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________________ फरस-विषयके कारण वारन, गरत परत दु:ख पाये है। रसना इन्द्रीवश झख जलमें, कंटक कंठ छिदाचे है । हे मन ॥२।। इनके पद विषयको दृष्टिसे १. रक्षाकी भावना, २. आत्म भर्त्सना, ३. भयदर्शन, ४. आश्वासन, ५. चेतावनी, ६. प्रभस्मरणके प्रति आग्रह, ७. आत्मदर्शन होनेपर अस्फुट वचन, ८. सहज समाधिको आकांक्षा ९ स्वपदकी अकांक्षा, १०. संसार विश्लेषण, ११. परसत्त्वबोधक और १२. आत्मानन्द श्रेणीमें विभक्त किये जा सकते हैं। __ भर्त्सना विषयक पदोंमें कविने विषय-वासनाके कारण मलिन हुए मनको फटकारा है तथा कवि अपने विकार और कषायोंका वाच्चा चिदा प्रकट कर अपनी आत्माका परिकार नग्मा चाहता है । भयदर्शन सम्बन्धी पदोंमें मनको भय दिखलाकर आत्मोन्मुख किया गया है । कवि आत्मानुभूतिकी ओर झुकता हुआ कहता है मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी ।। भोग भुजंग भोग सम जानो, जिन इनसे रति जोरी। ते अनन्त भव-भीम भरे दुख, परे अधोगति खोरी, बँधे दृढ़ पातक डोरी । मान ले०॥ इस प्रकार कवि दौलतरामके पदोंमें भावावेश, उन्मुक्त प्रवाह, आन्तरिक संगीत, कल्पनाको तूलिका द्वारा भावचित्रोंको कमनीयता, आनन्द विह्वलता, रसानुभूतिको गम्भीरता एवं रमणीयताका पूरा समन्वय विद्यमान है । पण्डित जयचन्द छाबड़ा हिन्दी जैन साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानोंमें पण्डित जयचन्दजी छाबड़ाका नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिकी हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिचय अंकित किया है-- काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव में सुखकार | जन्म फागई लयो सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि । पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तण मकरंद। द्रव्य दृष्टि में देखें जबे, मेरा नाम आतमा कबै ।। गोत छाबड़ा धावक धर्म, जामें भलो क्रिया शुभकर्म । ग्यारह वर्ष अवस्था मई, तब जिन मारगकी सुधि लही ।। २०.० : तीर्थंकर महात्री र उनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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