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________________ पुरुदेव चंपूका अन्तिम पद्य farmaise मम मानसेऽस्मिन् आशाघरोक्तिकतकप्रसरे प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्वंपूदंभजलजेन समुज्जजम्भे ॥ कविप्रशस्ति अर्थात् मेरा यह मानसरूप सरोबर मिध्यात्वरूपी कीचड़से कलुषित था । आशाधरकी उक्तिरूपी निर्मलीके प्रभाव से जब वह निर्मल हुआ तो ऋषभदेवकी भक्ति प्रसन्न हुई शरद् ऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पूरूप कमल विकसित हुआ । इन पद्योंसे इतना ही स्पष्ट होता है कि आशाधरकी उक्तियोंसे उनकी दृष्टि या मानस निर्मल हुआ था पर वे आशावर के समकालीन थे या उत्तरकीलीन थे, इस पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। भव्यजनकण्ठाभरण में एक ऐसा पद्य आया है, जो कुछ अधिक प्रकाश देता है सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्याश्चरितात्मधर्माः । तएव शेषाश्रमिणां साहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः || २३६|| आचार्य उपाध्याय और साधुका स्वरूप बतलाने के पश्चात् ग्रन्थकार कहते हैं कि उन आचार्य आदिको सूक्तियोंके द्वारा ही जो संसारसे भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रम में रहते हुए आत्मधर्म का पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचयं, बानप्रस्थ और सात्रु आश्रम में रहने वालोंकी सहायता करते है वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य है । इस पद्य में प्रकारान्तरसे आशावर की प्रशंसा की गई है मोर बताया गया हैं कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी वे जैनधर्मका पालन करते थे तथा अन्य आश्रमवासियोंकी सहायता भी किया करते थे । इस पद्यमें आशाधरकी जिस परोपकारवृत्तिका निर्देश किया गया है उसका अनुभव कविने संभवत: प्रत्यक्ष किया है और प्रत्यक्षमें कहे जाने वाले सवचन भी सूक्ति कहलाते हैं । अतएवं बहुत संभव है कि अद्दास आशा धरके समकालीन हैं। अतएव अर्हद्दासका समय वि० सं० १३०० मानना उचित ही है। यदि अद्दासको आशाधरका समकालीन न मानकर उत्तरकालीन माना जाय तो उनका समय वि० की १४वीं शतीका प्रथम चरण आता है । रचनाएँ अद्दासकी तीन रचनाएं उपलब्ध हैं - १. मुनिसुव्रतकाव्य, २. पुरुदेव - चम्पू और ३. भव्यजनकण्ठाभरण | ५०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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