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कविने उक्त दोनों पद्योंमें प्रकृतिका मानवीकरण कर मनोरम और मधुर रूपोंको प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षाजन्य चमत्कार दोनों ही पद्योंमें वत्तंमान है।
दशम सगमें जिनेन्द्र-सान्निध्यसे नीलीवनके अशोकसत्रच्छद, धम्पक, आम्र आदि वृक्षोंका क्रमश: सुन्दरी स्त्रियोंके चरणघात, चाटुवाद, छाया, कटाक्ष आदिके बिना ही पुष्पित होना वर्णित है। कविने यहीं काव्यरूढ़ियोंका भी अतिक्रमण किया है।
आलम्बनरूपमें प्रकृतिचित्रण करते हुए कविने वर्षाकालमें मेघगर्जन, हंसशावकों और वियोगीजनोंके कम्पित होने, सोंके बिलसे निकलने, मयूरोंके नत्यमग्न होने एवं चातकोंके अधरपुटके उन्मीलित होनेके वर्णन द्वारा वर्षाकालीन प्रकृतिका भव्यरूप उपस्थित किया है।'
पातिमें मानदीप प्रधान र सानोदे भी शुदा उदाहरण आये हैं। हेमन्त वर्णन-प्रसंगमें प्रातःकालीन बिखरे हुए ओस-बिन्दुओंसे सुशोभित, लताओंसे लिपटे हुए और उनके गुच्छोंरूपी स्तनोंका आलिंगन किये हुए वृक्षोंपर संभोगान्तमें निस्सृत श्वेतकणोंसे युक्त युवकोंका आरोप स्वभावतः उद्दीपक है।
वर्षाकालमें नायक और आकाशमें नायिकाका आरोपकर गाढ़ालिंगनका सरस वर्णन प्रस्तुत किया गया है | आकाश-नायिकाके स्तनप्रदेशपर स्थित माला टूट जाती है, जिससे उसके मोती और मूंगे इन्द्रबधूटो और ओलोंके रूपमें बिखरे हुए दीख पड़ते हैं।'
कविने वसुधामें वात्सल्यमयी माताका आरोप कर भावोंकी सूक्ष्म अभिथ्यञ्जना की है। माता अपने पुत्रों-वृनोंका अत्याचारी सूर्यसंतापसे रक्षण करनेके हेतु उसके सामने दाँत निकालकर गिड़गिड़ा रही हैप्रासादचैत्यपरिखालतिकाद्रुमक्षमा जाता ध्वजकुजहयंगणक्षमाश्च । पीठानि चेति हरसंख्यभुवस्सदंतरेकांतकेलिसदनं जिनबोधलक्ष्म्याः ।।१।१०।।
इस प्रकार इस काव्य में कविने कल्पनाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा संदर्भाशोंको चमत्कारपूर्ण और सरस बनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या,
१. मुनिसुव्रतकाव्य ९।१३ । २. बही ९।२८ । ३. बही ९२२ ।
५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा