SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतो याले तस्मिन जगदनि शून्य जनिभृतां मनो-मोह-ध्वान्तं मत-बलमपूर्यप्रतिहत व्यदीप्युद्यच्छोको नयन-जल-मुष्णं विरचयन् वियोगः किं कुर्य्यादिह न महतां दुस्सहतरः |७३।। पादा यस्य महामुनेरपि न कै भृच्छिरोभिता वृत्तं सन्न विदांवरस्य हृदयं जग्राह कस्यामलं । सोऽयं श्रीमुनि-भानुमान विधिवशादस्त प्रयातो महान यूयं तद्विधिमेव हन्त तपसा हन्तुं यतध्वं बुधाः ॥७४।। यत्र प्रयान्ति परलोकमनिन्द्यवृत्ता स्स्थानस्य तस्य परिपूजनमेव तेषां । इज्या भवेदिति कृताकृतपुण्य राशेः स्थेयादित्यं श्रुतमुनेस्सुचिरं निषद्या ।।७५।। इशु-गर-शिखि-विधु-मित्त-शक परिधावि-शरद्वितीयगाषाढ़े सित-नवमि-विधु-दिनोदयजुषि सविशाखे प्रतिष्ठितेयमिह ।।७६|| विलीन-सकल-क्रियं विगत-रोधमत्यूजितं विलसित-तमस्तुला-विरहितं विमुक्ताशयं । अवाङ्-मनस-गोचरं विजित-लोक-शक्त्यग्रिम मदीय-हृदयेऽनिशं वसतु धाम दिव्यं महत् ॥७७|| प्रबन्ध-ध्वनि-सम्बन्धात्सद्भागोत्पादन-क्षमा । मंगराज-कवाणी वाणीवीणायतेतरां ।।७८|| भाषानुवाद १. कुशासनका विध्वंस करनेवाला मुक्तिलक्ष्मीका एक शासन और अजेय है माहात्म्य जिसका, ऐसा समुज्ज्वल जैन शासन जयशाली होवे । २. सब सुखोंका मूल और सब प्रकारके आतंकों (मनोवेदनाओं)को दुर करनेवाली प्रकाशमय ज्योति हमारे हृदयमें फैले। ३. रलत्रयके प्रकाश करनेवाले, मूर्खता हटानेवाले, विविध नयके विवेचक और स्याद्वाद-सुधासे वितृप्त ये तीर्थकर हमारे हृदयमें विराजमान होवें। ४. त्रिभुवनमें विख्यात अन्तिम तीर्थनाथ श्री वर्धमानस्वामी हुए। इनकी देहकी कान्तिने सभी सृष्टिको प्रकाशित कर दिया | ४१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy