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तह पट्टसरोवर राहं जिणचंदभारउ भुवणहंसु ।
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बंदिवि गुरुयण - वरणाणवंत, भत्तीइ पसण्णायर सुसंत ।
बताया है कि मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्द, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र और कवि दामोदर हुए। सिरिपालचरिउके पुष्पिकावाक्यमें कविने अपना नाम ब्रह्म दामोदर बताया है और इस ग्रंथको देवराजपुत्र साहू नक्षत्र नामांकित कहा है ।
"इय सिरिपालमहाराजचरिए जयपयडसिद्धचक्कपरमातिसर्यावसेसगुणणियर भरिए बहुरो र घोर दुयर वाहि-पसर - णिण्णासणे धम्मइंपुरि सत्यपयप्रयासणी भट्टारयसिरिजिणचन्दसामिसीसब्रह्मदामोयरविरइए सिरिदेवराजगंदण - साहुणक्खत्त-णामं किए सिरिपालराय मुस्तिगमणविहि यण्णणो णाम चउत्थो संधिपरिच्छेओ समत्तो ।"
कविने इस ग्रन्थको इक्ष्वाकुवंशीय देवराजसाहके पुत्र नक्षत्रसाहूके लिये रचा है | कविके गुरु जिनचन्द्र दिल्लीपट्टके भट्टारक थे। जिनचन्द्रकी उन दिनोंमें प्रभावशाली भट्टारकके रूपमें गणना थी । संस्कृत - प्राकृतके विद्वान् होनेके साथ ये प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां प्रायः सभी प्रान्तोंमें पायी जाती हैं। शान्तिनाथमूर्तिके अभिलेखसे अवगत होता है कि पद्मनन्दीके पट्टपर शुभचन्द्र और शुभचन्द्रके पट्टपर जिनचन्द्र आसीन हुए थे। जिनचन्द्र वि० सं० १५०७ में भट्टारकपदपर प्रतिष्ठत हुए और ६४ वर्षो तक अवस्थित रहे । उनके अनेक विद्वान् शिष्य थे, जिनमें पं० मेधावी और दामोदर प्रधान हैं ।
"सं० १५०९ वर्षे चैत्र सुदी १३ रविवासरे श्रीमूलसंचे भ० पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे श्रीशुभचन्द्रदेवाः तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रदेवाः श्रीथोपे ग्रामस्थाने महाराजाधिराजश्रीप्रतापचन्द्र देव राज्ये प्रवर्तमाने यदुबंशे लंबकंचुकान्वये साघुश्री उद्वर्ण तत्पुत्र असी । "
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" संवत् १५०७ ज्येष्ठ नदि ५ भ० जिनचंद्रजी गृहस्थवर्ष १२, दिक्षावर्ष १५, पट्टवर्ष ६४ मास ८ दिवस १७, अन्तरदिवस १०, सर्व वर्ष ९१ मास ८ दिवस २७ बघेरवालजातिपट्ट दिल्ली ।"
कविका स्थितिकाल पट्टावली, मूर्तिलेख एवं भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा लिखित ग्रन्थ-प्रशस्तियों आदिके आधार पर वि० की १६वीं शती है । ब्रह्म दामोदर दिल्लीकी भट्टारकगद्दीसे सम्बद्ध हैं और जिनचन्द्रके शिष्य है। अतः इनके समय - निर्णय में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है ।
कविकी 'सिरिपाल चरिउ' रचना काव्य और पुराण दोनों ही दृष्टियोंसे
१९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा