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________________ प्रकार श्रुतधराचार्योने कर्मसिद्धान्तके आलोकमें आत्माको कथञ्चित् मूत्तिक एवं अत्तिक रूपमें स्वीकार किया है। अपने स्वाभाविक गुणोंके कारण यह आत्मा चैतन्य-ज्ञान-दर्शन-सुखमय है और है अमूर्तिक । पर व्यवहारनयको दृष्टिसे कर्मबद्ध यात्मा मुत्तिफ है। अनादिसे यह शरीर आत्माके साथ सम्बद्ध मिलता है। स्थूल शरीरको छोड़नेपर भी सूक्ष्म कर्म शरीर इसके साथ रहता है। इसी सूक्ष्म कर्मशरीरके नाशका नाम मुक्ति है। आत्माको स्वतन्त्र-सत्ता होनेपर भी इसका विकास अशुद्ध दशामें अर्थात् कर्मबन्धकी दशामें देहनिमि यह कर्मबद्ध आत्मा रागद्वेषादिसे जब उत्तप्त होती है, तब शरीरमें एक अद्भत हलनचलन हो जाता है। देखा जाता है कि क्रोषावेगके आते ही नेत्र लाल हो जाते हैं, रक्तकी गति तीव्र हो जाती है, मुख सूखने लगता है और नथुने फड़कने लगते हैं। जब कामवासना जागृत होती है तो शरीरमें एक विशेष प्रकारका मन्थन बारम्भ हो जाता है। जब तक ये विकार या कषाय शान्त नहीं होते, तब तक उद्वेग बना रहता है । आत्माके विचारों, चिन्तनों, आवेगों और क्रियाओंके अनुसार पुद्गलद्रव्यों में भी परिणमन होता है और उन विचारों एवं आवेगोंसे उत्तेजित हो पुद्गल परमाणु आत्माके वासनामय सूक्ष्म कर्मशारी में सम्मिलित हो जाते हैं ! उनाहा मह समझा जा सकता है कि अग्निसे तप्त लोहेके गोलेको पानी में छोड़ा जाय, तो वह तप्त गोला जलके बहुत-से परमाणुओंको अपने भीतर सोख लेता है । जब तक वह गरम रहता है, सब तक पानी में उथलपुथल होती रहती है। कुछ परमाणुओंको खींचता है एवं कुछको निकालता है और कुछको भाप बनाकर बाहर फेंक देता है। आशय यह है कि लोपिण्ड अपने पाश्ववर्ती वातावरणमें एक अजीब स्थिति उत्पन्न करता है । इसी प्रकार रागद्वेषाविष्ट मात्मामें भी स्पन्दन होता है और इस स्पन्दनसे पुद्गलपरमाणु आत्माके साथ सम्बद्ध होते हैं। ___ संचित कर्मोके कारण रागद्वेषादि भाव उत्पन्न होते हैं और इन रागादि भावोंसे कर्म पुदगलोंका आगमन होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि श्रद्धा, विवेक और चारित्रसे रागादि भावोंको नष्ट नहीं किया जाता । तात्पर्य यह कि जीवकी रागद्वेषादिवासनायें और पुद्गलकर्मबन्धको धाराएं बीज-वृक्षकी संततिके समान अनादिकालसे प्रचलित है। पूर्वसंचित कर्मके उदयसे वत्तमान समयमें रागद्वेषादि उत्पन्न होते है और तत्कालमें जीवको जा लगन एवं आसक्ति होती है, वही नूतन बन्धका कारण बनती है । अतएव रागादिकी उत्पत्ति और कर्मबन्धको यह प्रक्रिया अनादि है । ___ सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मोके उदयसे होनेवाले रागादि भावोंको अपने ३२६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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