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भूल गयो निज सेज महासुख, मान रह्यो सुख सेज पराई। आस-हुतासन तेज महा जिहि, सेज अनेक अनन्त जराई। . कित पूरी भई जु मिथ्यामतिकी इति, भेदविज्ञान घटा जु भराई । उमग्यो समितारस मेघ महा. जिह वेग हि आस-तास सिराई ॥८२॥ यदि आत्मा मिथ्या स्थितिको दूर कर समतारसका पान करने लगे, तो उसे अपनेमें परमारमाका दर्शन हो सकता है, क्योंकि कर्म आदि परसंयोगी हैं । जिस प्रकार दूध और पानी मिल जानेपर एक प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें उनका गुण-धर्म पृथक-पृथक है । जो व्यक्ति द्रव्य और तत्वोंके स्वभावको यथार्थ रूपमें अवगत कर निको रूपका अनुभव करता है उसका उत्थान स्वयमेव हो जाता है। यह सत्य है कि उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक उस आत्मतत्त्वकी प्राप्ति निजानुभूतिसे ही होती है और उसीसे मिथ्यात्वका क्षय भी होता है। कविने उक्त तथ्यपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है :काहू न मिलायो जाने करम-संजोगी सदा,
छोर नीर पाइयो अनादि हीका धरा है। अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे,
न्यारे पर भाव परि आप हीमें धरा है । काइ भरमायो नाहिं भम्यो भूल आपन ही,
___ आपने प्रकास के विभाव भिन्न घरा है। साचे अविनासी परमातम प्रगट भयो,
नास्यो है मिथ्यात वस्यो वहाँ ग्यान धरा है ।।९५।। ४. खटोलनागीत-खटोलनागोस छोटी-सी कृति है। इसमें कुल १३ पट हैं। यह रूपक काव्य है। कविने बताया है कि संसाररूपी मन्दिरमें एक खटोला है, जिसमें कोचादि चार पग हैं। काम और कपटका सिरा है और चिन्ता और रतिकी पाटी है । यह अविरतिके बानोंसे बुना है और उसमें आशाकी आइवाइन लगायी गयी है। मनरूपी बढ़ईने विविध कर्माको सहायतासे उसका निर्माण किया है। जीवरूपी पथिक इस खटोलेपर अनादिकालसे लेटा हा मोहकी गहरी निद्रामें सो रहा है। पांच पापरूपी चोरोंने उसकी संयमरूपी संपत्तिको चुरा लिया है। मोहनिद्राके भंग न होनेके कारण ही यह आत्मा निर्वाण-सुखसे वंचित है। वीतरागी गुरु या तीर्थकरके उपदेशसे यह कालरात्रि समाप्त हो सकती है और सम्यक्त्वरूपी सूर्य का उदय हो सकता है । कविने इस प्रकार शरीरको खटोलाका रूपक देकर आध्यात्मिक सत्त्वोंका विवेचन किया है । पद्य बहुत ही सुन्दर और काव्यचमत्कारपूर्ण है। उदाहरणार्य कुछ पंक्तियाँ उद्धृत को जाती हैं
आचार्यतुष्य काव्यकार एवं लेखक : २५९