उसके द्वारा किये गये मद्य-मांसादिकके परित्यागका वर्णन करते हुये उसके सौधर्म स्वर्ग में देवपदकी प्राप्ति वणित है । तीसरे भवमें भरत चक्रवर्तीके पुत्रके रूपमें मरीचिकी पर्याय-प्राप्ति और उसके द्वरा मिथ्या मतकी प्रवृत्ति, फिर ब्रह्मस्वर्गमें देवपर्यायकी प्राप्ति, वहाँसे चलकर जटिल तपस्वीकी पर्याय, तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्गकी प्राप्ति, फिर अग्निसह नामक परिव्राजककी पर्याय, फिर तृतीय स्वर्गमें देवपद-प्राप्ति, वहांसे आकर भारद्वाज ब्राह्मणकी पर्याय, फिर पांचवें स्वर्गमें देवपर्याय, फिर असंख्य वर्षों तक अनेक योनियों में भ्रमणादिका कथन किया गया है। । तृतीय अधिकारमें स्थावर ब्राह्मण, माहेन्द्र स्वर्गमें देव, राजकुमार विश्वनन्दि, दशधै स्वर्गमें देव, त्रिपृष्ठनारायण, सातवें नरकमें नारकी इन भवोंका वर्णन है। चतुर्थ अधिकारमें सिंह पर्याय और चारण मुनियों द्वारा सम्बोधन प्राप्त करनेपर सम्यक्त्वको प्राप्ति, फिर सौधर्म स्वर्गमें देवपर्याय, राजकुमार कनकोज्वल, सातवें स्वर्गमें देव, राजकुमार हरिषेण, दशवें स्वर्ग में देवपर्यायका कथन है। पांचवें अधिकारमें प्रियमित्र चक्रवर्तीक भवका सथा बारहवे स्वर्ग में देवपदकी प्राप्तिका वर्णन है।। __छठवें अधिकारमें राजा नन्दके भवमें तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध तथा सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र पदकी प्राप्तिका वर्णन है। १, वर्षमान पुराण १६॥३३०-३३३॥ पट्टावली : ४५ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें अधिकारमें कुण्डपुरनरेश सिद्धार्थके महलोंमें कुबेर द्वारा तीर्थकरजन्मसे पूर्व रत्नोंकी वर्षा, माता द्वारा सोलह स्वप्नोंका दर्शन और महावीरका गर्भकल्याणक वर्णित है। आठवें और नौवें अधिकारमें भगवानके जन्मकल्याण-महोत्सवका विस्तृत वर्णन किया गया है। दशवें अधिकारमें भगवान्के बाल्यजीवन, किशोरावस्था, युवावस्था, वैराग्य और दीक्षा, कूलराजा द्वारा भगवानको प्रथम आहार, चन्दनाके हाथोंसे आहार लेनेपर चन्दनाको कष्टनिवृत्ति, तपश्चर्याकालमें विविध उपसोका सहन और केवलज्ञानप्राप्तिका वर्णन है। __ ग्यारहवें अधिकारमें देवों द्वारा भगवानका केवलज्ञानकल्याणक-महोत्सव मनाने और कुबेर द्वारा रचित समवशरणका वर्णन है। बारहवें अधिकारमें गौतम इन्द्रभूतिका समवशरणमें आना, उसके द्वारा भगवानकी स्तुति करना गोर मादान मोदी शीक्षा नो नातिका वर्णन है । तेरहवेसे पन्द्रहवें अधिकार तक गौतम गणधर द्वारा किये गये प्रश्नों और प्रश्नोंके समाधानस्वरूप भगवानकी दिव्यध्वनिमें निरूपित तत्त्व-निरूपण बतलाया गया है। सोलहवें अधिकारमें भगवानका विभिन्न देशोंमें विहार गौतम गणधर द्वारा श्रेणिकके तीन पूर्वभव, अन्तमें विहार करते हुए भगवानका पावामें निर्वाण, गौतमस्वामीको केवलज्ञानकी प्राप्ति और उनका धर्मविहार, धर्म उपदेश आदिका वर्णन करते हुए अधिकारके अन्तमें अपना विस्तृत परिचय देकर ग्रन्थको समाप्त किया है। कविने इस काव्य-ग्रन्थमें दोहा, छप्पय, चौपाई, सवैया, अड्डिल्ल, गीतिका, सोरठा, करखा, पद्धरि, चाल, जोगीरासा, कवित्त, त्रिभंगी और चर्चरी छन्दोंका प्रयोग किया है, जिनकी संख्या सब मिलाकर ३८०६ है। १९वीं शताब्दीकी यह हिन्दी रचना बहु प्रचलित रही है । इसका एक बार प्रकाशन सूरतसे हो चुका है । वह अब अनुपलब्ध है। ४४६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 0000000 परिशिष्ट 00000000 6000000000000 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्धकार अकलदेव अग्गल अजितसेन अनन्तकीर्ति अनन्तवीर्य बृहत् अनन्तवीर्यं लघु अभयकीर्ति अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अभिनव चारुकीति अभिनव धर्मभूषण भट्टारक अभिनव वाग्भट्ट अमरकीर्तिगणि अमितगति द्वितीय अमितगति प्रथम अमृतचन्द्रसूरि अरुणमणि अहद्दस महाकवि अल्हू कवि असग महाकवि असवाल कवि आच्चण्ण आदिपम्प आर्यमक्षु आशाधर महाकवि इन्द्रनन्दि द्वितीय १. ग्रन्थकारानुक्रमणिका २९ समय वि० ७वीं शती उत्तरार्ध १९८९ ई० ई० १३वीं शती ई० ८-९ वीं शती ई० ९७५-१०२५ वि० १२वीं शतीका आदि शक सं० १६वीं शती ई० १३वीं शती ई० १६वीं शती ई० १३५८-१४१८ वि० १४वीं शती मध्य वि० १३वीं शती वि० ११वीं शती वि० सं० १००० ई० १०वीं शती अन्त चि० १८वीं शती वि० १४वीं शतीका आदि १६वीं शती ई० १०वीं शती वि० १५वीं शती ई० ११९५ ई० ९४१ वी० नि० सं० ५वीं शती वि० सं० १२३० ई० १०-११वीं शती भाग एवं पृष्ठ २३०० ४३११ ४३० ३।१६३ ३।३८ ३।५२ ४।३२१ ३।३१९ ४१८५ ३/३५५ ४८३७ ४१५४ २।३८९ २०३८३ २४०२ ४१८९ ४४८ ४।२४२ ४|११ ४२२८ ४१३११ ४/३०७ २१७१ ४१४१. ३।२१९ परिशिष्ट : ४४९ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रनन्दि प्रथम ( इन्द्रनन्दि योगीन्द्र ) ६० १०वीं शतीका व्यादि इलंगो डिगल उम्रादित्याचार्य उच्चारणाचार्य उदयचन्द्र उदयादित्य ऋषिपुत्र एलाचार्य एलाचार्य ओड्डय्य कनकनन्दि कनकामर मुनि कमलभव कर्ण पा कल्याणकीति कान्ति देवी काणभिक्षु कामराज 13 कुमारनन्दि कुमारसेन कुमुदेन्दु कुंवरपाल केशवराज कोटेश्वर खड्गसेन कवि वि० वीं शती संभवत: ई० २-३ शती ई० १२वीं शती ई० ११५० ई० ६-७वीं शती ई० १ली शती ८-९वीं शती ई० ११७० वि० ११वीं शती दि० १२वीं शती ई० १२३५ ई० १२वीं शती ई० १४३९ ई० १२वीं शती ६० ९वीं शती सं० १८वीं शती ११२५ ई० किशनसिंह कीर्तिवर्मा कुंगवेल कुन्दकुन्द ई० १ली शक्ती कुमार या कुमारस्वामी (कार्तिकेय) वि० २-३री शती ई० ९वीं शती वि० ८वीं शती १२७५ ई० वि० १७वीं शती ११५० ई० १५०० ई० वि० सं० १८वीं शती वि० सं० १८वीं शती बि० १२वीं शती वि० १६१३-१६५३ खुशालचन्द काला गणधरकीसि गुणचन्द्र ४५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा ३।१७७ ४१३ १४ ३।२५० २।९२ ४१८४ ४३११ २२६२ ४३१२ २/३१९ ४३०८ २१४५२ ४११५९ ४१३११ ४३०९ ४३११ ४१३०८ २।४५२ ४३२१ ४२८० ४३११ ४३१६ २९८ २।१३३ २०४४७ २०४४९ ४३११ ४२६२ ४३१० ४३११ ४२८० ४३०३ ३२४३ श४२२ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०पू० १ली शती वि० १५-१६वीं शती ई० ८९८ वि० १३वीं शती ई०१२२५ ४॥३१९ २०२८ ४॥२१६ ३२८ ४॥३०. ई०२री शतो वि० १८वीं शती श१४५ ३४४७ ३/३४८ वि०१७वीं शती वि० सं० १५००.१५६२ ई०१६०५ ई० ७८३से पूर्ववर्ती १७वीं शती ई० १०वीं शती ४/९४ ३४४१ ४/२५ गुणदास ( गुणकीर्ति ) गुणधर गुणभद्र गुणभद्राचार्य गुणभद्र द्वितीय गुणवर्म गृखपिच्छाचार्य (उमास्वामी या उमास्वाति) गंगादास गंगादास ज्ञानकीर्ति ज्ञानभूषण चन्द्रभ चतुर्मुख कवि चन्द्रकीर्ति भट्टारक चामुण्डराय चिन्तामणि चिमणा चिरन्तनाचार्य छत्रसेन जगजीवन जगन्नाथ जगमोहनदास जटासिंहनन्दि जनार्दन जन्मकवि जयचन्द छावड़ा जयसागर जयसेन द्वितीय जयसेन प्रथम जलिहमले जिनचन्द्र भट्टारक जिनचन्द्राचार्य ४/३२१ १७९ ५-६वीं शतीसे पूर्ववर्ती वि०१८वीं शती वि०१७-१८वीं शती वि० १७-१८वीं शती वि० १८६५के करीब वि०७-८वीं शती शक सं०१७वीं शती ई०१२वीं शती वि० १५वीं शती वि० सं० १६७४ ई०११-१२वीं शती वि० ११वीं शती वि० १५वीं शती वि० १६वीं शती ई० ११-१२वीं शती ४/२६० ४९० ४१३०५ श२९१ ४१३२२ ४॥३०९ ४।२९० ४।३०२ ३१४२ ३।१४० ४॥२४२ ३११८४ परिशिष्ट : ४५१ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३१८ v८३ ३१४४९ ४।३२२ ४१३२२ २१३३६ ३३३८६ በ रा२४३ ४३०५ ४॥२८३ ४/३२२ ४१३०६ ४१२४३ जिनदास शक सं० १७वीं शती जिनदास पण्डित दि०१५-१६वीं शती जिनसागर वि० १७-१८वीं शती जिनसागर जिनसेन शक सं० १८वीं शती जिनसेन द्वितीय ई० २वीं शती जिनसेन द्वितीय (भट्टारक) दि० १६वीं शती जिनसेन प्रथम ई०७४८-८१८ जोइंदु (जोगीन्दु) ई० ६ठी शती जोषराज गोदीका टेकचन्द सं० १९वों शती टोडरमल वि० सं० १७९७ ठकाप्पा शक सं० १८वीं शती डालूराम तारणस्वामी वि० सं० १५०५ तिरुक्कतेवर सिरुतक्कतेवर ई०७वीं शती तेजपाल वि० १६वीं शती तोलामुलितेवर त्रिभुवन स्वयंभु ई० ९वीं शती दयासागर शक सं० १८वीं शती दामोदर द्वितीय (ब्रह्मदामोदर) वि०१६वीं शती दामोदर महाकवि वि० १३वीं शती बीपचन्द शाह वि० १८वीं शती दुर्गदेवाचार्य ई० ११वीं शती देवचन्द्र वि० १२वीं शती देवदत्त कवि वि० सं० १०५० देवदत्त महाकवि वि०१०-११वीं शती देवनन्दि कवि १५वीं शती देवनन्दि पूज्यपाद ई० छठी शती देवसेन वि० सं० ११३२ देवसेन (देवसेन गणि) ई० १०वीं शती देवेन्द्रकीर्ति सं० १८वीं शती ४१३१३ ४२०९ ४१३१६ ४११०२ ४१३२२ ११९५ ४११९३ रा२९३ श१९५ ४१८० ४/२४३ ४/१२४ ४२४२ २।२१७ ४॥१५१ २।२६५,३७० ३।२५२ ४५२ : सीर्षकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० १८वीं शती |४८ ४१३२१ ४६३११ ४७५ १२८१ ४.२८८ १२७६ वि०१६वीं शती वि० सं० १७४५ वि.सं. १८५५-१८५६ वि० सं० १७३३ ई० ८वीं शती करीब वि० १०वीं शती वि० १५वीं शसी से०१८वीं शती ई० सन् ७३ वि० १७वीं शती वि०१६वीं शती २११ २४३ ३४३९ देवेन्द्रकीर्ति देवेन्द्रकीति देवेन्द्रमुनि दोड्डय्य दौलतराम कासलीवाल दौलतराम द्वितीय यानत्तराय कवि धनञ्जय महाकवि धनपाल धनपाल द्वितीय घनसागर घरसेन धर्मकीति धर्मवर ધર્માસન धवल कवि नथमल विलाला नयनन्दि नयसेन नयसेन नरसेन (नरदेव) नरेन्द्रसेन नरेन्द्रसेन नागचन्द्र' (अभिनव पम्प) नागदेव नागवर्म नागवर्मा द्वितीय नागहस्ति नागेन्द्रकीति नागोआया नृपतुंग नेमिचन्द्र नेनिचन्द्र कवि शक सं० १०-११वीं शती वि० १९वीं शती वि०११-१२वीं शती २८३ ४३०४ १४२४ वि०१४वीं शती ई० सन् १७३० वि० १२वीं शती मध्य १९०० ई. वि० सं० १५७३ के पूर्व ४१३८ ई० ११४५ वी नि० सं० ७वीं शती स७१ ३२२ ४॥३२॥ ई० सन् ८१४ १३वों शती १५वीं शती परिशिष्ट : ४५३ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ २१४१७ २४३९ ४०५ २०५ . ३३१२५ ३०७ ३१३२५ ३२१४५ ३॥२८८ ४८२ नेमिचन्द्र टीकाकार ई० १६वीं शती भर नेमिचन्द्र सिदान्तचक्रवर्ती ई० १०वीं शती अन्त नेमिचन्द्र सिखान्तिदेव वि० १२वीं शतीका आदि (नेमिचन्द्र मुनि) पद्मनार परमेष्ठीसहाय सं० १८६५के करीब पपकीर्सि मुनि शक सं० ९९९ करीब पपनन्दि द्वितीय ई०११वीं शती पपनन्दि प्रथम ई० ९७७-१०४३ पग्रनन्दि भटटारक ई०१४वीं शती पपनाम ई० १५८० पप्रनाभ कायस्थ ई० १४-१५वीं शती बचप्रम मलधारिदेव ई० ११०३ के पूर्व पासिंह मुनि वि० सं १०८६ के पूर्व षमसुन्दर वि. १७वीं पाण्डे जिनदास वि० १७वीं शती पात्रकेसरी (पात्रस्वामी) वि०६ठी शती अन्त सं० १८वीं शती पावंदेव ई०१२-१३वीं शती पाव पण्डित ई. १२०५ पुण्यसागर पुष्पदन्त ई० १-२री शसीके करीब पुष्पदन्त महाकवि ई० १० वीं शती पोन्न कवि ई० २५० के करीब प्रभाचन्द्र ई० ११वीं शती प्रमाचन्द्र बृहत् वि० ४-५वीं प्रभाचन्द्र भट्टारक वि० १६वीं शती बखतराम १२वो शसी बटटकेर ई० सन् की १ ली शती बनारसीदास महाकवि वि० सं० १६४३ बल्खुवर्मा ई० १२०० बल्हकवि (बूधिराज) वि० १६वीं शती बालचन्द्र ई० १खों शती २२३७ पामो ३०२ ४।३१ २१५० ४११०४ वा२९१ २१११७ જો૨૪૮ ४३११ ४१२३० ४२८९ ४५४ : वीपंकर महावीर और उनकी वाचार्यपरम्परा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई० १५६० १९वीं शती मध्य ४॥३११ ४/२९८ वि०१७वीं शती वि० १७वीं शती वि०१७वीं शती वि० १८वीं शती वि० सं०१४५०.१५२५ वि० १६वीं शती ई० १वीं शती वि० १६वीं शती वि० १५वीं शती वि० १७वीं शती ई० ११वों शती अन्त ४१८४ ४/३०४ ३॥४४२ ४॥३०२ 3ረ ३३३८७ ३३३१० ३१४०२ ४॥२४२ ४२३८ ३१२४५ ४॥२९६ बाहुबली बुधजन बुलाकीदास ब्रह्म कृष्णदास ब्रह्मगुलाल ब्रह्मशानसागर ब्रह्मजयसागर ब्रह्मजिनदास ब्रह्मजीवन्धर ब्रह्मदेव ब्रह्मनेमिदत ब्रह्म साधारण कधि भगवतोदास भट्टयोसरि भट्टाकलङ्क भागचन्द भारामल भावसेन विद्य भास्कर भास्करनन्दि भुवनकीर्ति भट्टारक भतबलि भूधरदास भधर मिश्र भैया भगवतीदास मंगरस मंगराज मधुर मनरंगलाल मनोहरलाल (मनोहरदास) मलयकीर्ति मल्लिभषण भट्टारक मल्लिषेण ३३२५६ १९.२०वीं शती वि० सं०१८-१९वीं शती ई०१३वीं शती मध्य ई० १४२४ वि० सं० १६वीं शती वि० सं० १५०८-१५२७ ई० ८७के करीब वि० १८वीं शती ४।३११ ३१३०७ २१५५ ४।२७२ ४॥२६३ ४॥३११ ४॥३११ वि०१८वीं शती ई० १५०८ ई० १५५० ई० १३८५ वि० १९वीं शती सं० १८वीं शती वि० १५वीं शती वि०१६वीं शती ई० ११वीं शती ४॥२८० ३।४२८ ३१३७३ ३।१६९ परिशिष्ट : ४५५ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महनन्दि मुनि महाकीर्ति महावीराचार्य महासेन द्वितीय महासेनाचार्य महितसागर महीचन्द्र महीन्दु (महीचन्द्र ) महेन्द्रसेन (महेन्द्रभूषण) माघनन्दि माणिकचन्द कवि माणिक्यनन्दि माणिक्यराज माधवचन्द विद्य मानतुङ्ग मेघराज मेधावी पण्डित यतिवृषभ यशः कीर्ति यशः कीर्ति प्रथम यशोभद्र योगदेव पण्डित रद्दधू महाकवि रघु रत्नकीर्ति रत्नकीर्ति ( रत्ननन्दी) रत्नाकरवर्णी रन्न कवि रविचन्द्र मुनीन्द्र रविषेण राजमल्ल वि० १६वीं शती ― ई० ९वीं शतीका आदि ६० ८-९ वीं शती ई० १०वीं शतीका उत्तरार्ष शक सं० १६९४ शक सं० १६-१७वीं शती बि० १६वीं शती वि० १७-१८वीं शती ई० १२वीं शती उत्तरार्धं वि० १७वीं शती ई० १००३ वि० १६वीं शती ६० ९७५-१००० ६-७वीं शती वि० १६वीं शती ३० १७६के करीब वि० १५-१६वीं शती वि० ११ १२वीं शती वि० ६ठी शतोके पूर्व १५-१६वीं शती वि० सं० १४५७-१५३६ शक सं० १७-१८वीं शती शक सं० १८वीं शती वि० १६वीं शती उत्तरार्ध ई० १६वीं शती ई० १०वीं शती ई० १२-१३वीं शती वि० [सं० ८४० से पूर्व वि० १६-१७वीं शती वि० १७वीं शती वि० १४वीं शती राजमल्ल राजसिंह कवि (रल्ह ४५६ : तीपंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ३४१९ ४३२१ २१२४ ३२८६ ३।५५ ४१३२० ४३२१ ४२२५ ३४५१ ३२८२ ४२३७ ३४१ ४।२३५ ३।२८८ २।२६७ ४१३१९ ४६७ २८० ३।४०७ ४१७८ २४५० કાર્૪૨ ४।१९८ ४१३२२ ४/३२२ ३।४३४ ४१३०९ ४३०७ ३।३१६ २२७६ ४१३०४ ४३७६ ४१३०६ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजादित्य रामचन्द्र मुमुक्षु रामसेन रूपचन्द्र (रूपचन्द्र पाण्डे) लक्ष्मणदेव लक्ष्मीचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र कवि लक्ष्मीदास ललितकीर्ति लाखू वज्रसूरि चप्पदेव वर्द्धमान द्वितीय वर्द्धमान प्रथम (भट्टारक) वसुनन्दि प्रथम वाग्भटट प्रथम वादिचन्द्र वादिराज वादीभसिंह वामदेव पण्डित वामन मुनि विजयकीर्ति भट्टारक विजयवर्णी विजयसिंह विद्यानन्द विद्यानन्द भट्टारक विनयचन्द्र विमलकीर्ति विमलसूरि विशालकीर्ति विशेषवादि वीर कवि ई० ११२० ई० १३वीं शती मध्य ई० ११वीं शती उत्तरार्धं सं० १६४० १४वीं शती शक सं० १७वीं शती वि० १८वीं शती वि० १९वीं शती वि० सं० १२७५-१३१३ पिः १०वीं ती वि० ६ठी शती वि० ५-६ठा शती वि० १६-१७वीं शती ई० १४वीं शतो उत्तरार्द्ध ई० ११ १२वीं शती ई० ११ १२वीं शती वि० सं० १६३७-१६६४ ई० १०१०-१०६५ वि० ९वीं शती वि० १५वीं शती ई० १२-१३वीं शती वि० १६वीं शती ई० १३वीं शती वि० १६वीं शती ई० ७७५-८४० वि० सं० १४९९-१५३८ ई० १२वीं शती १३वीं शती ई० ४थी शती लगभग शक सं० १८वीं शती ६० ११वीं शतीसे पूर्व वि० सं० ११वीं शती ४३११ ४६९ ३।२३२ ४२२५ ૪૨-૩ ४३२१ ×!૨૪૩ X} {as ૫૪૧૨ ४१७१ ४/३०३ २४५० २९५ ३।४४६ ३१३५८ શર ४/२२ ४ /७१ ३१८८ ३।२५ ४/६५ _४।३१६,३१७ ३।३६२ ४ | ३३ ४२२७ २३४८ ३।३६९ ४|१९१ ४/२०६ २१२५४ ४/३२२ २१४५१ ४११२४ परिशिष्ट : ४५७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३७४ ४॥३२० ३।५३ ३३२६९ १३२१ ४॥३११ रा२९९ २३४५१ ४॥३११ ४॥२३३ ४।३०३ २२१२२ ३।४११ ३११४८ वीरचन्द्र वि० सं० १५५६-१५८२ वीरदास (पासकीति) शक सं० १६वीं शसी वीरनन्दि ई०९५०-९१९ वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती ई० १२वीं शती मध्य वीरसेनाचार्य ई०८१६ वोम्मरस ई०१४८५ वृन्दावन दास वि० सं० १८४२ शकिटायन (पाल्यकोति) ई० १०२५के पूर्व शान्त (शान्तिषेण) वि० ७वीं शती शान्तिकीति शाह ठाकुर कवि वि० १७वीं शती शिरोमणिदास वि० सं०१७वीं शती शिवार्य ई० प्रथम शती शुभकीर्ति वि० १५वीं शती शुभचन्द्र शुभचन्द्र वि०११वीं शती शुभचन्द्र सं० १५३५-१६२५ श्रीचन्द ई० ११वीं शती श्रीदत्त वि०४-५वीं शती श्रीधर तृतीय वि० १३वीं शती श्रीधर द्वित्तीय वि० १३वीं शती श्रीधर देव ई. १५०० श्रीधर प्रथम (विवुध श्रीधर) वि० १२वीं शती श्रीधरसेन ई० १३-१४वीं शती श्रीधराचार्य ई०८-९वीं शती श्रीधराचार्य ई०१०४६ श्रीपाल वि. ९वीं शती श्रीभूषण वि. १७वीं शती श्रुतकीति भट्टारक वि०१६वीं शतो श्रुसमुनि ई० १३वीं शती उत्तरार्द्ध श्रुतसागर सूरि वि०१६वीं शती सकलकीति भट्टारक वि० सं० १४४३-१४९९ ४५८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा જ૮ ४१४५ ४॥३११ ४।१३७ ४।६० ३११८७ ४१३११ २।४५२ ३१४३९ ३१४३० ३।२७२ ३।३९१ ३२३२६ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १८५२ ४।२९४ ४१३०६ २०१७१ १३२२ ४१२६२ ४॥३११ ४४३२१ २।२०५ २१४४४ सदासुख काशलीवाल सुधा - कवि समन्तभद्र सहवा सालिवाहन कवि साल्व सावाजी विद्धसेन सिंहनन्दि सिंह महाकवि सुप्रभाचार्य सुमति सुमतिकीति सुमतिदेव सुरेन्द्रकोति सुरेन्द्र भूषण सूरिजन सोमकीति सोमदेवसरि सोमनाथ सोमसेन स्वयम्भुदेव महाकवि हरिचन्द कवि (जगमित्रहल) हरिचन्द द्वितीय हरिचन्द्र महाकवि हरिदेव हरिषेण हरिषेण हस्तिमाल ई० 2री शती शक स. १७वीं शती वि० १७वीं शसी ई० १५५० शाक सं० १६वीं शती वि० सं० १२५ के आसपास ई० २री शती वि० १२-१३वीं शती ११-१२वीं शती ८वीं शतीके लगभग वि०१६-१७वीं शती ७-८वीं शती वि० १८वीं शती वि० १८वीं शती उत्तरार्द्ध १९९७ रा४४६ ३/२८७ ३४५१ ४३२१ ३।३४४ वि० सं० १४८०-१५०० वि० १७वीं शती उत्तरार्ध ई० ७८३ वि० १५वीं शती १५वीं शती ई० १०वीं शती वि० १२-१५वीं शती ई०१०वीं शती मध्य वि० ११वीं शत्ती ई० ११६१-१९८१ ४२२२ १४ ४/२१८ ११२० ३।२७५ परिशिष्ट : ४५९ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्म अकलाष्टकवचनिका अक्षयनिविदशमी कथा अक्षरवावनी अक्षरबत्तीसिका अजितनाथपुराण अजितनाथरास अजितपुराण अजितपुराण अञ्जनाचरित अञ्जनापवनञ्जय अट्टाबीसमूलगुणरास अठाईव्रत कथा अणस्यमिय कहा अणथमिकहा भ्रणंसवयकवा अणुपेहा २. ग्रन्थानुक्रमणिका प्रन्थकार अणुवयरयणपईव अणुवेक्खा अणुवेषखा दोहा अध्यात्मकमलमार्तण्ड अध्यात्मतरङ्गिणी अध्यात्मसरङ्गिणी (योगमार्ग ) अध्यात्मतरङ्गिणी- टीका अध्यात्मपच्चीसी सदासुख काशलीवाल ललितकीति ब्रह्म ज्ञानसागर भगवतीदास रन्न ब्रह्म जिंनदास विजयसिंह अरुणमणि भट्टारक भुवनकीर्ति हस्तिमल्ल जिनदास महीचन्द्र हरिचन्द्र द्वितीय धू गुणभद्र ब्रह्म साधारण लाखू अल्हू लक्ष्मीचन्द्र राजमल्ल शुभचन्द्र सोमदेव गणघरकीति दीपचन्द शाह अध्यात्मरहस्य अध्यात्मवारा खड़ी ४६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा आशाधर दौलतराम कासलीवाल खण्ड एवं पुष्ठ ४।२९६ ३।४-५३ ३१४४३ ४२७२ ४१३०७ ३३४२ ४१२२८ ४१९० ३।३३८ ३।२८१ ३।३४० ४/३२१ ४२२२ ४/२०५ ४२१८ ४२४२ ४।१७६ ४२४२ ४।२४३ ४८१ ३।३६६ ३३८८ ३८२४४ ४२९४ ४१४५ ४२८२ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 1 अध्यात्मसन्दोह अध्यात्मसवैया अनगारधर्मामृत (धर्मामृत) raaमोकथा अनन्तकथा अनन्तनाथपुराण अनन्तनाथपूजा अनन्तनाथस्तोत्र अनन्तव्रतकथा कथा अनन्तव्रतकथा अनन्तव्रतकथा अनन्तव्रतकथा अनन्तव्रतपूजा अनन्तयतरास अनादिवत्तीसिका अनिरुद्धहरण अनुपेहा रास अनुभवप्रकाश अनेकार्थनाममाला अपराजितशतक अमरकोशटीका अमरसेनचरित अमितगतिश्रावकाचार - वचनिका अम्बादेवीरास अम्बादेवीरास अम्बिकाकल्प अम्बिकारास aanerus अप्रकाशिकावचनिका अर्थप्रकाशिका - टीका अर्थसंदृष्टि जोइन्दु रूपचन्द्र आशावर भगवतीदास जिनसागर जन्न गुणचन्द्र क्षत्रसेन भट्टारक पद्मनन्दि ਭਜਨੀ नेमिचन्द्र अभयकीर्त्ति चिमणा जिनदास जिनदास भगवतीदास ब्रह्म जयसागर जल्हिगले दीपचन्द शाह भगवतीदास रत्नाकरवर्णी अशाधर माणिक्यराज भागचन्द देवदत्त देवदत्तमहाकवि शुभचन्द्र ब्रह्मजिनदास दुर्गदेव सदासुख काशलीवाल परमेष्ठीसहाय टोडरमल २।२५१ ४१२५८ ४१४६ ४२४० ३१४५० ४१३०९ ३।४२३ ३२४४० ३/३२५ ३१४५३ ४२४३ ४।३२१ ४३२१ ३/३३९ ३१३३९ ४१२७२ ४४३०३ ४२४२ ४१२९४ ४१२४१ ४/३०९ જામ ४२३७ ४४२९७ ४१२४३ ४११२४ શન ३|३४३ ३।२०४ ४/२९६ ४१३०५ ४२८६ परिशिष्ट ४६१ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्द्धकथानक अर्द्धनेमिपुराण अर्हत्पाशाकेवली अर्हन्तआरती अलङ्कारचिन्तामणि अष्टपदार्थ अष्टपाहुड भाषा अष्टशती ( देवागमविवृत्ति) अष्टसहस्री अष्टाङ्गसम्यक्त्वकथा अष्टाङ्गहृदयोद्योतिनीटीका अष्टाह्निका पूजा अष्टाल्लिका कया अष्टाका गीत अहनानूर - कवितासंग्रह आइरियभत्ति आकाशपञ्चमी कथा आगमविलास आगमसार आचारसार आत्मबत्तीसी आत्मसम्बोषकाव्य आत्मसम्बोधन काव्य आत्मानुशासन आत्मानुशासन-टोका आत्मानुशासन - वचनिका आत्मावलोकन आदीत्य रास आदित्यवारकथा आदित्यवारकथा बनारसीदास नेमिचन्द्र आदित्यवारकया आदित्यवारकया वृन्दावनदास महीचन्द्र अजितसेन जयचन्द छावड़ा अर्क विद्यानन्द जिनदास आशाधर सकलकीप्ति शुभचन्द्र शुभचन्द्र कुन्दकुन्द ललितकीत्ति द्यानंत राय भट्टारक सकलकीत्ति वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती दौलतराम कासलीवाल रक्षू शनिभूषण गुणभद्र प्रभाचन्द्र टोडरमल दीपचन्दशाह भगवतीदास पुष्यसागर गङ्गादास भगवतीदास गङ्गादास ४६२ : तीर्थकर महावीर और उनकी वाचार्यपरम्परा ४/२५५ ४१३०९ ४/३०१ ४/३२१ ४१३१ ४१३१८ ४४२९२ २३१७ २/३६३ ३।३४० ४।४५ ३३३० ३।३६५ ३श३६६ ४/३१७ २।११५ ३।४५३ ४२७८ ३।३३० ३।२७१ ४२८२ ४/२०१ ३।३५२ ३।११ ३१५० ४२८६ ४/२९४ ४१२३९ ४४३२१ ४३२२ २४० ३।४४८ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४०७ ३१४२३ ३२४४९ ४१३२१ ४/३२० ३१३४० ३1४५० Jo ३१३४६ ३३३३३ ४१३२१ आदित्यवारवतकथा ब्रह्मनेमिदत्त आदित्यवतकथा गुणचन्द्र आदित्यव्रतकथा जिनसागर अभयकत्ति आदिनाथपञ्चकल्याणककथा महितसागर आदिनाथ-स्तवन जिनदास आदिनाथ-स्तोत्र जिनसागर आदिनाथ पुराण ब्रह्मजिनदास आदिनाथ-विनती सोमकीति आदिपुराण वृषभनाथचरित्र) भट्टारकसकलकोत्ति आदिपुराण महीचन्द्र आदिपम्प जिनसेन हस्तिमल्ल आदिपुराण-वचनिका दौलतराम कासलीवाल आदीश्वर-फाग ज्ञानभूषण आप्तपरीक्षा (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) विद्यानन्द आप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र) समन्तभद्रस्वामी आयज्ञानतिलक भट्टोसरि आयासपंचमीकहा गुणभद्र आरतीसंग्रह चिमणा माहितसागर आराधना अमितगति द्वितीय आराधनाकथाकोश ब्रह्मनेमिदत्त आराधनाप्रतिबोधसार सकलकीति आराधनासार देवसेन आराधनासार-टीका आशाधर आराधनासार-समुच्चय रविचन्द्र आलापपद्धति देवसेन आलोचना ब्रह्मजीवन्धर मालोचनाजयमाल जिनदास ४३०७ ३१३४१ ३१३८२ ४।२८२ ३२३५४ २३५२ २।१८९ ३२२४७ ४२१७ ४१३२१ ४॥३२० २२३९४ ३४०४ २३७७ ४४५ ३३१८ रा३८२ ३२३८७ ३१३४० परिशिष्ट : ४६३ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।२७२ ३१२७४ ४१२८६ रा२२९ ४।४५ ንን ३९ आश्चर्यचतुर्दशी भगवतीदास आस्रव-विभङ्गी श्रुतमुनि आध्यात्मिक पत्र टोडरमल इष्टोपदेश पूज्यपाद इष्टोपदेश-टीका आशाधर उत्तरपुराण भट्टारक सकलकोत्ति मुणभद्र उदयनकुमारकाव्य उदयादित्यालङ्कार उदयादित्य उपदेशरत्नमाला रइधू उपदेशशतक यानतराय उपदेशशुद्धसार तारणस्वामी उपदेशसिद्धान्त (उपदेशरलमाला) दीपचन्दशाह उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला रलकात्ति उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला-बचनिका भागचन्द उपासकाचार अमितगति द्वितीय उपासकाध्ययन वसुनन्दि प्रथम ऋषभनाथकी धूलि सोमकीत्ति ऋषिपञ्चमी सुरेन्द्रभूषण ऋषिमण्डल पूजा ज्ञानभूषण ऋषिमण्डलपूजा-वनिका सदासुख कासलीवाल एकीभावस्तोत्र वादिराज औदार्यचिन्तामणि श्रुतसागरसूरि कथाकोश श्रीचन्द्र जोधराजगोदीका ब्रह्मदेव कथाकोशछन्दोबद्ध टेकचन्द कथाविचार भावसेन विद्य कन्नडव्याकरण भयसेन कमलबत्तीसी सारणस्वामी करकण्डुपरित कनकामर करकण्डुचरित ४६४ : सीकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ४१३१७ ४॥३११ ४/२०१ ४/२७७ १२४४ ४/२९४ ४॥३३२ ४२९७ २३९४ ३र२७ ३१३४७ ३४५० २३५२ ४।२९६ ३।१०३ ३१३९८ ४१३०३ ३१३१३ ४१३०८ ३२२६० ३२२६५ ११६१ ४२०१ रघु Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J "I करकण्डुरास कर्नाटक भाषाभूषण कर्मकाण्ड - टीका कर्म-दहन-पूजा कर्मनिर्ज र चतुर्दशीव्रत कथा कर्म प्रकृति कर्मप्राभूत- टीका ( अनुपलब्ध) कर्म विपाक कर्मविपाकरास कल्याणकरास काल्याणकारक 1 कल्याणमन्दिर कल्याणमन्दिरपुजा कविराजमार्ग कव्वगर कसा पाहुड (पेज्जदोसपाहुड) कातन्त्ररूपमाला काञ्जिकाव्रत कथा कामचाण्डाली-कल्प कारणगुणषोडशी कात्तिकेयानुप्रेक्षा कालिकापुराण काव्यानुशासन काम्यालङ्कार- टीका काव्यालोचन कुण्डलकेशीमहाकाव्य कुरल्काव्य कुरल टीका कुतोई कवितासंग्रह कुसुमं जजिकहा शुभचन्द्र जिनदास नागवर्मा द्वितीय सुमतिकीति शुभचन्द्र ललितकीति अभयचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती समन्तभद्र भदारक सकलकीर्त्ति जिनदास विनयचन्द्र सोमनाथ जगदिश्यापार्य सिद्धसेन (कुमुदचन्द्र) देवेन्द्रकी नृपतु ग ओड्थ्य गुणधर भावसेन विद्य ललितकीति मल्लिषेण रद्दधु शुभचन्द्र देवेन्द्रकौति अभिनव वाग्भट्ट आशाधर नागवर्मा द्वितीय एलाचार्य धर्मसेन (धरूमर) + ब्रह्म साधारण ३।३६६ ३|३४० ४।३१० ३१३७९ ३।३६५ ३।४५३ ३।३२० २१९८ ३।३३४ ३।३३९ ४/१९२ ४१३११ ३१२५४ श२१५ ३२४४९ ४।३११ ४१३०८ २३१ ३१.२६० ३।४५३ ।૨૭૬ ४/२०१ ३।३६६ ४४३२१ ४|४० ४१४५ ४/३१० ४/३१७ ४१३१२ ४/३१७ ४१३१७ ४१२४२ परिशिष्ट : ४६५ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०४ ३।२४ ४॥२४२ ४।२०१ १४५ ३५१ रइधू ४।२८२ ३३३१ २२४३३ ४/२८६ कृपणजगावनचरित ब्रह्म गुलाल केवलभुक्तिप्रकरण शाकटायन कोइल-पंचमी-कहा ब्रह्म साधारण कोमुइ-कहा-पबंधु क्रियाकलाप आशाधर क्रियाकलाप-टीका प्रभाचन्द्र क्रियाकोश किशनसिंह क्रियाकोषभाषा दौलतराम कासलीवाल क्षत्रचूड़ामणि वादीभसिंह क्षपणासार नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती क्षपणासार-वचनिका टोडरमल क्षेत्रगणित राजादित्य क्षेत्रपाल-गीत शुभचन्द्र क्षेत्रपाल-पूजा गंगादास क्षेत्रपाल-स्तोत्र जिनसागर खगेन्द्रमणिदर्पण मगराज खटोलना-गीत रूपचन्द्र खटोला-रास ब्रह्मजीवन्धर खातिकाविशेष तारणस्वामी खिण्डीरास भगवतीदास गणधरवलयपूजा शुभचन्द्र सकलकोत्ति भट्टारक गणितसार (त्रिंशतिका) श्रीधर गणितसारसंग्रह महावीराचार्य गधकथाकोश प्रभाचन्द्र गद्यचिन्तामणि वादीभसिंह गन्धहस्तिमहाभाष्य (अनुपलब्ध) समन्तभद्र गरुडपञ्चमीकथा महीचन्द्र गिरिनार-यात्रा मेघराज गीतपरमार्थी (परमार्थगीत) रूपचन्द गीतवीतराग अभिनव चारुकीति गुगमश्वरी भगक्तीवास ३.४४८ ३४५० ४१३११ ४२५९ ३२३८८ ४॥२४४ ४२३९ ३१३६५ ३२३३० ३॥१९२ ३१२६ ३१५० २१५८ ४१३२१ ४॥३२० ४॥२५८ ४१८७ १२७२ ४६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी वाचार्यपरम्परा Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गुणस्थानभेद गुणस्थान- वेलि गुरु-छन्द गुरु-जयमाल गुरूपदेशश्रावकाचार गुरु- पूजा गुरुपूजा 11 गुर्वावली गोम्मटदेव पूजा गोम्मटसार कर्मकाण्ड गोम्मटसार कर्मकाण्ड - टीका गोम्मटसार जीवकाण्ड गोम्मटसार जीवकाण्ड-टीका गोम्मटसार पूजा गोम्मटेश्वर चरित्र गोवैद्यग्रन्थ ज्ञान चेतनानुप्रेक्षा ज्ञानचन्द्राभ्युदय ज्ञानदर्पण ज्ञानदीपक घानदीपिका ज्ञानलोचनस्तोत्र ज्ञानविरागविनती ज्ञानसमुच्चसार ज्ञानसार ज्ञान सूर्योदय नाटक ज्ञानसूर्योदयनाटक-वचनिका ज्ञानार्णव ज्ञानार्णव- भाषा चंदप्पहचरिउ 21 दीपचंदशाह ब्रह्मजीवन्धर शुभचन्द जिनदास डालूराम चन्द्रकीति ब्रह्मजिनदास जिनदास सोमकीत्ति ब्रह्मज्ञानसागर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती टोडरमल नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती टोडरमल 21 चन्द्रभ कीर्तिवर्मा गुणचन्द्र कल्याणकीति दीपचंदशाह ब्रह्मदेव आशायर जगन्नाथ ब्रह्मजीवधर तारणस्वामी पद्मसिंहमुनि वादिचंद्र भाग चन्द शुभचंद्र जयचंद छाबड़ा श्रीधर प्रथम यशःकीति ४१२९४ ३१३८८ ३३६९ ३।३४० ४१३०६ ३१४४२ ३।३३९ ३१३४० ३१३४७ રાજર २१४२४ ४२८६ २४२३ ४२८६ ४२८६ ४/३११ ४१३११ ३।४२३ ४३११ ४१२९४ ३।३१३ ४१४५ ४९१ ३।३८७ ४२४४ ३२८८ ४८७३ ४/२९७ ३११५३ ४१२९२ 1 ४११७९ परिशिष्ट : ४६७ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११२७ । ४।२१७ ४१२१७ हा२४० ४४१७५ ३१३६५ ३१३६७ ३२३६७ ४।२९२ ४।२८ २११४ २।११५ चंदामहरिउ दामोदर द्वितीय चंदणछट्टी-कहा गुणभद्र चंदायपवय-कहा गुणभद्र चतुरबनजारा भगवतीदास चतुर्विंशतिजिनस्तवन ब्रह्मजीवन्धर चतुर्विशतिसम्भाजल्यापजटीवाराहि मन्त्राय चन्दनषष्ठीकथा चन्दनषष्ठीव्रतपूजा शुभचन्द्र चन्दनाचरित चन्द्रप्रभचरित वीरनन्दि शुभचन्द्र चन्द्रप्रभचरित-भाषा जयचन्द छावड़ा चन्द्रप्रभपुराण अग्गल चामुण्डरायपुराण (त्रिषष्ठीपुराण) चामुण्डराय चारितपाहुड चारितभत्ति चारित्रशुद्धिविधान शुभचन्द्र चारित्रसार चामुण्डराय चारुचरित भारामल चारुदत्तप्रबन्धरास जिनदास चित्तनिरोधकथा वीरचन्द्र चित्रहसूवे राजादित्य चिद्विलास दीपचन्दशाह चलामणि काव्य भगवतीदास विनयचन्द्र चूणिसूत्र (कसायपाहुडवृत्ति) यतिवृषभ चूलामणि तोलामुलितेवर चेतनकर्मचरित भैया भगवतीदास चेतनपुद्गलधमाल (अध्यात्मधवाल) बल्ह चैतन्यफाग कामराज चौबीसठाना तारणस्वामी ४॥२८ ४॥३०५ ३३३३९ चूनड़ी चूनड़ीरास ४/२९४ ४३१७ ४/२४० ४।१९१ ૨૮૮ ४।३१६ ४।२६६ ४॥२३२ ४३२१ ४॥२४४ ४६८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४॥२८२ ३२२४० ४३०६ ४३०१ चौबीसदण्डक पौरासीजाति-जयमाल चौवीसी-पाठ बीबीसी-पाठ छत्रसेनगुरु-आरती छपस्थवाणी छन्दशतक छन्दानुशासन छन्दोम्बुधि छहढाला छेदपिण्ड जंबुसामिचरित जंबूदीवपणत्ति जटामुकुट जन्माभिषेक अम्बूचरित जम्बूद्वीपपूजा दौलसराम कासलीवाल जिनदास मनरंगलाल वृन्दावनदास छत्रसेन तारणस्वामी वृन्दावनदास अभिनव वाग्भट्ट नागवर्म कला मनितीन इन्द्रमन्दि द्वितीय वीर कवि पप्रनन्दिप्रथम गङ्गादास पूज्यपाद खुशालचन्द काला जिनदास ब्रह्म जिनदास नथमल विलाला राजमहल पाण्डे जिनदास दयासागर ब्रह्म जिनदास भट्टारक सकलकोत्ति जिनसेन भुवनकीत्ति ब्रह्म जिनदास वीरचन्द्र जिनसेन द्वितीय शानभूषण अमरकीर्तिगणि पुष्पदन्त ४॥२४४ ४१३०१ १३९ ४१३१० ४।२८९ ३३२२१ ४।१२७ ३।११० ३१४४८ २।२२५ ४१३०३ ३।३४० जम्बूस्वामीचरित जम्बूस्वामीपुराण जम्बूस्वामी रास १२८१ ४१७९ ४/३०४ ४।३२२ ३२३४० ३२३२९ ४॥३२२ ३३३३७ ३२३४३ ३।३७६ २२३४७ ३२३५४ ४१५७ ४४१११ परिशिष्ट : ४६९ जम्बूस्वामिवेलि जयषवला (कसायपाइड-टीका) जलगालन-रास जसहरचरिउ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रधू ४१२०५ ३१९२ ४१३११ ३।३४० ३।४११ ३२३७६ ३२४४९ ४२८१ ३३३८३ ३४४३ ३२४४२ ४|१७५ ४/३०६ ३।१४ असहरचरित जातकतिलक श्रीधर श्रीधराचार्य विपन्दगीत जिनदास जिणरतिकहा यश:कीत्ति जिन आसरा मोरया जिनकया जिन सागर जिनगुणविलास नथमल बिलाला जिनचतुर्विशतिस्तोत्र जिनचन्द्र जिनचौबीसी ब्रह्मज्ञानसागर चन्द्रकोत्ति जिनदत्तकथा लाखू जिनदत्तचरित राजसिंह कवि गुणभद्र जिनयज्ञकल्प आशाधर जिनवरस्वामी विनती सुमतिकीत्ति जिनशतक भूधरदास जिनसहस्रनाम-टीका श्रुतसागरसूरि जिनेन्द्रमालई जिमंधरचरित जिह्वादन्तसंवाद सुमतिकीति जीणंवरचरित जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तवन भट्टारक पचनन्दि जीवकचिन्तामणि तिरुक्कतेवर सिस्तक्कतेवर जीवड़ा-गीत जिनदास जीवतत्त्वप्रदीपिका(गोम्मटसारटीका) टीकाकार नेमिचन्द्र जीवन्धरचम्पू हरिचन्द जीवन्धरचरित दौलतराम कासलीवाल नथमल विलाला भास्कर शुभचन्द्र ४७० : तीमंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ३३७९,३८० ४।२७५ ३१३९८ ४१३१७ ४/२०१ ३३३८० ४।२०१ रझ्धू ४१३१६,३१७ ४१३१३ ३१३४० ४॥२८२ ४।२८१ ४१३११ ३.३६७ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन्धरपुराण जीवन्धररास जिनसागर जिनसागर भट्टारक भुवनकीति जिनदास कोटेश्वर ३१४५० ४॥३२२ ३३३३७ ३।३४० ४॥३११ ४११८ २।१९८ ४/३११ २।२३० २२११५ ४।२४० ४/३०४ जीवन्धरषटपादि जीवसम्बोधने जीवसिद्धि (अनुपलब्ध) जैनगणितटीकोदाहरण जैनेन्द्रव्याकरण जोइभत्ति जोगीररस जोगीरासो ज्येष्ठजिनवरकथा ज्येष्ठजिनवरपूजा समन्तभद्र राजादित्य पूज्यपाद ज्येष्ठजिनवररास ज्योतिर्शानविधि ज्यालामालिनीकल्प ज्वालिनीकल्प सुम्बिकगीत झूलना टंडाणागीत हुंडाणारास णमोकारगीत णामकुमारचरिउ णिझरपंचमीकहा पिदुक्खसत्तमी-कहा भगवसीदास पाण्डे जिनदास ललितकीत्ति चन्द्रकीति जिनसागर ब्रह्म जिनदास बयसागर ब्रह्म जिनदास श्रीधर इन्द्रनन्दि प्रथम मल्लिषेण ब्रह्म जीवन्धर छत्रसेन बल्ह भगवतीदास सकलकोत्ति पुष्पदन्त ब्रह्मा साधारणकवि ३४४२ ३५० ३३३३९ ४३०२ ३२३४२ ३२१९३ ३।१८० ३।१७६ ३१३९० ३१४४६ ४॥२३२ ४॥२३९ ३३३३० बालचन्द्र ४४२४२ ४।२१८ ४१९० २११६ ४॥२०१ णिव्याणभत्ति मिणाह-चरित कुन्दकुन्द रइधू परिशिष्ट : ४७१ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।२०८ ४४१९५ ४|१५८ ३॥३५२ ३२३९८ ३।३१३ २२३८० ३२३६९ ३।२३८ रा१९८ રાર? ४२९८ जोइन्दु श२२५ गोमिणाह-चरिउ लक्ष्मणदेव दामोदर अमरकीतिगणि तत्त्वज्ञानतरंगिणी शानभूषण तत्वत्रयप्रकाशिका श्रुतसागरसूरि तत्वदीपक ब्रह्मदेव तत्वसार देवसेन तस्वसारहा शुभचन्द्र तस्थानुशासन रामसेन समन्तभद्र तस्वार्थटीका तत्यार्थबोध बुधजन तत्त्वार्थवात्तिक (सभाज्य) अकल तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थ) पूज्यपाद तस्वार्थवृत्तिपदविवरण (सर्वार्थसिद्धिव्याख्या) प्रभाचन्द्र तत्त्वार्थ-श्रुतसागरीटीका-वचनिका टेकचन्द तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक विद्यानन्द तत्त्वार्थसार अमृतचन्द्र सूरि वामदेव तत्त्वार्थसारदीपक सकलफीति तत्त्वार्थसूत्र गृद्धपिच्छार्य (उमास्वामी) बृहतप्रभाचन्द्र तत्त्वार्थसूत्रभाषा दौलतराम कासलीवाल जयचन्द छावड़ा सत्त्वार्थसूत्रवृत्ति (सुखसुबोधटीका) भास्करनन्दि तियालचक्कवीसीकहा ब्रह्म साधारणकवि तिरूक्कलम्बकम् तिरूनुदु स्तोत्र तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभ सिसद्विमहापुरिसचरिउ + ३५० २२३६१ રા૩૪ RI૪૦૮ કાદ ३१३३५ २१५३ ३२३०० ४।२८२ ४१२९२ ४/२४२ ४।३१८ ४१३१८ रा९० ४१२०१ रह ७२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिसद्धिमहापुरिसगुणालंकार तीनचौबीसी - स्तुति तीर्थंकरके भजन तीर्थं जयमाला तीसचौबीसीपाठ तीसचीबीसी पूजा तेरहृद्वीपपूजा तस्वार्थ श्रुतसागरी- टीका त्रिभङ्गीसार त्रिलोकसार टीका त्रिलक्षणक दर्शन त्रिलोकदर्पण त्रिलोकसार त्रिलोकसार- संस्कृतटीका " त्रिलोकसारपूजा त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्र त्रेपनक्रिया त्रेपनक्रियागीत पनक्रिया विनती त्रैलोक्यदीपक ( महापुराण) " थोरसामि- दितित्ययरभत्ति) दंसणकह्रयणकरंडु दंसण- पाहुड दयारस-रास दर्शन - सार दर्शन -स्तोत्र दशभक्त्यादिमहाशास्त्र दशलक्षण दशलक्षणकथा पुष्पदन्त ब्रह्म जीवन्चर महितसागर जयसागर वृन्दावनदास शुभचन्द्र " टेकचन्द तारणस्वामी माधवचन्द वि पात्रकेसरी (पात्रस्वामी) खडगसेन नेमिचन्द्र सिद्धन्तचक्रवर्ती माधवचन्द्र विद्य टोडरमल वामदेव आशाधर ब्रह्म गुलाल सोमकीत्ति गंगादास वामदेव पण्डित वामदेव कुन्कुन्द श्रीचन्द्र कुन्दकुन्द गुणचन्द्र देवसेन ब्रह्म जीवन्धर वर्द्धमान द्वितीय महितसागर ब्रह्म ज्ञानसागर ४४११० ३।३९१ ४/३२० ४१३०२ ४ | ३०१ ३।३६५ ३श३६५ ४/३०५ ४२४४ ३२८८ २।२४१ ४२८० ૪૨૭ ३।२९० ४२८६ ४६७ ४१४७ ४/३०४ ३।३४७ ३।४४८ ४६६ ४१६७ २।११६ ४|१३४ २११४ ३।४२४ २३७० ३।३८७ ३।४४७ ४|३२० ३१४४३ परिशिष्ट : ४७३ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशलक्षणजयमाला दशलक्षण रास " दशलक्षणी व्रतकथा दहलक्खणवय कहा दानकथा दानबावनी दानशीलसपभावनारास देवागम स्तोत्रटीका देवेन्द्रकीत्ति की वाणी दश-भक्ति द्रव्यसंग्रह-भाषावचनिका द्रोपदीहरण द्वादशाङ्गपूजा द्वादशानुप्रेक्षा : JI 1) द्वादशीकथा द्विसन्धानमहाकाव्य वण्णकुमारचरिउ धष्णकुमाररास धनकलश कथा धनपालरास धन्यकुमारचरित ♪♪ " " 11 रहधू भगवतीदास जिनदास ललितकीति गुणभद्र भारामल द्यानत्तराय सूरिजन जयचन्द छावड़ा महितसागर पूज्यपाद जयचन्द छावड़ा ਦੇਰ श्रीभूषण भगवतीदास दीपचन्दशाह सकलकीति कार्तिकेय ब्रह्मज्ञानसागर घनञ्जय रद्दधू जिनदास ललितकीत्ति जिनदास खुशालचन्द काला सकलकीति ब्रह्म नेमिदत्त गुणभद्र द्वितीय जयचन्द छाबड़ा धम्मपरिक्खा हरिषेण पद्मनन्दि प्रथम धम्मरसायण धर्मचरितटिप्पण अमरकीति गणि ४७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ४/२०१ ४१२३९ ३१३३९ ३१४५३ ४।२१८ ४३०५ ४/२७७ ४१३३१ ४/२९२ ४/३२० २२२५ ४२९२ ३१४४६ ३।४४१ ४।२४०,२६६ ४२९४ ३।३३० २।१३८ ३१४४३ ४८ ४२०४ ३।३३९ ३।४५३ ३|३४० ४ ३०३ ३३३२ ३ |४०४ ४१५९ ४२९२ ४४१२२ ३१२१ ४१५७ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनाथपुराण धर्मपरीक्षा ४।३११ २२३९३ ३१४३२ ४३२२ ४३०८ ४/२८१ ३।३४२ ३११४१ धर्मपरीक्षारास धर्मरत्नाकर धर्मरत्नोद्योत धर्मरसिक धर्म-विलास (द्यानत-विलास) धर्मशर्माभ्युदय धर्मसंग्रहश्रावकाचार धर्मसरोवर धर्मसारदोहाचौपाई धर्मामृत मधुर अमितगति द्वितीय श्रुतकीत्ति विशालकीति जयसेन मनोहरलाल ब्रह्म जिनदास जयसेन जगमोहनदास । सोमसेन द्यानसराय हरिचन्द मेधावी जोधराज गोदीका शिरोमणिदास जयसेन गुणदास जयसेन अमरकोत्ति गणि ब्रह्मा नेमिदत्त वीरसेन अमरकीत्ति गणि ૪ર૭૮ ४२० ४१६८ ४॥३०३ ४।३०३ ४१३०८ ४३१९ ४१५८ ३१४०५ स३२४ ४४१५८ ४॥३१७ धर्मोपदेशचड़ामणि धर्मोपदेशपीयूषवर्षी श्रावकाचार धवलाटीका ध्यानप्रदीप नदीणाई कवितासंग्रह नन्दीश्वर-आरती नन्दीश्वर-उद्यापन नन्दीश्वरपूजा नन्दीश्वरवत कथा नरकउतारीदुग्धारसकथा नरकउतारिदुधारसी-कथा नरपिंगल नवकारपदीसी नवरस पथावली देवेन्द्रकीत्ति जिनसागर चन्द्रकीत्ति ललितकीत्ति गुणभद्र बालचन्द्र शुभचन्द्र घनसागर बनारसीदास ३२४५३ १२१८ ४/१९१ १३११ १२५२ परिशिष्ट: ४७५ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवस्तोत्र नागकुमारकथा नागकुमारकाव्य वचनन्दि ब्रह्म नेमिदत्त मल्लिषण नागकुमारचरित्र ३१२८६ ३४०४ ३।१७१ ४।३१७ ४।२८१ ४॥२३७ ४॥३११ ४५८ ३३४१ ३१३५२ ३३३४३ ४१२५२ કાર ४।२५२ नागकुमररास नागद्वारास नागधीरास नाटकसमयसार नाममाला ४८ ॥ (धनञ्जयनिघण्टु) नालडियर माडियरटीका निःशल्याष्टमी कथा निःशल्याष्टमीविधानकाथा निझरपंचमीकहारास नित्यनियमपूजा निस्यमहाद्योत निवसिसत्तमीनयकहा निमित्तशास्त्र नियमसार नियमसार सात्पर्यवृत्तिटीका निर्दोषसप्तमी कथा नीसिवाक्यामृत नीलकेशी काव्य नेमिफुमाररास नेमिचन्द्रिका नेमिचरितरास नथमल विलाला माणिक्यराज बाहुबली बमवर ब्रह्म जिनदास ज्ञानभूषण ब्रह्म जिनदास बनारसीदास तारणस्वामी बनारसीदास धनन्जय अनेक कवि पदुमनार ब्रह्म ज्ञानसागर ललिसकीति विनयचन्द्र सदासुख कासलीवाल आशाधर ब्रह्म साधारण कवि ऋषिपुत्र कुन्दकुन्द पपप्रभ (मलधारिदेव) ललितकीत्ति सोमदेव ४३१२ ४१३१३ ३।४४३ ३२४५३ ४।१९२ ४१२९६ ४|४५ ४/२४२ २२६६ २।११४ ३३१४७ २४५३ ३१७३ ४॥३१७ ३१३७७ वीरचन्द्र मनरंगलाल ब्रह्म जीवन्धर ४३०६ ३२३८८ ४७६ : तोयंकर महावीर और उनको आचार्गपरम्परा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३१० ४/९१ ३१३६९ ३१४०४ ४१२९७ ४।३०९ ३१४४३ ४२३३ ४॥३२२ ४/३२१ ३१३८७ ४।२३२ ४॥२४ ३४०४ नैमिजिनेश्वर संगीत मंगरस नेमिधर्मोपदेश ब्रह्म ज्ञानसागर नेमिनरेन्द्रस्तोत्र स्वोपज्ञ जगन्नाथ नेमिनाथ छन्द शुभचन्द्र नेमिनाथपुराण ब्रम्ह नेमिदत्त भागचन्द कर्णपायं नेमिनाथपूजा ब्रम्ह ज्ञानसागर नेमिनाथबारहमासा बल्ह नेमिनाथ भवान्तर सहवा महीचन्द्र नेमिनाथरास जिनसेन द्वितीय (भट्टारक) नेमिनाथवसन्त वल्ह नेमिनिर्वाणकान्य वाग्भट प्रथम ब्रह्मनेमिदत्त नेमिनिर्वाणकाध्यपजिका टीका मामा नेमीश्वरगीत सकलकोति नेमीश्वररास जिनदास नौकारश्रावकाचार जोड्दु न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रयव्याख्या) प्रभाचन्द्र न्यायदीपिका भाक्सेन विद्य अभिनव धर्मभूषण न्यायदोपिकावनिका सदसुख काशलीवाल न्यायविनिश्चय (सवृत्ति) अकलङ्क व्यायविनिश्चयविवरण दादिराज न्यायसूर्यावलि भावसेन विद्य पउमचरिउ स्वयम्भू पउमचरिय विमलसूरि पंचमीचरित स्वयंभु चतुमुख पक्खवश्वयकहा गुणभद्र पखवाड़ारास भगवसीदास ३३३३० ३१३४० २२४८ ३२५० ३।२६१ ३२३५७ ४॥२९६ २।३०९ ३।१०४ ३१२६१ ४९८,१०३ १२५७ ४।१०१,१०३ ४।९५ ४।२१७ ४॥२३९ परिशिष्ट : ४७७ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३६५ ३३३५२ ३२३४० १३२० ४॥२६० २३२५ ४१८१ २१११३ ४॥२९८ २२४१७ ३३१४३ ४।२६९ રોજ पञ्चकल्याणकपुजा शुभचन्द्र पञ्चकल्याणकोद्यापनपूजा ज्ञानभूषण पञ्चगुरुभक्ति पञ्चपरमेष्ठीगुणवर्णन जिनदास माहितसागर पञ्चपरमेष्ठीपुजा सकलकोसि पन्चमङ्गल (मङ्गलगीतप्रबन्ध) रूपचन्द्र पञ्चासंग्रह अमितगतिद्वित्तीय पञ्चाध्यायी राजमल्ल पञ्चास्तिकाय कुन्दकुन्द बुधजन पञ्चास्तिकापटीका अमृतचन्दसूरि पञ्चास्तिकाय-तात्पर्यवृत्तिटीका जयसेन द्वितीय पञ्चेन्द्रियसंवाद भैया भगवतीदास पण्डितपूजा तारणस्वामी पत्तुपाद-कवितासंग्रह पत्रपरीक्षा विद्यानन्द पदमपुराणवचनिका दौलतराम कासलीवाल पदार्थसार पदसंग्रह भागचन्द्र बुधजन जयचन्द छायड़ा दौलतराम द्वितीय पदसाहित्य भैया भगवतीदास बानतराम भूधरदास पद्मचरित (पद्मपुराण) रविषेण पद्मनन्दि-पञ्चविंशति पचनन्दि द्वितीय पद्मपुराण खुशालचन्द्र काला धर्मकीर्ति (अपूर्ण) चिन्तामणि गुणदास २२३५६ ४४२८२ ४१३१८ ४।२९७ ४॥२९८ ४१२९२ ४१२८९ ४।२६५ ४३२७७ ४॥२७६ २।२७८ ३११२९ ४॥३०३ ३१४३४ ४॥३२२ ४१३१९ ४७८ : सीकर महावीर जोर सनकी माचरायपरम्परा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।४५० ३२४५१ ३२४५० ३४४६ ४।३२२ ३।२७५ २।२४८ १२८२ ३।३३५ पद्मावतीकथा जिनसागर पद्मावतीपूजा सुरेन्द्रकीर्ति पद्मावतीस्तोत्र जिनसागर छत्रसेन पद्यसंग्रह नरेन्द्रकीर्ति परमहंस (रूपक काल्ग) मूरिजन परमहंसरास ब्रह्मजिनदास परमागमसार श्रुतमुनि परमात्मप्रकाश जोइदु परमात्मप्रकाशवचनिका दोलतराम कासलीवाल परमात्मराजस्तोत्र सकलकीर्ति परमार्थदोहाशतक (दोहापरमार्ष) रूपचन्द्र परमार्थपुराण दीपचन्दशाह परमार्थप्रकाशवृत्ति ब्रह्मदेव परमेष्ठीप्रकाशसार श्रुतकीर्ति परीक्षामुख माणिक्यनन्दि पल्लिविधानकथा ब्रह्मज्ञानसागर पल्लिनतोद्यापन शुभचन्द्र पवनदुत वादिचन्द्र पाण्डवपुराण चन्द्रकीर्ति बुलाकीदास यशःकीति शुभचन्द्र ठकाप्पा वादिचन्द्र पात्रकेसरीस्तोत्र (जिनेन्द्रगुण-संस्तुति)पात्रकेसरी पारिखनाथभवान्तर मेघराज गङ्गादास पार्श्वनाथकाव्यपञ्जिका शुभचन्द्र पार्श्वनाथचरित्र वादिराज पार्श्वनाथपुराण पावं पण्डित (पाश्र्वपुराण। चन्द्रकोति २५७ ४॥२९४ ३१३१५ ३४३२ ३।४३ ३1४४३ ३१३६५ ४/७३ ३२४४२ ४।२६३ ३२४११ ३१३६७ ४/३२२ ४७३ रा२४० ४॥३२० ४।३२२ ३२३६५ ३९२ ४॥३११ ३।४४२ परिशिष्ट : ४७९ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३३४ ३४४२ ३४४३ ३२४४६ ३३४४८ ३।३९४ ३४५० ३११४७ ४३०२ ४७२ કાર૭૨ पार्श्वनाथपुराण सफलकीति पार्श्वनाथपूजा चन्द्रकीर्ति ब्रह्मज्ञानसागर छत्रसेन पार्श्वनाथभवान्तर गंगादास पार्श्वनाथस्तवन श्रुतसागरसूरि पार्श्वनाथस्तोत्र जिनसागर (लक्ष्मीस्तोत्र) पद्मप्रभमलधारिदेव पार्श्वनाथाष्टक सकलकीर्ति पार्श्वपञ्चकल्याणक जयसागर पाश्वपुराण बादिचन्द्र भूधरदास पार्श्वभ्युदय दिनसेन पासणाहरित श्रीधरप्रयम देवचन्द्र पासणाहचरिउ । असवाल कवि मुनि पसनन्दि पासपुराण तेजपाल पाहुडदोहा (बारहखड़ी दोहा) महन्दिमुनि पिङ्गलशास्त्र राजमल्ल पुण्यपच्चीसिका भगवतीदास पुण्याश्रवकथा पुण्याश्रवकथाकोश रामचन्द्र मुमुक्षु पुण्यावयचनिका दौलतराम कासलीवाल पुषफंजलीकहा गुणभद्र पुरनानूरुकवितासंग्रह पुरन्दरविषानकथा ललितकोर्सि पुरन्दरव्रतकथा देवेन्द्रकीर्ति पुरानसारसंग्रह सकलकीर्ति पुरुदेवचम्पू अहंदास पुरुषार्थसिद्धधुपाय अमृतचन्द्र सूरि ४८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ४१४० ११८२ ४२०२ ४१२२९ ३।२०२ ४॥२१५ ३२४२० ४१८१ ४/२७२ ४॥२०१ ४७१ ४१२८२ ४॥२१८ ४१३१७ ३।४५३ ३१४५२ ३२३३४ ४१५३ २६४०५ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।२८६ ४।२८२ ४॥३०६ ४॥३०९ ३२४५० ३२३३९ ३१४५३ ३६३३९ ३२३६५ पुरुषार्थसिद्धयुपाय-टीका (अपूर्ण) टोडरमल , (टीकापूर्ति) दौलतराम कासलीवाल पुरुषार्थसिद्धथुपायदीका भूधरमित्र पुष्पदन्तपुराण गुणधर्म पुष्पाञ्जलिकथा जिनसागर पुष्पाञ्जलरास जिनदास पुष्पाञ्जलिव्रतकथा ललितकीर्ति ब्रह्मजिनदास पुष्पाञ्जलिक्तपूजा शुभचन्द्र पूजाष्टकटीका ज्ञानभूषण पूर्णपञ्चाशिका द्यानतराय पोसहरास ज्ञानभूषण प्रतिबोधचिन्तामणि श्रीभूषण प्रतिष्ठातिलक ब्रह्मदेव प्रतिष्ठापाठ हस्तिमल्ल प्रतिष्ठासारसंग्रह वसुनन्दिप्रथम प्रतिष्ठासूक्तिसंग्रह वामदेव प्रद्युम्नचरित मिह कवि ३१३५२ ર૭૭ ३।३५४ ३४४१ ३।३१३ ३२२८ २३१ ४॥६७ ४॥१७० ४।२०१ ४॥३०६ ३२५७ ३.३४७ ३३१०५ २।१९८ २०३५५ ४॥२९७ रइधू सुधारू कवि महासेन सोमकीर्ति प्रमाणनिर्णय वादिराज प्रमाणपदार्थ ( अनुपलब्ध) समन्तभद्र प्रमाणपरीक्षा विद्यानन्द प्रमाणपरीक्षावनिका भागचन्द प्रमाणप्रमेयकलिका नरेन्द्रसेन प्रमाणसंग्रह ( सवृत्ति ) अकलंक प्रमाणसंग्रहभाष्य (प्रमाणसंग्रहा ____ लकार ) बृहद् अनन्तीयं प्रमा-प्रमेय भावसेन विद्य प्रमेयकमलमार्तण्य ( परीक्षामुख व्याख्या) प्रभाचन्द्र २१३११ ३३४१ ३२५९ ३५० परिशिष्ट : ४८१ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेय रत्नमाला 17 प्रमेय रत्नमालालङ्कार ( प्रमेयरत्ना लङ्कार ) प्रमेयरत्नमालाटीका प्रमेय रत्नाकर ( अनुपलब्ध ) प्रवचनसार प्रवचनसार " प्रवचनसारटीका प्रवचनसारतात्पयंवृत्तिटीका प्रवचनसारसरोजभास्कर प्रश्नोत्तरोपासकाचार प्राकृतपञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहटीका प्राकृतपञ्चसंग्रहवृत्ति प्राकृतलक्षण प्राकृतव्याकरण प्रीतिकरचरित प्रीतिंकरमहामुनिचरित बनारसीविलास बलहद्दचरिउ बारस-अणुवेक्खा बारस- अणु वेक्वारास बारह भावना बारहमासा 17 लघु अनन्तवीर्य अभिनव चारुकीर्ति जयचन्द्र छावड़ा आशाधर बारहव्रत बारहव्रत - गीत कुन्दकुन्द जोधराज गीदीका वृन्दावनदास अमृतचन्द्रसूरि जयसेन द्वितीय प्रभाचन्द्र सकलकीति अभितगति द्वितीय सुमतिकीर्ति पद्मनन्द प्रथम शुभचन्द्र समन्तभद्र जोधराज गोदीका ब्रह्मनेमिदत्त बनारसीदास रद्दवू कुन्दकुन्द योगदेव पण्डित रधू गुणचन्द्र महेन्द्रसेन गुणचन्द्र जिनदास देवेन्द्रमुनि बालगृहचिकित्सा बाहुबलिचरिउ ( कामचरिउ) बाहुबलिबेलि ( बाहुवेलि ) धनपाल द्वितीय वोरचन्द्र बीजगणित श्रीधर ४८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ३५३ ४८८ ४/२९२ ४१४५ २।१११ ४३०३ ४३०१ २०४१६ ३।१४३ ३१० ३१३३३ २/३९५ ३१३७९ ३११२४ ३।३६५ २११९८ ४३०३ ३४०४ ४/२५४ ४२०४ २११४ ४२४३ ४२०१ ३०४२३ ३।४५१ ३०४२३ ३ | ३४० ४३११ ४२१४ ३१३७७ ३।१९२ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · बीसतीर्थर जयमाल बुद्धिविलास विलास बुधजन - सतसईं बुधप्रकाश छन्दोबद्ध बृहत् कथाकोश बृहत्सिद्धचक्रपूजा बृहद स्वम्भूस्तोत्र ( चतुर्विंशति स्तोत्र ) बृहद्रव्यसंग्रह बृहद्रव्यसंग्रहट्टी का बोहपाहुड ब्रह्मविलास भक्तामर ( मराठी अनुवाद ) भक्तामरपूजा भक्तामर स्तोत्र " ( पद्यानुवाद ) भरत भुजवलिचरित भरतेशवैभव भरतेश्वराभ्युदय भविष्यदत्तचरित भविष्यदत्तचरित भविष्यदत्तबन्धुकथा ब्रह्म जीवन्धर बखतराम बुधजन भविष्यदत्त रास भविसयत्तकहा भविसयत्तचरिउ ן टेकचन्द्र हरिषेण रइधू समन्तभद्र नेमिचन्द्र मुनि ब्रह्मदेव भगवती आराधना ( मूलाराधना ) शिवार्य भगवती आराधना - चचनिका भट्टारक विद्याधरकथा भद्रबाहु चरित भद्रबाहुचरित भद्रबाहुरास कुन्दकुन्द भैया भगवतीदास जिनसागर ज्ञानभूषण मानतुङ्ग जयचन्द्र छावड़ा सदासुख काशलीवाल जिनदास रत्नकीर्ति किशनसिंह ब्रह्मजिनदास पामो रत्नाकरवर्णी आशावर पद्मसुन्दर रइधू दयासागर जिनदास धनपाल श्रीधर द्वितीय ३१३९१ ४०३०५ ४ २९८ ४२९८ ४१३०५ ३६६ ४/२०१ २।१८५ २२४४२ ३/३१३ २११४ ४।२६४ ४३२२ ३/३५२ २/२७५ ४२९२ २११२८ ४१२९६ ३३४० ૨૪૨૭ ४१२८० ३१३४३ ३४५२ ४/३०९ ४१४५ ४ ८३ ४/२०१ ४३२२ ३।३४० ४११४ ४। १४६ परिशिष्ट ४८३ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४॥५३ ३।२७४ ४।२९४ ४।३०३ २३९४ ३१३२४ २१११४ २३७१ ४१६६ ३।२६१ ४/७५ 'हा२२२ ४॥२७९ भव्यजनकण्ठाभरण अर्हद्दास भावत्रिभनी श्रुतमुनि भावदीपिका दीपचन्दशाह जोधराजगोदीका भावनाद्वात्रिंशतिका अमितगति द्वितीय भावनापद्धति पद्मनन्दि भट्टारक भावपाहुड भावसंग्रह देवसेन वामदेव पण्डित मुक्ति-मुक्तिविचार भावसेन विद्य भुजबलिचरितम् (भुजबलिशतक) दोड्डय्य भुवनकीर्तिगीत बल्ह भूपालचतुर्विशतिकाटीका आशाधर मेदविज्ञान (आत्मानुभव) द्यानतराय भैरवपद्मावतीकल्प मल्लिषेण मउडसत्तमीकहा गुणभद्र ब्रह्म साधारण कवि मणिमेखलं महाकाव्य मदनपराजय नागदेव मधुबिन्दुकचौपाई भैया भगवतीदास मनकरहारास भैया भगवतीदास मनबत्तीसी भैया भगवसीदास मन्त्रमहोदधि दुर्गदेव मन्दिरसंस्कारपूजा वामदेव ममलपाहुड़ तारणस्वामी मयणजुज्झ बल्ह मयणपराजयचरिउ हरिदेव मरणकण्डिका दुर्गदेव मल्लिगीत सोमकीति मस्लिणाहकव्व जयमित्रल मल्लिनाथचरित सकलकीर्ति मल्लिनाथपुराण नागचन्द्र ४८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ३।१७४ ४२१७ ४॥२४२ ४॥३१७ ४॥६४ ४३२७० કાર૪s ર૭૨ ३।२०५ ४॥६७ કોરજ ४॥२३० अर२० ३।२०४ ३२३४६ ४१२१६ ३२३३१ ४३०८ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण ३।१७४ ४/२०१ १२३५ ३१५० ४॥९५ ३३३९८ ४/१५७ ३२३६९ ४१२९७ ३४०६ ४३०५ ३।३४० ३४५३ ४१५१ महापुराणकलिका महापुराणटिप्पण महाभारत महाभिषेकटीका महावीरचरिउ महावीरछन्द महावीराष्टक मालारोहण मालारोहिणी मिथ्यात्वखण्डन मिथ्यातुविनती मुकुटसप्तमीकथा मुक्तावलीगीत मुनिसुव्रतकाव्य मुनिसुनतपुराण मूलाचार मूलाचार-आचार-वृत्ति मूलाचार-प्रदीप मूलाचारप्रशस्ति मूलाराधनाटीका मृगालेखाचरित मृत्युमहोत्सववचनिका मैथिलीकल्याणम् मेघमाला मेर-मन्दरपुराण मेरुपूजा मेहेसरचरिउ (आदिपुराण) मोक्खपाहुड मोक्षमार्गप्रकाशक मोविवेकयुद्ध मल्लिषेण रइधू शाह ठाकुर प्रभाचन्द्र चतुमुख श्रुतसागर सूरि अमरकीर्तिगणि शुभचन्द्र भागचन्द्र तारणस्वामी माहाने मिधाम बखतराम जिनदास ललितकीर्ति सकलकीर्ति अर्हद्दास ब्रह्म कृष्णदास वट्टकेर वसुनन्दि प्रथम सकलकोति मलयकीर्ति आशाधर भगवतीदास सदासुख काशलीवाल हस्तिमल्ल लक्ष्मीचन्द्र वामनमुनि छत्रसेन रइधू कुन्दकुन्द टोडरमल बनारसीदास ४१८५ २२११२,१२० श२२६ ህንን ३२४३० ४/४५ કાર૪૨ ४॥२९६ ३१२८१ ४१३२१ ४॥३१६ ३।४४६ ४१२०१,२०३ २११४ ४।२८६ परिशिष्ट : ४८५ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन-एकादशी कथा मौनव्रत कथा यशस्तिलक-चन्द्रिका टीका यशस्तिलकचम्पू यशोधरकाव्य यशोधरचरित्र ३१४४३ ४२३ ३।३९४ ३१८३ ४॥३१७ ४/३०७ ४/३०९ ४१३२१ ४१५६ ४१७३ ३३१०० ३२३३१ ३१३४७ ३३३९४,४०० यशोवरचरित-पद्यानुवाद यशोधररास ब्रह्मज्ञानसागर गुगनमः श्रुतसागर सूरि सोमदेव अज्ञात लक्ष्मीदास जन्न मेघराज नागोमाया पद्मनाभ कायस्थ ज्ञानकीर्ति बादिचन्द्र वादिराज सकलकीर्ति सोमकीति श्रुतसागर सूरि लोहट ब्रह्म जिनदास सोमकोति समन्तभद्र विद्यानन्द श्रुतकीति जोइंदु अमितगति प्रथम बुधजन ललितकीर्ति समन्तभद्र प्रभाचन्द्र सदासुख काशलीवाल महितसागर आशाधर ललितकीति युक्त्यनुशासन युक्त्यनुशासनालङ्कार योगसार योगसागरप्रामृत योगसारभाषा रक्षाविधानकथा रत्नकरण्डश्रावकाचार रत्नकरण्डश्रावकाचार-टीका रलकरण्डश्रावकाचारवचनिका रत्नत्रय रत्नत्रयविधान रत्नत्रयवत-कथा ४३०४ ३३४१ ३॥३४७ २११९० २३६५ ३२४३२ २१२५१ २२३८५ ४/२९८ ૨૪૧૩ २२१९१ ३५० ४।२९६ ४/३२० ४|४५ २४५३ ४८६ : सीकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय - रास रत्नत्रयी रत्नभूषणस्तुति रत्नाकरशतक रयणत्तयवय-कहा रयणसार रविवय- कहा (आदित्यवारकथा) रविय रविवार - कथा रविव्रत कथा JI रसरत्नाकर राखीबन्धन रास राजमती - नेमिसुर ढमाल राजमति-रास राजीमति- विप्रलम्भ रात्रिभोजन कथा रात्रिभोजनत्याग - कथा रात्रिभोजन स्यागब्रतकथा रामचन्द्र हलदुलि रामचरित रामपुराण カラ राम-सीतारास रामायण रायमल्लाभ्युदयमहाकाव्य रावणपार्श्वनाथस्तोत्र द्विमिचरिउ रिष्टसमुच्चय रुक्मिणीहरण रोहिणीरास रोहिणी विहाणकहा सकलकीर्ति रद्दघू जयसार रत्नाकरवर्णी गुणभद्र कुन्दकुन्द यशः कीर्ति ब्रह्मकारण कवि महितसागर नेमिचन्द्र ब्रह्मजिनदास साल्व ब्रह्मज्ञानसागर भगवतीदास गुणचन्द्र आशाचर भारामल ब्रह्म नेमिदास किशनसिंह गुणदास ब्रह्मजिनदास सोमसेन पद्मनाम ब्रह्मजिनदास कुमुदेन्दु पद्मसुन्दर भट्टारक दि स्वयंभु दुर्गदेव गुणदास जिनदास देवनंदि ३१३३० ४/२०१ ४१३०२ ४/३०९ ४२१८ २ ११५ ३१४११ ४१२४२ ४/३२० ४१२४३ ३/३४३ કાફ્ ३।४४३ ४२४० ३१४२४ ४१४५ ४३०५ ३।४०६ ४१२८० ४१३१९ ૫૨૪૦ ३१४४४ ४१३११ ३।३४१ ४३११ ४८३ 12 ३३२३ ४११०१, १०३ ३।१९९ ४।३१९ ३१३३९ ४१२४२ परिशिष्ट : ४८७ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५३ ४॥२४० રાર २४४२ ।३८१ ४१२४० ४१२१८ ३२४५३ २४३२ रोहिणीवतकथा ललितकीर्ति रोहिणीयतरास भगवतीदास लषीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) । अकलदेव लघुद्रव्यसंग्रह नेमिचन्दमुनि लघुनयचक्र देवसेन लधुसीतासतु भगवतीदास लद्धिविहाणकहा गुणभद्र लब्धिविधानकथा ललितकीर्ति लब्धिसार नेमिचन्द्र सिद्धान्तचकवर्सी लब्धिसार टीका टोडरमल लवणांकुशकथा जिनसागर लाटीसंहिता राजमल्ल लिंगपाहुड वड्ढमाणकहा(जिशरत्तिविहाणकहा) नरसेन वढमाणचरित श्रीधर प्रथम हरिचन्द्र जयमित्रहल वर्षमानचरित नबलशाह बर्द्धमानचरित मट्टारक पअनन्दि असग भट्टारक सकलकीर्ति वर्द्धमानपुराण आच्चण्ण वरागचरिउ तेजपाले देवदत्त वरांगचरित जटासिंहनन्दि भट्टारक पद्धमान प्रथम वलयापति महाकाव्य वसन्तविलास (वसन्तविद्याविलास) सुमत्तिकीर्ति वसुनन्दिश्रावकाचार टब्बा दौलतराम काशलीवाल वस्तुकोश नागवर्मा द्वितीय वारहमासी गीत महीचन्द विक्रान्तकौरव हस्तिमल्ल ४८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा ४।२८६ ३१४५० ४९८० २।११४ का ४११४२ ४२१६ ४|४४५ ३२३२६ ४११२ ४१३११ ४१२११ કાકરે ४१२४ रा२९५ ३।३६० ४/३१७ ३।३८० ४१२८२ ४॥३१० ४।३२१ ३२२८० Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमार्जुनविजय (अपरनामभारत) आदि पम्प विजयकीर्तिछन्द वित्तसार विद्यानन्दमहोदय विनती विमलपुराण विवाहपटल विवेकविलास विश्वतत्त्वप्रकाश विश्वलोचनकोश विषापहार-पूजा विषापहारस्तोत्र विहमानतीर्थङ्कर-स्तुति वीतरागस्तोत्र बीरजिनिन्दगीत वीरविलासफाग वृन्दावनविलास वृषभदेवपुराण वैद्यसांगत्य वैद्यामृत वैराग्यपंचाशिका वैराग्यसार व्यवहारगणित व्यवहारपच्चीसी व्यवहाररत्नलीलावती व्रतकथा व्रतकथाकोश व्रत कथाकोश (मुक्तावलीकोश) 17 व्रतकथासंग्रह शतअष्टोत्तरी शब्दमणिदर्पण शुभचन्द्र रद्दषू विद्यानन्द गुणचन्द्र जयसागर ब्रह्मदेव दौलतराम कासलीवाल भावसेन अविद्य श्रीधरसेन देवेन्द्रकीर्ति धनन्जय धनसागर भट्टारक पद्मनन्दि भगवतीदास वारचन्द्र वृन्दावनदास न्द्रकीर्ति साल्व श्रीधरदेव भगवतीदास सुप्रभाचार्य राजादित्य द्यानतराय राजादित्य जिनदास सकलकीर्ति श्रुतसागर सूरि खुशालचन्द काला जिनसागर भगवतीदास केशवराज ]]os ३।३६९ ४४२०५ સમ ३१४२३ ४ ३०२ ३/३१३ ४२८२ ३१२६१ ४६० ३२४४९ ફોટ ३१४५२ ३१३२३ *[૪૦ ३।३७५ ४३०१ ३।४४२ ४३११ ४३११ ४१२७२ ४/१९७ ४१३११ ४२७७ ४३११ ३३४० ३।३३४ ३१४०० ४ ३०३ ४/३२२ ४।२६७ ४१३१० परिशिष्ट : ४८९ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४४५ ४१३११ सोमदेव भट्टाकलङ्क (भट्टारक) शाकटायन प्रभाचन्द्र ३।२० शब्दरत्नप्रदीप शब्दानुशासन , (अर्मोघवृत्तिसहित) शब्दाम्भोज-भास्कर शाकटायनन्यास शाकटायनव्याकरणटीका शान्तिजिनस्तोत्र शान्तिनाथ-आरती शान्तिनाथचरित भावसेन विद्य भट्टारक पद्मनन्दि जिनसागर शुभकीर्ति २१५० ३१५० ३२६० ३।३२३ ३२४५० ३२४१३ सकलकीति ४७१ ४१३ ૪૨૪ ४/३११ रामचन्द्र मुमुक्षु असग शान्तिनाथपुराण श्रीभषण देवदत्त शान्तिकोति शान्तिनाथराय देवदत्त शान्तिनाथस्तवन शुतार समि शान्तिनाथस्तोत्र जिनसागर शान्तिपुराण जिनाक्षरमाले पोन्न कवि शान्तिस्वरपुराण कमलभव शास्त्रपूजा जिनदास शास्त्रमण्डलपूजा ज्ञानभषण शास्त्रसारसमुच्चय माघनन्दि शिक्षावली भगवतीदास शिखामणिरास सकलकीति शिखिरसम्मेदाचलमाहात्म्य मनरंगलाल शिल्प्पड्डिकार (नुपूर महाकाव्य) इलंगोवडिगल शीतलनाथगीत सुमतिकीर्ति शीलकथा भारामल शोलपताका महाकीर्ति शृङ्गारमञ्जरी अजितसेन शृङ्गारसमुद्रकाव्य লালাখ ४९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरापरा ४।१२४ ३१३९४ ३४५० ४१३०७ ४१३११ ३३३४० ३१३५२ ३२२८५ ४॥२७२ ४३०६ ४।३१४,३१७ ३३३८१ ४।३०५ ४॥३२१ ४१३१ ४।११ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/३५ ४१२४४ श३२५ ४७२ ४५८ ३२३३३ ३४०४ ३१४०० ४/२८२ २३५९ ४॥३१८ पृङ्गाराजवचन्द्रिका (अलारसंग्रह) विजयवर्णी श्रावकाचार तारणस्वामी श्रावकाचारसारोद्धार भट्टारक पद्मनन्दि श्रीपाल-आख्यान वादिजन्द्र श्रीपाल-चरित धर्मधर सकलकोति ब्रह्मनेमिदत्त श्रुतसागर सूरि दौलतराम कासलीवाल श्रीपाल-रास ब्रह्म जिनदास श्रीपुर-पार्श्वनाथस्तोत्र विद्यानन्द श्रीपुराण मसात श्रुसज्ञानोद्यापन वामदेव श्रुतजयमाला ब्रह्म जीवन्धर श्रुतपूजा शानभूषण श्रुतसागरी टीका (तत्त्वार्थवृत्ति)। श्रुतसागर सूरि श्रुतस्कन्धकथा गंगादास ब्रह्मज्ञानसागर ललितकीर्ति श्रुतस्कन्धपूजा श्रुतसागरसूरि श्रेणिकचरित जनार्दन शुभचन्द्र श्रेणिकपुराण गुणदास श्रेणिकरास ब्रह्मजिनदास श्वेताम्बर-पराजय जगन्नाथ षटकर्मरास शानभषण षट्कर्मोपदेश अमरकीतिगणि षट्खण्डागम (छयखण्डागम) पुष्पदंत-भूतवलि षट्पाहुइन्वनिका टेकचन्द षप्राभृत-टीका श्रुतसागरसूरि षट्रस-कथा ललितकीर्ति षधर्मोपदेशमाला ३२३९० ३२३५२ ३२३९५ ३४४८ ३।४४३ ३४५३ ३२४०० १३२२ ३२३६५ ४।३१९ ३२३४२ ४१९१ ३२३५२ ४११५८ रा५९ ४१३०५ ३२३९७ ३१४५३ ४/२०१ रइधू परिशिष्ट : ४९१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशकारण षोडशकारण कथा षोडशकारण - जयमाल षोडशकारण- पूजा संगीत - समयसार संतिणाह - चरिउ " संतोषत्तिलकजयमाल संभवणाहचरिङ सगरचरित सज्जनचित्तबल्लभ सतीगीत सत्तवसणकहा सत्यशासनपरीक्षा सन्मति सूत्र सप्तऋषि-पूजा सप्तपदार्थीटीका सप्तपरमस्थान-कथा सप्तव्यसन - कथा सप्तव्यसन-चरित " समकित मिथ्यात्वरास समयदिवाकर टीका) समयपरीक्षा समयसार समयसारकलश समयसारटीका एहिमसागर ललितकीतिं सदंसणचरिउ सद्धयवीरकथा सद्भाषितावली (सूक्तिमुक्तावली ) सकलकीर्त्ति सनत्कुमारचरित बोम्मरस सिद्धसेन रइधू चन्द्रकीर्ति पार्श्वदेव 13. शाह ठाकुर महीन्दु बल्ह तेजपाल ब्रह्मजयसागर शुभचन्द्र ब्रह्म जीवन्धर माणिकचन्द विद्यानन्द रइधू देवदत मनरंगलाल ब्रह्मजिनदास भावसेन विद्य ललितकीति सोमकीत्ति मनरंगलाल भारामल ब्रह्मजिनदास वामनमुनि नयसेन कुन्दकुन्द अमृतचन्द्र सूरि " जयचन्द छाबड़ा ४९२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा ४१३२० ३।४५३ ४/२०१ ३१४४२ ३।३०३ ४/२३५ ४२२६ ४।२३१ ४२१० ४३०३ ३।३६५ ३१३९१ ४/२३८ २३५७ ४/२०१ ४१२४ ३/३३० ४३११ २२१२ ४ ३०६ ३/३३९ ३।२६१ ३१४५३ ३।३४६ ४/३०६ ४३०५ ३३४२ ४/३१७ ४१३०८ २११२ २४१३ २/४१५ ४/२९२ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-तात्पर्यवृत्तिटीका जयसेन द्वितीय समयसारनाटक-वचनिका सदासुख कासलीवाल समयसार-हिन्दीटीका राजमल्ल समवशरणपूजा (केवलज्ञानधर्चा) रूपचन्द्र समवशरणषट्पदी छत्रसेन समाधितन्त्र पूज्यपाद समाधितन्त्र-टीका प्रभाचन्द्र समाधिमरणोत्साहदीपक सकशकोत्ति समापिरास भगवतीदास सम्बोधपंचाशिका रइध सम्बोधसत्ताणुभावना पीरपन्द्र सम्बोषसहस्रपदी महितसागर सम्मइजिणचरिउ रघु सम्मत्तगुणणिहाणफब्ब सम्भेदाचल-पूजा गंगादास सम्यक्त्वकौमुदी दयासागर मंगरस जोधराज गोदीका सम्यस्वप्रकाश डालूराम सम्यक्त्वभावना सम्यग्गुणारोहणकाव्य सयलविहिविहाणकव्व नयमुन्दि सरस्वतीपूजा जिनदास ज्ञानभूषण चन्द्रकीत्ति सरस्वतीमत्रकल्प मल्लिषेण सरस्वती-स्तुति ज्ञानभूषण सर्वज्ञसिद्धि (लघु तथा बृहत) अनन्तकोत्ति सर्वार्थसिद्धि-चचनिका जयचन्द छावड़ा सवणवारसिविहाणकहा गुणभद्र सहस्रनामस्तवनसटीक आशाघर सागारधर्मामृत (धर्मामृत) सारचतुर्विशत्तिका सकलकत्ति ३२१४३ ४।२९६ ४१३०४ ૪ર૧૭ ३१४४६ स२२९ ३२५० ३३३० ४।२४० ४॥२०१ श६७७ ४॥३२० ४॥२०२ १२०५ ३२४४८ ४।३२२ ४३१० १३०३ ४३०६ ४१२०१ ४/२०१ ३३२९४ ३।३४० ३१३५२ रधू ३११७६ ३२३५२ ३१६७ ४॥२९२ ४/२१७ ४।४६ परिशिष्ट : ४९३ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारसमुच्चय सायद्वीपपूजा साह्सभीमविजथ' (गदायुद्ध ) सिद्धसत्थसारो सिद्धचक्ककहा सिद्धचक्कमाहृप्य सिद्धचक्रपाठ सिद्धचकपूजा सिद्धचकाष्टक टीका सिद्धपूजा सिद्धभत्त सिद्धभक्तिटोका सिद्धान्तसार J} " सिद्धान्तसारदीपक " सिद्धान्तसारसंग्रह सिद्धिप्रियस्तोत्र सिद्धिविनिश्चयटीका सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति सिद्धिस्वभाव सिरिपाल रिज सिरिबालचरित सीताहरण सीमन्धरस्वामीगीत सीलपाहुड सुगंधदमीकहा सुकुमालचरिउ सुकुमालचरित सुकौशलस्वामीरास सुक्कोसलचरिउ दौलतराम कासलीवाल शुभचन्द्र ब्रह्मजिनदास रन्त रद्दधृ नरसेन इबू ललितको त्ति शुभचन्द्र श्रुतसागर सूरि दौलतराम कासलीवाल कुन्दकुन्द श्रुतसागर सूरि भावसेन विद्य जिनचन्द्र 23 नथमल विलाला सकलकीति नरेन्द्रसेन पूज्यपाद बृहद् अनन्तवीर्य अकलक तारणस्वामी दामोदर द्वितीय रघू महेन्द्रसेन ब्रह्मसागर वीरचन्द्र कुन्दकुन्द उदयचन्द्र श्रीधर तृतीय सकलकीत जिनदास रइष ४९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ४१२८२ ૬ ३१३३५ ४३०८ ४/२०५ ४२२३ ४/२०१ ३१४५३ ३।३६५ ३।३५४ ४४२८२ २/११५ ३।३९४ ३।२६१ ३२८२ ३।१८६ ४१२८१ ३।३३४ २४३५ २/२३४ ३।४१ २३१२ ४१२४४ ४|१९६ ४/२०३ ३।४५१ ४ ३०३ ३ । ३७७ २।११५ ४११८७ ४११५० ३३३२ ३/३३५ ४१२०४ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सुखनिधान सुगन्धदशमीकथा " 22 J r? सुत्त पाहुड सुदर्भात्त सुदंसणचरिउ सुदर्शनचरित ** " " सुदर्शनपुराण सुदर्शनरास सुदृष्टितरंगिणी वचनिका सुन्नस्वभाव सुभगसुलोचनाचरित सुभद्रा - नाटिका सुभाषिततन्त्र सुभाषितरत्ननिधि सुभाषित रत्न संदोह सुभीमचक्रवर्ती रास सुमति-सप्तक सुलोचना-कथा सुलोयणाचरिउ सुषेणचरित सूक्तिमुक्तावलि पद्यानुवाद सूत्रजी कोलधुवचनिका सेठिमाहात्म्य सोखविहाण कहा सोद्वयचरिउ सोलहकारण पूजा सोलहकारण-रास जगन्नाथ सावाजी भगवतीदास जिनसागर ललितकीर्त्ति गुणभद्र कुन्दकुन्द नयनंदि वीरदास सकलकीत्ति विद्यानन्दि ब्रह्म नेमिदत्त कामराज ब्रह्मजिनदास टेकचन्द तारणस्वामी वादिचन्द्र हस्तिमल्ल जोइन्दु अमरकीत्तिगणि अमितगति द्वितीय जिनदास महासेन द्वितीय देवसेन जगन्नाथ कुँवरपाल सादासुख कासलीवाल रघु विमलकीति स्वयम्भु ब्रह्मजिनदास सकलकति जिनदास ४/९१ ४/३१ ४२४० ३१४५० ३१४५३ ४१२१८ २११४ २१११५ ३।२९१ ४/३२० ३३३२ ३।३७२ ३१४०५ ४/३२१ ३१३४३ ४३०५ ४१२४४ ४७२ ३१२८१ २१२५१ ४१५७ २१३९० ३ | ३४० ३।२८७ ३१२८६ ४/१५२ ४९१ ४२६२ ४१२९६ ४१३२२ ४/२०६ ४१९८ _३/३३९ ३१३३० ३1३३९ परिशिष्ट : ४९५ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहकारण-रासो सोलहकारणवय-कहा स्तुति नेमि-जिनेन्द्र स्तुति-विद्या (जिनशतक) स्त्रीमुक्ति-प्रकरण स्फूटपद स्थाबाद-सिद्धि स्वप्नवत्तीसी स्वयंभुछन्द स्वयंभुव्याकरण स्वरूपानन्द स्वामीकात्तिकेयानुप्रेक्षा हनुमतरास हनुमानपुराण हरिबंशपुराण सकलकीति गुणभद्र गुणचन्द्र समन्तभद्र शाकटायन रूपचन्द्र वादीभसिंह भगवदीदास स्वयंभुदेव 2330 4 / 218 31423 21188 3 / 24 કોર दीपचन्द शाह जयछन्द छावड़ा ब्रह्म जिनदास दयामागत खुशालचन्द काला जिनदास धवल 4/266 41101 41102 4 // 294 4222 33341 4 // 322 रइधू / (पद्यानुवाद) 4 / 318 41119 4/201 4262 4 / 311 કર૮ર 4 / 321 32432 3 / 434 3 / 30 34 सालिवाहन बन्धुवर्मा दौलतराम कासलीवाल पुण्यसागर श्रुतकीति धर्मकोति ब्रह्म जिनदास जिनसेन प्रथम वादिचन्द्र जिनदास ब्रह्म जिनदास हरिवंशपुराण (जैन महाभारत) 473 होलिकारित होलिकारेणुचरित होली रास 4184 32342 आभार परिशिष्टको दोनों अनुक्रमणिकाएं डॉ० सुदर्शनलालजी जैन प्राध्यापक काशी हिन्दुविश्वविद्यालयने तैयार की हैं, इसके लिए उन्हें हृदयसे धन्यवाद हैं। 496 : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा