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गोम्मटसार-प्रन्यकी व्याख्या सुनी थी। सं० १६९४में पाण्डेयरूपचन्दको मृत्यु हो गई ।
श्री पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमीने रूपचम्बको पाण्डेयरूपचन्दसे भिन्न माना है। उन्होंने बताया है कि कवि बनारसीदासने अपने नाटकसमयसारमें अपने जिन पांच साथियोंका उल्लेख किया है। उनमें एक रूपचन्द भी हैं, जो पाण्डेय रूपचन्दसे भिन्न हैं । बनारसीदास इन रूपचन्दके साथ भी परमार्थको चर्चा किया करते थे। पर हमारी दृष्टिमें पंडित रूपचन्द और पाण्डेयरूपचन्द भिन्न नहीं हैं-एक ही व्यक्ति हैं। यही रूपचन्द बनारसीदासके गुरु हैं और बनारसीदास इनसे अध्यात्मचर्चा करते थे। स्थितिकाल
पाण्डेयरूपचन्दका समय बनारसीदासके समयके आसपास है । महाकवि बनारसोवासका जन्म सं० १६४३ में हुआ और पाण्डेय रूपचन्द इनसे अवस्थामें कुछ बड़े ही होंगे। बहुत संभव है कि इनका जन्म सं० १६४०के आसपास हुआ होगा। अर्धकथानकमें बनारसीदासने पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय वि०की १७वीं शती सुनिश्चित है। रूपचन्दने संस्कृत और हिन्दी इन दोनों भाषामि रचनाएं लिखी हैं । इन द्वारा संस्कृतमें लिखित समवशरणपूजा अथवा केवलज्ञान-चर्चा ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें पाण्डेय रूपचन्दने अपना परिचय प्रस्तुत किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित रचनाएँ अध्यात्म, भक्ति और रूपक काव्य-सम्बन्धी हैं । इन रचनाओंसे इनके शास्त्रीय और काव्यात्मक ज्ञानका अनुमान किया जा सकता है । पाण्डेयरूपचन्द सहज कवि हैं। इनकी रचनाओंमें सहज स्वाभाविकता पाई जाती है ।
१. परमार्थवोहाशतक या बोहापरमार्थ-इसमें १०१ दोहोंका संग्रह है। ये सभी दोहे अध्यात्म-विषयक हैं। कविने विषय-वासनाको अनित्यता, क्षणभंगुरता और असारताका सजीव चित्रण किया है । प्रत्येक दोहेके प्रथम चरण में विषयजनित दुःस्त्र तथा उसके उपभोगसे उत्पन्न असन्तोष और दोहेके दूसरे चरणमें उपमान या दृष्टान्त द्वारा पूर्व कथनकी पुष्टि की गई है । प्रायः समस्त दोहोंमें अर्थान्तरन्यास पाया जाता है।
विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाय । जिमि जल खारा पीव तइ, बाढ़इ तिस अधिकाय ॥४॥ विषयन सेवत दुःख बढ़इ, देखहु किन जिन जोइ । खाज खुजावत ही भला, पुनि दुःख इनउ होय ॥९॥
आचार्यतुल्य काम्यकार एवं लेखक : २५७