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उद्गमस्थान में जिस प्रकार नदीका स्रोत बहुत हो छोटा होता है और उसकी पतली धाराको गति भी मन्द ही रहती है। पर जैसे-जैसे नदीका यह स्त्रोत उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसकी धारा बृहद और तीव्र होती जाती है । समतल भूमिपर पहुंचकर इस बाराका आयाम स्वतः विस्तृत हो जाता है। इसी प्रकार कर्म - साहित्यको यह धारा तीर्थंकर महावीरके मुखसे निःतो गणपरपूर्वभागको पारकर विकसित एवं समृद्ध हुई है।
यह सार्वजनीन सत्य है कि युगके अनुकूल जीवन और जगत् सम्बन्धी आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं । विषारक आचार्य इन आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए नये चिन्तन और नये आयाम उपस्थित करते हैं । अतः किसी भी प्रकारके साहित्य में विषय विस्तृत होना ध्रुव नियम है। जब किसी भी विचारको साहित्यकी तकनीक में ग्रथित किया जाता है, तो वह छोटा-सा विचार भी एक सिद्धान्त या ग्रन्थका रूप धारण कर लेता है । 'कर्मप्रवाद' में कर्मके बन्ध, उदय, उपशम, निर्जरा आदि अवस्थाओंका अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्धके आधारों तथा कर्मोंको जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट स्थितियोंका कथन किया गया है। 'कर्मप्रवाद' का यह विषय आगमसाहित्य में गुणस्थान और मार्गणाओंके भेदक क्रमानुसार विस्तृत और स्पष्ट रूपमें अंकित है ।
प्राचार्यपरम्परा और कर्मसाहित्य
पौगलिक कर्मके कारण जीवमें उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषादि भाव एवं कषाय आदि विकारोंका विवेचन भी आगमसाहित्यके अन्तर्गत है । कर्मबन्धके कारण ही आत्मामें अनेक प्रकारके विभाव उत्पन्न होते हैं और इन विभावोंसे जीवका संसार चलता है। कर्म और आत्माका बन्ध दो स्वतन्त्र द्रव्योंका बन्ध है, अतः यह टूट सकता है और आत्मा इस कर्मबन्धसे निःसंग या निलिम हो सकती है । कर्मबन्धके कारण ही इस अशुद्ध आत्माकी दशा अद्ध भौतिक जैसी है । यदि इन्द्रियोंका समुचित विकास न हो तो देखने और सुननेको शक्ति के रहनेपर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना-सुनना नहीं हो पाता । इसी प्रकार विचारशक्तिके रहनेपर भी यदि मस्तिष्क यथार्थ रूपसे कार्य नहीं करता, तो विचार एवं चिन्तनका कार्य नहीं हो पाता । अतएव इस कथन के आलोक में यह स्पष्ट है कि अशुद्ध आत्माकी दशा और उसका समस्त उत्कर्ष - अपकर्षं पौद्गलिक कर्मो के अधीन है। इन कर्मोंके उपशम एवं क्षयोपशम के निमित्तसे ही जीवमें ज्ञानशक्ति उद्बुद्ध होती है। कर्मके क्षयोपशमकी तारतम्यता हो ज्ञानशक्तिकी तारतम्यताका कारण बनती है । इस
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३२५