________________
सेवल ही जु मधुर विषय, करुए होंहि निदान । विषफल मोठे खातके, अंतहि हरहि परान ||११||
विषय-सुखोंकी निस्सारता दिखलानेके पश्चात् कवि सहज सुखका वर्णन करता है, जिसके प्राप्त होते आत्मा निहाल हो जाती है। यह सहज सुख स्वात्मानुभूतिरूप है । जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण, पुष्प में गन्ध, तिल में तैल व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा प्रत्येक घटमें विद्यमान है। जो व्यक्ति जड़-चेतनका परिज्ञानी है, जिसने दोनों द्रव्योंके स्वभावको भली प्रकार अवगत कर लिया है, वही व्यक्ति ज्ञानदर्शन- चैतन्यात्मक स्वपरिणतिका अनुभचकर सहज सुखको प्राप्त कर सकता है। कविने सहज सुखको विवेचित करते हुए लिखा हैचेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ ।
उसासा ॥३०॥
२. गीत परमार्थी अथवा परमार्थगीत - यह एक छोटी-सी कृति है । इसमें १६ पद्य हैं और सभी पद्य आध्यात्मिक हैं । जीवनको सम्बोधन कर उसे रागद्वेष- मोहसे पृथक रहनेकी चेतावनी दी गई है । आत्माका वास्तविक स्वरूप सत्, चित् आनन्दमय है। इस स्वरूपको जीव अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण भूल जाता है और रागद्वेषरूपी विकृतिको ही अपना निजरूप मान लेता है । इस विकारसे दूर रहनेके लिए कवि बार-बार चेतावनी देता है । पहला पद निम्न प्रकार है-
चेतन हो चेत न चेतक गाफिल होइ न कहा रहे
काहिन हो । विधिवस हो || "चेतन हो ॥१॥
,
३. अध्यात्म सवैया - १०१ कवित्त और सवेया छन्दोंका यह संग्रह है । जैन सिद्धान्त भवन आराकी हस्तलिखित प्रतिमें इसे रूपचन्द- शतक कहा गया है । समस्त छन्द अध्यात्मपूर्ण है । जीवन जगत् और जीवको वर्त्तमान विकृत अवस्थाका चित्रण इन सर्वेयोंमें पाया जाता है । कविने लिखा है कि यह जीव महासुखकी शय्याका त्यागकर क्षणिक सुखके प्रलोभन में आकर संसार में भटकता है और अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करता है। मिथ्यात्व - आत्मानुभवसे बहिर्मुख प्रवृत्ति - का निरोध समतारसके उत्पन्न होनेपर ही प्राप्त होता है । यह समता आत्माका निजी पुरुषार्थ है । जब समस्त परद्रव्यों के संयोगको छोड़ आत्मा अपने स्वरूप में विचरण करने लगता है, तो समतारसकी प्राप्ति होतो है 1 कविने इस समतारसका विवेचन निम्न प्रकार किया है
२५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्पर