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मुनिसुव्रतकाव्य
इस महाकाव्य में २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की कथा वर्णित है । कविने १० समें काव्यको समाप्त किया है । कथा मूलतः उत्तरपुराणसे गृहीत है । afat कथानकका मूलरूपमें ग्रहणकर प्रासंगिक और अवान्तर कथाओंकी योजना नहीं की है । काव्यमें शृंगारभावनाका आरोप किये बिना भी मानवजीवनका सांगोपांग विश्लेषण किया है ।
काव्यके इस लघु कलेंवरमें विविध प्राकृतिक दृश्योंका चित्रण भी किया गया है । मगधदेशकी विशेषताओं को प्रकृतिके माध्यम द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कहा है-
नगेषु यस्योन्नतदेशजाताः सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः ।
भव्या भवन्त्याप्तगुणाभिरामा मुक्ताः सदा लोकशिरोविभूषाः ||१|२४|| तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपद्मच्छदला छितानि । पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजुः कांचीपदानीव नखाञ्चितानि ॥ १२६ ॥
मगधके उत्तरी भाग में फैली हुई पर्वतश्रेणीपर विविध वृक्ष, मध्य भागमें लहलहाते हुए जलपूर्ण खेत और उनमें उत्पन्न रक्तकमल दर्शकों के चित्तको सहज में हो आकृष्ट कर लेते हैं। राजगृहके निरूपण प्रसंग में विविध वृक्ष- लता - कमलोंसे परिपूर्ण सरोवरोंके रेखाचित्र भी अंकित किये गये ।
द्वितीय पद्यमें बताया है कि वृक्ष-पंक्ति से युक्त नदियों के सुन्दर विकसित कमलपत्रोंसे चिह्नित विस्तृत पुलिन नायिकाके नखक्षत जघनके समान सुशोभित होते हैं । वाटिकाओंके वृक्षों और क्रीड़ापर्वतोंपर स्नान करनेवाली रमणियों का चित्रण करते हुए कविने लिखा है
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बहिर्वने यत्र विधाय वृक्षारोहं परिष्वज्य समर्पितास्याः || कृताधिकाराइव कामतंत्रे कुर्वन्ति संग विटपेतत्यः ॥ १३८ ॥ आरामरामाशिरसीव केलिले लताकुन्तलमासि यत्र ॥ सकुङ्कुमा निवारिधारा सोमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ॥ १ ॥ ३५९ || राजगृह के बाहरी उपवनोंमें वृक्षोंपर चढ़ी हुई लतायें काम-शास्त्रमें प्रवीण उपपतियोंका आलिंगन तथा चुम्बन करती हुई कामिनियोंके समान जान पढ़ती हैं ।
जिस राजगृहमें स्त्रीरूपिणी वाटिकाओं में उनके मस्तक के समान वेणी रूपिणी लताओंसे मंडित क्रीडापर्वतोंपर स्त्रियोंके स्नान करनेसे कुंकुममिश्रित जलवारा - झरने से गिरती हुई सीमन्तके सिन्दूर के समान शोभित थी ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५१