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श्वसर थे। जिस समय छोटका थान छापने बैठते थे, उस समय चौकीपर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और आत्मानुशासन ग्रंथोंको विराजमान कर लेते थे और छापनेके कामके साथ-साथ ७०-८० श्लोक या गाथाएं भी कण्ठान कर लेते थे।
वि० सं० १८८२में मथुरा निवासी सेठ मनीरामजी पं० चम्पालाजीके साथ हाथरस आये और उक्त पण्डितजीको गोम्मटसारका स्वाध्याय करते हुए देखकर बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने साथ मथुरा लिवा ले गये। वहां कुछ दिन तक रहने के पश्चात् आप सासनी या लश्करमें आकर रहने लगे।
कविके दो पुत्र हुए। बड़े पुत्रका नाम टीकाराम था । इनके वंशज आजकल भी लश्करमें निवास करते हैं।
कहा जाता है कि कविको अपनी मृत्युका परिज्ञान अपने स्वर्गवाससे छ: दिन पहले ही हो गया था । अतः उन्होंने अपने समस्त कुटुम्बियोंको एकत्र कर कहा-"आजसे छठवें दिन मध्याह्नके पश्चात् मैं इस शरीरसे निकलकर अन्य शरीर धारण करूगा । अत: आप सबसे क्षमायाचना कर समाधिमरण ग्रहण करता हूँ।" सबसे क्षमायाचना कर संवत् १९२३ मार्गशीर्ष कृष्ण-अमावस्याको मध्याह्नमें दिल्ली में अपने प्राणोंका त्याग किया था।
कविवरके समकालीन विद्वानोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचारके वचनिकाकर्ता पं० सदासुख, बुधजन विलासके कर्ता बुधजन, तीस-चौबीसी आदि कई ग्रंथोंके रचयिता वृन्दावन, चन्द्रप्रभकाव्यकी वनिकाके का तनसुखदास, प्रसिद्ध भजनरचयिता भागचन्द्र और पं० बख्तावरमल आदि प्रमुख हैं। रचनाएँ ___ इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-१. छहढाला और २. पदसंग्रह । छहढालाने तो कविको अमर बना दिया है। भाव, भाषा और अनुभूतिको दृष्टिसे रचना बेजोड़ है । जैनागमका सार इसमें अंकित कर 'गागरमें सागर' भर देनेको कहावतको चरितार्थ किया है । इस अकेले ग्रंथके अध्ययनसे जैनागमके साथ परिचय प्राप्त किया जा सकता है।
पदसंग्रहमें विविध प्रवृत्तियोंका विश्लेषण किया गया है। कवि कहता है कि मनको बुरी आदत पड़ गयी है, जिससे अनादिकालसे विषयों की ओर दौड़ता रहता है। कवि कहता है--
हे मन, तेरी कुटेव यह, करन-विषयमें घावै है । टेक ॥ इन्हींके वश तू अनादि तै, निज स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छिन समाकुल, दुरगति-विपति चखा है ॥ हे० मन० ॥१॥
आचार्यसुल्य काध्यकार एवं लेखक : २८९