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________________ शान, प्रमाण और प्रमाणाभासको व्यवस्था बाह्य अर्थके प्रतिभास होने और प्रतिभासके अनुसार उसके प्राप्त होने और न होनेपर निर्भर है । इन आचार्योंने आगमिक क्षेत्रमें तत्वज्ञानसम्बन्धी प्रमाणकी परिभाषाको दार्शनिक चिन्तनक्षेत्रमें उपस्थित कर प्रमाणसम्बन्धी सूक्ष्म चर्चाएँ निबद्ध की हैं। प्रमाणता और अप्रमाणताका निर्धारण बाह्य अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बन्ध रखता है। आचार्य अकलंकदेवने अविसंवादको प्रमाणप्ताका आधार मानकर एक विशेष बात यह बतलाई है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अनमाणसापी को स्थिति है। कोई भी शान एकान्तसे प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । इन्द्रियदोषसे होनेवाला द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांशमें अविसंवादी होने के कारण प्रमाण है, पर द्वित्व अंशमें विसंवादी होनेके कारण अप्रमाण । इस प्रकार अकलंकने ज्ञानकी एकांतिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं किया है, यतः इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति पूर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती | स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियोंके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भी होता है। यही कारण है कि आगमिक परम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्र तज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष ही कहा गया है। प्रामाण्य और अप्रामाण्यकी उत्पत्ति परसे ही होती है, ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः और अनभ्यासदशामें परतः हुआ करती है । जिन स्थानोंका हमें परिचय है उन जलाशयादिमें होनेवाला ज्ञान या मरीचि-ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता बता देता है, किन्तु अनिश्चित स्थानमें होनेवाले जलज्ञानकी प्रमाणताका ज्ञान अन्य अविनाभावी स्वत: प्रमाणभूत ज्ञानोंसे होता है। इस प्रकार प्रमाण और प्रामाण्यका विचार कर तदुपत्ति, तदाकारता, इन्द्रियसन्निकर्ष, कारकमाकल्य आदिको विस्तारपूर्वक समीक्षा की है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोके भेदोंका प्रतिपादन कर अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण-भेदोंकी समीक्षा की गयी है। अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रहमें श्रुतके प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक और आगमनिमित्तक ये तीन भेद किये हैं। परोपदेशसे सहायता लेकर उत्पन्न होनेवाला श्रुतै प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेश सहित हेतुसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगमनिमित्तक श्रुत है । प्रमाणचिन्तनके पश्चात् प्रमाणाभासोंका विचार किया .- -.... -.. १. श्रुतमविप्लवं प्रत्यक्षानमानागमनिमित्तम्-प्रमाणसंग्रह, पृ. १ । आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३३७
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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