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लिखा, उससमय देवपालकी मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र जयतुंगदेव राजा था। इससे यह ध्वनित होता है कि देवपालकी मृत्यु वि० सं० १२९२ के पूर्व हो चुकी थी ।
इसप्रकार कविने अपने ग्रन्थका जो रचनाकाल बतलाया है उसकी पुष्टि हो जाती है । अतः कवि दामोदरका समय वि० सं० की १३ वीं शती है ।
रचना
दामोदरके नामसे कई रचनाएँ प्राप्त होती हैं। पर णेमिणाहचरिउकी प्रशस्ति में जो अपना परिचय दिया है उसका मेल श्रीपालकथा की प्रशस्तिसे नहीं बैठता है । अतएव णेमिणाहचरिउका रचयिता दामोदर श्रीपालकथाके रचयिता दामोदरसे भिन्न है ।
इस चरित-ग्रंथ में पांच सन्धिय है और २२वें तीर्थंकर नेमिनाथकी कथा गुम्फित है | प्रसंगवश कविने श्रीकृष्ण, पाण्डव और कौरवोंका भी जीवनवृत्त अंकित किया है । यह सुन्दर और अर्थपूर्ण खण्डकाव्य है । इसमें सूक्ति और नीति उपदेशों के साथ श्रावकधर्मका भी कथन आया है। इसी कारण कविने इस मिणाचरिउको दुर्गति - निवारक कहा है
"चविह संघहं सुहंसति करणु, मिसर- चरिउ बहुदुःख हरण | दुज्जीह जि किणि वय-गुणई लेहि, भवि-भाव-सिद्धि संभवउ तेहि ।"
यह चरित - काव्य आडम्बरहीन और गंभीर अर्थपरिपूर्ण है । कविने अपने गुरुका नाम दामोदर बताया है, जो गुणभद्रके पट्टधर शिष्य थे । पृथ्वीधरके पुत्र पं० ज्ञानचन्द्र और पं० रामचन्द्रने उपदेश दिया तथा जसदेवके पुत्र जसविधानने वात्सल्यका भाव प्रदर्शित किया था ।
दामोदर द्वितीय अथवा ब्रश दामोदर
ब्रह्म दामोदरने सिरिपालचरिउ और चंदप्पहचरिउकी रचना की है। इन्होंने ग्रंथारंभमें अपनी गुरु-परम्परा अंकित की है । बताया है
तोहि वद्दण पुष्णिमिदु, पहचंदु भडारउ जगि अणिदु । तो पट्टवर मंडल मियंकु, भव्वाण-पवोहणु बिहूय-संकु । सिरिपोमणदि गंदिय समोहु, सुहचंदु तासु सीसुवि विमोहु परवाइय-मयंग-पंचमुहु, परिपालिय-संजमणियम - विहु ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९५