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भव रतिमंदिर पौठियो, खटोला मेरो, कोपादिक पग चारि । काम कपट सीरा दोऊ, चिन्ता रति दोष पाटि ॥१॥ अविरति दिन बार्नानि बुनो, मिथ्या माई विसाल । आशा - अडवाइनि दई, शंकादिक वसु
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राग-द्वेष दोउ गडवा, कुमति सुकोमल सौरि । नीच - पथिक तह पोलियो, परपरिणति संग गौरि ॥४॥
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५. स्फुट पर – रूपचन्द
उपल हो चुके हैं। ये भी पद भक्तिरससे पूर्ण हैं । कविने अपने आराध्य की भक्ति करते हुए उसके रूप-लावण्यका विवेचन किया है । कवि एक पदमें अपने आराध्य के मुखको अपूर्वं चन्द्रमा बसलाता है और इस अपूर्वं चन्द्रमा की तर्क द्वारा पुष्टि करता है—
संतत
प्रभु मुख चन्द अपूरब तेरौ । सकल-कला-परिपूरन,
पारे तुम सिहुँ जगत उरो || प्रभु || १|| निरूप-राग निरदोष निरंजन,
निरावरनु जड जाड्य निवेरी ॥
कुमुद विरोषि कृसी कृतसागरु,
अहि निसि अमृत श्रवे जु घनेरो || प्रभु ||२|| उदे अस्त बन रहितु निरन्तरु,
सुर नर मुनि आनन्द जनेरी ॥
रूपचन्द इमि नेतन देखति,
हरषित मन चकोर भयो मेरो || प्रभु० ||३|| ६. पचमङ्गल या मङ्गलगीतप्रबन्ध - इस रचनासे प्रायः सभी लोग सुपरिचित हैं । कविने तीर्थंकरके पञ्चकल्याणकों की गाथा काव्यरूपमें निबद्ध की है।
जगजीवन
आगरा निवासी जगजीवन अग्रवाल जैन थे। इनका गोत्र गगं था । इनके पिताका नाम अभयराज और माताका नाम मोहनदे था। ये अभयराज जाफरखाँके दीवान थे, जो बादशाह शाहजहाँका पाँच हजारी उमराव था । जगजीवन अध्यात्मशैली के कवि थे । पण्डित हीरानन्दने वि० सं० १७०१ में समवशरण
२६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा