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गया है । द्वैत-अद्वेतसमीक्षा के अनन्तर सर्वज्ञ - सिद्धि, स्याद्वादसिद्धि, सप्तभगी आदिका विचार किया गया है । निश्चयतः जैन लेखकोंकी प्रमाणमीमांसा भारतीय प्रमाणमीमांसा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है ।
व्याकरणविषयक देन
जैनाचार्योंने भाषाको सुव्यवस्थित रूप देनेके लिए व्याकरणग्रन्थोंकी रचना की है। आचार्य देवनन्दिने अपने शब्दानुशासन में श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्र इन छः वैयाकरणोंके नाम निर्दिष्ट किये हैं । देवनन्दिने जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना कर कुछ ऐसी मौलिक बाते बतलायी हैं, जो अन्यत्र प्राप्त नहीं होतीं । उन्होंने लिखा है - "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः (१|११९९ ) शब्द स्वभावसे ही एकशेषकी अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व और बहुत्वमें प्रवृत्त होता है। अतः एकशेष मानना निरथंक है । यही कारण है कि इनका व्याकरण 'अकोष' कहलाता है । इन्होंने शब्दोंकी सिद्धि अनेकान्त द्वारा प्रदर्शित की है - "सिद्धिरनेकान्तात्"
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अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्न प्रभृति नाना धर्मोसे विशिष्ट धर्मी रूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही संभव है । इस प्रकार देवनन्दिने अपने मौलिक विचार प्रस्तुत कर अनेक धर्मविशिष्ट शब्दों का साधुत्व बतलाया है ।
जैनेन्द्र व्याकरणपर अभयनन्दिकृत महावृत्ति, प्रभाचन्द्र कृत शब्दांभोजभास्करन्यास, श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तु क्रिया और पण्डित महाचन्द्रकृत वृत्ति, ये चार टीकाएँ प्रसिद्ध हैं ।
यापनीय संघ के आचार्य पाल्यकीर्तिने शाकटायनव्याकरणकी रचना की । इस व्याकरणपर सात टीकाएँ उपलब्ध है । अमोधवृत्ति, शाकटायनन्यास, चिन्तामणि, मणिप्रकाशिका, प्रक्रिया संग्रह, शाकटायनटीका और रूपसद्धि । ये सभी टीकाएँ महत्त्वपूर्ण हैं । चिन्तामणिके रचयिता यक्षत्रम हैं और शाकटायनन्यास के प्रभाचन्द्र। प्रक्रिया-संग्रहको अभयचन्द्रने सिद्धान्तकौमुदीको पद्धतिपर लिखा है । दयापाल मुनिने लघुसिद्धान्तकौमुदीकी शैलीपर रूपसिद्धिकी रचना की है । कालरूपमालाके रचयिता भावसेन अविद्य हैं | शुभचन्द्रने चिन्तामणिनामक प्राकृतव्याकरण लिखा है | श्रुतसागरसूरिका भी एक प्राकृतव्याकरण उपलब्ध है।
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विषयक साहित्य में धनञ्जयकी नाममाला ही सबसे प्राचीन है । इसके अतिरिक्त अनेकार्थनाममाला और अनेकार्थनिघंटु भी इन्होंके द्वारा रचित
३३ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा