________________
वृत्त, तपश्चरण, केवलझान आदिका वर्णन रहता है । निश्चयतः तीर्थकर ऋषभदेवके समयके अन्तःकृतदशकेवली महावीरके अन्तःकृतदशकेवलियोंसे भिन्न हैं। अतः स्पष्ट है कि अंगसाहित्यका विषय प्रत्येक तीर्थकरके समयमें युगानुसार कुछ परिवर्तित होता है ।
पूर्वसाहित्यका विषय परम्परानुसार एक-सा ही चलता रहता है । ज्ञान, सत्य, आत्मा, कर्म और अस्तिनास्तिवादरूप विचार-धारणाएं प्रत्येक तीर्थकर. के तीर्थकालमें समान ही रहती हैं। अतः पूर्वसाहित्य समस्त तीर्थकरोंके समयमें एकरूपमें वर्तमान रहता है। उसमें विषयका परिवर्तन नहीं होता है । जो शाश्वतिक सत्य हैं और जिन ल्याने प्रकालिक स्थायित्व है, उन मूल्यों में कभी परिवर्तन नहीं होता । वे अनादि हैं। उनमें किसी भी तीर्थकरके तीर्धकालमें किञ्चित् परिवर्तन दिखलाई नहीं पड़ता।
श्रुतधराचार्योंने अंग और पूर्व साहित्यकी परम्पराको जीवन्त बनाये रखनेमें अपूर्व योगदान दिया है । गणघर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, आयमंक्षु, नागहस्ति, वजयश, चिरन्तनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, वापदेव, कुन्दकुन्द, बट्टकर, शिवार्य, स्वामीकुमार एवं गृद्धपिच्छाचार्य आदिने कर्मप्राभूतसाहित्यका सम्बर्द्धन एवं प्रणयन किया है। ___ इन आचार्योंने कर्म और आत्माके सम्बन्धसे जन्य विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओंके विवेचनके लिए 'पेज्जदोसपाहुड', 'षट्खण्डागम', 'चूणिसूत्र', 'व्याख्यानसूत्र', 'उच्चारणवृत्ति' आदिका प्रणयन कर सिद्धान्त-साहित्यको समृद्ध किया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्मसाहित्यका मूल उद्गमस्थान कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्व है और इस पूर्वका कथन वर्तमान कल्पमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक समानरूपसे होता आया है। कमका स्वरूप, कर्मद्रव्य, कर्म और आत्माका सम्बन्ध, सम्जन्य अशुद्धि एवं आत्माको विभिन्न अवस्थाओंका विवेचन कर्मसिद्धान्तका प्रधान वर्ण्य विषय है। बाचार्योंने कर्म एवं आत्माके सम्बन्धको अनादि स्वीकार कर भी कमकी विभिन्न अवस्थाओं एवं स्वरूपोंका प्रतिपादन किया है।
गुणधर और धरसेनने कर्म-सिद्धान्तका विवेचन सूत्ररूपमें किया है। पुष्पदन्त और भूतबलिने 'षट्खण्डागम'के रूपमें सूत्रोंका अवतारकर-जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बंधसामितविषय, वेदना, वग्गणा और महाबन्ध, इन छह खण्डरूपोंमें सूत्रोंका प्रणयन कर कमसिद्धान्तका विस्तारपूर्वक निरूपण किया । अनन्तर वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्यने 'धवला' एवं 'जयधवला' टीकाओं द्वारा उसकी विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं । ३२४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा