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उसका परिणाम सुख एवं समृद्धि है । इस प्रकार सुख एवं दुःस्त्र प्राप्तिको दृष्टिसे संसारी आत्मा पापको छोड़ता है और पुण्यको ग्रहण करता है, किन्तु विवेकशील ज्ञानी आत्मा विचार करता है कि जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी एक प्रकारका बन्धन है। यह सत्य है कि पुण्य हमारे जीवन-विकासमें उपयोगी है, सहायक है। यह सब होते हए भी पूण्य उपादेय नहीं है, अन्ततः वह हेय ही है । जो हेय है, वह अपनी वस्तु कैसे हो सकती है ? आस्रव होनेके कारण पुण्य भी आत्माका विकार है, वह विभाव है, आत्माका स्वभाव नहीं । निश्चयदृष्टिसम्पन्न आत्मा विचार करता है कि संसारमें जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका कर्ता कोई पदार्थ नहीं । जैसे कुम्भकार घट बनानेरूप अपनी क्रियाका कर्ता व्यवहार या उपचार मात्रसे है। वास्तवमें घट बननेरूप क्रियाका कर्ता घट है। घट बननेरूप क्रियामें कुम्मकार सहायक निमित्त है, इस सहायक निमित्तको ही उपचारसे कर्त्ता कहते हैं । तथ्य यह है कि कर्ताके दो भेद हैं-परमार्थ कर्ता और उपचरित कर्ता क्रियाका उपादान कारण ही परमार्थ कर्ता है, अतः कोई भी क्रिया परमार्थ कर्ताके बिना नहीं होती है। भारत माता अपने ज्ञान, दर्शन आदि चेतनभावोंका ही कर्ता है, राग-द्वेष-मोहादिका नहीं। आचार्य नेमिचन्द्रने बताया है
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता चबहारदो दुणिच्छयदो ।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।' व्यवहारनयसे आत्मा पुद्गलकर्म आदिका कर्ता है, निश्चयसे चेतनकर्मका, और शुद्धनयकी अपेक्षा शुद्ध भावोंका कर्ता है ।
तथ्य यह है कि जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके साथ बन्धको प्राप्त होता है, उस समय उसका अशुद्ध परिणमन होता है। उस अशद्ध परिणमनमें दोनों द्रव्योंके गुण अपने स्वरूपसे च्युत होकर विकृत भावको प्राप्त होते हैं। जीवद्रव्यके गुण भी अशुद्ध अवस्थामें इसी प्रकार विकारको प्राप्त होते रहते हैं। जीवद्रव्यके अशुद्ध परिणमनका मुख्य कारण वैभाविकी शक्ति है और सहायकनिमित्त जीवके गुणोंका विकृत परिणमन है। अतएव जीवका पुद्गलके साथ अशुद्ध अवस्थामें ही बन्ध होता है, शुद्ध अवस्था होनेपर विकृत परिणमन नहीं होता । विकृत परिणमन ही बन्धका सहायकनिमित्त है । प्रमाण और अप्रमाण विषयक वेन __ प्रमाणके क्षेत्रमें सारस्वताचार्य और प्रबुद्धाचार्योने विशेष कार्य किया है। १. द्रव्यसंग्रह, गाथा ८।
३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा