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फिर तिस समै बरम नै बीच । रूपचन्दको आई मीच ।
सुनि-सुनि रूपचन्दके बैन । बानारसी भयो दिढ़ जैन ॥ उक्त उद्धरणो भी ऐसा सवाल होता है कि पंडित रूपचन्द और पाण्डेय रूपचन्द अभिन्न व्यक्ति हैं । ये महाकवि बनारसोदागके गुरु हैं । बनारसीदास रूपचन्दका परिचय प्रस्तुत करते हए बताया है कि इनका जन्म-स्थान कोइदेशमें स्थित सलेमपुर था । ये गर्गगोत्री अग्रवाल कुलके भूषण थे। इनके पितामह्का माम भामह और पिताका नाम भगवानदास था । भगवानदासको दो पत्नियाँ थीं, जिनमे प्रथमसे ब्रह्मदास नामक पुत्रका जन्म हुआ और दूसरी पत्नोसे पाँच पुत्र हुए- १. हरिगज, २. भपति, ३. अभयराज, ४. कोर्तिचन्द, ५. रूपचन्द |
रह रूपचन्द्र ही रूपचन्द पाण्डेय हैं। भारतीय पंडित होनेके कारण इनकी उपाधि पाण्डेय थी। ये जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। और शिक्षा अर्जनहेतु बनारसकी यात्रा की थी। महाकवि बनारसोदासने इन्हों रूपचन्दको अपना गुरु बताया है और पाण्डेयशब्दसे उनका उल्लेख किया है।'
जब महाकवि बनारसीदासको व्यवसायके हेतु आगराको यात्रा करनी पड़ी थी और व्यापार में असफल होनेके कारण आगरामें उनका समय काव्यरचना लिखने और विद्वानोंको गोष्ठीमें सम्मिलित होने में व्यतीत होता था, तभी सं० १६९२में इनके गुरु पाण्डेयरूपचन्दका आगरा में आगमन हुआ।
सोलहसै बानबे लौं, कियो नियत रसपान । पै कवीसुरी सब सब भई, स्यावाद परवान । अगायास इस ही समय, नगर आगरे थान । रूपचन्द पंडित गुनी, आयो आगम जान ।
-अर्द्धकथानक पु० ५७, पद्य ६२९-६३० इन्होंने आगरा में तिहुना नामक मन्दिरमें डेरा डाला । उनके आगमनसे बनारसीदासको पर्याप्त प्रोत्साहन मिला | यहाँ इन्हीं पाण्डेयरूपचन्दसे कविने
१. अनेकान्त, वर्ष १०, किरण २ (अगस्त १९४७), पाण्डेयरूपचन्द और उनका साहित्य, पृ० ७७ ।
आय-बरस को हुऔ बाल 1 विद्या पढ़न गयो चरसाल ।। गुरु पांडेसो विद्या सिख । अक्खर पांच लेखा लिख ।।
-अर्घकथानक, पृ० १०।
२.
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२५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-गरम्परा